वो जो याद के गुलमोहर थे... |
सब उधार की यादें हैं...
कुछ नया लिखने को जगह ही नहीं है. महसूस हुआ कि यादें भी एक उम्र के बाद कहीं सहेज के रख देनी होती हैं कि वर्तमान के पल के लिए जगह बन सके.
मैं बहुत साल बाद गयी थी. पाटलिपुत्रा कोलनी. जहाँ घर हुआ करता था. मोड़ पर, सड़क पर, गुलमोहर के पेड़ों पर. याद की अनगिन कतरनें थीं. धूल का अंधड़ था कि सांस लेने को जगह बाकी नहीं थी.
इतने साल बाद भी सारे रस्ते वैसे ही याद थे...किस मोड़ पर रुकी थी...कहाँ पहली बारिश का स्वाद चखा था...कोलेज के आगे का चाट का ठेला...गोसाईं टोला की वो दूकान जहाँ एक रुपये में कैसेट पर गाना रिकोर्ड करवाते थे. नेलपॉलिश खरीदने वाली दुकान. बोरिंग रोड का वो हनुमान जी का मंदिर. आर्चीज की दुकान की जगह लीवाईज का शोरूम खुल गया है.
कितने सालों में ये शहर परत दर परत मेरे अन्दर बसता रहा है. बचपन की यादें नानीघर से. जब भी जाते थे दिदिमा अक्सर बाहर ही दिखती थी. उसमें कोई फ़िल्मी चीज़ नहीं दिखती थी. कोने खोपचे के किराने की दुकान, आइसक्रीम फैक्ट्री, दूर तक जाती रेल की पटरियां. हर चीज़ के साथ जुड़े कितने लोग दिखते रहे...मम्मी, नानाजी...बचपन और कोलेज के कुछ दोस्त जिनका अब नाम भी याद नहीं.
कैसी कैसी यादें सेलोफेन पेपर खरीदने से लेकर बोरिंग रोड के सैंडविच में पेस्ट्री खाने की यादें. कितने चेहरे...टुनटुन भैय्या, लब्बो, काजल दीदी, नन्ही दीदी, बॉबी दीदी, राजू भैय्या...अपना ३०२ वाला घर, घर के आगे जामुन के पेड़...बाउंड्री पर लगे पीले कनेल की कतार. वो बगल वाले घर में रहने वाला कोई जो ऐनडीए में पढ़ता था और छुट्टियों पर आता था तो मिलिट्री कट बाल होते थे उसके. घर की छत से सूरज डूबते देखना.
रवि भारती जाना...फ्रैंक सर की भोजपुरी...होप अपार्टमेंट...हिमा से की गयी अनगिन बातें. पूरे शहर भटकते हुए लगता रहा कि लौट कर घर जायेंगे...मम्मी इंतज़ार कर रही होगी. यकीन नहीं होता, दुनिया के किसी भी शहर में कि घर जाने पर मम्मी नहीं होगी...पटना में तो जैसे हर जगह बस एक वही है. कहीं उसके साथ कपड़े खरीदने की यादें हैं, कही उसके साथ झगड़ा कर रहे हैं...पिस्ता वाला आइसक्रीम खिला रहे हैं उसको. कहाँ नहीं है वो. मन कैसी रेतघड़ी है एक तरफ से भरती एक तरफ से रीतती. मैं अतीत से उबरूं तब तो कहीं वर्तमान में रह सकूं. कहीं भी घूमते हुए लगता रहा कि लौट कर अपने पाटलिपुत्रा वाले घर जायेंगे, कोई जादू होता होगा दुनिया में कहीं कि सब सही हो जाएगा.
यादों ने जीने नहीं दिया...अतीत के साथ सुलह करनी जरूरी है. इतना कुछ पीछे सोचूंगी तो कैसे जीना होगा? राजीव नगर से गुजरी...कहीं मंदिर, कहीं साइबर कैफे, कहीं दूर तक जाती रेल की पटरी...साथ थोड़ी दूर पर चलती गंगा. इस बार बड़ी इच्छा थी कि एक बार गंगा को देख आऊँ मगर लोग कहते हैं कि गंगा रूठ गयी है. दिखती नहीं है. वक़्त याद आता है कि कुर्जी में कैसे ठाठें मारती दिखती थी गंगा. याद आया उसका बरसातों में ललमटिया सा हो जाना. हहराती गंगा में विसर्जित करना टूटी हुयी मूर्तियाँ, दीवाली के दिए, यादों से निकाल कर नाम कोई.
I am jigsaw puzzle of collective memories, the key piece of which has been lost with mummy, forever. For all they try, no one can assemble me with all the pieces in their right place. And so I remain, a confused jumble of faces, tears, smiles, people, lost and found, roads, rain, school, college, teachers, friends...
इस बार होली में गैरजरूरी सामान के याद कुछ यादों को भी बुहार कर बाहर कर दूँगी...बहुत सा डेड स्पेस खाती हैं यादें और वहां कुछ नया, कुछ अच्छा उगाने की उम्मीद नहीं बचती. अतीत एक कालकोठरी क्यूँ बने...उसमें गाँव की खुली पगडण्डी पर दौड़ती हूँ मैं...वहां मम्मी के हाथों के खाने की खुशबू है. वहां माथे पर रखा मम्मी का आशीर्वाद है. इन सबसे नयी रोपनी करनी होगी...मिट्टी को जोतना होगा. रोपने होंगे खुशियों के बिरवे...उम्मीदों के फसल उगानी होगी.
एक दिन...किसी एक दिन...मैं चीज़ों को वैसा का वैसा एक्सेप्ट कर लूंगी...नए दिन में नया जी सकूंगी. चंद रोज और मेरी जान, बस चंद रोज...