ड्रोपर से बूँद बूँद यादें टपकाती हूँ फाउन्टेन पेन की अतल गहराइयों में. नए कागज़ को जिस्तों के पुलिंदे से निकालती हूँ और राइटिंग बोर्ड पर क्लिप कसती हूँ कि आज एक कहानी लिखूंगी एकदम नए बिम्ब उभारते हुए. कहानी का पहला दृश्य उभरता है कि तुम्हारा नाम चस्पां हो जाता है और मेरी आँखें कुछ नया देखने में असमर्थ हो जाती हैं. पेन का निब निकालती हूँ, पानी में धोकर पुराना कचरा बाहर करती हूँ. जा कर पापा के शेविंग किट से पुराना कोई ब्लेड ढूंढती हूँ और उससे निब के पतले दोनों हिस्सों के बीच फंसाती हूँ, कमबख्त तुम्हारा नाम भी तो ऐसा फंसा है कि ना काट पाती हूँ ना पानी में घोल पाती हूँ.
फिर से लिखना शुरू करती हूँ, स्याही का रंग थोड़ा फीका पड़ गया है, जाने पानी मिला है या आंसू मेरे कहानी के पात्रों के साथ खिलवाड़ करने लगे हैं. लिखने में कोई नया नाम लिखने की कोशिश करती हूँ पर पेन इतना साफ़ होने के बावजूद चल नहीं पाता, थोड़ी झुंझलाहट से उँगलियों को झटका देती हूँ, सफ़ेद मोजैक के फर्श पर काली स्याही एकदम साफ़ दिखती है. मेरी कहानियों में तुम ऐसे ही खुद को देख लेते होगे क्या? सब सोचने के बाद तुम्हारे माता-पिता पर भी बहुत गुस्सा आता है, क्या जरूरत थी इतना अलग नाम रखने की...कोई राहुल, अमित या अंकित जैसा नाम रख देते. मैं तुम्हारा नाम भी लिख सकती और इस बात की चिंता भी नहीं रहती कि कोई और तुम्हें मेरी कहानी में पढ़ लेगा.
पता है मैं इतना क्यों लिखती हूँ? कि कभी तुम्हें मेरी याद आये और तुम गूगल करो तो मुझे ढूँढने में ज्यादा परेशानी ना हो...तुम हमेशा मुझे खो देते थे ना इसलिए. देखो ना जमाने की भीड़ में कैसी खो गयी हूँ, ढूँढने को इतने तरीके हैं पर अभी तक ऐसा सर्च इंजन नहीं बना जो तुम्हारे दिल के सारे तहखाने तलाश सके. मेरे सुकून को काश कोई कहानी या कविता का सिरा ही होता, क्या करूँ सब होने पर भी सपने देखना तो मेरे बस में नहीं है ना. तुमपर कहानी लिखूं ना लिखूं मेरे सपने तो तुम्हारा ही संसार रचते हैं, वही उनका होना है. रात के किसी अनजाने पहर में तुम ही तो मेरा यथार्थ हो ना.
लिखने का क्रम टूट गया है, उठ कर फर्श साफ़ करना ज्यादा जरूरी है. काली स्याही परमानेंट होती है ना, मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे नाम के परे हटाने वाली इस स्याही पर गलती से भी मेरा पैर पड़े. दिवाली पर जो मूर्तियाँ बदलते हैं, उनमें प्राण प्रतिष्ठा नहीं रहती, फिर भी उन्हें पैर तो नहीं लगा सकते. कभी तुम्हारे किरदार में एक भी ग्रे शेड नहीं दे पाती हूँ जबकि अब देखती हूँ तो लगता है कि ऐसा नहीं था कि तुम्हारा कोई श्याम पक्ष कभी था ही नहीं. पर मैं भी ना...चौथ को पूजने वाले ग्रहण भी कहाँ देख पायेंगे अपने चाँद में, अशुभ होता है तो. ऐसे होने को अक्सर नकार ही दिया जाता है.
वैसे तो किसी और को ये अधिकार नहीं है पूछने का कि मेरी कहानी के किरदार सच होते हैं या झूठ, तुम पूछ सकते हो कि ये मैं हूँ या नहीं. तुम मेरी कहानियाँ पढ़ते भी हो क्या? तुम्हें मालूम है जानां कि मैंने आज तक कभी कोई कहानी नहीं लिखी है?
एक बात बताओ जानां, तुम्हें मैं याद हूँ क्या?
फिर से लिखना शुरू करती हूँ, स्याही का रंग थोड़ा फीका पड़ गया है, जाने पानी मिला है या आंसू मेरे कहानी के पात्रों के साथ खिलवाड़ करने लगे हैं. लिखने में कोई नया नाम लिखने की कोशिश करती हूँ पर पेन इतना साफ़ होने के बावजूद चल नहीं पाता, थोड़ी झुंझलाहट से उँगलियों को झटका देती हूँ, सफ़ेद मोजैक के फर्श पर काली स्याही एकदम साफ़ दिखती है. मेरी कहानियों में तुम ऐसे ही खुद को देख लेते होगे क्या? सब सोचने के बाद तुम्हारे माता-पिता पर भी बहुत गुस्सा आता है, क्या जरूरत थी इतना अलग नाम रखने की...कोई राहुल, अमित या अंकित जैसा नाम रख देते. मैं तुम्हारा नाम भी लिख सकती और इस बात की चिंता भी नहीं रहती कि कोई और तुम्हें मेरी कहानी में पढ़ लेगा.
पता है मैं इतना क्यों लिखती हूँ? कि कभी तुम्हें मेरी याद आये और तुम गूगल करो तो मुझे ढूँढने में ज्यादा परेशानी ना हो...तुम हमेशा मुझे खो देते थे ना इसलिए. देखो ना जमाने की भीड़ में कैसी खो गयी हूँ, ढूँढने को इतने तरीके हैं पर अभी तक ऐसा सर्च इंजन नहीं बना जो तुम्हारे दिल के सारे तहखाने तलाश सके. मेरे सुकून को काश कोई कहानी या कविता का सिरा ही होता, क्या करूँ सब होने पर भी सपने देखना तो मेरे बस में नहीं है ना. तुमपर कहानी लिखूं ना लिखूं मेरे सपने तो तुम्हारा ही संसार रचते हैं, वही उनका होना है. रात के किसी अनजाने पहर में तुम ही तो मेरा यथार्थ हो ना.
लिखने का क्रम टूट गया है, उठ कर फर्श साफ़ करना ज्यादा जरूरी है. काली स्याही परमानेंट होती है ना, मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे नाम के परे हटाने वाली इस स्याही पर गलती से भी मेरा पैर पड़े. दिवाली पर जो मूर्तियाँ बदलते हैं, उनमें प्राण प्रतिष्ठा नहीं रहती, फिर भी उन्हें पैर तो नहीं लगा सकते. कभी तुम्हारे किरदार में एक भी ग्रे शेड नहीं दे पाती हूँ जबकि अब देखती हूँ तो लगता है कि ऐसा नहीं था कि तुम्हारा कोई श्याम पक्ष कभी था ही नहीं. पर मैं भी ना...चौथ को पूजने वाले ग्रहण भी कहाँ देख पायेंगे अपने चाँद में, अशुभ होता है तो. ऐसे होने को अक्सर नकार ही दिया जाता है.
वैसे तो किसी और को ये अधिकार नहीं है पूछने का कि मेरी कहानी के किरदार सच होते हैं या झूठ, तुम पूछ सकते हो कि ये मैं हूँ या नहीं. तुम मेरी कहानियाँ पढ़ते भी हो क्या? तुम्हें मालूम है जानां कि मैंने आज तक कभी कोई कहानी नहीं लिखी है?
एक बात बताओ जानां, तुम्हें मैं याद हूँ क्या?
mere sapne to tumhara hi sansaar rachte hain !!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ....प्रसंग काफी रोचक है ...शुक्रिया
ReplyDeleteकन्फेशन लेखक का है तो उसमें कहानी और कविता की संभावना एक साथ बन जाती है.
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ReplyDeleteकन्फेशन या प्रेमपत्र? पर है खूबसूरत !
ReplyDeleteतुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है .....जो मुझे बेहद पसंद है .......
ReplyDeleteप्रवाहमयी कन्फेशन ....आज भी क्या निब वाला पेन प्रयोग में आता है ? पर उसका सजीव वर्णन किया है ...
ReplyDeleteअब इस कन्फ़ेशन के बाद इसे आगे भी बढाइये ………………बहुत ही सुन्दर लिखती हैं आप्…………दिल को छू गया आपका लेखन्।
ReplyDeleteबहुत दिनों बात आपकी तरह की पोस्ट पढ़ने को मिली, गहरी, सीधी, मन से।
ReplyDeleteप्रवीण जी की बात से सहमत,
ReplyDeleteआदतन मुझे भी आपका यही रूप रंग सबसे ज्यादा भाता है. पहला और चौथा बेजोड़ है ... बेशक इसका कोई जोड़ है ना तोड़ ... दिल की बात, एकदम मौलिक... बिना मिलावट... खरा...
लिखने की कोशिश में उभरने वाले /बाधा डालने वाले बिम्ब कमाल के हैं. रुकावटें तो पढ़ी थी पर अब तक इस तरह के बिम्ब के दर्शन नहीं हुए थे... शायद में बहुत कम पढता हूँ यह भी एक वजेह रही हो... ब्लॉग का नया कलेवर भी बहुत उम्दा है. लिखना /जीना, परिचय सबसे मिला तो यह फ्लेवर भी.
*पहला और चौथा "पैराग्राफ" बेजोड़ है
ReplyDeleteसांझ का कमेन्ट गलती से डिलीट हो गया था...ये था कमेन्ट
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पता है मैं इतना क्यों लिखती हूँ? कि कभी तुम्हें मेरी याद आये और तुम गूगल करो तो मुझे ढूँढने में ज्यादा परेशानी ना हो...तुम हमेशा मुझे खो देते थे ना इसलिए
awwwwwww........!!
sipmly superb...!!! sirf ye nahin, saare posts, poora blog, sab kuch...amazing
to aap yahan hain....ye pata nahin maloom tha mujhe, main 'ehsaas' par aapka intezaar kar rahi thi....i love reading u
hey by the way....बंगलोर का रंग क्या है इन दिनों, बड़ी याद आती है वहाँ की...जबरदस्ती छुड़ाया गया था न मुझसे
पर वो स्याही मिट जाती है क्या...बढ़िया लिखा
ReplyDeleteपूजा, मूड अच्छा है मेरा ....और तुम्हारी पोस्ट ने तो और अच्छा बना दिया....तो फिर तारीफ करूँ क्या तुम्हारी ? इन लहरों से वापस जाने का मन ही नहीं करता....जी चाहता है की पूरी तरह भीग जाऊं और फिर छींकती हुई वापस जाऊं.......ये जों ड्रॉपर और पेन वाला किस्सा है ना बहुत अपना सा है .....कुल मिलाकर खुद का एक हिस्सा छोड़ कर जा रहे हैं यहाँ.....High five for writer :-)
ReplyDeleteये पोस्ट बहुत अच्छा लगी । सभी ब्लोगरस के कॉमेंटस से सहमत।
ReplyDeleteजाना का तो पता नहीं पर ये वाली पूजा अक्सर हमें बड़ी याद आती है,..
ReplyDeleteकंगूरे वाली पोस्ट के बाद एक और जादू है ये..
My god. कहानी लिखती हूँ,लिखना शुरू करती हूँ आदि आदि कहते कहते 30 लाइने लिख डालीं.अंत में wind up भी कर दिया मगर कहानी का कहीं अता पता नहीं.क्या कहूं आपको.................?
ReplyDeleteबहरहाल मज़ा आ गया.किस बात का, ये नहीं पता
amazing write....the way you have captured the very minute details here...shows your observation,perception and outlook about life...a little relenless,little content...this write was a very thought provoking and unrelenting ...at the same time....kudos to you...
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