चलो, कमसे कम मौसम तो अच्छा हुआ. अच्छा भी क्या ख़ाक हुआ, मूड का पागल हिसाब है. आज देर रात से बहुत बारिश हो रही है और हवाएं तो ऐसे चल रही हैं की जैसे घने जंगलों में रह रही हूँ कहीं. बारिश अच्छी लग रही है, बेहद अच्छी. जैसे बचपन की सखी हो, राजदार, सरमायेदार.
पिछले कुछ दिनों से मौसम अजीब सा हो रखा था, न धूप निकलती थी, न बारिश होती थी...बस जैसे इंतज़ार में रखा हो मौसम ने भी. स्टैंडबाय मोड पर...कि पहले मैं अपना मूड सेट करूँ...उसके हिसाब से मौसम आयेंगे. जैसे जैसे चेहरे पर मुस्कान आती गयी, मौसम भी दरियादिल होते गया...पहले तो मेरी सबसे पसंदीदा, फुहारों वाली बारिश...कि जैसे कह रहा हो, कहाँ थी मेरी जान, मैंने भी तुम्हारी मुस्कराहट को बड़ा मिस किया...और मैं शैतान मौसम से ठिठोली कर रही हूँ, झगड़ा कर रही हूँ कि तुम्हें कौन सी मेरी पड़ी थी, तुम तो खाली अपना सोचते हो, तुमको हमसे क्या मतलब...और ये मस्का भी पक्का कोई कारण से लगा रहे हो, सच्ची सच्ची बताओ क्या काम है मुझसे, कहाँ सिफारिश लगवा रहे हो मुझसे.
फ़िल्मी होना कोई हमसे सीखे, या फिर बंगलौर के मौसम से. तो जब मौसम ने देख लिया की हलकी बारिश से मेरा मूड ख़राब नहीं हो रहा, तब फुल फॉर्म में आ गया...और क्या जोरदार बारिश हुयी कि सब धुल गया. जैसे कंठ से पहला स्वर फूटा हो, शब्द पकड़ने लगी फिर से. हवाओं में श्लोक गूंजने लगे, अगरबत्ती में श्रुतियां महकने लगीं...कुछ आदिम गीत के बोल आँख की कोर में बस गए. तुम्हारे नाम का पैरेलल ट्रैक थोड़ा लाइन पर आया तो दुर्घटना की सम्भावना घटी. कोहरे वाले मौसम में तुम्हारे हाथ याद आये.
छप छप करती बारिश में लौट रही हूँ तो कुछ शब्द गीले बालों से टपक रहे हैं...कुछ शब्द गा रही हूँ तो हवाएं लिए भाग रही है...अंजुली बांधती हूँ तो तुम्हारा नाम खुलता है उसमें...कैसी तो लकीरें मिलती जा रही हैं तुम्हारी हथेली से...सब बारिश का किया धरा है, इसमें मेरा कोई दोष नहीं. कल को जो चाह कर भी मेरी जिंदगी से दूर जाना चाहोगे न तो बारिश जाने नहीं देगी, देख लेना. कुछ चीज़ें अभी भी तुमसे जिद करके बातें मनवाना जानती हैं. तुमने जाने कब आखिरी बार बारिश देखी थी...तुम्हें याद है?
चलो मेरे शहर का मौसम जाने दो...दिल्ली में कोहरा पड़ने लगा न...एक काम करो, थोड़ा सा लिफाफे में भर कर मुझे कूरियर कर दो...न ना, साधारण डाक से मत भेजना, आते आते सारा कोहरा बह जाएगा लिफ़ाफ़े से...और फिर लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां भी सील जायेंगी. सबसे फास्ट वाले कूरियर वाले को पकड़ना...मैं वो थोड़ा सा कोहरा अपनी आँखों में भर लूंगी...फिर शायद मुद्दतों बाद मुझे सपनों वाली नींद आएगी...नींद में सफ़ेद बादलों का देश भी होगा...और एक डाकिया होगा जो तुम तक मेरी बारिशें पहुंचाता है.
सुबह के इस पहर सब खामोश है, शहर अभी सोया हुआ है...सब के जागने में अभी थोड़ा वक़्त बाकी है. कहते हैं इस पहर में हर दर्द शांत हो जाता है...सभी को नींद आ जाती है. फिर बताओ भला, मैं क्यूँ दुनिया से अलग जागी हुयी हूँ? मुझे कोई दर्द नहीं है इसलिए? रात सोयी नहीं और अब इतनी देर हो गयी है तो सोच रही हूँ, सूरज का स्वागत कर ही लूं...कितना तो वक़्त हुआ उसे आते नहीं देखा...हमेशा जाते देखती हूँ. तुम्हारी तरह...तुम कब चले आये जिंदगी में पता ही नहीं चला.

भोर की पहली आवाजों के साथ जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल ज़ेहन में तैर जाती है...एक पंक्ति चमकती है...जैसे छठ पर्व में सूरज की पहली किरण उतरी हो और उसे अर्घ्य दे रही हूँ.
'तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है...'
पिछले कुछ दिनों से मौसम अजीब सा हो रखा था, न धूप निकलती थी, न बारिश होती थी...बस जैसे इंतज़ार में रखा हो मौसम ने भी. स्टैंडबाय मोड पर...कि पहले मैं अपना मूड सेट करूँ...उसके हिसाब से मौसम आयेंगे. जैसे जैसे चेहरे पर मुस्कान आती गयी, मौसम भी दरियादिल होते गया...पहले तो मेरी सबसे पसंदीदा, फुहारों वाली बारिश...कि जैसे कह रहा हो, कहाँ थी मेरी जान, मैंने भी तुम्हारी मुस्कराहट को बड़ा मिस किया...और मैं शैतान मौसम से ठिठोली कर रही हूँ, झगड़ा कर रही हूँ कि तुम्हें कौन सी मेरी पड़ी थी, तुम तो खाली अपना सोचते हो, तुमको हमसे क्या मतलब...और ये मस्का भी पक्का कोई कारण से लगा रहे हो, सच्ची सच्ची बताओ क्या काम है मुझसे, कहाँ सिफारिश लगवा रहे हो मुझसे.
फ़िल्मी होना कोई हमसे सीखे, या फिर बंगलौर के मौसम से. तो जब मौसम ने देख लिया की हलकी बारिश से मेरा मूड ख़राब नहीं हो रहा, तब फुल फॉर्म में आ गया...और क्या जोरदार बारिश हुयी कि सब धुल गया. जैसे कंठ से पहला स्वर फूटा हो, शब्द पकड़ने लगी फिर से. हवाओं में श्लोक गूंजने लगे, अगरबत्ती में श्रुतियां महकने लगीं...कुछ आदिम गीत के बोल आँख की कोर में बस गए. तुम्हारे नाम का पैरेलल ट्रैक थोड़ा लाइन पर आया तो दुर्घटना की सम्भावना घटी. कोहरे वाले मौसम में तुम्हारे हाथ याद आये.
छप छप करती बारिश में लौट रही हूँ तो कुछ शब्द गीले बालों से टपक रहे हैं...कुछ शब्द गा रही हूँ तो हवाएं लिए भाग रही है...अंजुली बांधती हूँ तो तुम्हारा नाम खुलता है उसमें...कैसी तो लकीरें मिलती जा रही हैं तुम्हारी हथेली से...सब बारिश का किया धरा है, इसमें मेरा कोई दोष नहीं. कल को जो चाह कर भी मेरी जिंदगी से दूर जाना चाहोगे न तो बारिश जाने नहीं देगी, देख लेना. कुछ चीज़ें अभी भी तुमसे जिद करके बातें मनवाना जानती हैं. तुमने जाने कब आखिरी बार बारिश देखी थी...तुम्हें याद है?
चलो मेरे शहर का मौसम जाने दो...दिल्ली में कोहरा पड़ने लगा न...एक काम करो, थोड़ा सा लिफाफे में भर कर मुझे कूरियर कर दो...न ना, साधारण डाक से मत भेजना, आते आते सारा कोहरा बह जाएगा लिफ़ाफ़े से...और फिर लाल डब्बे की बाकी चिट्ठियां भी सील जायेंगी. सबसे फास्ट वाले कूरियर वाले को पकड़ना...मैं वो थोड़ा सा कोहरा अपनी आँखों में भर लूंगी...फिर शायद मुद्दतों बाद मुझे सपनों वाली नींद आएगी...नींद में सफ़ेद बादलों का देश भी होगा...और एक डाकिया होगा जो तुम तक मेरी बारिशें पहुंचाता है.
सुबह के इस पहर सब खामोश है, शहर अभी सोया हुआ है...सब के जागने में अभी थोड़ा वक़्त बाकी है. कहते हैं इस पहर में हर दर्द शांत हो जाता है...सभी को नींद आ जाती है. फिर बताओ भला, मैं क्यूँ दुनिया से अलग जागी हुयी हूँ? मुझे कोई दर्द नहीं है इसलिए? रात सोयी नहीं और अब इतनी देर हो गयी है तो सोच रही हूँ, सूरज का स्वागत कर ही लूं...कितना तो वक़्त हुआ उसे आते नहीं देखा...हमेशा जाते देखती हूँ. तुम्हारी तरह...तुम कब चले आये जिंदगी में पता ही नहीं चला.

भोर की पहली आवाजों के साथ जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल ज़ेहन में तैर जाती है...एक पंक्ति चमकती है...जैसे छठ पर्व में सूरज की पहली किरण उतरी हो और उसे अर्घ्य दे रही हूँ.
'तुम्हारी बातों में कोई मसीहा बसता है...'