
दोपहर के लगभग तीन बजे
डाकिया के आने का वक्त होता था
मैं रोज इंतज़ार करती थी
जाने कितने ख़त आने थे मुझे
अब uske रोज आने का सिलसिला तो ख़त्म हो गया है
इंतज़ार अब भी बदस्तूर जारी है...
कहाँ दरख्वास्त दूँ...
खुदा के पास
मैं एक कतरा आवाज के लिए तरस रही हूँ
ऐसी खामोशियाँ क्यों लिख दी हैं
तकदीर शायद एक पन्ना है
फ़िल्म की तरह नहीं लिखी जाती
इसलिए कोई आवाज नहीं है...
बस एक खामोशी है
ए खुदा
मैं एक आवाज के कतरे के लिए तरस रही हूँ
तुम कब सुनोगे मेरी आवाज़?
बाकी अभी कुछ याद नहीं आ रहा, फ़िर कभी लिखूंगी।
वैसे आज मेरे बारे में राजस्थान पत्रिका में एक article आई थी। सोचा आपको भी लिंक दे दूँ।
आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं। आशीष जी को हार्दिक धन्यवाद.
आज बस एक खूबसूरत शाम का जिक्र...
हमें IIMC छोड़े लगभग एक साल हो गया था, नई नई जॉब में सब बिजी थे...हफ्ते में एक भी दिन छुट्टी नहीं मिलती थी। ऐसे में दोस्त हैं, जेएनयू है या गंगा ढाबा नाम की किसी जगह को हम भूल चुके थे। और ये लगभग सबकी कहानी थी, मैं भी कभी कभी अगर PSR जा भी पाती थी तो अकेले डूबते सूरज को देख कर चली आती थी।
ऐसे में ईद आई और साथ में एहतेशाम का न्योता की तुम्हें आना है, और सबसे पहले आना है और सबसे देर से जाना है। वो मेरा बहुत प्यारा दोस्त है , न बोलने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। उस दिन ऑफिस में बड़ी मिन्नत कर के मैं ७ बजे भागी थी वहां से। एहतेशाम के घर पहुँची तो एकदम कॉलेज के दिन याद आ गए, सारे लोग वहां थे, एक एक दोस्त।
वो ईद मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत ईद थी, गई तो देखा एहतेशाम और राजेश ने मिल के बहुत ही बढ़िया सेवैयाँ बनाई थी, और साथ में कबाब और पनीर टिक्का। साथ में शायद रूह अफजा था, मुझे याद नहीं...याद है की कितने प्यार से जिद कर कर के हमने सब को खिलाया था। उस दिन मुझे एक प्रोजेक्ट पर भी काम करना था, पर शुक्र था की मेरा बॉस भी ईद मनाने गया हुआ था, उसने कॉल किया की पूजा काम की हो...मैंने डरते डरते कहा की मैं ईद मना रही हूँ, काम कैसे करुँगी। और उस दिन हमारे बिग बॉस यानि सीईओ का फ़ोन आने आला था मुझे, काम की प्रोग्रेस देखने के लिए मैंने पूछा की सर कॉल करेंगे तो क्या कहूँगी...और मुझे यकीं नहीं हुआ, उसने कहा की फ़ोन काट देना, पिक मत करना। और मैंने ऐसा ही किया।
देर रात तक किस्से चलते रहे, सबने अपने अपने ऑफिस की कहानी सुनाई जो की कमोबेश एक ही जैसी थी, फ्रेशेर होना शायद एक जैसा ही होता है। धीरे धीरे सब आपने अपने खेमे में बढ़ने लगे, पर मैंने वादा किया था की सबसे आख़िर में जाउंगी...तो निभाया।
मुझे आज भी ईद पर वो रात याद आती है...सड़क पर चलते हुए चाँद देखना। उस दिन एहतेशाम बहुत अच्छा लग रहा था, उसे कुरते में पहली बार देखा था। उस दिन जिंदगी थोडी अपनी सी लगी थी... लौटते हुए जान रही थी की शायद ऐसी ईद अब कभी नसीब नहीं होगी...पर फ़िर भी दिल ने यही दुआ मांगी चाँद को देख कर। खुदा ये दोस्ती सलामत रखना...ये ईद सलामत रखना। कहीं और नहीं तो मेरे दिल में वो रात आज भी जिन्दा है...साँसे लेती है, ख्वाब देखती है।
"आई थिंक आई ऍम फालिंग...फालिंग इन...लव विथ यू", गुनगुना रही थी और बस हंस रही थी उसे देख कर...उसकी आँखें जैसे रूह तक झांक सकती थीं, ज्यादा देर तक उसे लगातार देख नहीं पा रही थी, जब कि ऐसा कुछ भी नहीं था जो छुपाना था उससे। या शायद छुपाना था...
उसने कहा कि मैं उससे पिछले एक महीने से बात कर रही हूँ, क्या वाको? मुझे यकीन नहीं हुआ, पता ही नहीं चला इतनी दिन हो गए। जैसे रूह पहचानती है उसको भले चेहरा याद नहीं, शायद हम मिलें हो पहले कभी, समय कि सीमाओं से परे....शायद अंतरिक्ष में साथ भटकें हों...अनगिनत सवाल, और इनके जवाब ढूँढने ki जरुरत नहीं लगती, जैसे कि हम दो लोग नहीं हैं, कुछ समझाने की जरुरत नहीं होती उसे.
कि मुझे सिगरेट से कोई दिक्कत थी, पर उसे नर्वस देख कर थोड़ा घबराने लगी थी मैं भी। पर फौजी ने जब उसे डांटना शुरू किया कि देखो सरे लोग तुम्हें सिगरेट पीने से मन करते हैं तो जाने क्यों मैं बिल्कुल उसके तरफ़ से झगड़ने लगी...मेरा बस चलता तो मैं ख़ुद उसे एक सिगरेट जला के दे देती. बड़े टेनसे से लम्हे थे वो, बड़ी मुश्किल से कटे. रेस्तौरांत से बहार आके बड़ा सुकून महसूस हुआ, मैं लगभग साँस रोके बैठी थी.
फौजी ने बाहर आके कुछ कहा नहीं पर उसकी मुस्कान बहुत सरे वाक्य कह गई, अब मैं चीख तो नहीं सकती न कि वो मेरा बॉयफ़्रेन्ड नहीं है...इन फैक्ट वो मेरा कुछ भी नहीं है। कार में बैठ कर भी टेंशन हो रही थी...मैंने सिगरेट के तीन चार काश लगाये. अच्छी लगी पर ये भी जान गई मैं कि जो लोग कहते हैं कि सिगरेट पीने से टेंशन कम होती है...फत्ते मरते हैं. उसने कहा मैंने उसकी सिगरेट गीली कर दी. बड़ा बेवकूफ की तरह महसूस किया मैंने ख़ुद को...जैसे सिगरेट पीने से बड़ी कला दुनिया में नहीं है.
उससे बहुत सी बातें करने का मन कर रहा था, या अगर सही कहूँ तो उसकी बहुत सारी बातें सुनने का मन कर रहा था। चाहती थी कि वो बोले और मैं चुप रहूँ, बस सुनूं कि वो क्या सोचता है, क्या चाहता है...कुछ भी. उसे अच्छी तरह जाने का मन कर रहा था, उतनी अच्छी तरह जैसे शायद वो मुझे जानता है. कैसे जानता है, मालूम नहीं
बालकोनी पे हलकी सी ठंढ बड़ी अच्छी लगी, कोहरे का झीना दुपट्टा गुडगाँव कि ऊँची इमारतों ने ओढा हुआ था, उसमें से कहीं कहीं गाँव की किसी अल्हड किशोरी की आँखों की तरह किसी की बालकनी में लाइट्स जल रही थी। मीठी मीठी ठंढ जब साँसों में उतर गई तो बालकोनी का मोह छोड़ना पड़ा.
उसे अपनी कवितायेँ पढ़ाई मैंने, अच्छा लगा। वो सारे वक्त आराम से नहीं बैठा था...एक हरारत दिख रही थी उसमें. मैं आधे वक्त बस हंसती रही थी, किसी तकल्लुफ के बगैर. कुछ कहना नहीं चाहती थी, बस देखना चाहती थी उन आंखों में क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था मैं किसी कि आँख से आँख मिला के बात नहीं कर पा रही थी, और मुझे बड़ा अजीब लग रहा था.
सिगरेट का धुआं मुझे अच्छा नहीं लगता...फ़िर आज क्यों लग रहा था। मुझे इतना तो पता था कि ये गंध मैं बस उससे जुड़े शख्स के कारण पसंद कर सकती हूँ. तो क्यों अच्छा लग रहा था अल्ट्रा माईल्ड का धुआं? उसके कारण? मेर दिल कर रहा था एक काश लेने का, मगर उस सिगरेट का जो वो पी रहा था, क्यों? पता नहीं. वैसे मेरा मन कभी नहीं करता कि मैं सुट्टा लागों, पर उस वक्त कर रहा था. मैंने मग भी पर उसने मना कर दिया. कि मैं फ़िर उसकी सिगरेट ख़राब कर दूंगी, थोड़ा दुःख हुआ. शायद आज तक जो चाहा लेने की आदत बन गई है, चाहे किसी कि उँगलियों में अटका अल्ट्रा माईल्ड क्यों न हो...
उसकी नज़रें बड़े गहरे कुछ तलाशती हैं, जैसे मेरा पूरा वजूद मेरी आंखों में दिख जायेगा। अहसास हुआ कि उससे कुछ भी छुपाना बड़ा नामुमकिन है और ख्वाहिश हुयी उसे वैसी ही नज़रों से देखूं...पर देख नहीं पायी.
डर लगा मुझे, कहीं उसने सुन तो नहीं लिया मेरी आंखों में, "आइ थिंक आई ऍम फालिंग फालिंग इन लव विथ यू।"
| Janno Gibbs - Fall... |
अजय ब्रह्मात्मज एक वरिष्ठ लेखक हैं और हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री पर मेरे जानकारी में सबसे विस्तृत जानकारी वाला ब्लॉग लिखते हैं। फिल्मों से जुड़े होने के कारण मैं भी अक्सर उनके ब्लॉग पर जाती रही और प्रेरणा पाती रही हूँ।
इसलिए आज जब उन्होंने अपने ब्लॉग के स्तम्भ हिन्दी टाकिज के लिए लिखने को कहा तो मैं बेहद खुश हुयी। ऐसी जगह कुछ भी लिखना, मेरे लिए तो गर्व की बात है, और अजय जी ने जो मान दिया है उसकी मैं बेहद आभारी हूँ। आप मेरे लिखे को यहाँ पढ़ सकते हैं।
हिन्दी टाकिज एक ऐसी श्रृंखला है जिसमें अजय जी के शब्दों में "इच्छा है कि इस सीरिज़ के अंतर्गत हम सिनेमा से निजी संबंधों को समझें और उन अनुभवों को बांटे ,जिनसे हमें सिने संस्कार मिला।चवन्नी का आग्रह होगा कि आप भी अपने अनुभव भेजें।इसे फिलहाल हिन्दी टाकीज नाम दिया जा रहा है।"
तो ये ख़बर मेरे पेट में पची नहीं...तो पोस्ट कर दिया ।
कुछ दिन पहले पीडी से बात कर रही थी, उसने फिल्मों के बारे में कुछ और जानने की इच्छा जाहिर की। अब वैसे तो हम इस तरह का ज्ञान बांटने में पहले से ही दो कदम आगे रहते हैं...पर इस बार समस्या थोडी जटिल थी। फ़िल्म बनाना आसान है, ऐसे बहुत director हैं जिन्होंने बिना कहीं से कुछ पढ़े अच्छी फिल्में बनाई हैं। यहाँ पढ़े से मेरा मतलब था की कोई प्रोफेशनल कोर्स किए बगैर।
किसी भी दिशा में बढ़ने से पहले उसके बारे में जानकारी इकठ्ठा करना जरूरी होता है, इन्टरनेट आ जाने से काफ़ी आसानी हो गई है। मैंने अपने कॉलेज के समय में काफ़ी खाक छानी थी, अच्छी किताबें ढूंढ़ना अपने आपमें एक महान कार्य होता है :) और उसपर भी जब आप पटना जैसे शहर में रह रहे हों। साल भर पुस्तक मेला का इंतज़ार रहता था की कोई अच्छी किताब मिलेगी...और वाकई ये इंतज़ार बेकार नहीं होता था।
दिल्ली आने के बाद काफ़ी आसान हो गई चीज़ें, एक तो IIMC की विशाल लाइब्रेरी जिसमें फ़िल्म के हर पक्ष को लेकर कई किताबें थी, चाहे वो नई तकनीक हो या पुराने जुगाड़। इसके अलावा अगर कभी मन होता तो CP जा के किताबें ले आते...यहाँ बंगलोर आई तो पहली बार नेट पर ढूँढने की जरूरत महसूस की...तो पाया की हिन्दी फिल्मो का रेफेरेंस कहीं भी नहीं मिलता है। और बाकी फिल्में ढूंढ़ना काफ़ी मुश्किल भी होता है, अगर किस्मत अच्छी हुयी तब तो मिलेगी वरना बस...आसमान देख कर बारिश की उम्मीद करने वाला हाल।
आग में घी का काम किया एक और व्यक्ति ने, जिसका मुझे नाम भी नहीं पता है। हुआ ये कि मैंने फ़िल्म पर जो वर्कशॉप की थी, उसमें एक उदहारण Blair Witch Project नाम कि फ़िल्म का था...यह फ़िल्म मुझे बिल्कुल ही बकवास लगी थी, कारण किसी और दिन बताउंगी...तो बन्दे ने कह दिया कि ये बहुत अच्छी फ़िल्म थी और तुम्हें फिल्मो की पकड़ नहीं है वगैरह वगैरह...intellectuals के लिए बनाई गई थी फ़िल्म। अब ऐसे अपने मुंह मिया मिठू को तो खैर क्या कहना...पर इस बात बाटी में उसने एक बात और कह दी...कि हम हिन्दुस्तानियों को फिल्मो कि समझ नहीं है, और हमें फ़िल्म बनने नहीं आती। खास तौर से इशारा हिन्दी फिल्मों की और था...उन्होंने कुछ कुछ होता है को छोड़ कर कोई भी हिन्दी फ़िल्म नहीं देखी थी। अब ऐसे बेवकूफ लोगो को क्या कहूँ मैं...बिना ये देखे और जाने कि हमारे यहाँ कैसे फिल्में बनी है चल दिए अमेरिका का गुणगान करने।
तो मैंने सोचा कि फिल्मों पर एक श्रृंखला शुरू करुँगी...भाषा हिन्दी और इंग्लिश जो भी सही लगेगा टोपिक के हिसाब से...पर उसमें मैं कुछ उन फिल्मो का जिक्र करुँगी जो हमारे यहाँ बनी हैं, और उनके कुछ उन पहलुओं पर रौशनी डालूंगी जिससे हम सब रिलेट कर सकते हों।
अब चूँकि इस ब्लॉग पर इंग्लिश में नहीं लिखती हूँ, तो दूसरे ब्लॉग पर लिखूंगी...और सिर्फ़ इसी बारे में लिखूंगी। I dream ब्लॉग फिल्मों के बारे में मेरे सपनो को लेकर है। सोच रही हूँ लिखना शुरू करूँ, पर चूँकि अभी तक ऐसा कुछ मिला नहीं है पढने को , ये भी लगता है कि ऐसे मटेरिअल कि जरूरत है भी कि नहीं, मैं बिन मतलब के वक्त तो नहीं बरबाद करुँगी?
आपकी क्या राय है?
तारीखें वही रहती हैं
साल दर साल
वही हम और तुम भी...
बदल जाती है तो बस
जिंदगी की रफ़्तार...
खो जाती है वो फुर्सत वाली शामें
और वो अलसाई दिल्ली की सड़कें
सर्द रातों में हाथ पकड़ कर घूमना...
खो जाते हैं हम और तुम
अनजाने शहर में
अजनबी लोगों के बीच...
रह जाती है बस
एक याद वाली पगडण्डी
एक आधा बांटा हुआ चाँद
और अलाव के इर्द गिर्द
गाये हुए गीतों के कतरे...
छः मंजिल सीढियों पर रेस लगाना
रात के teen बजे पराठे खाना
और चिल्लड़ गिन कर झगड़ना
कॉफी या सिगरेट खरीदने के बारे में...
कोहरे से तुम्हें आते हुए देखना
और फ़िर गुम हो जाना उसी कोहरे में
हम दोनों का...
आज उन्ही तारीखों में
मैं हूँ, तुम भी हो...जिंदगी भी है
अगर कुछ खो गया है तो बस
वो शहर ...जहाँ हमें मुहब्बत हुयी थी
दिल्ली, तेरी गलियों का
वो इश्क याद आता है...