02 November, 2017

मौसम के नाम, प्यार

मौसम उनके बीच किसी किरदार की तरह रहता। किसी दोस्त की तरह जिसे उनकी सारी बातें पता होतीं। उन्हें कहना नहीं आता, लेकिन वे जिस मौसम का हाल पूछते थे वो किसी शहर का मौसम नहीं होता। वो किसी शहर का मौसम हो भी नहीं सकता था। वो मन का मौसम होता था। हमेशा से। 

कि पहले बार उसने क्यूँ भेजी थीं सफ़ेद सर्दियाँ? और लड़की कैसे थी ऐसी, गर्म पानी का सोता...लेकिन उसे ये कहाँ मालूम था कि ये गर्म पानी नहीं, खारे आँसू हैं...उसकी बर्फ़ ऊँगली के पोर पर आँसू ठहरता तो लम्हे भर की लड़ाई होती दो मौसमों में। दुनिया के दो छोर पर रहने वाले दो शहरों में भी तो। मगर अंत में वे दोनों एक सम पर के मान जाते। 

बीच के कई सालों में कितने मौसम थे। मौसम विभाग की बात से बाहर, बिगड़ैल मौसम। मनमानी करते। लड़की ज़िद करती तो लड़के के शहर में भी बारिश हो जाती। बिना छतरी लिए ऑफ़िस गया लड़का बारिश में भीग जाता और ठिठुरता बैठा रहता अपने क्यूबिकल में। 'पागल है ये लड़की। एकदम पागल...और ये मौसम इसको इतना सिर क्यूँ चढ़ा के रखते हैं, ओफ़्फ़ोह! एक बार कुछ बोली नहीं कि बस...बारिश, कोहरा...आँधी...वो तो अच्छा हुआ लड़की ने बर्फ़ देखी नहीं है कभी। वरना बीच गर्मियों के वो भी ज़िद पकड़ लेती कि बस, बर्फ़ गिरनी चाहिए। थोड़ी सी ही सही।' कॉफ़ी पीने नीचे उतरता तो फ़ोन करता उसे, 'ख़ुश हो तुम? लो, हुआ मेरा गला ख़राब, अब बात नहीं कर पाउँगा तुमसे। और कराओ मेरे शहर में बारिश' लड़की बहुत बहुत उदास हो जाती। शाम बीतते अदरक का छोटा सा टुकड़ा कुतरती रहती। अदरक की तीखी गंध ऊँगली की पोर में रह जाती। उसे चिट्ठियाँ लिखते हुए सोचती, ये बारिश इस बार कितने दिनों तक ऐसे ही रह जाएगी पन्नों में। 

***

ठंढ कोई मौसम नहीं, आत्मा की महसूसियत है। जब हमारे जीवन में प्रेम की कमी हो तो हमारी आत्मा में ठंढ बसती जाती है। फिर हमारी भोर किटकिटाते बीतती है कि हमारा बदन इक जमा हुआ ग्लेशियर होता है जिसे सिर्फ़ कोई बाँहों में भींच कर पिघला सकता है। लेकिन दुनिया इतनी ख़ाली होती है, इतनी अजनबी कि हम किसी को कह नहीं सकते...मेरी आत्मा पर ठंढ उतर रही है...ज़रा बाँहों में भरोगे मुझे कि मुझे ठंढ का मौसम बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। 

लड़की की सिसकी में डूबी आवाज़ एक ठंढी नदी होती। कि जिसमें पाँव डाले बैठे रहो तो सारे सफ़र में थरथराहट होगी। कि तुम रास्ता भूल कर अंधेरे की जगह रौशनी की ओर चले जाओगे। एक धीमी, कांपती रौशनी की लौ तक। सिगरेट जलाते हुए जो माचिस की तीली के पास होती है। उतनी सी रौशनी तक। 

बर्फ़ से सिर्फ़ विस्की पीने वाले लोग प्यार करते हैं। या कि ब्लैक कॉफ़ी पीने वाले। सुनहले और स्याह के बीच होता लड़की की आत्मा का रंग। डार्क गोल्डन। नीले होंठ। जमी हुयी उँगलियाँ। तेज़ आँधी में एक आख़िरी बार तड़प कर बुझी हुयी आँखें।

वो किसी संक्रामक बीमारी की तरह ख़तरनाक होती। उसे छूने से रूह पर सफ़ेद सर्दियाँ उतरतीं। रिश्तों को सर्द करती हुयीं। एक समय ऐसा भी होता कि वो अपनी सर्द उँगलियों से बदन का दरवाज़ा बंद कर देती और अपने इर्द गिर्द तेज़ बहती बर्फ़ीली, तूफ़ानी नदियाँ खींच देती। फिर कोई कैसे चूम सकता उसकी सर्द, सियाह आँखें। कोई कैसे उतरते जाता उसकी आत्मा के गहरे, ठंढे, अंधेरे में एक दिया रखने की ख़ातिर।

लड़की कभी कभी unconsolable हो जाती। वहाँ से कोई उसे बचा के वापस ला नहीं पाता ज़िंदगी और रौशनी में वापस। 
हँसते हुए आख़िरी बात कहती। एक ठंढी हँसी में। rhetoric ऐसे सवाल जिनके कोई जवाब नहीं होते।
'लो, हम मर गए तुम पर, अब?'

***
'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'

सबको इस बात पर आश्चर्य क्यूँ होता कि लड़की के पास बहुत से अनकहे शब्द हुआ करते। उन्हें लगता कि जैसे उसके लिए लिखना आसान है, वैसे ही कह देना भी आसान होता होगा। ऐसा थोड़े होता है।

कहने के लिए आवाज़ चाहिए होती है। आवाज़ एक तरह का फ़ोर्स होती। अपने आप में ब्लैक होल होती लड़की के पास कहाँ से आती ये ऊर्जा कि अपने ही प्रचंड घनत्व से दूर कर सके शब्द को...उस सघनता से...इंटेन्सिटी से...कोई शब्द जो बहुत कोशिश कर के बाहर निकलता भी तो समय की टाइमलाइन में भुतला जाता। कभी अतीत का हिस्सा बन जाता, कभी भविष्य का। कभी अफ़सोस के नाम लिखाता, कभी उम्मीद के...लेकिन उस लड़के के नाम कभी नहीं लिखाता जिसके नाम लिखना चाहती लड़की वो एक शब्द...एक कविता...एक पूरा पूरा उपन्यास। उसका नाम लेना चाहती लेकिन कहानी तक आते आते उसका नाम कोई एक अहसास में मोर्फ़ कर जाता।

लड़की समझती सारी उपमाएँ, मेटाफर बेमानी हैं। सब कुछ लिखाता है वैसा ही जैसा जिया जाता है। कविताओं में भी झूठ नहीं होता कुछ भी।

सुबह सुबह नींद से लड़ झगड़ के आना आसान नहीं होता। दो तीन अलार्म उसे नींद के देश से खींच के लाना चाहते लेकिन वहाँ लड़का होता। उसकी आँखें होतीं। उसकी गर्माहट की ख़ुशबू में भीगे हाथ होते। कैसे आती लड़की हाथ छुड़ा के उससे।

सुबह के मौसम में हल्की ठंढ होती। जैसे कितने सारे शहरों में एक साथ ही। सलेटी मौसम मुस्कुराता तो लड़की को किसी किताब के किरदार की आँखें याद आतीं। राख रंग की। आइना छेड़ करता, पूछता है। आजकल बड़ा ना तुमको साड़ी पहनने का चस्का लगा है। लड़की कहती। सो कहो ना, सुंदर लग रही हूँ। मौसम कहता, सिल्क की साड़ी पहनो। लड़की सिल्क की गर्माहट में होती। कभी कभी भूल भी जाती कि इस शहर में वो कितनी तन्हा है...वो लड़का इतना क़रीब लगता कि कभी कभी तो उदास होना भी भूल जाती।

कार की विंडो खुली होती। उसका दिल भी। दुःख के लिए। तकलीफ़ के लिए। लेकिन, सुख के लिए भी तो। सुबह कम होता ट्रैफ़िक। लड़की as usual गाड़ी उड़ाती चलती। किसी रेसिंग गेम की तरह कि जैसे हर सड़क उसके दिल तक जाती हो। गाना सुनती चुप्पी में, गुनगुनाती बिना शब्द के।

लड़की। इंतज़ार करती। गाने में इस पंक्ति के आने का। अपनी रूह की उलझन से गोलती एक गाँठ और गाती, 'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'


और कहीं दूर देश में अचानक उसकी हिचकियों से नींद खुल जाती...ठंढे मौसम में रज़ाई से निकलने का बिलकुल भी उसका मन नहीं करता। आधी नींद में बड़बड़ाता उठता लड़का। 'प्यार करने की तमीज़ ख़ाक होगी, इस पागल लड़की को ना, याद करने तक की तमीज़ नहीं है'

01 November, 2017

She rides a Royal Enfield ॰ चाँदनी रात में एनफ़ील्ड रेसिंग

दुनिया में बहुत तरह के सुख होते होंगे। कुछ सुख तो हमने चक्खे भी नहीं हैं अभी। कुछ साल पहले हम क्या ही जानते थे कि क़िस्मत हमारे कॉपी के पन्ने पर क्या नाम लिखने वाली है।

बैंगलोर बहुत उदार शहर है। मैं इससे बहुत कम मुहब्बत करती हूँ लेकिन वो अपनी इकतरफ़ा मुहब्बत में कोई कोताही नहीं करता। मौसम हो कि मिज़ाज। सब ख़ुशनुमा रखता है। इन दिनों यहाँ हल्की सी ठंढ है। दिल्ली जैसी। देर रात कुछ करने का मन नहीं कर रहा था। ना पढ़ने का, ना लिखने का कुछ, ना कोई फ़िल्म में दिल लग रहा था, ना किसी गीत में। रात के एक बजे करें भी तो क्या। घर में रात को अकेले ना भरतनाट्यम् करने में मन लगे ना भांगड़ा...और साल्सा तो हमको सिर्फ़ खाने आता है।

बाइकिंग बूट्स निकाले। न्यू यॉर्क वाले सफ़ेद मोज़े। उन्हें पहनते हुए मुस्कुरायी। जैकेट। हेल्मट। घड़ी। ब्रेसलेट। कमर में बैग कि जिसमें वॉलेट और घर की चाबी। गले में वही काला बिल्लियों वाला स्टोल कि जिसके साथ न्यू यॉर्क की सड़कें चली आती हैं हर बार। मुझे बाक़ी चीज़ों के अलावा, एनफ़ील्ड चलाने के पहले वाली तैयारी बहुत अच्छी लगती है। शृंगार। स्ट्रेच करना कि कहीं मोच वोच ना आ जाए।

गयी तो एनफ़ील्ड इतने दिन से स्टार्ट नहीं की थी। एक बार में स्टार्ट नहीं हुयी। लगा कि आज तो किक मारनी पड़े शायद। लेकिन फिर हो गयी स्टार्ट। तो ठीक था। कुछ देर गाड़ी को आइड्लिंग करने दिए। पुचकारे। कि खामखा नाराज़ मत हुआ कर। इतना तो प्यार करती हूँ तुझसे। नौटंकी हो एकदम तुम भी।

इतनी रात शहर की सड़कें लगभग ख़ाली हैं। कई सारी टैक्सीज़ दौड़ रही थीं हालाँकि। एकदम हल्की फुहार पड़ रही थी। मुझे अपनी एनफ़ील्ड चलने में जो सबसे प्यारी चीज़ लगती है वो तीखे मोड़ों पर बिना ब्रेक मारे हुए गाड़ी के साथ बदन को झुकाना...ऐसा लगता है हम कोई बॉल डान्स का वो स्टेप कर रहे हैं जिसमें लड़का लड़की की कमर में हाथ डाल कर आधा झुका देता है और फिर झटके से वापस बाँहों में खींच कर गोल चक्कर में घुमा देता है।

कोई रूह है मेरी और मेरी एनफ़ील्ड की। रूद्र और मैं soulmates हैं। मैं छेड़ रही थी उसको। देखो, बदमाशी करोगे ना तो अपने दोस्त को दे देंगे चलाने के लिए। वो बोला है बहुत सम्हाल के चलाता है। फिर डीसेंट बने घूमते रहना, सारी आवारगी निकल जाएगी। आज शाम में नील का फ़ोन आया था। वो भी चिढ़ा रहा था, कि अपनी एनफ़ील्ड बेच दे मुझे। मैं उसकी खिंचाई कर रही थी कि एनफ़ील्ड चलाने के लिए पर्सनालिटी चाहिए होती है, शक्ल देखी है अपनी, एनफ़ील्ड चलाएगा। और वो कह रहा था कि मैं तो बड़ी ना एनफ़ील्ड चलाने वाली दिखती हूँ, पाँच फ़ुट की। भर भर गरियाए उसको। हम लोगों के बात का पर्सेंटिज निकाला जाए तो कमसे कम बीस पर्सेंट तो गरियाना ही होगा।

इनर रिंग रोड एकदम ख़ाली। बहुत तेज़ चलाने के लिए लेकिन चश्मे दूसरे वाले पहनने ज़रूरी हैं। इन चश्मों में आँख में पानी आने लगता है। हेल्मट का वाइज़र भी इतना अच्छा नहीं है तो बहुत तेज़ नहीं चलायी। कोई अस्सी पर ही उड़ाती रही बस। इनर रंग रोड से घूम कर कोरमंगला तक गयी और लौट कर इंदिरानगर आयी। एक मन किया कि कहीं ठहर कर चाय पी लूँ लेकिन फिर लगा इतने दिन बाद रात को बाहर निकली हूँ, चाय पियूँगी तो सिगरेट पीने का एकदम मन कर जाएगा। सो, रहने ही दिए। वापसी में धीरे धीरे ही चलाए। लौट कर घर आने का मन किया नहीं। तो फिर मुहल्ले में घूमती रही देर तक। स्लो चलती हुयी। चाँद आज कितना ही ख़ूबसूरत लग रहा था। रूद्र की धड़कन सुनती हुयी। कैसे तो वो लेता है मेरा नाम। धकधक करता है सीने में। जब मैं रेज देती हूँ तो रूद्र ऐसे हुमक के भागता है जैसे हर उदासी से दूर लिए भागेगा मुझे। दुनिया की सबसे अच्छी फ़ीलिंग है, रॉयल एनफ़ील्ड ५०० सीसी को रेज देना। फिर उसकी आवाज़। उफ़! जिनकी भी अपनी एनफ़ील्ड है वो जानते हैं, इस बाइक को पसंद नहीं किया जा सकता, इश्क़ ही किया जा सकता है इससे बस।

मुहल्ले में गाड़ियाँ रात के डेढ़ बजे एकदम नहीं थीं। बस पुलिस की गाड़ी पट्रोल कर रही थी। मैंने सोचा कि अगर मान लो, वो लोग पूछेंगे कि इतनी रात को मैं क्यूँ पेट्रोल जला रही हूँ तो क्या ही जवाब होगा मेरे पास। मुझे लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी हमेशा से बहुत अच्छी लगती है। मैं हल्के हल्के गुनगुना रही थी। ख़ुद के लिए ही। 'ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त, कौन हो तुम बतलाओ'। एनफ़ील्ड की डुगडुग के साथ ग़ज़ब ताल बैठ रहा था गीत का। कि लड़कपन से भी से मुझे कभी साधना या फिर सायरा बानो बनने का चस्का कम लगा। हमको तो देवानंद बनना था। शम्मी कपूर बनना था। अदा चाहिए थी वो लटें झटकाने वालीं। सिगरेट जलाने के लिए वो लाइटर चाहिए था जिसमें से कोई धुन बजे। मद्धम।

सड़क पर एनफ़ील्ड पार्क की और फ़ोन निकाल के फ़ोटोज़ खींचने लगी। ज़िंदगी के कुछ ख़ूबसूरत सुखों में एक है अपनी रॉयल एनफ़ील्ड को नज़र भर प्यार से देखना। पीली रौशनी में भीगते हुए। उसकी परछाईं, उसके पीछे की दीवार। जैसे मुहब्बत में कोई महबूब को देखता है। उस प्यार भरी नज़र से देखना।

सड़क पर एक लड़का लड़की टहल रहे थे। उनके सामने बाइक रोकी। बड़ी प्यारी सी लड़की थी। मासूम सी। टीनएज की दहलीज़ पर। मैंने गुज़ारिश की, एक फ़ोटो खींच देने की। कि मेरी बाइक चलाते हुए फ़ोटो हैं ही नहीं। उसने कहा कि उसे ये देख कर बहुत अच्छा लगा कि मैं एनफ़ील्ड चला रही हूँ। मैंने कहा कि बहुत आसान है, तुम भी चला सकती हो। उसने कहा कि बहुत भारी है। अब एनफ़ील्ड कोई खींचनी थोड़े होती है। मैंने कहा उससे। हर लड़की को गियर वाली बाइक ज़रूर चलानी चाहिए। उसमें भी एनफ़ील्ड तो एकदम ही क्लास अपार्ट है। कहीं भी इसकी आवाज़ सुन लेती हूँ तो दिल में धुकधुकी होने लगती है। मैं हर बार लड़कियों को कहती हूँ, मोटर्सायकल चलाना सीखो। ये एक एकदम ही अलग अनुभव है। इसे चलाने में लड़के लड़की का कोई भेद भाव नहीं है। अगर मैं चला सकती हूँ, तो कोई भी चला सकता है।

पिछले साल एनफ़ील्ड ख़रीदने के पहले मैंने कितने फ़ोरम पढ़े कि कोई पाँच फुट दो इंच की लड़की चला सकती है या नहीं। वहाँ सारे जवाब बन्दों के बारे में था, छह फुट के लोग ज्ञान दे रहे थे कि सब कुछ कॉन्फ़िडेन्स के बारे में है। अगर आपको लगता है कि आप चला सकते हैं तो आप चला लेंगे। मुझे यही सलाह चाहिए थी मगर ऐसी किसी अपने जैसी लड़की से। ये सेकंड हैंड वाला ज्ञान मुझे नहीं चाहिए था।

तो सच्चाई ये है कि एनफ़ील्ड चलाना और इसके वज़न को मैनेज करना प्रैक्टिस से आता है। ज़िंदगी की बाक़ी चीज़ों की तरह। हम जिसमें अच्छे हैं, उसकी चीज़ को बेहतर ढंग से करने का बस एक ही उपाय है। प्रैक्टिस। एक बार वो समझ में आ गया फिर तो क्या है एनफ़ील्ड। फूल से हल्की है। और हवा में उड़ती है। मैंने दो दिन में एनफ़ील्ड चलाना सीख लिया था। ये और बात है कि पापा ने सबसे पहले राजदूत सिखाया था पर पटना में थोड़े ना चला सकते थे। कई सालों से कोई गियर वाली बाइक चलायी नहीं थी।

अभी कुछ साल पहले सपने की सी ही बात लगती थी कि अपनी एनफ़ील्ड होगी। कि चला सकेंगे अपनी मर्ज़ी से ५०० सीसी बाइक। कि कैसा होता होगा इसका ऐक्सेलरेशन। क्या वाक़ई उड़ती है गाड़ी। वो लड़की नाम पूछी मेरा। हाथ मिलायी। मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गए जब देवघर में एक दीदी हीरो होंडा उड़ाया करती थी सनसन। हमारे लिए तो वही रॉकस्टार थी। तस्वीर खींचने को जो लड़की थी, उसे बताया मैंने कि एनफ़ील्ड पति ने गिफ़्ट की है पिछले साल, तो वो लड़की बहुत आश्चर्यचकित हो गयी थी।

दुनिया में छोटे छोटे सुख हैं। जिन्हें मुट्ठी में बांधे हुए हम सुख की लम्बी, उदास रात काटते हैं। तुम मेरी मुट्ठी में खुलता, खिलखिलाता ऐसा ही एक लम्हा हो। आना कभी बैंगलोर। घुमाएँगे तुमको अपने एनफ़ील्ड पर। ज़ोर से पकड़ के बैठना, उड़ जाओगे वरना। तुम तो जानते ही हो, तेज़ चलाने की आदत है हमको।

ज़िंदगी अच्छी है। उदार है। मुहब्बत है। अपने नाम पर रॉयल एनफ़ील्ड है।
इतना सारा कुछ होना काफ़ी है सुखी होने के लिए।
सुखी हूँ इन दिनों। ईश्वर ऐसे सुख सबकी क़िस्मत में लिक्खे।

31 October, 2017

Create your own asylum


उसने शाम में दो दोस्तों से पूछा। तुम्हें 'एक चिथड़ा सुख' क्यूँ पसंद है। एक के पास वक़्त की कमी थी, एक के पास शब्दों की। वे उसे ठीक ठीक बता नहीं पाए कि क्यूँ पढ़नी चाहिए उसे ये किताब।

उसने पूछा, अच्छा ये बताओ, कोई ऐसी किताब पढ़ने का मन है जिसमें डूबें ना, जो उबार ले। उसने कहा, ऐसे में क्या ही पढ़ोगी निर्मल को। वहाँ कौन सा सुख है। लेकिन सुख तो था, 'वे दिन' में था, 'धुंध से उठती धुन' में भी था। सुख आइने में चुप तकता एक छोटा बच्चा है जो इस बात का यक़ीन दिलाता है कि आप अकेले पागल नहीं हैं। इस पागलखाने में और भी लोग रहते हैं।

लड़की का whatsapp स्टेटस रहता। 'Create your own asylum'। असाइलम का मतलब पागलखाना होता है, पनाह भी।

उसे लगा किताब में सुख होगा। थोड़ा सा ही सही। किताब जहाँ खुलती है, उसे समझ नहीं आया पिछले कई सालों से कैसे उसने किताब शुरू कर के आधी अधूरी रख दी हमेशा।

एक चैप्टर में कोई पूछता है लड़के से, 'ऑल अलोन' मतलब कि बिलकुल अकेले। किताब के लड़के के साथ ही लड़की सोचती है, अपना मन टटोल कर। कि इस अकेलेपन की तासीर समझ ले ठीक ठीक। उसे लगता ज़िंदगी मैथ की तरह है, सब कुछ इक्वेशन है। समझ आने के बाद हल निकाला जा सकता है। लेकिन धीरे धीरे वो समझती जाती कि हर equation सॉल्व नहीं हो सकता। फिर वो उन सवालों को अपनी राइटिंग डेस्क पर छोटी छोटी चिप्पियों में लिखती चली जाती।

बहुत साल बाद किसी किताब ने उससे वो सवाल किया है जो वो ख़ुद से अक्सर पूछती आयी है। कि सब कुछ होते हुए भी उसे इतना अकेलापन क्यूँ लगता है? इतने दोस्त हैं। जब से किताब आयी है, कितने सारे अजनबी भी हैं जो पन्ने पर जुड़े हुए हैं। उसका जब मन करे, कोई ना कोई तो होगा ही जो उससे बात कर सके। फिर ये कैसा अकेलापन है।

दूसरी चीज़ जो उसे परेशान करती, वो ये कि दुनिया के उसके कुछ सबसे प्यारे दोस्तों की तासीर में ऐसा अकेलापन क्यूँ दिखता है उसे। क्या वो अपनी तन्हाई उनपर प्रोजेक्ट करती है? क्या वो भी लोगों को ऐसी ही दिखती है, कहीं ना कहीं, अकेली? सब होते हुए भी उनके साथ रहते हुए ये कौन सा ख़ालीपन है, कौन सी कमी जिसे वो भरना चाहती है। कि जैसे उनकी ज़िंदगी में सिर्फ़ उसके होने भर की जगह कई सालों से ख़ाली थी। कि हम शायद ऐसे ही आते हैं दुनिया में। ख़ाली ख़ाली। porous। वो पूछती अपने दोस्तों से। कोई समझता है तुम्हें, ठीक ठीक। जैसे मैं समझती हूँ। मुझे कोई वैसे नहीं समझता ठीक ठीक, जैसे तुम समझते हो। तुम कैसे समझते हो मुझे ऐसे। ये कौन से हिस्से हैं, ये कौन से क़िस्से हैं?

उसका चेहरा किताब हुआ करता। उसकी आँखें गीत हुआ करतीं। उसकी मुस्कान शब्दों के बीच की ख़ामोशी रचती। उसे ग़ौर से देखो तो उसके चेहरे पर कई सारे किरदार उगा करते। कई सारी कहानियाँ हुआ करतीं। वाक्य उसके माथे की सलवटों को समझते। उसकी आँखों के सियाह को भी।

वो मुझसे मिली तो देर तक पढ़ता रहा चेहरा उसका। उसकी काजल लगी आँखें। छोटी सी बिंदी। कितने शब्द थे उसके चेहरे पर। कितना बोलता था उसका चेहरा।

उसके माथे पर शब्दों के बीच एक ख़ाली जगह थी...जैसे इग्ज़ैम के क्वेस्चन पेपर पर होती है - fill in the blanks जैसी। एक लाइन। कि जैसे लगा कि मैं चूम लूँ उसका माथा तो वाक्य का कोई मायना होगा। मुलाक़ात का भी।

प्यार। ढेर सारा प्यार।

कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि पूरी शाम मुस्कुराने के कारण गालों में दर्द उठ गया हो. मैं उस वक़्त आसमान की ओर आँखें करती हूँ और उस उपरवाले से पूछती हूँ 'व्हाट हैव यु डन टु मी?' मैं शाम से पागलों की तरह खुश हूँ, अगर कोई बड़ा ग़म मेरी तरफ अब तुरंत में फेंका न तो देख लेना.
- उस लड़की में दो नदियाँ रहती थीं, [page no. 112, तीन रोज़ इश्क़]

30 August, 2017
आज वो दूसरी वाली नदी में उफान आया है।
धूप की नदी। सुख की। छलकती। बहती किनारे तोड़ के। खिलखिलाती।

याद करती एक शहर। दिल्ली की हवा में बजती पुराने गानों की धुन कैसी तो।  किसी पार्क में झूला झूलती लड़कियाँ खिलखिला के हँसतीं। छत पर खड़ा एक लड़का देखता एक लड़की को एक पूरी नज़र भर कर। चाय मीठी हुई जाती कितनी तो। लड़की अपने अतीत में होती। लड़का कहता, मुझे बस, ना, तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए। कहते हुए उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर लेता। बात को कई साल बीत जाते लेकिन लड़की नहीं भूलती उसका कहना। बिछड़े हुए कई साल बीत जाते। लड़की देखती फ़ोन में एक बच्चे की तस्वीर। टूटे हुए सपने से बहता हुआ आता प्यार कितना तो। लड़की मुस्कुराती फ़ोन देख कर। असीसती अपने पुराने प्रेमी के बेटे को।

कहाँ रख दूँ इतनी सारी मुस्कान।
किसके नाम लिख दूँ। वसीयत कर दूँ। मेरे सुख का एक हिस्सा उसे दे दिया जाए। थोड़ी धूप खिले उसकी खिड़की पर। उसकी आँखों में भी। उसके शहर का ठंढा मौसम कॉफ़ी में घुलता जाए। कॉफ़ी कप के इर्द गिर्द लपेटी हुयी उँगलियाँ। कितने ठंढे पड़ते हैं तुम्हारे हाथ। नरम स्वेड लेदर के दास्ताने पहनती लड़की। कॉफ़ी शॉप पर भूल जाती कि टेबल के सफ़ेद नैपकिन के पास रह जाते दास्ताने। लड़का अगली रोज़ जाता कॉफ़ी शॉप तो वेट्रेस कहती, 'आपकी दोस्त के दास्ताने रह गए हैं यहाँ, ले लीजिए'। उसके गर्म हाथों को दास्ताने की ज़रूरत नहीं लेकिन पॉकेट में रख लेता है। फ़ोल्ड किए। नन्हें दास्ताने। कोई जा कर भी कितना तो रह जाता है शहर में।

कभी होता है, बहुत प्यार आ रहा होता है...इस प्यार आने का अचार कैसे डालते हैं मालूम ही नहीं। कहाँ रखते हैं इसको। भेजते हैं कैसे। किसको। जैसे लगता है कभी कभी। कोई सामने हो और बस टकटकी लगा के देखें उसको। कि जब बहुत तेज़ी से भागती हैं चीज़ें आँखों के सामने से तो रंग ठीक ठीक रेजिस्टर नहीं होते। लड़की चाहती कि उस रिकॉर्डिंग को पॉज़ कर दे। स्लो मोशन में ठीक उस जगह ठहरे कि जब उसका चेहरा हथेलियों में भरा था। उसका माथा चूमने के पहले देखे उसकी आँखों का रंग। याद कर ले शेड। कि कभी फिर दुखे ना ब्लैक ऐंड वाइट तस्वीरों में उसकी आँखों का रंग होना सलेटी।

प्यार। ढेर सा प्यार। बहुत ख़ूब सा। शहर भर। दिल भर। काग़ज़ काग़ज़ क़िस्सों भर। और भर जाने से ज़्यादा छलका हुआ।
किरदारों के नाम कैसे हों? 'मोह', शहर का नाम, 'विदा' लड़की का नाम, 'इतरां'। मगर सारे किरदार भी फीके लगें कि तुम्हारी हँसी के रंग जैसा कहाँ आए हँसना मेरे किसी किरदार को। तुम्हारी आवाज़ की खनक नहीं रच पाऊँ मैं किसी रंग की कलम से भी। कि चाहूँ कहना तुमसे, सामने तुम्हारे रहते हुए। एक शब्द ही। प्यार।

हमको कुछ चाहिए भी तो नहीं था।
हमको कभी कुछ चाहिए नहीं होता है। कभी कभी लिखने को एक खिड़की भर मिल जाए। एक पन्ना हो। चिट्ठी हो कोई। अटके पड़े नॉवल का नया चैप्टर हो। तुम्हारी हथेली हो सामने। उँगलियों से लिखती जाऊँ उसपर हर्फ़ हर्फ़ कर के जो कहनी हैं बातें तुमसे। कौन सी बातें ही? नयी बातें कुछ? चाँद देखा तुमने आज? आज जैसा चाँद पहले कहाँ निकला था कभी। आज जैसा प्यार कहाँ किया था पहले कभी भी तो। पर पहले तुम कहाँ मिले थे। किसी और से कैसे कर  लेती तुम्हारे हिस्से का, तुम्हारे जैसा - प्यार।

कैसे होता है। जिया हुआ एक लम्हा कितने दिनों तक रौशन होता है। वो पल भर का आँख भर आना। मालूम नहीं सुख में या दुःख में। बीतता हुआ लम्हा। बिसरता हुआ कोई। पूछूँ तुमसे। क्यूँ? मगर तुम्हारे पास तो सारे सवालों के जवाब होते हैं। और बेहद सुंदर जवाब। सवालों से सुंदर। कितना अच्छा है इसलिए तुमसे बात करना। कहीं कुछ अटका नहीं रहता। कुछ चुभता नहीं। कुछ दुखता नहीं। सब सुंदर होता। सहज। सत्यम शिवम् सुंदरम। जैसा शाश्वत कुछ। लम्हा ऐसा कि हमेशा के लिए रह जाए। ephemeral and eternal.

और तुम। रह जाओ ना हमेशा के लिए। नहीं?
उन्हूँ...हमेशा वाले दिन अब समझ नहीं आते। तुम जी लो इस लम्हे को मेरे साथ। रंग में। ख़ुशबू में। छुअन में। कि सोचूँ कितना कुछ और कह पाऊँ कहाँ तुमसे। कौन शब्द में बांधे मन की बेलगाम दौड़ को। नदी हुए जाऊँ। बाँध में सींचती रही कितनी कहानियाँ मगर लड़की का मन, तुमसे मिलकर फिर से नदी हुआ जाता। पहाड़ी नदी। जो हँसती खिलखिल।

सपने में खिले, पिछली बरसात लगाए हुए गुलाब। आँख भर आए। सुख। जंगली गुलाबों की गंध आए सपनों में। टस लाल। कॉफ़ी की गंध। कपास की। किसी के बाँहों में होने की गंध। मुट्ठी में पकड़े उसके शर्ट की सलवटें। क्या क्या रह जाए? सपने से परे, सपने के भीतर?

कहूँ तुमसे। कभी। कह सकूँ। आवाज़ में घुलते हुए।
प्यार। ढेर सारा प्यार। 

30 October, 2017

कुछ बेशक़ीमत कमीने कि जिन्हें म्यूज़ीयम में रखना चाहिए

बहुत अदा से वो कहा करता था, 'नवाजिश, करम, शुक्रिया, मेहरबानी'। ज़रूरी नहीं है कि आपने कोई बहुत अच्छी चीज़ की हो...हो सकता है उसका ही कोई शेर पसंद आ गया और अपने हिसाब से कच्चे पक्के शब्दों में आपने तारीफ़ करने की कोशिश की हो...लेकिन उसका शुक्रगुज़ार होने का अन्दाज़ एक बेहद ख़ूबसूरत और रेयर रूमानियत से भरता था ज़िंदगी को। जैसे हम भूल गए हों शुक्रगुज़ार होना।

उसकी रौबदार आवाज़ की दुलार भारी डांट में 'बे' इतना अपना लगता था कि ग़लतियाँ करने का मन करता था। उसके साथ चलते हुए लगता था कोई ग़म छू नहीं सकता है। कितना सुरक्षित महसूस होता था। किसी ख़तरनाक शहर में उसके इर्द होने से सुकून हुआ करता था कितना। उसके साथ चलते हुए साड़ी के रंग और खिलते थे। गीत के सुर भी मीठे होते थे ज़्यादा। और सिगरेट, जनाब सिगरेट हुआ करती थी ऐसी कि जैसे दोस्ती का मतलब सिर्फ़ सिगरेट शेयर करके पीना है। 'बे, तू गीली कर देती है, अपनी ख़ुद की जला ले, मैं ना दे रहा'। कौन और लड़ सकता था मुझसे उसके सिवा।

था। कितना दुखता है ना किसी वाक्य के अंत में जब आता है। किसी रिश्ते के अंत में आता है तो भी तो।

कुछ लोग अचानक से बिछड़ गए। मुझे तेज़ चलने की आदत है। इतनी छोटी सी पाँच फुट दो इंच की लड़की की रफ़्तार इतनी तेज़ चलती होगी कोई उम्मीद नहीं करता। या कि लोगों को आहिस्ता चलने की आदत है। मुझे जाने कहाँ पहुँचना होता है। हमेशा एक हड़बड़ी रहती है पाँवों में।

कुछ लोग किस तरह रह जाते हैं अपने जाने के बाद भी। कि हम उन्हें ही नहीं, ख़ुद को भी मिस करते हैं, जो हम उनके साथ हुआ करते थे। जैसे कि अब कहाँ किसी को 'जान' कहते हैं। या कि कहेंगे ही कभी। मैं कौन हुआ करती थी कि दोस्तों को 'जान' कह कर मिलवाया करती थी। कि कैसे जान बसती थी कुछ लोगों में। अब जो वे नहीं हैं ज़िंदगी में...मेरी रूह के हिस्से छूटे हुए जाने कौन शहरों में भटक रहे हैं।

मुझे याद है आज भी वो सर्दियों का मौसम। हम कितने साल बाद मिल रहे थे। शायद पाँच साल बाद। उसे देखा तो दौड़ कर गयी उसकी तरफ़ और उसने बस ऐसे ही सिर्फ़ 'hug' नहीं किया, नीचे झुका और बाँहों में भींच कर ज़मीन से ऊपर उठा लिया। मेरे पैर हवा में झूल रहे थे। हँसते हँसते आँख भर आयी। 'पागल ही है तू। उतार नीचे। भारी हो गयी हूँ मैं।' हम हँसते ऐसे थे जैसे बचपन से भाग के आए हों। या कि लड़कपन से। कि जब दिल टूटने पर डर नहीं लगता था। उसे मिलवाया कुछ यूँ ही, 'हमारी जान से मिलिए'। दस साल यूँ ही नहीं हो जाते किसी दोस्ती को। कुछ तो पागलपन होता है दो लोगों में। उसमें भी मेरे जैसे किसी से। मेडल देने का मन करता है उसको।

कल रात उसने एक बच्चे की तस्वीर भेजी whatsapp पर। इस मेसेज के साथ कि तेरी बहुत याद आ रही है। बच्चे की तस्वीर में कुछ था जो अजीब तरह से ख़ुद की ओर खींच रहा था। मैं सोचती रही कि किसकी तस्वीर है, कि उसके बेटे को मैं अच्छे से पहचानती हूँ...फिर उसे भी इतने अच्छे से जानती तो हूँ कि उसके बचपन की किसी तस्वीर में पहचान लूँ। रात को सोचती रही कि किसकी तस्वीर होगी। रैंडम किसी बच्चे की फ़ोटो भेज दी क्या उसने।

सुबह पूछा उससे। किसकी फ़ोटो है। उसने बताया मेरे एक्स के बेटे की। मेरा मन ऐसे उमड़ा...दुलार...कि शब्द नहीं बचे। सोचती रही कि औरत का मन कितना प्यार बचाए रखे रखता है अपने पास। और कि दोस्त कैसे तो हैं मेरी ज़िंदगी में। कहाँ से कौन सा सुख लिए आते हैं मेरे लिए। सबसे चुरा के। मैं देर तक उस बच्चे की तस्वीर को देखती रही। उसकी आँखों में अपने पुराने प्यार को तलाशती रही, उसके चेहरे के कट में। उसकी मुस्कान को ही। फिर दो और क़रीबी दोस्तों को भेजी फ़ोटो। कि देखो। कौन सा प्यार कहाँ ख़त्म होता है।

कितने साल हुए। पुराना प्यार पुराना ही पड़ता है। ख़त्म नहीं होता कभी।
जिनसे भी कभी प्यार किया है। सबके नाम।
प्यार। बहुत सा।

***
कल बहुत दिन बाद एक पुराने दोस्त से बात हुयी। बहुत दिन बाद। और बहुत पुराना दोस्त भी। कहा उससे। कि देखो, तुम्हारे बिना जीने की आदत भी पड़ ही गयी। एक वक़्त ऐसा था कि एक भी दिन नहीं होता था कि उससे बात ना होती हो। हमारा वक़्त बंधा हुआ था। आठ बजे के आसपास उसका ऑफ़िस ख़त्म, मेरा ऑफ़िस ख़त्म और बातें शुरू। दिन में क्या लिखे पढ़े, कौन कैसा लिख-पढ़ रहा है से लेकर घर, गाँव, खेत पछार। सब कुछ ही चला आता था हमारी बातों में।

सालों साल हमने घंटों बातें की हैं। और समय भी वही। बाद में कभी कभी दिन में भी फ़ोन कर लिए और एक आध घंटा बात कर ली हो तो कर ली हो, लेकिन वक़्त ऐसा बंधा हुआ था शाम का कि घड़ी मिला ली जा सकती थी उससे। आठ बजे और फ़ोन रिंग।

मेरे दोस्त बहुत कम रहे हैं, लेकिन जो नियमित रहे हैं, उन्हें मालूम है कि वैसे तो मैं हर जगह देरी से जाऊँगी लेकिन अगर कोई रूटीन बंध रहा है तो उसमें एक मिनट भी देर कभी नहीं होगी।

कल अच्छा लगा उससे बात कर के। उसकी हँसी अब भी वैसी ही है। मन को बुहार के साफ़ कर देने वाली। शादी के बारे में बातें करते हुए उसे चीज़ें समझायीं। कि होते होते बनता है सम्बंध। आपसी समझ विकसित होने में वक़्त लगता है। हम दोनों हँसने लगे, कि हम कितने ना समझदार हो गए हैं वक़्त बीतते।

उम्र के इस पड़ाव पर हम नए दोस्त नहीं बनाते। पुराने हैं उन्हें ही सकेर के रखते हैं अपने इर्द गिर्द। चिट्ठियों में। फ़ोन कॉल्ज़ में। whatsapp मेसेज में। प्रेम की अपनी जगह है ज़िंदगी में, लेकिन ये उम्र प्रेम से ज़्यादा, दोस्ती का है। इस उम्र में ऐसे लोग जो आपको समझें। आपके पागलपन को समझें। जो आपके साथ कई साल से रहते आए हैं और ज़िंदगी के हर पहलू से जुड़े हुए हैं, ज़रूरी होते हैं। कि हम एक बेतरह तन्हा होते वक़्त में जी रहे हैं। सतही रिश्तों के भी। ऐसे में जो आपके अपने हैं। जो पुराने यार हैं, दोस्त हैं...उन्हें थोड़ा पास रखिए अपने। उनके पास उदासियों को धमका के भगा देने का हुनर होता है। आपको हमेशा हँसा देने का भी। वे आपका सेन्स औफ़ ह्यूमर समझते हैं। ये लोग बेशक़ीमत होते हैं।

मैं अपनेआप को ख़ुशक़िस्मत समझती हूँ कि मेरे पास कुछ ऐसे लोग हैं। कुछ ऐसे दोस्त हैं। मैंने ज़िंदगी में बहुत रिश्तों में ग़लती की है, लेकिन ये एक रिश्ता बहुत मुहब्बत से निभाया है। आज फ़्रेंडशिप डे नहीं है। लेकिन आज मेरा दिल भरा भरा है। कि मुझ जैसे टूटे-फूटे इंसान का दोस्त होना मुश्किल है। बहुत ही वायलेंट उदासी, सूयसाइडल शामें और एकदम से रिपीट मोड वाले सुख में जीती हूँ मैं। ऐसे में मेरे जैसा बुरा होना, मुझे judge नहीं करना। पर समझना या कि प्यार करना ही। आसान नहीं है। उन आफ़तों के लिए कि जो मेरी ज़िंदगी की राहतें हैं।

तुम जानते हो कि तुम बेशक़ीमत हो।
लव यू कमीनों। मेरी ज़िंदगी में रौनक़ बने रहना। यूँ ही।

29 October, 2017

जानां, तुम्हारे बाद, किसी से क्या इश्क़ होगा


लिखते हुए समझ नहीं आ रहा उसे लिखूँ या उन्हें। प्रेम के बारे में लिखती हूँ तो उसे कहती हूँ, व्यक्ति की बात आती है तो उन्हें कहना चाहती हूँ।

आज बहुत दिन बाद उन्हें सपने में देखा। सपने की शुरुआत में कोई टीनेजर लड़की थी मेरे साथ। यही कोई अठारह साल के लगभग। पेज के कुछ उन रीडर्ज़ जैसी जिनसे मेरी कभी कभी बात हो जाती है। कोई ऐसी जो बहुत अपनी तो नहीं थी लेकिन प्यारी थी मुझे। मैं उसके साथ एनफ़ील्ड पर घूमने गयी थी कहीं। वहाँ पहाड़ थे और पहाड़ों से घाटी दिखती थी। एक ऊँचे पहाड़ पर कोई भी नहीं था। सुंदर मौसम था। बारिश हो रही थी। हम देर तक बारिश में भीगते रहे और बात करते रहे। प्रेम के बारे में, इसके साथ आते हुए दुःख सुख के बारे में। मेरे पास अनुभव था, उसके पास भोलापन। बहुत अच्छा लग रहा था एक दूसरे से बात कर के। हम दोनों एक दूसरे से सीख रहे थे।

वहाँ से मैं एनफ़ील्ड से ही आयी लेकिन आते आते वो लड़की कहाँ गयी, सो मुझे याद नहीं। मैं अकेले ही राइड कर रही थी मौसम बहुत गर्म था इसलिए कपड़े लगभग सूख गए थे लेकिन हेल्मट के नीचे बाल हल्के गीले थे। और कपड़ों का हल्का गीलापन कम्फ़्टर्बल नहीं था। अगले फ़्रेम में मैं उनके घर गयी हुयी हूँ। घर कुछ ऐसा है जैसे छोटे क़स्बों में घर हुआ करते हैं। छत पर कपड़े सूख रहे हैं। बालकनी है। पीछे छोटा सा आँगन है। काई लगी दीवारें हैं। मैं बहुत चाह कर भी शहर को प्लेस नहीं कर पायी कि शहर कौन सा है। ये उनका पैतृक गाँव नहीं था, ये उनके शहर का मकान नहीं था, ये मेरा पैतृक गाँव नहीं था, ये दिल्ली नहीं था, ये बैंगलोर नहीं था, ये ऐसा कोई शहर नहीं था जिसमें मैं कभी गयी हूँ लेकिन वहाँ उस मकान में अजीब अपनापन था। जैसे कि हम लोग पड़ोसी रहे हों और मेरा ऐसे उनके घर चले जाना कोई बहुत बड़ी बात ना हो। जबकि ये समझ थी कहीं कि मैं उनके घर पहली बार गयी हूँ।

भीतर का गीलापन। कपड़ों का सिमा हुआ होना जैसे बारिशों के दिन में कपड़े सूखे ना हों, हल्के गीले ही रहते हैं। कोरों किनारों पर। मैंने किसी से इजाज़त नहीं ली है, अपने कपड़े लेकर नहाने चली गयी हूँ। यहाँ का हिस्सा मेरे पटना के मकान का है। नहा के मैंने ढीली सी एक पैंट और टी शर्ट पहनी है। बाल हल्के गीले हैं। घर के बाहर औरतें बैठी हैं और बातें कर रही हैं। मैं उन्हें जानती नहीं हूँ। उनकी बेटी भी आयी हुयी है अपने कॉलेज की छुट्टियों से। जब उससे बात कर रही हूँ तो शहर दिल्ली हुआ जाता है। अपने JNU में किसी के हॉस्टल जैसा, वहाँ के गलियारे, लाल पत्थरों वाली बिल्डिंग कुछ पुराने दोस्तों के कमरे याद आ रहे हैं।शायद एक उम्र को मैं हमेशा JNU के हास्टल्ज़ से ही जोड़ती हूँ। उसकी हँसी बहुत प्यारी है। वो कह रही है कि कैसे उसे मेरा पढ़ना बहुत रास आ रहा है। मैं मुस्कुरा रही हूँ, थोड़ा लजा भी रही हूँ। हम किचन में चले आए हैं। उसे किसी ने बुलाया है तो वो चली गयी है।

ये किचन एकदम मेरे पटना वाले घर जैसा है। इसकी खिड़की पर निम्बू का पेड़ भी है। मैं उन्हें देखती हूँ। जिस प्यार की मुझे कोई समझ नहीं है। वैसे किसी प्यार में होते हुए। पूछती हूँ उनसे, ‘आप निम्बू की चाय पिएँगे?’, वे कहते हैं ‘तुम जो बनाओगी पी लेंगे, इसमें क्या है’। मैं कई उम्रों से गुज़रती हूँ वहाँ एक चाय बनाती हुयी। कई सारे सफ़र हुआ करते हैं हमारे बीच। खौलता हुआ पानी है। मैं चीनी डालती हूँ। दो कप नींबू की चाय में छह चम्मच चीनी पड़ती है। सब कुछ इतना धीमा है जैसे सपने में ही हो सकता है। खौलते पानी के बुलबुले एकदम सफ़ेद। मैं उन्हें देखती हूँ। वे कुछ कह नहीं रहे। बस देख रहे हैं। जाने कैसी नज़र से कि दिल बहुत तेज़ धड़कने लगा है। हाथ थरथरा रहे हैं। मुझे अभी चाय में पत्ती डालनी है। मैं इक थरथराहट में ही दो छोटी चम्मच पत्ती डालती हूँ। चाय का रंग दिख रहा है। गहरा आता हुआ। एकदम सफ़ेद दो प्यालियों में छानती हूँ चाय। वे खड़े हैं एकदम पास ही। कोई छह फ़ुट का क़द। साँवला रंग। एक लट माथे पर झूली हुयी जिसे हटा देने का अधिकार मुझे नहीं। उनकी आँखों का रंग देखने के लिए मुझे एकदम ही अपना सर पूरा ऊपर उठाना होता है। चाय में नींबू गारती हूँ तो सपने में भी अपनी उँगलियों से वो गंध महसूसती हूँ। चाय का रंग सुनहला होता है। मेरा हाथ कांपता है उन्हें चाय देते हुए।

दिल जानता है कि वो लम्हा है, ‘थी वस्ल में भी फ़िक्रे जुदाई तमाम शब’। कि वो सामने हैं। कि ये चाय बहुत अच्छी बनी है। कि मैं उनसे बहुत प्रेम करती हूँ। मुहब्बत। इश्क़। मगर ये, कि ये दोपहर का टुकड़ा कभी भी दुबारा नहीं आएगा। कि मैं कभी यूँ प्रेम में नहीं होऊँगी फिर। ताउम्र। कि सपना जितना सच है उतनी ज़िंदगी कभी नहीं होगी।

मैं नींद से उठती हूँ तो उनकी नर्म निगाहें अपने इर्द गिर्द पाती हूँ, जैसे कोई धूप की महीन शॉल ओढ़ा दे इस हल्की भीनी ठंढ के मौसम में। कि ये गंध। नींबू की भीनी गंध। अंतिम विदा कुछ ऐसे ही गमक में अपना होना रचता है। कि वो होते तो पूछती उनसे, आपके काँधे से अब भी अलविदा की ख़ुशबू आती है।

‘इश्क़’ इक ऐसी उम्र का शब्द है जब ‘हमेशा’ जैसी चीज़ें समझ आती थीं। इन दिनों मैं शब्दों की तलाश में यूँ भटकती हूँ जैसे ज़ख़्म चारागर की तलाश में। कौन सा शब्द हो कि इस दुखते दिल को क़रार आ जाए। इश्क़ में एक बचपन हमेशा सलामत रहता है। एक भोलापन, एक उम्मीद। कि इश्क़ करने में एक नासमझ सी हिम्मत और बिना किसी सवाल के भरोसा - दोनों चाहिए होते हैं। आसान कहाँ होता है तर्क की कसौटी पर हर सवाल का जवाब माँगना। कि वे दिन कितने आसान थे जब ज़िंदगी में शब्द बहुत कम थे। कि जब ऐसी हर महसूसियत को प्यार ही कहते थे, उसकी तलाश में दुनिया भर के शब्दकोश नहीं छानते थे। कि अच्छा था ना, उन दिनों इश्क़ हुआ उनसे और उन दिनों ये लगा कि ये इश्क़ ताउम्र चलेगा। सुबह की धूप की कसम, मैंने वादा सच्चा किया था। आपके बाद किसी से इश्क़ नहीं होगा।

हम इश्क़ को होने कहाँ देंगे। खड़ा कर देंगे उसको सवालों के कटघरे में। जिरह करेंगे। कहेंगे कि प्रूफ़ लाओ। कुछ ऐसा जो छू कर देखा जा सके, चखा जा सके, कुछ ऐसा जो रेप्लिकेट किया जा सके। फ़ोटोस्टैट निकाल के लाओ फ़ीलिंज़ का।

ऐसे थोड़े होता है सरकार। हमारे जैसे आवारा लोगों के दिल पर कुछ आपकी हुकूमत, आपकी तानाशाही थी तो अच्छा था। वहाँ से छूटा ये दिल आज़ाद हो गया है। अब कहाँ किसी के नज़र के बंधन में बांधे। अब कहाँ किसी के शब्दों में उलझे। अब तो दूर दूर से देखता है सब। भीगता है मगर डूबता नहीं। या कि किसी में ताब कहाँ कि खींच सके हमें हमारी ज़िद से बाहर। कितने तो भले लोग हैं सब। हमारी फ़िक्र में हमें छोड़ देते हैं…साँस लेते देते हैं…उड़ने देते हैं आज़ाद आसमान में।

गाने की लाइन आती है, सीने में उलझती हुयी, किसी बहुत पुराने इश्क़ की आख़िरी याद जैसी। ‘कितना सुख है बंधन में’। कि बहुत तड़प थी। आवाज़ के एक क़तरे के लिए जान दे देने की नौबत थी। कि चाँद दुखता था। कि जिसे देखा भी नहीं था कभी, जिसे सिर्फ़ शब्दों को छू कर महसूसा था, उसका इश्क़ इतना सच्चा, इतना पक्का था कि रूह से वादा माँग लिया, ‘अब तुम्हारे बाद किसी से इश्क़ ना होगा’।

कैसा था आपको देखना? छूना। चूमना आपकी उँगलियाँ? मज़ार पर जा कर मन्नत का कोई लाल धागा खोलना और बाँध लेना उससे अपनी रूह के एक कोने में गाँठ। कि इतना ही हासिल हो ज़िंदगी भर का। इंतज़ार के रंग में रंगना साल भर और इश्क़ को देना इजाज़त कि भले ख़ून से होली खेली जाए मगर मक़तल की रौनक़ सलामत रहे। साथ पी गयी सिगरेट के बुझे हुए हिस्से की गंध में डूबी उँगलियाँ लिख जाएँ कहानियाँ मगर बचा के रखें दुनिया की नज़र से। कि जिसे हर बार मिलें यूँ कि जैसे आख़िरी बार हो। कि मर जाएँगे अगली बार मिलने के पहले ही कहीं। कि सिर्फ़ एक गीत हो, पुराना, शबे तन्हाई का...चाय हो इलायची वाली और ठंढ हो बस। कह सकते हैं इश्क़ उसे?

कि वो इश्क़ परिभाषाओं का मोहताज कहाँ था जानां...वो तो बस यक़ीन था...सीने में धड़कता...तुम्हारे नाम के साथ। हम हर चीज़ की वजह कहाँ माँगते तह उन दिनों। वे दिन। कि जब इश्क़ था, बेहतर थे। सुंदर थे। ज़िंदा थे।

दुनियादारी में हमसे इश्क़ भी छूटा और हमेशा जैसी किसी चीज़ पर भरोसा भी। कैसा लगता है सूना सूना दिल। उजाड़। कि जिसमें मीलों बस्ती नहीं कोई। घर नहीं कोई। सराय नहीं। मयखाना भी नहीं। याद के रंग झर गए हैं सब उँगलियों से। वरना, जानां, लिखते तुम्हें एक आख़िरी ख़त…बग़ैर तुम्हारी इजाज़त के…कहते… ‘जानां, तुम्हारे बाद, वाक़ई किसी से इश्क़ ना होगा’।

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