नीलकंठ बनना आसान नहीं होता
सारा हलाहल
कंठ में रोक लेना
द्वेष, दुःख, क्रोध, अपमान
और कभी कभी तटस्थता भी
आप सोचोगे तटस्थता कैसे
ये कौन सा विष है?
पर सोचो तो सबसे भयंकर
बस यही विष है
इसे कंठ में रोक लेने के लिए
शंकर जैसा तप का ओज चाहिए होगा
या कौन जाने इश्वर होने की आवश्यकता भी हो
विष पीना ही काफ़ी नहीं होता...
उसके बाद जीना भी अवश्यम्भावी होता है
मृत्यु समाधान नहीं है समस्या का
इसलिए भयानक विष पी कर भी जीवित रहने के संसाधनों की खोज जरूरी है
ये तटस्थता जब जयपुर में २० लोगो की मृत्यु का समाचार देख
लोग चैनल बदल के आईपीअल देखने लगते हैं
जब बर्मा के साईक्लोन के बारे में गूगल न्यूज़ पढ़कर
वीकएंड में रिलीज़ होने वाली फ़िल्म का रिव्यू पढ़ने लगते हैं
संवेदनशून्य भी कह सकते हैं
पर ये शब्द शायद ज्यादा इस्तेमाल हो चुका है
इसलिए तटस्थ कहूँगी
हलाहल को पी कर भी तटस्थ
शायद इतना मुश्किल भी नहीं होता
शंकर होना...
मेरे हॉस्टल के टी वी रूम में भी फ़िलहाल कोई समाचार तक नहीं सुन सकता। आई पी एल का मैच चल रहा है।
ReplyDeleteसच में शंकर होना इतना मुश्किल नहीं है और अगर है भी तो संवेदनशील होने के लिए तो किसी खास मशक्कत की जरूरत नहीं है ना..
हाँ, कविता आपने शुरु की होगी तो और भी विषों के लिए की होगी, लेकिन तटस्थता की दिशा में ही चली गई। कुछ और लम्बा लिखा जा सकता था द्वेष, क्रोध, दुख, अपमान पर भी।
सुबह से यही विचार आ रहे थे. बर्मा और चीन के लिए विश्व भर के लोगो की प्रार्थना और सहायता की ध्वनि इंटरनेट के सन्नाटे को "एक विश्व" के सूत्र में बाँध रही थी. हम फिर भी तटस्थ रहे. हमारे समाचार पत्र और टेलीविजन भविष्यफल या सास बहु के बारे में बता रहे थे.
ReplyDeleteघर पहुँचते-पहुँचते जयपुर का समाचार आ चुका था.
टेलीविजन अब खून से पटा पड़ा है.
TRP अब भी IPL की ही ज्यादा होगी.
नई संवेदना के समाज की यही पहचान है.
शायद, कोलकता की जीत पर आज भी शाहरुख़ दावत देंगे.