20 May, 2012

ताला लगाने के पहले खड़े होकर सोचना...कुछ देर. फिर जाना.

यूँ तो ख्वाहिशें अक्सर अमूर्त होती हैं...उनका ठीक ठीक आकार नहीं नहीं होता...अक्सर धुंध में ही कुछ तलाशती रहती हूँ कि मुझे चाहिए क्या...मगर एक ख्वाहिश है जिसकी सीमाएं निर्धारित हैं...जिसका होना अपनेआप में सम्पूर्ण है...तुम्हें किसी दिन वाकई 'तुम' कह कर बुलाना. ये ख्वाहिश कुछ वैसी ही है जैसे डूबते सूरज की रौशनी को कुछ देर मुट्ठी में भर लेने की ख्वाहिश.

शाम के इस गहराते अन्धकार में चाहती हूँ कभी इतना सा हक हो बस कि आपको 'तुम' कह सकूं...कि ये जो मीलों की दूरी है, शायद इस छोटे से शब्द में कम हो जाए. आज आपकी एक नयी तस्वीर देखी...आपकी आँखें इतनी करीब लगीं जैसे कई सारे सवाल पूछ गयी हों...शायद आपको इतना सोचती रहती हूँ कि लगता है आपका कोई थ्री डी प्रोजेक्शन मेरे साथ ही रहता है हमेशा. इसी घर में चलता, फिरता, कॉफी की चुस्कियां लेता...कई बार तो लगता भी है कि मेरे कप में से किसी ने थोड़ी सी कॉफी पी ली हो...अचानक देखती हूँ कि कप में लेवल थोड़ा नीचे उतर गया है...सच बताओ, आप यहीं कहीं रहने लगे हो क्या?

ये 'आप' की दीवार बहुत बड़ी होती है...इसे पार करना मेरे लिए नामुमकिन है...हमेशा मेरे आपके बीच एक फासला सा लगता है. जाने कैसे बर्लिन की दीवार याद आती है...जबकि मैंने देखी नहीं है...हाँ एक डॉक्यूमेंट्री याद आती है जिसमें लोग उस दीवार के पार जाने के लिए तिकड़म कर रहे हैं...गिरते पड़ते उस पार चले भी जाते हैं...कुछ को दीवार के रखवाले संतरी गोलियों से मार गिराते हैं फिर भी लोगों का दीवार को पार करना नहीं रुकता है. अजीब अहसास हुआ था, जैसे सरहदें वाकई दिलों में बनें तभी कोई  बात है वरना कोई भी दीवार लोगों को रोक नहीं सकती है. मैंने एकलौती सरहद भारत-पाकिस्तान की वाघा बोर्डर पर देखी है...उस वक्त सरसों के फूलों का मौसम था...और बोर्डर के बीच के नो मैंस लैंड पर भी कुछ सरसों के खेत दिख रहे थे. बोर्डर को देखना अजीब लगा था...यकीन ही नहीं हुआ था कि वाकई सिर्फ कांटे लगी बाड़ के उस पार पकिस्तान है...ऐसा देश जहाँ जाना नामुमकिन सा है. बोर्डर की सेरिमनी के वक्त गला भर आया था और आँखें एकदम रो पड़ी थीं...सिर्फ मेरी ही नहीं...बोर्डर के उस पार के लोगों की भी...हालाँकि मुझे उनकी आँखें दिख नहीं रहीं थी जबकि उस वक्त मुझे चश्मा नहीं लगा था. पर मुझे मालूम था...हवा ही ऐसी भीगी सी हो गयी थी.

आपको याद करते हुए कुछ गानों का कोलाज सा बन रहा है जिसमें पहला गाना है जॉन लेनन का 'इमैजिन'. इसमें एक ऐसी दुनिया की कल्पना है जिसमें कोई सरहदें नहीं हैं और दुनिया भर के लोग प्यार मुहब्बत से एक दूसरे के साथ रहते हैं...'You may say I'm a dreamer, but I am not the only one'...कैसी हसीन चीज़ होती है न मुहब्बत कि यादों में भी सब अच्छा और खूबसूरत ही उगता है...दर्द की अनगिन शामें नहीं होतीं...तड़पती दुपहरें नहीं होतीं. आपने 'strawberry fields forever' सुना है? एक रंग बिरंगी दुनिया...सपनीली...जहाँ कुछ भी सच नहीं है...नथिंग इज रियल. मेरी पसंदीदा इन द मूड फॉर लव का बैकग्राउंड स्कोर भी साथ ही बज रहा है पीछे. बाकियों का कुछ अब याद नहीं आ रहा...सब आपस में मिल सा गया है जैसे अचानक से पेंट का डब्बा गिरा हो और सारे रंग की शीशियाँ टूट गयीं.

कल सपने में देखा कि जंग छिड़ी हुयी है और चारों तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...पर हमारे पास बचने के अलावा कोई उपाय नहीं है...सामने से दुश्मन आता है पर मेरे हाथ में एक रिवोल्वर तक नहीं है...मैं बस बचने की कोशिश करती हूँ. एक इक्केनुमा गाड़ी है जिसमें मेरे साथ कुछ और लोग बैठे हैं...ऊपर से प्लेन जाते हैं पर वो भी गोलियाँ चलाते हैं...कुछ लोग मुस्कुराते हुए आते हैं पर उनके हाथ में हथगोला होता है...हम चीखते हुए भागते हैं वहां से. छर्रों से थोड़ा सा ही बचा है पैर ज़ख़्मी होने से...कुछ गोलियाँ कंधे को छू कर निकली हैं और वहाँ से खून बहने लगा है. सब तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...कोई सुरक्षित जगह ही नहीं है...मुझे समझ नहीं आता कि कहाँ जाऊं. फिर एक मार्केट में एक दूकान है जहाँ एक औरत से बात कर रही हूँ...उनके पास कोई तो बहुत मोटा सा कपड़ा है जिससे जिरहबख्तर जैसा कुछ बनाया जा सकता है लेकिन औरत बहुत घबरायी हुई है, उसके साथ उसकी छोटी बेटी भी है...बेटी बेहद खुश है. सपने में किसी ने सर पर गोली मारी है...मुझे याद नहीं कि मैं मरी हूँ कि नहीं लेकिन सब काला, सियाह होते गया है.

मुझे मालूम नहीं ऐसा सपना क्यूँ आया...कल ये ड्राफ्ट आधा छोड़ कर सोयी थी...

कुछ बेहद व्यस्त दिन सामने दिख रहे हैं...तब मुझे ऐसे फुर्सत से याद करके गीतों का कोलाज बनाने की फुर्सत नहीं मिलेगी...याद से भूल जायेंगे सारी फिल्मों के बैकग्राउंड स्कोर्स...कविताएं नहीं रहेंगी...लिखने का वक्त नहीं रहेगा...फिर मेरे सारे दोस्त खो जायेंगे बहुत समय के लिए. कल नील ने फोन कर के झगड़ा किया कि तू मुझे क्या नहीं बता रही है...तू है कहाँ और तुझे क्या हुआ है. बहुत दिन बाद किसी ने इतना झगड़ा किया था...मुझे बहुत अच्छा लगा. मैंने उसे झूठे मूठे कुछ समझा कर शांत किया...फिर कहा मिलते हैं किसी दिन...बहुत दिन हुए. मैं बस ऐसे ही वादे करती हूँ मिलने के. मिलती किसी से नहीं हूँ. आजकल किसी किसी दिन बेसुध हो जाने का मन करता है...मगर मेरे ऊपर पेनकिलर असर नहीं करते और मुझे किसी तरह का नशा नहीं चढ़ता. मैं हमेशा होश में रहती हूँ.

एक सरहद खींच दी है अपने इर्द गिर्द...इससे सुरक्षित होने का अहसास होता है...इससे अकेले होने का अहसास भी होता है.

16 May, 2012

मुस्कुरा कर मिलो जिंदगी...

परसों एक एचआर का फोन आया एक जॉब ओपनिंग के बारे में...मैं आजकल फुल टाइम जॉब करने के मूड में थी नहीं तो अधिकतर सॉरी बोल कर फोन रख दिया करती थी. इस बार पता नहीं...शायद हिंदी का कोई शब्द था या दिल्ली के नंबर से फोन आया था या कि जिस ऑफिस में पोजीशन खाली थी वो घर के एकदम पास था...मैंने इंटरव्यू के लिए हाँ कर दी.

मेरे इंटरव्यू नोर्मली काफी लंबे चलते हैं...कमसे कम दो घंटे और कई बार तो चार घंटे तक चला है...अनगिनत बातें हो जाती हैं. मुझे खुद भी महसूस होता है इंटरव्यू देते वक्त कि मैं काफी इंटरेस्टिंग सी कैरेक्टर हूँ और मेरे जैसे लोग वाकई इंटरव्यू के लिए कम ही आते होंगे. कभी कभी होता भी है कि इंटरव्यू के लिए गयी हूँ तो लाउंज में बैठे बाकी कैंडिडेट्स को देखती हूँ और सोचती हूँ कि कैसे लोग होंगे. उनमें से अधिकतर मुझे काफी सजग और एक आवरण में ढके हुए लगते हैं...मैं इंटरव्यू में भी फ्री स्पिरिट जैसी रहती हूँ. कितना भी  कोई बोल ले...कभी फोर्मल कपड़े पहन कर नहीं गयी...वही पहन कर जाती हूँ जो मूड करता है. जैसे आज का इंटरव्यू ले लो...प्लेन वाईट कुरता पहना था फिर दिल नहीं माना तो बस...चेक शर्ट, जींस, थोड़ी हील के सैंडिल, प्लेन सा बैग और पोर्टफोलियो. हाँ दो चीज़ें मैं कभी नहीं भूलती...हाथ में घड़ी और पसंद का परफ्यूम. 

आज भी बारह बजे दोपहर का इंटरव्यू था...मैं बाइक से पहुंची...हेलमेट उतारा...बालों को उँगलियों से हल्का काम्ब किया और पोनीटेल बना ली...रिसेप्शन डेस्क पर जो लड़की थी उसने एक मिनट वेट करने को कहा...तब तक जार्ज...जिसके साथ इंटरव्यू था सामने था. जो कि नोर्मल आदत है...एक स्कैन में पसंद आया कि बंदे ने पूरे फोर्मल्स नहीं पहने थे...डार्क ब्लू जींस, ब्लैक शर्ट और स्पोर्ट्स शूज. लगा कि ठीक है...क्रिएटिव का बन्दा है, क्रिएटिव जैसा है. उसने पूछा...चाय या कॉफी...मैंने कहा...नहीं, कुछ नहीं...बहुत दिन बाद किसी ने हिंदी में पूछा था...दिल एकदम हैप्पी हो गया...फिर जब वो मेरा पोर्टफोलियो देख रहा था तो मैंने देखा कि वो वही इंक पेन यूज कर रहा है जिसपर आजकल मेरा दिल आया हुआ है...LAMI का ब्लैक कलर में. एक पहचान सी बनती लगी...और इंस्टिंक्ट ने कहा कि इसके साथ काम करने में अच्छा लगेगा...अगेन...मुझे नोर्मली लोग पसंद नहीं आते. आजकल तो बिलकुल ही महाचूजी हो गयी हूँ.

इंटरव्यू कितना अच्छा होता है अगर इस बात का प्रेशर नहीं है कि जॉब चाहिए ही चाहिए...कितना अच्छा लगता है कोई आपसे कहे...टेल मे अबाउट योरसेल्फ...और आप फुर्सत और इत्मीनान से उसे अपने बारे में बताते जाइए. कई बार तो इगो बूस्ट सा होता है जब सोचती हूँ कि हाँ...कितना सारा तो तीर मार के बैठे हुए हैं...खामखा लोड लेते हैं, हमको भी न...उदास रहना अच्छा लगता है शायद मोस्टली. (प्लीज नोट द विरोधाभास हियर). मैं एकदम मस्त मूड में चहक चहक कर बात कर रही थी. 

इंटरव्यू लेने वाले लोग दो तरह के होते हैं...पहले थकेले टाइप...जो आपसे इतने गिल्ट के साथ बात करेंगे जैसे वो उस जगह काम नहीं करते किसी पिछले जन्म के पाप का फल भुगत रहे हैं और आप भी उस कंपनी में आयेंगे तो उनपर अहसान करेंगे टाइप...वे बेचारे दुखी आत्मा होते हैं, अपने काम से परेशान. मुझे ऐसे लोग एक नज़र में पसंद नहीं आते...अगर आप खुद खुश नहीं हो जॉब में तो नज़र आ जाता है...मेरे जैसे किसी को तो एकदम एक बार में. दूसरी तरह के वो लोग होते हैं जिन्हें अपने काम से प्यार होता है...जब वो आपको कंपनी के बारे में बता रहे होते हैं तो गर्व मिश्रित खुशी से बताते हैं...ये खुशी उनसे फूट फूट पड़ती है...ऐसे लोगों से बात करना भी बेहद अच्छा लगता है...उनके चेहरे पर चमक होती है और सबसे बढ़कर आँखों में चमक होती है. ऐसे लोगों के साथ किसी का भी काम करने का मन करता है और इंटरव्यू का रिजल्ट जो भी आये...मैं वहां ज्वाइन करूँ या न करूं पर इंटरव्यू में मज़ा आ जाता है. आज के इंटरव्यू में ये दूसरे टाइप का बन्दा बहुत दिन बाद देखने को मिला था...एकदम दिल खुश हो गया टाइप. 

मुझे एक और चीज़ भा गयी...मेरा नाम अधिकतर लोग Pooja लिख देते हैं...नाम के स्पेलिंग को लेकर बहुत टची हूँ...सेंटी हो जाती हूँ. मेरे ख्याल से ये दूसरी या तीसरी बार होगा लाइफ में कि किसी ने खुद से मेरे नाम की स्पेलिंग सही लिखी हो. मुझे नहीं मालूम कि फाइनली मैं वहां जॉब करूंगी कि नहीं...पर आज का इंटरव्यू लाइफ के कुछ बेस्ट इंटरव्यू में से एक रहेगा. 

कुछ दो ढाई बजे वापस आई तो कुणाल का फोन आया उसके इनकम टैक्स के पेपर की जरूरत थी ऑफिस में. मौसम एकदम कातिलाना हो रखा था...ड्राइव करते हुए मस्त गाने सुने और उसके ऑफिस पहुंची. वहां बगल में फोरम मॉल है जहाँ उसे कुछ काम था. हम वहां गए ही थे कि भयानक तेज बारिश शुरू हो गयी...आसमान जैसे टूट कर बरस रहा था. काफी देर सब वेट किये उधर फिर ऑफिस में डिले हो रहा था तो बारिश में भी भीगते भागते सब लोग गए. मैं उस झमाझम बरसती बारिश में एक प्यारे दोस्त से बात कर रही थी...हवा बारिश से भीगी हुयी थी...मॉल में मेरी पसंद के गाने बज रहे थे...इंटरव्यू अच्छा गया था. ओफ्फ क्या मस्त माहौल था. 

आज कुणाल ने ऑफिस थोड़ा बंक किया कि आठ साढ़े आठ टाइप छुट्टी...फिर घर पहुंचे. इधर एक App बनाने के मूड में हैं हम लोग तो उसी का रिसर्च चल रहा है. अभी तीन बजे तक साकिब के साथ डिस्कस किये हैं...अब सोने का टाइम आया...पर जैसा कि होता है, जाग गए हैं तो नींद नदारद. सोचा कुछ लिख लूं...अच्छे मूड में लिखने का कम ही मन करता है. बस ऐसे ही...यहाँ सकेरने का मन किया. इतनी अनप्रेडिक्टेबल लाइफ में कभी पुराने पन्ने पलटा कर देखूं तो यकीन हो तो सही कि खिलखिला के हँसने वाले दिन भी होते हैं. भोर होने को आई...अब हम सोने को जाते हैं. आप मेरी पसंद का गाना सुनिए जो मॉल में बज रहा था...बीटल्स का है. मेरा फेवरिट बैंड है. 

ग्लास फ्लूट के इन्स्ट्रुमेन्टल में ये गीत...ओह...जानलेवा था...कुछ गीतों पर ऐसे ही यादें स्टैम्प हो जाती हैं...मैं इस गीत को अब कभी भी सुनूंगी..उधर फोरम मॉल की रेलिंग से नज़र आती बारिश, एक दिलफरेब आवाज़ और अनंत खुशियों को महसूस करूंगी.

Sometimes...really...all you need is a tight hug... the wonderful thing about life and friendship and love is...sometimes...a friend sitting in some forlorn corner of the world says those simple words...and you really feel like you have been hugged...tightly. Imagine...underestimating the power of words! It simply is about the intensity behind those words...when you say those words as you feel them...even if you are kilometers apart...a friend's embrace melts all your sadness away. Words heal. Words hug. Words hold your hand.

Thank you...so much...I am glad I have you in my life. I love you.

PS: It just started raining again...my friends in Delhi...I am thinking of you...and for those in the parched corner of the country...for you too. Hugs.

14 May, 2012

निब तोड़ देनी है आज...

क्यूँ लिखा जाए कि एक एक शब्द बायस होता है एक बनते हुए ज़ख्म का...शब्दबीज होते हैं...खून में घुल जाने के लिए...आंसुओं में चुभ जाने के लिए...हर शब्द एक बड़े से ज़ख्म के पेड़ का नन्हा सा बीज होता है. हर शब्द जो मैं लिखती हूँ हर शब्द जो तुम पढ़ते हो.

मैं वाकई बैरागी सी हो गई हूँ...एकदम विरक्त...मन किसी शब्द पर नहीं ठहरता...मन किसी चेहरे पर नहीं ठहरता...मन कहीं नहीं ठहरता. मुझे विदा कहना नहीं आता वरना कब की चली जाती...किसी ऐसी जगह पर जहाँ से वाकई कहीं और जाने की जरूरत न पड़े.

लिखना कम कर दिया है...बेहद कम और मन में जो हाहाकार मचा रहता था वो भी कम हो गया है...अब एक निर्वात बन रहा है...जहाँ कुछ नहीं होता...जहाँ मैं नहीं होती जहाँ तुम नहीं होते...जहाँ कोई भी नहीं होता. मैंने सुबह से दो किताबें पढ़ने की कोशिश कीं...नहीं पढ़ पायी, दोनों किताबें बकवास लगीं, हो ये सकता है कि किताबें सच में वाहियात हों.

फिलहाल हर तरफ बहुत सा सन्नाटा है...आसपास के मकानों में काम करते मजदूर शायद दोपहर के खाने की छुट्टी पर गए हैं...बच्चे स्कूल से वापस नहीं लौटे...शिकारी पक्षी घात लगाए खामोश होंगे...और बादल अभी ऊंघ रहे हैं...पंखा भी बेआवाज़ चल रहा है...आज अचानक उससे आती नित्य की खटर खटर बंद है. मैं कपड़े बदल कर बाहर जाने के मूड में हूँ कि कभी कभी घर ऐसा हो जाता है जैसे दीवारें टूट गिरेंगी मुझ पर. लंबा घूमने का मन है तो जूते के तस्मे भी बाँध लिए हैं.

किसी को एक आखिरी चिट्ठी लिखने का मन है...सामने पसंद के तीनों पेन रखे हैं...समझ नहीं आ रहा किस रंग की सियाही से लिखूं. मेरे कवि, मुझे हमेशा से मालूम था मुझे तुम्हारा जाना तोड़ देगा मगर लगता था कि टूटे टुकड़ों से भी कविता रची जाती है...आज महसूस करती हूँ कि ऐसा नहीं होता. तुम्हारे साथ आसमान की सियाही भी फीकी पड़ गयी है. तुमसे अनगिन बातें की विगत कुछ सालों में पर आज विदा कहने को सारे लफ्ज़ बेमानी हैं.

मूड है...जानती हूँ जल्दी ठीक हो जाएगा...पर ये वक्त वक्त पर जो उदासी की तहें लग रही हैं मन पर, इन्हें काटने को गर्म धीपा हुआ चाकू ही चाहिए कि ये परतें सख्त होती जाती हैं...जैसे सख्तजान मैं हूँ वैसी ही कुछ. जिंदगी में ऐसा फेज कभी नहीं आया था कि इतने दिन तक इतना कुछ लिखने को छटपटाहट हो...और अब जैसे एकदम शून्य...और ये शून्य खुद नहीं आया...मैंने ही मन के दरवाजे बंद कर लिए हैं कि रचने के लिए जितना दर्द सहना होता है उतने में लगता है सांसों का तारतम्य टूट जाएगा.

उसमें भी जो लिखती हूँ एक जरा पसंद नहीं आता तो फिर मन पूछेगा ही न...कि इतना दर्द, इतना दर्द किसलिए? कौन सी मजबूरी है जो तुमसे कलम चलवाए जाती है? आज मन कर रहा है सारी कोपियाँ उठा कर जला दूं और ब्लॉग को आग लगा दूं...या कि कुछ दिन इन्टरनेट का मोडेम बंद कर दूं और लालबाग में लंबी वाक पर निकल जाया करूं.

कैसी हूँ मैं...जिसे छूती हूँ...वो कहता है 'सोना हो जाता है' मुझे कहना था मिट्टी हो जाता है...मगर सोना हो जाना...ओह...मैं उसे मिडास की कहानी सुनाती हूँ...उसे पूरी कहानी नहीं पता है...कि कैसे मिडास को वरदान मिला था कि वो जिसे छू देगा सोना हो जाएगा...मिडास तब तक बहुत खुश था जब तक कि भूख लगने पर उसका खाना भी सोने में परिवर्तित हो गया...पानी भी...और वो घबरा ही रहा था कि फूल सी नाज़ुक उसकी बेटी दौड़ती हुयी आई उसकी गोद में और एक पल में सोने की गुडिया में तब्दील हो गयी...कीमती मगर निर्जीव.

एक था पारस पत्थर...लोग उसकी पूजा करते थे कि उससे जो भी छू जाये सोना हो जाता था...पारस पत्थर का मन होता है क्या? उससे कोई पूछे कि वो जो रंग बिरंगी चिड़िया तुम पर आकार बैठी थी और सोने की मूरत हो गयी थी...तुम्हें रोना आया था क्या?

क्या तोड़ देना चाहती हूँ? क्या खुद को? विध्वंस का गीत बज रहा है...अट्टालिकाएं गिरती जा रही हैं...मेरे घर में अनपढ़ी पुस्तकों की मीनारें नेस्तनाबूद हो रही हैं...मैं कहीं जा रही हूँ...कहाँ...मन पूछता है...मुझे मालूम नहीं कहाँ.

सामने असीमित जलराशि है, उन्मुक्त, अगाध, सियाही जैसी नीली...मन पूछता है, लौट आने को सागर भी न हो तो लहरें कहाँ जायेंगी?

12 May, 2012

अकेलेपन को एन्जॉय करना इज लाइक डेवलपिंग अ टेस्ट फॉर गुड स्कॉच...इट कम्स विद टाइम.

स्कॉच के सुनहले गिलास के पीछे मोमबत्ती जल रही थी...लाईट कटी हुयी थी और गहरे अंधकार में सिर्फ उतनी सी रौशनी थी...वो भी पूरी की पूरी स्कॉच में घुल रही थी...बहुत से आइस क्यूब थे. आसमान में घने बादल छाये थे और कहीं से एक सितारे भर की रौशनी भी नहीं थी. रात के कोई दो से चार बजे तक का वक्त था...लड़की बालकनी में अकेले व्हिस्की का ग्लास लिए कुर्सी पर हलकी खुमारी में थी...जितने में दुनिया अच्छी लगने लगे. कोई गीत चल रहा था फोन पर...बालकनी की रेलिंग पर कतार से एक पुरानी ऐश ट्रे, पानी की बोतल, लाइटर और कोने में ट्राइपोड रखा हुआ था. बालकनी से लगे ही स्टडी टेबल थी जिसपर कैमरा रखा हुआ था. आज लड़की खास मूड में थी और उसने शाम को ऐलान किया था कि वो आज दो पैग पिएगी. 
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बहुत खास दिनों में उसका पीने का मूड होता...उसमें भी पूरी शाम और देर रात एक ही पैग में हमेशा निकल जाती...तो बाज़ार से उसके लिए आता भी सिर्फ एक पैग भर का सामान...मगर आज लड़की ने डिक्लेयर कर दिया था कि वो दो पैग पिएगी. उसे इस बात पर काफी अफ़सोस हुआ कि किसी ने भी नहीं पूछा कि ऐसी क्या खास बात हुयी है...तुम तो कभी भी एक पैग से ऊपर गयी ही नहीं हो. लड़की को आदत थी चढ़ जाने के बाद लोगों की प्यार मुहब्बत और इसरार से भरी बातें सुनने की...पर आज उसे दुनिया फानी लग रही थी...उससे वहां बैठा नहीं गया...लगा जैसे थोड़ी खुली हवा चाहिए. वो बालकनी में अपनी कुर्सी, पानी की बोतल और कैमरा लेकर सेटल हो गयी. 

व्हिस्की का ग्लास उसे बेहद खूबसूरत लगता है...पानी की बूँदें ठहरी हुयीं...सुनहले आइस क्यूब...रौशनी परावर्तित होती हुयी...कल उसने अनगिन तसवीरें खींची. पहला पैग खत्म होने तक वो कुछ लोगों के बारे में ऐसे ही सोच रही थी...मगर दूसरे पैग में बर्फ थोड़ी ज्यादा थी और उसे आराम से पीने की फुर्सत भी. हलके खुमार में उसे कुछ खास लोग याद आये...उसकी बड़ी इच्छा हुयी कि उन्हें फोन करे...जैसे कि अक्सर लड़के करते हैं...थोड़ी चढ़ी नहीं कि सारे पुराने दोस्तों को फोन करना शुरू. उसका दिल किया कि एक सिंपल सा मेसेज ही कर दे...व्हिस्की पी रही हूँ...आपकी याद आ रही है. मगर उसकी दुनिया में ये बहुत सिंपल सी चीज़ थी पर जो उसकी दुनिया के बाहर दुनिया है वहां चीज़ें बहुत कोम्प्लेक्स हो जाती हैं ये सोच कर उसने जब्त कर लिया. 

किसी को बेहद शिद्दत से याद करो तो उसे पता चल जाता है ऐसा उसका मानना था. एक वक्त था जब उसे बहुत हिचकियाँ आती थी...वो एक पुराने दोस्त को अक्सर तब उलाहना दिया करती थी कि मुझे इतना याद मत किया करो...दिल में गहरे उसे मालूम होता था कि वो उसे याद कर रहा है. आजकल बहुत साल हुए लड़की को हिचकियाँ आनी एकदम ही बंद हो गयी हैं. उसे लगता है कि अब उसे कोई याद नहीं करता. 

कल जब बिजली चली गयी तो लड़की ने पहला वाक्य कहा था...बर्फ कैसे जमेगी...वो बेहद उदास हो गयी थी...मगर फिर सिर्फ एक कैंडिल की रौशनी में जब बहुत सी अच्छी अच्छी तसवीरें आयीं तो उसका अफ़सोस कम हो गया. फिर बर्फ न होने को नीट पीने का बहाना भी मान लिया गया. उसे अपना पैग खुद बनाना पसंद था...ग्लास में पूरे ऊपर तक भर के आइस क्यूब्स और लगभग आधी ग्लास तक में व्हिस्की. ग्लास भी एक ही...हमेशा...स्क्वायर कट. वो ग्लासेस को लेकर बहुत पर्टिकुलर थी...दूसरे ग्लास में पी ही नहीं सकती...न दूसरे शेप के ग्लास में...न दूसरे लोगों के साथ जो उसे पसंद न हों. उसे लगता है वो बहुत जिद्दी होती जा रही है...उसे आजकल अधिकतर लोग पसंद नहीं आते. उसने कभी सोचा नहीं था कि बालकनी में अकेले व्हिस्की पीते हुए उसे इतना सुकून महसूस होगा...शी वाज एट पीस...विद हरसेल्फ एंड द वर्ल्ड. 
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अकेलेपन को एन्जॉय करना इज लाइक डेवलपिंग अ टेस्ट फॉर गुड  स्कॉच...इट कम्स विद टाइम. तन्हाई का लुत्फ़ आते आते वक्त लगता है...अच्छी व्हिस्की की पहचान होने में भी...एक कनेक्शन होता है. लाइक मैजिक. स्कॉच ऑन द रोक्स...एवरग्रीन...क्लास्सिक...तुम्हारी तरह...ईश्क की तरह...मेरी तरह भी तो. बहुत दिन हुए...लड़की परेशान है...अच्छा लगेगा क्या इतनी जान पहचान है पर साथ में पीने बैठोगे तो उसे पूछना पड़ेगा कि आइस कितनी...जैसे कोई भली लड़की चाय में चीनी कितनी पियोगे पूछ रही हो...

इस बार बता ही दो...कितनी आइस क्यूब्स डालते हो अपनी स्कॉच में?

11 May, 2012

फुटकर चिप्पियाँ

लोगों के रिकवर करने के अलग अलग तरीके होते हैं...मैं इस मामले में बहुत कमज़ोर हूँ...आई डोंट नो हाउ टू मूव ऑन...मैं अक्सर वहीं अटक जाती हूँ जहाँ से मुझे आगे बढ़ जाना चाहिए. किसी मोड़ पर बहुत दिन ठहर जाओ तो वहां घर बनाने का मन करने लगता है...रोज़ देखते देखते एक दिन वहां से नज़र आते नज़ारे दुनिया में सबसे खूबसूरत दिखने लगते हैं और हम ये भूल जाते हैं कि हम यहाँ रुके नहीं थे...ठहर गए थे कि हमें लगता था कि कोई लौट कर इसी मोड़ पर हमें ढूंढते हुए आएगा.

मुझे विदा कहना नहीं आता...मेरी जिंदगी में जितने लोग आये...सब अपनी अपनी खास जगह छेक के बैठे हैं, न कोई घर खाली करता है न मुझे निकालना आता है. छोटे बड़े हिस्से...भूले किस्से...बहुत कुछ सकेरा हुआ है. कभी कभी मुझे अपने से बड़ा कबाड़ी नहीं दिखता कि मैं टूटे हुए रिश्तों को भी सहेज के रखती हूँ कि कौन जाने कब कोई अच्छा सा 'ग़म'(pun intended) मिल जाए तो फिर सब जुड़ जाए. या फिर इन्हें गला कर फिर से किसी नए आकार में ढाला जा सके. जिंदगी में वाकई बेकार तो कुछ नहीं होता...सबकी अपनी अपनी जगह होती है.

मुझे जिन्हें भूलना होता है मैं उन्हें एक खास जगह अता करती हूँ...पासवर्ड में. एक आईडी शायद सिर्फ इसलिए है...कभी कभी बहुत जरूरी हो जाता है कि मैं किसी को भूल सकूं...कुछ दिन के लिए ही सही कि उसे याद करना बड़े ज़ख्म देने लगता है. फिर हर बार जब मैं पासवर्ड में वो नाम टाइप करती हूँ धीरे धीरे करके उसे चिट्ठियां लिखने का ख्याल उँगलियाँ बिसराने लगती हैं कि मैं जितनी बार आईडी से लोगिन करती हूँ, मुझे लगता है मैंने उसे चिट्ठी लिखी है...कि पहला शब्द तो वही होता है न...उसका नाम. लिखने के पहले पहला नाम या तो खुदा का हो या महबूब का...फिर लिखने में जिंदगी होती है.

ये सब मैं पुनरावलोकन में लिख रही हूँ क्यूंकि उस समय तो समझ नहीं आता...उस समय तो वो नाम दिन भर लिखना मजबूरी होता है इसलिए पासवर्ड बनाया जाता है. अब जब इतने सालों बाद उस पासवर्ड को बदला है तो आश्चर्यजनक रूप से देखती हूँ कि आई हैव हील्ड...मैं ठीक हूँ गयी हूँ...ज़ख्म भर गए हैं. अब मैं तुम्हारा नाम लिखते हुए मुस्कुरा सकती हूँ...अब मैं तुम्हें याद करते हुए हर्ट नहीं होती...अब तुम्हारे नाम से सीने में हूक नहीं उठती...अब मेरी सांस नहीं रूकती जब तुम मेरा नाम लेते हो.

मैं इतने ज्यादा विरोधाभास से भरी हूँ कि मुझे कभी कभी खुद समझ नहीं आता कि मैं क्या कह रही हूँ...एक शाम मैंने सुर्ख टहकते लाल रंग का सलवार कुरता पहना था जब कि कोई बात निकली और मैंने कहा...आई हेट रेड...मुझे लाल रंग एकदम पसंद नहीं है...तो एक दोस्त ने ऊपर से नीचे तक निहार कर कहा था...दिख रहा है. मैं अक्सर दो वाक्य एकदम एक दूसरे से उलट मीनिंग का एक ही सांस में कह दूँगी. ये कुछ वैसा ही है जैसे दिन भर ये सोचना कि आजकल मैं उसे याद नहीं करती हूँ.

आजकल मुझे स्कूल के बहुत सपने आ रहे हैं...अभी कल सपना देखा था कि फिजिक्स का कोस्चन पेपर है और मुझे एक भी सवाल नहीं आता...मैं एकदम घबरायी हुयी हूँ कि फेल कर जाउंगी...आज तक कभी फेल नहीं हुयी...मम्मी को क्या कहूँगी...फिर एक सवाल है जो थोड़ा बहुत धुंधला सा याद आता है मुझे...चांस है कि उसे पूरा अच्छे से लिख दूं तो पास कर जाऊं...ध्यान ये भी आता है कि मैं किसी से बहुत प्यार करती थी और पढ़ने के सारे टाइम मैं कहानियां और कविताएं लिखती रही...किताबें नहीं पढ़ीं. आज सुबह सुबह देखा है कि मैंने नया स्कूल ज्वाइन किया है और एक क्लास से निकल कर मैथ के क्लास करने दूसरी जगह जाना होता है...मैं रास्ता खो गयी हूँ...साथ में एक दोस्त और भी है...फिर एक सीनियर ने रास्ता बताया है और हम जाते हैं...बहुत सी गोल गोल घूमने वाली सीढ़ियाँ हैं...मेरे ठीक पीछे मैथ के सर भी चढ रहे हैं...मैं बहुत तेज सीढ़ियाँ चढती हूँ...मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने में कभी थकान महसूस नहीं होती. लेकिन जब ऊपर पहुँचती हूँ तो एक टेबल होता है और वहां से सीधे नीचे दिखता है और टेबल की एक टांग हिल रही है तो टेबल स्टेबल नहीं है...मुझे अब नीचे उतरना है पर अब मुझे डर लग रहा है...मुझे वैसे भी ऊँचाई से बहुत डर लगता है.

बहुत ज्यादा अनप्रेडिक्टेबल और मूड़ी हूँ...जब जो मन करे वो करने वाली...कब क्या कर जाऊं का कोई ठिकाना नहीं. कल शोपिंग पर गयी थी, खूब सारी चेक शर्ट्स खरीद कर लायी हूँ...चेक शर्ट्स मेरी हमेशा से फेवरिट रही हैं...कुछ सैंडिल्स, बैग्स, और कुछ छोटी मोटी चीज़ें. बहुत सालों बाद ऐसी सड़क किनारे वाली शोपिंग की...मोलभाव किया.

आजकल प्यार के मामले में कन्फ्यूजन वाला फेज चल रहा है...पता ही नहीं चल रहा कि कमबख्त होता क्या है...थोड़ा थोड़ा समझ भी आ रहा है कि आजकल किसी के प्यार में नहीं हूँ इसलिए ऐसे सवाल हैं...फिर भी ऐसा क्यूँ होता है कि कुछ लोगों का फोन आता है तो मुस्कुराते मुस्कुराते गाल दर्द कर जाते हैं...मुझे लगता है कि मुझे उनसे हमेशा प्यार रहेगा और प्यार सिर्फ मुस्कराहट का नाम है. बाकी जो रोना धोना हम करते हैं वो हमारा इगो होता है जो इस बात को मानता नहीं है कि हम किसी से जितना प्यार करते हैं वो हमसे उतना नहीं करता...या शायद एकदम ही नहीं करता.

बहुत दिनों से किसी के प्यार में गिरी नहीं हूँ...घुटने पर लगा पिछली बार का नीला निशान लगभग धुंधला पड़ गया है...परसों अल पचीनो पर एक किताब लायी हूँ...मन मानना नहीं चाह रहा है पर प्यार तो टोनी मोंटाना को स्कारफेस में देख कर हो गया ही था...आज बस...डूबना है उन आँखों में. मेरी जिंदगी से प्यार, फिल्में, किताबें और आवारागर्दी निकाल दो तो फिर बचता क्या है?

कल फ़राज़ को पढ़ रही थी...यूँ तो फैज़ को पढ़ने का मूड था पर किताब मिली नहीं...जाने किधर रख छोड़ी है. आजकल मन थोड़ा शांत रहता है...शांत, उदास नहीं...और सुनो...तुम उदास न रहा करो मेरी जान...जिंदगी में हज़ार काम हैं...जानती हूँ...तुम्हारी उदासी से मेरे मौसम को सर्दी हो जाती है...देखो न...फ़राज़ साहब कह गए हैं कि...शेर सुन के बताना...जो तुम्हें किसी और से प्यार हुआ क्या?

एक फुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफरेब थे गम रोज़गार के

09 May, 2012

बह जाने को कितना पानी...जल जाने को कितनी आग?


एक लेखक की सबसे बड़ी त्रासदी है कि उसके लिखे हर शब्द को उसके जीवन का आइना मान लिया जाता है...उसके ऊपर सच को चित्रित करने की इतनी बड़ी जिम्मेदारी डाल दी जाती है कि बिना भोगा हुआ सच वो लिखने में कतराता है...इसी बात पर एक लेखक की ही डायरी से कुछ फटे चिटे पन्ने कि कभी तमीज से इन्हें कहीं लिखने की दरकार नहीं रही.
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कल मेरे शहर में बहुत तेज बारिश हुयी...आसमान जैसे फट पड़ा था...बात मगर इसके पहले की है कि एक लेखिका कुछ सब्जियां खरीदने थोड़ी दूर के बाजार गयी थी...गौरतलब है कि मेरे अंदर एक औरत और एक लड़की भी रहती है मगर उसे शायद दुनिया कभी बाहर ही नहीं आने देती...तो ये लेखिका हर चीज़ में कहानियां ढूंढती है...तो कल भी मैं जो थी...बाज़ार गयी थी और सब्जियों के अलावा मुझे एक ड्रिल मशीन खरीदनी थी...पता चला कि ड्रिल मशीन ८०० रुपये की आती है और अगर जरूरत पड़े तो एक दिन के लिए ५० रुपये में रेंट की जा सकती है. मुझे उधारी चीज़ें अधिकतर पसंद नहीं आतीं...और एक ड्रिल का थोड़ा सम्मोहन भी है तो सोचा खरीद लेती हूँ. दूकान के पीछे जा कर एक संकरी सी गली थी जिससे ऊपर के तल्ले में जाने को सीढ़ियाँ बनी थीं. मैं कभी कोठे पर नहीं गयी पर जितना फिल्मों और किताबों में पढ़ा है वैसा ही डरावना सा माहौल था...नीम अँधेरा और एक आधा नाईट बल्ब जल रहा था...एक लंबा सा गलियारा था जिसके एक तरफ सीढ़ियाँ थीं और एक तरफ कुछ कमरे जिसमें एक धुंधला सा पर्दा पड़ा हुआ था और परदों के पार कुछ औरतें दिख रही थीं. वो कोई शेडी सा पार्लरनुमा एरिया था...वहां खड़े होकर मैं ये सोच रही थी कि ये ऐसी जगह है कि किसी भी दोस्त को इसका डिस्क्रिप्शन दूं कि मैं ऐसी जगह गयी थी तो पहला सवाल होगा कि तुम वहाँ कर क्या रही थी...उस गली के दोनों तरफ कुछ बंद दुकानें थीं और कुछ साइबर कैफे जिसके बाहर स्टूल पर इंतज़ार करके लड़कों के चेहरे ऐसे थे जैसे मेरे तीस के ऊपर भाइयों के हैं जिनको नौकरी अभी तक नहीं मिली है...मुझे अंदाज़ा था कि ऐसे गर्द-गुबार भरे कैफे में वो क्या कर रहे होंगे...मुझे ये भी पता चल रहा था कि वहां कैसी सीडियां रेंट पर मिलती होंगी. मेरा कौतुहल इतना बढ़ रहा था कि मन कर रहा था धड़धड़ा के सीढ़ियाँ चढ जाऊं...मगर दिन के चार बजे उन सीढ़ियों पर इतना अँधेरा था कि टटोल कर ऊपर चढ़ना पड़ता.

छोटे शहरों में लड़कियों के अंदर एक डर कूट कूट कर बचपन से ही भरा जाता है...अँधेरे कोनों का डर...अँधेरे कोनों से निकलते उन  हाथों का डर जो जिस्म को भंभोड़ते हैं और निशान और सवाल आत्मा पर बनाते हैं कि ऐसा मेरे साथ क्यूँ हुआ...मैं ऐसा डिजर्व करती थी...मैंने कैसे कपड़े पहने थे...मैं वहाँ क्या कर रही थी और ये सवाल उन गंदे हाथों के निशान उतर जाने के बाद भी नहीं धुलते. हालाँकि हर लड़की इन गलीज़ हाथों से रूबरू होती है मगर हर लड़की इन हाथों से बचती हुयी चलती है. उसे मालूम होता है कि ये हाथ सिर्फ अँधेरे कोनों में नहीं दबोचते बल्कि रौशनी वाले मेट्रो में...पटना की बेहद भीड़ वाले सब्जीबाजार में...रेलवे प्लेटफोर्म पर...दिन की रौशनी और भीड़ वाली जगह पर ये हाथ ज्यादा नज़र आते हैं. लड़की ये भी सीखती है कि हमेशा आलपिन लेकर चला करो और ऐसे किसी व्यक्ति को चुभा दो...लड़की ये भी चाहती है कि ऐसे हर हाथ वाले शख्स की वैसी जगह चोट करे जहाँ वो बर्दाश्त न कर पाए...जी...हर लड़की जानती है कि मर्द के शरीर में ऐसी  ही कमज़ोर जगह होती है जैसे कि औरत का मन.

मैं जानने लगी हूँ थोड़ी थोड़ी कि मेरी ये छटपटाहट क्यूँ है...शायद ऐसी ही कोई नाकाबिले बर्दाश्त छटपटाहट रही होगी कि दुनिया भर की औरतों ने लिखने के लिए मर्दों के नाम इख़्तियार किये...मेरा भी कभी कभार मन होता है कि मैं कोई और नाम रख लूं कि वो सारे फ़साने जो मुझे लिखने हैं मैं अपने नाम से नहीं लिख सकती कि उन कहानियों में मेरे न चाहते हुए भी मेरी आँखें उभर आएँगी कि मेरे नाम का एक चेहरा है जबकि कहानियों के किरदारों का कोई रंग नहीं होता...उनकी कोई मर्यादाएं नहीं होती, जिम्मेदारी नहीं होती...दुनिया नहीं होती...उनका यथार्थ वक्त के इतने छोटे से हिस्से पर नुमाया होता है कि वो पूरी शिद्दत के साथ वो हो सकते हैं जो होना चाहते हैं. एक किरदार से जिंदगी अपना हिस्सा नहीं मांगती. हालाँकि मैं दुनिया को औरत और मर्द के खाँचों में बांटना सही नहीं समझती और फेमिनिस्म के बारे में अनगिनत बातें पढ़ते हुए भी मुझे चीज़ें नहीं समझ आतीं...मेरे लिए इतना काफी होता है कि मुझे वो सारी आज़ादियाँ मिलें जो मेरे भाई को या मेरे पति को या मेरे दोस्तों को मिली हुयी हैं. हर वक्त कपड़े पहनने के पहले ये न सोचना पड़े कि इसमें अगर मेरे साथ कोई हादसा हो गया तो कोई मुझे जिम्मेवार ठहराएगा...ऐसा ही कुछ लेखन के बारे में भी है.

मैं अधिकतर गालियाँ नहीं देती पर मैं चाहती हूँ कि मैं अगर किसी को गाली दे रही हूँ तो बिना बताये ये समझा जाए कि उस गाली के बिना मेरी मनःस्थिति बयान नहीं हो सकती. मैं गलियों को भी उनके लिंग़ के हिसाब से देती हूँ...जब कि मुझे दुनिया के मर्दों से कोफ़्त होती है तो मैं ऐसी गाली नहीं देना चाहती जो कि उनकी बहन या माँ की ओर लक्षित हो...मैं वाकई उन गालियों को पसंद करती हूँ जिनमें ये बोध आता है कि वो स्त्रियोचित हैं...कि उनमें वही सारी कमियां हैं जिनके दम पर वो अपने मर्दाने अहं का दंभ भरते हैं...मुझे लगता है बाकी सारी गालियों से परे किसी मर्द को सबसे अधिक तिलमिलाहट तब होती है जब कोई औरत उन्हें 'नपुंसक' या 'नामर्द' जैसी कोई गाली दे दे. ये उनके पूरे वजूद को ही कटघरे में खड़ा कर देता है...कि औरत के लिए दुनिया बहुत सी चीज़ों से बनी होती है...लेकिन मर्द सिर्फ और सिर्फ एक चीज़ से बनता है...फिजिकल/सेक्सुअल ग्रैटिफिकेशन.

मुझे उन औरतों की कहानियां लिखने का मन करता है जिनसे मुझे साहिब बीबी गुलाम की छोटी बहू याद आती है. कितने भी बड़े लेखक को पढ़ लेती हूँ ऐसा लगता है कि ये औरत की सिर्फ बाहरी किनारों को छू पाए हैं...मान लो उसका मन थोड़ा बहुत टटोल कर समझ लें मगर उसके अंदर जो एक बेबाक सी आग भरी है उसकी आंच में हाथ जलाने से सभी डरते हैं. औरत जब अपने मन पर आती है तो दावानल हो जाती है...फिर हरे पेड़ और सूखी लकड़ी में अंतर नहीं करती. मैं हर सुबह उठती हूँ तो प्यार को कोई च से शुरू होने वाली गाली देती हूँ और इस बात पर पूरा यकीन रहता है कि दुनिया में प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं है.

इंसान की सभ्यता का सारा इतिहास मात्र एक छलावा है...झूठ और आडम्बर का एक रेशमी ककून है...जबकि सच ये है कि इस ककून के अंदर के कीड़े की नियति मर जाना ही है. आज भी आदिम भाव वही हैं...हाँ उसके ऊपर झूठ का मुलम्मा इतने दिनों से जिया जा रहा है कि  उसी को सच मान लिया जाता है. प्रेम तो बहुत दूर की बात है...राह चलते...आते जाते...आखिर हर लड़की को ऐसा आज भी क्यूँ लगता है कि सामने का मर्द नज़रों से उसके कपड़े उतार रहा है...और मौका मिलते किसी अँधेरी गली में वो सारा कांड कर डालेगा जिसमें इस बात का कोई रोल न होगा कि लड़की ने कैसे कपड़े पहने थे, उसकी उम्र क्या थी, चेहरे के कटाव कैसे थे...अंत में वह सिर्फ और सिर्फ एक देह है...एक नारी देह.
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फिल्म में छोटी बहू कहती है...मेरी बाकी औरतों से तुलना मत करो...मैंने वो किया है जो किसी और ने नहीं किया...कल तेज बरसती बरसात में भीगते हुए मैं आइसक्रीम खा रही थी...बारिश इतनी तेज थी कि चेहरे पर थपेड़े से महसूस हो रहे थे...सर से पैर तक भीगी हुयी...एक हाथ में फ्लोटर्स...एक हाथ में आइसक्रीम...और मन में अनगिनत ख्यालों का शोर...नगाडों की तरह धम-धम कूटता हुआ. सड़क पर किसी ने कहा 'नाईस'...आवाज़ में तिक्त ताने मारने का भाव नहीं सराहने का भाव था...मैंने चश्मा नहीं पहना था तो मुझे उसका चेहरा नहीं दिखा...मैं थोड़ा आगे बढ़ भी चुकी थी...मैंने आइसक्रीम लिए हाथ को ऊपर उठाया जैसे शैम्पेन के ग्लास को उठाते हैं और कहा 'चीयर्स'. उसी रास्ते वापस लौट रही थी तो देखा उसकी गोद  में एक बच्चा था...मुझे जाने कैसे लगा कि बेटी है...वह उसे हाथ हिला कर मुझे बाय कहने को कह रहा था...मैंने बाय किया भी...इस सबके बीच बहुत तेज बारिशें थी और बिना चश्मे के मुझे कुछ दिख नहीं रहा था. मैं सोच रही थी...कि वो सोच रहा होगा कि मेरी बेटी भी ऐसी ही होती...उसके एक आध और बातों में मैंने वो चाहना पकड़ ली थी...मैं उसे कहना चाहती थी...ऐसी लड़की को दूर से ही ऐडमायर करना आसान है...ऐसी लड़की का पिता बनना...बहुत बहुत मुश्किल.

आज़ाद होना वो नहीं होता कि जो मन किये कर रही है लड़की...वैसे में हर मर्द में एक तुष्टि का भाव होता है कि मैंने इसे आज़ादी दी हुयी है...मैंने उसे खुला छोड़ा है...ऐसे में लड़की में भी एक अहसान का भाव होता है समाज के प्रति, पिता के प्रति, प्रेमी के प्रति, पति के प्रति, दोस्त के प्रति...हर उस मर्द के प्रति जिसने उसे आज़ादी दी है...बात तब खतरनाक हो जाती है जब लड़की मन से आज़ाद हो जाती है, स्वछन्द...जब उसे अपने किसी किये पर पश्चाताप नहीं होता कि उसने वही किया जो उसकी इच्छा थी. ऐसी खुली लड़की से फिर सब डरते हैं...उसमें इतनी कूवत होती है कि सिर्फ अपने सवालों भर से समाज की चूलें हिला दे. कल मैं वो लड़की थी.


ऐसी लड़की बारूद के ढेर पर बैठी नहीं होती...ऐसी लड़की खुद बारूद होती है. उससे बच कर चलना चाहिए. 
समझ रहे हो आप?

07 May, 2012

चिल्लर ख्याल...सुबह सुबह ढनमनाते हुए


आजकल मेरा दिमाग जाने कहाँ रहता है...कल ऊँगली काट ली सब्जी कट करते हुए...सोच कुछ रही थी...नया चाकू था एकदम नीट कट लगा...गहरा...खून बहुत तेज़ी से बह रहा था...मुझे खून सम्मोहित करता है...टहकता...दर्द में डुबोता...तो देख रही थी तब तक कुणाल भागते आया...नल के नीचे पानी से धोना शुरू किये पर खून रुकने से रहा...फ्रिज से बर्फ निकाली और ऊँगली पर रखी...कुणाल की आँखें तब तक घूमनी शुरू हो गयीं थीं...उसे खून देख कर चक्कर आता है...दो मिनट और खड़ा रहता तो वहीं बेहोश हुआ रहता तो उसको भेजे हॉल में कि तुम जाओ हम खुद से देख लेंगे. खून का बहाव इतना तेज था कि रुक ही नहीं रहा था...कितनी भी जोर से बर्फ से दबाए रखे थे ऊँगली को एकदम तीखी धार बहे जा रही थी...उसपर एक फ्रैक्शन ऑफ सेकण्ड भी दबाव कम होता तो बस फिर से धार तेज हो जाती...सिंक एकदम लाल सा हुआ जा रहा था वो तो अच्छा था कि सिंक में कोई बर्तन नहीं थे. 

काफी देर हुआ और खून रुकने को नहीं आया तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं...बचपन में मम्मी हमेशा बर्फ लगवाती थी और खून रुक जाता था...थोड़ी देर रुकता था तो बर्फ जैसे हटाती थी दर्द भी वापस लौटता था और फिर से धार शुरू. जब कुछ नहीं हो रहा था तो सोचा पट्टी बाँधने के सिवा कोई उपाय न था...कुणाल को तो बुलाने का सवाल नहीं था...वो एक बार झांकते हुए आया कि हम बाँध देते हैं...हम उसको डान्ट धोप के भेजे कि यहाँ एक छे फुट का बेहोश लड़का हमको नहीं चाहिए...फूटो यहाँ से...हम बहादुर हैं खुद से कर लेंगे सब. फिर रुई में सैवलोन लगाये और एक बार क्लीन किये फिर खूब सारी रुई में सैवलोन लगा के ऊँगली पर कस के दबाये और लिकोप्लास्ट चिपकाये...एकदम टाईट ड्रेसिंग किये कि खून टपके न. 

सारे टाइम ऊँगली को ऊपर उठाये रखे...कुणाल कह रहा था कि हार्ट के लेवल से ऊपर रखना चाहिए कट को...हर दर्द के साथ ऐसा ही होना चाहिए न? हार्ट के लेवल से ऊपर रखा जाए उसे...फिगरेटिवली स्पीकिंग. खैर...जमीन पर बैठे और हाथ बेड पर ऊपर रखे कि खून न बहे...बीच बीच में झाँक के देख भी लेते थे कि ठीक है कि नहीं...लाल तो नहीं हो रही है पट्टी...तो देखा कि ठीक है. खून बहना रुक गया था पर उतना खून बहता देख कर मेरा मन भी कैसा कैसा होने लगा था और मेंटली लग रहा था कि थक गए हैं...हालाँकि बहुत ज्यादा खून नहीं बहा होगा...या शायद  बहा होगा, मालूम नहीं. थक के सो गए. कुणाल कुछ दूध कोर्नफ्लेक्स खाया...हम आउट थे...देखे नहीं. 

नींद खुली तो शाम हो रही थी...खून बहना रुक गया था...पर हम भी हम हैं, ढेर होशियार बनते हैं. कल तेल लगाए हुए थे बाल में तो शाम होते होते एकदम सर भारी लगना और सर दर्द शुरू हो चुका था. हमको लगा खून रुक ही गया है...आराम से शैम्पू कर लेते हैं, बचा के करेंगे. अब बचा के ठेंगा होना था...नहा के निकलते निकलते फिर से ऊँगली ने खून की जमना बहानी शुरू कर दी...खुद को खूब सारा कोसा कि बुद्धि पे बलिहारी...वगैरह...फिर से टाईट ड्रेसिंग की. 

शाम डूबते हुए छत पर गयी थी...अक्सर बाल सुखाने के लिए छत पर जाना अच्छा लगता है...कल शाम एकदम एकरंग थी...बादल भी एकदम सलेटी...कोई नारंगी, लाल, गुलाबी नहीं...आसमां भी नीला नहीं...ग्रे...छत पर बैठ कर कुछ दोस्तों के बारे में सोचा कि संडे की इस शाम वो कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे...और ये कि किसी को बहुत शिद्दत से याद करो तो क्या वाकई उसे पता चलता है...हिचकी आती है क्या? कल चाँद बहुत खूबसूरत था और बादल से छन कर चाँद की किरणें दिख रही थीं...मैंने चाँद की किरनें कभी नहीं देखी थीं इस तरह...बीम होती हुयीं. सुन्दर था सब...एकरंग होते हुए भी. 
कुणाल और साकिब के साथ रात को वाक पे निकले...मोहल्ले में इधर उधर घूमे...आइसक्रीम कैंडी खाए...रात को बहुत सेंटी हो गए थे...होपलेस केस हैं...हमको कुछ भी नहीं आता है...गुड फॉर नथिंग...लिखने का भी टैलेंट दिया ही था तो या तो खूब सारा देता या आम इंसानों टाइप आम ही रहने देता...ये न इधर के हैं न उधर के हैं. ना कुछ बड़ा तोडू टाइप लिखेंगे कि शान से किसी को दिखा सकें कि देखो बेट्टा किताब है मेरा...न चैन से बैठ के कोई खूब सारा पैसा मिलने वाला नौकरी करेंगे कि अपने पैसे पर ऐश कर सकें. 

दिमाग खराब करेंगे अपना और कुणाल का कि रे हम क्या करें हमको इतनी बेचैनी काहे है...सबको तो नहीं होती सब अपनी जिंदगी में खुश रहते हैं...हमको तो साला कोश्चन ही पता नहीं है तो आंसर कहां से ढूँढेंगे. मालूम ही नहीं है कि क्या चाहिए...बस इतना पता है कि कुछ तो है जिसके पीछे भागते जा रहे हैं...कोई तलाश है...और ये कि बेचैनी है बहुत. दर्द है बहुत. कहीं ठहरना नहीं होता है. 

सुबह उठी हूँ...देखती हूँ घुटने पर एक काला निशान है...कल किसी चीज़ से फिर टकराई होउंगी घर में...ऊँगली अलग दर्द दे रही है...बिना फर्स्ट फिंगर के इस्तेमाल के टाइपिंग भी आफत है...पर ऐसे ही जेनरली जाने क्या क्या लिखने का मन करते रहता है...इतना सारा अलाय बलाय लिखे बिना वो बाहर भी तो नहीं आता जो अंदर कहीं हिलोरें मार रहा है. पता नहीं क्या लोचा है यार...लाइफ में बहुत कन्फ्यूजन है...बहुत परेशानी है और कमबख्त जिंदगी है भी तो इतनी छोटी सी...कितनी और होगी...बहुत हुआ तो दस साल...चालीस वगैरह से ऊपर जीने का कोई खास अरमान नहीं है. जिंदगी इतनी तेज़ी से भाग रही है कि क्या कहें...परेशान हो जाती हूँ हर वीकेंड कि कमबख्त एक और हफ्ता गुज़र गया. 

आज ऐसे ही कैमरा लेकर कुछ कुछ फोटो खींचने के लिए जाने का मन है...परती जमीन सा लगता है सब कुछ...मीलों मीलों खाली...एक बबूल का पेड़ तक नहीं. जाने इस तलाश को कब सुकून मिलेगा. कुणाल कहता है कि मैं लोगों के प्रति बहुत क्रिटिकल होती हूँ इसलिए मेरे दोस्त नहीं बनते...मुझे वाकई बहुत कम लोग पसंद आते हैं...बहुत ही कम...पर जो पसंद आते हैं उनपर जान छिडकती हूँ...बहुत कम लोग मुझे पसंद करते हैं...vice-versa टाइप की चीज़ है. जिंदगी में कम लोग हों...पर अच्छे हों...मैं किसी ऐसे के साथ टाइम वेस्ट नहीं कर सकती जो मुझे पसंद न हो...मुझे समझ आता है कि मेरी जिंदगी बहुत छोटी है...बहुत छोटी तो मैं अकेली ही रह लूंगी लेकिन किसी ऐसे शख्स को बर्दाश्त नहीं करूंगी जिसे मुझे झेलना पड़े...हद होपलेस केस हूँ. 

कल अनुपम से बात कर रही थी कि यार बहुत ज्यादा डिप्रेसिंग फेज चल रहा है कमबख्त इतनी जल्दी जल्दी उदास होती हूँ कि कुछ काम ही नहीं आ रहा...लगता है पागल हो जाउंगी...कितनी शाम लगता है जान दे दूं...कहीं छत से जाके कूद जाऊं...पर उम्मीद करती हूँ कि फेज है...गुजरेगा...बस इस बार बहुत लंबा चल रहा है...मुझे इतने दिन तक उदास रहने की आदत नहीं है. दिन के सारे पहर रटती हूँ कि गुजरेगा...गहरी सांसें लो लड़की...इट विल बी आलराईट...जस्ट...सांस लेती रहो...जिंदगी ऐसी ही है...क्या करोगी...जस्ट...कीप ब्रीदिंग...ओके?

06 May, 2012

एइ मेघला, दिने ऐकला, घोरे थाके ना तो मोन

सुनो, जान...उदास न हो...कुछ भी ठहरता नहीं है...है न? कुछ दिन की बात है...मुझे मालूम है तुम्हें किसी और से प्यार हो जाएगा...कुछ दिन की तकलीफ है...अरे जाने दो न...लॉन्ग डिस्टंस निभाने वाले हम दोनों में से कोई नहीं हैं...तब तक कुछ अच्छी फिल्में देखो मैं भी जाती हूँ कुछ मनपसंद हीरो लोग की फिल्म देखूंगी...आई विल बी फाइन और सुनो...तुम भी अच्छे से रहना.

देखो ये गाना सुनो...मुझे बिस्वजीत बहुत अच्छा लगता था...देखो न इस गाने में वो मिट्टी का कुल्हड़ देखे...वैसे चाय तो तुम्हें भी पसंद नहीं है...मुझे भी नहीं...और कुल्हड़ में कॉफी सोच कर कुछ खास मज़ा नहीं आता...चलो ग्रीन टी ही सोच लो..ना...होपलेस...हाँ इलायची वाली कॉफी...शायद वो अच्छी लगे. पर देखो न मौसम कितना अच्छा है...ठंढी हवाएं चल रही हैं अभी थोड़ी देर में बारिश होने लगेगी...और देखो न बिस्वजीत कितना अच्छा लग रहा है...डार्क कलर की शर्ट है...क्या लगता है? काली है कि नेवी ब्लू? देखो न माथे पर वो बदमाश सी लट...जब वो अपने बाल पीछे करता है मैं अनायास तुम्हारे बारे में सोचने लगती हूँ...तुम किसी दिन किसी और शहर में किसी नयी बालकनी में बारिश का इन्तेज़र करते हुए...अचानक मुझे याद करते हुए ऐसे ही लगोगे न? या शायद उससे ज्यादा खूबसूरत लगोगे...खूबसूरत...हद है ऊपर वाले की बेईमानी...लड़के के ऊपर इतना टाइम बर्बाद किया...तुम इतने अच्छे न भी दिखते तो भी तो मुझे इतने ही अच्छे लगते न रे.

पता नहीं कहाँ हो आज...क्या कर रहे हो...सुबह से रबिन्द्र संगीत सुन रही हूँ...तुम्हारी बड़ी याद आ रही है...रबिन्द्र संगीत सुनने से बचपन की यादें भी अपनी जगह मांगती है तो तुम्हारी याद थोड़ी कम तकलीफदेह हो जाती है. इसी चक्कर में ये विडियो दिखा यूट्यूब में...देखो न...सिंपल से साईकिल शॉप में है पर कितना अच्छा लग रहा है सब कुछ...तुम थे न लाइफ में तो ऐसे ही सब अच्छा लगता था...झूला याद है तुम्हें? घर की छत पर एक तरफ गुलमोहर और एक तरफ मालती के अनगिन फूल खिले थे...कितना सुन्दर लगता था न छत? पर सुनो...मेरे बेस्ट फ्रेंड तो रहोगे न? कि प्यार वगैरह तो फिर से किसी से हो जाएगा आई एम स्योर पर दोस्ती इतनी आसानी से तो नहीं होती है. तुम्हारे इतना अच्छा मुझे कोई नहीं लगता...मुझे इतनी अच्छी तरह से समझता भी तो कोई नहीं है.

तुम उदास एकदम अच्छे नहीं लगते...फॉर दैट मैटर...उदास तो मैं भी अच्छी नहीं लगती...तो एक काम करते हैं न...उदास होना किसी और जन्म के लिए मुल्तवी करते हैं...ओके? उस जन्म में एक दूसरे से शादी कर लेंगे और भर जिंदगी एक दूसरे को तबाह किये रहेंगे...खूब रुलायेंगे...मारा पीटी करेंगे...कैसा प्लान है? जाने दो न...मौसम उदास हो जाएगा मेरे शहर से तुम्हारे शहर तक. दो शहर एक साथ रोने लगें तो उन्हें चुप करने को दिल्ली के वो सारे खँडहर उठ कर चले आयेंगे जहाँ हमने साथ रबिन्द्र संगीत सुनते हुए कितने दिन बिताए हैं. एक काम करती हूँ न...प्लेस्लिस्ट बना के भेज देती हूँ तुम्हारे लिए...वही गाने सुनना...वरना गानों में तुम्हारा टेस्ट तो एकदम ही खराब है...और प्लीज अपनी वो दर्दीली गजलें मत सुनना...उन्हें सुनकर अच्छे खासे मूड का मूड खराब हो जाता है.

बहुत याद आ रही थी तुम्हारी...पर तुम्हें कहाँ चिट्ठी लिखूं तो मन भटका रही थी सुबह से गाने वाने सुन के...अब तकलीफ थोड़ी कम है...ये वाला गाना रिपीट पर चल भी रहा है...तुम भी सुनो...अच्छा लगे तो अच्छा...वरना तुम्हारे समर ऑफ सिक्सटी नाइन से भी दर्द कम होता है...बशर्ते उसकी बीट्स पर खूब सारा डांस कर लो. मेरी जान...ओ मेरी जान...तुम्हारे शहर का मौसम कैसा है? मेरी याद जैसा खूबसूरत क्या?

05 May, 2012

जवान जानेमन, हसीन दिलरुबा...

ई बैटमैन की हेयरस्टाइल है...कैसी है?
कल बहुत दिन बाद मैंने शोर्ट बाल कटाये...१०थ तक मेरे बाल हमेशा छोटे रहे थे पर उसके बाद लंबे बालों का शौक़ था तो कभी छोटे करवाए नहीं...पर होता है न, मन एकरसता से ऊब जाता है, उसमें मैं तो और किसी चीज़ पर टिकती ही नहीं...बहुत दिनों से सोच रही थी पर लंबे बाल इतने सुन्दर थे कि कटाने में मोह हो जाए, हर बार पार्लर सोच के जाऊं कि इस बार शोर्ट करवा लूंगी और ट्रिम करवा के लौट आऊँ. कल जेन को मेसेज किया कि कोई अच्छा पार्लर बताओ, उसने जो पता बताया वो गूगल मैप पर कहीं मिल ही नहीं रहा था...तो हम थक हार के अपने पुराने वाले पार्लर जाने ही वाले थे कि उसका मेसेज आया कि जाने के पहले फोन कर लेना हम एड्रेस समझा देंगे, एकदम सिंपल रास्ता है.

मैं 'कंट्रोल फ्रीक' की श्रेणी में आती हूँ...जब तक चीज़ें मेरे हाथ में हैं मैं खुश रहती हूँ...पर थोड़ा सा भी कुछ मेरे कंट्रोल से बाहर हुआ नहीं कि धुक धुकी शुरू...कार ड्राईव करने में यही होता है...किचन में कोई और खाना बनाये तो यही होता है...बेसिकली मुझे हर चीज़ में टांग अड़ानी होती है. डेंटिस्ट, ब्युटिशियन, कार वाश...ऐसी जगहों पर मेरी हालत खराब रहती है. सबसे डरावनी चीज़ होती है किसी ऊँची कुर्सी पर बिठा दिया जाना ये कहते हुए कि अब सब भूल जाओ बेटा और भगवान का नाम जपो.

तो हम बाल कटाने के लिए ऐसे ही तैयार होते हैं जैसे बकरा कटने के लिए...इन फैक्ट कल जेन फोन करके बोली भी कि 'रेडी फॉर द बुचर'...खैर. ले बिलैय्या लेल्ले पार के हिसाब से हम एक गहरी सांस लिए और बैठ गए कुर्सी पर. फैशन की ज्यादा समझ तो है नहीं हमें तो बस इतना कहा कि बाल छोटे कर दो...कंधे से ऊपर...उसने पूछा आगे की लट कितनी बड़ी चाहिए तो बता दिया कि कान के पीछे खोंसी जा सके इतनी बड़ी. बस. फिर चश्मा उतार कर वैसे भी हम अंधे ही हो जाते हैं...आईने में बस एक उजला चेहरा दिखता है और काले बाल. डीटेल तो कुछ दिखती नहीं है. फिजिक्स का कोई तो कोश्चन भी याद आया जिसमें आईने की ओर दौड़ते आदमी का स्पीड निकालना था उसके अक्स के करास्पोंडिंग या ऐसा ही कुछ पर ध्यान ये था कि आईने के इस तरफ जितनी दूरी होती है...आईने के उस तरफ भी इतनी ही दूरी होती है. तो मुझसे मेरा अक्स बहुत दूर था. यही फिलोस्फी रिश्तों पर भी अप्लाय होती है...बीच में एक आइना होता है...हम अपने ओर से जितनी दूरी बनाते हैं, सामने वाला भी उतनी ही दूर चला जाता है हमसे...हम पास आते हैं तो वो जिसे कि हम प्यार करते हैं...हमारा अक्स, वो भी एकदम पास आ जाता है.

कुर्सी पर बैठे बुझा तो रहा ही था कि बाबु घने लंबे बाल गए...छे छे इंच काट रही थी कैंची से...किचिर किच किच...हम बेचारे अंधे इंसान...सोच ये रहे थे कि कुणाल को बताये भी नहीं हैं...छोटे बाल देख कर कहीं दुखी न हो जाए...ब्युटिशियन हमारे बाल की खूब तारीफ़ भी किये जा रही थी कि कितने सुन्दर बाल हैं...हम फूल के कुप्पा भी हुए जा रहे थे. हालाँकि बैंगलोर के पानी में बालों की बुरी हालत हो गयी है फिर भी फैक्ट तो है...बाल हमारे हैं खूब सुन्दर...इसके साथ वो हमको बिहार की सुधरी स्थिति पर भी ज्ञान दे रही थी...पार्लर में लोग हिंदी में बात कर रहे थे...ब्युटिशियन हिंदी में बात कर रही थी...आइना में कुछ दिख नहीं रहा था...कुल मिला कर खुश रहने वाली जगह थी. हमको आजकल अक्सर लगने लगा है कि बिना चश्मे के चीज़ें ज्यादा सुन्दर दिखती हैं.

 हम तो कहते हैं, हमरी वाली बेटर है बैटमैन से :)
खैर...खुदा खुदा करके हेयरकट समाप्त हुआ और हमने चश्मा चिपकाया...आईने में छवि निहारी...वाकई उम्र  कम लग रही थी...एकदम जैसे कान्वेंट में लगते थे(दिल के बहलाने को...) वैसे ही छुटंकी लग रहे हैं ऐसा खुद को समझाया...फिर बाइक उठायी और निकल लिए जेन से मिलने...अरे इन्स्टैंट फीडबैक चाहिए था न कि कैसे लग रहे हैं...पति को तो जानते हैं...जब तक बोलेंगे नहीं, नोटिस भी नहीं करेगा कि बाल कटाये हैं. फ़िल्टर कॉफी टिकाई गयी...तारीफ भी की...कि बहुत कूल हेयरकट है और मैं बहुत यंग दिख रही हूँ. बस हम क्या हवा में उड़ने लगे तभी से.

उसे एक बच्चों की पार्टी के लिए गिफ्ट खरीदना था...तो हम एक टॉय शॉप गए, चार तल्लों की बड़ी सी दुकान जिसमें सिर्फ खिलोने. दो घंटे हम उधर ही अटक गए...एक ठो बैटमैन का बड़ा मस्त सा गुल्लक ख़रीदे...उसमें हम अब अपना पेन सब रखेंगे. घूम फिर के घर आये वापस. कुणाल, साकिब और अभिषेक दस बजे के आसपास घर लौट रहे थे फिर प्लान हुआ कि बाहर खाते हैं तो हम लोग 'खाजा चौक' पहुंचे. जैसा कि एक्सपेक्टेड था पतिदेव को खाने और मेनू से ऊपर बीवी की हेयरस्टाइल में कोई इंटरेस्ट नहीं दिखा...तो बताना पड़ा कि बाल कटाये हैं. कुछ स्पेशियल कोम्प्लिमेंट भी नहीं मिला...हम बहुत्ते दुखी हो जाते लेकिन तक तक एकदम लाजवाब पनीर टिक्का और भरवां तंदूरी मशरूम आ चुके थे...तो उदास होना मुल्तवी कर दिया.

आज छः बजे भोर के उठे हुए हैं...ऐवें मन किया तो पोस्ट चिपकाये देते हैं...वैसे भी वीकेंड में कौन ब्लॉग पढता है.

04 May, 2012

जे थूरे सो थॉर...बूझे?

ऊ नम्बरी बदमास है...लेकिन का कहें कि लईका हमको तो चाँद ही लागे है...उसका बदमासी भी चाँदवे जैसा घटता बढ़ता रहता है न...सो. कईहो तो ऐसा जरलाहा बात कहेगा कि आग लग जाएगा और हम हियां से धमकी देंगे कि बेट्टा कोई दिन न तुमको हम किरासन तेल डाल के झरका देंगे...चांय नैतन...ढेर होसियार बनते हो...उ चोट्टा खींस निपोरे हीं हीं करके हँसता रहेगा...उसको भी बहुत्ते मज़ा आता है हमको चिढ़ा के.

एक ठो दिन मन नै लगता है उसे बतकुच्चन किये बिना...उ भी जानता है कि हम कितना भी उ थेत्थर को गरिया लें उससे बतियाए बिना हमरा भी खानवे नै पचेगा. रोज का फेरा है...घड़ी बेरा कुबेरा तो देखे नहीं...ऑफिस से छुट्टी हुआ कि बस...गप्प देना सुरु...जाने कौन गप्प है जी खतमे नै होता है. कल हमरा मूड एकदम्मे खराब था...उसको बोले कि हम अब तुमसे बतियायेंगे नहीं कुछ दिन तक...मूड ठीक होने दो तब्बे फोनियायेंगे...लेकिन ऊ राड़ बूझे तब न...सेंटी मारेगा धर धर के और ऊपर उसका किस्सा सुनो बारिस और झील में लुढ़कल चाँद का...कोई दिमागे नै है कि कौन मूड में कौन बात किया जाता है...अपने राग सुनाएगा आप जितना बकझक कर लीजिए हियाँ से. कपार पे हाथ मारते हैं कि जाने कौन बेरा ई लड़का मिला था जो एतना माथा चढ़ाये रखे हैं...इतने दुलरुआ तो कोइय्यो नहीं है हमरा.

कल बतियावे से जादा गरियावे का मन करे...और उसपर छौड़ा का लच्छन एकदम लतखोर वाला कि मन करे कि कोई दिन न खुब्बे लतियायें तुमको...एकदम थूर दें...थूरना बूझते हो न बाबू? इधर ऊ पिक्चर देख के आये 'अवेंजर्स' तुमको तो अंग्रेजी बुझायेगा नहीं तो तुम जा के उसका हिंदी वाला देखना...देखना जरूर...काहे कि उसमें एक ठो नोर्स देवता है...'थॉर' उसके पास एक हथोड़ा होता है जिससे ऊ सबको थुचकते रहता है. हमको लगता है हो न हो ई जो भाईकिंग सब था कभी न कभियो बिहार आया होगा...यहाँ कोई न कोई थूरा होगा ऊ सबको धर के...तो ई जो थॉर नाम का देवता है न...असल में कोई बिहारी रहा होगा...जे थूरे सो थॉर...बूझे? देखो केतना बढ़िया थ्योरी है. त बूझे ना बाबू जो दिन हत्थे चढोगे न बहुत पिटोगे.

राते में ई सब प्रेम पतिया तोरे लिखने के मन रहे बाबू लेकिन का है कि सूत गए ढेर जल्दी...कल मने बौराये हमहूँ निकल गए थे न घर से बाहर...भर दुपरिया टउआते रहे थे, गोड़ दुखाने लगा, खाना उना खा के चित सूत गए सो अभी भोर में आँख खुला है. कल का डीलिंग दे रहे थे जी...अंग्रेजी में बात करो, काहे कि हमको अपने जैसन बूझते हो का...भागलपुरी नै आता है तो अंग्रेजीयो में पैदल रहेंगे का...बहुत बरस पहले सीरी अमिताभ बच्चन जी कहे गए हैं से हम भी कोट करे देते हैं...आई कैन वाक इंग्लिस, आई कैन लाफ इंग्लिस, आई कैन रन इंग्लिस...बिकोज इंग्लिस इज अ भेरी फन्नी लैंगुएज.'

बाबु दुनिया का सब सुख एक तरफ और एक बिहारी को बिहारी में गरियाने का सुख एक तरफ...का कहें जी कल तुमसे बतिया के मन एकदम्मे हराभरा हो गया...वैसा कि जैसा पवन का कार्टून देख के हो जाता है...एकदम मिजाज झनझना गया...सब ठो पुराना चीज़ याद आने लगा कि 'लटकले तो गेल्ले बेट्टा' से लेकर 'ले बिलैय्या लेल्ले पर' तक. गज़बे मूड होई गया तुमसे बतिया के...कि दू चार ठो और दोस्त सब को फोन करिये लें...खाली गरियाये खातिर...कि मन भर गाली उली दे के फोन धर दें कि बहुत्ते दिन से याद आ रहा था चोट्टा सब...ढेर बाबूसाहब बने बैठे हो...खुदे नीचे उतरोगे चने के झाड़ से कि हम उतारें? सब भूत भगैय्ये देते कि फिर दया आ गया...बोले चलो जाने देते हैं...चैन से जी रहा है बिचारा सब.


लेकिन ई बात तो मानना पड़ेगा बाबू...मर्द का कलेजा है तोहार...हमको एतना दिन से झेलने का कूव्वत बाबु...मान गए रे...छौड़ा चाहे जैसन चिरकुट दिखे...लड़का...एकदम...का कहें...हीरा है हीरा.

चलो...अब हमरा फेवरिट वाला कार्टून देखो...जिससे एकदम्मे फैन बन गए थे बोले तो पंखा बड़ा वाला कि एसी एकदम से पवन टून का...और बेसी दाँत मत चियारो...काम धंधा नहीं है तुमको...चलो फूटो!

03 May, 2012

सोचो...हम और तुम परपेंडिकुलर रेखाएं ही थे न?


कोम्पोजिशन...सबसे पहली चीज़ पढ़ाई जाती है फोटोग्राफी में. मुझे जिंदगी के बारे में भी पढ़ाना होता तो फोटोग्राफी के कम्पोजीशन से ही पॉइंटर्स उठाती. रूल ऑफ थर्ड्स कहता है कि कुछ भी एकदम बीच में मत रखो...इससे उसकी खूबसूरती घट जाती है...आँखों के भटकने देने को थोड़ी सी ब्रीदिंग स्पेस देनी चाहिए...मूल सब्जेक्ट के दायें, बाएं, ऊपर या नीचे...जहाँ भी तुम्हें सबसे अच्छा लगे...थोड़ी सी खाली जगह छोड़ दिया करो. कॉपी पर लिखते हुए भी हम हाशिया छोड़ते हैं...फिर रिश्तों में ये क्यूँकर चाह होने लगती है कि उसकी सारी जिंदगी मेरे इर्द गिर्द कटे? ईमानदारी से...ऐसा होना अप्राकृतिक है...किसी की जिंदगी का सेंटर होना चाहना ही नहीं चाहिए...बल्कि अगर जियोमेट्री में ही जाना है तो किसी की परिधि बनना बेहतर है...कि वो बाहर न जाने पाए...लौट लौट आये...हालाँकि ये भी बुरा लगता है सोच कर...शायद जियोमेट्री में कोई सही तुलना नहीं है रिश्तों की.

रूल ऑफ थर्ड्स...आँख को जितना दिखता है उससे चार रेखाएं गुज़रती हैं...दोनों पैरलल रेखाएं एक दूसरे के परपेंडिकुलर...सोचो...हम और तुम  परपेंडिकुलर रेखाएं ही थे न? कहीं सुदूर अंतरिक्ष में चलते हुए किसी एक बिंदु पर क्षण भर के लिए ही मिले और फिर अपने अलग अलग रस्ते...पर अलग रस्ते होने पर उस बिंदु की याद तो नहीं चली जाती...उस पॉइंट का होना तो नहीं चला जाता...यूँ तो ऐसे ही बिंदु पर एक्स एक्सिस, वाय एक्सिस और जेड एक्सिस मिलते हैं और हमारे संसार की रचना करते हैं...त्रिआयामी...तीनो प्लेन्स अपनी अपनी जगह होते हैं...पर एक बिंदु तो होता है जहाँ स्पेस-टाइम लाइन पर भी मिलना होता है- होना होता है.

मेरा शब्दों पर से विश्वास चला गया है...कुछ यूँ कि इधर बहुत दिनों से कुछ भी नहीं लिखा...न कॉपी पर, न कहीं ड्राफ्ट में, ना कहीं और...न दोस्तों से बातें की...ना कुछ पढ़ा...सब झूठ लगता है...सारी दुनिया फानी...पहले जब तकलीफ होती थी तो लिखने से थोड़ा आराम मिलता था...आजकल लिखने की इच्छा ही चली गयी है...एकदम बेज़ार...शब्द सारे दुश्मन नज़र आते हैं. परसों बुक लॉन्च था...अपनी लिखी किताब पहली बार हाथ में आई...अपना नाम देखा कवर पर...नाम में भी कोई अर्थ नहीं जान पड़ा. नोर्मल केस में सबको फोन करके बताती...खुश होती...दोस्तों को पार्टी देती. इस केस में...वीतराग...मन की ख़ामोशी सारी खुशियाँ लील जाती है.

जब पहली बार एसलआर कैमरे के व्यूफाईंडर से दुनिया देखी थी तो मन में आइडिया लगाना होता था कि इस रंगभरी दुनिया में कौन सा फ्रेम है जो ब्लैक एंड वाईट में अपनी खूबसूरती बरक़रार रखेगा. उस समय हमारे पास जो फिल्म थी वो ब्लैक एंड वाईट थी...तो इससे आदत हो गयी कि जब चाहूँ दुनिया को ग्रे के शेड्स में देख सकती हूँ...बहुत ज्यादा कंट्रास्टिंग चीज़ें पसंद आती हैं. गहरे शेड वाले लोग अच्छे लगते हैं कि धुलने के बाद उनकी फिल्म एकदम साफ़ आती है...पोजिटिव पर उभरते अक्स से आज भी प्यार होता है...पर निगेटिव को वालेट में जगह देती हूँ...दुनिया वाकई नेगेटिव जैसी ही है...जो जैसा दिखता है उसके उलट होता है...गुलमोहर सफ़ेद दिखते हैं और बारिशें काली.

सोच रही हूँ कुछ दिन फोटोग्राफी पर ध्यान दिया जाए...तसवीरें खामोश होती हैं...सबके पीछे एक कहानी होती है पर कहानी आपको खुद गढ़नी होती है...अब ऊपर की तस्वीर में ये कहाँ लिखा है कि ये कौन से तल्ले पर की आखिरी सीढ़ियाँ हैं और मन कहाँ से कूद कर जान दे देना चाहता था...मगर मन का मरना आसान है...उसे जिलाए रखना...मुश्किल. आज जैसा सर दर्द हो रहा है उसके लिए हिंदी में 'भीषण' और इंग्लिश में 'माइग्रेन' जैसा कोई शब्द होगा...मैंने अपने आप से परेशान हूँ कि मेरी चुप्पी भी शब्द मांगती है.

मैंने उसे अपने पाँव दिखाए...कि देखो मेरे पांवों में भँवरें हैं...मैं बहुत दूर देश तक घूमूंगी...उसने मेरे पांवों में बरगद के बीज रोप दिए...अब मैं जहाँ ठहरती हूँ मेरी जड़ें गहराने लगती हैं...जिस्म के हर हिस्से से जड़ें उगने लगती हैं...हर बार कहीं जाने में खुद को विलगाना होता है...तकलीफ होती है...मुझे सफ़र करना अच्छा लगता था मगर अब मेरा मन घर मांगने लगा है...एक ऐसी चीज़ जो मेरी नियति में नहीं लिखी है...हाथ की लकीरों में शरणार्थी लिखा है...विस्थापित होना लिखा है...भटकाव है...बंजारामिजाजी है...मन घर में बसता नहीं...और जिस्म की दीवारें उठ जाती हैं सरायखाना बनाने को. एक तार पर मन गाने लगा है, कैसा कच्चा गीत...मैं उलझन में हूँ...जानती भी हूँ कि मैं क्या चाहती हूँ!

02 May, 2012

गुरुदत्त- चिट्ठियों के झरोखे से

गुरुदत्त की चिट्ठियों की किताब...Yours Guru Dutt, Intimate letters of a great Indian film maker by Nasreen Munni Kabir...से उनकी एक चिट्ठी का कच्चा-पक्का अनुवाद कर रही हूँ. मैंने कभी भी अनुवाद नहीं किया है इसलिए सुधार की गुंजाईश होगी. 

गुरुदत्त की इस किताब में कुल ३७ चिट्ठियां हैं जो उन्होंने गीता दत्त और अपने बेटों तरुण और अरुण को लिखी हैं. गीता दत्त की जवाबी चिट्ठियां बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिलीं हैं. गुरुदत्त चिट्ठियां पढ़ने के बाद उन्हें नष्ट कर देते थे. (ऐसा एक जगह जिक्र आया है). 

इन सारी चिट्ठियों में प्रमुखतः तीन बातें स्पष्ट होती हैं...पहली गीता दत्त के प्रति उनका अगाध प्रेम...उन्होंने हर खत में बार बार इस बात का जिक्र किया है कि वो गीता से कितना प्यार करते हैं. दूसरी...उनके काम को लेकर उनकी दीवानगी...और तीसरी एक विरक्त भाव...एक अमिट प्यास...एक तलाश, एक बेचैन खोज. 

 २१ अगस्त १९५१ को गीता को लिखी एक चिट्ठी में वो कहते हैं...'मुझे सिर्फ दो चीज़ें प्यारी हैं, एक मेरा काम और दूसरी तुम. लेकिन काम करने में जो तसल्ली मिलती है वो तसल्ली तुम मुझे नहीं दे रही हो. बस इसलिए शायद मैं शायद(sic) unhappy हूँ.' 

गुरुदत्त की चिट्ठियों में कई बार इस बात का भी जिक्र आता है कि जब मैं नहीं रहूँगा तब शायद तुम्हें अहसास हो कि मैं तुमसे कितना प्यार करता था. जुलाई १९५८ को कलकत्ता से लिखी एक चिट्ठी में वो कहते हैं...
'जब मैं पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरी जिंदगी में सब कुछ वक्त से पहले हुआ. जिंदगी में मेरी शुरुआत पहले हुयी...नौकरी...काम करना जल्दी शुरू किया...पहली फिल्म काफी जल्दी बनायी...और कामियाबी भी जल्दी हासिल हुयी...पर मुझे लगता है...मैं बूढा हो रहा हूँ. मैंने जिंदगी में इतना कुछ देखा है...मुझे लगता है बहुत कम सालों में ही मैं बूढा हो गया हूँ! मुझे नहीं मालूम...
और क्या लिखूं...मैं जल्द से जल्द आने की कोशिश करूँगा पर बेहतर होगा कि मैं पहले अपना काम खत्म कर लूं. 
डार्लिंग, जो भी हो, हमेशा याद रखना कि तुम मेरा हिस्सा हो और हमेशा मेरा हिस्सा रहोगी. शायद तुम नहीं जानती कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ. शायद तुम जान नहीं पाओगी कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ. शायद- जब मैं नहीं रहूँगा- तब तुम जान पाओगी. '

खतों में छोटी छोटी काम की चीज़ें लिखी हैं...उनके शहरों के ब्योरे हैं...गीता और बच्चों को बार बार मिस करने की बातें हैं और अनगिन चीज़ों के बीच उनकी अपनी परेशानियां लिखी हैं. इन चिट्ठियों को पढ़ना उन्हें बिना किसी परदे के जानना है...

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मुझे लगता है तुम अभी से मुझसे ऊब गयी हो. मैं तुम्हें क्या दे सकता हूँ- मेरे पास कुछ भी नहीं है. तुम एक ऐसे विचित्र मूर्ख से प्यार करती हो जो ख्वाबों की दुनिया में रहता है- और कभी कभी उसे ख्वाब और वास्तविकता के बीच का अंतर ज्ञात नहीं रहता. और एक दिन तुम मुझसे इस कदर परेशान हो जाओगी कि बेहतर होगा कि तुम मुझसे फिर कभी न मिलो. 

मैं कभी कभी सोचता हूँ कि अच्छा होता अगर मैं पैदा नहीं हुआ होता या फिर मैं सोचता हूँ कि काश मैं मर गया होता या कि मैं वो नहीं होता जो मैं हूँ और मैं नहीं जानता तुम्हें. जिंदगी एक मूर्खतापूर्ण जद्दोजहद है- इसके अंत में भी शांति नहीं मिलती. मैं तुम्हें चाहता हूँ- तुम मुझे नहीं मिलती. तुम मिलती हो तब भी मुझे खुशी नहीं मिलती. मैं एक पागल की तरह उस सुकून की तलाश में दर ब दर भटकता रहता हूँ जो मुझे कहीं नहीं मिलता. मुझे लगता है मेरे जैसे इंसान का मर जाना ही बेहतर है. कुछ यूँ मर जाऊं कि फिर कभी इस मानसिक स्थिति के साथ पैदा न होना पड़े.
तुम सब लोग मुझसे बिलकुल अलग हो. मुझे तुम लोगों की तरह आसानी से खुशियाँ नहीं मिलतीं. इसके अतिरिक्त. तुम सब अच्छे हो. मेरे लिए ऐसा कुछ भी नहीं बचा है जो मुझे बाँध सके.

तुम इसे पढ़ कर शायद मेरे मानसिक संतुलन पर और भी ज्यादा शक करोगी.

अगर तुम्हें वक्त मिले तो अपने इस पागल प्रेमी को आकर देख लो. काश कि तुम्हें किसी बेहतर व्यक्ति से प्यार हुआ होता जो तुम्हारे लायक होता. काश कि मैं जैसा हूँ उससे बेहतर इंसान हो सकता. मैं किसी के काम का नहीं हूँ. न मैं तुम्हें खुश रख सकता हूँ, न अपने परिवार को, न अपने दोस्तों को...ऐसा जीवन का कोई फायदा नहीं है.

मैं वास्तव में बेहद थका और बेज़ार हूँ. तुम्हारे होने से कभी कभी मुझे शांति मिलती है मगर तुम्हारे भी बहुत सारे कर्त्तव्य और बाध्यताएं हैं और तुम मुझसे ज्यादा काबिल हो. अगर तुम्हारी इच्छा हो और तुम मुझे देखना चाहो तो प्लीज मुझे बताना.
G

(चिट्ठियों को पढ़ने के लिए कृपया तस्वीर पर क्लिक करें. गुरुदत्त पर एक और पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं)

25 April, 2012

लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

मैं ऐसी ही किसी शाम मर जाना चाहती हूँ...मैं दर्द में छटपटाते हुए जाना नहीं चाहती...कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जाना चाहती.

उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.

ये शहर बहुत तनहा कर देने वाला है...यहाँ आसमान से भी तन्हाई ही बरसती है. आज दोपहर बरसातें हुयीं...किताब पढ़ रही थी और अचानक देखा कि बादल घिर आये हैं...थोड़ी देर में बारिश होने लगी...अब एक तरफ मिस्टर सिन्हा और उनके सिगार से निकलता धुआं था...दुनिया को नकार देने के किस्से थे...बेजान किताबें थीं और एक तरफ जिंदगी आसमान से बरस रही थी जैसे किसी ने कहा हो...मेरी जान तुम्हें बांहों में भर कर चूम लेने को जी चाहता है. मैंने हमेशा जिंदगी को किताबों से ऊपर चुना हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता...तो बहुत देर तक बालकनी से बारिशें देखती रही...फिर बर्दाश्त नहीं हुआ...शैम्पू करके गीले बालों में ही घूमने निकल गयी...एक मनपसंद चेक शर्ट खरीदी है अभी परसों...फिरोजी और सफ़ेद के चेक हैं...थोड़ी ओवरसाइज जैसे कोलेज के टाइम पापा की टीशर्ट होती थी. 

मेरी आँखों में मायनस दो पावर है पिछले दो सालों से लगभग...उसके पहले बहुत कम थी तो बिना चश्मे के सब साफ़ दिखता था. आजकल आदत भी हो गयी है बिना चश्मे के कभी नहीं रहने की...कुछ धुंधला फिर से किताब का याद आता है...गुरुदत्त को चश्मे के बिना कुछ दिखता नहीं था और एक्टिंग में आँखों का सबसे महत्वपूर्ण रोल है ऐसा वो मानते थे...हालाँकि ये बात उन्होंने कहीं सीखी नहीं...पर जीनियस ऐसे ही होते हैं. आज जब कोलनी में टहल रही थी तो चश्मा उतार दिया...ताकि बरसती बूँदें सीधे चेहरे और आँखों पर गिर सकें...आसमान को देखते हुए पहली बार ध्यान गया कि बिना चश्मे के चीज़ों का एकदम अलग संसार खुलता है...किसी गीली पेंटिंग सा...किसी कैनवास सा...खास तौर से बारिश के बाद. पेड़ों की कैनोपी...गुलमोहर के लाल फूल...सब आपस में ऐसे गुंथे थे जैसे मेरी यादों में कुछ नाम...कुछ लोग...और दुनिया जब साफ़ नहीं दिखती ज्यादा खूबसूरत दिखती है...थोड़ी सब्जेक्टिव भी हो जाती है...बहुत कुछ अंदाज़ लगाना पड़ता है...सामने से आती कार या बाइक में बैठे इंसान मुझे देख कर अगर हंस रहे थे तो मुझे दिखता नहीं. कभी कोई फिल्म बनाउंगी तो इस चीज़ को जरूर इस्तेमाल करूंगी...ये बेहद खूबसूरत था. 

बारिशें होती हैं तो कुछ लोगों की बहुत याद आती है और ये शहर एक बंद कमरा होने लगता है जिसमें बहुत सीलन है...और गीले खतों से सियाही बह चुकी है. मैं नए ख़त लिखने से डरती हूँ कि जब उदास होती हूँ ख़त नहीं लिखूंगी ऐसा वादा किया है खुद से. तन्हाई हमारे अन्दर ही खिलती है...और मैं यकीं नहीं कर पाती हूँ कि कितनी जल्दी सब अच्छा होता है और अचानक से जिंदगी एकदम बेज़ार सी लगने लगती है. 

ऐसे मूड में गुरुदत्त पर कुछ लिखूंगी तो सब्जेक्ट के साथ बेईमानी हो जायेगी इसलिए वो पोस्ट लिखना कल तक के लिए मुल्तवी करती हूँ...ऐसा सोच रही हूँ और रोकिंग चेयर पर झूलते हुए गाने सुन रही हूँ. आज एक दोस्त ने कहा उसे मेरी बहुत याद आ रही है...मुझे अच्छा लगा है कि किसी को मेरी याद आई है.

आज किसी से फोन करके दो तीन घंटे बात करने का बहुत मन कर रहा था...पूरी कोंटेक्ट लिस्ट स्क्रोल करके देख ली...हिम्मत न हुयी कि किसी से जिंदगी के तीन घंटे मांग लूं...मेरा क्या हक बनता है...ऐसा ही कुछ उलूल जुलूल खुद को समझाती हूँ...बालकनी से आसमान देखती हूँ...अनुपम की याद आती है...promise me you will never say that writing is a curse to you. वादा तो निभाना है. 

ऐसी किसी सुबह उठूँ...थोड़े से दर्द के साथ...कुछ दोस्तों से बात करने को दिल चाहे और फोन न कर पाऊं...बार बार फोन स्क्रोल करूँ...सोचूँ...कि कितना सही होगा खुद के लिए दो तीन घंटे का वक्त मांग लेना किसी की जिंदगी से...सोचूँ कि किसपर हक बनता है...फिर हज़ार बारी सोचूँ और आखिर फोन ना करूँ किसी को..चल जाने दे ना...रात को पोडकास्ट बना लेंगे. 

कल हमारे साहिबे आलम दिल्ली तशरीफ़ ले जा रहे हैं...जल्दी का प्रोग्राम बना है...हम यहाँ मर के रह गए दिल्ली जाने के लिए...पर कुछ मजबूरियां हैं...शाम से उदास हूँ जबसे खबर मिली है. अब कल गुरुदत्त को ही आवाज़ दूँगी...पुरानी चिट्ठियां पढूंगी...दर्द को दर्द ही समझता है...ओह...काश कि थोड़ा सुकून रहे...थोड़ा सा बस...काश!

24 April, 2012

गुरुदत्त को जानना एक अदम्य, अतृप्त प्यास से पूरा भर जाना है

अवचेतन मन बहुत आश्चर्यजनक होता है...नोस्टाल्जिया की परतों में गहरा गोता लगा कर कौन सी तस्वीर सामने खींच ले आएगा हम नहीं जानते...आश्चर्य होता है कि गुरुदत्त की पहली याद प्यासा के क्लाइमैक्स की है...किसी दिन दूरदर्शन पर आ रहा होगा...ब्लैक एंड वाईट छोटे से टीवी पर. 

फिर गुरुदत्त से गाहे बगाहे टकराती रही...उनके फिल्माए गीत टीवी पर खूब प्ले हुए हैं...प्यासा और कागज़ के फूल जितनी बार टीवी पर आये घर में देखे गए...तो कहीं न कहीं गुरुदत्त बचपन से मन में पैठ बनाते गए थे. कोलेज में फिल्म स्टडी के पेपर में गुरुदत्त हममें से अधिकतर के बेहद पसंदीदा थे...प्यासा और कागज़ के फूल जुबानी याद थीं...कैमरा एंगिल के डीटेल्स के साथ कि श्वेत-श्याम में प्रकाश और छाया का प्रयोग अद्भुत था. मुझे अच्छी सिनेमैटोग्राफी वाली फिल्में वैसी भी बहुत पसंद रही हैं. 

मेरा मानना है कि कला व्यक्तिपरक(subjective) होती है...क्लासिक फिल्मों में भी कुछ बेहद पसंद आती हैं...कुछ एकदम साधारण लगती हैं और समझ नहीं आता है कि दुनिया क्यूँ पागल है इस फिल्म के पीछे. फिल्म या किताब हमें वो पसंद आती है जिसमें कहीं न कहीं कुछ ऐसा मिल जाता है जो हमारे जीवन से जुड़ा होता है...कहीं न कहीं एक कांच का टूटा हुआ टुकड़ा जिसमें हम अपना एक टूटा सा ही सही अक्स देख लेते हैं. ऐसा मुझे लगता है...लोगों की अलग राय हो सकती है. 

फिल्मों पर हमेशा से इंग्लिश में लिखने की आदत कोलेज के कारण रही है... एक्जाम... पेपर... डिस्कसन... सब इंग्लिश में  होता था इसलिए बहुत सी शब्दावली वहीं की है...मगर ध्यान रखने की कोशिश करूंगी कि टेक्नीकल  जार्गन ज्यादा न हो. इधर इत्तिफाक से गुरुदत्त पर कुछ बेहतरीन किताबें मिल गयीं और फिर एक डॉक्युमेंट्री भी मिली, सब कुछ पढ़ते और देखते हुए एक सवाल बार बार कौंधता रहा कि हिंदी फिल्मों पर इतना कुछ इंग्लिश में क्यूँ लिखा गया है. किताब पढ़ कर मेंटली अनुवाद करती रही कि ये कहा गया होगा. आधी चीज़ों का जायका नहीं आता अगर अलग भाषा में लिखा गया है. डॉक्युमेंट्री भी आधी हिंदी आधी इंग्लिश में है...मैं कभी कुछ ऐसा करूंगी तो हिंदी में ही करूंगी. 

पहले रिसर्च डेटा की डिटेल्स: 
1. Yours Guru Dutt- Intimate letters of a great Indian filmmaker(गुरुदत्त के लिखे हुए ३७ ख़त, गीता दत्त और उनके बेटों तरुण और अरुण के नाम.)
2. Guru Dutt - A life in cinema (डॉक्युमेंट्री के सिलसिले में की गयी रिसर्च, कुछ अच्छी तसवीरें और लगभग डॉक्युमेंट्री के डायलोग)
3. In search of Guru Dutt/गुरुदत्त के नाम  (Documentary)
डॉक्युमेंट्री और किताब दोनों नसरीन मुन्नी कबीर की हैं...गुरुदत्त की चिट्ठियों का संकलन भी उन्हीं ने प्रस्तुत किया है. 
4. Ten years with Guru Dutt - Abrar Alvi's journey 
      - by Satya Saran (ये किताब कहीं बेहतर हो सकती थी...मुझे खास नहीं लगी पर कुछ घटनाएं अच्छी हैं जिनके माध्यम से गुरुदत्त की थोट प्रोसेस के बारे में जाने का अवसर मिलता है)

मुझे ये जानना है कि २५ से ३९ साल के अरसे में क्या कुछ सोचा होगा गुरुदत्त ने कि उसकी फिल्में अधिकतर ऑटोबायोग्राफिकल होती थीं...अगर जानना है कि एक आर्टिस्ट का मन कैसा होता है तो गुरुदत्त की फिल्में देखना और उसके बारे में जानना सबसे आसान रास्ता है. डॉक्युमेंट्री अच्छी बनी है...लोगों के इंटरव्यू बहुत कुछ कहते हैं मगर फिर भी बहुत कुछ बाकी रह जाता है...खुद के समझने और खोलने के लिए. 

गुरुदत्त- १४ महीने की उम्र में
गुरुदत्त का जन्म बैंगलोर में हुआ था...उनकी माँ वसंती पादुकोण  कहती हैं...' बचपन से गुरुदत्त बहुत नटखट और जिद्दी था...प्रश्न पूछना उसका स्वाभाव था...कभी कभी उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए मैं पागल हो जाती थी, किसी की बात नहीं मानता था...अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वो मानता था...और गुस्से वाला बहुत था...इम्पल्सिव था, मन में आया तो करेगा ही...जरूर.' 

डॉक्युमेंट्री में बस इतना ही हिस्सा है उनके बारे में...मैं सोचती रह जाती हूँ कि फिल्म मेकर ने कितना एडिट किया होगा जो सिर्फ इतना सा उभर कर आया है...फिर छोटे से गुरुदत्त के बारे में सोचती हूँ...अनगिन सवाल पूछते हुए, बहुत सारी इन्फोर्मेशन मन के कोष्ठकों में कहीं कहीं सकेरते हुए कि उनकी जिंदगी में शायद ऐसा कुछ भी नहीं बीतता था जो उनके नज़र में न आये. किताब में पढ़ते हुए कुछ प्रसंग ऐसे ही दिखते है जो पूरे के पूरे फिल्म में परिवर्तित हो गए. 

गुरुदत्त फिल्म टुकड़े टुकड़े में बनाते थे...फिल्म समय की लीनियर गति से नहीं चलती थी...जहाँ जो पसंद आया उस सीन को फिल्मा लिया गया. गुरुदत्त अनगिनत रिटेक देते थे और सीन को तब तक शूट करते थे जब तक वो खुद और फिल्म के बाकी आर्टिस्ट संतुष्ट न हो जाएं. अबरार अल्वी किताब में कहते हैं कि वो जितनी फुटेज में एक फिल्म बनाते थे उतने में तीन फिल्में बन सकती थीं. गुरुदत्त की फिल्मों की शूटिंग जिंदगी की तरह चलती थी...जैसे जैसे आगे बढ़ती थी किरदार डेवलप होते जाते थे. गुरुदत्त की फिल्म यूनिट में लगभग स्थायी सदस्य होते थे...अबरार अल्वी और राज खोसला के साथ रोज  फिल्म की शूटिंग के बाद ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन होते थे जिसमें रशेस देखे जाते थे और आगे की फिल्म का खाका तय किया जाता था. 

एक मजेदार वाकया है...वहीदा रहमान सुनाती हैं...'वो एक दिन शेव कर रहे थे और मूर्ति साहब के साथ शोट का डिस्कस कर रहे थे...तो हम लोग सब हॉल में बैठे हुए थे तो अचानक आवाज़ आई...उन्होंने इत्ती जोर से अपना रेज़र फेंका और बोले अरे क्या करते हो यार मूर्ति...तुमने बर्बाद कर दिया मुझे...तो मूर्ति साहब एकदम परेशान...मैंने क्या किया...हम तो शोट डिस्कस कर रहे थे...नहीं यार तुमसे शोट डिस्कस करते करते मैं अपनी एक तरफ की मूंछ काट दी, उड़ा दी...तो हम किसी से रहा नहीं गया तो हम हँस पड़े नैचुरली...जोर जोर से...कि तुम लोग हँस रहे हो...आज रात को शूटिंग है मैं क्या करूं...तो फिर मूर्ति साहब ने कहा...गलती आपकी थी, मेरी तो थी नहीं...फिर भी आप मुझे क्यूँ डांट रहे हैं...आप इस तरह कीजिये, दूसरी तरफ की भी मूंछ शेव कर डालिये फिर नयी नकली मूंछ लगानी पड़ेगी आपको...तो जब वो शोट के बारे में खास कर सोच रहे हों तब...बातें कर रहे हों तो सब कुछ भूल जाते थे'. 

आप प्यासा जैसी फिल्म देख कर बिलकुल अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि ये फिल्म बिना किसी फाइनल स्क्रिप्ट की बनी थी...उसमें सब कुछ परफेक्ट है...सारे किरदार जैसे जिंदगी से उठ कर आये हैं. मुझे लगता है फिल्मों में किरदारों की आपसी  केमिस्ट्री इसी बिना स्क्रिप्ट के फिल्म बनने के कारण थी...अभिनेता फिल्म करते हुए वो किरदार हो जाते थे, वैसा सोचने लगते थे, वैसा जीने लगते थे...इसलिए फिल्म में कहीं कोई रूकावट...कोई खटका नहीं होता है. बेहतरीन निर्देशक वही होता है जो सारे अनगिनत रशेस में भी वो दूरदर्शिता रखता है...जिसे पूरी फिल्म मन में बनी दिखती है और उसी परफेक्शन की तलाश में वो अनगिनत रास्तों पर चलता है जब तक कि पूरी सही तस्वीर परदे पर न उतर जाए.

गुरुदत्त पर लिखना बहुत मुश्किल है...पोस्ट भी लम्बी होती जा रही है. अगली पोस्ट में फिर गिरहें खोलने की कोशिश करूंगी कि अद्भुत सिनेमा के रचयिता गुरुदत्त कैसे थे...क्या सोचते थे...कैसी चीज़ें पसंद थीं उन्हें. अगली पोस्ट उनके निजी खतों पर लिखूंगी जो उन्होंने गीता दत्त को और अपने बेटों तरुण और अरुण को लिखीं थीं. 

22 April, 2012

पैबंद के टुकड़े...

उसे मालूम नहीं है कि हम आखिरी बार मिल रहे हैं...

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लड़की आज वक़्त लेकर तैयार हुयी है...उसने आज अपनी पसंद के कपड़े पहने हैं...चिकन का काम किया हुआ ब्लैक  फुल स्लीव कुरता जिसकी आस्तीनें उसने बेपरवाही से ऊपर चढ़ा दी हैं...स्काईब्लू जींस. दायें हाथ में घड़ी और बायें हाथ में कांच का एक कड़ा जिसके रंग उसे बेहद पसंद हैं...कानों में सीपियों की बालियाँ...पत्तियों के आकार कीं. ब्लैक उसका फेवरिट कलर रहा है हमेशा से. उसके गोरे रंग पर काले कपड़े फबते भी थे बहुत ज्यादा...उसकी आँखें और ज्यादा काली और गहरी लगती थीं...किसी जादूगरनी सी.
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'पर तुम जाओगी कहाँ?'
जिंदगी सवाल करती है...मैं उसे बताना चाहती हूँ कि मैं उससे दूर भागना चाहती हूँ इसलिए उसे बता कर नहीं जा सकती...लहरें हमेशा समंदर की ओर लौटती हैं...मैं भी शायद...कहीं लौट जाना चाहूं...शायद अतीत के किसी क्षण में.
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'तुम्हें पहले जाना होगा...आई एम होपलेस एट गुडबाय्स'
'मतलब?'
'मुझे विदा करना नहीं आता...मैं अगर पहले जाती हूँ तो लौट लौट आती हूँ...उस लम्हा...उस लम्हे के बाद के काफी लम्हे...इसलिए तुम्हें पहले जाना होगा...मैं इसी जगह खड़ी तुम्हें देखती रहूंगी...और जब तुम वापस नहीं आओगे तो यकीन कर लूंगी कि तुम वापस आने के लिए नहीं गए थे'.
'तुम मज़ाक कर रही हो'
'आई एम सीरियस...आज इतने सालों में पहली बार तुम्हारा ध्यान गया है...याद करोगे तो याद आएगा कि मैं फोन तक नहीं काटती थी कभी.'
'अब...कहाँ जाना है...कब आओगी वापस...कुछ तो बताओ'
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बेस्ट फ्रेंड होने की अपनी तकलीफें हैं...कई बार तो लगता है कि सिर्फ रिसीवर है...फोन में माइक है ही नहीं...उसकी सारी बातें सुन सकता है...अपनी बातें समझाने की कोशिश कर सकता है पर जिद्दी लड़की करेगी एकदम अपने मन का ही...और उसे रोकने का कोई अधिकार नहीं है.
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It's strange how people sense the absolute power when it comes to people they love...coupled with their incessant capacity to hurt they so effortlessly can create a havoc in someone's life.
I wonder if I fall in love only to discover my vulnerability...my fragile sense of completeness. I am the last corner piece in his Jigsaw puzzle...it's anyway beautiful...while he becomes the key centre piece without whom I can't even think of putting the picture together...
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मैं ना रहूँ...यहाँ या कहीं और भी तो तुम्हें मेरी याद आएगी?
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