कह के जाने में हमेशा लौट आने का भाव छुपा होता है. अनिश्चितता होती है. उम्मीद होती है कि कोई रोक लेगा. कोई, महज़ दुनियादारी निभाने के लिए ही समझाएगा कि मत जाओ...जैसे कि मुझे बड़ा मालूम है कि जाना कहाँ है. आज पेपर में एक अच्छी आर्टिकल आई थी एक निर्देशक की थी, जिसने एक फिल्म बनायीं थी ३० की उम्र की औरतों के बारे में.
आश्चर्य हुआ, कुछ दिनों से मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रही हूँ. उस डिरेक्टर ने ये फिल्म बनाने का निर्णय कुछ ऐसे ही २७-२८ साल में लिया था. मुझे लगता है कि दो तरह की जिंदगियों के बीच एकदम यही उम्र होती है. फलसफे कहते वक़्त ये नहीं सोचना पड़ता कि कोई कहेगा तुमने दुनिया नहीं देखी है, कि लड़की हो, बच्ची हो दुनियादारी में ज्यादा दिमाग मत लगाओ. बल्कि यही एक वक़्त होता है जब शायद एक लड़की या कहें कि औरत अपनी दुनियादारी की परिधि खींचना चाहती है. ये वो वक़्त होता है जब बचपन से सीखा कुछ अपने खुद के अनुभव और उम्मीद के साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया रचता है जो एक हद तक प्रक्टिकल होती है पर सपने भी कहीं पीछे नहीं धकेले जाते.
वैसे कहते हैं कि लड़कियां जल्दी मैच्योर हो जाती हैं. हो नहीं जाती, होना पड़ता है. जब १४ की उम्र में दुनिया आपको सिखाने पर तुली हो कि बस में लड़कियां आगे बैठेंगी और लड़के पीछे तो आप अक्सर सोचती हैं कि बीच वाली चार सीटों पर कौन बैठेगा? कभी किस्मत आपको उसी बीच वाली सीट पर बिठा देती है क्योंकि आगे तो ऐसी धक्कमपेल है कि खड़े होने कि जगह नहीं है. माइंड ईट, मजबूरी है...और ऐसे ही साथ जाते हुए वो पहली बार महसूस करती है कि लड़के इतना बड़ा हव्वा नहीं होते जितना कि अधिकतर बनाया जाता है. वो भी हमारी ही तरह कुछ डरे हुए, कुछ सकपकाए से होते हैं. इन फैक्ट हमसे भी ज्यादा घबराते हैं. ऐसी किसी घटना के बरसों बाद लड़की अपने साथ कुछ वक़्त अकेला बिता सकती है, ख़ुशी ख़ुशी...ऐसे किसी लम्हे में वह सोचती है कि अच्छा हुआ को-एड में पढ़े, नहीं तो कितना डरते लड़कों से...जैसे स्कूल की या कॉलेज की बाकी लड़कियां डरती हैं. कि समाज और दुनिया चाहे जो पट्टी पढाये, हिसाब बराबर का होता है. बस आपको ये बात मालूम रहनी चाहिए. ऐसे किसी दिन वह किसी बॉय फ्रेंड को डिच करती है और घंटों अफ़सोस भी करती है. इस नारीसुलभ अफ़सोस और ग्लानी के बावजूद उसे अपने निर्णय पर दुःख नहीं होता क्योंकि वो जानती है कि रिश्ता बहुत दूर नहीं जा सकता.
३० साल की रेखा पर पहुँचने वाली ये स्त्री बहुत कुछ सोचती है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है बच्चों की प्लानिंग...आखिर दुनिया के हर माध्यम से यही चिल्लाहट आती है कि ३० के पहले एक बच्चा होना बहुत जरूरी है. इस बारे में अपनी एक मित्र से एक गज़ब की बात सुनी 'अरे औरतें हैं हम, कोई एक्सपायरी डेट के साथ थोड़े आते हैं कि एक्जैक्टली ३० होते ही सब ख़तम, थोड़ा आगे पीछे भी तो हो सकता है'. सुन कर इतना सुकून मिला जितना किसी लम्बे फेमिनिस्ट भाषण के बाद भी नहीं मिलता. फेमिनिस्म भी एक बहुत मिस्लीडिंग चीज़ है...अक्सर लोग एकदम एक्सट्रीम की बात करने लगते हैं. पर इसका मतलब किसी दो छोरों को और दूर करना नहीं एक ऐसा रास्ता निकालना है जिससे टकराव थोड़ा कम हो सके. मेरा हर तरह का फेमिनिस्म नापने का पैमाना है...किसी लड़के से इस बारे में बहस छेड़ दो कि लड़कियों को क्या पहनना चाहिए, बस...सब एक लाइन में आ जायेंगे. शोर्ट में पता चल जाता है कि कौन कितना लिबरल है, कौन पोलिटिकल है और कौन सच में ये निर्णय लड़कियों पर छोड़ना चाहता है.
उम्र के इस खूबसूरत पड़ाव पर, एक और साल के ख़त्म होते हुए, बहुत कुछ प्लान बनाती हूँ. यूँ तो जिंदगी को सालों में बांटना ही गलत है, पर कोई ना कोई तरीका तो होना चाहिए, यही सही. और भी कई अनर्गल बातें हैं...यूँ ही चलती रहेंगी, मूड के हिसाब से. बरहाल रात के पौने दो बज रहे हैं और मेरा बालकोनी में खड़े होके कोई गीत गुनगुनाते हुए coffee पीने का मन है. Sometimes it's so relieving to not be some sixteen year old.
(निकट भविष्य में जारी...)
बहुत ही बेहतरीन सोच, उम्दा रचना....मेरा ब्लागः "काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी प्रकाशित...आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे......धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत गहन चिंतन किया है अपने इस विषय पर
ReplyDelete, बधाई
हे पूजा जहाँ तक मुझे लगता है,तुम KPC PATNA की पूजा है जो हमेशा एक्सप्रेस में आती थी छोटी गुड़िया 2 चोटी कर के आती थी.तुम्हारी कुछ किस्से हम पढ़ें बहुत ही अच्छा लगा! लगे रहो इडिँया
ReplyDeleteउम्र जिया हो तो जहां भी ठहरें, वही खूबसूरत पड़ाव बन जाता है. पिछला पड़ाव सुन्दर और आने वाला ज्यादा हसीन.
ReplyDeleteआज सुबह की ये दूसरी पोस्ट पढ़ रहा हूँ..पहले पंकज का पढ़ा और अब आपका..दो खूबसूरत पोस्ट सुबह सुबह.
ReplyDeleteकमेन्ट में कुछ भी नहीं कहूँगा, बस ये की आपकी सब बातें मानता हूँ :)
वाह ठाकुर..
ReplyDeleteइस उम्र की एक दिक्कत भी है.. पहले वाली मासूमियत नहीं रहती.. कुछ ज्यादा ही चीज़ें समझ में आने लगती हैं.. लगता है कि सब कुछ पता है.. और तब ये प्रैक्टिकल इंसान वैराग्य की तरफ़ भागता है.. २ बजिया वैराग्य..
फ़ेमिनिस्म वाली बात बडी पसंद आयी दोस्त..
हम सबको बढ़ती उम्र का खौफ क्यों हो, जीवन का महत्व तो आज ही है, आनन्द से खिड़की पर खड़े हो कॉफी पियें। केक भी!
ReplyDeleteखतरनाक पोस्ट है जी..बोले तो पचास साल मे लिखी जाने वाली..खैर दिमागी उमर का बर्थ सर्टिफ़िकेट से कोई ताल्लुक नही होता :-)
ReplyDelete..और देखें तो जिंदगी मे अपने से आगे वाले सालों के कम्पार्टमेन्ट मे इमेजिनेशन ज्यादा होता है..तो उम्र के पहाड़ पर बैठ नीचे देखने मे चीजें ज्यादा साफ़ नजर आती हैं..यहाँ तो पूरा काम्बिनेशन है..
अब भविष्य का इंतजार करते हैं!
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ReplyDeleteमेरा हर तरह का फेमिनिस्म नापने का पैमाना है...किसी लड़के से इस बारे में बहस छेड़ दो कि लड़कियों को क्या पहनना चाहिए, बस...सब एक लाइन में आ जायेंगे. शोर्ट में पता चल जाता है कि कौन कितना लिबरल है, कौन पोलिटिकल है और कौन सच में ये निर्णय लड़कियों पर छोड़ना चाहता है.
ReplyDeleteसटीक पैमाना है नापने का ....कॉफी कैसी लगी ? :):)
@संगीता जी, कॉफी बहुत अच्छी लगी. रात के आलस को परे धकेल कर बनायीं थी न, तो स्वाद बेहतर आया :)
ReplyDeleteजबरदस्त !!
ReplyDeleteसालो में नहीं बल्कि ज़िन्दगी को बाँटना ही गलत है...हर वक़्त की अपनी खूबसूरती होती है.
कौन कितना लिबरल है ये तो आपको थोड़ी देर बात करके ही पता चल जाता है ;)
निकट भविष्य में ऐसा ही mood जारी रहे :)
उम्र तब तक कोई प्रभाव नही छोडती जब तक सोच नही बदलती ……………सब सोच पर निर्भर करता है…………सुन्दर लेखन्……………इसी विषय पर अरुण जी की कविता पढिये कल ही उन्होने लगाई थी।
ReplyDeletehttp://aruncroy.blogspot.com/2010/12/blog-post_10.html
एक बेफिक्र दिखने वाली लड़की
इस लिंक पर पढिए।
वंदना जी, लिंक का शुक्रिया...कविता अभी पढ़ी. तस्वीर का एक और पहलू दिखाती है कविता...थोड़ी नकारात्मक और चीज़ों को सिर्फ उपरी सतह पर लेती हुयी लगी मुझे, जैसी कि कोई पुरुष खुद को समझाना चाहता हो कि ३० पर पहुँच पर भी वो लड़की ही है, और अभी भी उसे परेशान करने को पुरुष वर्ग सक्षम है, सताई हुयी है. ऐसा भी तो हो सकता है न कि औरत वाकई खुश हो...सक्षम हो, सबल हो.
ReplyDeleteअतीत बहुत सुन्दर लगता है, वर्तमान में रहता कौन है..भविष्य के विषय में सोचते हुए वर्तमान बीतकर अतीत हो जाता है..यही सत्य है पूजा जी।
ReplyDeleteवैसे आपने इस प्रस्तुति में बहुत कुछ कहा है--------
"वैसे कहते हैं कि लड़कियां जल्दी मैच्योर हो जाती हैं. हो नहीं जाती, होना पड़ता है. जब १४ की उम्र में दुनिया आपको सिखाने पर तुली हो कि बस में लड़कियां आगे बैठेंगी और लड़के पीछे तो आप अक्सर सोचती हैं कि बीच वाली चार सीटों पर कौन बैठेगा?"
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (13/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
पूजा आप अरुण के ब्लाग पर पहुंची थीं और मैं उनके ब्लाग से आपके ब्लाग तक। उनकी कविता पर कंटेट के लिहाज से आपकी टिप्पणी एकदम जायज है। मैं आपके मत से सहमत हूं। और जो कुछ आपने यहां लिखा है वह पढ़कर और अच्छा लगा। आज की एक सुलझी हुई स्त्री का नजरिया।
ReplyDelete*
आपका फालोअर बनकर जा रहा हूं। आता रहूंगा। संयोग से मैं भी बंगलौर में ही हूं। यूं भोपाल से हूं।
पूजा जी आप हमारे ब्लॉग पर आयी और आपने ब्लॉग पर आपके कमेन्ट को पढ़ते हुए मैं आपके ब्लॉग पर पहुंचा.. वहां भी ३० की उम्र की लड़कियों के बारे में बात देखी तो एक बात साफ हो गई कि आप और मैं ३० की उम्र की स्त्रिओं के बारे में सोच रहे हैं.. लिख भी रहे हैं.. आपके कमेन्ट से मैं पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन शायद आपने मेरी कविता को जल्दीबाजी में पढ़ ली ... मेरी कविता बस इतना कहती है के वे बेफिक्र नहीं हैं.. इसका कतई मतलब नहीं निकलना चाहिए कि वे दबी, कुचली, डरी हुई हैं... मेरी पात्र अपनी सभी फिक्रों पर लिप ग्लोस लगा कर नई मीटिंग के लिए चल देती है.... वह हिम्मत वाली है.. स्वाभिमानी है... वह मैदान नहीं छोड़ रही है... बाकी मेरी स्त्री पात्र जिस परिवेश में रह रही है वह बहुत बहुत आम है.. और आप यदि सर्वेक्षण कर लें तो वही राय रखेंगी.. बाकी जब मैंने ३० की उम्र की स्त्रियों को लड़की कहा तो आपसे से पहले मेरे बड़े भाई राजेश उत्साही जी ने भी आपति जाहिर की थी और जो उत्तर मैं ने उन्हें दिया यदि आप पढ़ ली होती हो यह ना कहती कि लड़कियों का उपयोग मैंने परेशां करने की पृष्ठभूमि में किया है.. बल्कि मैंने लड़कियों में जो जिजीविषा, जो सपने .. जो हौसला होता है ... उस लिहाज से किया है... बाकी जहाँ था मेरी पुरुषवादी सोच.. जो आप देख रही थी मेरी कविता में वह सोच मेरी कविता 'गरीबी का मैग्नेटिस्म' शीर्षक से एक कविता है वहां मिल जाएगी.. देखिएगा जरुर...
ReplyDelete....बाकी आपके आलेख में जो ३० की उम्र की स्त्रियाँ हैं वही स्त्रियाँ .. वही सोच ... मेरी ३० की लड़कियों की भी है.. please read between the lines... वंदना जी का विशेष आभार कि आपसे परिचय हुआ..
सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteपूजा जी आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा... आधुनिक विचारों और नारी विमर्श को आपने बढ़िया से प्रस्तुत किया है... मैंने अरुण जी की कविता भी पढ़ी थी.. वहां मेरी टिप्पणी आप देख सकते हैं.. आपने जिन मुद्दों को उठाया मैंने पहले ही कह दिया था.. समय मिले कारपोरेट दुनिया से तो इस छोटे शहर की संवेदना से भी जुड़िये... निराश नहीं होंगी आप....
ReplyDeleteab is post par kya kahun....speechless hona, aur bohot bohit saara kuch kehna chaahna....ye dono feelings ek saath kaise handle ki jaayen....?
ReplyDelete३० साल की रेखा पर पहुँचने वाली ये स्त्री बहुत कुछ सोचती है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है बच्चों की प्लानिंग...आखिर दुनिया के हर माध्यम से यही चिल्लाहट आती है कि ३० के पहले एक बच्चा होना बहुत जरूरी है. इस बारे में अपनी एक मित्र से एक गज़ब की बात सुनी 'अरे औरतें हैं हम, कोई एक्सपायरी डेट के साथ थोड़े आते हैं कि एक्जैक्टली ३० होते ही सब ख़तम, थोड़ा आगे पीछे भी तो हो सकता है'.
kya kahun....main to 30 ke aas paas bhi nahin, 23 ki hoon, aur family meri jaan kha chuki hai....ye nahin samajhte ke jo unke liye 'good news' hoga, wahan se meri life ka kya hoga...
kuch samajh nahin aata....
zyaada nahin bolungi...warna itna bol jaungi ke server congest ho jayega... ;)
beautiful post dear....
तुम्हारी सोच कितनी सुलझी हुई है इसी से पता चलता है... लेकिन देखो हम तानाशाह लोग हैं... ऐसे कहेंगी तो आप से तुम तुम से तू और तू से तेरी तो कहने में हम देर नहीं लगते... झगडा हो जाएगा...
ReplyDeleteआप समझ रही हैं ना हम क्या कह रहे हैं ?
@सागर, ये कोई पहेलियाँ बुझाने की जगह लग रही है तुम्हें?
ReplyDeleteहमको बिलकुल नहीं समझ आ रहा कि तुम क्या कह रहे हो.
just wait. हम कुछ दिनों में एक पोस्ट लिखने वाले हैं "तीस के होने के बाद"
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपके लिए कुछ बदले ना बदले, दुनिया के लिए आप बदल जाती हैं और साथ ही दुनिया आपको ये सोचने को भी मजबूर कर देती है कि आपमें कुछ बदल गया है.
दूसरी बात जो तुमने कही कि बच्चे के लिए जिद. मैं अभी शादी करना चाहूँ या ना चाहूँ, लोग इस बात का इतना डर दिखाते हैं कि लगता है 'यार कर लो' एक अनचाहा दबाव.
मुझे एकदम से तीस के होने का पता ही नहीं चला. बीएस एक बात का अफ़सोस हुआ कि अब मैं सिविल का एक्ज़ाम नहीं दे पाऊँगी, मैंने अपना सारा समय पी.एच.डी. करने में लगा दिया, वहीं साथ के और लोग ये परीक्षा दे रहे हैं, तो अफ़सोस होता है. इसके आलावा मेरी ज़िंदगी में तो कुछ नहीं बदला है, हाँ दुनिया अब तुली हुयी है, ये सोचने को मजबूर करने के लिए.
@आराधना...दुनिया के पास बहुत फुर्सत है न इसलिए...तुम चिंता मत करो...कहीं कुछ नहीं बदलता है. वो जैसे १३ को लेकर लोग डराते हैं न, वैसे ही :)
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़ कर!!!
ReplyDeleteजिंदगी तो बिन बंटे चलती ही चली जायेगी कई मील के पत्थर पार करते हुए...!
शुभकामनाएं!
सुबह जब सरसरी निगाह डाली तुम्हारी पोस्ट पर ....ठीक से कुछ समझ नहीं आया....वो टी.वी पर न्यूज़ देखी थी....सॉफ्टवेर इंजिनीअर ने किस बेदर्दी से अपनी वाइफ का मर्डर कर दिया....सो लड़की के लड़की होने और शादी-वादी जैसी चीजों से नाराज़गी थी....
ReplyDeleteलिखा तो गज़ब है ....एक नई पूजा निकल कर सामने आई है....कुल मिलाकर इस पोस्ट ने एक नजरिया तो दिया हमें....संगीता जी ने जिन पंक्तियों का जिक्र किया वो भी क्या खूब है.....लेकिन हमने देखा है ऐसी लड़कियों को भी जों १५ की उम्र में ३० की सोच रखती हैं और कुछ ३० की उम्र में १६ की. हालात, परिवेश, मानसिकता, शिक्षा, व्यवसाय बहुत चीजे हैं ......अरे हाँ! १४ के बाद दुनिया सब सिखा देती है .....इसीलिए छटवी इन्द्रिय तेज होती है ....इरादे भापते जरा देर नहीं लगती :-)
पता नहीं ..याद करने की कोशिश कर रहा हूँ......तीस की उम्र में किस मोड़ पे खड़ा था आइने के अलावा उम्र का जिक्र रोज कोई नहीं करता .यूँ भी कभी जिंदगी को कभी उम्र के खानों में नहीं रखा .....हाँ बस कुछ चीजों का क्रम बदला है......ओर दिल ओर दिमाग के बीच नये फ़िल्टर. अपने अलग अलग साइज़ के साथ फिट हुए है ....
ReplyDeleteतीस क्या ..मैंने अडतीस की लडकिया भी देखी है ओर ४२ की भी.... ..
यूँ भी दिल के जुदा खानों में कही एक टीन बैठा है....कही ...एक बागी नौजवान....ओर कही एक समझौता परस्त दुनियादार.....
वैसे उम्र का समझदारी से रिलेशन ......खुदा ने सबके वास्ते कम्पलसरी नहीं रखा है
aap har dfa dil ko chhoo lene wali hakikat likhti hain........
ReplyDeleteaapka bahut abhar .......jo ki aap apni nizi soch ko hamare samksh rakhti hain..........fir se abhari hoon.....
aap har dfa dil ko chhoo lene wali hakikat likhti hain........
ReplyDeleteaapka bahut abhar .......jo ki aap apni nizi soch ko hamare samksh rakhti hain..........fir se abhari hoon.....
बाकी ऊपर विचारों को सुलझे और बेहतर तरीके से रख पाने के लिए सराहना की गयी है और परम्परारिक पुरुषवादी दृष्टिकोण का मुजाहिरा किया गया है
ReplyDeleteआज मैंने भी पढ़ा ... "टर्निंग ३०" फिल्म के बारे में जिसमें गुल पनाग मुख्य भूमिका में होंगी...
तीस और उसके बाद एक हल्का सा दर्द कोहनी के ऊपर बनने लगता है.. डॉक्टरी भाषा में 'हाई ब्लड प्रेशर'... यह दर्द दुनिया कि समझदारी को समझते हुए बनता है.. शायद सबको नहीं होता हो , ऊपर किसी ने ठीक ही कहा 'दिमागी उम्र का कोई बर्थ सर्टीफिकेट नहीं होता'
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