25 March, 2013

यादों का जंकयार्ड

वो जो याद के गुलमोहर थे...
पटना...
सब उधार की यादें हैं...
कुछ नया लिखने को जगह ही नहीं है. महसूस हुआ कि यादें भी एक उम्र के बाद कहीं सहेज के रख देनी होती हैं कि वर्तमान के पल के लिए जगह बन सके.

मैं बहुत साल बाद गयी थी. पाटलिपुत्रा कोलनी. जहाँ घर हुआ करता था. मोड़ पर, सड़क पर, गुलमोहर के पेड़ों पर. याद की अनगिन कतरनें थीं. धूल का अंधड़ था कि सांस लेने को जगह बाकी नहीं थी.

इतने साल बाद भी सारे रस्ते वैसे ही याद थे...किस मोड़ पर रुकी थी...कहाँ पहली बारिश का स्वाद चखा था...कोलेज के आगे का चाट का ठेला...गोसाईं टोला की वो दूकान जहाँ एक रुपये में कैसेट पर गाना रिकोर्ड करवाते थे. नेलपॉलिश खरीदने वाली दुकान. बोरिंग रोड का वो हनुमान जी का मंदिर. आर्चीज की दुकान की जगह लीवाईज का शोरूम खुल गया है.

कितने सालों में ये शहर परत दर परत मेरे अन्दर बसता रहा है. बचपन की यादें नानीघर से. जब भी जाते थे दिदिमा अक्सर बाहर ही दिखती थी. उसमें कोई फ़िल्मी चीज़ नहीं दिखती थी. कोने खोपचे के किराने की दुकान, आइसक्रीम फैक्ट्री, दूर तक जाती रेल की पटरियां. हर चीज़ के साथ जुड़े कितने लोग दिखते रहे...मम्मी, नानाजी...बचपन और कोलेज के कुछ दोस्त जिनका अब नाम भी याद नहीं.

कैसी कैसी यादें सेलोफेन पेपर खरीदने से लेकर बोरिंग रोड के सैंडविच में पेस्ट्री खाने की यादें. कितने चेहरे...टुनटुन भैय्या, लब्बो, काजल दीदी, नन्ही दीदी, बॉबी दीदी, राजू भैय्या...अपना ३०२ वाला घर, घर के आगे जामुन के पेड़...बाउंड्री पर लगे पीले कनेल की कतार. वो बगल वाले घर में रहने वाला कोई जो ऐनडीए में पढ़ता था और छुट्टियों पर आता था तो मिलिट्री कट बाल होते थे उसके. घर की छत से सूरज डूबते देखना.

रवि भारती जाना...फ्रैंक सर की भोजपुरी...होप अपार्टमेंट...हिमा से की गयी अनगिन बातें. पूरे शहर भटकते हुए लगता रहा कि लौट कर घर जायेंगे...मम्मी इंतज़ार कर रही होगी. यकीन नहीं होता, दुनिया के किसी भी शहर में कि घर जाने पर मम्मी नहीं होगी...पटना में तो जैसे हर जगह बस एक वही है. कहीं उसके साथ कपड़े खरीदने की यादें हैं, कही उसके साथ झगड़ा कर रहे हैं...पिस्ता वाला आइसक्रीम खिला रहे हैं उसको. कहाँ नहीं है वो. मन कैसी रेतघड़ी है एक तरफ से भरती एक तरफ से रीतती. मैं अतीत से उबरूं तब तो कहीं वर्तमान में रह सकूं. कहीं भी घूमते हुए लगता रहा कि लौट कर अपने पाटलिपुत्रा वाले घर जायेंगे, कोई जादू होता होगा दुनिया में कहीं कि सब सही हो जाएगा.

यादों ने जीने नहीं दिया...अतीत के साथ सुलह करनी जरूरी है. इतना कुछ पीछे सोचूंगी तो कैसे जीना होगा? राजीव नगर से गुजरी...कहीं  मंदिर, कहीं साइबर कैफे, कहीं दूर तक जाती रेल की पटरी...साथ थोड़ी दूर पर चलती गंगा. इस बार बड़ी इच्छा थी कि एक बार गंगा को देख आऊँ मगर लोग कहते हैं कि गंगा रूठ गयी है. दिखती नहीं है. वक़्त याद आता है कि कुर्जी में कैसे ठाठें मारती दिखती थी गंगा. याद आया उसका बरसातों में ललमटिया सा हो जाना. हहराती गंगा में विसर्जित करना टूटी हुयी मूर्तियाँ, दीवाली के दिए, यादों से निकाल कर नाम कोई.

I am jigsaw puzzle of collective memories, the key piece of which has been lost with mummy, forever. For all they try, no one can assemble me with all the pieces in their right place. And so I remain, a confused jumble of faces, tears, smiles, people, lost and found, roads, rain, school, college, teachers, friends...

इस बार होली में गैरजरूरी सामान के याद कुछ यादों को भी बुहार कर बाहर कर दूँगी...बहुत सा डेड स्पेस खाती हैं यादें और वहां कुछ नया, कुछ अच्छा उगाने की उम्मीद नहीं बचती. अतीत एक कालकोठरी क्यूँ बने...उसमें गाँव की खुली पगडण्डी पर दौड़ती हूँ मैं...वहां मम्मी के हाथों के खाने की खुशबू है. वहां माथे पर रखा मम्मी का आशीर्वाद है. इन सबसे नयी रोपनी करनी होगी...मिट्टी को जोतना होगा. रोपने होंगे खुशियों के बिरवे...उम्मीदों  के फसल उगानी होगी.

एक दिन...किसी एक दिन...मैं चीज़ों को वैसा का वैसा एक्सेप्ट कर लूंगी...नए दिन में नया जी सकूंगी. चंद रोज और मेरी जान, बस चंद रोज...

20 March, 2013

मुस्कराहट का परजीवी आंसुओं से सिंचता है


मुस्कराहट का परजीवी आंसुओं से सिंचता है.
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और वो खो गया. ऐसे जैसे कभी था ही नहीं. ऐसे जैसे नदी के तट से गुम हुआ हो कोहरा, ऐसे जैसे राम ने ली थी जल समाधि.

मुझे देर तक दिखती रही उसकी आँखें, चेहरा बदल बदल कर. सलेटी कपड़े पहने वो कौन था जिसने पूरे धैर्य से मेरी पूरी जिंदगी सुनी और अंत में श्राप देने की जगह सर पर हाथ रखते हुए आशीर्वाद में अभयदान दे गया.

संत, महात्मा, दुनिया से विरक्त कोई? मेरे मन को समझने वाला. रात का तीसरा पहर था. अलाव के आखिरी अंगारे बचे थे. प्रेम अपनी ऊष्मा बचाए रखने के लिए कोई नहीं दुनिया नहीं बसाना चाहता था.

मैं थी की मिटटी के घरोंदों को ही घर मान बैठी थी. कहाँ मैं बंजारन और कैसा वो धरती से सोना उगाने वाला किसान, हमारा क्या मेल था.

-किसी तारीख का लिखा हुआ, जो तारीख लिखी नहीं गयी.
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Absence of death is not life. Absence of life is death.
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मैं कहीं गुम हो जाना चाहती हूँ. 

14 March, 2013

घड़ी तुम्हारे लौट आने का वक़्त नहीं बताती है

डेज ऑफ़ बीईंग वाइल्ड...एक उदास खालीपन से पूरी भरी हुयी फिल्म है. इसके किरदार कितने रंगों का इंतज़ार जीते हैं...टेलीफोन की घंटी की गूँज को अपने अन्दर बसाए...उदासी का एक वृत्त होता है जिसके रंग बरसात के बाद भी फीके दीखते हैं. कैसा अकेलापन होता है कि अपने सबसे गहरे दर्द को एक नितांत अजनबी के साथ बांटने के लिए मजबूर हो जाता है कोई...

इसका टाइटल प्लेट बहुत बहुत दिनों तक मेरा डेस्कटॉप इमेज रहा है. इस शुरुआत में एक अंत की गाथा है...एक कहानी जो आपको सबसे अलग कर देती है...मृत्यु को ज़ूम इन करके देखती डिरेक्टर की आँखें वो एक चीज़ ढूंढ लाती हैं जिसे मैं कहीं सहेजना चाहती हूँ...वो आखिरी लम्हे में याद आता नाम किसका है.

फिल्म जहाँ ख़त्म होती है...वहीँ शुरू हो जाती है...यू आर आलवेज इन माय हार्ट...
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मौत के पहले के आखिरी लम्हे में वो एक अजनबी से गुज़ारिश करता है कि उस लड़की को हरगिज़ न बताये कि वो वाकई उसे इस आखिरी लम्हे में याद कर रहा है. कि यही उसके लिए बेहतर होगा...कि वो कभी नहीं जाने.

कसम से आज तुम्हारी बहुत याद आई...तुम्हारे साथ और भी कितने लोगों की याद आई जिनकी जिंदगी में कहीं कोई एक हर्फ़ भी नहीं हूँ...मेरे साथ ऐसा क्यूँ होता है...मैं क्यूँ नहीं भूल पाती लोगों को...कभी भी नहीं क्यों? एक छोटी जिंदगी, उफ़ एक छोटी जिंदगी. दिल कैसा उजाड़ मकान है...इसमें कितने पुराने लोग रहते हैं. वो होते हैं न, घर पर अवैध कब्ज़ा कर के बैठ जाने वाले लोग. वे इतने गरीब होते हैं कि उनके पास जाने का कोई ठिकाना नहीं होता है. मकान मालिक इतना गरीब कि उसका किराये के अलावा और कोई आमदनी नहीं. हालात से मजबूर आदमी. 

ऐसी मजबूरी में कैसा प्यार पनाह पाता है...तकलीफ में खिलने वाला ये कैसा पौधा है कि जब इस पर फूल आता है तो उस खुशबू में पूरी दुनिया गुलाबी हो जाती है. एक किरदार है, काफी आम सा...लेकिन जब एक खास एंगल से रौशनी उसपर गिरती है तो बेहद खूबसूरत लगता है. फिल्म देखते हुए गौर करती हूँ तो पाती हूँ कि आखिरी सीन में छत इतनी नीची है कि वो हल्का सा झुक कर खड़ा होता है सारे वक़्त. बहुत कोशिश करके भी उस चेहरे में मैं वो शख्स नहीं ढूंढ पाती जिससे मुझे जल्दी ही प्यार होने वाला है. एक एक करके वो जाने क्या क्या चीज़ें अपनी जेब में रख रहा है. उन चीज़ों में मेरा कुछ भी है...क्या किसी भी चीज़ को कभी मेरे हाथों ने छुआ होगा? एक बार उसने कहा था मेरे हाथ का लिखा एक नोट उसके वालेट में हमेशा रहता है. फिल्म ऐसे कुछ झूठों की नींव पर चलती है. 

फिल्म कहाँ ख़त्म होती है, जिंदगी कहाँ शुरू...तुम क्या लिखते हो और मैं क्या पढ़ती हूँ इन बातों में क्या रखा है. बात इतनी सी है बस कि आज भी रात के आठ बजे अचानक घड़ी पर नज़र चली गयी...एक ये वक़्त है, एक तीन बजने में दस मिनट का वक़्त है. कभी कभार मैं इन वक्तों में घड़ी देख लेती हूँ तो बहुत रोती हूँ. मालूम है, मुझे कभी भी टाइम पर कुछ भी करने की आदत नहीं है...मैं मीटिंग में लेट जाती हूँ, ऑफिस में लेट जाती हूँ, ट्रेन, एयरपोर्ट, सब जगह लेट जाती हूँ. फिल्म में एक मिनट है...लड़की कहती है...मालूम है...मुझे लगता था एक मिनट बहुत जल्दी बीत जाता है...एक मिनट बहुत छोटा वक़्त होता है. हम सब अपनी अपनी जिंदगी में ऐसी कितनी सारी छोटी छोटी चीज़ें सहेज कर रखते हैं. 

घर आई हूँ...२०४६ लगा दी है...इसलिए नहीं कि फिल्म देखनी है...पर इस फिल्म का कोई एक लम्हा है जिसमें बहुत सारी ख़ुशी है. मैं उस ख़ुशी से अपनी फिल्म की रील को ओवरराईट करना चाहती हूँ. फिल्म में वो सायोनारा कहता है...मैं पहली बार नोटिस करती हूँ कि उस पूरी फिल्म में सिर्फ एक शब्द मुझे समझ आया है. मैं भाषाएँ सीखना चाहती हूँ. मैं बहुत बहुत सारा रोना चाहती हूँ पर अचानक से आंसू आने बंद हो गए हैं. मैं सिगरेट का एक लम्बा कश लगाना चाहती हूँ. मैं बहुत सारी वोदका पी जाना चाहती हूँ आज. गहरी लाल चेरी वोदका. बेहद मीठी. बेहद नशीली. 
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मुझे मालूम है कि क्या हुआ है...बेहद खुश होने वाला कोई दिन है...और उसे याद कर रही हूँ...जो फोन पर मेरी आँखों के आंसू देख लेती थी. मैं जाने किस किस चीज़ से उसके नहीं होने को भरना चाहती हूँ. पहले कोपी में डूडल बनाती थी तो उनमें आसमान, बादल, चिड़िया, बारिश होती थीं. मैं आजकल सिर्फ दीवारें बनाती हूँ. जाने कैसी कैसी लकीरें...कैसे रस्ते जो कहीं नहीं खुलते. मैं बहुत उलझ गयी हूँ. पिछली बार जब बहुत पी थी तो होश नहीं था...मैं बहुत रोई थी इतना याद है. मैं बहुत उदास थी कि मैं देखती हूँ कि लोग चढ़ने के बाद बहुत खुश होते हैं, दोस्तों को फोन करते हैं...मैं सिर्फ रोती हूँ. तो क्या बाकी जिंदगी सिर्फ किरदार निभाती हूँ? खुश रहना आदत सी है...नॉर्मली किसी चीज़ को लेकर पोजिटिव रहती हूँ. फिर. फिर क्या?

कहाँ से बहती है दर्द की नदी...कैसी उम्रकैद है...तुम कहाँ हो...मर जाउंगी तो दिखोगी कहीं? पता है माँ, घर गए थे तो याद करने की कोशिश किये...सच्ची में...हमको वाकई याद नहीं हम आखिरी बार खुश कब हुए थे. 
बहुत साल हो गए. 
आई स्टिल मिस यु वेरी मच माँ. 

12 March, 2013

कि दिल का रंग होता है...गुलाबी

वो एक गुलाबी फूलों वाला पेड़ है. उसके पार से नीला आसमान दिखता है...सड़क पर करीने से गिरे हुए गुलाबी फूल हैं. दिल अगर कोई फूल होता तो इसी रंग का होता...ऐसा ही नर्म और नाज़ुक कि तोड़ते हुए आप खुद टूट जाओ. हलकी हवा चलती है तो बहुत से गुलाबी फूल हौले हौले गिरते हैं. रंग इतना हल्का है कि कैमरा में कैद नहीं हो पाता. कुछ हलकी भूरी आँखें याद आती हैं...उनका रंग जैसा मेरी यादों में है, किसी तस्वीर में नहीं है.

मैं रोज बाईक से आती हुयी उस पेड़ को देखती हूँ...हफ्ते भर का मौसम है...गुलाबी. रोज सोचती हूँ कि कैमरा ले आउंगी...इस खूबसूरती को कैद करने की कोशिश करूंगी मगर उनकी खूबसूरती आँखों में खिलती है...मूड का मौसम है उस पेड़ पर. कुछ बैलाड बजाती हूँ. कुछ आवाजें हैं कि वापस दुनिया में लौटा लाती हैं.

बहुत सी देखे हुए दृश्यों के रंग नहीं होते...बचपन में घुटने पर चोट लगी तो खून बह रहा था मगर खून का रंग सियाह याद आता है. एक बार तुम्हारी दवात गिर गयी थी, किस रंग से लिखते थे तुम? इतना दर्द लिखते हो अब तक, उस समय तो शायद गहरी नीली सियाही इस्तेमाल करते होगे या कि उम्र थी कच्ची...हरे रंग का था क्या? फिर मेरे खतों में तुम्हारा सिग्नेचर सिर्फ काले रंग में क्यूँ मिलता है? यादों का कौन सा फ़िल्टर है कि सारे रंग एक बार में ही खो जाते हैं.

मैंने तुम्हारे कमरे पर जो फूल लगाए थे गुलदान में, वो कैसे हो सकते हैं काले...कम से कम रजनीगंधा का कोई तो रंग होगा...हल्का गुलाबी...नर्म पीला...खामोश नीला...कोई तो रंग होगा...ऐसा कैसे हो सकता है कि कमरे की दीवारें काले रंग की हों...ऐसा तो सिर्फ इतना था न कि मेरी आँखों में लगा काजल था काले रंग का. साल में कितने दिन थे...दिन में कितने लम्हे...कितने लम्हों में तुम थे मेरी जान? बाकी लम्हों का रंग क्या था? उस साल क्या मैंने सारे दुपट्टे काले रंग के ख़रीदे थे...कहाँ थे रंग मेरी जिंदगी के.

सिर्फ सड़कें याद आती हैं मुझे...मगर कच्ची पगडंडियाँ तो भूरे रंग की होनी चाहिए थीं...काली मिट्टी तो उस जगह नहीं होती...वरना उस मिट्टी में लोग खेती करते. काली मिट्टी बहुत उर्वर होती है. डार्क चोकलेट उन दिनों भी काले रंग की नहीं हो सकती...कत्थई रंग की होती है. तुमने जब हाथ पकड़ा था तो निशान पड़ गए थे...मुझे याद है कि वे निशान काले रंग के थे. मैंने कहा था कि मैं लौट कर नहीं आउंगी...मेरे जाने का रंग क्या था मुझे मालूम नहीं...मगर उस दिन के बाद शायद कमरे में बत्ती नहीं जली कभी. दिन को सूरज का भी रंग होता था न...तुम्हें रंग और रोशनियों में फर्क मालूम है? रोशनियाँ मिल कर सफ़ेद रंग की रौशनी बनती हैं मगर रंग मिला दोगे तो काला रंग बनता है. उस रंग से फिर कोई रौशनी वापस नहीं जाती.

मेरे मूड स्विंग्स थोड़े तमीजदार हो रहे हैं. बता कर आते हैं. कई बार कोशिश करती हूँ तो उदास मौसम को कुछ लम्हों के लिए टाल भी देती हूँ. मेरे पसंद की चोकलेट मिलनी बंद हो गयी है शहर में. मैं ठहरना चाहती हूँ मगर ठहर नहीं पाती...बाईक पर कोई जिन्न खींचता है...इतनी तेज़ इतनी तेज़ कि जैसे जिंदगी से रेस कर रही हूँ...फिर से कोलाज का मौसम है. दुपट्टे को रंगती हूँ सात रंगों में. घर में बजाती हूँ वाल्ट्ज...पढ़ती हूँ पुरानी किताबें. तलाशती हूँ खोयी हुयी किताबों के पीछे लिखी हुयी तारीखें. सोचती हूँ कहीं से लौट आने का मौसम किसी कैलेंडर में दिखेगा.

सांस रोकती हूँ पानी के अन्दर...सब धुंधला लिखता है. याद आता है आज फिर रोते रोते सो गयी हूँ. सुबह बदन में दर्द होता है बहुत. समंदर में डूब रही हूँ...पैरों में जंजीरें हैं...पत्थर है भारी सा कोई...सीने में दर्द है...कोशिश भी नहीं की है एक सांस लेने की...आँखें खोलूंगी तो जाने कैसा दृश्य होगा. किस रंग है जिंदगी? कौन बताये...कौन समझाए!

एक अच्छे वीकेंड की डायरी

एक सुख की जगह होती है...खालीपन के ठीक पास...वहां पर जब होती हूँ अक्सर कुछ नहीं लिखती हूँ. पिछला वीकेंड बेहतरीन था. फ्राइडे को विमेंस डे था. ऑफिस में इतना अच्छा लगा. लगभग चार बजे एक चोकलेट मूस वाला एक डेजर्ट मिला...किसी लड़के को नहीं दिया गया कि स्पेशल डे है आज. जोर्ज को दिखा दिखा के चिढ़ा के खाने का अपना मज़ा था. फिर एक इंटरनल मीटिंग थी तो हम सारे उसमें व्यस्त हो गए. कांफेरेंस रूम के बाहर बहुत शोर हो रहा था...हमने दरवाजा खोल के देखा तो रेड वाइन की बोतलें थीं, बहुत सारे चोकलेट के डिब्बे थे, वाइन ग्लासेस थे और पूरा ऑफिस जुटा हुआ था. 

सेलेब्रेशन में पहले वाईन...स्पेशियल लोगों के लिए...ऑफिस की सारी लड़कियां/औरतें रेसिप्शन पर थीं...चीयर्स के टाइम पर सारे लड़कों के हाथ में कैमरा था...इतने सारे फ्लैश हो रहे थे कि सेलेब्रिटी जैसी फीलिंग आ रही थी. फिर बहुत सारा शोर होता रहा...बहुत सी अच्छी अच्छी बातें. मैं वाइन कभी नहीं पीती पर शायद माहौल का असर था कि अच्छी लग रही थी. थोड़ा सा टिप्सी थी. चोकलेट और वाइन का कॉम्बो किलर था. फिर हमारे लिए राहिल ने डांस भी किया. वो हमारे ऑफिस का रॉकस्टार है. बहुत सारी सीटियाँ बजीं...बहुत सारा शोर फिर से. राहिल ने सबको चोकलेट का डिब्बा गिफ्ट किया...अपनी अपनी श्रद्धा से कुछ लड़कियों ने वापस में गाल पर किस दिया...कुछ ने हग किया...बहुत अच्छा लग रहा था. वापस सीट पर आई तो वहां फूलों का गुलदस्ता रखा था. मूड बेहतरीन था. आई लव माय ऑफिस. :)

घर आई तो वीकेंड गप्पें साढ़े तीन बजे तक चलती रहीं. अगली सुबह पोंडिचेरी निकलना था. ६ बजे का अलार्म लगा कर सोये मगर उठते और तैयार होते ४ बज गए. लॉन्ग ड्राइव टू पोंडिचेरी...३५० किलोमीटर...कुछ अच्छे गाने सुनते, गप्पें मारते कोई ३ बजे पहुँच गए. खाना खाया और सो गए. शाम को समंदर किनारे टहलने गए. कुणाल को समंदर की हवा बहुत अच्छी लगती है. खास तौर से रॉक बीच पर शाम में ट्रैफिक बंद होता है तो सिर्फ लोग चहलकदमी करते हुए दिखते हैं. बीच साइड के छोटे सफ़ेद घर, फ्रेंच आर्किटेक्चर...जरा सी हमें यूरोप की फीलिंग आ रही थी. बाहर गए बहुत टाइम हुआ न...अब हम घुमक्कड़ हो गए हैं दोनों. देखें उसका अगला प्रोजेक्ट कब आता है. इस बार मैं फ़्रांस या इटली घूमने के मूड में हूँ :)

ला कैफे में फ्रैपे और फ्रेंच फ्राईज...फुल अनहेल्दी खाना खाया. अगली सुबह आश्रम ९ बजे पहुंचना था तो सो गए. १० को साकिब का भी बर्थडे है. हम उसे और कुणाल को जुड़वाँ कहते हैं. साकिब एक साल छोटा है उससे. अरविंदो आश्रम में जन्मदिन के दिन श्री अरविन्द के कमरे में ध्यान करने दिया जाता है. हमने सुबह टोकन कटाया और कमरे के बाहर सीढ़ियों पर कुछ देर बैठे रहे. मुझे वहां बहुत से अपने लोगों की याद आई...एकदम चुप बैठे हुए मैंने उनके लिए कई दुआएं की...वो जहाँ हों, खुश रहें. 

उस कमरे में बहुत शांति मिलती है...जैसे सब कुछ ठहर गया हो. ये दुनिया की कुछ उन आखिरी जगहों में से है जहाँ होने पर मैं कहीं भाग नहीं जाना चाहती...रहना चाहती हूँ. साँस लेना चाहती हूँ...कपूर की खुशबू में डूबे उस कमरे को अपने अन्दर बसा लेना चाहती हूँ. 

वहां से बाहर आ के कुछ किताबें खरीदीं...दिलीप मामा के साथ थोड़ा चाय कॉफ़ी...दिलीप मामा हमें अपना रूम दिखाने ले गए. उन्होंने कहा कि कमरा थोडा अस्त-व्यस्त है. मैंने कहा मुझे केओस अच्छा लगता है. मामाजी के पास बहुत सी किताबें थीं और उन्हें स्कल्पचर का शौक़ था तो जाने कहाँ कहाँ की मूर्तियाँ थीं. उनके पास श्री माँ और श्री अरविन्द की एक स्पेशियल तस्वीर थी जिसमें उन दोनों के सिग्नेचर थे. मामाजी बड़े इंट्रेस्टिंग हैं. स्वामी विवेकानंद पर बनी एक बंगाली फिल्म के लिए उन्होंने काम किया है. एक छोटा सा रोल भी निभाया है. उन्होंने कुणाल को बर्थडे पर एक टी-शर्ट दी...दो-तीन किताबें...मुझे एक गणेश जी की छोटी सी मूर्ती...फूलों के लिए एक मेटल स्टैंड और एक बेहद खूबसूरत पीतल की संदूकची दी. ऐसा लग रहा था जैसे मेरा ही बर्थडे हो. 

बारह बजे हम पोंडिचेरी से निकल गए. वापसी का ७ घंटे का सफ़र. बैंगलोर में फिर पूरी पलटन के साथ बर्थडे सेलेब्रेट करना क्यूंकि ये पहली बार था कि कुणाल और साकिब इस दिन एक साथ थे. मोहित, नीतिका, अभिषेक, चन्दन, रमन, दिनेश, सकीब, कुणाल और मैं सब मिल कर एक नए रेस्टोरेंट में गए...ब्लैक पर्ल. मस्त जगह थी. पाईरेट वाला डिकोर था. खाना बहुत अच्छा...मूड बहुत अच्छा. घर वापस आते एक बज गया. 

अगली सुबह फिर ऑफिस...आज जोर्ज और नेहा पुणे गए हुए हैं शूट पर. मन नहीं लगता उनके बिना...ऑफिस खाली लगता है. आज बहुत वर्कलोड भी नहीं है. लाइफ थोड़ी अच्छी...थोड़ी सेटल्ड सी लग रही है. एंड फॉर अ चेंज मुझे ये अच्छा लग रहा है. इतना सब लिखना इसलिए कि सिर्फ उदासियाँ दर्ज नहीं होनीं चाहिए. 

बहार का मौसम...खुशामदीद. :) 

07 March, 2013

फीवर ९९ और हम


दो दिन से ९९ डिग्री बुखार है. न चढ़ कर ख़त्म होता है, न उतर कर ख़त्म होता है. इस बुखार में अजीब किस्म से घालमेल हो रहा है चीज़ों का. आज दिन भर किसी काम में मन नहीं लगा. बस दिन भर फेसबुक पर रही...कुछ पुरानी पोस्ट्स पढ़ीं...कुछ मनपसंद फिल्मों के दृश्यों और जिंदगी में कन्फ्यूज होती रही. कई बार लगता रहा कि इन द मूड फॉर लव वाली गली से गुज़र रही हूँ और किसास किसास बज रहा है.

कुछ अजीब किस्म के रंग हैं...उनका अपना भूगोल है, वे इसी धरती के किसी मानचित्र में नहीं मिलेंगे. मैं ऐसे किसी शहर में हूँ. किसी दीवार पर उकेरे गए नाम देखती हूँ. सड़क की गर्द और गुबार से भरी गलियां हैं जिनमें कितने साल पहले लिखे गए नाम भी हैं. ये चिट्ठियां कभी पहुँचीं? किसी ने कभी ठहर कर नामों के इस गलीज स्लम में अपना कुछ ढूँढा भी होगा...तो फिर इस सारी ग्रैफिटी में एक विशाल 'आई मिस यू' क्यूँ लिखा नज़र आता है. या कि मेरी आँखों का दोष है...मेरी दूर की नज़र ख़राब है. मुझे अपने से एक फुट से ज्यादा नहीं दिखता. जिंदगी के साथ भी ऐसा ही कुछ है. इस लम्हे से आगे देखने का कोई चश्मा नहीं बना है.

बिना चश्मे के मुझे लोग तो दिखते हैं मगर उनके चेहरे का भाव नहीं पढ़ सकती...बेसिकली उनकी आँखें नहीं दिखती हैं. हालाँकि कानों में हेडफोन हैं और कोई पसंद का गीत बज रहा है मगर मैं किसी से बात करना चाहती हूँ. भले मुझे उनकी भाषा समझ नहीं आये, उन्हें मेरी भाषा समझ नहीं आये. मैं एक कैमरा लटकाए घूम रही हूँ...हवा का एक बेहद प्यारा झोंका आता है और इस तनहा शहर में जैसे मुस्कराहट का एक बीज रोप जाता है. मैं देखती हूँ सड़क पर एक टूटा हुआ क्लचर गिरा हुआ है. याद आता है किसी वसंत में तुम्हारे साथ एक चेरी के गुलाबी फूलों वाले शहर में चल रही थी. मेरे बंधे हुए बालों में उलझे हुए चेरी नन्हें गुलाबी फूलों को निकलते हुए तुमने कहा था 'बाल खुले रहने दो न, अच्छे लगते हैं'. दुनिया की सबसे घिसी हुयी लाइन होने के बावजूद उस वसंत में कितना नया लगा था तुमसे सुनना.

स्क्रीन के ग्लेयर से आँखों में जलन होने लगी है. दोपहर होने को आई...ये कैसी धूप है, जलाती भी नहीं...रहम भी नहीं करती...ठीक उस मुकाम पर रखती है जहाँ मैं दवा नहीं खाऊँ कि खुद से ठीक होना है...मगर तकलीफ इतनी होगी कि एक कदम से दूसरे कदम तक की दूरी में जान चली जायेगी. कराह को अन्दर ही कहीं दबाते हुए मुस्कुराती हूँ...लोग कहते हैं चेहरे का रंग उतर गया है...आँखों की रौशनी डिम हो गयी है. मैं आइना देखती हूँ...आज अपनी आँखों पर ध्यान नहीं जाता...देखती हूँ होठ सूख गए हैं और चेहरा भी उतर गया है. वाश बेसिन में चेहरा धोती हूँ और एक मुखौटा चढ़ाती हूँ. हँसते हुए कहती हूँ कि 'बीमार होती हूँ तो भी लगती नहीं'...थोड़ा और बीमार लगती शायद तो छुट्टी मिल जाती.

इतनी थकान नहीं होनी चाहिए लेकिन...मगर बुखार आये भी तो बहुत साल बीत गए...जाने कैसा लगता है बुखार आने पर...शायद ऐसा ही लगता होगा...जैसे किसी दस मंजिला बिल्डिंग से नीचे फेंके गए हैं और हालाँकि हड्डियों का सुरमा बन गया है मगर जान बाकी है. कभी सर में दर्द ज्यादा उठता है, कभी कन्धों के दर्द से बेहाल हो जाती हूँ...कभी आँखों की जलन से आंसू निकल आते हैं.

जैसा कि होता है...दिन भर कुछ न करने के बाद शाम को एक बेहतरीन कांसेप्ट लिखा...ऐवें ही मूड फ्रेश हो गया. इधर लगभग चार महीने बाद बाईक ठीक कराई है. मुझे अपनी बाईक चलाने से ज्यादा अच्छा कुछ और लगता हो मुझे याद नहीं आता. आज दोपहर बहुत सारी चोकलेट भी खायी है. अभी बस जरा स्विट्ज़रलैंड टाईप हॉट चोकलेट विद विस्की मिल जाती तो क्या बात होती.

थर्मामीटर ठीक से नहीं लगाया था...अब लगाया थोड़ी देर पहले तो देखती हूँ कि बुखार मियां अब तक मौजूद हैं...तशरीफ़ ले नहीं गए हैं. मेहमाननवाज़ी एक्सटेंड करना कोई अच्छी बात है भला! सारी प्लानिंग चौपट हो गयी...क्या क्या न सोच रखा था इस हफ्ते के लिए. खुदा न खस्ता, बुखार को भी आने का टाइम नहीं मालूम होता है. खैर. लिखने से मूड अच्छा होता है इसके प्रूफ के लिए मैं अक्सर अपनी पोस्ट्स पढ़ती हूँ. आज का काम क्लोज हो गया है...कल का भी सब जुगाड़ ठीक ही लग रहा है. लिख के थोड़ा सर हल्का हुआ तो दर्द भी कम होगा ही कभी न कभी.

कभी कभी दुआओं का कोटा ख़त्म हो जाता है, वैसे में एक्सप्रेस एंट्री करनी पड़ती है...खुदा इसलिए बीमार कर देता है हमें. चलिए आप हमारे ठीक होने के लिए ऊपर खुशामद करिए हम तब तक पिज़्ज़ा और चोकोलावा केक पर हाथ साफ़ करते हैं. बाई द वे....अगर आपको हमारे स्वर्ग के वर्शन पर भरोसा है तो वहां पर एक चोकोलावा का पेड़ है...जिसमें हमेशा अनगिन केक लगे होते हैं. यूँ हाथ बढ़ाया और टप्प से तोड़ लिया. खैर. लगता है बुखार चढ़ रहा है. बकिया बरगलाना फिर कभी.  

06 March, 2013

कश्मीर उसकी आवाज़ में पनाह पाता है

मैंने हीर को कभी नहीं देखा...मगर इस लड़की को गाते सुना तो लगा शायद हीर गाती तो ऐसा ही कुछ गाती...रुबाब की आवाज़ किन पहाड़ों की गूँज लिए लौटती है ये जाने के लिए सवाल करने पड़ते हैं मगर गीत से उबरूं तब तो कुछ पूछूं उससे.

कल एक रिकोर्डिंग के लिए स्टूडियो गयी थी...छोटा सा प्रोजेक्ट था लेकिन गीत के बोल मैंने लिखे थे...और हिंदी का गीत था तो थोड़ा देखना भी था कि सही उच्चारण है या नहीं...मीटिंग के बाद स्टूडियो पहुंची तो उसे देखा...उसका इंट्रो नेहा ने कुछ ऐसे दिया...बहुत खूबसूरत है यार. आवाज़ की खूबसूरती के साथ चेहरे पर भी इतना पानी...और बात से बात निकलती है तो इस कश्मीरी को गाते सुना. कश्मीर उसकी आवाज़ में पनाह पाता है...याद के कितने जंगल पार कर गयी मैं उसके गीत को सुनते हुए.

सूफिस्टिकेशन नाम से उसके अल्बम का पहला गाना सुना मैंने...पंजाबी में ये गीत स्टूडियो की दीवारों में कितना जज़्ब हुआ मालूम नहीं मगर मन के रेगिस्तान में ऐसा ही कोई दरिया बहने को मचल रहा था...स्टूडियो बहुत स्वार्थी होता है, आवाज़ की एक गमक भी बाहर नहीं जाने देता है. उसकी परवरिश में सूफी घुला हुआ है...बचपन से ऐसे ही गीत सुने हैं उसने...इश्क का ऐसा कोई रंग है...आभा हान्जुरा...कश्मीर के पहाड़ों का गीत तलाशती हुयी. गीत की रिकोर्डिंग के लिए कश्मीर जा कर वहां के आर्टिस्ट्स को खोजना. गीत में रुबाब बजता है...वो कहती है कैसे वहां की वादियों से यहाँ बैंगलोर आ गयी, इन्डियन आइडल...और भी कुछ किस्से.

कैसा रेगिस्तान बिछता है कि हीर कि एक पुकार लौटा सके ऐसा कुछ दूर दूर तक नहीं है...मैं आँखें बंद कर रात उसकी आवाज़ के नाम कर देती हूँ...कित्थे नैना न जोड़ी...कित्थे नैना न जोड़ी...तैनू वास्ता खुदा का. क्या कोई पिछले जन्म का वास्ता रहा होगा या कि हर लड़की में एक हीर सी होती है? कैसी आवाज़ है, जैसे हवा का ककून हो...इर्द गिर्द और कुछ भी नहीं है...कितनी शुद्ध...क्या आत्मा से गए गीत हैं? इस पुकार में वो कितनी घुली है? उससे बात करती हूँ तो जानती हूँ कि दर्द बिछोह का है...अपनी मिट्टी से दूर बसने का...डर खो देने का है...एक गहरी आह भारती हूँ उसे सुन कर...इस आर्टिफिशियल दुनिया में भी कहीं कुछ सच्चा है.

उसे देखती हूँ...यादों के कोलाज में कश्मीर की खिलखिलाती नदियाँ आती हैं...आवाज़ लौटने वाले पहाड़ आते हैं...एक घोड़ावाला आता है...शोहैब...कहता है कि दीदी फिर लौट कर आना...लाल चौक पर मेरे नाम से जब भी ढूंढोगे मिल जाऊँगा. कश्मीर में जब भी कोई ब्लास्ट होता है...लाल चौक पर लाठीचार्ज होता है...मैं मन में उसके लिए दुआ मांगती हूँ.

हमें अपना काम अच्छा लगता है...मुझे लिखना अच्छा लगता है...उसे गाना अच्छा लगता है...म्यूजिक डाइरेक्टर हमें किस्से सुना रहा है. कहीं स्टूडियो के बाहर एक भागती दुनिया है...बहुत ट्रैफिक का शोर है...जिंदगी की आधापापी है...स्टूडियो के दोनों दरवाजे लगते हैं तो सब छूट जाता है. हम कुछ लोग होते हैं...कितने तरह का संगीत होता है...आलाप होता है...लयकारी होती है...गमक है...विलंबित ख्याल और ध्रुपद है.

मैं दिल से आभा को बहुत सी दुआएं देती हूँ उम्मीद करती हूँ कि कश्मीर की जिन आवाज़ों की तलाश में वो निकली है, वे उसे मिल जायें और फिर हम उसके रास्ते कुछ पुरानी कहानियां सुन सके. आप फुर्सत में है तो ये गीत सुनिए...दिन के क़त्ल का सामान है...

04 March, 2013

तुम्हारे कमरे के परदे किस रंग के हैं?

एक जिंदगी में हम अनगिन फिल्मों से गुज़रते हैं...उनमें से कुछ हमारे अन्दर घर कर लेती हैं. कुछ दृश्य हैं जो कभी कहीं नहीं जाते.

डेज़ ऑफ़ बीईंग वाइल्ड का ये सीन कुछ उन भूले हुए चेहरों की तरह है जो आपका ताउम्र पीछा करते हैं.
लड़की जरूर उससे बेपनाह इश्क करती होगी...उसे ढूंढते हुए उसके मकान पर पहुँचती है. लड़के की माँ को मालूम नहीं कि वो उसे कब देख पाएगी, देख पाएगी भी या नहीं...और वो कल घर छोड़ कर जा रही है.

लड़की की आखिरी इल्तिजा है...'क्या मैं आपका घर देख सकती हूँ?' पहली स्मृतियों के एक धीमे कोलाज की तरह घर आपकी नज़रों से गुज़रता है और अपनी सारी डिटेल्स के साथ जड़ें  जमाता जाता है दिल के इर्द गिर्द. आप घर की खूबसूरती, रौशनी की नाज़ुकी, तस्वीरों के चेहरों को खुद में बसाते जाते हैं...आपको लगता है कि लड़की के दिल में भी कुछ उम्मीदों की कोपलें खिल रही होंगी...ट्रैफिक का शोर है...दूर शायद कोई ट्रेन गुज़र रही है. लड़की कहती है 'वो मुझे हमेशा घर की सीढ़ियों के नीचे इंतज़ार करने को कहता था. मैं बेहद उत्सुक थी ये जानने के लिए कि उसका घर कैसा दीखता है. ये किसी भी दूसरे घर की तरह दिखता है'.

इश्क का ये ख़ास से आम हो जाना मुझे जाने कैसे तो बेतरह तोड़ता है...ये सीन मेरे दिमाग से उतरता ही नहीं...रंगता रहता है कितने नए अर्थ. बुनता रहता है कितने पुराने नाम...खोजता है कोई अद्भुत चीज़. मैं जैसे बिलख बिलख कर रोती हूँ...चुप...बेआवाज़. फिल्म का दूसरा दृश्य शुरू होता है...जिसमें एक फोन बूथ है...एक फोन है...पूरी रात बजता रहता है...जब कि उस फोन को उठाने वाले की पोस्टिंग कहीं और हो चुकी है...सालों इंतज़ार करके उसने अपनी पोस्टिंग कहीं और करा ली है.
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जब हमें लगता है कि कोई खो गया है...ये भी तो हो सकता है वो आपको किसी ऐसी राह पर तलाश रहा हो जहाँ जाने का कोई वादा न था..दो अलग अलग आसमानों के नीचे...किसी दूसरे समय में...


रात से भोर का कोलाज

देर रात काम करना...नींद को देना भुलावे...सपनों को भेजना कल आने के मीटिंग-पोस्टपोनमेंट रिक्वेस्ट...खिड़की के पल्ले से आती हवा का विंडचाइम को रह रह कर चुहल से जगाना...ख़ामोशी सा कोई निर्वात रचना...

लिखना जाने क्या क्या...कैसे शब्द ढूंढना...कहाँ से लाना साम्य...कैसे तलाशना शब्दों के अर्थ...कैसे दृश्यों में खोना...लिखना स्क्रिप्ट...लिखना लिरिक्स...खो जाना किसी और समय में...परीकथाएँ बुनना...चौखट पकड़े सोचना किसका तो नाम...हाँ...मर मिटना नीत्ज़े पर...नेरुदा पर...स्पैनिश...जर्मन...क्या क्या पढना...किन किन भाषाओँ में इंस्ट्रुमेंटल सुनना...खोजना शब्द...सलीके के...

करना ऑफिस का काम और मेरी जान, भूल जाना उस लड़की को जिसे चिट्ठियां लिखने की आदत थी, जिसे किस्से सुनाने में लुत्फ़ आता था...जो फोन कर के कहती थी जरा वो कविता सुना दो ना...तुम्हारी आवाज़ से किसकी तो याद आती है...जिसे वो सारे लोग अच्छे नहीं लगते जिन्हें कविता कवितायेँ अच्छी नहीं लगती...

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उलाहने देना भोर की किरणों को...नींद भरी आँखों से सर दर्द को देखना...याद करना शामों को...इस वसंत में आई हुयी पतझड़ की शामें...सड़क के दोनों ओर बेतरतीबी से बिछे हुए पत्तों का ढेर. सूखे पत्तों की कसमसाती महक...उँगलियों में मसल देना एक पत्ते की पीली नसों को...जैसे खतों के कागज़ में लगाना आग. 

बौरायी हवा में आम के बौर का घुल जाना...ये कैसी गंध है...मिली-जुली...किधर का दरवाज़ा खोलती है...कोई आदिम कराह है...मेरा नाम पुकारती है...समय के उजाड़ मकानों में मुझे टोहती है...एक मैं हूँ...धूल में लिखती हुयी कविता...मिटाती अपनी हस्ती को. देखती हूँ अपना नाम उँगलियों के पोरों में. पार्क में खिलते हैं फिरोजी रंग के फूल...पाती हूँ उनकी जड़ों में मेरी टूटी हुयी दवात. 

भूल जाना लिखना...भूल जाना खुद को...बंद कर देना किसी गहरे हरे दवात में अगली बहार के मौसम के लिए...भूल जाना कि नयी कोपलों का रंग होता है सुर्ख लाल...आँखों को कहना कि न पढ़े कविता...कानों को कहना कि न सुने उसका नाम कि उस नाम से उग आती है कलमें कितने रंग कीं मेरे अन्दर...सियाह रातें जब दर्द में चीखती हैं तब जा कर जनमती है कविता...

तरबीब से जीना जिंदगी को लड़की...समेटना सब कुछ अपने अन्दर मगर ब्लैक होल की तरह...मत भेजना प्रकाश की एक किरण भी बाहर कि तुम्हारी तस्वीर भी न खींच पाएं लोग...निर्वात से जानें तुम्हें ऐसा हो तुम्हारा गुरुत्व...सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है सुपरनोवा...मरते हुए तारे की आखिरी पुकार होती है...अनगिन गैलेक्सीज पार कर तुम्हारे दिल को छलनी कर जाती...सबसे पास का तारा...प्रोक्सिमा सेंचुरी.

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तकलीफों के इस बेसमेंट में थोड़ी मुस्कुराहटें बचाए रहना...किचन के डिब्बे में रखना थोड़ा दालचीनी का पाउडर...घड़ी में घुलना जरा जरा सा...थोड़ी स्ट्रोंग बनना...यहाँ की फ़िल्टर कॉफ़ी की तरह. 

कैमरा को देख कर कहना...स्माइल प्लीज :)

18 February, 2013

राग बिछोह

तुम
किसी लैंड माईन की तरह
बिछे थे इंतज़ार में

आवाजें, शोर
सब याद नहीं
बस तुम्हारा नाम
जिस्म में चुभ गया है 
असंख्य टुकड़ों में 

जहाँ पर आई खरोंचे 
वहां झूठ लगाता है 
जलता हुआ टिंचर आयोडीन 
'शायद' का मरहम 
'अफ़सोस' की पट्टी 

सच छीलता है 
आत्मा की परतें
रिसता है, टपकता है
दर्द बहुत सारा

कुछ खतरनाक से टुकड़े
निकाले हैं डॉक्टर ने बड़ी मुश्किल से

इन टुकड़ों को पिघला कर
एक घड़ीसाज़ बना देता है मेरे लिए
एक अलार्म घड़ी
उसमें हमेशा तुमसे मिलने के मौसम दिखते हैं

प्रोबबिलिटी थ्योरी की तलाश
किसी ठुकराए आशिक ने की होगी 
सोचते हुए मैंने निशान लगा दिया है
एटलस में तुम्हारे शहर पर 

तुम्हारे होने का वहम 
वो खुशनुमा चीज़ है
जो बांधे रखती है मुझे 
इस काली मिटटी वाली ज़मीन से
वरना दिल को कौन रोकता 
कि वो हमेशा से एक तन्हा एस्ट्रोनोट है 
मार्स पर संभावनाएं खोजता हुआ

मुझे टोटली फिट डिक्लेयर कर के
भेज दिया गया दुनिया में वापस

ब्लास्ट में किरिच हुए दिल के साथ
या उसके बगैर बिलकुल आसान है जीना

सब कुछ मुमकिन है
सिर्फ नहीं लिखी जा सकती कविता

13 February, 2013

ज़हरीली खराशें

याद करने की कोशिश करती हूँ...कैसी थी उसकी आवाज़...पटना के कबाड़ी की...पेपर, रद्दी, गत्ता...पेप्पर...रद्दी...जैसी कुछ...कहीं दूर याद की गलियों में साइकिल की घंटी की टिंग टिंग बजती. घर के सामने खड़े जामुन पेड़ के कच्चे जामुनों जैसी कसैली...कनेल के पीले फूलों की गंध जैसी परिचित...बरसात के बाद घुटने भर पानी में हिले-मिले शहर जैसी...खराशें...कैसी खराशें थीं उसकी आवाज़ में...

याद का टीन का डब्बा हिलाती हूँ, अन्दर कुछ खोटे सिक्के ढनमनाते हैं. कैसी थी उसकी आवाज़...बोल न रे टुनकी...कहाँ चढ़ के बैठी है पानी की टंकी पर. चप्पल घसीटता हुआ चलता है लड़का, उसके आने के पहले वही आवाज़ आती है हमेशा...हलके पाँव रखना कब सीखेगा. आवाज़...उसकी आवाज़...४४० हज़ार वोल्ट के खतरे का बोर्ड जैसा वो...आवाज़ उसकी जैसे पागल मौसमों में हू हू...करती हवा जैसे कहती जाती...हूँ...हूँ...मैं हूँ कहीं, तुम्हारे पास...पॉकेट में मिलते हैं अब भी जामुन के बीज...कनेल के सूखे फल रोप दिए हैं कच्ची बारिशों में. कुछ सालों में शायद खिल जायेंगे इनमें पीले फूल...फिर वो एक दिन एक कच्ची डाली हटा कर झांकेगा, गुलेल से कंचे का निशाना लगाए तोड़ेगा मेरे कमरे की खिड़कियों के शीशे...धमकियों से बेअसर खी खी करके हंसेगा.

पतंग उड़ाने की बातें करती मैं सोचूंगी उसके बारे में...मांजे के जैसा काटेगा उड़ते ख्वाबों के कबूतर के पंख. पीपल के पेड़ की फुनगी पर रहने वाले भूत को मिलेगी पतंग पर लिखी कविता की कोई पंक्ति...भूत वही कविता सुना कर चाँद को पटायेगा...पोखर में तैरती मिलेगी उसकी नीली चप्पल मगर मैं जानूंगी कि कमबख्त डूब कर मरेगा नहीं...सालों साल मेरी जान खायेगा. बहुत सालों बाद जाउंगी पटना तो देखूंगी नयी सड़कें और पुरानी दुकानें...पान की पिरकी से रंगे नए संगमरमर के बुत...उसे खोजूंगी तो फिर देखूंगी कबाड़ियों की दुकानें, एक खैनी की दूकान में तम्बाकू काटता कोई अजनबी चेहरा. शहर की आवाजों में बहुत शोर मिल गया है फिर भी उसकी आवाज़ की भरपाई नहीं कर पाता. नामुराद...कैसी थी उसकी आवाज़.

वो क्या गया गालियाँ देने की आदत ही चली गयी...कहाँ है कोई उसके जैसा कि प्यार की नाप ही गालियों से करे...कि जैसे माँ की डांट सुने बिना खाना ही नहीं पचे...कि जैसे हर कुछ दिन पर जान बूझ कर न कर के ले जाऊं होमवर्क कि कभी कभी पनिशमेंट का अपना मज़ा है...फिर सर जब गुस्सा होते हैं मुझपर तो कितना कन्फ्यूज्ड सा एक्सप्रेशन होता है उनका...कि जानती हूँ कितना मुश्किल है मुझ पर गुस्सा होना. पटना...ऐसा बेमुरव्वत...ऐसा जालिम...ऐसा दगाबाज़ शहर...सालों बाद भी ना बदलने की जिद थामे हुए...रुला रुला मारने वाला शहर...थेथरई में पी एच डी किये बैठा...हरपट्टी.

कितना सोचा उसको...कितना चाहा...न्यूक्लियर वार के बाद भी जिन्दा बचने वाला...तिलचट्टा. कहाँ बंकर में घुसी हुयी है उस आवाज़ की कोई रिकोर्डिंग...जाले लग गए हैं टेप में...ना भी हों तो चलाऊं कहाँ? किधर मिलता है टेपरिकोर्डर...यूँ भी बहुत शोर था उस शाम खेल के मैदान में...वो एक ओर से चिल्लाता आया था मेरा नाम...मैंने कानों पर हथेलियाँ रख लीं थीं कि परदे फट जायेंगे कान के...कित्ती ख़राब है तेरी आवाज़...एकदम कबाड़ीवाला लगता है. उस दिन कहीं अन्दर बंद हो गयी दोनों कानों के बीच मेरे नाम में उसकी आवाज़. दिमाग ख़राब कर रखा है लड़के ने.

खटर-खटर चलती है ट्रेन...पटना से नई दिल्ली...पुरवा...यही ट्रेन थी न...उस दिन भी...बैठा होगा आज भी कहीं, डिब्बे का दरवाजा खोले...उड़ती ट्रेन में पैर लटकाए...उसकी आवाज़ खोजते वहां भी जाना पड़ा जहाँ कभी जाने को सोचा नहीं था...पनवाड़ी कैसे अजीब तरीके से घूर रहा था...गोल्ड फ्लेक है? कितने की आती है एक सिगरेट? खरीद सकती थी एक डिब्बा लेकिन एक डिब्बे में उसकी आवाज़ थोड़े न मिलती...वो तो पूरी पॉकेट खोज कर, पर्स के हर कोने से ढूंढ कर निकाला...डेढ़ रुपया...या कि अढाई रुपया था?

क्या थी उसकी आवाज़? सिगरेट की तलब...बस? जिंदगी का सबब...बस? या कि एक टूटने को दिया गया वादा...या कि विदा...अपने हिस्से की मौत चुनने की आज़ादी न सही...अपने पसंद का जहर चुनने की आज़ादी तो जिंदगी ने दी है...वहीं मिलेगी उसकी आवाज़...ड्रग अडिक्ट से कहना...जहर है उसकी आवाज़...फिर सुनना...तलाशना...उसकी आवाज़ की खराशें...याद की खरोंचों में कहीं...निशानों में...आखिरी हिचकी में. 

03 February, 2013

पातालगंगा

इक नदी थी कि जिसे उसके बहते हुए रहने का धोखा था...सालों पड़ती ठंढ में पानी जम गया था...नदी अब बर्फ की एक चट्टान सी हो गयी थी...टनों मोटी बर्फ की चादर थी. कौन जानता था नदी के दिल का हाल. गाँव की बूढी औरतें ही थीं जो कहती थीं कि नदी के सीने में अब भी गर्म पानी का सोता है, सोने के रंग की मछलियाँ हैं...मोती बुनती सीपियाँ हैं...डूबी हुयी किश्तियाँ हैं...लिखी हुयी चिट्ठियां हैं, समंदर तक पहुँचाने के लिए.

नदी थी कि देख नहीं सकती थी कुछ भी, उसे महसूस होती थी अपने बदन पर प्रियतम की उँगलियाँ...कि वो धीरे धीरे सरकती थी बंजर मैदानों पर और उसे लगता था कि एक दिन दूब उगेगी इन्ही ढलानों में, हरी मखमली दूब. नदी पागल थी कि सपने देखती थी समंदर के...ग्लेशियर से निकल कर भी डूबना चाहती थी समंदर के अन्दर बहने वाली किसी नदी में. बरक़रार रखना चाहती थी किसी पहाड़ की उँगलियों की गर्मी, बर्फ की परतों के नीचे. उसने सुना था कि बर्फ में चीज़ें कभी ख़राब नहीं होतीं.

किसी पहाड़ ने समेटा था एक बार उसे अपनी बांहों में...नदी उसी दिन पिघलनी शुरू हुयी थी मगर पिघलते ही उसे छोड़ कर आना पड़ा था वो पहाड़ी कबीला जो उसके सदानीरा होने के गीत गाता था. घाटियों के लोगों के दिल पत्थर थे...उनके किनारे घिसते घिसते नदी छिलती जाती...परत दर परत छूटती जाती. किसी ने कहाँ समेटा छूटी हुयी नदी के टुकड़ों को. नदी के आंसू कोयला खदानों की अमानत हो गए.

कभी कभी पूरी नदी सिर्फ एक पुकार का शब्द बन जाती थी मगर नदी की शिराओं में आवाज़ सफ़र करते ही गुम हो जाती थी. कोई भी नहीं बुला पाता उसे जिसे नदी बुलाती थी. नदी की एक सखी थी... पातालगंगा... मरनेवालों को पार लगाती थी. नदी में रोज जान देती थीं कितनी लहरें.

नदी थी कि बंजर मैदानों की फटी बिवाईयों पर जड़ी बूटियों सी उगती जाती थी...नदी थी कि प्रवासी पक्षियों को रास्ता दिखाती थी...नदी थी कि हीर को रांझे से जुदा करती थी और मिलाती थी.

गीतों में कहते हैं कि नदी है...मगर गीत गाती औरतों की आँखों में देखो तो जानोगे कि नदी थी...

01 February, 2013

सलेटी उदासियाँ

याद का पहला शहर- साहिबगंज.
साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान...स्कूल जाते हुए पड़ती बहुत सारी सीढियां, साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं...साइकिल चलाते हुए बबलू दादा.
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मेरी आँखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं...इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं उनमें. मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो.

भरा पूरा ससुराल, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग...जैसी हूँ वैसे अपनाने वाले सारे लोग...सब बहुत अच्छा और अनगिन अनगिन लोग. सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं. मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है.

कभी कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा हुए हैं. समझ नहीं आता कि क्या चाहिए और क्यों. सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली खाली सा क्यों लगता है. कब समझ आएँगी चीज़ें. कैसा अतल कुआँ है कि आवाज़ भी वापस नहीं फेंकता...किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो. ये  मैं हर वक़्त बेसब्र और परेशान क्यूँ रहती हूँ.

ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है. छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है. ऑफिस का काम करने थोडा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया. छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है. बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं. पुराने हीटर, कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान, एक टूटी बाल्टी, कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है...समझ नहीं आता कि कहाँ एक शुरू होता है और कहाँ दूसरा ख़त्म.

मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं...मौसम अजीब उदासी से भरा हुआ है. आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है. मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा. मेरा किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा. एक बार अपने वाले घर जाने का मन है. जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाउंगी तो मम्मी भी वहीँ होगी. दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं. कभी कभी लगता है कि वो यहीं है, मैं ही मर चुकी हूँ कि वो सारी चीज़ें जिनसे ख़ुशी मिलती थी कहीं खोयी हुयी हैं और मुझे दिखती नहीं.

रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी, उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा. तैयार हुयी शाम की पार्टी के लिए. लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं. पास में ही. हर बार साड़ी पहनती हूँ, अनगिन लोग पूछते हैं कि इतना अच्छा साड़ी पहनना किससे सीखी...हम हर बार कहते हैं...मम्मी से. सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दीखते हैं...किसी भीड़ में नहीं खोते...एकदम अलग.

सब अच्छा है फिर भी मन उदास है...ऐसे ही...कौन समझाए...फेज है...गुजरेगा. 

17 January, 2013

मिर्ची लाइट्स से सजे शहर की उदासियाँ

बहुत अजीब थीं कि ये एक मिर्ची लाइट्स से सजे हुए शहर की उदासियाँ थीं...

मुश्किल होता होगा यूँ आँख मिचमिचाती रोशनियों को देख कर भी नहीं मुस्कुराना...लेकिन न तो ये किसी के ख्वाबों का शहर था न वो लड़की झूठी थी जो यहाँ के किस्से सुना रही थी. तो फिर मेरी जान, सूखे पत्तों पर उदास क़दमों से चलता ये लड़का क्या वाकई में था की नींद उठी आँखों को ख्वाबों का पता नहीं चला था.

बेरौनक यहाँ कोई चेहरा नहीं था, नूर से दमकती थीं इस शहर के पेड़ की शाखें...कि सो नहीं पाते थे पंछी रात भर अपने घोसलों में कि बिना परदे के घोंसले वाला सजायाफ्ता ये शहर मिर्ची लाइटों से सजा था. देर रात शहर की सड़कों पर आवारा घूमती रहती थी एक लड़की कि उसके बालों की लटों में रास्ता भूल गया था इस शहर से बाहर जाने का रास्ता. बहती हवा में उड़ कर आया था उसके बचपन का एक पुर्जा कि जिस पर लिखा हुआ था एक नाम जो उसे पुकारा करता था चाँद परछाई वाले पानी में से. लड़की कूद जाना चाहती थी गंगा में मगर उसके शहर से गुज़रता रेगिस्तान पी गया था उसके डूब मरने के हिस्से का सारा पानी. उसकी आँखों में हमेशा जिंदगी जलती बुझती रहती कि ये मिर्ची लाइटों में कैद उदासियों का शहर था...

उसे एक बार को हो गया था इश्क शहर के बरगद की सबसे ऊंची शाख पर रहने वाले परिंदे से...कि वो उसकी मुहब्बत में भूल जाती थी रास्तों को उनके शहर की ओर भेजना और शहर के सारे लोग भटक कर किसी और के घर चले जाते थे. फिर भी किसी के मेहमानखाने में जगह कम नहीं पड़ती थी कि शहर की औरतें जलाये रखती थीं चूल्हा रात के सारे पहर कि उन्हें मालूम होता था कि मुसाफिर दिल कभी खुद के घर का रास्ता भूल जाए मुमकिन है...तो वो हर अजनबी का ऐसी स्वागत करतीं जैसे उनका महबूब लम्बे सफ़र से वापस लौटा हो.

शहर की औरतों का आँचल उनके होठों के कोने में फंसा हुआ रहता था...कई बार लोगों का दिल भी कुछ यूँ ही अटक जाता था किसी की आधी मुस्कराहट के पास कहीं. अजनबियों से भरे हुए इस शहर में किसी ने नहीं पहने थे किसी और के चेहरे इसलिए यहाँ घूंघट दरम्यान रहता था...कोई किसी घर में दुबारा नहीं जाता था कि जब भी किसी और शहर से कोई शख्स यहाँ आता था तो उसका शहर भी फिसल कर इस शहर की सरहद में मिल जाता था. फिर उसके घर के लोग, दोस्त और दुश्मन इसी शहर में भटकते रहते थे...मुसलसल अपने घर का पता ढूंढते हुए.
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दिखता नहीं था कोई भी...साफ़ इस रौशनी में...कोई चेहरा नहीं होता था. ट्रैफिक के शोर में गुम थीं आवाजें...फिर ऐसी ही एक शाम थी...ऐसा ही एक शहर था...तुम्हें बड़ी शिद्दत से याद किया था. सुना उस रात बहुत तेज़ बारिश हुयी थी और खिड़की के पास रखी तुम्हारी डायरी बिलकुल भीग गयी थी...ये वही डायरी थी न जिसके आखिरी पन्ने पर मैंने साइन किया था?
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मेरा नाम भी कब तक याद रहना था तुम्हें...

02 January, 2013

हैप्पी न्यू इयर २०१३

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं ।
....
नये साल में उम्मीदों की एक सुबह...
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नए साल में हम कैम्पिंग करने एक नदी किनारे गए थे. छोटे छोटे टेंट्स और खाने पीने का थोड़ा सामान.

शहर को पीछे छोड़ते हुए गाँव शुरू हो चुके थे...गाँव की भी आखिरी सीमा से एक पगडण्डी शुरू होती थी...उधर से आगे बढ़ते हुए दो छोटी पहाड़ियों के ऊपर कोई किलोमीटर से ऊपर का सफ़र था.

जब हम घाटी में पहुँचते तो जैसे पूरी दुनिया पीछे छोड़ आये थे. साथ थे ९ लोग...कुणाल और मैं, मोहित-नीतिका, कुंदन, चन्दन, साकिब और रमन और दिनेश.

कहीं से कोई शोर नहीं...कहीं एक इंसान नहीं दूर दूर तक...नए साल का कोई हल्ला नहीं, कोई फ़िक्र नहीं मुझे ऐसा ही शांत नया साल चाहिए था. एक बार नए साल में ताज गए थे...वहां डांस फ्लोर पर किसी ने हमारी दोस्त के साथ बदतमीजी की, एक बार नहीं कई बार...और ताज वालों ने उसे होटल से बाहर तक नहीं निकाला. हमें कम से कम ताज से ऐसी उम्मीद नहीं थी. लगा कि कम से वहां तो सेफ्टी होगी. उसके बाद कभी नया साल मनाने का उत्साह ही नहीं रहा. बाहर जाकर पार्टी और हल्ला करने की अब मेरी उम्र नहीं रही. मुझे अब बहुत शोर शराबा और नौटंकी करना अच्छा नहीं लगता है.

३१ की सुबह घर में दो रोटियां बनाने के बाद गैस ख़त्म हो गयी थी...सुबह से भूखे ही थे. दिन में ऑफिस का ये हाल था कि दस मिनट निकाल कर बगल की दूकान से एक पैकेट चिप्स ला के खाने की फुर्सत नहीं थी. सुबह से एक सेब खाया था बस. ढाई बजे बैंगलोर से निकले...और इस बार कार मैं ड्राइव कर रही थी. हमें पहुँचते पहुँचते पांच बज गए थे. भूख के मारे बुरा हाल था...फिर गरम गरम पकोड़े मिले खाने को...जान में जान आई. आलू और मिर्च के पकोड़े. हैंगोवर से बचने के नुस्खों में एक था...पहले कोई तली हुयी चीज़ खा लो...

कुंदन, कुणाल और चन्दन 
नदी किनारे एक राफ्ट बंधा हुआ था...तारे उग आये थे...मुझे खुले में सितारों के नीचे सोये बहुत वक़्त हुआ था. कौन सी बातें थी अब याद नहीं पर अच्छा लग रहा था. सबसे अच्छा लग रहा था कि सेफ महसूस कर रहे थे कि सब अपने लोग हैं. किसी तरह की टेंशन नहीं थी. अधिकतर नेटवर्क नहीं था तो कोई फोन करके परेशान भी नहीं कर सकता. देर तक मूंगफली खाते और भूंजा फांकते वक़्त कटा...फिर अलाव जलाया गया. अलाव के इर्द इर्द बैठे हुए हमने पहाड़ी के पीछे उगता चाँद देखा...पूरा जंगल चांदनी में नहा गया था. मैं फिर से ट्राईपोड ले जाना भूल गयी थी कम रौशनी में फोटो ऐसे खींचे जाते थे कि रेडी बोलते ही फोटोग्राफर समेत सारे सब्जेक्ट्स सांस रोक लेते थे. थोड़ी सी मूवमेंट से भी फोटो ब्लर आ जाती थी.

रात को थोड़ा डांस थोड़ा गाना...थोड़ा चिल्लाना...थोड़ा थोड़ा करके सब बहुत हो गया. सुबह ६ बजे नेचर वाक पर जाना था. मोहित का हल्ला कि मैं सबको उठा दूंगा...चार बजे सो कर ६ बजे तो सब उठने से रहे लेकिन हल्ला करने में सब रेडी...

सात बजे मेरी नींद खुली तो बाकी किसी टेंट में कोई हलचल नहीं दिख रही थी. सुबह का समय, सब एकदम शांत था. कैमरा, अपनी नोटबुक, पेन तीनो उठा कर वहीं नदी किनारे चली गयी. सूरज का रंग फीका था और नदी का पानी रूपहला. हर साल की शुरूआती आदत...डायरी लिखना. सो कुछ तसवीरें खींचीं, एक आध गिलास पानी टिकाया और फिर जैसे धूप गरमाती गयी खुद के साथ थोड़ा वक़्त बिताया. नेरुदा की किताब ट्वेंटी पोयम्स ऑफ़ लव एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर नयी डिलीवर हुयी थी फ्लिप्कार्ट से. कुछ कवितायें पढ़ीं. कोई अख़बार नहीं...कोई मेल नहीं...कोई एसएमएस नहीं. कभी कभी जीने के लिए दुनिया से कटना भी जरूरी होता है. सुबह की कॉफ़ी तैयार हो रही थी. नौ बजते बजते बाकी लोग उठे.

दिन का मेन अट्रेक्शन था लाइफ जैकेट पहन कर नदी में 'डेड मैन फ्लोट' करना. अधिकतर को तैरना नहीं आता था. नदी में थोड़ी थोड़ी दूर पर पानी गर्म और ठंढा था. हम कितनी देर तो नदी में ही रहे. फिर खाने का कोई इन्तेजाम नहीं था तो एक डेढ़ बजे निकले...भूख लगनी शुरू हो गयी थी. रस्ते में जहाँ से घाटी दिखती थी एक राउंड फोटो सेशन चला. बैंगलोर पहुँचते चार बज गए थे. खाने पर हम इस तरह से टूटे जैसे एक साल के भूखे हों. चाइनीज...थाई...इन्डियन...जिसने जो मंगाया, सबने खाया. कोई पच्चीस रोटियां, पांच प्लेट चाव्मीन, एक प्लेट चावल, एक थाई ग्रीन करी, पांच चिली पनीर...कहाँ गया किसी को मालूम नहीं.

घर पर आराम करने के मूड में आये कि पेट में दर्द शुरू. मुझे शिमला मिर्च से अलर्जी है...हमेशा प्रॉब्लम नहीं होती...पर जब होती है जान चली जाती है. और दर्द कभी दिन में शुरू नहीं होता...रात में होता है कि हॉस्पिटल में भी इमरजेंसी में जाना पड़े. कल भी आसार बुरे दिख रहे थे. दर्द के मारे जान जा रही थी उसपर डि-हाईड्रेशन. पता नहीं कितना तो ओआरएस पिया और कोई तो टैबलेट खायी. अभी सुबह उठी हूँ तो लगता है पुर्जा पुर्जा दर्द कर रहा है. बुखार बुखार सा लग रहा है...ऑफिस में इनफाईनाईट काम है...गैस ख़त्म है सो उसका इन्तेजाम करना है...कुणाल की मौसी-मौसाजी और बच्चे आये हैं तो रात का कुछ अच्छा खाना बनाना है. बाप रे! दिन बहुत लम्बा लग रहा है और चलने की हिम्मत नहीं. कल रात दोनों बच्चों को माइक्रोवेव में मैगी बना कर खिलाये थे. आज पता नहीं नाश्ता का क्या करेंगे. दस बजे टाइप्स गैस एजेंसी खुलेगी. बाबा रे...पैक्ड डे अहेड!

१३ मेरा लक्की नंबर है. देखे ये साल क्या रंग दिखाता है...नए साल में नयी उम्मीदें...नए सपने...आप सबको भी हैप्पी न्यू इयर. 

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