नदी कैसे बनती है
किसी एक जगह से निकल कर
जैसे गंगोत्री या यमुनोत्री
बढ़ती जाती है...
पर उसका रास्ता कैसे तय होता है
कैसे निश्चित होता है उसका सागर में मिलना
क्या कविता नदी की तरह होती है
कहीं से उठी और जिधर मन किया बहती चली गई
मुझे लगता है कवितायेँ दो तरह की होती हैं
एक तो वो जो नदी की तरह होती हैं
और एक कैनाल की तरह
जिसका रास्ता नक्शों पर पहले से निर्धारित होता है
बहाव दोनों में होता है
और पानी भी
बस दोनों की इच्छा में फर्क होता है
एक मनमौजी होती है...जन्म से
दूसरी किनारों में बंधी
रास्ते पर निर्भर
पर दोनों जीवन देती हैं
खेतों में फसलें उगाती हैं
बस एक को बारिश में किनारे तोड़ कर बहने की इजाजत होती है
दूसरे को नहीं
क्या नदी कविता की तरह होती है?
अच्छा विचार है.
ReplyDeleteक्या नदियाँ लुप्त नही होती है? सरस्वती की तरह!
क्या नदियाँ छुपती नही है? गुप्त गोदावरी की तरह!
कवि मन नही है, इसलिए पूछता हूँ - क्या कविता भी कभी ऐसा करती है?
नदी और कविता की तुलना बेहद सकारात्मक तरीके से की गई है। बधाई।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विचार हैं, बधाई.
ReplyDeleteपूजा जी,
ReplyDeleteनदी और कविता का साम्य कहती आपकी रचना सुन्दर बन पडी है। हाँ कैनाल की जगह नहर शब्द अधिक सटीक लगता।
***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत बढ़िया कविता..
ReplyDeleteman prasann huaa , itnee sundar kavitaa kiseee blog par padhne ko mil sakti hai,vishwaas naheen hotaa...likhtee rahen ...anant shubhkaamnaayen
ReplyDeletekitni saadgii se behad sanjida baat kah dii hai aapne.
ReplyDeleteaapkii soch mein kitni gehraayee hai , iss baat ka andaza in rachnaon se sahaj hi ho jaata hai.
merii shubhkamnayein..
पहली बार आपके ब्लाग्स पर आया हूँ और हैरान हँ आपकी कविताओं को पढ़कर। नदी से जुड़ी यह कविता बहुत प्रभावित करती है। "लहरें" ब्लाग पर अन्य कविताएं भी पठनीय और असर छोड़ने वाली हैं। बधाई !
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