हम नॉर्मली थोड़ा जिद्दी किस्म के इंसान हैं, एक बार कुछ नापसंद हुआ तो कभी मुड़ के भी नहीं देखेंगे। कमोबेश यही अंदाज लोगों के साथ बने रिश्तों में भी होता है एक बार कुछ ख़राब लग गया तो चाहे बरसों की दोस्ती हो, एक मिनट नहीं लगती टूटने में। कहीं पढ़ा था बचपन में "Forgive your enemies, but never forget their names" बस हमने गाँठ बाँध के रख ली...मजाल किसी की जो हमसे दुश्मनी ले...
बचपन तक तो चला, कॉलेज लाइफ तक भी चला...अब सोचती हूँ इस नज़रिए पर पुनर्विचार कर लूँ। किसी की एक गलती तो माफ़ की ही जा सकती है, खास तौर पे तब जब वो इंसान रो पीट के माफ़ी मांग रहा हो( अभी तक इत्ता बड़ा दिल नहीं हुआ है की अपने ही माफ़ कर दें)।
बंगलोर आई थी तो शुरू शुरू में आसपास की जगहों का खाना ट्राय मारा था...और भैय्या हम बड़े ब्रांड कौन्शियस हैं एक बार जो पसंद आया उसमें जल्दी फेर बदल नहीं करते...और एक बार कुछ ख़राब निकला तो कभी ट्राय नहीं करेंगे दोबारा। इस श्रेणी में दुकानें आती हैं, सब्जीवाले आते हैं, रेस्तरां आते हैं...सब कुछ जो मैं ख़ुद खरीदती हूँ।
खैर कहानी थी एक रेस्तरां की, काटी ज़ोन, यहाँ जो रोल्स खाए हमने वो चिम्मड़ थे...इस शब्द का उद्गम शायद चमड़े से हुआ होगा...यानि ऐसी हालत की दांतों ने खींच खींच कर हार मान ली। उस दिन के बाद हमने कभी वहां से आर्डर नहीं किया। अब ऑफिस में अगर खाना नहीं लाये तो लंच मंगवाना पड़ता है...और आख़िर कितने दिन डोसा इडली पर जियेंगे...हालत ख़राब होने लगी, उसपर तुर्रा ये की पिज्जा और बर्गर से भी जी उब गया...हमारा टेस्ट एकदम नॉर्थ इंडियन है कुछ चटपटा, नमकीन मसालेदार टाईप खाना चाहिए हमें।
ऑफिस में सबने कहा की काटी ज़ोन का खाना अच्छा होता है...हम भला मानने वाले थे, एक साल पुराना दांतों का दर्द दुहाई देने लगता, कि ऐसे मत करो हमारे साथ, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। बस हम अड़ियल घोडे की तरह अड़ जाते...मर जायेंगे पर वहां का खाना नहीं खायेंगे।
कुछ दिनों में वाकई मरने मरने वाली हालत आ गई, कहते हैं मुश्किल में ही इंसान को जिंदगी के बड़े बड़े फलसफे सूझते हैं...सो हमें भी सूझा...कि यार कित्ती बार हमने चाहा है की एक मौका और मिलता तो क्यों न एक मौका बेचारों को भी दिया जाए...कौन जाने उन्होंने सच में कुछ किया हो। टेस्ट करने का समय भी ऐसा चुना कि रिव्यू में कोई बायस न आए...पक्षपात से हमें बड़ी चिढ़ है। कुणाल को एअरपोर्ट छोड़ने गए थे...वहीं सोचा आज इस दुःख के मौके पर खा लिया जाए भर दम...कुणाल के बिना खाना पीना तो अच्छा लगता नहीं है हमें...आने वाले एक महीने के बदले आज ही सही।
विरही नायिका के मरियल सूखे रोल में ढलने के पहले हम टुनटुन इस्टाइल खाना चाहते थे...सो भांति भांति के रोल आर्डर किए...और हमें सुखद आश्चर्य हुआ उन्होंने वाकई अपनी कायापलट करली थी। और बेचारी दिल्ली के तरसे हुए, सीपी के काटी रोल्स खाए हुए भटके दुखी प्राणी, जैसे रेगिस्तान में पानी मिल गया हो...तवा पनीर रोल्स में जो हरी चटनी लिपटी हुयी की क्या कहें...आहा...क्या चटाखेदार स्वाद...तीखा, खट्टा, और प्याज के करारे लच्छे भाई वाह...और गरमा गरम पेश हुआ था तो खुशबू जैसे दिल्ली खींच ले गई वापस और हमें मूंग के पकोड़े, चाट और जाने क्या क्या याद आने लगा।
तो हम उस दिन अपनी गलती माने की हमें बिचारों के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था...ऐसे में हमने एक साल कष्ट उठाया आख़िर हानि किसकी हुयी...हमारी। उन्हें क्या पता यहाँ कोई दिल्ली की भुखमरी लड़की रहती है, जिसे बस बहाना चाहिए होता है दिल्ली को याद करके बिसूरने का। बरहाल...हम अब से सेकंड चांस देने का सोच रहे हैं, किसी को भी पूरी तरह खारिज करने के पहले।
नोट: यह पोस्ट काटी ज़ोन से कड़ाही पनीर रोल आर्डर करने के बाद लिखी गई है। चूंकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि रोल आर्डर करने के बाद रोल्स आने के पहले हम कुछ काम नहीं कर सकते...समय का इससे अच्छा सदुपयोग क्या होगा :)