एक हफ्ता नहीं था वो
सात दिन थे
और हर दिन में कितने घंटे
हर घंटे में कितने मिनट, हर मिनट में कितने सेकंड
मैंने गिन गिन के काटे थे
कितनी बार हनुमान चालीसा
कितनी देर शिवलिंग के आगे बैठी रही थी
तुम्हारे जाने के आखिरी लम्हे तक मेरा विश्वास नहीं टूटा था माँ
मुझे लगा था तुम मुझे छोड़ के नहीं जा सकती हो
मुझे लगा था मेरा विश्वास तुम्हें वापस ले आएगा
जागते हैं लोग कोमा से...डॉक्टर ने भी कहा था
मैं बैठी रही, अपनी श्रद्धा को लेकर, अपना प्यार लेकर
ना मानने को उद्यत, हठी, जिद्दी
तुम आओगी...कितनी बार तुम्हारा हाथ पकड़ कर झकझोरा था
तुम्हारे कानो में कही थी, वो सारी बातें जो जिंदगी में नहीं कही
क्या तुमने सुना होगा माँ?
पता भी नहीं चला
तुम ऐसे ही गुस्सा होके चली गई थी क्या?
डांटे बिना
इसलिए तुम्हारे बेटी टूट गई माँ
आज सब हंस रहे थे मुझपर...कि मुझे हॉस्पिटल से कितना डर लगता है
मुझे नहीं लगता था ना माँ...
क्या करूँ...मुझे लगता है वहाँ से कोई वापस नहीं आता
मुझे मरने से डर लगता है
मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है माँ
तुम क्यों चली गई?
bahut marmik rachana,sahi baat maa ki jagah koi nahi le sakta,bahut snudar rachana hai.
ReplyDeleteएक शानदार हृदयस्पर्शी रचना… पढ़कर ही सत्यता का बोध करा गया… उस ममता से मिला गया…।
ReplyDeleteदिल को छूने वाली रचना ... !
ReplyDeletemehsuus hota hai dard aapka
ReplyDeleteishvar ki adbhut den hai maa aor beti ka rishta...aapka dard samjha ja sakta hai.
ReplyDeleteआपका दर्द मैं महसूस कर सकती हूँ..
ReplyDeleteबहुत मुश्किल होता है गुनगुना कर रुलाने वाले वक्त को जीत लेना.. जब किसी अपने का हाथ छूटता नज़र आता है तो उसे कस कर थाम लेने का दिल होता है, लेकिन उस हाथ की जगह बस यादें हाथ रह जाती है.. और हम उन्ही यादों को समेट लेते है..
आज मन बहुत भारी था...
ReplyDeleteआपकी रचना पड़ी...
मां सोयी थी जब दफ्तर से वापिस आया....
अब तो बुडा गई है, फ़िर भी कहने लगी....
खाना खा लो...
जब तक खाना नही खाया, उसे चैन नही आया....
मां, तुम इतनी अच्छी क्यूँ हो....
तुम्हारी कीमत अभी भी शायद समझ नही पाता हूँ...
रात को देर से सोती हो,
सुबह जलती उठ जाती हो....
अपना सब कुछ दे कर भी,
कुछ भी न चाहती हो...
मां, तुम्हे प्रणाम...
कोटि कोटि प्रणाम..