04 March, 2013

तुम्हारे कमरे के परदे किस रंग के हैं?

एक जिंदगी में हम अनगिन फिल्मों से गुज़रते हैं...उनमें से कुछ हमारे अन्दर घर कर लेती हैं. कुछ दृश्य हैं जो कभी कहीं नहीं जाते.

डेज़ ऑफ़ बीईंग वाइल्ड का ये सीन कुछ उन भूले हुए चेहरों की तरह है जो आपका ताउम्र पीछा करते हैं.
लड़की जरूर उससे बेपनाह इश्क करती होगी...उसे ढूंढते हुए उसके मकान पर पहुँचती है. लड़के की माँ को मालूम नहीं कि वो उसे कब देख पाएगी, देख पाएगी भी या नहीं...और वो कल घर छोड़ कर जा रही है.

लड़की की आखिरी इल्तिजा है...'क्या मैं आपका घर देख सकती हूँ?' पहली स्मृतियों के एक धीमे कोलाज की तरह घर आपकी नज़रों से गुज़रता है और अपनी सारी डिटेल्स के साथ जड़ें  जमाता जाता है दिल के इर्द गिर्द. आप घर की खूबसूरती, रौशनी की नाज़ुकी, तस्वीरों के चेहरों को खुद में बसाते जाते हैं...आपको लगता है कि लड़की के दिल में भी कुछ उम्मीदों की कोपलें खिल रही होंगी...ट्रैफिक का शोर है...दूर शायद कोई ट्रेन गुज़र रही है. लड़की कहती है 'वो मुझे हमेशा घर की सीढ़ियों के नीचे इंतज़ार करने को कहता था. मैं बेहद उत्सुक थी ये जानने के लिए कि उसका घर कैसा दीखता है. ये किसी भी दूसरे घर की तरह दिखता है'.

इश्क का ये ख़ास से आम हो जाना मुझे जाने कैसे तो बेतरह तोड़ता है...ये सीन मेरे दिमाग से उतरता ही नहीं...रंगता रहता है कितने नए अर्थ. बुनता रहता है कितने पुराने नाम...खोजता है कोई अद्भुत चीज़. मैं जैसे बिलख बिलख कर रोती हूँ...चुप...बेआवाज़. फिल्म का दूसरा दृश्य शुरू होता है...जिसमें एक फोन बूथ है...एक फोन है...पूरी रात बजता रहता है...जब कि उस फोन को उठाने वाले की पोस्टिंग कहीं और हो चुकी है...सालों इंतज़ार करके उसने अपनी पोस्टिंग कहीं और करा ली है.
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जब हमें लगता है कि कोई खो गया है...ये भी तो हो सकता है वो आपको किसी ऐसी राह पर तलाश रहा हो जहाँ जाने का कोई वादा न था..दो अलग अलग आसमानों के नीचे...किसी दूसरे समय में...


रात से भोर का कोलाज

देर रात काम करना...नींद को देना भुलावे...सपनों को भेजना कल आने के मीटिंग-पोस्टपोनमेंट रिक्वेस्ट...खिड़की के पल्ले से आती हवा का विंडचाइम को रह रह कर चुहल से जगाना...ख़ामोशी सा कोई निर्वात रचना...

लिखना जाने क्या क्या...कैसे शब्द ढूंढना...कहाँ से लाना साम्य...कैसे तलाशना शब्दों के अर्थ...कैसे दृश्यों में खोना...लिखना स्क्रिप्ट...लिखना लिरिक्स...खो जाना किसी और समय में...परीकथाएँ बुनना...चौखट पकड़े सोचना किसका तो नाम...हाँ...मर मिटना नीत्ज़े पर...नेरुदा पर...स्पैनिश...जर्मन...क्या क्या पढना...किन किन भाषाओँ में इंस्ट्रुमेंटल सुनना...खोजना शब्द...सलीके के...

करना ऑफिस का काम और मेरी जान, भूल जाना उस लड़की को जिसे चिट्ठियां लिखने की आदत थी, जिसे किस्से सुनाने में लुत्फ़ आता था...जो फोन कर के कहती थी जरा वो कविता सुना दो ना...तुम्हारी आवाज़ से किसकी तो याद आती है...जिसे वो सारे लोग अच्छे नहीं लगते जिन्हें कविता कवितायेँ अच्छी नहीं लगती...

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उलाहने देना भोर की किरणों को...नींद भरी आँखों से सर दर्द को देखना...याद करना शामों को...इस वसंत में आई हुयी पतझड़ की शामें...सड़क के दोनों ओर बेतरतीबी से बिछे हुए पत्तों का ढेर. सूखे पत्तों की कसमसाती महक...उँगलियों में मसल देना एक पत्ते की पीली नसों को...जैसे खतों के कागज़ में लगाना आग. 

बौरायी हवा में आम के बौर का घुल जाना...ये कैसी गंध है...मिली-जुली...किधर का दरवाज़ा खोलती है...कोई आदिम कराह है...मेरा नाम पुकारती है...समय के उजाड़ मकानों में मुझे टोहती है...एक मैं हूँ...धूल में लिखती हुयी कविता...मिटाती अपनी हस्ती को. देखती हूँ अपना नाम उँगलियों के पोरों में. पार्क में खिलते हैं फिरोजी रंग के फूल...पाती हूँ उनकी जड़ों में मेरी टूटी हुयी दवात. 

भूल जाना लिखना...भूल जाना खुद को...बंद कर देना किसी गहरे हरे दवात में अगली बहार के मौसम के लिए...भूल जाना कि नयी कोपलों का रंग होता है सुर्ख लाल...आँखों को कहना कि न पढ़े कविता...कानों को कहना कि न सुने उसका नाम कि उस नाम से उग आती है कलमें कितने रंग कीं मेरे अन्दर...सियाह रातें जब दर्द में चीखती हैं तब जा कर जनमती है कविता...

तरबीब से जीना जिंदगी को लड़की...समेटना सब कुछ अपने अन्दर मगर ब्लैक होल की तरह...मत भेजना प्रकाश की एक किरण भी बाहर कि तुम्हारी तस्वीर भी न खींच पाएं लोग...निर्वात से जानें तुम्हें ऐसा हो तुम्हारा गुरुत्व...सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है सुपरनोवा...मरते हुए तारे की आखिरी पुकार होती है...अनगिन गैलेक्सीज पार कर तुम्हारे दिल को छलनी कर जाती...सबसे पास का तारा...प्रोक्सिमा सेंचुरी.

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तकलीफों के इस बेसमेंट में थोड़ी मुस्कुराहटें बचाए रहना...किचन के डिब्बे में रखना थोड़ा दालचीनी का पाउडर...घड़ी में घुलना जरा जरा सा...थोड़ी स्ट्रोंग बनना...यहाँ की फ़िल्टर कॉफ़ी की तरह. 

कैमरा को देख कर कहना...स्माइल प्लीज :)

18 February, 2013

राग बिछोह

तुम
किसी लैंड माईन की तरह
बिछे थे इंतज़ार में

आवाजें, शोर
सब याद नहीं
बस तुम्हारा नाम
जिस्म में चुभ गया है 
असंख्य टुकड़ों में 

जहाँ पर आई खरोंचे 
वहां झूठ लगाता है 
जलता हुआ टिंचर आयोडीन 
'शायद' का मरहम 
'अफ़सोस' की पट्टी 

सच छीलता है 
आत्मा की परतें
रिसता है, टपकता है
दर्द बहुत सारा

कुछ खतरनाक से टुकड़े
निकाले हैं डॉक्टर ने बड़ी मुश्किल से

इन टुकड़ों को पिघला कर
एक घड़ीसाज़ बना देता है मेरे लिए
एक अलार्म घड़ी
उसमें हमेशा तुमसे मिलने के मौसम दिखते हैं

प्रोबबिलिटी थ्योरी की तलाश
किसी ठुकराए आशिक ने की होगी 
सोचते हुए मैंने निशान लगा दिया है
एटलस में तुम्हारे शहर पर 

तुम्हारे होने का वहम 
वो खुशनुमा चीज़ है
जो बांधे रखती है मुझे 
इस काली मिटटी वाली ज़मीन से
वरना दिल को कौन रोकता 
कि वो हमेशा से एक तन्हा एस्ट्रोनोट है 
मार्स पर संभावनाएं खोजता हुआ

मुझे टोटली फिट डिक्लेयर कर के
भेज दिया गया दुनिया में वापस

ब्लास्ट में किरिच हुए दिल के साथ
या उसके बगैर बिलकुल आसान है जीना

सब कुछ मुमकिन है
सिर्फ नहीं लिखी जा सकती कविता

13 February, 2013

ज़हरीली खराशें

याद करने की कोशिश करती हूँ...कैसी थी उसकी आवाज़...पटना के कबाड़ी की...पेपर, रद्दी, गत्ता...पेप्पर...रद्दी...जैसी कुछ...कहीं दूर याद की गलियों में साइकिल की घंटी की टिंग टिंग बजती. घर के सामने खड़े जामुन पेड़ के कच्चे जामुनों जैसी कसैली...कनेल के पीले फूलों की गंध जैसी परिचित...बरसात के बाद घुटने भर पानी में हिले-मिले शहर जैसी...खराशें...कैसी खराशें थीं उसकी आवाज़ में...

याद का टीन का डब्बा हिलाती हूँ, अन्दर कुछ खोटे सिक्के ढनमनाते हैं. कैसी थी उसकी आवाज़...बोल न रे टुनकी...कहाँ चढ़ के बैठी है पानी की टंकी पर. चप्पल घसीटता हुआ चलता है लड़का, उसके आने के पहले वही आवाज़ आती है हमेशा...हलके पाँव रखना कब सीखेगा. आवाज़...उसकी आवाज़...४४० हज़ार वोल्ट के खतरे का बोर्ड जैसा वो...आवाज़ उसकी जैसे पागल मौसमों में हू हू...करती हवा जैसे कहती जाती...हूँ...हूँ...मैं हूँ कहीं, तुम्हारे पास...पॉकेट में मिलते हैं अब भी जामुन के बीज...कनेल के सूखे फल रोप दिए हैं कच्ची बारिशों में. कुछ सालों में शायद खिल जायेंगे इनमें पीले फूल...फिर वो एक दिन एक कच्ची डाली हटा कर झांकेगा, गुलेल से कंचे का निशाना लगाए तोड़ेगा मेरे कमरे की खिड़कियों के शीशे...धमकियों से बेअसर खी खी करके हंसेगा.

पतंग उड़ाने की बातें करती मैं सोचूंगी उसके बारे में...मांजे के जैसा काटेगा उड़ते ख्वाबों के कबूतर के पंख. पीपल के पेड़ की फुनगी पर रहने वाले भूत को मिलेगी पतंग पर लिखी कविता की कोई पंक्ति...भूत वही कविता सुना कर चाँद को पटायेगा...पोखर में तैरती मिलेगी उसकी नीली चप्पल मगर मैं जानूंगी कि कमबख्त डूब कर मरेगा नहीं...सालों साल मेरी जान खायेगा. बहुत सालों बाद जाउंगी पटना तो देखूंगी नयी सड़कें और पुरानी दुकानें...पान की पिरकी से रंगे नए संगमरमर के बुत...उसे खोजूंगी तो फिर देखूंगी कबाड़ियों की दुकानें, एक खैनी की दूकान में तम्बाकू काटता कोई अजनबी चेहरा. शहर की आवाजों में बहुत शोर मिल गया है फिर भी उसकी आवाज़ की भरपाई नहीं कर पाता. नामुराद...कैसी थी उसकी आवाज़.

वो क्या गया गालियाँ देने की आदत ही चली गयी...कहाँ है कोई उसके जैसा कि प्यार की नाप ही गालियों से करे...कि जैसे माँ की डांट सुने बिना खाना ही नहीं पचे...कि जैसे हर कुछ दिन पर जान बूझ कर न कर के ले जाऊं होमवर्क कि कभी कभी पनिशमेंट का अपना मज़ा है...फिर सर जब गुस्सा होते हैं मुझपर तो कितना कन्फ्यूज्ड सा एक्सप्रेशन होता है उनका...कि जानती हूँ कितना मुश्किल है मुझ पर गुस्सा होना. पटना...ऐसा बेमुरव्वत...ऐसा जालिम...ऐसा दगाबाज़ शहर...सालों बाद भी ना बदलने की जिद थामे हुए...रुला रुला मारने वाला शहर...थेथरई में पी एच डी किये बैठा...हरपट्टी.

कितना सोचा उसको...कितना चाहा...न्यूक्लियर वार के बाद भी जिन्दा बचने वाला...तिलचट्टा. कहाँ बंकर में घुसी हुयी है उस आवाज़ की कोई रिकोर्डिंग...जाले लग गए हैं टेप में...ना भी हों तो चलाऊं कहाँ? किधर मिलता है टेपरिकोर्डर...यूँ भी बहुत शोर था उस शाम खेल के मैदान में...वो एक ओर से चिल्लाता आया था मेरा नाम...मैंने कानों पर हथेलियाँ रख लीं थीं कि परदे फट जायेंगे कान के...कित्ती ख़राब है तेरी आवाज़...एकदम कबाड़ीवाला लगता है. उस दिन कहीं अन्दर बंद हो गयी दोनों कानों के बीच मेरे नाम में उसकी आवाज़. दिमाग ख़राब कर रखा है लड़के ने.

खटर-खटर चलती है ट्रेन...पटना से नई दिल्ली...पुरवा...यही ट्रेन थी न...उस दिन भी...बैठा होगा आज भी कहीं, डिब्बे का दरवाजा खोले...उड़ती ट्रेन में पैर लटकाए...उसकी आवाज़ खोजते वहां भी जाना पड़ा जहाँ कभी जाने को सोचा नहीं था...पनवाड़ी कैसे अजीब तरीके से घूर रहा था...गोल्ड फ्लेक है? कितने की आती है एक सिगरेट? खरीद सकती थी एक डिब्बा लेकिन एक डिब्बे में उसकी आवाज़ थोड़े न मिलती...वो तो पूरी पॉकेट खोज कर, पर्स के हर कोने से ढूंढ कर निकाला...डेढ़ रुपया...या कि अढाई रुपया था?

क्या थी उसकी आवाज़? सिगरेट की तलब...बस? जिंदगी का सबब...बस? या कि एक टूटने को दिया गया वादा...या कि विदा...अपने हिस्से की मौत चुनने की आज़ादी न सही...अपने पसंद का जहर चुनने की आज़ादी तो जिंदगी ने दी है...वहीं मिलेगी उसकी आवाज़...ड्रग अडिक्ट से कहना...जहर है उसकी आवाज़...फिर सुनना...तलाशना...उसकी आवाज़ की खराशें...याद की खरोंचों में कहीं...निशानों में...आखिरी हिचकी में. 

03 February, 2013

पातालगंगा

इक नदी थी कि जिसे उसके बहते हुए रहने का धोखा था...सालों पड़ती ठंढ में पानी जम गया था...नदी अब बर्फ की एक चट्टान सी हो गयी थी...टनों मोटी बर्फ की चादर थी. कौन जानता था नदी के दिल का हाल. गाँव की बूढी औरतें ही थीं जो कहती थीं कि नदी के सीने में अब भी गर्म पानी का सोता है, सोने के रंग की मछलियाँ हैं...मोती बुनती सीपियाँ हैं...डूबी हुयी किश्तियाँ हैं...लिखी हुयी चिट्ठियां हैं, समंदर तक पहुँचाने के लिए.

नदी थी कि देख नहीं सकती थी कुछ भी, उसे महसूस होती थी अपने बदन पर प्रियतम की उँगलियाँ...कि वो धीरे धीरे सरकती थी बंजर मैदानों पर और उसे लगता था कि एक दिन दूब उगेगी इन्ही ढलानों में, हरी मखमली दूब. नदी पागल थी कि सपने देखती थी समंदर के...ग्लेशियर से निकल कर भी डूबना चाहती थी समंदर के अन्दर बहने वाली किसी नदी में. बरक़रार रखना चाहती थी किसी पहाड़ की उँगलियों की गर्मी, बर्फ की परतों के नीचे. उसने सुना था कि बर्फ में चीज़ें कभी ख़राब नहीं होतीं.

किसी पहाड़ ने समेटा था एक बार उसे अपनी बांहों में...नदी उसी दिन पिघलनी शुरू हुयी थी मगर पिघलते ही उसे छोड़ कर आना पड़ा था वो पहाड़ी कबीला जो उसके सदानीरा होने के गीत गाता था. घाटियों के लोगों के दिल पत्थर थे...उनके किनारे घिसते घिसते नदी छिलती जाती...परत दर परत छूटती जाती. किसी ने कहाँ समेटा छूटी हुयी नदी के टुकड़ों को. नदी के आंसू कोयला खदानों की अमानत हो गए.

कभी कभी पूरी नदी सिर्फ एक पुकार का शब्द बन जाती थी मगर नदी की शिराओं में आवाज़ सफ़र करते ही गुम हो जाती थी. कोई भी नहीं बुला पाता उसे जिसे नदी बुलाती थी. नदी की एक सखी थी... पातालगंगा... मरनेवालों को पार लगाती थी. नदी में रोज जान देती थीं कितनी लहरें.

नदी थी कि बंजर मैदानों की फटी बिवाईयों पर जड़ी बूटियों सी उगती जाती थी...नदी थी कि प्रवासी पक्षियों को रास्ता दिखाती थी...नदी थी कि हीर को रांझे से जुदा करती थी और मिलाती थी.

गीतों में कहते हैं कि नदी है...मगर गीत गाती औरतों की आँखों में देखो तो जानोगे कि नदी थी...

01 February, 2013

सलेटी उदासियाँ

याद का पहला शहर- साहिबगंज.
साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान...स्कूल जाते हुए पड़ती बहुत सारी सीढियां, साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं...साइकिल चलाते हुए बबलू दादा.
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मेरी आँखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं...इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं उनमें. मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो.

भरा पूरा ससुराल, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग...जैसी हूँ वैसे अपनाने वाले सारे लोग...सब बहुत अच्छा और अनगिन अनगिन लोग. सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं. मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है.

कभी कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा हुए हैं. समझ नहीं आता कि क्या चाहिए और क्यों. सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली खाली सा क्यों लगता है. कब समझ आएँगी चीज़ें. कैसा अतल कुआँ है कि आवाज़ भी वापस नहीं फेंकता...किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो. ये  मैं हर वक़्त बेसब्र और परेशान क्यूँ रहती हूँ.

ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है. छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है. ऑफिस का काम करने थोडा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया. छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है. बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं. पुराने हीटर, कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान, एक टूटी बाल्टी, कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है...समझ नहीं आता कि कहाँ एक शुरू होता है और कहाँ दूसरा ख़त्म.

मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं...मौसम अजीब उदासी से भरा हुआ है. आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है. मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा. मेरा किसी से बात करने का मन नहीं कर रहा. एक बार अपने वाले घर जाने का मन है. जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाउंगी तो मम्मी भी वहीँ होगी. दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं. कभी कभी लगता है कि वो यहीं है, मैं ही मर चुकी हूँ कि वो सारी चीज़ें जिनसे ख़ुशी मिलती थी कहीं खोयी हुयी हैं और मुझे दिखती नहीं.

रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी, उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा. तैयार हुयी शाम की पार्टी के लिए. लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं. पास में ही. हर बार साड़ी पहनती हूँ, अनगिन लोग पूछते हैं कि इतना अच्छा साड़ी पहनना किससे सीखी...हम हर बार कहते हैं...मम्मी से. सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दीखते हैं...किसी भीड़ में नहीं खोते...एकदम अलग.

सब अच्छा है फिर भी मन उदास है...ऐसे ही...कौन समझाए...फेज है...गुजरेगा. 

17 January, 2013

मिर्ची लाइट्स से सजे शहर की उदासियाँ

बहुत अजीब थीं कि ये एक मिर्ची लाइट्स से सजे हुए शहर की उदासियाँ थीं...

मुश्किल होता होगा यूँ आँख मिचमिचाती रोशनियों को देख कर भी नहीं मुस्कुराना...लेकिन न तो ये किसी के ख्वाबों का शहर था न वो लड़की झूठी थी जो यहाँ के किस्से सुना रही थी. तो फिर मेरी जान, सूखे पत्तों पर उदास क़दमों से चलता ये लड़का क्या वाकई में था की नींद उठी आँखों को ख्वाबों का पता नहीं चला था.

बेरौनक यहाँ कोई चेहरा नहीं था, नूर से दमकती थीं इस शहर के पेड़ की शाखें...कि सो नहीं पाते थे पंछी रात भर अपने घोसलों में कि बिना परदे के घोंसले वाला सजायाफ्ता ये शहर मिर्ची लाइटों से सजा था. देर रात शहर की सड़कों पर आवारा घूमती रहती थी एक लड़की कि उसके बालों की लटों में रास्ता भूल गया था इस शहर से बाहर जाने का रास्ता. बहती हवा में उड़ कर आया था उसके बचपन का एक पुर्जा कि जिस पर लिखा हुआ था एक नाम जो उसे पुकारा करता था चाँद परछाई वाले पानी में से. लड़की कूद जाना चाहती थी गंगा में मगर उसके शहर से गुज़रता रेगिस्तान पी गया था उसके डूब मरने के हिस्से का सारा पानी. उसकी आँखों में हमेशा जिंदगी जलती बुझती रहती कि ये मिर्ची लाइटों में कैद उदासियों का शहर था...

उसे एक बार को हो गया था इश्क शहर के बरगद की सबसे ऊंची शाख पर रहने वाले परिंदे से...कि वो उसकी मुहब्बत में भूल जाती थी रास्तों को उनके शहर की ओर भेजना और शहर के सारे लोग भटक कर किसी और के घर चले जाते थे. फिर भी किसी के मेहमानखाने में जगह कम नहीं पड़ती थी कि शहर की औरतें जलाये रखती थीं चूल्हा रात के सारे पहर कि उन्हें मालूम होता था कि मुसाफिर दिल कभी खुद के घर का रास्ता भूल जाए मुमकिन है...तो वो हर अजनबी का ऐसी स्वागत करतीं जैसे उनका महबूब लम्बे सफ़र से वापस लौटा हो.

शहर की औरतों का आँचल उनके होठों के कोने में फंसा हुआ रहता था...कई बार लोगों का दिल भी कुछ यूँ ही अटक जाता था किसी की आधी मुस्कराहट के पास कहीं. अजनबियों से भरे हुए इस शहर में किसी ने नहीं पहने थे किसी और के चेहरे इसलिए यहाँ घूंघट दरम्यान रहता था...कोई किसी घर में दुबारा नहीं जाता था कि जब भी किसी और शहर से कोई शख्स यहाँ आता था तो उसका शहर भी फिसल कर इस शहर की सरहद में मिल जाता था. फिर उसके घर के लोग, दोस्त और दुश्मन इसी शहर में भटकते रहते थे...मुसलसल अपने घर का पता ढूंढते हुए.
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दिखता नहीं था कोई भी...साफ़ इस रौशनी में...कोई चेहरा नहीं होता था. ट्रैफिक के शोर में गुम थीं आवाजें...फिर ऐसी ही एक शाम थी...ऐसा ही एक शहर था...तुम्हें बड़ी शिद्दत से याद किया था. सुना उस रात बहुत तेज़ बारिश हुयी थी और खिड़की के पास रखी तुम्हारी डायरी बिलकुल भीग गयी थी...ये वही डायरी थी न जिसके आखिरी पन्ने पर मैंने साइन किया था?
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मेरा नाम भी कब तक याद रहना था तुम्हें...

02 January, 2013

हैप्पी न्यू इयर २०१३

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं ।
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नये साल में उम्मीदों की एक सुबह...
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नए साल में हम कैम्पिंग करने एक नदी किनारे गए थे. छोटे छोटे टेंट्स और खाने पीने का थोड़ा सामान.

शहर को पीछे छोड़ते हुए गाँव शुरू हो चुके थे...गाँव की भी आखिरी सीमा से एक पगडण्डी शुरू होती थी...उधर से आगे बढ़ते हुए दो छोटी पहाड़ियों के ऊपर कोई किलोमीटर से ऊपर का सफ़र था.

जब हम घाटी में पहुँचते तो जैसे पूरी दुनिया पीछे छोड़ आये थे. साथ थे ९ लोग...कुणाल और मैं, मोहित-नीतिका, कुंदन, चन्दन, साकिब और रमन और दिनेश.

कहीं से कोई शोर नहीं...कहीं एक इंसान नहीं दूर दूर तक...नए साल का कोई हल्ला नहीं, कोई फ़िक्र नहीं मुझे ऐसा ही शांत नया साल चाहिए था. एक बार नए साल में ताज गए थे...वहां डांस फ्लोर पर किसी ने हमारी दोस्त के साथ बदतमीजी की, एक बार नहीं कई बार...और ताज वालों ने उसे होटल से बाहर तक नहीं निकाला. हमें कम से कम ताज से ऐसी उम्मीद नहीं थी. लगा कि कम से वहां तो सेफ्टी होगी. उसके बाद कभी नया साल मनाने का उत्साह ही नहीं रहा. बाहर जाकर पार्टी और हल्ला करने की अब मेरी उम्र नहीं रही. मुझे अब बहुत शोर शराबा और नौटंकी करना अच्छा नहीं लगता है.

३१ की सुबह घर में दो रोटियां बनाने के बाद गैस ख़त्म हो गयी थी...सुबह से भूखे ही थे. दिन में ऑफिस का ये हाल था कि दस मिनट निकाल कर बगल की दूकान से एक पैकेट चिप्स ला के खाने की फुर्सत नहीं थी. सुबह से एक सेब खाया था बस. ढाई बजे बैंगलोर से निकले...और इस बार कार मैं ड्राइव कर रही थी. हमें पहुँचते पहुँचते पांच बज गए थे. भूख के मारे बुरा हाल था...फिर गरम गरम पकोड़े मिले खाने को...जान में जान आई. आलू और मिर्च के पकोड़े. हैंगोवर से बचने के नुस्खों में एक था...पहले कोई तली हुयी चीज़ खा लो...

कुंदन, कुणाल और चन्दन 
नदी किनारे एक राफ्ट बंधा हुआ था...तारे उग आये थे...मुझे खुले में सितारों के नीचे सोये बहुत वक़्त हुआ था. कौन सी बातें थी अब याद नहीं पर अच्छा लग रहा था. सबसे अच्छा लग रहा था कि सेफ महसूस कर रहे थे कि सब अपने लोग हैं. किसी तरह की टेंशन नहीं थी. अधिकतर नेटवर्क नहीं था तो कोई फोन करके परेशान भी नहीं कर सकता. देर तक मूंगफली खाते और भूंजा फांकते वक़्त कटा...फिर अलाव जलाया गया. अलाव के इर्द इर्द बैठे हुए हमने पहाड़ी के पीछे उगता चाँद देखा...पूरा जंगल चांदनी में नहा गया था. मैं फिर से ट्राईपोड ले जाना भूल गयी थी कम रौशनी में फोटो ऐसे खींचे जाते थे कि रेडी बोलते ही फोटोग्राफर समेत सारे सब्जेक्ट्स सांस रोक लेते थे. थोड़ी सी मूवमेंट से भी फोटो ब्लर आ जाती थी.

रात को थोड़ा डांस थोड़ा गाना...थोड़ा चिल्लाना...थोड़ा थोड़ा करके सब बहुत हो गया. सुबह ६ बजे नेचर वाक पर जाना था. मोहित का हल्ला कि मैं सबको उठा दूंगा...चार बजे सो कर ६ बजे तो सब उठने से रहे लेकिन हल्ला करने में सब रेडी...

सात बजे मेरी नींद खुली तो बाकी किसी टेंट में कोई हलचल नहीं दिख रही थी. सुबह का समय, सब एकदम शांत था. कैमरा, अपनी नोटबुक, पेन तीनो उठा कर वहीं नदी किनारे चली गयी. सूरज का रंग फीका था और नदी का पानी रूपहला. हर साल की शुरूआती आदत...डायरी लिखना. सो कुछ तसवीरें खींचीं, एक आध गिलास पानी टिकाया और फिर जैसे धूप गरमाती गयी खुद के साथ थोड़ा वक़्त बिताया. नेरुदा की किताब ट्वेंटी पोयम्स ऑफ़ लव एंड अ सोंग ऑफ़ डिस्पेयर नयी डिलीवर हुयी थी फ्लिप्कार्ट से. कुछ कवितायें पढ़ीं. कोई अख़बार नहीं...कोई मेल नहीं...कोई एसएमएस नहीं. कभी कभी जीने के लिए दुनिया से कटना भी जरूरी होता है. सुबह की कॉफ़ी तैयार हो रही थी. नौ बजते बजते बाकी लोग उठे.

दिन का मेन अट्रेक्शन था लाइफ जैकेट पहन कर नदी में 'डेड मैन फ्लोट' करना. अधिकतर को तैरना नहीं आता था. नदी में थोड़ी थोड़ी दूर पर पानी गर्म और ठंढा था. हम कितनी देर तो नदी में ही रहे. फिर खाने का कोई इन्तेजाम नहीं था तो एक डेढ़ बजे निकले...भूख लगनी शुरू हो गयी थी. रस्ते में जहाँ से घाटी दिखती थी एक राउंड फोटो सेशन चला. बैंगलोर पहुँचते चार बज गए थे. खाने पर हम इस तरह से टूटे जैसे एक साल के भूखे हों. चाइनीज...थाई...इन्डियन...जिसने जो मंगाया, सबने खाया. कोई पच्चीस रोटियां, पांच प्लेट चाव्मीन, एक प्लेट चावल, एक थाई ग्रीन करी, पांच चिली पनीर...कहाँ गया किसी को मालूम नहीं.

घर पर आराम करने के मूड में आये कि पेट में दर्द शुरू. मुझे शिमला मिर्च से अलर्जी है...हमेशा प्रॉब्लम नहीं होती...पर जब होती है जान चली जाती है. और दर्द कभी दिन में शुरू नहीं होता...रात में होता है कि हॉस्पिटल में भी इमरजेंसी में जाना पड़े. कल भी आसार बुरे दिख रहे थे. दर्द के मारे जान जा रही थी उसपर डि-हाईड्रेशन. पता नहीं कितना तो ओआरएस पिया और कोई तो टैबलेट खायी. अभी सुबह उठी हूँ तो लगता है पुर्जा पुर्जा दर्द कर रहा है. बुखार बुखार सा लग रहा है...ऑफिस में इनफाईनाईट काम है...गैस ख़त्म है सो उसका इन्तेजाम करना है...कुणाल की मौसी-मौसाजी और बच्चे आये हैं तो रात का कुछ अच्छा खाना बनाना है. बाप रे! दिन बहुत लम्बा लग रहा है और चलने की हिम्मत नहीं. कल रात दोनों बच्चों को माइक्रोवेव में मैगी बना कर खिलाये थे. आज पता नहीं नाश्ता का क्या करेंगे. दस बजे टाइप्स गैस एजेंसी खुलेगी. बाबा रे...पैक्ड डे अहेड!

१३ मेरा लक्की नंबर है. देखे ये साल क्या रंग दिखाता है...नए साल में नयी उम्मीदें...नए सपने...आप सबको भी हैप्पी न्यू इयर. 

14 December, 2012

खोये हुए लोग कहाँ चले जाते हैं?

बहुत साल पहले दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था...मैं उसे देख कर हमेशा बहुत उदास हो जाती थी. सोचती थी कि ये दुनिया कितनी बड़ी है कि इतने सारे लोग खो जाते हैं और किसी का पता भी नहीं मिलता. मर जाने से ज्यादा बुरा है खो जाना...मर जाने में एक स्थायित्व है. लोग रो पीट कर समझा लेते हैं...कैसी भी परिस्थिति में जी लेते हैं. लेकिन खोये हुए लोग अपने पीछे एक इंतज़ार छोड़ जाते हैं. फिर कोई उस मोड़ से आगे नहीं बढ़ता जहाँ उसका हाथ छूटा था. सब कुछ लौट लौट कर वहीं आता है.

मुझे एक ज़माने में खो जाने का मन करता था...लुका छिप्पी खेलते हुए मैं अक्सर सोचती थी कि अगर ऐसा हुआ कि मैं खो जाऊं और कभी न मिलूँ तो? मैं टीवी में खोये हुए लोगों को बहुत गौर से देखती थी और सोचती थी अगर कोई मिलेगा तो मैं पक्का उसे इस एड्रेस पर पहुंचा दूँगी.

जब से पोलैंड से लौटी हूँ एक अजीब चीज़ होती है...अख़बार में अक्सर मरे लोगों की तसवीरें छपती हैं. मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्यूँ करते हैं. मैं उन तस्वीरों को देखती हूँ तो अजीब सा महसूस होता है, जैसे कि मैं उनको दूर से जानती हूँ...जैसे मरने के बाद वो मेरी दुनिया का हिस्सा बन गए हैं. उनकी कोई कहानी होती है जो उन्हें कहनी होती है...वो मुझसे कहना चाहते हैं. मैं पेपर पलट कर रख देती हूँ और कैल्विन और होब्स में खो जाती हूँ...एक शैतान बच्चा और एक स्टफ टाइगर...इससे ज्यादा कॉम्प्लिकेशन हैंडल नहीं कर सकती हूँ.
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आज सुबह अखबार में बैंगलोर फिल्म फेस्टिवल के बारे में छपा था...आज ही अपनी बुकिंग कराई है. ऑफिस के और भी तीन चार लोगों की बुकिंग करायी है. पांच सौ रुपये का डेलिगेट पास है...इसमें कोई डेढ़ सौ फिल्में दिखा रहे हैं. मन तो कर रहा है कि हफ्ते भर की छुट्टी लेकर सारी फिल्में देख जाऊं, लेकिन गड़बड़ है कि जोर्ज भी जा रहा है...हमने कहा तो बोला...एय...छुट्टी मैं लेकर जाऊँगा...तुम लोग यहाँ काम सम्हालो. असल में होगा ये कि वीकेंड पर जो फिल्में हैं वो तो देख लेंगे, क्रिसमस वाले दिन भी तीन चार फिल्में देखी जा सकती हैं. उसके अलावा रात के शायद कोई शो देख पाऊं, डिपेंड करता है कि जिस हौल में लगा होगा वो घर से कितनी दूर है. एक दोस्त है निशांत वो भी जा रहा है...अभी कुणाल की बुकिंग नहीं कराई है, उसके घर आने पर करेंगे. टोटल में बहुत से लोग हैं तो अकेले देखने का टेंशन नहीं है. नेहा आज दिन भर ऑफिस से बाहर रही है तो उसकी टिकट भी नहीं हुई है...लौट के आती है तो उसको पकड़ते हैं. मिस करती हूँ उसको. बड़े दिन बाद किसी से थोड़ी दोस्ती हुयी है. बच्ची है वैसे तो...मुझसे छः साल छोटी है...पर हाँ...अच्छा लगता है कि कोई लड़की दोस्त है, गॉसिप करने के लिए, शोपिंग के लिए, उसके जिंदगी और प्यार पे ज्ञान देने के लिए...जरूरत सी लगती है. नन्ही परी है मेरे लिए. अच्छी. प्यारी.
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सिंपल होने का मन करता है...लगता है कि मन इतने सारे पैरलल ट्रैक्स पर एक साथ सोच नहीं पाता तो अच्छा होता न...इतनी उलझन नहीं होती. शामें अक्सर डिप्रेसिंग होती हैं. मुझे समझ में ये नहीं आता कि खुद के साथ तालमेल बिठाने के लिए कितनी जिंदगी चाहिए. अब भी मैं खुद को समझ क्यूँ नहीं आती...जब कि बहुत सी चीज़ें बार बार घटती हैं...मैं फिर वहीं कैसे चोट खाती हूँ. दो कमरों का घर है, साढ़े चाल साल होने को आये, मुझे अब तक दीवारें कहाँ है पता क्यूँ नहीं है. अब भी टकरा जाती हूँ...कितने सारे नीले निशान होते हैं. अचानक से मन बहुत बहुत उदास हो आया है...सोचती हूँ तो पाती हूँ कि अचानक नहीं है...एक जिंदगी किसी और जिंदगी की रिपीट तो नहीं हो सकती. देजा वू है...
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काश तुम्हारा ऑफिस इतनी दूर नहीं होता...सिर्फ एक नज़र तुम्हें देखने का कितना मन कर रहा है...कोर्नर हाउस में आइसक्रीम खाने का...एक अच्छी फिल्म साथ देखने का. अपने घर जाने का मन कर रहा है...तुम्हारे ऑफिस होते हुए. कभी कभी लगता है एकदम अकेली हूँ और बेहद रोने का मन करता है...फिर काम में भी मन नहीं लगता. मम्मी की बेतरह याद आ रही है सुबह से. और कितने साल लगेंगे उसके बिना जीना सीखने में?

13 December, 2012

आई लव यू टू

तुम किसी मूक फिल्म की तरह मेरी जिंदगी का हिस्सा हो...कभी कभार एक टाइटल आ जाता है जिसके अलावा सारी बातें किस प्लेन पर घटती हैं कोई नहीं जानता. कितने सारे सिनरिओज इमैजिन कर लेती हूँ ना...तुम आये हो...ऐसे बात करते हो मुझे. कितनी कम बातें की हैं तुमसे...मगर उन कुछ लम्हों को इतनी बार रिवाईंड कर चुकी हूँ कि अब तो फिल्म घिस जानी चाहिए मगर ये मन का कैमरा कैसा है कि हर बार नए शेड्स ले आता है. अरे...क्या...तुम्हें बताया नहीं, तुम्हारे रंग याद नहीं हैं मुझे...तुम बस काले और उजले के शेड्स में बस गए हो मेरे अन्दर कहीं.

या कि मौसम की शरारत है कि ऐसा लगा जैसे खिड़की के पार तुम हो...तुम्हारा होना ऐसे महसूस हुआ जैसे धक् से लगता है प्यार में गिरने पर...और यु तो नो...देयर इज नो फालिंग इन लव...इट जस्ट हैपन्स...धाड़...गिर गए...भटाक! अब लो...सम्हालो, कभी घुटने पर चोट लगती है, कभी दिल पर...रोंदू सी शकल लिए घूमते रहो फिर. यूँ तो प्यार बहुत तमीज से ठंढ के मौसम की तरह आता है लेकिन क्या करोगे, जिंदगी है...कभी कभी उससे भी गलती हो जाती है. इस बार दो महीने पहले आ गया. टाइमिंग गलत हो गयी...वो क्या है कि मुझे मालूम नहीं था कि उसके आने का मूड बन गया है और तुम स्टाइल में एंट्री सीक्वेंस के लिए खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे हो...पगली मैं...कपड़े भी ढंग के नहीं पहने थे...तभी तो तुम्हें भी धोखा हो गया कि मैं ही हूँ या कोई और है. साइड हीरोइन पर कौन ध्यान देता है...बट लाइफ माय फ्रेंड इज फुल ऑफ़ सरप्राइजेज. प्यार हमेशा धमाकेदार एंट्री नहीं करता...चुपके से भी चला आता है.

कसम से, मेरे पास तुम्हारे दिल की भागती धड़कन को सुनने की कोई डिवाइस नहीं है...मेरा फोन आता है तो घबराया मत करो...एक गहरी सांस लेकर फोन उठा लिया करो. मैं जानती हूँ तुम्हें इतनी अच्छी एक्टिंग आती है कि मूक फिल्म में भी फोन उठा कर कुछ न कुछ मैनेज कर लोगे. होते हैं...सबकी लाइफ में ऐसे लम्हे आते हैं जब समझ नहीं आता कि कहें तो क्या कहें...लेकिन जानां...प्यार में हो तो उल्टा-पुल्टा मत सोचो...मुझे तुम्हारी हर अदा से प्यार है. उसे क्या कहते हैं जब आप किसी को इतनी अच्छी तरह जानते हो कि उससे फोन पर बात करते हुए आपको मालूम है कि सामने वाले का एक्जैक्ट एक्सप्रेशन कैसा है? मेरे तुम्हारे बीच वैसा कुछ है...है तो वैसे और भी बहुत कुछ...इस हसीन शहर का दिलफरेब मौसम...पुल के ऊपर का खाली ठहरा हुआ समय...बहुत बहुत से गुलमोहर के पेड़ों पर रुकी हुयी धूप...प्यार? कन्फर्म नहीं है.

मेरा आज तक कभी ध्यान नहीं गया था कि रियल जिंदगी में तुम वाकई कितनी बकवास बातें करते हो...तुम मेरी मूक फिल्म में ही सही थे...वो क्या है कि जब भी तुम्हारा फोन आया है मेरा किसी बात पर ध्यान ही नहीं रहता...सारा ध्यान इस बात पर रहता है कि तुम फोन रखते हुए साइन ऑफ़ में क्या कहते हो. क्यूँ? हुआ यूँ कि एक बार मुझसे बात करते हुए तुम ऑफिस को भाग रहे थे...तो फ़ोन रखते हुए तुम कुछ कह गए थे...क्या..गलती से...हाँ बाबा, जानती हूँ गलती से...ऐसी हसीन गलतियाँ जिंदगी में गिन के ही देता है खुदा...तो उस दिन तुम कह गए थे...ओके...लव यू...बाय. मैं हक्की-बक्की-बोक्की...सोच रही थी कि कभी तुमसे पूछूं...कितने लोगों को लव यू बाय बोलते हो कि आदत पड़ गयी है. वो दिन है और आज का दिन है...बाय और टाटा के सिवा कुछ नहीं मिलता.

जाने दो...देखो न कितनी बातें कर गयी तुमसे...ऐवें ही...फोन रखती हूँ...टाटा...बाय. जानती हूँ फोन रखने के बाद तुमने भी उधर कहा होगा...लव यू टू. 

12 December, 2012

एक तारीख से गुज़रते हुए...

१२/१२/१२                                      
इसी सुबह को...सपना...किसी ने काँधे से भींच कर पकड़ा है और झकझोर रहा है...आँखों में देख रहा है...उसकी नज़र ऐसे भेदती है जैसे आत्मा तक के सारे राज़ पता हैं उसे...कोई सवाल है जो वो मुझसे पूछता नहीं. किसी टूर्नामेंट में हिस्सा लिया है मैंने...कुछ ऐसा है जो मुझे बिलकुल नहीं आता...वो कहता है...तुम कर सकती हो...मुझे मालूम है तुम जीत जाओगी...तुम्हें खुद पर यकीन क्यूँ नहीं होता. मैं कहता हूँ न तुम जीत जाओगी. मैं उसके यकीन पर भरोसा करती हूँ तो पाती हूँ कि मुझे वाकई मालूम थी पूरी प्रक्रिया...पूरा खेल...और मैं जीत जाती हूँ. खेल ख़त्म हो जाता है लेकिन कंधों पर रह जाती हैं उसकी हथेलियाँ और मैं दिन भर ऐसे चलती हूँ जैसे नशे में हूँ. कौन है वो जो मुझपर मुझसे ज्यादा यकीन करता है?

कोई आवाज़ है...पूछती है...तुम मुझे किस नाम से बुलाती थी? जाने किस शाम मैंने कौन सी कहानियां सुनायीं थीं उसे...मैं चली आई दूर मगर मेरी कहानियों के किरदार उसकी जिंदगी में रह गए. वे अक्सर उससे मेरा हाल-चाल पूछते रहते हैं. वो मुझसे पूछ रहा है कि ये किरदार कितने सच हैं, उनका किसी अल्टरनेट दुनिया में कोई ठिकाना है तो वो उन्हें उनके घर छोड़ आएगा. वो परेशां है थोड़ा, उसे इस दुनिया के लोग समझ नहीं आते...वो कहता है तुम ये लोग किस दुनिया से लाती हो, कोई ट्रेनिंग प्रोग्राम शुरू करोगी क्या जो इस दुनिया के लोगों को थोड़ा तुम्हारी दुनिया के लोगों जैसा बना सके. उसे मेरी कहानी के किरदारों से जितना प्यार है अपनी जिंदगी के लोगों से नहीं. 
कोई क्यूँकर होता है इतना तन्हा?
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ऑफिस के बगल में एक दूकान है...जेनरल स्टोर्स टाईप...भूख लग रही थी, कुछ खाने का मन कर रहा था...सोचा कुछ ले आऊँ जा कर. देखती हूँ उसके ठीक सामने वाइन शॉप खुली है नयी...हाय कमबख्त, गालियाँ निकालती हूँ दूकान खोलने वाले को. बेहद खूबसूरत शॉप है...पूरा ग्लास का एक्सटीरियर है...सामने हर तरह की खूबसूरत बोतलों की अंतहीन कतारें...शोकेस में लगे बेहतरीन कांच के दिलफरेब टुकड़े...क्लास्सिक पोस्टर्स. एक तिलिस्म है अपनी ओर खींचता हुआ...एक हम हैं काम की उलझनों में उलझे हुए. दोस्त को फोन किया...ऐसे ही वीतराग मूड में...उधर से बोलता है...क्या है बे? अचानक हँसी आ गयी. शायद इसी लिए फोन किया भी था. चार गालियाँ पटकीं, फिर उसे घर निकलना था...कल बात करते हैं. देखें कल कितने दिन में आता है. 

किसी को समझा रही थी कि मैं लिखती कैसे हूँ. तीन चीज़ें होती हैं...किरदार, प्लाट और असल घटना...इसमें से कोई न कोई हमेशा सच रहता है. कभी किरदार सच होता है...मेरी जिंदगी से गुज़रा कोई या किसी और की जिंदगी का कोई नमूना...कभी प्लाट सही होता है कि ऑफिस, शहर, धूप, कोहरा, मौसम, बैंगलोर...ये  सबसे ज्यादा कॉमन एलिमेंट है जो अक्सर सच रहता है...और फिर वो है जो शायद ही सच होती है...इन सबके साथ घटा हुआ कुछ...ये अक्सर कोरी कल्पना होती है. 

एक प्रोजेक्ट पर काम करना था अभी...पर कुछ लिखने का मन था...उसके बिना काम में मन नहीं लगेगा...सो पहले लिखना निपटा देते हैं. इधर बहुत दिनों से कोई अच्छा म्यूजिक नहीं सुना है...खुद से खोजने का ट्रैक रिकोर्ड बेहद ख़राब है...शायद ही अपना तलाशा हुआ कुछ पसंद आता है. 

मुझे आजकल सबसे ज्यादा एट होम कार में फील होता है. उसमें अपनापन है...कहीं घूमने जाने का वादा है...कार चलाते हुए शीशे चढ़ा लो तो एक पैरलल दुनिया बन जाती है जिसमें मेरे दिमाग में घूमते किरदार होते हैं...सीडी प्लेयर पर मेरी पसंद का म्यूजिक होता है और हर सू बदलते नज़ारे होते हैं...बहुत सी शान्ति होती है. दुनिया के कुछ सबसे पसंदीदा कामों में से एक है कुणाल को ऑफिस से रिसीव करने जाना. आज जनाब बिना स्वेटर लिए चले गए हैं, सर्दी-खांसी-बुखार हो रखा है. तो आज हम ड्राइवरी करके जनाब को ऑफिस से उठाने जायेंगे. रोड अपना...चाँद अपना...गाने अपने...ओ हो हो. 

आज रजनीगंधा के फूल खरीदने का मन कर रहा है...सुबह सारे गर्म कपड़े धूप में सुखाये हैं...घर ईजी की नर्म खुशबू से भर गया है...दिसंबर...सर्दियाँ...खुशामदीद. 

फोटो वाली बिल्ली हमारे ऑफिस की है...हमारे प्रोजेक्ट्स की बहुत चिंता करती है...हमने इसे स्पेशल रास्ता काटने के लिए पाला है :)

11 December, 2012

सीले बदन पर, कोई दाग पड़ा है


दिन के फरेब में रात का नशा है/ जब भी छुआ है ज़ख्म सा लगा है
सीले बदन पर कोई दाग पड़ा है/बारिशें हैं...सब धुआं धुआं है 

आँखों में कोई कल रात छुपा था, आज सुबह रकीब की लाश मिली है...कसक कोई पानी में घुली है कि दुपट्टे को निचोड़ा है तो कितना सारा दुःख गीले छत पे बहा है...थप्पड़ खाया है चेहरे पर तो होठों से खून बहा है कि तुम्हारा नाम अब भी आदतों में रहा है...कहाँ है कोई...शहर में दिल्ली का कोहरा बुला दे...कहाँ है इश्क कि जीने का अंदाज़ भूलता जाता है...

कब की बात है जानां? आसमान आधा बंटा है...तेरे शहर में बारिश और यहाँ दरिया जला है...तू गुमशुदा कि जहां गुमशुदा है...तेरे दिल तक पहुंचे वो रास्ता कहाँ है? मैं क्यूँ उदास बैठी हूँ रात के तीसरे पहर कि अचानक से बहुत सी भीड़ आ गयी है मेरी तन्हाइयों में. किसने तोड़ दी है फिरोजी रंग की दवात? डॉक्टर ने चेक करके कहा है कि मेरे खून का रंग हरा है...किसी बियाबान में रोप दो ना अमलतास के पौधे...ढूंढ दो मेरी पसंद की कलम. मेरी जान...मैं भूल गयी हूँ अपनी पसंद के गाने...मुझे बता दो तुम्हारे गम में सुकून पहुंचे वो गीत कौन सा है?

सब उतना ही पुराना है तू जितना नया है...इश्क के क्लास में ब्लैकबोर्ड सा टंगा है...सफ़ेद चौक में टीचर की उँगलियों का नशा है, सिगरेट के छल्ले बनाना सीख रहा है...मेरी कहानियों का वो शख्स कितना गुमशुदा है...पेड़ है इमली का...हैरतजदा है. तुम झूठ बोलते हो...वहां झूला पड़ा है...मेले में चलो न, तारामाछी लगा है. कितनी बात करते हो...चुप रहना मना है.

शहर से भागते पुल के ऊपर एक शहर नया बसा है...कैसी रौशनी है...कितना तमाशा है...वहां भी कोई मिलने आएगा ऐसा धोखा हुआ है...जिंदगी फानी रे बाबू...दरिया है मगर सूखा हुआ है. मैं ठहरी हुयी हूँ तू ठहरा हुआ है...कितना दूर है कोई...किसी प्लेटफोर्म पर कोई जिंदगी से बिछड़ा है...सारा किस्सा कहा हुआ है, सारा कहना सुना हुआ है...गाँव चले आता है बस में चढ़ कर, शहर के बाहर लिखवा दो, शहर में रहना मना है. तुम्हारे बाग़ में बहार नहीं आई...अँधेरा कितना घना है...कितनी बर्फ पड़ी, कितना शोर बरसा...किसने भींचा बांहों में...कौन जाग जाने को कहता है...किसी पागल दिशा से आया पगला विरहा गाता है.

कितना लिखना, कितना बाकी बचा है?
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कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
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कुछ भी ऐब्स्त्रैक्ट नहीं होता...जंगल में खोयी हुयी पगडण्डी भी किसी गाँव को पहुंचा ही देती है...मन के रास्ते किसी उलझे वाक्य से गुज़र कर जाते होंगे शायद...ये शायद क्या होता है?

06 December, 2012

बातें, सब बातें झूठी हैं

गाँव से बहुत दूर एक पुराने किले में एक दुष्ट जादूगरनी रहती थी जो कि छोटे बच्चों को पकड़ कर खा जाती थी...लेकिन आप जानते हो कि ये कहानी झूठी है कि गाँव के छोर पर एक गरीब की झोंपड़ी थी जिसमें एक सुनहले बालों वाली राजकुमारी रहती थी...उसके बाल खुलते थे तो सूरज की किरनें धान के खेतों पर गिरतीं थीं और गाँव वालों की खेती निर्बाध रूप से चलती थी.

वो जो दुष्ट जादूगरनी थी उसे काला जादू आता था...वो बच्चों को बहाने से बुला लेती थी और फिर उनका दिल निकाल कर उसकी कलेजी तल के खाती थी. उसे खरगोश जैसे मासूम बच्चे बहुत पसंद थे. गाँव के सारे बच्चों की माएं उन्हें उस जादूगरनी के बारे में बता के रखती थी और उनकी रक्षा के लिए काला तावीज बांधती थी. बच्चे लेकिन बहुत शैतान होते थे...वे भरी दुपहरिया पीपल के कोटर में अपना अपना तावीज रख आते थे और किले में उचक कर देखते थे. बच्चों को पूरा यकीन था कि शादी के बाद जिन लड़कियों की विदाई होती है वे कहीं नहीं जातीं, यही दुष्ट जादूगरनी उन्हें पकड़ के खा जाती है. 

मगर आप जानते हो कि दुष्ट जादूगरनी असल में किस्सा है...माएं अपने बेटों को उस राजकुमारी से बचाना चाहती थीं जिसका दिल एक राजकुमार ने तोड़ दिया था और उसके उदास आंसुओं की नदी से गाँव के सारे खेत सींचे जाते थे. गाँव के लड़के बहुत सीधे और भोले थे, उन्हें जादूगरनी से भी उतना ही खतरा था जितना कि राजकुमारी से. अगर उसने हँसना सीख लिया तो गाँव के सारे खेत सूख जायेंगे और सभी लोग भूखे मर जायेंगे.  जैसे किसी आशिक को अपने महबूब के वादों पर ऐतबार नहीं होता वैसे ही गाँव की माँओं को बारिश के आने पर भरोसा नहीं था. वे रातों को पीर की मजार पर राजकुमारी के आंसुओं की नदी बहती रखने की मन्नत बाँधने जातीं थी...आते और जाते हुए वे अपने बिछड़े हुए मायके के गीत गाया करतीं...ये गीत राजकुमारी तक हवा में उड़ कर पहुँच जाते...अगली भोर नदी में बाढ़ आ जाती और धान के खेत घुटने भर पानी में डूब जाते...अब धान के बिचड़ों को उखाड़ कर उनकी बुवाई शुरू हो जाती. 

छोटे बच्चों को मालूम नहीं होता कि माएं जो तावीज बांधती हैं उनमें उनकी सच्ची दुआएं शामिल होती हैं...जब वे तावीज को कोटर में रखते तो वे कुछ भी महसूस नहीं कर पाते...अगर वैसे में जादूगरनी उन्हें मार कर उनका दिल निकालती तो उन्हें दर्द नहीं होता...ये एक बहुत पुराने पीर का आशीर्वाद था. लेकिन वहां कोई जादूगरनी थी नहीं...जैसा कि समझदार लोग जानते हैं. बिना तावीज के उन्हें कुछ महसूस नहीं होता. वे देख नहीं पाते कि कहीं कोई जादूगरनी नहीं है...वे देख नहीं पाते कि राजकुमारी का दिल किस कदर टुकड़ों में है. उनमें से कोई राजकुमारी को अपने साथ खेलने के लिए भी नहीं बुलाता. वे बस दूर से देखते थे...उसके हवा में सूखते सतरंगी दुपट्टे को छू आने का साहस करते लेकिन पास नहीं जाते.

उस गाँव की लड़कियों की घर से बाहर निकलने की मनाही हो जाती...शादी के बाद और गौणा के पहले जो लड़कियां गाँव में रहतीं उन्हें दिखता था कि कहीं कोई जादूगरनी नहीं है. वे जब सावन में झूले की पींगें बढ़ातीं तो अक्सर रोते रोते उनकी हिचकियाँ बंध जातीं...वे फिर राजकुमारी के लिए दुआएं गातीं...गोरी..ओ री...कहाँ तेरा राजकुमार...गोरी रो री...चल नदिया के पार...बस कर दे बरसात ओ सावन कितना रोवे नैना...खोल दे रास्ता मन भागे हैं कहीं न पाए चैना...और भी कुछ ऐसा ही जिसका न ओर था न छोर था. कच्ची उमर की लड़कियां थीं, उसके दर्द में रोतीं थीं...जैसे जैसे उनके बाल पकते, कलेजा भी पत्थर होते जाता...फिर उन्हें न राजकुमारी की चिंता होती न उसके टूटे दिल की...वे अपने बेटों को दुष्ट जादूगरनी के किस्से सुनाने लगतीं, उनके गले में काला तावीज बाँधने लगतीं.

हर दुष्ट जादूगरनी की कहानी के पीछे ऐसी कोई कहानी होती है जो कोई नहीं सुनाता...भटकते भूतों का दर्द कौन सुनता है बैठ कर...जिसे मर कर भी चैन नहीं उससे ज्यादा उदास और कौन होगा...एक उदासी का फूल होता है...सदाबहार...जिस मन के बाग में वो खिलता है वहाँ सालों भर बरसातें होती हैं. किसी शहर में सालों भर बरसातें होती हों तो वहां खोजना...उदासी का फूल...उसका रंग सलेटी होता है, बहे हुए काजल जैसी रेखाएं होती हैं...उसे तोड़ते हुए ख्याल रखना...उसकी खुशबू उँगलियों में हमेशा के लिए रह जाती है. 

30 November, 2012

धानी ओ धानी, तेरी चूनर का रंग कौन?

बचपन में पढ़ी हुयी बात थी 'तिरिया चरित्तर'...नारी के मन की बात ब्रम्हा भी नहीं जानते...वो बहुत छोटी थी...उसे लगता था कोई नारी नाम की औरत होती होगी...कोई तिरिया नाम की चिड़िया होती होगी...जैसे नीलकंठ होता है...एक पक्षी जिसे साल के किसी समय देखना शुभ माना जाता है. गाँव में  बहुत दूर दूर तक फैले खेत थे. साल में कई बार गाँव जाने पर भी गाँव के बच्चों के साथ किसी खेल में उसका मन नहीं लगता था. तिलसकरात के समय उसे नीलकंठ हमेशा दिखता. गाँव के शिवाले से जाते बिजली के तार पर बैठा हुआ. बचपन की ये बात उसे सबसे साफ़ और अपने पूरे रंगों में याद है.

हरे खेतों के बीच से खम्बों की एक सीधी कतार दिखती थी. पुरानी लकड़ी के बने हुए खम्भे...उनसे कैसी तो दोस्ती लगती थी. दिन अमरुद के पेड़ पर कटता था...कच्चे अमरुद कुतरते हुए भी उसे ध्यान रहता कि कुछ हिस्सा भी बर्बाद न हो...पेड़ के नीचे फिंके हुए अमरुद देख कर उसे बहुत रुलाई आती कि साल में गिनती के अमरुद लगते थे उस पेड़ पर. 

शाम को लालटेन की रौशनी में उसके साथ के सारे भाई बहन चिल्ला चिल्ला के पहाड़े पढ़ते...उसे बहुत हंसी आती. उसका पढ़ने में कुछ ख़ास दिल नहीं लगता. क्लास में पढ़ती थी और फिर एक्जाम के पहले पढ़ लेती...इतने में उसके नंबर सबसे अच्छे आते थे. उसे किताबों में सर घुसाने से अच्छा भंसा में बैठना लगता था. वहां लालटेन नहीं होती थी...ढिबरी होती थी, जिसमें घूंघट काढ़े चाची शाम का खाना बना रही होती. वो पीढ़ी पर बैठ कर आगे पीछे झूलती रहती...सोचती रहती कि चाची को लालटेन की जरूरत है और बच्चों को सो जाने की. कच्ची मिटटी के बने चूल्हे में कभी कभी चाची उसके लिए आलू डाल देती. उसे भुने आलू बहुत पसंद थे. बचपन से बड़ी हो गयी लेकिन उसे कभी समझ नहीं आया कि चाची से क्या बात करे. कैसे कहे कि ढिबरी की रौशनी में घूंघट काढ़े चाची का चेहरा कितना सुन्दर लगता है. 

कोलेज जाने के बाद गाँव आई तो पहली बार चाची के चेहरे की झुर्रियों पर ध्यान गया...चाची फिर भी उसे खाने का कुछ छूने नहीं देती थी...कि कभी कभार तो गाँव आती हो...हम लोग शबासिन से खाना नहीं बनवाते हैं. घर में सब लोग उसके साथ अलग बर्ताव करते...वो सबकी बहुत दुलारी थी...लेकिन कभी कभी इसके कारण उसे सबसे अलग भी महसूस होता था. इस बार गाँव आई तो चाची को दूसरी नज़र से देख रही थी...उनका दिन भर चुप चुप रहना...मुस्कुराते हुए सबके लिए खाना बनाना...कुएं से पानी भरना...अचरज लगता था. उसका चाची की कहानियां सुनने का मन करता था. कभी तो चाची बिना घूंघट के रहती होंगी...स्कूल जाती होंगी...बाकी लड़कियों के साथ हंसती बोलती होंगी. पहली बार उसका ध्यान गया कि उसको चाची का नाम भी नहीं पता है. उसका दिल किया कि पूछे...फिर लगा कि चाची को उनका नाम याद भी होगा?
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बरसते नवम्बर का मौसम है...कमरे में लगे कोयले के तंदूर पर लड़की ने कुछ साबुत आलू रखे हैं...टेबल पर विस्की का ग्लास रखा है...बर्फ लगभग पिघल गयी है. आरामकुर्सी पर बैठे हुए उसने पाँव बालकनी की रेलिंग पर टिका दिए हैं. घर में शोपें का नोक्टर्न ७ बज रहा है. बारिश की गंध, आलू के छिलकों का हल्का जला हुआ टेक्सचर संगीत में घुल गया है उसे थोड़ा नशा हो रखा है...उसे जिंदगी के सारे नवम्बर याद आ रहे हैं...सिलसिला बहुत साल पुराना है. 

याद के पहले नवम्बर वो सोलह साल की थी...उसकी दीदी को देखने लोग आये हुए थे...चाची के पकोड़ों के साथ चटनी बनाने के लिए पुदीने के पत्ते लाने को कहा था...वो ख़ुशी में दौड़ी जा रही थी कि अचानक किसी से टकरा गयी...बाल्टी और रस्सी के गिरने की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि शायद पूरे गाँव ने सुन ली थी...और फिर काँधे पर भिगोये निचोड़े गए कपड़े भी तो गिर गए थे. नवम्बर की धूप बहुत नर्म थी...वो कुएं पर बाल्टी बाल्टी पानी भर कर देता जा रहा था और वो कपड़े झपला रही थी...नाम क्या था लड़के का...याद नहीं...हाँ उस धूप में उसका कुएं की मुंडेर पर खड़े होकर पानी खींचने का सीक्वेंस बंद आँखों से देख सकती थी...उसका रंग सांवला था पर कैसे सोने जैसा दमकता था...एक पल तो वो अपलक ताकती ही रह गयी थी...इतना सुन्दर भी कोई होता है!

याद के दूसरे नवम्बर वो एक चौड़ी सड़क पार करने के लिए खड़ी थी...इतनी गाड़ियाँ थीं और वो ख्याल में ऐसी खोयी कि जाने कितनी देर हो गयी थी...तभी अचानक से किसी ने उसकी कलाई पकड़ी थी और एक झटके में अपने साथ दौड़ाते हुए सड़क के दूसरी ओर ले आया था. 'वहां खड़े खड़े तुम्हारी उम्र एक साल तो बढ़ ही गयी होगी, कौन से गाँव से आई हो?' और वो एक अनजान लड़के को अपने गाँव का नाम अपने नाम के पहले बता चुकी थी. वो साथ चलते तो रास्ते बिछते जाते, दोनों बहुत तेज़ चला करते थे. उन्हें समय को पीछे छोड़ देने की जल्दी थी. रिश्तों के सारे हाइवे उन्होंने गिन लिए. फिर एक दिन अचानक ही उनकी दिशायें एक दूसरे से उलट हो गयीं. कोई सड़क क्या दिल पर ख़त्म होती है?

याद के तीसरे नवम्बर उसका जन्मदिन था. वो अपने लिए एक प्लैटिनम अंगूठी खरीद रही थी. हमेशा से अकेले शोपिंग करने की आदत के कारण उसका बड़बड़ाना जारी था...'तो मैडम, आज आपका बर्थडे है?' उसकी आँखों का रंग ऐसा क्यूँ है...ये सोचते हुए लड़की ने जब हाँ कहा था तो उसे कहाँ मालूम था कि नवम्बर फिर उसे अपने आगोश में लेने को बेसब्र है...उसने बिल देने ही नहीं दिया...वो एक ज्वेलरी डिजाइनर था और ये शॉप उसने बेहद शौक से ख़ास कद्रदानों के लिए खोली थी. अंगूठी तो मैं तुम्हें दूंगा, लेकिन ये वाली नहीं...और फिर उसकी अपनी जिद से वो लड़की की जिंदगी बनता गया था. लड़की भूल गयी कि साल में कितने नवम्बर आते हैं...लेकिन जिंदगी नहीं भूली कि लड़की की जिंदगी में कितने नवम्बर गिन के रखे हैं. वे बेहद समझदार लोग थे...बहुत प्यार से अलग हुए...लड़की आज भी उस अंगूठी को गले की चेन में पहनती है. 

फिर लड़की ने साल से नवम्बर का पन्ना फाड़ के फ़ेंक दिया...हर साल एक नवम्बर का पन्ना उसकी बालकनी से नीचे घूमता हुआ निकल जाता...हर पन्ना एक चीड़ का पेड़ बन जाता और उसके घर साल भर बरसातें होतीं. कुदरत ने सारे पन्नों का हिसाब लगा रखा था. उसकी जिंदगी में एक ऐसा साल आया जिसका हर महीना नवम्बर था...बारह सालों के बारह नवम्बर बरस रहे थे. इश्क के कितने रंग...कितनी खुशबुयें और कितना दर्द. लेकिन लड़की जानती थी कि उसका और नवम्बर का रिश्ता पुराना है...इसलिए दस नवम्बर बीतने के बाद जब ग्यारवाँ आया तो उसे लगा कि शायद वो इस नवम्बर को जज़्ब कर ले तो अगले महीने दिसंबर आ जाएगा. आज नवम्बर की तीस तारीख है. 

उसने डायरी लिखी...३० नवम्बर, २०१२...साल का लेखा जोखा...मौसमों के किस्से...बचपन की कहानियां...भाई की चिट्ठियां...पापा के भेजे चेक जो उसने कभी कैश नहीं कराये...पी गयी विस्कियों की किस्में...बांयें कंधे पर उकेरे गए टैटू वाली कविता...नीली चीनीमिट्टी के देश से आया कोई पोस्टकार्ड...सूखे फूल...चोकलेट के रैपर. 

इस सबके आखिर में उसने लिखना चाहा अपना नाम...
लेकिन उसका नाम क्या था?
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लव पैरालल्स ऑन ए ट्रैम्पोलीन

कल की शूट पर एक ट्रैम्पोलीन का इन्तेजाम था...एक वृताकार स्टील का फ्रेम होता है जिसपर एक बेहद हाई-टेंशन झेल सकने वाला ख़ास तरह का कपड़ा बंधा होता है. दोपहर को ट्रैम्पोलीन सेट अप हुआ...अब लोगों को बताना था की भैय्या आपको इस चीज़ पर कूदना है...और हम चूँकि ऐसा कोई काम लोगों को करने नहीं बोलते जो हमने खुद पहले कभी नहीं किया हो तो तुर्रम खान बनके पहले खुद चढ़ लिए ट्रैम्पोलीन  पर. इंस्टिंक्ट है कि जब पैर जमीन से हटते हैं तो इंसान को डर लगता है...चाहे हवा में उड़ना हो चाहे पानी में तैरना हो. ट्रैम्पोलीन जम्प करने का तरीका ये है कि दोनों पंजों को एक साथ रखें और बीच में जम्प करें...छोटे छोटे जम्प लेने से, जैसा कि वेव में होता है या झूले की पींगों में...एम्पलीट्यूड बढ़ता जाता है.

तो कूदना तो बहुत आसान था...फिर डायरेक्टर ने कहा...हाँ अब...लुक एट द कैमरा...एंड स्माइल...तो एक तो पहली बार जम्प करते हुए दिशा पता नहीं चलती है...आसमान में ऊपर जा तो रहे हैं मगर किधर...उसपर नीचे गिरेंगे किधर वो पता नहीं है...उसके ऊपर लुक एट द कैमरा...बाबा रे! और उसपर स्माइल...हे भगवान! मुस्कुराना कभी इतना मुश्किल नहीं लगा था. पहली बार थोड़ा समझ में आया कि जब हम किसी चीज़ पर ध्यान केन्द्रित कर रहे होते हैं तो चेहरे पर एकाग्रता का भाव होता है...उसमें मुस्कुराना एक काम होता है...पार्ट ऑफ़ दा प्रोसेस. नारद जी कैसे एक लोटा दूध त्रिलोक में लेकर घूमते हुए नारायण नारायण जपना भूल गए थे...बेचारे नारद जी  का सारा ध्यान दूध को गिरने से बचाने में लगा था.

खैर...पहली बार के हिसाब से बहुत ही लाजवाब काम किये हम. दूसरी बार जब ट्रैम्पोलीन सेट हुआ तो हम तैयार होकर एकदम ड्यूड बन गए थे. हमारे साथ एक बन्दा था जो हवा में कूदते हुए पलटी मार सकता था...हमने ऐसी कलाबाजी पहले तो नहीं देखी थी. जब वो नीचे उतरा तो पहला वाक्य यही आया...यु डोंट हैव फीयर इन योर हार्ट...तुम्हारे दिल में डर नहीं है. (अनुवाद अपने खुद के लिए चिपकाया है :O वो क्या है कि कुछ वाक्य अंग्रेजी में ज्यादा अच्छे लगते हैं...और बोला भी अंग्रेजी में ही था...तो इमानदारी बरतते हुए). ट्रैम्पोलीन पर कूदना अच्छा ख़ासा थका देने वाला अनुभव होता है...सांसें तेज़ चलने लगती हैं...पसीने छूट जाते हैं.

सही तरीके से जम्प करने के लिए कुछ छोटे छोटे जम्प लेने चाहिए फिर धीरे धीरे जैसे झूले की पींगें बढ़ती हैं वैसे ही जब हवा में कुछ ज्यादा ऊंचे जा रहे हैं तब आप अपने पोज मार सकते हैं...जैसे कि हवा में दोनों पैर पूरे ऊपर मोड़ना या फिर हाथों से भरतनाट्यम की मुद्रा बनाना इत्यादि...ये सब करते हुए जरूरी है कि आप कैमरा की ओर देखें और मुस्कुराएं जरूर...तब जाके एक अच्छा शॉट आता है. कल बड़ी अच्छी धूप थी बैंगलोर में और जमीन तपी हुयी थी...उसपर कुछ देर नंगे पाँव खड़े रहे...दौड़ते भागते रहे.
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नवम्बर सनलाईट. तुम. उफ़.
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मुझे सफ़र करते हुए और काम करते हुए बहुत भूख लगती है...तो मैं खाने पीने का पूरा इंतज़ाम करके चलती हूँ...चोकलेट...बिस्किट...जूस...कुछ स्नैक्स...और जाने कैसे मैंने कभी लोगों को खाने के बारे में थोड़ा सा ध्यान रखते या प्लानिंग करते नहीं देखा है. खैर...सबको मेरी तरह भूख लगती भी नहीं होगी. तो कल भी मैंने राशन पानी का इन्तेजाम कर रखा था...लेकिन मुझे ठीक मालूम नहीं था कि क्रू में लोग कितने होंगे...तो तीन बजते मेरा राशन ख़तम और मेरी भूख शुरू. तो फिर लगभग पांच बजे कैंटीन जा के कुछ कूकीज ले कर आई...किसी ने बताया था कि बिस्किट वो होते हैं जो मशीन से बनते हैं और कुकी वो होती है जो हाथ से बनती है...खैर...मुझे बहुत से लोग बहुत सा भाषण देते हैं. तो कल फिर बेचारे भूखे प्यासे लोग काफी खुश हुए...जोर्ज ने बोला...अब से पूजा को हर शूट पर ले जायेंगे (actually he said...now onwards Puja is a part of every shoot) जब आपको भूख लगी होती है तो आप अच्छी तरह से परफोर्म नहीं कर पाते हैं क्यूंकि दिमाग का एक हिस्सा हमेशा ये सोचता रहता है 'भूख लगी है'. वैसे तो ऐसे भी लोग होते हैं जो खाना पीना छोड़ कर काम करते हैं. पर मैं वैसी हूँ नहीं. मैं वैसे काम करने के पहले इन्तेजाम करके चलती हूँ.
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तुम मेरी याद  में उग आते हो.
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ट्रैम्पोलीन जम्प...प्यार के जैसे...हवा में उड़ रहे होते हैं...ऊपर जाते हुए मालूम नहीं होता कितना ऊपर जायेंगे...नीचे आते हुए मालूम नहीं होता कैसे गिरेंगे...मुंह के बल...एकदम फ़्लैट...पीठ के बल...या फिर पैरों पर तमीज से लैंड करेंगे. जरूरी ये सब होता भी नहीं है न...जरूरी होता है कि जब हम हवा में हो...उस फ्रैक्शन ऑफ़ सेकण्ड में...एक अच्छा पोज होल्ड कर सकें...जब हम प्यार में हों...उस लम्हे भर...जी सकें...मुस्कुरा सकें...बिना ये सोचे हुए कि आगे क्या होने वाला है. जरूरी है कि थोड़े बहादुर हों...कुछ गलतियाँ कर सकें...गिरने के डर से ऊपर उठ सकें...बिना ये सोचे हुए कि आसपास के लोग देख कर हंस रहे हैं...हम पर हंस रहे हैं...बेखबर दोनों हाथों को पूरा फैलाए हुए आसमान को बांहों में भर सकें...तो क्या हुआ अगर हम नीचे एकदम फ़्लैट-आउट होते हैं. प्यार हमें थोड़ा बेवक़ूफ़ होने की इजाजत देता है...कभी कभी मुझे लगता है कि हमें प्यार होता ही इसलिए है कि हम डर से निकल सकें...उसके सामने कुछ भी कह सकें...बिना ये सोचे हुए कि वो मुझे एकदम ही पागल समझेगा...इत्यादि.
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तुम मुझे बहुत रुलाते हो
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प्यार ये तो नहीं होता कि सिर्फ उस लम्हे आपसे प्यार होगा...प्यार तब भी होगा जब आप गिरेंगे...चोट आई होगी...तब उठाने समझाने प्यार ही तो आता है. प्यार ये कि कह सकें...जो दिल करे...कर सकें दुनिया भर का झगड़ा...हो सकें वो जो होने में डरते हैं. प्यार में डर नहीं होता. बेवकूफी में भी डर नहीं होता. तो अगर A=B and B=C, तो A=C तो माने...प्यार यानी बेवकूफी?

ये हर इक्वेशन में प्यार कमबख्त कहाँ से एंट्री मार जाता है...सोच रही हूँ प्यार वाले पैराग्रफ्स को डिलीट मार दें...लेकिन फिर जाने दो...इतना एडिटिंग करने का सरदर्द कौन ले. दो दिन से इनफाईनाईट काम है...दिन भर दौड़...भाग...उसपर ये सैटरडे वर्किंग. उफ़...वर्ल्ड इज नोट फेयर. हम सोच रहे हैं...कि इतना सोचना कोई अच्छी बात नहीं है...अपनी फिल्म लिखते हैं...सारे टाइम दिमाग में कोई और फिल्म चलती रही...कुछ लोग, थोड़ी लाइटिंग...थोड़ा म्यूजिक... ओ तेरे की! ये तो पैरलल सिनेमा हो गया!!

दो दिन में इतने लोगों से मिली कि सर घूम रहा है...कितने लोगों से बात की...कितनों को मस्का लगाया कितनों को बुद्धू बनाया...बहला के फुसला के पुचकार के रिकोर्डिंग के लिए तैयार किया...गज़ब किया! अपनी पीठ ठोके दे रहे हैं. मैं कहाँ डेस्क जॉब में फंसी हूँ...मुझे ऐसे ही काम में मज़ा आता है...किसी रिकोर्डिंग स्टूडियो में होना चाहिए. रुको...एक आध फिल्म बनाते हैं फिर...जैसे कल जोर्ज नेहा के बारे में बोला...कि अब वो किसी भी रिकोर्डिंग स्टूडियो में जाने के लिए रेडी है. वापसी की लॉन्ग ड्राइव थी...अकेले...पसंदीदा म्यूजिक के साथ...बहुत सारा कुछ सोचने का वक़्त मिल गया.
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मैं ये सब क्यूँ लिख रही हूँ...रिकोर्ड के लिए...कल को खुद ही सेंटी होकर सोचते हैं कि खाली डार्क लिखते हैं...तो आज थोड़ी धूप सही. सुबह हुयी...सात-साढ़े सात टाईप...धूप में खड़े हैं...चेहरा गर्म हो रहा है. सोच रहे हैं. जिंदगी बड़ी खूबसूरत है. 

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