कल बंगलोर फ़िल्म फेस्टिवल का समापन था .कुछ अपरिहार्य कारणों ने मुझे रोक दिया...वरना मैं जरूर जाती। गुलाबी टाकीस देखने का मेरा बड़ा मन था। और कुछ और भी अच्छी फिल्में आ रही थी ।
बरहाल...वही होता
मुझे आश्चर्य लगा ये देखकर कि हॉल लगभग हाउसफुल था, मुश्किल से कुछ ही सीट खाली होंगी। मैंने नहीं सोचा था कि बंगलोर में ऐसे फिल्मों के लिए भी दर्शक मौजूद हैं। ये मेरा किसी फ़िल्म फेस्टिवल का पहला अनुभव था, और पहली बार अकेले फ़िल्म देखने का भी। दोनों अनुभव अच्छे रहे मेरे :) तो मैं निश्चिंत हूँ, कि फ़िर से कहीं ऐसा हो तो मैं जा सकती हूँ। फ़िल्म देखने वाले लोगों में महिलाएं भी बहुत थी और बाकी की भीड़ में कॉलेज स्टुडेंट से लेकर वयोवृद्ध पुरूष और महिलाएं भी दिखी। इतने सारे लोगों के बीच होना भी अच्छा लगा। बहुत दिन बाद फ़िर से लगा कि IIMC के दिन लौट आए हैं, जैसे इस वक्त कोई फ़िल्म देख कर निकलते थे तो लगता था कि कुछ तो अलग है...ये सोच कर भी मज़ा आता था कि इन लोगो के दिमाग में क्या चल रहा होगा।
आज एक फिल की चर्चा करना चाहूंगी...फ़िल्म बंगलादेश की थी...नाम था रुपान्तर. फ़िल्म में एक डाइरेक्टर एकलव्य पर एक फ़िल्म बना रहा है, गुरुदक्षिणा, कहानी जैसा कि हम सभी जानते हैं महाभारत काल की है और द्रोणाचार्य के एकलव्य के अंगूठे को गुरुदक्षिणा के रूप में मांगने की है. डायरेक्टर शूट करने एक संथाल गाँव के पास की लोकेशन पर जाता है, वहां शूटिंग देखने गाँव से कई लोग आए हुए हैं. पर जब शूटिंग शुरू होती है और एकलव्य तीर चलाता है तो लोग प्रतिरोध करते हैं और कहते हैं कि उसका तीर पकड़ने का तरीका ग़लत है, तीर को अंगूठे और पहली अंगुली नहीं, पहली ऊँगली और बीच की ऊँगली से पकड़ते हैं. यह सुनकर डायरेक्टर चकित होता है और इस बारे में रिसर्च करता है. वह पाता है कि वाकई तीरंदाजी में अंगूठे का कोई काम ही नहीं है. इससे उसकी पूरी कहानी ही गडबडाने लगती है...और शूटिंग रुकने वाली होती है.
शाम को इसी समस्या पर यूनिट के लोग भी मिल कर चर्चा करते हैं , पुराने ग्रंथों में भी कहीं भी तीर को कैसे पकड़ते हैं के बारे में जानकारी नहीं है. इस चर्चा के दौरान एक लड़की सुझाव देती है कि हो सकता है समय के साथ तीरंदाजी करने के तरीकों में बदलाव आया हो, उसकी ये बात निर्देशक को ठीक लगती है और वह उसपर सोचने लगता है. और आख़िर में इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि हो सकता है तीरंदाजी वक्त के साथ बदली हो. इसी बदलाव को वह फ़िल्म का हिस्सा बनाता है...कहानी ऐसे बढती है...
जब एकलव्य के बाकी साथियों को पता चला कि द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा गुरुदक्षिणा में लिया है और अब एकलव्य तीर नहीं चला सकता तो वो निर्णय लेते हैं कि वो भी तीर धनुष नहीं उठाएंगे. इस बात पर एकलव्य उन्हीं रोकता है और वो वचन देते हैं कि वो उसकी आज्ञा का पालन करेंगे. यहीं पर बाकी के भील निर्णय लेते हैं कि वो भी बिना अंगूठे का इस्तेमाल किए तीर चलाएंगे. उनके लिए ये बहुत मुश्किल होता है, वो बार बार असफल होते हैं...पर उनका कहना है कि अगर हम असफल हुए तो हमारे बेटे कोशिश करेंगे अगर वो भी असफल हुए तो भी आने वाली पीढियां इसी तरह से तीरंदाजी करेंगी, अंगूठे का प्रयोग वर्जित होगा.
इतिहास में कहीं भी दर्ज नहीं है कि पहली बार सफलता किसे मिली, पर उनकी कोशिशों के कारण आज एकलव्य के साथ हुए अन्याय का बदला ले लिया गया है. और तीरंदाजी में कहीं भी अंगूठे का इस्तेमाल नहीं होता.
कहानी बहुत अलग सी लगी इसमें निर्देशक कहता भी है...कि वास्तव में क्या हुआ ये पता करना इतिहासकारों का काम है...पर मैं एक कल्पना तो दिखा ही सकता हूँ. यह एक फ़िल्म में फ़िल्म की शूटिंग है. पात्र और उनकी एक्टिंग बिल्कुल वास्तविक लगती है. कहानी की रफ़्तार थोडी धीमी है पर इसे बहुत बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया गया है.
बॉलीवुड फिल्मो की चमक दमक के बाद ऐसी यथार्थपरक फ़िल्म देखना एक बेहद सुखद अनुभव रहा. अगर आपको भी ये फ़िल्म किसी स्टोर पर मिलती है तो देखें, वाकई अच्छी है.