उजाड़ पत्तों का एक कब्रिस्तान सा है
ये जर्द पत्ते मेरी खामोशी के रंग में रंगे दिखते हैं
कुछ तो बियाबान सी लगने लगी है ज़िन्दगी
जिसमें कुछ आँसू अनाथ बच्चो की तरह बिलखते हैं
मैं कतरा कतरा बिखरती हूँ अपने दामन में
हवाएं तिनका तिनका उड़ा जाती हैं मेरे वजूद के हिस्से
मगरूर हुआ करते थे हम किसी ज़माने में
सोचा था बदल देंगे तकदीर जो भी लिखे
कितने मासूम हुआ करते थे ख्वाबों के काफिले
चांदनी रात में छत पर मिलने की ख्वाहिश की तरह
अब तो दरिया सी है प्यास और समंदर के सामने हैं
दरकते हुए दरख्तों के कभी कभी यूँही
आस कहीं आके सुलगी हुयी सी लगती है
शब्द कभी कभी यूं ही आके परेशां करने लगते हैं कि हमें कहीं कागज पे उतारो, हम यूं ही तुम्हारे दिमाग में नहीं रह सकते. ऐसे में कुछ तो लिखा जाता है, ये कविता नहीं होती, बस कुछ खयालात होते हैं, कुछ उड़ते हुए आवारा बंजारा से ख्याल
मैं कतरा कतरा बिखरती हूँ अपने दामन में
ReplyDeleteहवाएं तिनका तिनका उड़ा जाती हैं मेरे वजूद के हिस्से
बहुत खूब.
बहुत खूब। दिल में उतर गई आपकी भावनाएं। अच्छी रचना के लिए बधाई। कभी यहां भी आईए www.hamarelafz.blogspot.com
ReplyDeleteउड़ते हुए खयालात, आवारा बंजारों से खयालात,
ReplyDeleteकाफिले हैं साथ, फिर भला क्यों कोई रोकेगा जज्बात?
ऐसे मे अल्फाज़ कगाज़ पर उतरने को हमेशा मचलते ही रहेंगे.
बहुत अच्छी, दिल को छूने वाली रचना है. हर शब्द बहुत कुछ कहता है.
लेखनी तो नही कहूँगा पर की बोर्ड पर उँगलियाँ चलाते रहिये.