18 April, 2008

random

उजाड़ पत्तों का एक कब्रिस्तान सा है

ये जर्द पत्ते मेरी खामोशी के रंग में रंगे दिखते हैं

कुछ तो बियाबान सी लगने लगी है ज़िन्दगी

जिसमें कुछ आँसू अनाथ बच्चो की तरह बिलखते हैं

मैं कतरा कतरा बिखरती हूँ अपने दामन में

हवाएं तिनका तिनका उड़ा जाती हैं मेरे वजूद के हिस्से

मगरूर हुआ करते थे हम किसी ज़माने में

सोचा था बदल देंगे तकदीर जो भी लिखे

कितने मासूम हुआ करते थे ख्वाबों के काफिले

चांदनी रात में छत पर मिलने की ख्वाहिश की तरह

अब तो दरिया सी है प्यास और समंदर के सामने हैं

दरकते हुए दरख्तों के कभी कभी यूँही

आस कहीं आके सुलगी हुयी सी लगती है

शब्द कभी कभी यूं ही आके परेशां करने लगते हैं कि हमें कहीं कागज पे उतारो, हम यूं ही तुम्हारे दिमाग में नहीं रह सकते. ऐसे में कुछ तो लिखा जाता है, ये कविता नहीं होती, बस कुछ खयालात होते हैं, कुछ उड़ते हुए आवारा बंजारा से ख्याल

3 comments:

  1. मैं कतरा कतरा बिखरती हूँ अपने दामन में

    हवाएं तिनका तिनका उड़ा जाती हैं मेरे वजूद के हिस्से

    बहुत खूब.

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  2. बहुत खूब। दिल में उतर गई आपकी भावनाएं। अच्छी रचना के लिए बधाई। कभी यहां भी आईए www.hamarelafz.blogspot.com

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  3. उड़ते हुए खयालात, आवारा बंजारों से खयालात,
    काफिले हैं साथ, फिर भला क्यों कोई रोकेगा जज्बात?

    ऐसे मे अल्फाज़ कगाज़ पर उतरने को हमेशा मचलते ही रहेंगे.

    बहुत अच्छी, दिल को छूने वाली रचना है. हर शब्द बहुत कुछ कहता है.
    लेखनी तो नही कहूँगा पर की बोर्ड पर उँगलियाँ चलाते रहिये.

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