09 June, 2008

सरकार राज -review

"power cannot be given...it has to be taken"

with a tagline like that i admit i was a bit doubtful about whether the movie would be up to my expectations, i wondered if the movie was over hyped and would not be able to come up to my expectations.

yes it did and more...it exceeded my expectations. i think after a long time gap we got to see a real movie with everything brought up to perfection. it has the finesse of a legendary movie...and it should go in history like that. RGV gives us a taste of real film making, a movie as it is supposed to be.

the characters are well etched out and make a distinct mark on the movie viewers, the actors play their part to perfection, the dialogues are just to the point, subtle and hard hitting. no wonder some frustrated journos complained the movie has too many of punchlines. they seem to be seeped in cliches for such a long time they refuse to accept good dialogues as such forget appreciation.

the story is tighty edited with no extra shots or frames, the camera angles as usual ad a lot the meaning and mood of the scene being carried out. i specially liked a particular scene in which a shankar goes to rescue a kidnapped person who was as usual kept in a place manned by several gundas. here our protagonist hits an electric pole causing short circuit which sets fire to several trees around, when the fire is doused by water, it creates smoke...and using this as cover they operate. its not just the beauty of the shot but the sheer logic applied that makes you want for more.

from a director's point of view the film is perfect almost flawless. the shots chosen, the cameraword, the screenplay, selection of actors and very importantly....the background score. in indian movies its very rare to find movies whose background score is even noticed. but in this movie the score adds a hell lot of meaning to the scene. i have found better utilization in few movies , mr and mrs iyer for example.

aishwarya is an actress to watch out for, she is absolutely fantastic in her role. subtle, elegant and poised...she holds a strong foothold in the same scene as amitabh, something most actors falter in... but she stays, unshadowed...stays with her head held high.

this a movie that should be taught in media schools when explaining how to make a movie...its not an actor's movie, it owns the stamp of its director, his vision. i wish there were more of these movies...and i wish when i make a movie of my own, it has the level of perfection this movie has.

movies like this inspire several people like us who love cinema, for its larger than life image...the 70 mm magic...so cheers to RGV and Sarkar Raj

07 June, 2008

मेरी पहली कविता हिन्दयुग्म पर

मुझे आज भी अपनी पहली बारिश याद है, क्यूंकि माँ हमेशा छाता लेकर भेजती थी, चाहे कोई भी मौसम होएक गर्मियों की दोपहर मैं कॉलेज में भूल गई अपना छाता और संयोग से बारिश हो गई। मैं अपने दोस्त के साथ घर लौट रही थी की बारिश शुरू हो गई, मेरा डर के मरे बुरा हाल था की माँ दान्तेगी, तभी उसने ऊपर चेहरा उठाया और कहा जब दंत कहोगी तब खाओगी अभी एक बार इन बूंदों को महसूस कर के तो देखो...मैंने चेहरा उठाया और पहली बार बारिश महसूस की...

वैसा ही कुछ खास हुआ इस गुरुवार, मेरी पहली कविता हिंद-युग्म पर पब्लिश हुयी, किसी अनजान से कोने में बहुत कम लोग इस कविता को पढेंगे पर फ़िर भी दिल को एक छोटी सी खुशी मिली।ये लिंक है http://merekavimitra.blogspot.com/2008/06/blog-post_05.html#puja
मेरी पहचान के कम लोग ब्लोगिंग करते हैं और उससे भी कम लोगो को कविता में इन्ट्रेस्ट है और उससे भी कम लोगो को मैं अपनी कविता पढने देती हूँ. ये तो ब्लॉग पर जाने क्यों अपनी कवितायेँ लिखती हूँ...क्योंकि अक्सर मुझे पसंद नहीं होता किसी को अपनी कविता पढाना, शायद इसलिए कि यहाँ मुझे कोई जानता नहीं है, सब अजनबी हैं और अजनबियों से वैसा डर नहीं लगता. क्यों कि वो पूछते नहीं हैं कि किस दुःख में तुमने लिखा, ये जानने की कोशिश नहीं करते कि कौन सी खुशी मिली, कविता को उसकी फेस वैल्यू पर लेते हैं उसके पीछे की हिस्ट्री नहीं जानते. मुझे आज भी याद है मेरे छोटे भाई ने एक बार कहा था, "जानती हो दीदी हम तुम्हारी कविता की बड़ाई क्यों नहीं करते कभी, क्योंकि हमको दुःख होता है कि आख़िर ऐसा कौन सा दर्द महसूस कर रही हो और किसी से कह क्यों नहीं पाती, और हम तुम्हारे दर्द को कम क्यों नहीं कर सकते". उस दिन सादगी से कही उसकी बात दिल को छू गई मेरे और मुझे अचानक से लगा कि मेरा नन्हा सा भाई कितना बड़ा हो गया है. आज जाने क्यों उसकी ये बात याद आ गई.देखूं कितने लोग पढ़ते हैं, मेरी कच्ची सी कविता

06 June, 2008

खाली दिमाग के खुराफाती विचार

ईश्वर के दफ्तर में
एक विभाग सिर्फ़ इसलिए है
कि कहीं गलती से
मेरी कोई इच्छा पूरी ना हो जाए

चित्रगुप्त का खाता हिसाब रखता है
मेरे सपनो की उम्र ज्यादा ना हो
वो जन्म लेते ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हों

फ़िर भी कई बार होता है
कि कोई नन्हा सा सपना
मेरी ऊँगली पकड़ के खड़ा हो ही जाता है

वह एक जिद्दी सपना
ईश्वर के अहम् को चोट पहुँचाता है
मैं हाथ जोड़ कर उनके सामने खड़ी जो नहीं होती
कोई समझाए उन्हें
इतना अंहकार ठीक नहीं होता


आख़िर ईश्वर का होना भक्ति से ही तो है
अगर कोई उनके होने पर यकीन ना करे
तब ??

लेकिन ऐसी तो कोई मेरी चाह नहीं
छोटी सी ही खुशी चाहती हूँ
फ़िर ईश्वर को इतना क्रोध क्यों है

मुझे क्या किसी और ने बनाया है
ऐसा सौतेला व्यवहार
क्या दो भगवान लड़ गए थे
मेरे जन्म के समय

और ये जो नियति में उलट फेर है
इसलिए है...कि वो अभी भी लड़ते रहते हैं

और उनकी आपस की लड़ाई में
मेरी सपने पिस जाते हैं

ऐसा होता है
तो परमपिता...जो सबसे बड़े हैं
उन्हीं समझाते क्यों नहीं

या वो ईश्वर जो सबसे बड़े हैं
मुझे समझाते क्यों नहीं...

05 June, 2008

मम्मी भूख लगी है

मम्मी भूख लगी है, लेट हो रहे हैं कॉलेज को
मम्मी...मम्मी...
आज बिना खाए चले जाएँगे
देर हो गई है बहुत

नहीं नहीं एक रोटी खा लो,
और कौर कौर कर के खिला देती माँ
एक एक कर के तीन रोटियाँ

याद है...
घर से निकलते हुए भी
एक कौर मुंह में डाल देती वो

अब अक्सर बिना खाए चली जाती हूँ
ज्यादा फर्क नहीं पड़ता
पर जब भूख लगती है
तुम्हारी बहुत याद आती है माँ...

तुमसे अच्छा खाना खाया है कई जगह
कहीं पर बिल्कुल ख़राब खाना भी खाया है
लेकिन तुम्हारे हाथ का खाना नहीं खाया है

जब से तुम गई हो
कुछ भी खा लेती हूँ
मन नहीं भरता
भूख नहीं जाती
प्यास नहीं जाती

तुम्हारे हाथों का खाना चाहिए
मुझे भूख लगी है मम्मी
मम्मी मम्मी...

04 June, 2008

शौक़ है...

बहुत पुराना एक गाना था गुलज़ार का, मेरा कुछ सामान...लगता था जैसे इसके शब्द और धुन एक दूसरे के लिए ही बने हैं. एक बहती हुयी नदी सा गीत था. आज बहुत दिनों बाद गुरु का ये गीत सुना, पता नहीं था कि किसने लिखा है पर लगा की फ़िर से वही गुलज़ार पंचम की जोड़ी है, शब्दों की गुनगुनाहट, बिना किसी छंद के, जैसे बन्धन तोड़ के बहती हुयी कविता.

सुनकर काफ़ी देर तक गूंजते रहते है ये शब्द मन में, और धुन तो खैर लाजवाब है ही. video तो कहीं से नहीं मिला, बस एक रीमिक्स टाइप था, बहुत ढूँढने पर भी सोंग ट्रैक नहीं मिला. आज सोचा की ब्लोग्गिंग के नेक्स्ट स्टेप से रूबरू हो ही जाएँ.
मैंने ये video youtube से लिया है जिसके लिंक है http://www.youtube.com/watch?v=QyUeYRJ1jZc&NR=1


रात का शौक़ है
रात की सोंधी सी
खामोशी का शौक़ है
शौक़ है...

सुबह की रौशनी
बेजुबान सुबह की ओ गुनगुनाती
रौशनी का शौक़ है
शौक़ है...



शौक़ है
सनसनी बादलों का
ये इश्क के बावालों का
बर्फ से खेलते बादलों का
शौक़ है...

काश ये जिंदगी
खेल ही खेल में खो गई होती
रात का शौक़ है
शौक़ है...

नींद की गोलियों का
ख्वाब की लोरियों का
नींद की गोलियाँ
ख्वाब की लोरियाँ
बेजुबान ओस की
बोलियों का
शौक़ है

काश ये जिंदगी
बिन कहे बिन सुने सो गई होती

सुबह की रौशनी
बेजुबान सुबह की ओ गुनगुनाती
रौशनी का शौक़ है

29 May, 2008

missing my ipod



i miss you...subuk subuk :(

ऐसे ही

सुनो, मुझे एक रात ला दो ना...
हाँ चाँद भी ले आना चाहे जितना भी बड़ा मिले
कुछ तारे भी तोड़ देना अगर ज्यादा परेशानी ना हो

जनाब ने "जो हुकुम" कह के सर झुकाया
और दो मिनट में गेट से बाहर

और मैं अपने कीबोर्ड पर उँगलियाँ चलने लगी

दिन तो फ़िर भी मिल जाता है
वो रातें नहीं मिलती
कोहरे वाली, कभी बारिशो में भीगी हुयी
कुछ गीतों की यादों में लिपटी हुयी

वो आस्मान के नीचे खुली खुली सी रातें
क्या सच में कभी ला पायेगा वो

मैं सोच रही थी...शाम ढल गई
रात हो रही थी

कॉल बेल बजी,
और जनाब ने मेरी आंखों पर पट्टी बान्ध दी

और पट्टी खुली तो देखा
घर के गेट पर chevrolet optra लगी हुयी थी

और जनाब का कहना था
ये लो...बैठ के आराम से रात देखो !!!!

अपने लोग

कुछ लोग साथ चला करते थे
कुछ वक्त पहले

ऐसा नहीं होता था कि एक ही ओर जाना होता था
ऐसा भी नहीं कि कुछ काम होता था

ये भी नहीं कि चाय या सिगरेट कि तलब हो किसी को
ये भी नहीं कि एक ही ढाबे का खाना पसंद आता था

हम साथ चलते थे क्योंकि
हमें साथ चलना अच्छा लगता था

रास्ते तो तब भी अलग होते थे
रस्ते अब भी अलग ही हैं हमारे

ये अलग रास्तों पर चलने कि थकन
ये अपनी मंजिल पर जल्दी पहुँचने की होड़

ये नहीं हुआ करती थी उस समय
घंटों टहलना, ठहरना, बातें करना

कभी पार्थसारथी रॉक पर बैठना
सूर्यास्त और चंद्रोदय देखना

जाने कब ये वक्त बीच में आ गया
जाने कब हम अपने अपने रास्ते चलने लगे

और जाने कब...
कई मोड़ों पर मुड़ते मुड़ते
हम सब खो गए...

अपने रास्तों पर
अपनी जिंदगी में
अपनी नौकरी में
अपनी व्यस्तताओं में

सब अपना...
सिवाए...अपनों के.

26 May, 2008

एक शाम

क्यों खास थी वो शाम?

तुम और मैं
एक पार्क की बेंच पर अकेले बैठे रहे थे
काफ़ी देर तक

बस...
कुछ खास बातें भी तो नहीं की थीं
एक भुट्टा खाया था

नहीं...
मेरा भुट्टा था, और तुमने खाया था
मेरा जूठा पानी पिया

मौसम...
भीगा सा, चंचल सा था
बारिश हुयी थी सुबह

पैदल...
देख रहे थे कि कौन थकता है
और लौटना किसे है

हाथ भी तो नहीं पकड़ा था मेरा
मेरी तारीफ़ भी नहीं की
फ़िर?

पर उस शाम
कई दिनों बाद
जैसे हम मिले थे

सिर्फ़ हम...

मॉल की चमचमाहट में
बर्गर और कोक के साथ
शॅपर्स स्टॉप में भटकते हुए
बिग बाज़ार की छूट में

मैं और तुम ही रहते हैं
हम नहीं हो पाते

उस पुरानी सी शाम में
फ़िर से तुम और मैं
हम हो गए थे...

khurafaat

ohh...the joy of khurafaat

the keeda of shaitani

and to make everything ulta pulta

or to change just for the heck of it

i think its after long that i am experiencing this silly feeling thats somewhere near to euphoria, coz i tried something that is not at all in my domain, i changed the template of my other blog, and a little bit of tweaking with html.

software and these infinite lines of coding always seemed greek to me, nothing made any sense and i was really terrified...but today i overcame a great fear of mine

hurraaayyy!!!

13 May, 2008

reaction-perhaps

नदी कैसे बनती है
किसी एक जगह से निकल कर

जैसे गंगोत्री या यमुनोत्री
बढ़ती जाती है...
पर उसका रास्ता कैसे तय होता है
कैसे निश्चित होता है उसका सागर में मिलना

क्या कविता नदी की तरह होती है
कहीं से उठी और जिधर मन किया बहती चली गई

मुझे लगता है कवितायेँ दो तरह की होती हैं
एक तो वो जो नदी की तरह होती हैं

और एक कैनाल की तरह
जिसका रास्ता नक्शों पर पहले से निर्धारित होता है

बहाव दोनों में होता है
और पानी भी

बस दोनों की इच्छा में फर्क होता है
एक मनमौजी होती है...जन्म से
दूसरी किनारों में बंधी
रास्ते पर निर्भर

पर दोनों जीवन देती हैं
खेतों में फसलें उगाती हैं


बस एक को बारिश में किनारे तोड़ कर बहने की इजाजत होती है
दूसरे को नहीं

क्या नदी कविता की तरह होती है?

समसामयिकता

नीलकंठ बनना आसान नहीं होता
सारा हलाहल
कंठ में रोक लेना

द्वेष, दुःख, क्रोध, अपमान
और कभी कभी तटस्थता भी

आप सोचोगे तटस्थता कैसे
ये कौन सा विष है?

पर सोचो तो सबसे भयंकर
बस यही विष है

इसे कंठ में रोक लेने के लिए
शंकर जैसा तप का ओज चाहिए होगा

या कौन जाने इश्वर होने की आवश्यकता भी हो
विष पीना ही काफ़ी नहीं होता...
उसके बाद जीना भी अवश्यम्भावी होता है


मृत्यु समाधान नहीं है समस्या का
इसलिए भयानक विष पी कर भी जीवित रहने के संसाधनों की खोज जरूरी है


ये तटस्थता जब जयपुर में २० लोगो की मृत्यु का समाचार देख
लोग चैनल बदल के आईपीअल देखने लगते हैं

जब बर्मा के साईक्लोन के बारे में गूगल न्यूज़ पढ़कर
वीकएंड में रिलीज़ होने वाली फ़िल्म का रिव्यू पढ़ने लगते हैं

संवेदनशून्य भी कह सकते हैं
पर ये शब्द शायद ज्यादा इस्तेमाल हो चुका है

इसलिए तटस्थ कहूँगी
हलाहल को पी कर भी तटस्थ

शायद इतना मुश्किल भी नहीं होता
शंकर होना...

06 May, 2008

एक रोज मैंने सोचा

बहुत दिन हो गए
अपने आप से नहीं मिली हूँ
सोचती हूँ थोड़ा वक्त निकाल
मिल आऊं एक रोज़


जैसे उस नीली जींस के
पिछले पॉकेट में रखा हुआ है
मेरा पुराना वालेट
और थोडी रेजगारी
वैसे ही
कहीं भुलाई हुयी हूँ मैं


अब तक रखा
कॉलेज का आईडी कार्ड
जैसे अभी भी उसी पहचान
में पाना चाहती हूँ ख़ुद को
जिन आंखों में
सपनो पर बन्धन नहीं होते थे


कहीं किसी पहाड़ी की चोटी पर
दुपट्टे से खिलवाड़ करती हुयी
वहीं की हवा में
कहीं उड़ती हुयी हूँ मैं शायद


सोच रही हूँ
मिल आऊं
अपने आप से

इससे पहले कि
अपना पता ही भुला दूँ

01 May, 2008

एक रिश्ता ऐसा भी

याद है पहली मर्तबा जब छुपा के खाई थी

माँ से, अपने आँगन की धुली हुयी मिट्टी

और वो कबड्डी खेलते हुए बॉर्डर पहुँचने को

भरी थी मुट्ठी में मुह्ल्ले की गली की मिट्टी

पांचवी में भूगोल का एक चैप्टर था

क्यों लाल थी हमारे शहर की मिट्टी

खेल में जब कभी गिर जाते थे

घाव भर देती थी स्कूल की मिट्टी

उसके साथ भीगना पहली बारिश में

और पैरों के नीचे भीग रही मिट्टी

वो हर दिन उसी का इंतज़ार

जब कि बस दिन भर खोदती थी मिट्टी

जिंदगी भर निभाना मुश्किल हो गर

रिश्तों की जड़ सम्हालती नहीं मिट्टी

शहर की भाग दौड़ में भी है
हर एक के अन्दर अपने शहर की मिट्टी

जाने कितने शहर अब अपने है

मुझमें बसती है इन सबकी मिट्टी

मैं खफा हूँ

मैं खफा हूँ
हर चीज़ से
IPL से, उन लोगो से जो इसे देखते हैं
उन लोगो से जो बिजली की चोरी करते हैं
जिनके कारण मेरे घर में बिजली नहीं आती

मैं खफा हूँ
उन असामाजिक लोगो से
जिन्हें तमीज नहीं है
कि रात के बारह बजे
इस तरह loudspeaker नहीं चलाना चाहिए

मैं खफा हूँ इन मच्छरों से
जो मुझे चैन से एक पल बैठने नहीं देते
परेशान कर के रख दिया है

मैं खफा हूँ
उन सारे अमीर देशों से
जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं
इस गर्मी में ठंढक आती है
तो सिर्फ़ रिश्तों में


मैं खफा हूँ उन रिश्तों से
जिन तक जाने के पुल टूटे हुए हैं
और इस पार से मैं उन्हें बस देख सकती हूँ
धुन्ध्लाते हुए

मैं खफा हूँ अपनेआप से
किन चीजों में उलझ के रह गई हूँ
उफ्फ्फ़ !!!!!

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...