01 May, 2008

एक रिश्ता ऐसा भी

याद है पहली मर्तबा जब छुपा के खाई थी

माँ से, अपने आँगन की धुली हुयी मिट्टी

और वो कबड्डी खेलते हुए बॉर्डर पहुँचने को

भरी थी मुट्ठी में मुह्ल्ले की गली की मिट्टी

पांचवी में भूगोल का एक चैप्टर था

क्यों लाल थी हमारे शहर की मिट्टी

खेल में जब कभी गिर जाते थे

घाव भर देती थी स्कूल की मिट्टी

उसके साथ भीगना पहली बारिश में

और पैरों के नीचे भीग रही मिट्टी

वो हर दिन उसी का इंतज़ार

जब कि बस दिन भर खोदती थी मिट्टी

जिंदगी भर निभाना मुश्किल हो गर

रिश्तों की जड़ सम्हालती नहीं मिट्टी

शहर की भाग दौड़ में भी है
हर एक के अन्दर अपने शहर की मिट्टी

जाने कितने शहर अब अपने है

मुझमें बसती है इन सबकी मिट्टी

3 comments:

  1. mitti se saundha rishta bahut undar hai.

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  2. याद है पहली मर्तबा जब छुपा के खाई थी

    माँ से, अपने आँगन की धुली हुयी मिट्टी


    पहली पंक्तिया बहुत खूबसूरत है.....



    शहर की भाग दौड़ में भी है
    हर एक के अन्दर अपने शहर की मिट्टी

    जाने कितने शहर अब अपने है

    मुझमें बसती है इन सबकी मिट्टी

    बहुत खूब है......जब कभी सूरत से वापस दिल्ली मे ट्रेन घुसती थी तो कहते थे अपनी मिटटी की महक आने लगी....

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  3. बहुत खूब। वाकई में धन्य है यह मिट्टी। बहुत सुंदर रचना। इसके लिए बधाई। लिखते रहिए सतत इसी तरह।

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