08 August, 2009

एक और शाम ढल गई

दर्द अपनी वजहें ढूंढ लेता है
आंसू अपनी राह चले आते हैं
सबने तुम बिन जीने का बहाना ढूंढ लिया है

धुल जाते हैं तुम्हारे कपड़े
नींद नहीं आती तुम्हारी खुशबू के बिना
खाली हो जाता है मेरा कमरा

झाड़ू में निकल जाते हैं
तुम्हारे फेंके अख़बार
बेड के नीचे लुढ़के चाय के कप

करीने से सज जाता है
किताबों का रैक
अलग अलग हो जाती हैं तेरी मेरी किताबें

सब कुछ अपनी अपनी सही जगह पहुँच जाता है...
तुम्हारी जगह कुछ बहुत ज्यादा खाली लगने लगती है...

28 comments:

  1. कविता का शीर्षक ,और फिर सारे टेक्स्ट सिर्फ एक शाम के ढलने भर की दास्तान नहीं हैं ,पूजा जी ,दरअसल ज़िन्दगी आपकी रचनाओं में कभी ढलती नहीं ,सच कहू तो मैं अभी ऐसा ही कुछ महसूस कर रहा था ........................जी बहुत शुक्रिया

    ReplyDelete
  2. सब कुछ अपनी अपनी सही जगह पहुँच जाता है...
    तुम्हारी जगह कुछ बहुत ज्यादा खाली लगने लगती है...
    wah !

    ReplyDelete
  3. सब कुछ अपनी अपनी सही जगह पहुँच जाता है...
    तुम्हारी जगह कुछ बहुत ज्यादा खाली लगने लगती है...

    अति भावपूर्ण!! खूब अभिव्यक्ति!!

    ReplyDelete
  4. ?????

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    ReplyDelete
  5. सब कुछ अपनी अपनी सही जगह पहुँच जाता है...
    तुम्हारी जगह कुछ बहुत ज्यादा खाली लगने लगती है...

    अदभुत.

    रामराम.

    ReplyDelete
  6. सब कुछ अपनी अपनी सही जगह पहुँच जाता है.
    तुम्हारी जगह कुछ बहुत ज्यादा खाली लगने लगती है.

    इस अहसास को किस खूबसूरती से लिख दिया आपने। बहुत बेहतरीन।

    ReplyDelete
  7. बहुत बढ़िया है ....

    सब कुछ अपनी अपनी सही जगह पहुँच जाता है...
    तुम्हारी जगह कुछ बहुत ज्यादा खाली लगने लगती है...

    बहुत ही बढ़िया..

    ReplyDelete
  8. सब कुछ परफेक्ट ......सब कुछ .....

    ReplyDelete
  9. बहुत बढिया भावपूर्ण रचना है बधाई।

    ReplyDelete
  10. वाह वाह डाक्टर साहिबा..कौन कहता है ..भावों को व्यक्त करने के लिए किसी विधा किसी शैली की जरूरत होती है..शब्दों को करीने से सजा कर रख दो ....बांकी सब अपने आप हो जाता है..आप निस्संदेह एक बेहतरीन लेखिका हैं ..

    ReplyDelete
  11. waah! tumhare shabd bhi sedhe apni raah chale aate hain...seedhe dil tak... tum kavita nahin , jaadu karti ho... itni sehejtaa se kasie keh jaati aisi baatein jinse ubarnaa mushkil hota hai.... binaa alankaaron ke bhi itni alankrit kriti hoti hai tumhari ki kya kahein.. :)

    ReplyDelete
  12. bful post :) I have a song for you :)

    darr yeh lagta hai kya yeh sapana hai
    ab jo apana hai kal woh kaha hai
    darta dil pooche baar baar - 2
    intezaar aitbaar tumse pyar itna karu - 2

    aansu aate the laut jaate the
    lamhon pe lamhen chatpatate the
    phir bhi kiya hai intezaar - 2
    intezaar aitbaar tumse pyar itna karu
    kya pyar hai kya hai nahi
    maine nahi poocha na
    ho tum mere yah ho nahi
    maine nahi poocha na
    poocha nahi baar baar - 2
    intezaar aitbaar tumse pyar itna karu - 2

    ek din aayega tanha reh jaayega - 2
    dost kya dushman kya dhundh na paayega
    maula ke saamne kehta reh jaayega
    intezaar aitbaar tumse pyar kitna karu - 2
    intezaar kitna karu
    aitbaar kitna karu
    intezaar aitbaar tumse pyar kitna karu

    chhoti raaten hai kitni baaten hai
    ab jo aaye ho ab batate hai
    thaamon hamein ab ek baar - 2
    intezaar aitbaar tumse pyar itna karu...

    ReplyDelete
  13. tumhari jageh kuch bahut jyada khaali lagne lagti hai......

    poori vedna udel kar rakh di hai tumne is line mein !!

    ReplyDelete
  14. pooja ji.. hamesha ki tarah apka rang nazar aa rha hai.. dil ko chhooti hui kavita .. :)

    ReplyDelete
  15. बहुत बढिया भावपूर्ण रचना है बधाई।

    ReplyDelete
  16. एक और उम्दा ख्याल.. क्या बात है..

    ReplyDelete
  17. ये भी अच्छा है. कब आने वाले हैं... :)

    ReplyDelete
  18. wah! Puja kya khub likha hai, maine aaj pahali bar aap ka blog dekha hai, abhsos ki pahale kyo nhi dekha. bahut accha likhti hai aap.......savita

    ReplyDelete
  19. दर्द अपनी वजहें ढूंढ लेता है
    आंसू अपनी राह चले आते हैं
    सबने तुम बिन जीने का बहाना ढूंढ लिया है

    कविता की सर्वश्रेष्ठ पंक्तियाँ लगी...बहुत गहरे भावों से मन को छूती पंक्तियाँ...पूरी कविता में एक गहराई गुजरते वक्त को थामने का प्रयास करती है.

    ReplyDelete
  20. लेडी गुलजार ?

    ReplyDelete
  21. बहुत फुर्सत निकल कर यहाँ आया हूँ आज दो घडी... लेकिन यहाँ भी गुबार ही निकला... प्रगति मैदान मेट्रो से जब भी ट्रेन आने में देर होती है और सामानांतर २ ट्रेन्स गुज़रती है तो यह हदें याद आती है...

    दिल्ली- जिसपर काफी कुछ लिखा जा सकता है... बस वैसा ही है जैसा निजामुद्दीन में ग़ालिब के मजार पर बैठ कर सोचता हूँ उनका ही तर्क :

    "बहर अगर बहर न होता तो बियाबां होता..."

    ReplyDelete
  22. एक गाना याद आ रहा है :

    तुम मुझे क्यों नहीं मिले पहले...
    "पाटलिपुत्रा: बंदI वोहीं का है.... नोत्रिअदम अकादेमी का आवारा, इंटरनेशनल गर्ल्स स्कूल का दीवाना और हर्तमन का .... गंगा नदी का प्रेमी.. दरभंगा हाउस का आशिक... गोलघर से आसमान नापने वाला... कृष्ण निकेतन का.... और भी बहुत कुछ... patna collece ka sahitya prami

    ReplyDelete
  23. झाड़ू में निकल जाते हैं
    तुम्हारे फेंके अख़बार
    बेड के नीचे लुढ़के चाय के कप

    kya baat hai.....bahut khoob...

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...