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भोर का पहला पहर था...रात की जरा भी नहीं उतरी थी...चाँद आसमान से गायब था...सूरज उगना बाकी था...कह सकते हैं कि शहर का सबसे शांत वक्त था. ऐसे में एक लड़की बालकनी में खड़ी सिसक रही भी होती तो न कोई सुनने वाला था न कोई देखने वाला. हाँ अगली या ऐसे किसी बाद की सुबह जब अखबार में गाड़ी के एक्सीडेंट की खबर आती तो मोहल्ले में शायद थोड़ी हलचल जरूर होती कि उसकी मुस्कुराहटें सूरज की धूप की तरह थीं...उसके बालकनी में उगती थीं मगर रोशन कितने दिलों का कोना करती थी.
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ये क्या पत्थर उठा लायी हो, तुम्हें भी ना...मजदूरों वाला काम करने में मन लगता है...लड़का उसकी लायी छेनी, हथोड़ी और बाकी टूल्स देखते हुए हँसा था उसपर. लड़की पर पत्थर को मूरत कर देने का जुनून सवार था. दिन रात एक किये हुए थी...पड़ोसी परेशान हो गए कि सुबह, शाम, रात, भोर...किसी भी पहर हथोड़ी की महीन ठक-ठक रूकती नहीं थी. लड़की को जाने क्या तराशना था...जाने किस छटपटाहट को मूर्त रूप देना था. पत्थर पर काम करना उसे सुकून देता. उसे अपनी सारी उर्जा कहीं प्रवाहित होती महसूस होती. उसे नृत्य करते हुए शिव की मूरत बनानी थी. पत्थर की विशालता इंटिमिडेटिंग थी...घर के मुख्य हॉल के बीचोबीच वो प्रतिमा उसके अथक प्रयासों से उभरती आ रही थी. उस छः बाय आठ के पत्थर को हॉल में पहुंचाना भी एक बेहद मुश्किल का काम था जिसके लिए उसे अपने सारे तर्क कुतर्क लगा देने पड़े थे.
संगतराश. शब्द में ही मर्दानापन था...जितनी भी कल्पना उभरती थी, कभी भी किसी औरत के हाथ में छेनी हथोड़ी सही नहीं लगती थी...उसके हाथ में कलम, कॉपी, पेंट ब्रश और बहुत हुआ तो कलछी बेलन दिख भी जायें पर डायमंड कटर जैसी तेज और खतरनाक चीज़ उसके नाज़ुक हाथों में एकदम आउट ऑफ प्लेस ही लगती थी मगर मजाल है जो एक इंच भी इधर से उधर हो जाए. मूरत को आकार देते हुए बहुत वक्त हो गया था...लड़का अब भी कभी कभार उससे मिलने चला आता था...हर बार चकित होने के लिए कि उसने अभी तक उस पत्थर पर काम करना नहीं छोड़ा है. एक दिन ऐसे ही अचानक के उसके आने से लड़की का ध्यान बंटा और मूरत की नाज़ुक छोटी ऊँगली कटर के आकस्मिक आघात से टूट कर गिर गयी.
उस छोटी घटना के बहुत दिन बाद तक काम चलता रहा...आखिरकार एक वो दिन भी आ गया जब पत्थर का वो विशाल टुकड़ा जीवंत हो उठा. लड़की प्रलय को उसकी आखिरी रेखा तक ईमानदारी से पत्थर में अमूर्त कर चुकी थी. उसका मन फिर उद्विग्न होने लगा...उसकी तलाश कहीं खत्म नहीं होती. उसे पत्थर में जीवन नहीं महसूस होता...फिर उसे लगा कि उसने प्राण प्रतिष्ठा तो की ही नहीं है...इसलिए शिव का चेहरा निष्प्राण था...मंत्रोच्चारण के लिए उसने अंजुली में जल भरा ही था कि उसका ध्यान रूद्र तांडव करते शिव के बाएं हाथ की ओर गया जहाँ छोटी अंगुली नहीं थी. गाँव के किसी पंचायत में सुनाये अंतिम फैसले सा कुछ याद में कौंध गया...खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं होती.
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उद्दाम. उन्मुक्त. किनारों पर सर पटकता समंदर. अजीब आत्मतुष्टि से भर देता है. कोई प्रणय याचना कर रहा हो पांवों में गिर कर जैसे. लड़की ने घुटनों तक की स्कर्ट पहनी थी और एक शोट में साढ़े तीन सौ किलोमीटर गाड़ी चला कर समंदर किनारे पहुंची थी. पागलपन या नशा जो कह लो. उसने ड्राइव की नहीं थी...समंदर उसे खींच लाया था...पांवों में दिल रख देना क्षणिक था...उसके बाद तो लहरों ने उसके पुर्जे पुर्जे खोल डाले...समंदर ने उसे बांहों में भर भर तोड़ा...लड़की स्विमिंग चैम्पियन थी और समंदर में तैरना आसान भी होता है...कुछ वैसे ही कि जैसे दूसरी बार प्यार हो तो पहले प्यार में रो चुके आंसुओं से ऐसा समंदर बना होता है कि दुबारा दिल टूटने पर भी तैर कर निकलना उतना मुश्किल नहीं होता.
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लड़की में कुछ तो था. खास. कि उसे कितना भी तोड़ दो...उसके कण कण से पारिजात की खुशबू आती थी. कि उसके पांवों के निशान में खुदा का सिग्नेचर दिखता था...कि उसकी उँगलियों के पोरों में बिरवे फूटते थे...कि उसकी आँखों की रौशनी में दुआएँ पनाह पाती थीं...कि उसके जैसी बस वो एक ही थी. बस एक.