02 November, 2017

मौसम के नाम, प्यार

मौसम उनके बीच किसी किरदार की तरह रहता। किसी दोस्त की तरह जिसे उनकी सारी बातें पता होतीं। उन्हें कहना नहीं आता, लेकिन वे जिस मौसम का हाल पूछते थे वो किसी शहर का मौसम नहीं होता। वो किसी शहर का मौसम हो भी नहीं सकता था। वो मन का मौसम होता था। हमेशा से। 

कि पहले बार उसने क्यूँ भेजी थीं सफ़ेद सर्दियाँ? और लड़की कैसे थी ऐसी, गर्म पानी का सोता...लेकिन उसे ये कहाँ मालूम था कि ये गर्म पानी नहीं, खारे आँसू हैं...उसकी बर्फ़ ऊँगली के पोर पर आँसू ठहरता तो लम्हे भर की लड़ाई होती दो मौसमों में। दुनिया के दो छोर पर रहने वाले दो शहरों में भी तो। मगर अंत में वे दोनों एक सम पर के मान जाते। 

बीच के कई सालों में कितने मौसम थे। मौसम विभाग की बात से बाहर, बिगड़ैल मौसम। मनमानी करते। लड़की ज़िद करती तो लड़के के शहर में भी बारिश हो जाती। बिना छतरी लिए ऑफ़िस गया लड़का बारिश में भीग जाता और ठिठुरता बैठा रहता अपने क्यूबिकल में। 'पागल है ये लड़की। एकदम पागल...और ये मौसम इसको इतना सिर क्यूँ चढ़ा के रखते हैं, ओफ़्फ़ोह! एक बार कुछ बोली नहीं कि बस...बारिश, कोहरा...आँधी...वो तो अच्छा हुआ लड़की ने बर्फ़ देखी नहीं है कभी। वरना बीच गर्मियों के वो भी ज़िद पकड़ लेती कि बस, बर्फ़ गिरनी चाहिए। थोड़ी सी ही सही।' कॉफ़ी पीने नीचे उतरता तो फ़ोन करता उसे, 'ख़ुश हो तुम? लो, हुआ मेरा गला ख़राब, अब बात नहीं कर पाउँगा तुमसे। और कराओ मेरे शहर में बारिश' लड़की बहुत बहुत उदास हो जाती। शाम बीतते अदरक का छोटा सा टुकड़ा कुतरती रहती। अदरक की तीखी गंध ऊँगली की पोर में रह जाती। उसे चिट्ठियाँ लिखते हुए सोचती, ये बारिश इस बार कितने दिनों तक ऐसे ही रह जाएगी पन्नों में। 

***

ठंढ कोई मौसम नहीं, आत्मा की महसूसियत है। जब हमारे जीवन में प्रेम की कमी हो तो हमारी आत्मा में ठंढ बसती जाती है। फिर हमारी भोर किटकिटाते बीतती है कि हमारा बदन इक जमा हुआ ग्लेशियर होता है जिसे सिर्फ़ कोई बाँहों में भींच कर पिघला सकता है। लेकिन दुनिया इतनी ख़ाली होती है, इतनी अजनबी कि हम किसी को कह नहीं सकते...मेरी आत्मा पर ठंढ उतर रही है...ज़रा बाँहों में भरोगे मुझे कि मुझे ठंढ का मौसम बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। 

लड़की की सिसकी में डूबी आवाज़ एक ठंढी नदी होती। कि जिसमें पाँव डाले बैठे रहो तो सारे सफ़र में थरथराहट होगी। कि तुम रास्ता भूल कर अंधेरे की जगह रौशनी की ओर चले जाओगे। एक धीमी, कांपती रौशनी की लौ तक। सिगरेट जलाते हुए जो माचिस की तीली के पास होती है। उतनी सी रौशनी तक। 

बर्फ़ से सिर्फ़ विस्की पीने वाले लोग प्यार करते हैं। या कि ब्लैक कॉफ़ी पीने वाले। सुनहले और स्याह के बीच होता लड़की की आत्मा का रंग। डार्क गोल्डन। नीले होंठ। जमी हुयी उँगलियाँ। तेज़ आँधी में एक आख़िरी बार तड़प कर बुझी हुयी आँखें।

वो किसी संक्रामक बीमारी की तरह ख़तरनाक होती। उसे छूने से रूह पर सफ़ेद सर्दियाँ उतरतीं। रिश्तों को सर्द करती हुयीं। एक समय ऐसा भी होता कि वो अपनी सर्द उँगलियों से बदन का दरवाज़ा बंद कर देती और अपने इर्द गिर्द तेज़ बहती बर्फ़ीली, तूफ़ानी नदियाँ खींच देती। फिर कोई कैसे चूम सकता उसकी सर्द, सियाह आँखें। कोई कैसे उतरते जाता उसकी आत्मा के गहरे, ठंढे, अंधेरे में एक दिया रखने की ख़ातिर।

लड़की कभी कभी unconsolable हो जाती। वहाँ से कोई उसे बचा के वापस ला नहीं पाता ज़िंदगी और रौशनी में वापस। 
हँसते हुए आख़िरी बात कहती। एक ठंढी हँसी में। rhetoric ऐसे सवाल जिनके कोई जवाब नहीं होते।
'लो, हम मर गए तुम पर, अब?'

***
'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'

सबको इस बात पर आश्चर्य क्यूँ होता कि लड़की के पास बहुत से अनकहे शब्द हुआ करते। उन्हें लगता कि जैसे उसके लिए लिखना आसान है, वैसे ही कह देना भी आसान होता होगा। ऐसा थोड़े होता है।

कहने के लिए आवाज़ चाहिए होती है। आवाज़ एक तरह का फ़ोर्स होती। अपने आप में ब्लैक होल होती लड़की के पास कहाँ से आती ये ऊर्जा कि अपने ही प्रचंड घनत्व से दूर कर सके शब्द को...उस सघनता से...इंटेन्सिटी से...कोई शब्द जो बहुत कोशिश कर के बाहर निकलता भी तो समय की टाइमलाइन में भुतला जाता। कभी अतीत का हिस्सा बन जाता, कभी भविष्य का। कभी अफ़सोस के नाम लिखाता, कभी उम्मीद के...लेकिन उस लड़के के नाम कभी नहीं लिखाता जिसके नाम लिखना चाहती लड़की वो एक शब्द...एक कविता...एक पूरा पूरा उपन्यास। उसका नाम लेना चाहती लेकिन कहानी तक आते आते उसका नाम कोई एक अहसास में मोर्फ़ कर जाता।

लड़की समझती सारी उपमाएँ, मेटाफर बेमानी हैं। सब कुछ लिखाता है वैसा ही जैसा जिया जाता है। कविताओं में भी झूठ नहीं होता कुछ भी।

सुबह सुबह नींद से लड़ झगड़ के आना आसान नहीं होता। दो तीन अलार्म उसे नींद के देश से खींच के लाना चाहते लेकिन वहाँ लड़का होता। उसकी आँखें होतीं। उसकी गर्माहट की ख़ुशबू में भीगे हाथ होते। कैसे आती लड़की हाथ छुड़ा के उससे।

सुबह के मौसम में हल्की ठंढ होती। जैसे कितने सारे शहरों में एक साथ ही। सलेटी मौसम मुस्कुराता तो लड़की को किसी किताब के किरदार की आँखें याद आतीं। राख रंग की। आइना छेड़ करता, पूछता है। आजकल बड़ा ना तुमको साड़ी पहनने का चस्का लगा है। लड़की कहती। सो कहो ना, सुंदर लग रही हूँ। मौसम कहता, सिल्क की साड़ी पहनो। लड़की सिल्क की गर्माहट में होती। कभी कभी भूल भी जाती कि इस शहर में वो कितनी तन्हा है...वो लड़का इतना क़रीब लगता कि कभी कभी तो उदास होना भी भूल जाती।

कार की विंडो खुली होती। उसका दिल भी। दुःख के लिए। तकलीफ़ के लिए। लेकिन, सुख के लिए भी तो। सुबह कम होता ट्रैफ़िक। लड़की as usual गाड़ी उड़ाती चलती। किसी रेसिंग गेम की तरह कि जैसे हर सड़क उसके दिल तक जाती हो। गाना सुनती चुप्पी में, गुनगुनाती बिना शब्द के।

लड़की। इंतज़ार करती। गाने में इस पंक्ति के आने का। अपनी रूह की उलझन से गोलती एक गाँठ और गाती, 'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'


और कहीं दूर देश में अचानक उसकी हिचकियों से नींद खुल जाती...ठंढे मौसम में रज़ाई से निकलने का बिलकुल भी उसका मन नहीं करता। आधी नींद में बड़बड़ाता उठता लड़का। 'प्यार करने की तमीज़ ख़ाक होगी, इस पागल लड़की को ना, याद करने तक की तमीज़ नहीं है'

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