12 April, 2008

अवश्यम्भावी

प्रलय का कहीं आह्वान हो
निकट सृष्टि का आवासन हो
हर ओर बस चीत्कार हो
दस दिशा में हाहाकार हो

हो क्रोध से विकराल जब
तलवों से रौंदे काल जब
सब भस्म करना चाहे मन
धरती गगन सागर औ वन

सारा सृजन जब नष्ट हो
मनुपुत्र की आत्मा भ्रष्ट हो
सच झूठ का ना ज्ञान हो
इश्वर का भी ना भान हो

अभिमान जब फुंकार उठे
प्रतिशोध में जब वार उठे
आपस में ही लड़ जाएँ सब
हो विश्वयुद्ध मर जाएँ सब

चुप ही रहोगे ना केशव?
या कुछ कहोगे तुम माधव?
रक्षा करोगे परीक्षित सी
या सीख दोगे अर्जुन सी

फ़िर महाभारत रचा जा रहा है
पर इस बार तो हर तरफ़ कौरव ही हैं

तुम किस ओर से लड़ोगे केशव...ये युद्ध कैसे रुकेगा
और अंत में...क्या कोई बचेगा?

3 comments:

  1. तुम किस ओर से लड़ोगे केशव...ये युद्ध कैसे रुकेगा
    और अंत में...क्या कोई बचेगा
    बहुत खूब। दिल को छू गई आपकी यह कविता। बडी गहराई है। समझने वाली बात है। लिखते रहिए।

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  2. bahut khoob,bahut sundar........khas taur se aakhiri panktiya...tum kis aor se ladoge keshav?

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  3. अभिव्यक्ति का अदभुत ही नही अपितु अद्वित्य प्रदर्शन.
    इस अज्ञानी के शब्द लाचार हैं जो इस नायाब रचना की ढंग से प्रशंसा भी नही कर पा रहा है.

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