06 May, 2008
एक रोज मैंने सोचा
अपने आप से नहीं मिली हूँ
सोचती हूँ थोड़ा वक्त निकाल
मिल आऊं एक रोज़
जैसे उस नीली जींस के
पिछले पॉकेट में रखा हुआ है
मेरा पुराना वालेट
और थोडी रेजगारी
वैसे ही
कहीं भुलाई हुयी हूँ मैं
अब तक रखा
कॉलेज का आईडी कार्ड
जैसे अभी भी उसी पहचान
में पाना चाहती हूँ ख़ुद को
जिन आंखों में
सपनो पर बन्धन नहीं होते थे
कहीं किसी पहाड़ी की चोटी पर
दुपट्टे से खिलवाड़ करती हुयी
वहीं की हवा में
कहीं उड़ती हुयी हूँ मैं शायद
सोच रही हूँ
मिल आऊं
अपने आप से
इससे पहले कि
अपना पता ही भुला दूँ
01 May, 2008
एक रिश्ता ऐसा भी
याद है पहली मर्तबा जब छुपा के खाई थी
माँ से, अपने आँगन की धुली हुयी मिट्टी
और वो कबड्डी खेलते हुए बॉर्डर पहुँचने को
भरी थी मुट्ठी में मुह्ल्ले की गली की मिट्टी
पांचवी में भूगोल का एक चैप्टर था
क्यों लाल थी हमारे शहर की मिट्टी
खेल में जब कभी गिर जाते थे
घाव भर देती थी स्कूल की मिट्टी
उसके साथ भीगना पहली बारिश में
और पैरों के नीचे भीग रही मिट्टी
वो हर दिन उसी का इंतज़ार
जब कि बस दिन भर खोदती थी मिट्टी
जिंदगी भर निभाना मुश्किल हो गर
रिश्तों की जड़ सम्हालती नहीं मिट्टी
शहर की भाग दौड़ में भी है
हर एक के अन्दर अपने शहर की मिट्टी
जाने कितने शहर अब अपने है
मुझमें बसती है इन सबकी मिट्टी
मैं खफा हूँ
हर चीज़ से
IPL से, उन लोगो से जो इसे देखते हैं
उन लोगो से जो बिजली की चोरी करते हैं
जिनके कारण मेरे घर में बिजली नहीं आती
मैं खफा हूँ
उन असामाजिक लोगो से
जिन्हें तमीज नहीं है
कि रात के बारह बजे
इस तरह loudspeaker नहीं चलाना चाहिए
मैं खफा हूँ इन मच्छरों से
जो मुझे चैन से एक पल बैठने नहीं देते
परेशान कर के रख दिया है
मैं खफा हूँ
उन सारे अमीर देशों से
जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं
इस गर्मी में ठंढक आती है
तो सिर्फ़ रिश्तों में
मैं खफा हूँ उन रिश्तों से
जिन तक जाने के पुल टूटे हुए हैं
और इस पार से मैं उन्हें बस देख सकती हूँ
धुन्ध्लाते हुए
मैं खफा हूँ अपनेआप से
किन चीजों में उलझ के रह गई हूँ
उफ्फ्फ़ !!!!!
30 April, 2008
परवीन शाकिर की एक नज्म

इधर दो चार दिनों से परवीन शाकिर की "खुली आंखों में सपना" नज्मों और गजलों का संकलन पढ़ रही हूँ। ख़रीदा तो काफ़ी पहले था पर अपने किताबघर से निकल नहीं पायी थी। काफ़ी अच्छा लग रहा है उनको पढ़ना, इस पाकिस्तानी शायर के बारे में पहली बार पापा से सुना था। फ़िर उनका एक शेर कहीं पढ़ा "उँगलियों को तराश दें फ़िर भी...आदतन उसका नाम लिखेंगे"। जेहन में गहरे उतर गई थी पंक्तियाँ और परवीन उन कुछ शायरों में से हैं जिन्हें पढ़कर शायरी के लिए दिल में एक पाकीजा सा जज्बा करवट बदलता था।
आज इनकी एक नज्म बाँटने की ख्वाहिश है....
पूरा दुःख और आधा चाँद
हिज्र की शब और ऐसा चाँद
किस मकतल से गुजरा होगा
ऐसा सहमा सहमा चाँद
यादों की आबाद गली में
घूम रहा है तनहा चाँद
मेरे मुंह हो किस हैरत से
देख रहा है भोला चाँद
इतने घने बादल के पीछे
कितना तनहा होगा चाँद
इतने रोशन चेहरे पर भी
सूरज का है साया चाँद
जब पानी में चेहरा देखा
तूने किसको सोचा चाँद
बरगद की एक शाख हटाकर
जाने किसको झाँका चाँद
रात के शाने पर सर रखे
देख रहा है सपना चाँद
सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क में सच्चा चाँद
रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चाँद
29 April, 2008
ऐ जिंदगी
तुम्हारी आवाज़ का तिलिस्म
जैसे जंगल में ठहरी हुयी हवा
थोड़ा शोर, थोड़ी खामोशी
जैसे सागर की लहरों का किनारे आना
और पैरों को छूकर चले जाना
जैसे भीड़ में
अचानक मिल जाए कोई पुराना दोस्त
या छत पर आ गिरे
पड़ोसी की काटी हुयी पतंग
कुछ छोटी छोटी खुशियाँ
जिनमें जिन्दगी का लुत्फ़ मिलता है
जैसे जब तुम मेरा नाम लेते हो...
28 April, 2008
to you...mummy
26 April, 2008
...
काश तुम अपनी गोद में मेरा सर लेकर बालों में उँगलियाँ फिराओ कुछ देर
उफ़ इस ipl ने जिंदगी की सारी रूमानियत ख़त्म कर दी है
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अंधेरे में खाना बनाना पड़ता है, गर्मी के मारे हालत ख़राब हो जाती है
फ़िर भी पॉवर कट से कोई खास शिकायत नहीं होती
टीवी से हटकर तुम मेरे पास घड़ी भर ठहरते तो हो
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25 April, 2008
....
फिर भी बिता देते हैं खामोश हम रातें कितनी
ना वैसी ठंढ फिर आई ना फिर कोहरे में लिपटी सड़कें
याद आती हैं वो पहले दिसम्बर की की मुलाकातें कितनी
घर से ऑफिस को निकले और पहुंचे चिडियाघर में हम
बना के सबसे बहाने की हम ने खुराफातें कितनी
न तो मंजिल का पता था और न रस्ते का कोई ख्याल
ले के आता था हर मोड़ सौगातें कितनी
यही तो लुत्फ़ है तेरे साथ ऐ मेरे हमसफ़र
अब गिनती नहीं कि जिंदगी में हैं रातें कितनी
फ़िदा!!!

जिंदगी में दो बार हुआ है कि मैं ख़ुद पे फ़िदा हो गई हूँ...
पहली बार तो अपने 12th के farewell के लिए साड़ी पहनी थी, जिंदगी में पहली बार। और जब आइना देखा तो मंत्रमुग्ध सी देखती रह गई, कि ये मैं ही हूँ क्या...शायद तरुणाई की आहट पहली बार महसूस हुयी थी। वैसे भी वो उम्र होती है आइना देखने की, सजने सँवरने की पर मुझे उस दिन से पहले कभी फुरसत नहीं मिली थी। भाइयों के साथ कभी पेड़ों पर टँगी पायी जाती तो कभी शर्त लगाती कि आंगन की ऊँची सी दीवार पर सब से पहले कौन चढ़ सकता है। और इन खुराफातों से फुरसत मिलती थी तो आराम से सीटी बजती कभी फील्ड में घूमती रहती, माँ कहती रहती कि कब लड़की के गुण आयेंगे इसमें। मुहल्ले के लड़के भी छेड़ते कि कभी तो लगे कि पड़ोस में कोई लड़की रहती है लगता है कि और एक लड़का ही रहता है, कभी सीटी मारती हो कभी लंघी मारती हो सुधर जाओ कौन शादी करेगा तुमसे। मुझे बड़ा मज़ा आता था, क्लास में भी जब बाकी लड़कियां कॉस्मोपोलिटन की बातें discuss करती थी मैं बोरे हो जाती थी, और बड़ा अजीब सा लगता था। कभी कभी जरूर मैं भी उस खुसुर पुसर में लगी हूँ पर ज्यादा मन नहीं लगता।
मेरे लिए बातें थी कि मुझे मोटरसाईकिल क्यों नहीं चलने मिलता है, एक्सीडेंट करुँगी तो देखा जायेगा, बाकी लोगो कि मुझे परवाह नहीं थी कि मेरी बाईक से ठुक के बेचारों के शरीर में कितनी हड्डियाँ बचेंगी. वैसे तो मैं साईकिल पर भी चलती थी तो लोग मुझे रास्ता दे देते थे और तो और बस चलता तो शायद रास्ते के सारे खम्भे भी हट जाते, पता नहीं कितनी बार मैं टकरा चुकी थी. पर मुझे इसमें भी मज़ा आता था. लोग मुझे हेलीकॉप्टर कहते थे, झाँसी की रानी और आफत भूचाल टाइप की हुआ करती थी मैं. मेरे रास्ते पड़ने वालो की शामत.
पर इन सबके बीच अचानक से मेरा farewell आ गया, और जैसा की सब पहनते थे माँ ने मुझे भी साड़ी पहना के तैयार कर दिया, पर झटका तो तब लगा जब सामने देखा। एक पल को तो लगा की कोई और खड़ी है. फ़िर आंखें खुली और महसूस हुआ की ये जो इत्त्तीई सुन्दर लड़की है आईने में, मैं ही हूँ...और शायद जिंदगी में पहली बार मैं शरमा गई...
खैर वो लड़कपन के दिनों तो अब क्या आयेंगे...पढ़ाई और अब जॉब में इतना व्यस्त हो गई की ध्यान ही नहीं रहा फ़िर से ख़ुद को देखने का. इधर कुछ दोस्त आए थे मुम्बई से, उन्हें कुतुब मीनार दिखाना था, तो चल पड़े हम. क्या धूप थी, बाप रे!!!पर मज़ा बहुत आया, और उससे भी ज्यादा आया जब फोटो देखी...धूप में ऐसा खिला हुआ था जैसे सूरजमुखी...लगा की ये मैं ही हूँ...उजली खिली हुयी सी, धूप गर्मी से बेखबर...खिलखिलाती हुयी...चंचल हँसती हुयी...
अपने इस बेलौसपने पर मैं फ़िर से फ़िदा हो गई :)
22 April, 2008
मंथन
इसकी और भी हज़ार बुराइयाँ नज़र आती हैं मुझे पर जो सबसे पहले दिखता है वो ये है की ये घर में रिमोट की लड़ाई करवाएगा। चाहे जितने भी सड़े हो हमारे टीवी में चलने वाले कचरा सीरियल पर हमारी गृह लक्ष्मी उन सीरियल की रोजाना खुराक के बिना नहीं रह सकती। अब ये सारे match उसी टाइम पर होंगे। ऐसे में पति पत्नी में झगड़ा नहीं होगा तो क्या होगा...कौन सा पति अपनी पत्नी को रिमोट थमने देगा जब क्रिकेट आ रहा है। पत्नियों को तो वैसे भी दोयम दर्जा ही मिलता है, उनकी क्या बिसात की पति से रिमोट छीन ले।
या अगर घर में पत्नी की चलती है तो पति बेचारा किसी ऐसे दोस्त को ढूंढेगा जिसके यहाँ match देख सके, किसी भी परिस्थिति में घर में अच्छा माहौल नहीं बनने वाला है। कोरी बजरिकता वाले इन खेलों में कोई कैसे दिल लगा सकता है ये मेरी समझ से परे है।
अब मैं आती हूँ दूसरे मुद्दे पर...ये नौटंकी आख़िर है क्या...नयापन परोसने की होड़ में आख़िर हमारा मीडिया कहाँ तक जायेगा? इस पतनशील समाज में क्या मीडिया अपनी जिम्मेदारी से इसी तरह मुँह चुराता रहेगा। और क्या हमारे देश के लोगो के पास कोई भी काम नहीं है कि कुछ भी चलते रहता है टीवी पर और वो देखते रहते हैं। आलस से सृजनशीलता का ऐसा हनन होता है कि लोग कुछ सोचना ही नहीं चाहते, जो भी entertainment के नाम पर देखने को आता है देखते रहते हैं।
पहले भी काफ़ी हो हल्ला उठा था कि खिलाड़ी बिकाऊ हौं, खास तौर से जब इंडिया कोई match हार जाती थी तब तो शामत आ जाती थी, आइकन खिलाड़ियों को भी कहाँ छोडा जाता था इस बहस के बाहर। और आज जब खुलेआम बोली लगाई गई तो सब चुप थे कोई आवाज नहीं उठी कहीं से भी। इस तरह एक खिलाड़ी जब सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लिए लड़ेगा तो देशप्रेम कि भावना कहाँ जायेगी, क्या फ़िर से कभी भारतीय टीम एक संगठित टीम कि तरह खेल पाएगी? क्या सब एक दूसरे को प्रतिद्वंदी कि नज़र से नहीं देखेंगे?
और इतने होहल्ले का मकसद क्या है? इतना पैसा फूंक कर क्या मिलेगा...क्या हासिल हो रह है किसी आम आदमी को? बस फुलझड़ियों कि तरह कुछ देर का आकर्षण ...कई सवाल और जवाब कुछ भी नहीं।
21 April, 2008
18 April, 2008
random
उजाड़ पत्तों का एक कब्रिस्तान सा है
ये जर्द पत्ते मेरी खामोशी के रंग में रंगे दिखते हैं
कुछ तो बियाबान सी लगने लगी है ज़िन्दगी
जिसमें कुछ आँसू अनाथ बच्चो की तरह बिलखते हैं
मैं कतरा कतरा बिखरती हूँ अपने दामन में
हवाएं तिनका तिनका उड़ा जाती हैं मेरे वजूद के हिस्से
मगरूर हुआ करते थे हम किसी ज़माने में
सोचा था बदल देंगे तकदीर जो भी लिखे
कितने मासूम हुआ करते थे ख्वाबों के काफिले
चांदनी रात में छत पर मिलने की ख्वाहिश की तरह
अब तो दरिया सी है प्यास और समंदर के सामने हैं
दरकते हुए दरख्तों के कभी कभी यूँही
आस कहीं आके सुलगी हुयी सी लगती है
शब्द कभी कभी यूं ही आके परेशां करने लगते हैं कि हमें कहीं कागज पे उतारो, हम यूं ही तुम्हारे दिमाग में नहीं रह सकते. ऐसे में कुछ तो लिखा जाता है, ये कविता नहीं होती, बस कुछ खयालात होते हैं, कुछ उड़ते हुए आवारा बंजारा से ख्याल
15 April, 2008
रिश्ते
इश्क...जैसे खुशबू सी आती है इस अल्फाज़ से, उर्दू की बात ही कुछ और होती है। रूमानियत है इस लफ्ज़ में, जैसे कुछ फिल्में थी पाकीजा, मेरे महबूब, उमराव जान, बरसात की रात, और इन सबके ददाजान...मुग़ल-ऐ-आज़म, लगता था की वाह क्या इश्क है, क्या रोल हैं, और क्या डायलॅग होते थे, "साहिबे आलम, ये कनीज आपका हिज्र बर्दाश्त कर सकती है मगर आपकी रुसवाई नहीं"। प्यार बस हो नहीं जाता था, एक लम्हे में, धीरे धीरे चूल्हे पर चाशनी सा पकता था। इजहार की कितनी मुश्किलें होती थी, और प्यार को अंजाम तक पहुँचने की कितनी जद्दोजहद होती थी।
आज के मीडिया में कहाँ है वो प्यार की खुशबु, कहाँ है वो जज्बातों की गहराई, और एक मिनट के प्यार में अंजाम तक पहुँचने की फिक्र किसे है। इजहार के डर को दूर करने के लिए लोग आराम से २४ ड्रिंक्स का सहारा ले सकते हैं। लगता है रुमानियत ख़त्म हो गई है, रिश्तों की जिस सोंधी खुशबु में जिंदगी हसीन लगती थी, pollution के कारन शायदवो हम तक पहुँचती नहीं।
अचानक से लगता है मैं किसी और सदी की हूँ, आज की इस भागम भाग जिंदगी में कहीं खोया हुआ सा पाती हूँ ख़ुद को। आज भी मुझे अच्छा लगता है अगर वो मेरे लिए दरवाजा खोले, चाहे गाड़ी का हो या घर का, आज भी लगता है की कभी कहीं खामोश सा बैठे रहें, बिना कुछ कहे हुए। disco गई मैं (जिंदगी में पहली बार) बहुत अच्छा बीही लगा फ़िर भी given an option main समंदर किनारे उसके साथ बैठना चाहूंगी। मरीन ड्राइव पर बिना कुछ कहे सिर्फ़ हवाओं को महसूस करना ज्यादा अच्छा लगा मुझे। और डांस भी, मुझे अपने घर के ड्राइंग रूम में उसके साथ किसी भी गाने पर थिरकना ज्यादा अच्छा लगेगा।
क्या मैं बहुत अजीब हूँ? इसको ही शायद ठहराव कहते हैं, ये उमर तो बाहर जा के हल्ला गुल्ला करने की, गोल्गाप्पा खाने की, खूब सारी shopping करने की होती है...ये कहाँ ठहर गई हूँ मैं, रुकना तो मेरी फितरत में नहीं था।
खैर कहाँ से कहाँ तक पहुँच गई मैं...बात शुरू की थी रिश्ते से...शायद कहीं कहीं मैं अब भी वैसी ही हूँ...unpredictable
12 April, 2008
अवश्यम्भावी
निकट सृष्टि का आवासन हो
हर ओर बस चीत्कार हो
दस दिशा में हाहाकार हो
हो क्रोध से विकराल जब
तलवों से रौंदे काल जब
सब भस्म करना चाहे मन
धरती गगन सागर औ वन
सारा सृजन जब नष्ट हो
मनुपुत्र की आत्मा भ्रष्ट हो
सच झूठ का ना ज्ञान हो
इश्वर का भी ना भान हो
अभिमान जब फुंकार उठे
प्रतिशोध में जब वार उठे
आपस में ही लड़ जाएँ सब
हो विश्वयुद्ध मर जाएँ सब
चुप ही रहोगे ना केशव?
या कुछ कहोगे तुम माधव?
रक्षा करोगे परीक्षित सी
या सीख दोगे अर्जुन सी
फ़िर महाभारत रचा जा रहा है
पर इस बार तो हर तरफ़ कौरव ही हैं
तुम किस ओर से लड़ोगे केशव...ये युद्ध कैसे रुकेगा
और अंत में...क्या कोई बचेगा?
उड़ान तब से आज तक
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिन्जरबद्ध न गा पायेंगे
कनक तीलियों से टकरा के
पुलकित पंख टूट जायेंगे
हम बहता जल पीने वाले
मर जायेंगे भूखे प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक कटोरी की मैदा से
स्वर्ण श्रृंखला के बन्धन में
अपनी गति उड़ान सब भूले
बस सपनो में देख रहे हैं
तरु की फुनगी पर के झूले
ऐसे थे अरमान की उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण सी चोंच खोल
चुगते तारक अनार के दाने
होती सीमा हीन क्षितिज से
इन पंखो की होड़ा होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी
नीड़ न दो चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो
काफ़ी बचपन में पढी गई कविता, शीर्षक तू याद नहीं है और ना लेखक का नाम। पार आज काफ़ी सालों बाद भी इस कविता के शब्द दिल को वैसे ही छूते हैं। सच्चाई का इतने सादे शब्दों में चित्रण, आज भी कहीं ऐसी ही जगह पाती हूँ ख़ुद को...
कुछ लोग ऐसे ही पंछियों की तरह होते हैं, उन्हें कुछ भी ना मिले पर आजादी चाहिए होती है, इसके बिना जीवन अर्थहीन हो जाता है। कोई ललक नहीं रहती, कोई उत्साह नहीं रहता और धीरे धीरे पंखों को उड़ने की आदत भी नहीं रहेगी, और इसके साथ ही शायद जिंदगी धीरे धीरे मर जायेगी।
फ़िर ना कोई चहचहाहट गूंजेगी और ना कोई अपनी उड़ान से सबका मन मोहेगा