आज सुबह उठी तो पोस्ट लिखी कि पिछले पांच सालों में ब्लॉग में क्या क्या किया...क्या लिखा क्यों लिखा वगैरह. फिर सोच रही थी...कित्ता बोरिंग है. इतिहास इतना बोरिंग होता है, क्या लिखा, कैसे बदले...मानो कोई बहुत बड़ा तीर मारा है. ये सब लिखने के लिए बड़े लोग हैं. तो लगा कि बेस्ट है लिखना कि आज क्या लिखती हूँ, क्यों लिखती हूँ वगैरह. कई बार लगता है कि हम कल के पीछे इतना भागते हैं कि आज की प्रासंगिकता ही खो देते हैं.
२००५ में एहसास से शुरू हुआ सफ़र २००७ में लहरें पर आ के थोड़ा रास्ता बदलने को उत्सुक था. तो नया ब्लॉग बना लिया...मोस्टली इंग्लिश की पोस्ट्स लिखने के लिए और एक डेली जर्नल की तरह. अंतर ये था कि बजाये ये लिखने के कि मैंने आज क्या किया, जैसे खाना खाया, ऑफिस आई, बस पकड़ी वगैरह मैंने वो लिखना शुरू किया जो मैंने आज महसूस किया. किसी विचार ने परेशान किया वगैरह. कुछ ऐसा जो दिमाग में जाले बना रहा हो उसको उठा कर लहरों में बहा दिया. बचपन में भी जब डायरी लिखती थी तो ऐसे ही लिखती थी, कभी ये नहीं लिखा कि क्या घटा...हमेशा ये लिखा कि क्या महसूस हुआ. इसलिए पुरानी डायरियों में डूबते सूरज को रोकने की कोशिश, बारिश में भीगने का अहसास तो मिलता पर ये नहीं मिलता कि कहाँ, क्यों, कैसे...वगैरह. जब std 7 में पढ़ते थे तब ही सर ने कहा था कि डायरी लिखने से हिंदी अच्छी होती है. तब से ही उनकी बात मन में बाँध ली थी. उसके पहले जब हर ४ साल पर घूमने जाते थे तो भी दिन भर कौन से शहर में क्या देखा ये बचपन से लिखते थे. आज वो कोपियाँ पता नहीं कहाँ है पर पटना तक तो आराम से मिल जाती थी मुझे अलमारी के किसी कोने में.
आजकल लिखना दो तरह का होता है...एक तो आम पोस्ट कि आज ये किया, घूमने गए वगैरह...travelog मुझे आज भी बहुत फैसिनेटिंग लगते हैं, पर अब उतना घूमती नहीं हूँ कि लिख सकूँ और उसके लिए जो ढेर सारे फोटो चाहिए वो तो सारे बस दिमाग में हैं, उनको डेवलप कैसे करूँ. दूसरी और मेरी पसंदीदा टाईप कि पोस्ट होती है जिसमें माहौल सच होता है, लोग वही होते हैं जो मैंने अपने आसपास देखे हैं पर घटना काल्पनिक होती है. मैं एकदम नए कैरेक्टर थोड़े कम लिखती हूँ...मेरे अधिकतर लोग आधे सच आधे झूठ होते हैं. इसी तरह जगहें भी...सच की जमीं पर उगती हैं पर उनका आकाश अपना खुद का रचा होता है. मेरा लिखना वो होता है जो मन में आता है...जैसे कि किसी डायरेक्टर को शायद vision आते हैं वैसे ही कई बार पोस्ट लिखने के पहले कुछ वाक्य होते हैं तो मन के निर्वात में तैरते रहते हैं. उनको लिखना बड़ा सुकून देता है.
कई बार मैं जो लिखती हूँ लोग समझते हैं कि मेरी जिंदगी में घटा है...ऐसा कई बार होता भी है है, पर कई बार नहीं भी होता. और मेरे ख्याल से ऐसा ही कुछ मैं भी कहीं पढ़ना चाहती हूँ जिसमें एक हलकी सी धुंध के पार सब दिखे...कि जिसमें सवाल उठे कि क्या ऐसा सच में हुआ था? इसे मैं अपनी क्रिएटिव फ्रीडम मानती हूँ. अगर मुझे सिर्फ सच लिखने के बंधनों से बाँध दिया जाए तो छटपटा जाउंगी. पर हर बार कुछ कल्पना में लिखे को लोग संस्मरण कह के बधाई दे जाते हैं तो सफाई देने का मन भी नहीं करता...कई बार करता है तो दे भी देती हूँ. अभी तक के अनुभव से देखा है कि कविता को इस तरह के बंधन में नहीं बाँधा जाता, पर गद्य में लिखना वो भी फर्स्ट पर्सन में तो अक्सर लोगों को सच लगता है. ऐसा बहुत पहले मुझे महेन की कहानियां पढ़ के लगता था, कि जो घटा नहीं उसका ऐसा कैसे वर्णन किया जा सकता है. उस वक़्त मैं कहानियां लिखती भी नहीं थी.
शुरू में मुझे कहानियां और व्यंग्य दोनों लिखना नहीं आता था...कुछ कोशिशें कि थी पर नोवेल लिखने की, छोटी कहानियां नहीं लिखने की सोची कभी. मैं फिल्म स्क्रिप्ट लिखती हूँ तो मुझे सपने जैसे आते हैं, किरदार, सेटिंग, डाइलोग, कैमरा एंगल सब जैसे आँखों के सामने फ्लैश करता है. कहानी लिखते समय भी कुछ वैसा ही होने लगा...शुरू में बस जानी पहचानी जगहें आती थी इन फ्लैशेस में तो वैसा ही लिखती थी. किरदार अक्सर काल्पनिक होते थे क्योंकि लोगों को observe करना शुरू कर दिया था मैंने जब फिल्में बनाने की सोची थी, कुछ एकदम काल्पनिक भी लिखा, जैसे कहवाखाने का शहजादा. अभी लिखना वैसा ही होता है फ्लैश आता है, कुछ चीज़ें तैरने लगती हैं और जैसे जैसे लिखती जाती हूँ एक दुनिया बनती जाती है. मेरे ख्याल से लेखक का लिखा हुआ सब कुछ उसके या किसी और के जीवन में घटा हुआ हो ये जरूरी नहीं ये बाध्यता होनी भी नहीं चाहिए. होना चाहिए बस एक झीना पर्दा, सच और झूठ के बीच.
चूँकि लिखने का माध्यम ब्लॉग है तो कई बार ये taken for granted होता है कि घटनाएं सच्ची हैं. आज बस ऐसे ही मन किया कि कह दूं...कि हमेशा लिखा हुआ सच नहीं होता. बार बार कहना कि संस्मरण नहीं है, कहानी है से बेहतर एक ही बार कह दिया जाए :)
15 December, 2010
12 December, 2010
तीस तक पहुँचने वाले कुछ साल
कह के जाने में हमेशा लौट आने का भाव छुपा होता है. अनिश्चितता होती है. उम्मीद होती है कि कोई रोक लेगा. कोई, महज़ दुनियादारी निभाने के लिए ही समझाएगा कि मत जाओ...जैसे कि मुझे बड़ा मालूम है कि जाना कहाँ है. आज पेपर में एक अच्छी आर्टिकल आई थी एक निर्देशक की थी, जिसने एक फिल्म बनायीं थी ३० की उम्र की औरतों के बारे में.
आश्चर्य हुआ, कुछ दिनों से मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रही हूँ. उस डिरेक्टर ने ये फिल्म बनाने का निर्णय कुछ ऐसे ही २७-२८ साल में लिया था. मुझे लगता है कि दो तरह की जिंदगियों के बीच एकदम यही उम्र होती है. फलसफे कहते वक़्त ये नहीं सोचना पड़ता कि कोई कहेगा तुमने दुनिया नहीं देखी है, कि लड़की हो, बच्ची हो दुनियादारी में ज्यादा दिमाग मत लगाओ. बल्कि यही एक वक़्त होता है जब शायद एक लड़की या कहें कि औरत अपनी दुनियादारी की परिधि खींचना चाहती है. ये वो वक़्त होता है जब बचपन से सीखा कुछ अपने खुद के अनुभव और उम्मीद के साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया रचता है जो एक हद तक प्रक्टिकल होती है पर सपने भी कहीं पीछे नहीं धकेले जाते.
वैसे कहते हैं कि लड़कियां जल्दी मैच्योर हो जाती हैं. हो नहीं जाती, होना पड़ता है. जब १४ की उम्र में दुनिया आपको सिखाने पर तुली हो कि बस में लड़कियां आगे बैठेंगी और लड़के पीछे तो आप अक्सर सोचती हैं कि बीच वाली चार सीटों पर कौन बैठेगा? कभी किस्मत आपको उसी बीच वाली सीट पर बिठा देती है क्योंकि आगे तो ऐसी धक्कमपेल है कि खड़े होने कि जगह नहीं है. माइंड ईट, मजबूरी है...और ऐसे ही साथ जाते हुए वो पहली बार महसूस करती है कि लड़के इतना बड़ा हव्वा नहीं होते जितना कि अधिकतर बनाया जाता है. वो भी हमारी ही तरह कुछ डरे हुए, कुछ सकपकाए से होते हैं. इन फैक्ट हमसे भी ज्यादा घबराते हैं. ऐसी किसी घटना के बरसों बाद लड़की अपने साथ कुछ वक़्त अकेला बिता सकती है, ख़ुशी ख़ुशी...ऐसे किसी लम्हे में वह सोचती है कि अच्छा हुआ को-एड में पढ़े, नहीं तो कितना डरते लड़कों से...जैसे स्कूल की या कॉलेज की बाकी लड़कियां डरती हैं. कि समाज और दुनिया चाहे जो पट्टी पढाये, हिसाब बराबर का होता है. बस आपको ये बात मालूम रहनी चाहिए. ऐसे किसी दिन वह किसी बॉय फ्रेंड को डिच करती है और घंटों अफ़सोस भी करती है. इस नारीसुलभ अफ़सोस और ग्लानी के बावजूद उसे अपने निर्णय पर दुःख नहीं होता क्योंकि वो जानती है कि रिश्ता बहुत दूर नहीं जा सकता.
३० साल की रेखा पर पहुँचने वाली ये स्त्री बहुत कुछ सोचती है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है बच्चों की प्लानिंग...आखिर दुनिया के हर माध्यम से यही चिल्लाहट आती है कि ३० के पहले एक बच्चा होना बहुत जरूरी है. इस बारे में अपनी एक मित्र से एक गज़ब की बात सुनी 'अरे औरतें हैं हम, कोई एक्सपायरी डेट के साथ थोड़े आते हैं कि एक्जैक्टली ३० होते ही सब ख़तम, थोड़ा आगे पीछे भी तो हो सकता है'. सुन कर इतना सुकून मिला जितना किसी लम्बे फेमिनिस्ट भाषण के बाद भी नहीं मिलता. फेमिनिस्म भी एक बहुत मिस्लीडिंग चीज़ है...अक्सर लोग एकदम एक्सट्रीम की बात करने लगते हैं. पर इसका मतलब किसी दो छोरों को और दूर करना नहीं एक ऐसा रास्ता निकालना है जिससे टकराव थोड़ा कम हो सके. मेरा हर तरह का फेमिनिस्म नापने का पैमाना है...किसी लड़के से इस बारे में बहस छेड़ दो कि लड़कियों को क्या पहनना चाहिए, बस...सब एक लाइन में आ जायेंगे. शोर्ट में पता चल जाता है कि कौन कितना लिबरल है, कौन पोलिटिकल है और कौन सच में ये निर्णय लड़कियों पर छोड़ना चाहता है.
उम्र के इस खूबसूरत पड़ाव पर, एक और साल के ख़त्म होते हुए, बहुत कुछ प्लान बनाती हूँ. यूँ तो जिंदगी को सालों में बांटना ही गलत है, पर कोई ना कोई तरीका तो होना चाहिए, यही सही. और भी कई अनर्गल बातें हैं...यूँ ही चलती रहेंगी, मूड के हिसाब से. बरहाल रात के पौने दो बज रहे हैं और मेरा बालकोनी में खड़े होके कोई गीत गुनगुनाते हुए coffee पीने का मन है. Sometimes it's so relieving to not be some sixteen year old.
(निकट भविष्य में जारी...)
आश्चर्य हुआ, कुछ दिनों से मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रही हूँ. उस डिरेक्टर ने ये फिल्म बनाने का निर्णय कुछ ऐसे ही २७-२८ साल में लिया था. मुझे लगता है कि दो तरह की जिंदगियों के बीच एकदम यही उम्र होती है. फलसफे कहते वक़्त ये नहीं सोचना पड़ता कि कोई कहेगा तुमने दुनिया नहीं देखी है, कि लड़की हो, बच्ची हो दुनियादारी में ज्यादा दिमाग मत लगाओ. बल्कि यही एक वक़्त होता है जब शायद एक लड़की या कहें कि औरत अपनी दुनियादारी की परिधि खींचना चाहती है. ये वो वक़्त होता है जब बचपन से सीखा कुछ अपने खुद के अनुभव और उम्मीद के साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया रचता है जो एक हद तक प्रक्टिकल होती है पर सपने भी कहीं पीछे नहीं धकेले जाते.
वैसे कहते हैं कि लड़कियां जल्दी मैच्योर हो जाती हैं. हो नहीं जाती, होना पड़ता है. जब १४ की उम्र में दुनिया आपको सिखाने पर तुली हो कि बस में लड़कियां आगे बैठेंगी और लड़के पीछे तो आप अक्सर सोचती हैं कि बीच वाली चार सीटों पर कौन बैठेगा? कभी किस्मत आपको उसी बीच वाली सीट पर बिठा देती है क्योंकि आगे तो ऐसी धक्कमपेल है कि खड़े होने कि जगह नहीं है. माइंड ईट, मजबूरी है...और ऐसे ही साथ जाते हुए वो पहली बार महसूस करती है कि लड़के इतना बड़ा हव्वा नहीं होते जितना कि अधिकतर बनाया जाता है. वो भी हमारी ही तरह कुछ डरे हुए, कुछ सकपकाए से होते हैं. इन फैक्ट हमसे भी ज्यादा घबराते हैं. ऐसी किसी घटना के बरसों बाद लड़की अपने साथ कुछ वक़्त अकेला बिता सकती है, ख़ुशी ख़ुशी...ऐसे किसी लम्हे में वह सोचती है कि अच्छा हुआ को-एड में पढ़े, नहीं तो कितना डरते लड़कों से...जैसे स्कूल की या कॉलेज की बाकी लड़कियां डरती हैं. कि समाज और दुनिया चाहे जो पट्टी पढाये, हिसाब बराबर का होता है. बस आपको ये बात मालूम रहनी चाहिए. ऐसे किसी दिन वह किसी बॉय फ्रेंड को डिच करती है और घंटों अफ़सोस भी करती है. इस नारीसुलभ अफ़सोस और ग्लानी के बावजूद उसे अपने निर्णय पर दुःख नहीं होता क्योंकि वो जानती है कि रिश्ता बहुत दूर नहीं जा सकता.
३० साल की रेखा पर पहुँचने वाली ये स्त्री बहुत कुछ सोचती है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है बच्चों की प्लानिंग...आखिर दुनिया के हर माध्यम से यही चिल्लाहट आती है कि ३० के पहले एक बच्चा होना बहुत जरूरी है. इस बारे में अपनी एक मित्र से एक गज़ब की बात सुनी 'अरे औरतें हैं हम, कोई एक्सपायरी डेट के साथ थोड़े आते हैं कि एक्जैक्टली ३० होते ही सब ख़तम, थोड़ा आगे पीछे भी तो हो सकता है'. सुन कर इतना सुकून मिला जितना किसी लम्बे फेमिनिस्ट भाषण के बाद भी नहीं मिलता. फेमिनिस्म भी एक बहुत मिस्लीडिंग चीज़ है...अक्सर लोग एकदम एक्सट्रीम की बात करने लगते हैं. पर इसका मतलब किसी दो छोरों को और दूर करना नहीं एक ऐसा रास्ता निकालना है जिससे टकराव थोड़ा कम हो सके. मेरा हर तरह का फेमिनिस्म नापने का पैमाना है...किसी लड़के से इस बारे में बहस छेड़ दो कि लड़कियों को क्या पहनना चाहिए, बस...सब एक लाइन में आ जायेंगे. शोर्ट में पता चल जाता है कि कौन कितना लिबरल है, कौन पोलिटिकल है और कौन सच में ये निर्णय लड़कियों पर छोड़ना चाहता है.
उम्र के इस खूबसूरत पड़ाव पर, एक और साल के ख़त्म होते हुए, बहुत कुछ प्लान बनाती हूँ. यूँ तो जिंदगी को सालों में बांटना ही गलत है, पर कोई ना कोई तरीका तो होना चाहिए, यही सही. और भी कई अनर्गल बातें हैं...यूँ ही चलती रहेंगी, मूड के हिसाब से. बरहाल रात के पौने दो बज रहे हैं और मेरा बालकोनी में खड़े होके कोई गीत गुनगुनाते हुए coffee पीने का मन है. Sometimes it's so relieving to not be some sixteen year old.
(निकट भविष्य में जारी...)
07 December, 2010
एक लेखक का कन्फेशन
ड्रोपर से बूँद बूँद यादें टपकाती हूँ फाउन्टेन पेन की अतल गहराइयों में. नए कागज़ को जिस्तों के पुलिंदे से निकालती हूँ और राइटिंग बोर्ड पर क्लिप कसती हूँ कि आज एक कहानी लिखूंगी एकदम नए बिम्ब उभारते हुए. कहानी का पहला दृश्य उभरता है कि तुम्हारा नाम चस्पां हो जाता है और मेरी आँखें कुछ नया देखने में असमर्थ हो जाती हैं. पेन का निब निकालती हूँ, पानी में धोकर पुराना कचरा बाहर करती हूँ. जा कर पापा के शेविंग किट से पुराना कोई ब्लेड ढूंढती हूँ और उससे निब के पतले दोनों हिस्सों के बीच फंसाती हूँ, कमबख्त तुम्हारा नाम भी तो ऐसा फंसा है कि ना काट पाती हूँ ना पानी में घोल पाती हूँ.
फिर से लिखना शुरू करती हूँ, स्याही का रंग थोड़ा फीका पड़ गया है, जाने पानी मिला है या आंसू मेरे कहानी के पात्रों के साथ खिलवाड़ करने लगे हैं. लिखने में कोई नया नाम लिखने की कोशिश करती हूँ पर पेन इतना साफ़ होने के बावजूद चल नहीं पाता, थोड़ी झुंझलाहट से उँगलियों को झटका देती हूँ, सफ़ेद मोजैक के फर्श पर काली स्याही एकदम साफ़ दिखती है. मेरी कहानियों में तुम ऐसे ही खुद को देख लेते होगे क्या? सब सोचने के बाद तुम्हारे माता-पिता पर भी बहुत गुस्सा आता है, क्या जरूरत थी इतना अलग नाम रखने की...कोई राहुल, अमित या अंकित जैसा नाम रख देते. मैं तुम्हारा नाम भी लिख सकती और इस बात की चिंता भी नहीं रहती कि कोई और तुम्हें मेरी कहानी में पढ़ लेगा.
पता है मैं इतना क्यों लिखती हूँ? कि कभी तुम्हें मेरी याद आये और तुम गूगल करो तो मुझे ढूँढने में ज्यादा परेशानी ना हो...तुम हमेशा मुझे खो देते थे ना इसलिए. देखो ना जमाने की भीड़ में कैसी खो गयी हूँ, ढूँढने को इतने तरीके हैं पर अभी तक ऐसा सर्च इंजन नहीं बना जो तुम्हारे दिल के सारे तहखाने तलाश सके. मेरे सुकून को काश कोई कहानी या कविता का सिरा ही होता, क्या करूँ सब होने पर भी सपने देखना तो मेरे बस में नहीं है ना. तुमपर कहानी लिखूं ना लिखूं मेरे सपने तो तुम्हारा ही संसार रचते हैं, वही उनका होना है. रात के किसी अनजाने पहर में तुम ही तो मेरा यथार्थ हो ना.
लिखने का क्रम टूट गया है, उठ कर फर्श साफ़ करना ज्यादा जरूरी है. काली स्याही परमानेंट होती है ना, मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे नाम के परे हटाने वाली इस स्याही पर गलती से भी मेरा पैर पड़े. दिवाली पर जो मूर्तियाँ बदलते हैं, उनमें प्राण प्रतिष्ठा नहीं रहती, फिर भी उन्हें पैर तो नहीं लगा सकते. कभी तुम्हारे किरदार में एक भी ग्रे शेड नहीं दे पाती हूँ जबकि अब देखती हूँ तो लगता है कि ऐसा नहीं था कि तुम्हारा कोई श्याम पक्ष कभी था ही नहीं. पर मैं भी ना...चौथ को पूजने वाले ग्रहण भी कहाँ देख पायेंगे अपने चाँद में, अशुभ होता है तो. ऐसे होने को अक्सर नकार ही दिया जाता है.
वैसे तो किसी और को ये अधिकार नहीं है पूछने का कि मेरी कहानी के किरदार सच होते हैं या झूठ, तुम पूछ सकते हो कि ये मैं हूँ या नहीं. तुम मेरी कहानियाँ पढ़ते भी हो क्या? तुम्हें मालूम है जानां कि मैंने आज तक कभी कोई कहानी नहीं लिखी है?
एक बात बताओ जानां, तुम्हें मैं याद हूँ क्या?
फिर से लिखना शुरू करती हूँ, स्याही का रंग थोड़ा फीका पड़ गया है, जाने पानी मिला है या आंसू मेरे कहानी के पात्रों के साथ खिलवाड़ करने लगे हैं. लिखने में कोई नया नाम लिखने की कोशिश करती हूँ पर पेन इतना साफ़ होने के बावजूद चल नहीं पाता, थोड़ी झुंझलाहट से उँगलियों को झटका देती हूँ, सफ़ेद मोजैक के फर्श पर काली स्याही एकदम साफ़ दिखती है. मेरी कहानियों में तुम ऐसे ही खुद को देख लेते होगे क्या? सब सोचने के बाद तुम्हारे माता-पिता पर भी बहुत गुस्सा आता है, क्या जरूरत थी इतना अलग नाम रखने की...कोई राहुल, अमित या अंकित जैसा नाम रख देते. मैं तुम्हारा नाम भी लिख सकती और इस बात की चिंता भी नहीं रहती कि कोई और तुम्हें मेरी कहानी में पढ़ लेगा.
पता है मैं इतना क्यों लिखती हूँ? कि कभी तुम्हें मेरी याद आये और तुम गूगल करो तो मुझे ढूँढने में ज्यादा परेशानी ना हो...तुम हमेशा मुझे खो देते थे ना इसलिए. देखो ना जमाने की भीड़ में कैसी खो गयी हूँ, ढूँढने को इतने तरीके हैं पर अभी तक ऐसा सर्च इंजन नहीं बना जो तुम्हारे दिल के सारे तहखाने तलाश सके. मेरे सुकून को काश कोई कहानी या कविता का सिरा ही होता, क्या करूँ सब होने पर भी सपने देखना तो मेरे बस में नहीं है ना. तुमपर कहानी लिखूं ना लिखूं मेरे सपने तो तुम्हारा ही संसार रचते हैं, वही उनका होना है. रात के किसी अनजाने पहर में तुम ही तो मेरा यथार्थ हो ना.
लिखने का क्रम टूट गया है, उठ कर फर्श साफ़ करना ज्यादा जरूरी है. काली स्याही परमानेंट होती है ना, मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे नाम के परे हटाने वाली इस स्याही पर गलती से भी मेरा पैर पड़े. दिवाली पर जो मूर्तियाँ बदलते हैं, उनमें प्राण प्रतिष्ठा नहीं रहती, फिर भी उन्हें पैर तो नहीं लगा सकते. कभी तुम्हारे किरदार में एक भी ग्रे शेड नहीं दे पाती हूँ जबकि अब देखती हूँ तो लगता है कि ऐसा नहीं था कि तुम्हारा कोई श्याम पक्ष कभी था ही नहीं. पर मैं भी ना...चौथ को पूजने वाले ग्रहण भी कहाँ देख पायेंगे अपने चाँद में, अशुभ होता है तो. ऐसे होने को अक्सर नकार ही दिया जाता है.
वैसे तो किसी और को ये अधिकार नहीं है पूछने का कि मेरी कहानी के किरदार सच होते हैं या झूठ, तुम पूछ सकते हो कि ये मैं हूँ या नहीं. तुम मेरी कहानियाँ पढ़ते भी हो क्या? तुम्हें मालूम है जानां कि मैंने आज तक कभी कोई कहानी नहीं लिखी है?
एक बात बताओ जानां, तुम्हें मैं याद हूँ क्या?
इश्क की तीसरी सालगिरह- सपनीले गोवा में
गोवा ऐसा हसीन भी हो सकता है, सोचा नहीं था आखिर जिंदगी में रंग भरने वाले इस लड़के से पहले थोड़े मिली थी. ये लड़का जिसकी आँखों में देखती हूँ तो जिंदगी गुलाबी हो जाती है. इस बार हमने अपनी सालगिरह गोवा में मनाई...३ दिसंबर शुक्रवार पड़ा था...तो आराम से तीन दिन इस स्वर्ग में बिताये.
समंदर का पानी एकदम पारदर्शी, जैसे कि पूरा समंदर फ़िल्टर किये पानी से बना हो. और लहरें एकदम नपी हुयी, हलकी हलकी...रेत एकदम महीन, पहले के किसी भी समंदर से ज्यादा महीन वाकई टेलकम पावडर जैसी...नंगे पांव चलो तो गुदगुदी लगे. किनारे से दूर दूर तक छिछला पानी जिसमें छोटी लहरें कि डूबने का डर ही ना लगे...जहाँ तक मर्जी चले जाओ. (कभी कभी पतिदेव के छह फुट से लम्बा होने और तैरना आने का फायदा भी तो मिलना चाहिए)
ताज एक्सोटिका (Taj Exotica) गोवा...लोग जैसे कि मन की बात जान जायें कि कब आपको पानी चाहिए, कब कोई और ड्रिंक, कब भूख लग रही है. मैंने और किसी भी विला के कमरे का मिनी बार इतना स्टोक वाला नहीं देखा है...ये कुणाल का कहना था. एक छोटा सा विला जिसमें सामने नीले पानी का पूल जिसमें एक छोटा सा झरना तो दिन भर झरने की कल कल और रात को समंदर का मद्धम गीत. पूल के सामने नारियल के पेड़ों के बीच लगा हुआ झूला...दो आराम कुर्सियां और फुर्सत ही फुर्सत. पहली बार महसूस किया कि कुछ नहीं करने और आलसियों की तरह पड़े रहने में कितना आनंद है :)
ताज का खाना तो क्या कहने...चाइनीज़ खाना मैंने अपनी जिंदगी में उससे अच्छा नहीं खाया है. मुझे इतना अच्छा लगा कि जो शेफ था...तेनजिन उसको खास तौर से बुलवा के शुक्रिया बोला कि लाजवाब खाना बनाते हो. उसी तरह काटी रोल जो कुणाल ने खाया इतना लजीज था कि मज़ा आ गया. डिनर के वक़्त लाइव संगीत....लोग गिटार पर मुस्कुराते हुए धुन बजाते हुए...लगता ही नहीं था कि हिंदुस्तान में कहीं हैं...एक तो चारो ओर सिर्फ फिरंग ही दिख रहे थे...लग रहा था कि हम ही उनके देश में कहें पहुँच गए हैं.
29 November, 2010
सपनों का सच
हैमलेट शेक्सपीयर का लिखा एक प्रसिद्द नाटक है जो अक्सर या तो 10th या 12th में अक्सर कोर्स में होता है. इसी नाटक में हैमलेट का एक बहुधा उधृत हिस्सा है, हैमलेट का एकालाप....to be or not to be.... यह हैमलेट के अंतर्द्वंद का चित्रण है जिसमें हैमलेट तर्क देता है कि जीवन बेहतर है या मृत्यु. इसी का एक अंश है जिसमें हैमलेट कहता है कि मृत्यु एक नींद है...पर नींद के बाद कैसे सपने आयेंगे...यानी कि मृत्यु के बाद का जीवन, जिसे 'आफ्टर लाइफ़' कहते हैं उसके बाद क्या होता है ये भी नहीं पता है.
To sleep, perchance to dream. Ay, there's the rub,
For in that sleep of death what dreams may come,
When we have shuffled off this mortal coil,
Must give us pause.
हैमलेट के इस एकालाप का एक अंश होता है 'व्हाट ड्रीम्स मे कम (What dreams may come) कल मैंने इसी नाम की फिल्म देखी, जिसकी कहानी मौत और उसके बाद के जीवन पर केन्द्रित थी. फिल्म का मुख्य किरदार...इसकी सिनेमाटोग्राफी है...फिल्म में रंगों का ऐसा अद्भुत कैनवास रचा गया है कि अनायास विन्सेंट वैन गॉ की स्टारी नाईट की याद आ जाये. फिल्म में स्वर्ग एक ऐसी बदलती दुनिया है जो हर किसी को खुद पेंट करने की आज़ादी देती है. क्रिस जब स्वर्ग पहुँचता है तो पाता है कि वो एक ऐसी पेंटिंग है जो उसी पत्नी ने कल्पना की थी...एक ऐसी जगह की जहाँ वो पहली बार मिले थे और जहाँ वो अपना बुढापा साथ साथ गुज़ारना चाहते थे. क्रिस अपना स्वर्ग उस खास पेंटिंग से शुरू करता है और बाकी चीज़ें जोड़ता जाता है. शूटिंग खास तौर की फिल्म पर की गयी थी 'फूजी वेल्विया ' फिल्म स्टॉक कुछ खास दृश्यों को फिल्माने के लिए किया जाता है जहाँ रंगों की अधिकता जरूरी हो. ये खास फिल्म लगभग पूरी ही एक सपने को जीने जैसी है इसलिए इसका फिल्म स्टॉक भी अलग था.
फिल्म में सोलमेट होना बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है. वैसे तो हमारे तरफ सोलमेट की बातों में अधिकतर लोग यकीं करते हैं...शादियों के बारे में कहा जाता है कि जोडियाँ ऊपर से बन कर आती हैं, वगैरह. अमेरिका में इस बात को मानने वाले कम लोग हैं...और एक अंग्रेजी फिल्म में इस तरह से मौत के बाद का जीवन दिखाना काफी रोचक और खूबसूरत था. एक एकदम अलग से सीन में हम देखते हैं कि क्रिस की पत्नी ऐनी उस पेंटिंग को आगे बढ़ाती है और एक बेहद खूबसूरत हलके जामुनी रंग का पेड़ पेंट करती है...और वैसे ही क्रिस के स्वर्ग में वही पेड़ अचानक उग आता है. पर जब ऐनी को लगता है कि क्रिस उसके साथ नहीं है और वो दुखी होकर पेड़ पर पानी डाल के मिटा देती है तो क्रिस के स्वर्ग में भी पतझड़ आ जाता है और पेड़ के सारे पत्ते उड़ जाते हैं.
क्रिस के इस स्वर्ग में सब कुछ है बस नहीं है तो ऐनी...जिसके बिना सब कुछ अधूरा है. क्रिस को पता चलता है कि ऐनी इस स्वर्ग में नहीं आ सकती ऐनी एक कैथोलिक है और धर्म के अनुसार आत्महत्या करने वाले नर्क जाते हैं. उसकी कल्पना के विपरीत नर्क कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ शारीरिक प्रताड़ना है...नर्क एक ऐसी जगह है जहाँ पर उदासी इतनी गहन होती है कि आप अपने दुस्वप्नों में घिर जाते हैं और बाहर नहीं निकलना चाहते.
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मुझे यह फिल्म बेहद अच्छी लगी...और मुझे लगता है कि हर प्यार करने वाले इंसान को ये फिल्म एक बार देखनी चाहिए. इसकी सिनेमाटोग्राफी इतनी खूबसूरत है कि वाकई लगता है सपनो की दुनिया है जिसमें खो जाते हैं पूरी फिल्म भर. इश्क रूहानी होता है...जन्म जन्म का रिश्ता टाइप्स कुछ. मेरी तरफ से १०/१० फिल्म. आपके हाथ आये तो एकदम देख डालिए...अच्छा लगेगा.
To sleep, perchance to dream. Ay, there's the rub,
For in that sleep of death what dreams may come,
When we have shuffled off this mortal coil,
Must give us pause.
हैमलेट के इस एकालाप का एक अंश होता है 'व्हाट ड्रीम्स मे कम (What dreams may come) कल मैंने इसी नाम की फिल्म देखी, जिसकी कहानी मौत और उसके बाद के जीवन पर केन्द्रित थी. फिल्म का मुख्य किरदार...इसकी सिनेमाटोग्राफी है...फिल्म में रंगों का ऐसा अद्भुत कैनवास रचा गया है कि अनायास विन्सेंट वैन गॉ की स्टारी नाईट की याद आ जाये. फिल्म में स्वर्ग एक ऐसी बदलती दुनिया है जो हर किसी को खुद पेंट करने की आज़ादी देती है. क्रिस जब स्वर्ग पहुँचता है तो पाता है कि वो एक ऐसी पेंटिंग है जो उसी पत्नी ने कल्पना की थी...एक ऐसी जगह की जहाँ वो पहली बार मिले थे और जहाँ वो अपना बुढापा साथ साथ गुज़ारना चाहते थे. क्रिस अपना स्वर्ग उस खास पेंटिंग से शुरू करता है और बाकी चीज़ें जोड़ता जाता है. शूटिंग खास तौर की फिल्म पर की गयी थी 'फूजी वेल्विया ' फिल्म स्टॉक कुछ खास दृश्यों को फिल्माने के लिए किया जाता है जहाँ रंगों की अधिकता जरूरी हो. ये खास फिल्म लगभग पूरी ही एक सपने को जीने जैसी है इसलिए इसका फिल्म स्टॉक भी अलग था.
फिल्म में सोलमेट होना बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है. वैसे तो हमारे तरफ सोलमेट की बातों में अधिकतर लोग यकीं करते हैं...शादियों के बारे में कहा जाता है कि जोडियाँ ऊपर से बन कर आती हैं, वगैरह. अमेरिका में इस बात को मानने वाले कम लोग हैं...और एक अंग्रेजी फिल्म में इस तरह से मौत के बाद का जीवन दिखाना काफी रोचक और खूबसूरत था. एक एकदम अलग से सीन में हम देखते हैं कि क्रिस की पत्नी ऐनी उस पेंटिंग को आगे बढ़ाती है और एक बेहद खूबसूरत हलके जामुनी रंग का पेड़ पेंट करती है...और वैसे ही क्रिस के स्वर्ग में वही पेड़ अचानक उग आता है. पर जब ऐनी को लगता है कि क्रिस उसके साथ नहीं है और वो दुखी होकर पेड़ पर पानी डाल के मिटा देती है तो क्रिस के स्वर्ग में भी पतझड़ आ जाता है और पेड़ के सारे पत्ते उड़ जाते हैं.
क्रिस के इस स्वर्ग में सब कुछ है बस नहीं है तो ऐनी...जिसके बिना सब कुछ अधूरा है. क्रिस को पता चलता है कि ऐनी इस स्वर्ग में नहीं आ सकती ऐनी एक कैथोलिक है और धर्म के अनुसार आत्महत्या करने वाले नर्क जाते हैं. उसकी कल्पना के विपरीत नर्क कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ शारीरिक प्रताड़ना है...नर्क एक ऐसी जगह है जहाँ पर उदासी इतनी गहन होती है कि आप अपने दुस्वप्नों में घिर जाते हैं और बाहर नहीं निकलना चाहते.
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मुझे यह फिल्म बेहद अच्छी लगी...और मुझे लगता है कि हर प्यार करने वाले इंसान को ये फिल्म एक बार देखनी चाहिए. इसकी सिनेमाटोग्राफी इतनी खूबसूरत है कि वाकई लगता है सपनो की दुनिया है जिसमें खो जाते हैं पूरी फिल्म भर. इश्क रूहानी होता है...जन्म जन्म का रिश्ता टाइप्स कुछ. मेरी तरफ से १०/१० फिल्म. आपके हाथ आये तो एकदम देख डालिए...अच्छा लगेगा.
24 November, 2010
दूर की आकाशगंगा का कवि
दूर की किसी आकाशगंगा में
एक नन्हा सा गृह हो
जिसके पते पर
लिख के फेंक सकें
वो सारे ख़त
जो किसी नाम को
किसी नाम से
नहीं लिखे जा सकते
ना भरने वाले निर्वात में
सालों अटकी रहे
अनगिन चिट्ठियां
कांच के रोकेट में
धूमकेतु का इंतज़ार करते हुए
जल जाने या पहुँच जाने
के बीच...एकदम बीच
वहां पहुंची चिट्ठियां
किसी और के ख्याल बनें
उसे लगे कि आज कविता लिखूं
कि आज किसी की याद में रो लूं
इश्क कर लूं
जमीं पर उँगलियाँ फिरो
एक तस्वीर बना दूं
तब जब कि प्रतिबंधित हो
मन को पूरा उल्था करना
सजायाफ्ता हों कवि
किताबों से लगता हो पाप
हारी जा चुकी हो
संविधान की आखिरी प्रति
तुच्छ राजनीति के किसी जुए में
सोच को कर दिया जाता हो नीलाम
ऐसे में बिना आहट के
एक बनाये कांच के रोकेट
दूसरा उन्हें पहुंचा आये
किसी अबोध कवि तक
जो अपनी आत्मा बंद कर सके
क्षणभंगुर कांच में
कवि उस नन्हे से गृह तक
देर, बहुत देर में पहुंचे
और सारे खतों को बोल कर पढ़े
और पूरे अंतरिक्ष पार
लोग सपने देखें
सोच को छुड़ा लायें
हंसें, मुस्कुराएं
इश्क करें
इस खुशहाल दुनिया में
एक रोकेट आज भी रोज चले
धूमकेतु के इंतज़ार में
बस एक अनलिखा ख़त बाकी है
विरह में बस एक प्राण जले
कवि की 'प्रेरणा' का
23 November, 2010
पहली बारिश भी कोई छोड़ता है जानां!
वो बारिशों का मौसम याद है जानां?
कि जब मैंने घबरा के कहा था
मुझे बारिशों से डर लगता है
और तुमने मेरी ठुड्ढी
अपनी दो उँगलियों से
आसमानों की ओर उठा दी थी
बारिश की बूँदें ठंढी थीं
और तुम्हारी हथेलियाँ गर्म
बहुत दिन बीते गुलमोहर देखे
लाल सुलगते अल्हड़पन को
अब भी कभी कभी सुर्ख गर्मियों में
आइसक्रीम खाती हूँ
तो तुम्हारी याद का मौसम
बरस जाता है रातों में
तुम न कहा करते थे
पहली बारिश भी कोई छोड़ता है जानां!
19 November, 2010
दिल्ली में
सुबह कोहरा फटक रही थी
सड़कों के सूप से
अच्छा वाला सारा कोहरा
डब्बों में बंद करती जाती थी
जाड़ों के सबसे अच्छे दिनों के लिए
जो एक लड़की ने दो साल पहले
दुआओं में मांगे थे
बचा हुआ कोहरे का थोड़ा हिस्सा
पेड़ बुहार रहे हैं अपने पत्तों से
जिससे भाप लगे कांच के पीछे सी
धुंधली हो जाती है धूप, अक्सर
कोहरे के कारण
'सुबह' लेट हो जाती है
रात को ओवरटाइम करना पड़ता है
कुछ अपनी अपनी सी लगती है दिल्ली
थोड़ी अजनबी सी भी
जैसे बिछड़े दोस्त, थोड़े बदल जाते हैं
साल दर साल
लगता भर है कि सदियाँ बीत गयीं
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दिल्ली की सड़कों से गुजरते हुए...अलसुबह
थोड़ी अजनबी सी भी
जैसे बिछड़े दोस्त, थोड़े बदल जाते हैं
साल दर साल
लगता भर है कि सदियाँ बीत गयीं
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दिल्ली की सड़कों से गुजरते हुए...अलसुबह
17 November, 2010
काँच की बोतल में सदाएं
एक दिलरुबा शहर ने
कांच की बोतल में
भर के सदाएं भेजी हैं
गुनगुनी ठंढ है, जानां चले आओ
इश्क के मौसम ने
खुशबुओं में डुबो के
आने की अदाएं भेजी हैं
वादा है बारिश का, जानां चले आओ
रूठे हुए स्वेटर ने
कट्टी भी तोड़ दी है
कोहरे की ले बलाएँ भेजी हैं
आधी डब्बी सिगरेट की, जानां चले आओ
उस ठेले वाले ने
मूंग की पकौड़ी संग
चटपटी चटनी भी भेजी है
हो जाएँगी ठंढी, जानां चले आओ
हर याद पुरानी ने
रस्ते बिछाए हैं
खुश-आमद-आयें भेजी हैं
तुम्हें मेरी है कसम, जानां चले आओ
कांच की बोतल में
भर के सदाएं भेजी हैं
गुनगुनी ठंढ है, जानां चले आओ
इश्क के मौसम ने
खुशबुओं में डुबो के
आने की अदाएं भेजी हैं
वादा है बारिश का, जानां चले आओ
रूठे हुए स्वेटर ने
कट्टी भी तोड़ दी है
कोहरे की ले बलाएँ भेजी हैं
आधी डब्बी सिगरेट की, जानां चले आओ
उस ठेले वाले ने
मूंग की पकौड़ी संग
चटपटी चटनी भी भेजी है
हो जाएँगी ठंढी, जानां चले आओ
हर याद पुरानी ने
रस्ते बिछाए हैं
खुश-आमद-आयें भेजी हैं
तुम्हें मेरी है कसम, जानां चले आओ
चुटकी भर जाड़ों की धूप
गुनगुन...हाँ वही तो है, जाड़ों की धूप जैसी. कुणाल के छोटे मामा की लड़की...पर जान इसमें सबकी बसती है. इसके नन्हे हाथों ने सबको इतने जोर से पकड़ रखा है कि इसके असर से बचना नामुमकिन...एक फुट की लड़की के अन्दर एक साथ इतनी शैतानी, इतना प्यार, इतनी मासूमियत कि देखते रह जाएँ, हम इसको भूटानी भी बोलते हैं :)
अभी एक साल से कुछ ऊपर की हुयी है...बोलना सीखा है...थोड़ा थोड़ा बोलने में 'भाभी' तो नहीं बोल पायी...तो इस छुटकी ननद ने भाभी का 'भाभा' बना दिया, और घर में सब अब भाभा बोलके चिढ़ाते हैं. इसने अभी सबसे पहले 'भप!' करना सीखा है. रोती भी रहेगी और कह दीजिये, भप! कर दो गुनगुन तो रोना छोड़ के पहले भप! कर देगी. पूरा घर अब इसी धुरी पर घूमता है. एक नंबर की चटोर है ये गुनगुन, बेबी फ़ूड नहीं खाएगी...शैतान खाएगी क्या...सूपी नूडल, पकौड़ा, पापड़, मिठाई, और उसपर चटकारा भी लगाएगी. इधर हाथ के दर्द से परेशान रह रही हूँ लेकिन भला गुनगुन को गोद में घुमाने के लालच से उबरना मुमकिन है! तो एक दिन दिन भर घुमाए और भर शाम मूव लगा के पड़े रहे. उस दिन से इसका नया नामकरण किये हम 'नौ किलो की बोरिया' और ये बोरिया अपने नाम से बहुत खुश है...दाँत देखिये इसके!
नए ज़माने के बच्चों की तरह, ये गुनगुन भी घर में नहीं रहना चाहती...अभी से घर के बाहर जाने के जिद्द करती है...हमको पूरी उम्मीद है कि जैसे ही इसको अपने चलने पर और अपने दूर तक पैदल चलने के रेंज पर कांफिडेंस होगा ये भी भागना शुरू करेगी और इसको पकड़ पकड़ के लाना एक फुल टाइम काम होगा...और लोग कहते हैं कि औरतें खाली बैठी रहती हैं. गुनगुन का एक और नाम है, वो है 'घर की सबसे बड़ी डिस्टर्बिंग एलेमेन्ट' और ये नाम इसको इसकी घनघोर पढ़ाकू बड़ी दीदी ने दिया है जो दिन भर किताब में घर बनाए रहती है और जिसको जबरदस्ती पढ़ाई से खींच कर बारी बारी सब उठाते थे. सब का काम गुनगुन आसान कर दी है आजकल...इत्ती छोटी सी उम्र से इसको अपनी जिम्मेदारी का अहसास हो गया है. कित्ती गुणी है हमारी गुनगुन.
घर पर इस बार, मैं, कुणाल, आकाश, काजू भैय्या थे...एक साथ सब लोग चले आये तो गुनगुन बहुत रोती रही दिन भर...पर्दा के पीछे जा के 'झात' कर के देखती थी कि हम लोग हैं किधर छुपे हुए. अब इस छुटकी को जल्दी बंगलोर बुलाएँगे. हमको भी तो इसकी बहुत याद आती है.
11 November, 2010
बहुत क्रूर होता है प्रेम
न चाहने पर
बहुत क्रूर होता है प्रेम
मुस्कुरा के मांग लेता है,
मुस्कुराहटें
चकनाचूर कर देता है
सपनीला भविष्य
जहरीले शूल चुभोता है
औ सिल देता है होठ
छीन लेता है, उड़ान
रोप देता है यथार्थ पैरों में
न जानते हुए भी
हिंसक होता है प्रेम
नाखूनों से खुरच देता है
आत्मसम्मान
नमक बुरकते रहता है
पुराने, मासूम गुनाहों पर
डाह से जला देता है
रिश्तों की हर डोर
मौत के सातवें फेरे में
अर्धांगिनी को करता सामने
क्षमा करो हे प्रेम!
मैं एक साधारण स्त्री हूँ
मुझसे न पार हो सकेगी
तुम्हारी अग्नि-परीक्षा.
खोये हुए खत
मम्मी,
हमारे तरफ कोई भी तरीका क्यों नहीं है तुमसे बात करने का. काश कोई तो पता होता, जिसपर लिख कर मेरी चिट्ठियां तुम तक पहुँचती. दर्द के किसी भी पल में तुमसे न बात कर पाना दर्द को और गहरा कर देता है. हमारे धर्म में, संस्कारों में, रीति रिवाजों में, लोक-कहानियों में...कहीं कोई तरीका नहीं है जिससे तुम मेरी बातें सुन लो.
अवसाद के किसी गहरे क्षण में यही सोचती हूँ, की अगर तुम होती भी तो क्या कभी कह पाती...मगर तुमसे कभी कहने की भी जरूरत कहाँ होती थी. तुम तो पहचान जाती थी, sसधे हुए...ठहर कर कहे हुए शब्दों में मेरे अंदर का मौन...सुन लेती थी फोन पर भी मन की सिसकियाँ. कितना सुकून मिलता था की बिना कहे भी तुम समझ जाती थी...तुमसे बात कर के हमेशा समस्या छोटी लगने लगती थी. तुम्हारे पास सारे सवालों के जवाब होते थे मम्मी.
लगता है कि कोई और क्यों नहीं देख पाता है सामने रह कर भी. कि तुम्हारे पास कौन सी दिव्य दृष्टि थी कि तुम कितनी भी दूर से हमेशा जान जाती थी अगर मैं थोड़ी भी परेशान होती थी. तुम जब तक थी, हमको लगता था कि हम बहुत खराब एक्टिंग करते हैं, कि मेरा झूठ पकड़ा जाता है हमेशा...अब जानती हूँ कि वो तुम थी मम्मी, हम नहीं. तुम पकड़ लेती थी सब कुछ. अब कितना आसान सा हो जाता है...खुश रहना, दिखावा करना, मुस्कुराना...एक तुम थी कि आँख में पानी आये बिना जान जाती थी, अब तो सिसकियों की आवाज़ तक सुनाई नहीं देती किसी को भी.
तुम्हारे जाने के साथ भगवान पर ऐसा विश्वास उठा है कि चिट्ठी भगवान को भी नहीं लिख सकती जैसे पहले लिखा करती थी. पहले कितना यकीन था कि भगवान सुन ही लेंगे. और अब लगता है कि कहीं कोई नहीं है जो चुप-चाप कही गयी बातों को सुन ले. वो भगवान नहीं हैं अब कि बस मंदिर में खड़े हुए, बाबा को छुआ और बाबा जान गए सब बात...अब तो बाबा को कितना भी बोलते हैं, वो सुनते ही नहीं. तुम शायद वहीँ हो कहीं, मेरी थोड़ी तो बात पहुंचेगी तुम तक.
देवघर में हूँ मम्मी...और अब ही हर दिन, पल पल लगता है कोई घाव को कुरेदते जा रहा हो...कि मेरा कोई घर नहीं हो...कि मेरा कोई भी नहीं है कहीं.
तुम मेरी बात सुनती हो क्या मम्मी?
तुम्हारी प्यारी बेटी
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नोट: इस पोस्ट पर मैंने कमेन्ट का ओप्शन बंद किया है, कृपया इस पोस्ट के बारे में मेरी दूसरी पोस्ट्स पर कमेन्ट न करें. धन्यवाद.
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09 November, 2010
अँधेरे की कहानी
जिंदगी में एक शब्द अपनी पैठ बनाता चला जाता है...गहरे धंस कर अपनी मौजूदगी का अहसास हमेशा कराते रहता है...एक शब्द है 'हदास' जो मेरे ख्याल से हादसा से आया होगा. भय का सबसे ज्यादा घनत्व वाला रूप है ये. जिस चिंता के बारे में पढ़ते हैं कि चिता सी जलाती है, वो चिता इस हदास की लकड़ियों पर ही जलती है. दबे पाँव आता है और घर की हवा में भय घुल जाता है...सांस लेने में भी डर लगने लगता है.
रात होते गहरा काला अँधेरा पसर कर बैठ जाता है...लगता है कि जीवित कोई पशु है जिसके शायद सींग होते हों. घर में दो सीढियां उतर जर नीचे के बरामदे पर जाया जा सकता है पर उधर अन्देरे का काला, गाढ़ा पानी घुस आया है, इस अँधेरे पानी में उतरना वैसे तो मुश्किल नहीं है...पर ये हदास लगा हुआ है तो डर लगता है कि इस अँधेरे में किसी चिता की लपटें ना दिखाई देने लगें. या अँधेरा कहीं पैरों पर चिपक ना जाए...ऐसा हुआ तो अँधेरा खून में मिलके जाने कौन कौन से अंगों को भयग्रस्त कर देगा. कौन जाने ह्रदय धड़कने में घबराने लगे, आँखें देखने से बंद होना बेहतर मानें...हालांकि अँधेरे में आँखें खुली और बंद क्या.
टोर्च जलाते ही अँधेरा पाँव धरने भर जगह खाली करता है, पर जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं पीछे से घात मारने के लिए तत्पर रहता है. मुड़ मुड़ के देखते हैं तो लगता है अँधेरा बढ़ आया है...और बीच अँधेरे में फंस गए हैं. ऐसे में दूर नज़र आती है किसी लालटेन की आदिम रौशनी, याद आता है कि दादी शाम होते ही दिया बारने बोलती थी...लगता है गाँव में किसी ने लालटेन जलाई है...सांझ देने के लिए. चिपचिपा सा अँधेरा पैरों को जकड़ने लगता है, लगता है जैसे चारों ओर अँधेरे की बारिश ही हो रही है.
सर का दर्द अँधेरे को और शक्तिशाली बना देता है...अभी ड्योढ़ी से चार सीढियां और उतरनी हैं फिर आँगन खुलेगा...आँगन में तुलसी चौरा है...उधर हनुमान जी की मूर्ती स्थापित है तो उधर प्रेतों का आतंक थोड़ा कम होना चाहिए. बहुत धीमे धीमे कदम बढ़ाती है वो...अँधेरे का हिस्सा बने बगैर. दिया जलाना है...और खोह में रख देना है फिर अँधेरे से युद्ध का शंख बजाना है. हदास उसे फेफड़ों में हवा नहीं भरने देता...शंख से आवाज़ नहीं निकलती. किसी और के बचपन का, किसी और घर का झगड़ा याद आता है, लड़कियां शंख नहीं बजातीं.
आँगन से क्षितिज के पार की चीज़ें भी दिखती हैं...ध्वजा का नारंगी रंग अँधेरे में भी सूरज की तरह चमक उठता है. आँखें रंग देखने लगती हैं, भय रात में घुल के गायब हो जाता है.
रात होते गहरा काला अँधेरा पसर कर बैठ जाता है...लगता है कि जीवित कोई पशु है जिसके शायद सींग होते हों. घर में दो सीढियां उतर जर नीचे के बरामदे पर जाया जा सकता है पर उधर अन्देरे का काला, गाढ़ा पानी घुस आया है, इस अँधेरे पानी में उतरना वैसे तो मुश्किल नहीं है...पर ये हदास लगा हुआ है तो डर लगता है कि इस अँधेरे में किसी चिता की लपटें ना दिखाई देने लगें. या अँधेरा कहीं पैरों पर चिपक ना जाए...ऐसा हुआ तो अँधेरा खून में मिलके जाने कौन कौन से अंगों को भयग्रस्त कर देगा. कौन जाने ह्रदय धड़कने में घबराने लगे, आँखें देखने से बंद होना बेहतर मानें...हालांकि अँधेरे में आँखें खुली और बंद क्या.
टोर्च जलाते ही अँधेरा पाँव धरने भर जगह खाली करता है, पर जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं पीछे से घात मारने के लिए तत्पर रहता है. मुड़ मुड़ के देखते हैं तो लगता है अँधेरा बढ़ आया है...और बीच अँधेरे में फंस गए हैं. ऐसे में दूर नज़र आती है किसी लालटेन की आदिम रौशनी, याद आता है कि दादी शाम होते ही दिया बारने बोलती थी...लगता है गाँव में किसी ने लालटेन जलाई है...सांझ देने के लिए. चिपचिपा सा अँधेरा पैरों को जकड़ने लगता है, लगता है जैसे चारों ओर अँधेरे की बारिश ही हो रही है.
सर का दर्द अँधेरे को और शक्तिशाली बना देता है...अभी ड्योढ़ी से चार सीढियां और उतरनी हैं फिर आँगन खुलेगा...आँगन में तुलसी चौरा है...उधर हनुमान जी की मूर्ती स्थापित है तो उधर प्रेतों का आतंक थोड़ा कम होना चाहिए. बहुत धीमे धीमे कदम बढ़ाती है वो...अँधेरे का हिस्सा बने बगैर. दिया जलाना है...और खोह में रख देना है फिर अँधेरे से युद्ध का शंख बजाना है. हदास उसे फेफड़ों में हवा नहीं भरने देता...शंख से आवाज़ नहीं निकलती. किसी और के बचपन का, किसी और घर का झगड़ा याद आता है, लड़कियां शंख नहीं बजातीं.
आँगन से क्षितिज के पार की चीज़ें भी दिखती हैं...ध्वजा का नारंगी रंग अँधेरे में भी सूरज की तरह चमक उठता है. आँखें रंग देखने लगती हैं, भय रात में घुल के गायब हो जाता है.
06 November, 2010
नैना लग्यां बारिशाँ
वो आती तो हवाओं को हलके से छू कर खिलखिला देती, पलकें झपकतीं और हवा मुस्कुराती उसकी मासूमियत पर और अपनी मुट्ठी में उसकी उँगलियों की थिरकन को भर लेती. फिर वहां से चल देती और घंटों एक लड़के के एसी ऑफिस के सामने बैठी रहती, कि कोई आये दरवाजा खोले ताकि वो चुपके से दाखिल हो सके. ऑल इण्डिया रेडिओ के कालीनों वाले फर्श पर हवा की आहट सुनाई नहीं पड़ती और मोटी दीवारें ऐसी हैं कि आवाजें उनसे टकरा के गुम हो जाएँ...तो हवा के लिए ये जरूरी हो जाता कि वो उस लड़के को ढूंढ निकाले ये बताने के लिए कि हवा को गुदगुदी लगाने वाली लड़की दिल्ली आ गयी है और जल्दी ही उसे परेशान करने भी आ जायेगी. लड़का सर उठा के देखता तो हवा खुशी से गोल-गोल चक्कर काटने लगती और उसके लिखे रेडिओ स्क्रिप्ट्स तितिर बितर हो जाते...वो न्यूज़ की जगह कहानी लिखने लगता, सादे कागजों पर कविता लिख देता. हवा ये सारी गलतियाँ देख कर बहुत खुश हो जाती. शाम के बादलों तक सारी खबर पहुँच जाती और दिल्ली लहलहाती यमुना में अक्स देख कर सँवरने लगती.
लड़की बहुत कम बोलती थी...उसके पास एक डुप्लीकेट चाबी हुआ करती थी, लोहे का छोटा सा जादुई बटन...ताला खुलता था और सारा कमरा घर में बदलने लगता था. कपड़े अलगनी पर टंग जाते थे...हवा धूल को पटकनी मार कर बाहर भगा आती थी, डब्बों में मिठाइयाँ, मैगी, बिस्कुट, काजू-किशमिश भर जाते थे...पड़ोसी भी घी की गंध ताड़ लेते थे...बगल के कमरे वाले लड़के खुश हो जाते थे कि शाम को अब जाने पर चाय मिला करेगी.
शिफ्ट ख़तम हुए काफी वक़्त गुज़र जाता था, अचानक लड़के को याद आता था कि घर जाना है...उठता था तो दरवाजे के शीशे में अपना चेहरा देख कर सोचता था कि बिना उसके आये भी शेव बनवानी चाहिए वरना डांट खाने का चांस बढ़ जाता है. झोला उठाता था और स्क्रिप्ट्स ले लेता था कि वो देख कर खुश होगी...बस स्टैंड पर लड़की दिखती थी, मूंगफली खाती हुयी. आखिरी बस अक्सर काफी खाली आती थी...वो सबसे पीछे वाली सीट पर बैठती थी उसके साथ. चेहरा नोट करती थी...कहती कुछ नहीं थी...गाना गाती थी...मेरे पिया हुए लंगूर...मुस्कुराती थी, बस. रास्ते में उसकी स्क्रिप्ट चेक कर देती थी. हवा खिड़की से उछल-कूद करने अन्दर आती रहती थी...उसके बालों में भीनी खुशबू रहती थी. लड़का सोचता था ये कौन सा शम्पू लगाती होगी...सारे तो उसने ट्राई कर डाले हैं पर कभी उस जैसी खुशबू नहीं मिली. हवा हँसती थी उसकी खोज पर. बस स्टॉप से पहले लड़के का घर पड़ता था, फिर लड़की का होस्टल...पहले स्टॉप पर दोनों साथ उतरते थे और एक आध किलोमीटर चलकर लड़की के होस्टल तक जाते थे.
रास्ते में ढेर सारे लैम्प-पोस्ट पड़ते थे...उनकी परछाईयाँ एक साथ चलती थीं, साथ चलते उसके बाल हलके हलके हवा में उड़ते रहते...परछाई पीले रौशनी में भूरी नज़र आती थी. लड़की को परछाई अपने जैसी लगती थी...कुछ पल का साथ जो बेइंतिहा खूबसूरत होता था पर उससे ज्यादा कुछ नहीं. वो अक्सर साथ चलते हुए उसका चेहरा देखने के बजाई परछाई देखते चलती थी...
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दिल्ली में सालों से वैसी प्यारी हवा नहीं चली है...लड़का अब सेनियर एडिटर हो गया है...बहुत कुछ करता है एक साथ, उसकी स्क्रिप्ट्स चेक करने के लिए ढेर सारे जूनियर लोग हैं. माँ घर पे रिश्ते देख रही है...और वो आजकल कम बोलने लगा है...उसे लगता है हवा शायद कुछ कहना चाहती हो. हवा आजकल चुप है.
04 November, 2010
याद का एक टहकता ज़ख्म
सबसे पहले आती है एक खट खट वाले पुल की आवाज़...फिर पहाड़ों के बीच से निकलती जाती है रेल की पटरी और कुछ जाने पहचाने खँडहर दीखते हैं जो सालों साल में नहीं बदले...कुछ इक्का दुक्का पेड़ और सुरंग जैसा एक रास्ता जिससे निकलते ही जंक्शन दीखता है.
नहीं बदला है माँ...कुछ भी नहीं बदला है.
ट्रेन रूकती है और अनजाने आँखें तुमको उस भीड़ में ढूंढ निकालना चाहती हैं...हर बार जब इस स्टेशन पर उतरती हूँ लगता है मेरी बिदाई बाकी है और अभी हो रही है क्योंकि इस स्टेशन पर तुम नहीं होती...ऐसा कभी तो नहीं होता था मम्मी की हम कहीं से भी आयें और तुम स्टेशन लेने न आओ. मुझे ये स्टेशन अच्छा नहीं लगता, न ये ट्रेन अच्छी लगती है...मुझे आज भी उम्मीद रहती है, एक बेसिरपैर की, नासमझ उम्मीद की स्टेशन पर तुम आओगी.
पता है माँ...आजकल हम तुम्हारे जैसे दिखने लगे हैं. कई बार महसूस होता है की तुम ऐसे हंसती थी, तुम ऐसे बोलती थी या फिर तुम ऐसे डांटती थी. ऐसे में समझ नहीं आता की खुश होऊं की उदास...कभी कभी लगता है की तुम सच में कहीं नहीं गयी हो, मेरे साथ हो...कभी कभी बेतरह टूट जाते हैं की तुम कहीं भी नहीं हो...की तुम अब कभी नहीं आओगी. काश की कोई पता होता जहाँ तुम तक चिट्ठियां पहुँच सकतीं. भगवान में भी विश्वास कोई स्थिर नहीं रहता, डोलता रहता है. और अगर किसी दुसरे की नज़र से देखें तो हमको खुद ऐसा लगता है की मेरा कोई anchor नहीं है. की समंदर तो है, बेहद गहरा और अनंत पर ठहरने के लिए न कोई बंदरगाह है, न कोई रुकने का सबब और न ही कोई रुकने का तरीका.
आज तीन साल हो गए तुम्हें गए हुए...और पता है कि एक लम्हा भी नहीं गुज़रा, कि आज भी सुबह उठते सबसे पहले तुमको ही सोचती हूँ... fraction में बात करूँ तो भी एक जरा भी अंतर नहीं आया है. लोग कहते है की वक़्त सारे ज़ख्म भर देता है, मैं उस वक़्त का इंतज़ार कर रही हूँ...जैसे कोई जरूरी अंग कट गया हो शरीर से माँ...तुम क्या गयी हो जैसे मेरे सारे सपने ही मर गए हैं...जिजीविषा नहीं...कोई उत्साह नहीं. कितनी कोशिश करनी होती है एक नोर्मल जिंदगी जीने में...और कितनी भी कोशिश करूँ कम पड़ ही जाता है. तुम हमको एकदम अकेला छोड़कर चली गयी हो माँ...तुम हमसे एकदम प्यार नहीं करती थी क्या?
सालों बाद देवघर में हूँ...बस लगता है जैसे देवघर में अब 'घर' नहीं रहा. घर तो खैर लगता है कहीं नहीं रहा...मुसाफिर से हैं, दुनिया सराय है...आये है कुछ दिन टिक कर जायेंगे. तुम मेरे सारे त्योहारों से रंग ले गयी हो माँ. कितनी मुश्किल होती है यूँ हंसने में...बोलने में...जिन्दा रहने में. कहाँ चली गयी हो मम्मी...तुम्हारे बिना कुछ भी, कभी भी अच्छा नहीं लगता...कोई ख़ुशी पूरी नहीं होती. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ मम्मी...तुम्हारी बहुत याद आती है...बहुत बहुत याद आती है.
मैं कुछ भी करके अपने दर्द को कम नहीं कर पाती हूँ माँ...लिख कर नहीं, किसी से बात कर नहीं...रो कर नहीं.
सारे शब्द कम पड़ते, उलझ जाते हैं, भीग जाते हैं. Miss you mummy. Miss you so so much.
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