25 April, 2008

....

तुम सामने होते हो तो कहने को होती हैं बातें कितनी
फिर भी बिता देते हैं खामोश हम रातें कितनी
ना वैसी ठंढ फिर आई ना फिर कोहरे में लिपटी सड़कें
याद आती हैं वो पहले दिसम्बर की की मुलाकातें कितनी

घर से ऑफिस को निकले और पहुंचे चिडियाघर में हम
बना के सबसे बहाने की हम ने खुराफातें कितनी
न तो मंजिल का पता था और न रस्ते का कोई ख्याल

ले के आता था हर मोड़ सौगातें कितनी

यही तो लुत्फ़ है तेरे साथ ऐ मेरे हमसफ़र
अब गिनती नहीं कि जिंदगी में हैं रातें कितनी

8 comments:

  1. jahir baat hai mohtarma kuch cheezo ki kabhi ginti nahi hoti...

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  2. haanji bahut sahi kaha,bahut sundar bhav

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  3. puja ji aap ki kavityon se zindgi k safar k sath chalne wali mehsoos hoti hain.

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  4. ना वैसी ठंढ फिर आई ना फिर कोहरे में लिपटी सड़कें
    याद आती हैं वो पहले दिसम्बर की की मुलाकातें कितनी

    गुदगुदाती हुई रचना है।

    *** राजीव रंजन प्रसाद

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  5. ना वैसी ठंढ फिर आई ना फिर कोहरे में लिपटी सड़कें
    याद आती हैं वो पहले दिसम्बर की की मुलाकातें कितनी

    गुदगुदाती हुई रचना है।

    *** राजीव रंजन प्रसाद

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  6. यही तो लुत्फ़ है तेरे साथ ऐ मेरे हमसफ़र
    अब गिनती नहीं कि जिंदगी में हैं रातें कितनी

    वाह.

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  7. यादों के झरोखों से लिखी लाइने सबको कहीं न कहीं अपनी यादों मे ले जा रही है.अच्छा लगा. l

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