11 July, 2008

कविता की मौत

मेरे अन्दर रहती थी एक कविता
मुझ जैसी थी
किसी अपने ने उसपर इल्जाम लगाया
बेवफाई का

वो कविता थी, सीता नहीं
कि अग्नि परीक्षा दे सकती

पन्ने तो जल जायेंगे ही आग में
चाहे उसपर जज्बात किसी के भी लिखे हों

इसलिए
कल रात
मेरे अन्दर की कविता ने
खुदखुशी कर ली

06 July, 2008

रिश्ता...

एक पल को तो लगा
तुम कहोगे
तुम मेरे साथ कुछ वक्त बिताना चाहते हो...

सिर्फ़ इस चाहने से ही
दर्द सा कुछ टीस उठा मेरे अन्दर

ऐसा क्यों होता है
कि सिर्फ़ मैं चाहती हूँ
गुज़रे दिनों जैसे कुछ लम्हे
अब भी...

रिश्तों के नाम बदलने के साथ ही
बदल जाते हैं हमारे तुम्हारे समीकरण भी

और हर गुजरते दिन के साथ
मैं और तनहा होती जाती हूँ

मुझे अच्छे लगते हैं वो दिन
जब हमारे रिश्ते का नाम नहीं था

क्योंकि तब बहुत कुछ चाहती नहीं थी तुमसे
अब चाहने लगी हूँ

तुमसे कुछ उम्मीदें जुड़ गई हैं
और इनका टूटना
मुझे तोड़ने लगता है

तुम तब कहीं ज्यादा अपने थे
जब तुम मेरे कोई नहीं थे

वो रिश्ता कहीं ज्यादा मजबूत था
जो बना ही नहीं था

अरसा पहले...

वो बातें और हुआ करती थी
वो ज़माने और हुआ करते थे

ठोकरों में रखते थे दुनिया को
वो हौसले और हुआ करते थे

हम ख़ुद ही अपने खुदा होते थे
वो ज़ज्बे और हुआ करते थे

रौंद देते थे हालातों की नागफनियाँ
वो काफिले और हुआ करते थे

जिनमें देने में खुशी मिलती थी
वो रिश्ते और हुआ करते थे

अब तो लगता है पुराने हो गए हम
वो नए और हुआ करते थे

30 June, 2008

फ़िर से एक सवाल

कुछ अनकहा रह गया था न
हम दोनों के बीच
खामोशी याद दिलाती है तुम्हारी...

वो अनकहा अहसास
जो महसूस करती हूँ आज भी
ठहरी हुयी हवा में...

वो अनकहा सच
जो तुम्हारी आँखें बोलती थीं
तनहाइयों के दरम्यान...

वो अनकहा झूठ
जो मैं हमेशा ख़ुद से कहती आई थी
हमेशा, अपने दिल से भी...

वो अनकहा दर्द
जो तुम्हारी मुस्कान में घुल गया था
जब तुमने मुझसे विदा ली थी...

बहुत अपनी सी लगती है तुम्हारी याद
तुम मेरे थे क्या?

27 June, 2008

एक नज़्म...

तू छिपा ले अपना दर्द मुस्कान के पीछे
पर मेरी आंखों में बादल बन बरसता तो है

तू चाहे तो कर मुझसे बेईन्तहा नफरत
यूँ ही सही तू मुझे सोचता तो है

मुझसे दूर जाने की खातिर ही घर बदला होगा तूने
पर गुजरता था जहाँ से तू वो रास्ता तो है

तू अपने आसमाँ को देखता है मैं अपने आसमाँ को देखती हूँ
पर जिस चाँद को तूने देखा वो कुछ मेरा भी तो है

अपने दोस्तों से तो तू लड़ नहीं सकता
मेरे बिना तेरा गुस्सा तनहा तो है

तुम्हारी जिंदगी की किताब में धुंधला सा ही सही
पर मेरी यादों का एक पन्ना तो है


२१/२/०१

26 June, 2008

कॉपी के पन्ने...२

तू दूर जाती है तो भूल जाता हूँ खुदा को भी
जाने किससे दुआ करता हूँ कि मुड़ कर देखो

आंसू नहीं तुम एक हसीं ख्वाब हो
कुछ देर मेरी पलकों पर ठहर कर देखो

किस कदर ज़ज्ब कर चुका हूँ तुझे मैं ख़ुद में
कभी मेरे करीब से गुज़र कर देखो

कहती हो मेरी आंखों में नशा सा है
मेरी आंखों में तुम हो जरा गौर कर देखो

मुझसे न पूछ मेरी जान मेरी वफ़ा का नाम
तन्हाई में अपने दिल से पूछ कर देखो

तुझसे भी खूबसूरत है तेरा नाम वफ़ा
न यकीं हो तो मेरी धड़कनें सुन कर देखो

24 June, 2008

एक लम्हे की कहानी

मैं तो नहीं लिखती कहानियाँ
बस कविता जैसा कुछ
टुकड़ों टुकड़ों में

मैं तो नहीं रख सकती
अंजुरी भर पानी
आसमान पर फेंक दूँगी

गुलदस्ते से
एक गुलाब निकाल कर
किताबों में छुपा दूँगी

अनगिनत तारे नहीं
उस एक चाँद से
मेरा झगड़ा चलता है


सागर की सैकड़ों लहरें नहीं
मैं तो रखूंगी
शंख में एक बूँद

इतने बड़े आसमान को
काट कर, खिड़की पर
परदा टांग दूँगी

मैं तो बस
कतरा कतरा सम्हालती हूँ

मैं तो
लम्हा लम्हा जीती हूँ

जिंदगी...
बहुत बड़ी है
इसकी कहानी नहीं लिख पाती मैं
इसकी कहानी लिख नहीं पाऊँगी मैं

हाँ, एक लम्हे की कहानी है
लम्हे की कहानी सुनाऊँ
सुनोगे?

कॉपी के पन्ने

लड़कपन तो नहीं कह सकते लेकिन स्कूल के आखिरी सालों(12th) में हमेशा कॉपी के आखिरी पन्नो पर केमिस्ट्री के फार्मूला और फिजिक्स के थेओरेम के अलावा ये कुछ खुराफातें मिली रहती थी। माँ हमेशा इन्हें कचरा कहती थी, कोई कॉपी उलट के देखा तो क्या कहेगा। पर हम भी थेत्थर थे लिखते रहते थे, आज मेरे पास एक कूड़ेदान के जैसी दिखने वाली फाइल है, जिसमें सारे पन्ने फटे हुए रखे हैं। जब इनको खोलती हूँ तो लगता है एक दशक पीछे पहुँच गई हूँ...

इन कतरनों की कुछ पंक्तियाँ...

---०---०---

जिस्म के परदे हटा कर रूह तक झांक लेती हैं
मुहब्बत करने वालों की अजीब निगाहें होती है

---०----०----

कोई जब मुस्कुरा के मुझको दुआ देता है
मुझको उसकी आँखें तुझ जैसी लगती हैं

---०---०---

जब वो सोते हैं छुपा के अपनी नफरत पलकों में
तो लगते हैं कुछ कुछ मुहब्बत के खुदा जैसे

---०---०---

मेरे जिस्म में यूँ बसी है उसकी खुशबु
वो मेरी रूह का हिस्सा जैसे
यूँ झुकती हैं पलकें उसको देख कर
वो ही हो मेरा खुदा जैसे

---०---०---

यूँ लगता है तुम्हारे होठों पर मेरा नाम
काफिर के लबों से ज्यों दुआ निकले

---०---०---

21 June, 2008

सिजोफ्रेनिया...कितना सच कितना सपना

कल मैंने "a beautiful mind" देखी, फ़िल्म एक गणितज्ञ की सच्ची जिंदगी पर आधारित है। नाम है जॉन नैश, प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी में अपनी phd करने आया है, अपने आप में गुम रहता है कम लोगों से दोस्ती करता है, और उसका रूममेट है चार्ल्स। जॉन एक बिल्कुल ओरिजनल थ्योरी देता है वो। बाद में वह पेंटागन से जुड़े गवर्मेंट के काम में काफ़ी मदद करता है। वह कोड बड़ी आसानी से ब्रेक कर लेता है। इसलिए सरकार उसकी सुविधाएं लेती है।

हम बाद में पाते हैं की वो स्चिजोफ्रेनिया से पीड़ित है उसका रूममेट चार्ल्स सिर्फ़ एक हैलुसिनेशन है। यही नहीं वह जिन कोड्स को ब्रेक करने के लिए दिन रात एक किए रहता है वो कोड्स भी उसके मन का वहम है। जिस व्यक्ति के लिए वो काम कर रहा है वो एक्जिस्ट ही नहीं करता।


इस फ़िल्म में हम प्यार, rationality, और इच्छाशक्ति देखते हैं। मुझे फ़िल्म काफ़ी पसंद आई। इसका एक पहलू खास तौर से मुझे व्यथित करता रहा। इसमें जॉन उन व्यक्तियों को इग्नोर करता है जो सिर्फ़ उसकी सोच में हैं। एक जगह वो कहता है की वो चार्ल्स को मिस करता है। इसी विषय पर एक और फ़िल्म देखी थी १५ पार्क अवेन्यु, कहानी में ये सवाल उठाया गया था कि सिर्फ़ इसलिए कि एक स्चिजोफ्रेनिक इंसान जिन लोगों के साथ रहता है उन्हें बाकी दुनिया नहीं देख पाती उनका होना negate कैसे हो जाता है। आख़िर उस इंसान के लिए ये काल्पनिक लोग उसकी जिंदगी का हिस्सा हैं , वो उनके साथ हँसता रोता है। यहाँ बात फ़िर से मेजोरिटी की आ जाती है, क्योंकि उसका सच सिर्फ़ उसका अपना है बाकी लोग उसमें शामिल नहीं हैं उसे झूठ मान लिया जाता है।

इन लोगों को दुःख होता होगा, अपने ये दोस्त छूटने का...और दुनिया इनके गम को समझने की जगह इन्हें पागल बुलाती है। क्यों? सिर्फ़ इसलिए की उनका सच हमारे सच से अलग है, क्योंकि हम उनकी दुनिया देख नहीं सकते इसका मतलब ऐसा क्यों हो कि ये दुनिया नहीं है। कई बार ऐसे लोगों को भूत वगैरह से पीड़ित मान लिया जाता है और इनकी जिंदगी जहन्नुम बन जाती है।

कभी कभी लगता है...काश हम थोड़े और संवेदनशील होते, दूसरों के प्रति...थोड़ा और accommodating होते किसी के अलग होने पर। किसी को एक्सेप्ट कर पाते उसकी कमियों, उसकी बीमारियों के साथ।

फिल्में ऐसी होनी चाहिए जो देखने के घंटों बाद तक आपको परेशान करती रहे, सोचने को मजबूर करे। काश ऐसी कुछ अच्छी फिल्में हमारे यहाँ भी बनती... वीकएंड है और देखने को कोई ढंग की मूवी नहीं।

लगता है मुझे जल्द ही डायरेक्शन में कूदना पड़ेगा। भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री मुझे पुकार रही है। :-D :-)

एक नज़्म भूली सी

सूखे हुए पत्तों को मसला नहीं करते
किसी से नफरत करते हैं पर बेवजह नहीं करते

जीने का अहसास दर्द से ही तो होता है
ज़माने के ज़ख्मों का यूँ गिला नहीं करते

दिलों में नफरतें हो तो फासले और भी बढ़ जाते हैं
यूँ भी बिछड़ के लोग अक्सर मिला नहीं करते

बेजान रिश्तों को दफन करना ही बेहतर है
भूली यादों के सहारे यूँ जिया नहीं करते

मेरे नफरतों के खुदा ये लब तेरी मुस्कराहट मांगते हैं
ये तो जानते हो दुश्मन ऐसी दुआ नहीं करते

20 June, 2008

क्रिकेट के समय हमारे घरों का हाल!!!

ये विडियो मेरे पास एक मेल में आया था, मुझे मालूम नहीं कि किसने बनाया है, शायद अंत में एक जगह क्रेडिट्स आते हैं। पर ये वाकई बहुत दिलचस्प है। मैंने काफ़ी दोस्तों को भेजा और फ़िर सोचा की यहाँ भी पोस्ट कर दूँ। आख़िर हम सबको मुस्कुराने की जरूरत है.



एक पुरानी याद

तुम्हें भूलने की ख्वाहिश शायद अधूरी सी है
फ़िर भी तुम बिन जीने की कोशिश जरूरी सी है

इतने गम मिले मुझको की आदत सी पड़ गई है
फ़िर भी तुम्हारे गम में वो कशिश आज भी थोड़ी सी है

न गुलमोहर है न जाड़ों की धूप और न तुम हो साथ
फ़िर भी उन राहों पर जाने को एक चाह मचलती सी है

मालूम है मुझको कि तुम अब कभी नहीं आओगे
फ़िर भी ख्वाब देखने की मेरी आदत बुरी सी है

हालाँकि मेरी साँसे छीनती हैं मुझसे
फ़िर भी तेरी यादें मेरी जिंदगी सी हैं

19 June, 2008

विरोधाभास...



कोहरे वाली एक रात में
एक नन्हा बच्चा
फुटपाथ के ठंढे फर्श पर
आंसुओं की चादर ओढ़ कर सो गया

और मैं समझती थी
मेरा दुःख सबसे ज्यादा है...

आज भी...

आज भी लगता है
की वक्त के किसी मोड़ पर
एक लम्हा मेरा इन्तेज़ार कर रहा है...

एक मासूम से लम्हे का इन्तेज़ार
मुझे लौट आने को कहता है

एक खामोश सा लम्हा
कविता बन काफाज़ पर उतर जाता है

एक तनहा सा लम्हा
गीत बन मेरा साथ देता है

एक उदास सा लम्हा
अश्क बन हर तस्वीर धुंधली कर देता है

एक वीरान सा लम्हा
सूखे पत्तों से ढकी इन राहों पर मेरे पीछे चलता है

एक मुस्कान सा लम्हा
मुझे तुम्हारी याद दिला देता है

एक अधूरा सा लम्हा है
जिंदगी
लौट आओ ना...

०८.०१.०४

तुम्हारे लिए...

मुझे सोने के कंगूरे नहीं चाहिए
साथ तुम हो तो मिट्टी का भी घर होता है

बताते हम तो मालूम भी चलता तुम्हें
देख कर कहते हो कि दर्द इधर होता है

आजकल पढने लगे हो निगाहों में कुछ
शायद खामोश दुआओं में भी असर होता है

बड़ा मुश्किल है मुहब्बत का सफर जानम
वही चलता है यहाँ जिसको जिगर होता है

गम नहीं कि तुम साथ नहीं जिंदगी में
कहते है मौत के आगे भी सफर होता है

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