25 April, 2012

लो अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम

मैं ऐसी ही किसी शाम मर जाना चाहती हूँ...मैं दर्द में छटपटाते हुए जाना नहीं चाहती...कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जाना चाहती.

उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.

ये शहर बहुत तनहा कर देने वाला है...यहाँ आसमान से भी तन्हाई ही बरसती है. आज दोपहर बरसातें हुयीं...किताब पढ़ रही थी और अचानक देखा कि बादल घिर आये हैं...थोड़ी देर में बारिश होने लगी...अब एक तरफ मिस्टर सिन्हा और उनके सिगार से निकलता धुआं था...दुनिया को नकार देने के किस्से थे...बेजान किताबें थीं और एक तरफ जिंदगी आसमान से बरस रही थी जैसे किसी ने कहा हो...मेरी जान तुम्हें बांहों में भर कर चूम लेने को जी चाहता है. मैंने हमेशा जिंदगी को किताबों से ऊपर चुना हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता...तो बहुत देर तक बालकनी से बारिशें देखती रही...फिर बर्दाश्त नहीं हुआ...शैम्पू करके गीले बालों में ही घूमने निकल गयी...एक मनपसंद चेक शर्ट खरीदी है अभी परसों...फिरोजी और सफ़ेद के चेक हैं...थोड़ी ओवरसाइज जैसे कोलेज के टाइम पापा की टीशर्ट होती थी. 

मेरी आँखों में मायनस दो पावर है पिछले दो सालों से लगभग...उसके पहले बहुत कम थी तो बिना चश्मे के सब साफ़ दिखता था. आजकल आदत भी हो गयी है बिना चश्मे के कभी नहीं रहने की...कुछ धुंधला फिर से किताब का याद आता है...गुरुदत्त को चश्मे के बिना कुछ दिखता नहीं था और एक्टिंग में आँखों का सबसे महत्वपूर्ण रोल है ऐसा वो मानते थे...हालाँकि ये बात उन्होंने कहीं सीखी नहीं...पर जीनियस ऐसे ही होते हैं. आज जब कोलनी में टहल रही थी तो चश्मा उतार दिया...ताकि बरसती बूँदें सीधे चेहरे और आँखों पर गिर सकें...आसमान को देखते हुए पहली बार ध्यान गया कि बिना चश्मे के चीज़ों का एकदम अलग संसार खुलता है...किसी गीली पेंटिंग सा...किसी कैनवास सा...खास तौर से बारिश के बाद. पेड़ों की कैनोपी...गुलमोहर के लाल फूल...सब आपस में ऐसे गुंथे थे जैसे मेरी यादों में कुछ नाम...कुछ लोग...और दुनिया जब साफ़ नहीं दिखती ज्यादा खूबसूरत दिखती है...थोड़ी सब्जेक्टिव भी हो जाती है...बहुत कुछ अंदाज़ लगाना पड़ता है...सामने से आती कार या बाइक में बैठे इंसान मुझे देख कर अगर हंस रहे थे तो मुझे दिखता नहीं. कभी कोई फिल्म बनाउंगी तो इस चीज़ को जरूर इस्तेमाल करूंगी...ये बेहद खूबसूरत था. 

बारिशें होती हैं तो कुछ लोगों की बहुत याद आती है और ये शहर एक बंद कमरा होने लगता है जिसमें बहुत सीलन है...और गीले खतों से सियाही बह चुकी है. मैं नए ख़त लिखने से डरती हूँ कि जब उदास होती हूँ ख़त नहीं लिखूंगी ऐसा वादा किया है खुद से. तन्हाई हमारे अन्दर ही खिलती है...और मैं यकीं नहीं कर पाती हूँ कि कितनी जल्दी सब अच्छा होता है और अचानक से जिंदगी एकदम बेज़ार सी लगने लगती है. 

ऐसे मूड में गुरुदत्त पर कुछ लिखूंगी तो सब्जेक्ट के साथ बेईमानी हो जायेगी इसलिए वो पोस्ट लिखना कल तक के लिए मुल्तवी करती हूँ...ऐसा सोच रही हूँ और रोकिंग चेयर पर झूलते हुए गाने सुन रही हूँ. आज एक दोस्त ने कहा उसे मेरी बहुत याद आ रही है...मुझे अच्छा लगा है कि किसी को मेरी याद आई है.

आज किसी से फोन करके दो तीन घंटे बात करने का बहुत मन कर रहा था...पूरी कोंटेक्ट लिस्ट स्क्रोल करके देख ली...हिम्मत न हुयी कि किसी से जिंदगी के तीन घंटे मांग लूं...मेरा क्या हक बनता है...ऐसा ही कुछ उलूल जुलूल खुद को समझाती हूँ...बालकनी से आसमान देखती हूँ...अनुपम की याद आती है...promise me you will never say that writing is a curse to you. वादा तो निभाना है. 

ऐसी किसी सुबह उठूँ...थोड़े से दर्द के साथ...कुछ दोस्तों से बात करने को दिल चाहे और फोन न कर पाऊं...बार बार फोन स्क्रोल करूँ...सोचूँ...कि कितना सही होगा खुद के लिए दो तीन घंटे का वक्त मांग लेना किसी की जिंदगी से...सोचूँ कि किसपर हक बनता है...फिर हज़ार बारी सोचूँ और आखिर फोन ना करूँ किसी को..चल जाने दे ना...रात को पोडकास्ट बना लेंगे. 

कल हमारे साहिबे आलम दिल्ली तशरीफ़ ले जा रहे हैं...जल्दी का प्रोग्राम बना है...हम यहाँ मर के रह गए दिल्ली जाने के लिए...पर कुछ मजबूरियां हैं...शाम से उदास हूँ जबसे खबर मिली है. अब कल गुरुदत्त को ही आवाज़ दूँगी...पुरानी चिट्ठियां पढूंगी...दर्द को दर्द ही समझता है...ओह...काश कि थोड़ा सुकून रहे...थोड़ा सा बस...काश!

24 April, 2012

गुरुदत्त को जानना एक अदम्य, अतृप्त प्यास से पूरा भर जाना है

अवचेतन मन बहुत आश्चर्यजनक होता है...नोस्टाल्जिया की परतों में गहरा गोता लगा कर कौन सी तस्वीर सामने खींच ले आएगा हम नहीं जानते...आश्चर्य होता है कि गुरुदत्त की पहली याद प्यासा के क्लाइमैक्स की है...किसी दिन दूरदर्शन पर आ रहा होगा...ब्लैक एंड वाईट छोटे से टीवी पर. 

फिर गुरुदत्त से गाहे बगाहे टकराती रही...उनके फिल्माए गीत टीवी पर खूब प्ले हुए हैं...प्यासा और कागज़ के फूल जितनी बार टीवी पर आये घर में देखे गए...तो कहीं न कहीं गुरुदत्त बचपन से मन में पैठ बनाते गए थे. कोलेज में फिल्म स्टडी के पेपर में गुरुदत्त हममें से अधिकतर के बेहद पसंदीदा थे...प्यासा और कागज़ के फूल जुबानी याद थीं...कैमरा एंगिल के डीटेल्स के साथ कि श्वेत-श्याम में प्रकाश और छाया का प्रयोग अद्भुत था. मुझे अच्छी सिनेमैटोग्राफी वाली फिल्में वैसी भी बहुत पसंद रही हैं. 

मेरा मानना है कि कला व्यक्तिपरक(subjective) होती है...क्लासिक फिल्मों में भी कुछ बेहद पसंद आती हैं...कुछ एकदम साधारण लगती हैं और समझ नहीं आता है कि दुनिया क्यूँ पागल है इस फिल्म के पीछे. फिल्म या किताब हमें वो पसंद आती है जिसमें कहीं न कहीं कुछ ऐसा मिल जाता है जो हमारे जीवन से जुड़ा होता है...कहीं न कहीं एक कांच का टूटा हुआ टुकड़ा जिसमें हम अपना एक टूटा सा ही सही अक्स देख लेते हैं. ऐसा मुझे लगता है...लोगों की अलग राय हो सकती है. 

फिल्मों पर हमेशा से इंग्लिश में लिखने की आदत कोलेज के कारण रही है... एक्जाम... पेपर... डिस्कसन... सब इंग्लिश में  होता था इसलिए बहुत सी शब्दावली वहीं की है...मगर ध्यान रखने की कोशिश करूंगी कि टेक्नीकल  जार्गन ज्यादा न हो. इधर इत्तिफाक से गुरुदत्त पर कुछ बेहतरीन किताबें मिल गयीं और फिर एक डॉक्युमेंट्री भी मिली, सब कुछ पढ़ते और देखते हुए एक सवाल बार बार कौंधता रहा कि हिंदी फिल्मों पर इतना कुछ इंग्लिश में क्यूँ लिखा गया है. किताब पढ़ कर मेंटली अनुवाद करती रही कि ये कहा गया होगा. आधी चीज़ों का जायका नहीं आता अगर अलग भाषा में लिखा गया है. डॉक्युमेंट्री भी आधी हिंदी आधी इंग्लिश में है...मैं कभी कुछ ऐसा करूंगी तो हिंदी में ही करूंगी. 

पहले रिसर्च डेटा की डिटेल्स: 
1. Yours Guru Dutt- Intimate letters of a great Indian filmmaker(गुरुदत्त के लिखे हुए ३७ ख़त, गीता दत्त और उनके बेटों तरुण और अरुण के नाम.)
2. Guru Dutt - A life in cinema (डॉक्युमेंट्री के सिलसिले में की गयी रिसर्च, कुछ अच्छी तसवीरें और लगभग डॉक्युमेंट्री के डायलोग)
3. In search of Guru Dutt/गुरुदत्त के नाम  (Documentary)
डॉक्युमेंट्री और किताब दोनों नसरीन मुन्नी कबीर की हैं...गुरुदत्त की चिट्ठियों का संकलन भी उन्हीं ने प्रस्तुत किया है. 
4. Ten years with Guru Dutt - Abrar Alvi's journey 
      - by Satya Saran (ये किताब कहीं बेहतर हो सकती थी...मुझे खास नहीं लगी पर कुछ घटनाएं अच्छी हैं जिनके माध्यम से गुरुदत्त की थोट प्रोसेस के बारे में जाने का अवसर मिलता है)

मुझे ये जानना है कि २५ से ३९ साल के अरसे में क्या कुछ सोचा होगा गुरुदत्त ने कि उसकी फिल्में अधिकतर ऑटोबायोग्राफिकल होती थीं...अगर जानना है कि एक आर्टिस्ट का मन कैसा होता है तो गुरुदत्त की फिल्में देखना और उसके बारे में जानना सबसे आसान रास्ता है. डॉक्युमेंट्री अच्छी बनी है...लोगों के इंटरव्यू बहुत कुछ कहते हैं मगर फिर भी बहुत कुछ बाकी रह जाता है...खुद के समझने और खोलने के लिए. 

गुरुदत्त- १४ महीने की उम्र में
गुरुदत्त का जन्म बैंगलोर में हुआ था...उनकी माँ वसंती पादुकोण  कहती हैं...' बचपन से गुरुदत्त बहुत नटखट और जिद्दी था...प्रश्न पूछना उसका स्वाभाव था...कभी कभी उसके प्रश्नों का उत्तर देते हुए मैं पागल हो जाती थी, किसी की बात नहीं मानता था...अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वो मानता था...और गुस्से वाला बहुत था...इम्पल्सिव था, मन में आया तो करेगा ही...जरूर.' 

डॉक्युमेंट्री में बस इतना ही हिस्सा है उनके बारे में...मैं सोचती रह जाती हूँ कि फिल्म मेकर ने कितना एडिट किया होगा जो सिर्फ इतना सा उभर कर आया है...फिर छोटे से गुरुदत्त के बारे में सोचती हूँ...अनगिन सवाल पूछते हुए, बहुत सारी इन्फोर्मेशन मन के कोष्ठकों में कहीं कहीं सकेरते हुए कि उनकी जिंदगी में शायद ऐसा कुछ भी नहीं बीतता था जो उनके नज़र में न आये. किताब में पढ़ते हुए कुछ प्रसंग ऐसे ही दिखते है जो पूरे के पूरे फिल्म में परिवर्तित हो गए. 

गुरुदत्त फिल्म टुकड़े टुकड़े में बनाते थे...फिल्म समय की लीनियर गति से नहीं चलती थी...जहाँ जो पसंद आया उस सीन को फिल्मा लिया गया. गुरुदत्त अनगिनत रिटेक देते थे और सीन को तब तक शूट करते थे जब तक वो खुद और फिल्म के बाकी आर्टिस्ट संतुष्ट न हो जाएं. अबरार अल्वी किताब में कहते हैं कि वो जितनी फुटेज में एक फिल्म बनाते थे उतने में तीन फिल्में बन सकती थीं. गुरुदत्त की फिल्मों की शूटिंग जिंदगी की तरह चलती थी...जैसे जैसे आगे बढ़ती थी किरदार डेवलप होते जाते थे. गुरुदत्त की फिल्म यूनिट में लगभग स्थायी सदस्य होते थे...अबरार अल्वी और राज खोसला के साथ रोज  फिल्म की शूटिंग के बाद ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन होते थे जिसमें रशेस देखे जाते थे और आगे की फिल्म का खाका तय किया जाता था. 

एक मजेदार वाकया है...वहीदा रहमान सुनाती हैं...'वो एक दिन शेव कर रहे थे और मूर्ति साहब के साथ शोट का डिस्कस कर रहे थे...तो हम लोग सब हॉल में बैठे हुए थे तो अचानक आवाज़ आई...उन्होंने इत्ती जोर से अपना रेज़र फेंका और बोले अरे क्या करते हो यार मूर्ति...तुमने बर्बाद कर दिया मुझे...तो मूर्ति साहब एकदम परेशान...मैंने क्या किया...हम तो शोट डिस्कस कर रहे थे...नहीं यार तुमसे शोट डिस्कस करते करते मैं अपनी एक तरफ की मूंछ काट दी, उड़ा दी...तो हम किसी से रहा नहीं गया तो हम हँस पड़े नैचुरली...जोर जोर से...कि तुम लोग हँस रहे हो...आज रात को शूटिंग है मैं क्या करूं...तो फिर मूर्ति साहब ने कहा...गलती आपकी थी, मेरी तो थी नहीं...फिर भी आप मुझे क्यूँ डांट रहे हैं...आप इस तरह कीजिये, दूसरी तरफ की भी मूंछ शेव कर डालिये फिर नयी नकली मूंछ लगानी पड़ेगी आपको...तो जब वो शोट के बारे में खास कर सोच रहे हों तब...बातें कर रहे हों तो सब कुछ भूल जाते थे'. 

आप प्यासा जैसी फिल्म देख कर बिलकुल अनुमान नहीं लगा सकते हैं कि ये फिल्म बिना किसी फाइनल स्क्रिप्ट की बनी थी...उसमें सब कुछ परफेक्ट है...सारे किरदार जैसे जिंदगी से उठ कर आये हैं. मुझे लगता है फिल्मों में किरदारों की आपसी  केमिस्ट्री इसी बिना स्क्रिप्ट के फिल्म बनने के कारण थी...अभिनेता फिल्म करते हुए वो किरदार हो जाते थे, वैसा सोचने लगते थे, वैसा जीने लगते थे...इसलिए फिल्म में कहीं कोई रूकावट...कोई खटका नहीं होता है. बेहतरीन निर्देशक वही होता है जो सारे अनगिनत रशेस में भी वो दूरदर्शिता रखता है...जिसे पूरी फिल्म मन में बनी दिखती है और उसी परफेक्शन की तलाश में वो अनगिनत रास्तों पर चलता है जब तक कि पूरी सही तस्वीर परदे पर न उतर जाए.

गुरुदत्त पर लिखना बहुत मुश्किल है...पोस्ट भी लम्बी होती जा रही है. अगली पोस्ट में फिर गिरहें खोलने की कोशिश करूंगी कि अद्भुत सिनेमा के रचयिता गुरुदत्त कैसे थे...क्या सोचते थे...कैसी चीज़ें पसंद थीं उन्हें. अगली पोस्ट उनके निजी खतों पर लिखूंगी जो उन्होंने गीता दत्त को और अपने बेटों तरुण और अरुण को लिखीं थीं. 

22 April, 2012

पैबंद के टुकड़े...

उसे मालूम नहीं है कि हम आखिरी बार मिल रहे हैं...

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लड़की आज वक़्त लेकर तैयार हुयी है...उसने आज अपनी पसंद के कपड़े पहने हैं...चिकन का काम किया हुआ ब्लैक  फुल स्लीव कुरता जिसकी आस्तीनें उसने बेपरवाही से ऊपर चढ़ा दी हैं...स्काईब्लू जींस. दायें हाथ में घड़ी और बायें हाथ में कांच का एक कड़ा जिसके रंग उसे बेहद पसंद हैं...कानों में सीपियों की बालियाँ...पत्तियों के आकार कीं. ब्लैक उसका फेवरिट कलर रहा है हमेशा से. उसके गोरे रंग पर काले कपड़े फबते भी थे बहुत ज्यादा...उसकी आँखें और ज्यादा काली और गहरी लगती थीं...किसी जादूगरनी सी.
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'पर तुम जाओगी कहाँ?'
जिंदगी सवाल करती है...मैं उसे बताना चाहती हूँ कि मैं उससे दूर भागना चाहती हूँ इसलिए उसे बता कर नहीं जा सकती...लहरें हमेशा समंदर की ओर लौटती हैं...मैं भी शायद...कहीं लौट जाना चाहूं...शायद अतीत के किसी क्षण में.
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'तुम्हें पहले जाना होगा...आई एम होपलेस एट गुडबाय्स'
'मतलब?'
'मुझे विदा करना नहीं आता...मैं अगर पहले जाती हूँ तो लौट लौट आती हूँ...उस लम्हा...उस लम्हे के बाद के काफी लम्हे...इसलिए तुम्हें पहले जाना होगा...मैं इसी जगह खड़ी तुम्हें देखती रहूंगी...और जब तुम वापस नहीं आओगे तो यकीन कर लूंगी कि तुम वापस आने के लिए नहीं गए थे'.
'तुम मज़ाक कर रही हो'
'आई एम सीरियस...आज इतने सालों में पहली बार तुम्हारा ध्यान गया है...याद करोगे तो याद आएगा कि मैं फोन तक नहीं काटती थी कभी.'
'अब...कहाँ जाना है...कब आओगी वापस...कुछ तो बताओ'
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बेस्ट फ्रेंड होने की अपनी तकलीफें हैं...कई बार तो लगता है कि सिर्फ रिसीवर है...फोन में माइक है ही नहीं...उसकी सारी बातें सुन सकता है...अपनी बातें समझाने की कोशिश कर सकता है पर जिद्दी लड़की करेगी एकदम अपने मन का ही...और उसे रोकने का कोई अधिकार नहीं है.
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It's strange how people sense the absolute power when it comes to people they love...coupled with their incessant capacity to hurt they so effortlessly can create a havoc in someone's life.
I wonder if I fall in love only to discover my vulnerability...my fragile sense of completeness. I am the last corner piece in his Jigsaw puzzle...it's anyway beautiful...while he becomes the key centre piece without whom I can't even think of putting the picture together...
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मैं ना रहूँ...यहाँ या कहीं और भी तो तुम्हें मेरी याद आएगी?
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16 April, 2012

पागल होने का कोई सही मौसम नहीं होता


कुछ भी सच नहीं है 
जब तक कि तुमने नहीं देखी हैं मेरी आँखें 

तुम प्यार से भरे हो
इसलिए मृत्युगीत में सुनते हो उम्मीद 

मुझे नफरत हो गयी है
सिर्फ त्योहारों पर घर आने वाली खुशियों से 

घर की देहरी पर पहरा देता है नज़र्बट्टू 
इसलिए उदासियाँ नहीं जा पाती हैं मेरे दिल से दूर 

बाँध की दीवारों पर लगे हुए हैं टाइम बम
तुमसे बात करती हूँ तो यादों के सब गाँव डूब जाते हैं 

वसंत के विथड्रावल  सिम्पटम्स जीने नहीं देते हैं 
गुलमोहर और अमलतास को कागज़ में रोल कर सुलगा दो 

पागल होने का कोई सही मौसम नहीं होता 
इस जून मॉनसून ब्रेक  होने के पहले चली आऊं तुम्हारे शहर?

इस बार मैं रीत गयी हूँ पूरी की पूरी
इश्क फिर भी सामने बैठा है जिद्दी बच्चे की तरह हथेली खोले हुए 

खुदा के रजिस्टर में नाम रैंडम अलोट हुए थे 
किसी की गलती नहीं थी कि हमें प्यार हुआ एक दूसरे से ही 

मुझसे मत कहो कि मैं कितनी अच्छी हूँ
मुझे बाँहों में भर कर चूमते रहो मेरे मर जाने तक

15 April, 2012

इन लव विद द चेक शर्ट...


तुमको कितना कहते हैं कि चेक शर्ट मत पहना करो तुमको समझ काहे नहीं आता है जी? बोले न बचपन से चेक शर्ट हमारा कमजोरी रहा है. स्कूल में मैथ के सर थे...वो एक ब्लू और ब्लैक का चेक पहन के आते थे...एकदम छोटे चेक...पर मुझे वो चेक इतना ज्यादा पसंद था कि किसी तरह तीन साल खुद को रोके कि पूछ न लें सर से कि कहाँ से ख़रीदे हैं शर्ट...फिर ये भी था कि सर केरला के थे तो अगर कह देते कि घर से ख़रीदे हैं तो क्या कहते...फिर मन का चोर तो जानता था कि चेक शर्ट तो बहाना है...वो कुछ और भी पहनते तो भी सोलिड क्रश था यार...कोई उपाय नहीं था. 
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तू तो है ही चिंदी...हमेशा तो सोलिड कलर्स पहनना पसंद था तुझे...तेरी वो जर्मन ब्लू शर्ट कितने दिन तक मेरी फेवरिट रही थी..फिर वो काई कलर की...नेवी ब्लू...ब्लैक...मैरून...रेड...बटर कलर...कितनी अच्छी अच्छी शर्ट्स थीं तेरे पास. मुझे तू हमेशा ऐसे ही याद आता है...प्योर कलर्स में...सिंगल शेड...और कितनी अच्छी चोइस थी तेरी और तेरी मम्मी की...तू कितना अच्छा, भला लड़का टाइप लगता था. कभी तेरी शर्ट पर एक क्रीज भी नहीं देखी...तुझे भी मेरी तरह आदत थी. कितना भी आयरन करके, तह लगा के रखा हुआ हो कुछ...पहनने के जस्ट पहले आयरन करेंगे ही. पहली बार तुझे चेक शर्ट में देखा...बड़ा अच्छा लग रहा है...डिफरेंट, क्लासिक...बात क्या है, कोई लड़की पटानी है? पक्का किसी ने कहा है न कि तू चेक में अच्छा लगता है...अब बता न...देख वरना मार खायेगा बहुत...और सुन...कितना भी तेरे पास चेक शर्ट्स पड़े हों, मुझसे मिलने प्लेन शर्ट पहन के आया कर...क्यूँ...अरे पगलेट...बेस्ट फ्रेंड है तू न मेरा...बचपन से...और चेक शर्ट मेरी वीकनेस है, जानता तो है तू...तेरे से प्यार होने का अडिशनल लफड़ा नहीं चाहिए हमको अभी लाईफ में...ओके?
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शाम का वक़्त है...आज कुछ ऐसी चीज़ों में उलझी कि खाना खाना भूल गयी...शाम हो गयी तो थोड़ा घर का सामान लेने बाहर निकली हूँ...आज बहुत दिन बाद बड़ी शिद्दत से एक सिगरेट पीने की ख्वाहिश जागी है...कोने से खोज कर मार्लबोरो का पैकेट निकालती हूँ...सिगरेट इज इन्जुरियस टू हेल्थ...हाँ हाँ...जानती हूँ बट सो इज लव...दज इट कम विद अ वार्निंग? बड़े आये तुर्रम खां...मेरी बला से! घर में रहो तो मौसम बड़ा ठहरा हुआ लगता है पर सड़क पर टहलने निकल जाओ तो दिखता है कि गुलमोहर को प्यार हुआ है और वो इश्क के रंग में डूबा है पूरी तरह...अमलतास और कई सारे रंग के फूल हैं...हलके गुलाबी...बैगनी...सफ़ेद... कुल मिला कर बेहद खूबसूरत नज़ारा है. मुझे कोलनी की सारी सड़कें याद हैं...कहाँ कैसे पेड़ हैं...किधर वो घर हैं जिनके आगे दरबान खैनी लगाते मिल जायेंगे...कहाँ बच्चे रोड पर साइकिल की प्रैक्टिस करते हैं शाम को...किधर सीनियर सिटिज़न लोग हैं...सब. 

मैं एक खाली सी सड़क पर हूँ...इधर कम लोग दिखते हैं...मैंने पहली सिगरेट सुलगाई है...हेडफोन पर किसी की आवाज़ है...पर मैं आवाज़ से बहुत दूर चली आई हूँ...कुछ देर तक आवाज़ मुझे पुकारती रहती है...मैं लौट कर आती हूँ और हँसती हूँ...कि मेरी जान वाकई...कभी कभी लगता है कि जिंदगी के धुएं में उड़ जाने से ज्यादा खूबसूरत रूपक हो ही नहीं सकता...अब आवाज़ का लहजा सख्त हो जाने की कोशिश करता है और मैं अपनी बेस्ट फ्रेंड के प्यार पर हँस पड़ती हूँ...अच्छा सुन न...जाने दे न...अच्छा मूड है, कौन सा रोज सिगरेट पीती हूँ...डांट मत न...ओकेज्नाली न...तो आज कौन सा ओकेजन है...वो गुस्से में भरी पूछती है...मैं मुस्कुराती हूँ बस. 

हवा में वसंत की गंध है...प्यार करना है तो वसंत कह लो...तारीफ करनी है तो बहार. एक वक़्त था मुझे सिगरेट के धुएं से अलर्जी थी...बर्दाश्त नहीं कर पाती थी...इसलिए कभी तबियत से स्मोकिंग की नहीं, कभी एकदम ही मूड ख़राब हुआ  तो खुद को तकलीफ देने के लिए पिया करती थी...वक़्त के साथ क्या कुछ बदल जाता है...बस नहीं बदला है तो सिगरेट का ब्रैंड...आज भी मार्लबोरो...अल्ट्रा माइल्ड्स.
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कॉन्वेंट की ड्रेस काफी स्मार्ट हुआ करती थी...शोर्ट ब्लू एंड ब्लैक चेक स्कर्ट और व्हाइट शर्ट...मोज़े एकदम करीने से नीचे मोड़े हुए...बस स्टैंड पर वेट करती हुयी अच्छी लगती होउंगी इसका अंदाज़ बाइक पर तफरी करते लड़कों से लग जाता था. उसमें से एक मुझे बेहद पसंद था...भूरी आँखें थी उसकी और अक्सर मिलिट्री प्रिंट के ट्राउजर्स पहनता था. आँखें तो उसकी बहुत बाद में देखी थीं...वो प्रिंट मेरी आज भी सबसे पसंदीदा प्रिंट में से एक है...दोस्त चिढाती थीं मुझे कि मैं लड़कों को उनके कपड़ों से नाम देती हूँ...ब्लैक टी शर्ट, मिलिट्री प्रिंट, येलो चेक्स, वाईट एंड ब्लू...मैं उनपर हँसती थी कि मैं कपड़ों में देखती हूँ तो वैसे ही नाम देती हूँ...तुम लोग क्या बिना कपड़ों के देखती हो...उसके बाद एक  झेंपा हुआ सन्नाटा था और फिर किसी ने मुझे किसी के नाम के बारे में नहीं चिढ़ाया. मुझे आज भी लड़के मेरी पसंद के कपड़ों में ही याद रहते हैं...मेरी यादें ब्लैक एंड वाईट नहीं होतीं. 
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धुआं फूंकते हुए ऊपर देखती हूँ...हलके नीले आसमान में पेड़ की शाखों की कैनोपी है...ब्लू चेक शर्ट...मैं अपने को-रिलेट करने की क्षमता पर खुद ही मुस्कुराती हूँ...लेफ्ट के आर्च पर बोगनविलिया में कुछ फूल आये हैं...जैसे उसकी हलकी मुस्कान...क्यूट...मैं फिर मुस्कुराती हूँ...मेरी सहेलियां मेरे प्यार में गिरने पड़ने से परेशान रहती हैं...उसे बताती तो कहती...फिर से? इसलिए उसे बताया नहीं...फोन चुप है...गाने ख़त्म...इयरफोन अब बस म्यूट करने के काम आ रहा है...सारा शोर... सारा दर्द...सारे लोग...मैं अक्सर बिना गानों के हेडफोन लगा के घूमती हूँ...ऐसे में अपने मन के गाने बजते हैं...अपनी दुनिया होती है...एकदम चुप...सिगरेट का धुआं जैसे शांत कमरे में ऊपर जा रहा है...गिरह गिरह खुलता हुआ...ये दूसरी सिगरेट ख़त्म हुयी...आखिरी का आखिरी कश. दो सिगरेट के बाद मिंट...ज़बान पर घुलता हुआ...जैसे फीके होते आसमान में उभरता अहसास...किसी चेक शर्ट से प्यार हो गया है मुझे. 

अनलिखे की डायरी

डिस्क्लेमर: मुझे लिख के एडिट करना न आया है न आएगा...कुछ वाक्य थे जो सोने नहीं दे रहे थे...इनमें कोई काम की बात नहीं है...आप इस पोस्ट को पढ़ना स्किप कर सकते हैं.
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रतजगे का सोचना...इसे आधी रात का जागना भी नहीं कह सकते...आधी रात को तो मैं हमेशा नींद में होती हूँ...जाग जाती हूँ कुछ २ बजे से चार बजे के बीच. नींद मेरी हमेशा से कम रही है...बचपन से बहुत सारा पढ़ने की आदत और बहुत कुछ सकेर लेने का मोह. इधर इंटरव्यू में शायद किसी ने सवाल पूछा था...इतना सारा कुछ करने के लिए वक़्त कैसे निकाल लेती हो...और मेरा जवाब था...आई स्लीप लेस. यानि मैं कम सोती हूँ...चार से पांच घंटे हमेशा मेरे लिए काफी रहे हैं. स्कूल के दिनों में रात ग्यारह बारह तक सिलेबस पढ़ना होता था और उसके बाद एक दो घंटे अपने पसंद का कुछ...मुझे आज भी रात को बिना कुछ पढ़े नींद नहीं आती.

कोलेज में आकर तो और आदत ही हो गयी रात दो बजे सोने की...आदत दिल्ली तक बरकरार रही...उसपर सुबह छह से सात बजे तक हर हाल और हर मौसम में उठ जाने की भी आदत बनी रही. इधर तीन चार सालों से थोड़ा रूटीन भी गड़बड़ था और नींद भी ज्यादा आती थी. अभी फिर पिछले तीन चार महीनों से वही पहले वाला हाल...चार घंटे, पांच घंटे की नींद. कल रात भी कोई १२ बजे सोयी होउंगी...तीन बजे नींद खुल गयी...और कितना भी चाहूं नींद आएगी नहीं. 

सब अच्छा रहता और इतना दर्द न रहता तो हमेशा की तरह इस वक़्त तुम्हें एक चिट्ठी जरूर लिखती...ब्लॉग पर यूँ अलाय बलाय लिखने के बजाये या फिर लिखने के पहले...पर आजकल मुझे जाने क्या हो गया है...एक एक शब्द को पकड़ कर रखती हूँ. मुझे तुम्हारी बहुत याद भी आ रही है अभी...अकेले तुम्हारी नहीं, कुछ और अजीज दोस्तों की भी...तो कह सकती हूँ कि तुम्हारे लिए मेरे मन में कोई खास कोर्नर या कोना नहीं है जिसके लिए मैं या तुम परेशान होना चाहो. 

मुझे लिखे बिना रहना नहीं आता...मेरी आदत है...मुझे लोग बहुत समझाते हैं कि हर बात लिखनी नहीं चाहिए...कुछ मन में भी रखना चाहिए...उसे गुनना चाहिए...फिर जाके अच्छा लिखना होता है. इसी तरह लोग बोलने के बारे में भी समझाते हैं कि कभी चुप भी रहना चाहिए...मुझसे नहीं होता. मैं क्या करूँ...कितना चाहती हूँ हाथ रोकूँ...मुझसे होता नहीं...पर हर बार जब ये कोशिश करती हूँ मैं बेहद उदास हो जाती हूँ...कलम की सारी सियाही आँखों में बहने लगती है और फिर रात रात नींद नहीं आती. 

एक बार ऐसे ही उदासी में अनुपम से कह दिया था...राइटिंग इज अ कर्स टु मी...उसने बहुत डांटा था कि ऐसे कभी नहीं कहते...कि काश वो मेरी तरह होता...कि उसे एक लाइन लिखने में कितनी दिक्कत होती है, कितना सोचना होता है तब जा के लिखता है. मैं जब ऑफिस में थी तब भी ऐसी ही थी. उसने कहा कि उसके साथ जितने ट्रेनी लोगों ने काम किया है सिर्फ मैं ऐसी थी कि वो निश्चिंत रहता था कि बॉडी कॉपी अगले दिन तैयार रहेगी. परसों से अनुपम की बहुत याद आ रही है...और ऐसा हो जा रहा है कि उससे बात करने का टाइम नहीं मिल पा रहा. जब मैं फ्री रहती हूँ वो नहीं रहता...जब वो फ्री रहता है मैं नींद में बेहोश. अभी सोच रही थी कि मंडे को उसे चिट्ठी लिखूंगी...बहुत दिन हो गए. 
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बहुत चाह रही हूँ कि सोचूँ उसके शब्दों के बारे में...मगर आज ही पहली बार तस्वीर देखी है और बाकी शब्द धुंधलाते दिख रहे हैं...मन एक ही बात पर अटका है...कवि कितना खूबसूरत है...बेहद से भी ज्यादा. दुनिया की फिलोसफी मुझे कभी जमी नहीं...मेरे जिंदगी के अपने फंडे रहे हैं...तो मन की खूबसूरती जैसी बकवास बातों पर कभी मेरा यकीन नहीं रहा...ये और बात है कि दोस्त हमेशा कहते थे कि तेरी खूबसूरती का पैमाना बायस्ड है. मुझे जो लोग अच्छे लगते हैं वो मुझे खूबसूरत लगने लगते हैं, आम से लोग पर मुझसे सुनोगे कि वो कैसे दिखते हैं तो लगेगा दुनिया में उनसे अच्छा कोई है ही नहीं. 
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मैं बेहद थक गयी हूँ अब...बहुत साल हो गए मेरे नाम एक भी चिट्ठी नहीं आई...मैं यूँ तनहा दीवारों से बातें करते थक गयी हूँ...मैं तुम्हारे नाम लगातार चिट्ठियां लिखते लिखते थक गयी हूँ...पूरी पूरी जिंदगी मौत का इंतज़ार करते करते थक गयी हूँ. मैं दो ही चीज़ों से ओब्सेस्ड हूँ...जिंदगी और मौत. बार बार सोचती हूँ कि कोई तुम्हारे जैसा कैसे होता है...समझ नहीं आता...शायद मैं बहुत आत्मकेंद्रित हूँ कि मुझे अपने से अलग लोग समझ नहीं आते...मुझे लगता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि आपको किसी की याद आये और आप उसे बताएं नहीं...किसी से प्यार हो और उसी से छुपा ले जाएँ...किसी से प्यार ख़त्म हो चुका हो और झूठ उसे यकीन दिलाते जायें...कैसे जी लेते हैं लोग झूठ के मुखोटे में. 

मुझे किसी की याद आती है तो बता देती हूँ...किसी से प्यार होता है तो जता देती हूँ...कभी प्यार टूटता है तो समझा देती हूँ...किसी को भूल जाती हूँ तो माफ़ी मांग लेती हूँ...मुझे कॉम्प्लीकेटेड होना नहीं आता. पर आज तकलीफ है बहुत...बेहद...जिंदगी हम जैसे लोगों के लिए नहीं है...और मैं क्या करूँ कि मुझे तो झूठ का हँसना भी नहीं आता...तुमने बहुत हर्ट किया है मुझे...जितना मैं तुम्हें बताउंगी नहीं...और जितना मेरे शब्दों में खुल कर दिखता है उससे कहीं ज्यादा. 

पर मैं क्या करूँ...मैं ही कहती थी न...कोई आपको दुःख सिर्फ और सिर्फ तब पहुंचा सकता है जब वो आपसे प्यार करता हो...उलझी हूँ...कोई सुझा दे...गिरहें. 

14 April, 2012

यूँ भी कोई रूठता है पहाड़ों से...

सारे पहाड़ों से आवाज़ लौट कर नहीं आती...कुछ ऐसे भी पहाड़ होते हैं जिन्हें कितनी भी आवाजें दो...अपने पत्थर के सीने में सकेर कर रख लेंगे...संकरी पगडंडियों के किनारे चलती छोटी सी लड़की सोचती है...पहाड़ों के दिल नहीं होता न!

लड़की इस पच्चीस तारीख को सोलह साल की हो जायेगी...अभी कुछ ही दिन पहले उसके १०वीं के रिजल्ट आये थे जिसमें वो बहुत अच्छे नंबरों से पास हुयी थी. उसके पापा ने खुश होकर भारत का मानचित्र सामने खोला था और कहा था बेटा आप ऊँगली रखिये कि आप कहाँ जाना चाहती हैं. जब पापा बहुत खुश होते थे तो लाड़ में उसे 'आप' बुलाते थे. लड़की ने कभी पहाड़ों पर बादल नहीं देखे थे...उसने सपनों के शहर पर ऊँगली रखी...दार्जलिंग.

लड़की बेहद खूबसूरत थी और क्लास के लगभग सभी लड़के मरते थे उसपर...उसे मालूम नहीं था कि इकतरफा प्यार क्या होता है पर ये तब तक था जब तक उसने दार्जलिंग से नज़र आती हिमालय पर्वत श्रृंखला नहीं देखी थी. आसमान तक सर उठाये...बर्फ का मुकुट पहने, जिद्दी, अक्खड़, पत्थर सा सख्त, बारिशों में सनकी और खतरनाक मोड़ों से भरा हुआ...उसे पहाड़ से पहली ही नज़र में प्यार हो गया था. लड़की को वैसा कोई मिला नहीं था कभी...उसे सब अच्छे भले लोग मिले थे...उसने दिल में सोचा...प्रेडिक्टेबल...हाउ बोरिंग...जबकि पहाड़ का कोई नियत मूड नहीं होता...कहीं ग्लेशियर होते हैं कहीं दूर तक बिछते घास के मैदान...कहीं कंदराएं तो कहीं फूलों की घाटी.

छोटी लड़की ने चाय के बगान देखे...ढलानों पर उतरती औरतें...नाज़ुक उँगलियों से चाय की लम्बी पत्तियां तोड़ती हुयीं...उसने जाना कि दार्जलिंग के ठंढे मौसम और यहाँ की मिटटी के कारण यहाँ की चाय बेहद खुशबूदार होती है...और चाय का ऐसा स्वाद सिर्फ दार्जलिंग में उगती चाय में आता है...कांच की नन्ही प्यालियों में चाय आई...सुनहले रंग की...एकदम ताज़ी खुशबू में भीगती हुयी. लड़की ने उसके पहले चाय नहीं पी थी जिंदगी में...चाय के कप के इर्द गिर्द उँगलियाँ लपेटी...गहरी सांस ली...और पहाड़ों की गंध को यादों के लिए सहेजा...फिर पहला नन्हा घूँट...हल्का तीखा...थोड़ा मीठा...और थोड़ा जादुई...जैसे स्नोवाईट को नींद से उठाता राजकुमार. अंगूठे और तर्जनी से उसने एक चाय की पत्ती तोड़ी...बुकमार्क बनाने के लिए और वापस लौट आई. रात होटल के कमरे में बेड टी पीती लड़की अपनी डायरी में लिख रही थी...पहाड़ों के पहले चुम्बन के बारे में...और जबां पर देर तक ठहरे आफ्टरटेस्ट के बारे में भी.

उसके दोस्त उसे पहाड़ी नदी बुलाते थे...हंसती खिलखिलाती...कलकल बहती हुयी...पर लड़की घाटी के आखिरी मुहाने पर खड़ी सोच रही है कि पहाड़ तो उससे प्यार ही नहीं करता...सिर्फ पहाड़ों में बहने से कोई पहाड़ी नदी हो जाती है क्या...व्यू पॉइंट पर उसने पुकारा...पियुsssssss...कोई आवाज़ लौट कर नहीं आई...वो एक लम्हा रुकी, गहरी सांस लेते हुए फेफड़ों में हवा भरी...इस बार उसने नाम को दो अक्षरों में तोड़ा और पहाड़ों के बीच की लम्बी खाई में अपने नाम को दूर तक जाने दिया...पिssssss युsssssssss....पहाड़ ने उसका नाम वापस नहीं किया...लड़की गुस्से में पैर पटक रही थी...फिर उसने खुद के सारे नामों से पहाड़ों को टेलीग्राम भेजा...पिहू...सिली...नदी...छु.ट.की...पिया...छोटी सी लड़की का चेहरा इतनी जोर से नाम पुकारने के कारण लाल होता जा रहा था...वो हर बार एक गहरी सांस खींचती, दोनों नन्ही हथेलियों से ध्वनि तरंगों की दिशा निर्धारित करती और अपना नाम पुकारती...पहाड़ एकदम खामोश था...कितना भी उम्र का अनुभव हो उसके पाले में...प्यार से किसे डर नहीं लगता...वो भी ऐसी लड़की से.

लड़की रात को थोड़ी उदास थी...कल सुबह वापस लौटना था...उन पहाड़ों में पैदल...जीप पर और घोड़े पर उसने अनगिन नज़ारे देखे थे...वो जितना पहाड़ों को जानती उतने ही गहरे प्यार में गिरती जाती...वो उम्र भी कुछ ऐसी थी कि उसे मालूम नहीं था कि जितना देख रही हैं आँखें और जितना संजो रहा है मन सब कुछ बाद में चुभेगा. आसमान तक पहुँचते देवदार के पेड़ों से सर टिकाये उसने बहुत से ख्वाब बुने...कच्ची उम्र के ख्वाब जिनमें पहाड़ों पर बार बार लौट आने के वादे थे. निशानी के लिए उसने अपना स्कार्फ व्यू पॉइंट के पास वाले पेड़ पर बाँध दिया...उसे क्या मालूम चलना था कि हवा में उड़ते स्कार्फ से पहाड़ को गुदगुदी लगेगी...वो तो बस चाहती थी कि पहाड़ उसे कभी भूले न.

सुबह सूरज के उगने के पहले वो व्यू पॉइंट पहुँच चुकी थी...इस बार उसने अपना नाम नहीं लिया...
आई...लव...यू...फिर एक साँस भर की चुप्पी और आखिरी और सबसे खूबसूरत शब्द...
फॉर...एवर.  

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उस दिन के बाद कभी जाना नहीं हुआ पहाड़ों पर...उम्र के कई पड़ाव पार कर चुकी है नन्ही सी लड़की और आजकल  पहाड़ों के देश से बहुत दूर निर्जन में है...जहाँ सिर्फ मैदान है दूर दूर तक...धरती औंधी कटोरी की तरह दिखती है...लड़की आज भी सुबह सुबह ब्लैक टी पीती है...खास दार्जलिंग से लायी हुयी...कांच की प्याली में...उँगलियाँ लपेटते हुए पहली चुस्की लेती है...ओह...आई स्टिल लव द वे यु किस...उसका पति उसके चाय प्रेम से परेशान है...चिढ़ाता है...लोगों को प्यास लगती है तुम्हें चयास लगती है...लड़की कुछ नहीं कहती...सुबह की पहली चाय के वक़्त वो कहीं और होती है...किसी और समय में...पहले प्यार की कसक को घूँट घूँट जीती हुयी. 
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एक पहाड़ था जहाँ लड़कियां नहीं जाना चाहती थीं...उस पहाड़ की गहरी लाल चट्टान पर यूँ तो कोई आवाज़ लौट कर नहीं आती थी...पर ठीक शाम जब बादल घर लौटने लगते थे...एक गुलाबी स्कार्फ हवा में हलके हिलने लगता था...अलविदा कहता हुआ...उस वक़्त पहाड़ों को किसी भी नाम से पुकारो...वो एक ही नाम लौटाता था...
पिssssssss युssssssss...
पिssssssss युssssssss...
पिssssssss युssssssss...  

11 April, 2012

खुदा की लिक्खी अधूरी कविता...


उसके पैरों में घुँघरू नहीं बंधे थे...पायल का एक नन्हा सा घुँघरू भी नहीं...फिर भी वो खुश होती थी तो थिरक उठती थी और विंडचाइम की तरह महीन सी धुन बजने लगती थी...वो इसे मन का गीत कहती थी...उसके मन में बजता था पर उस दिन दुनिया एकदम खूबसूरत हो जाती...ये वैसे कुछ दिन में से एक होता था जब उसे खुद से प्यार हो जाता था...

वो ऐसे किसी दिन सोचती थी कि सारी बेचैनियाँ उसे अंदर हैं और सारा सुकून भी उसके अंदर ही है...वो दिल पर हाथ रखे अपनी धडकनों को सुनती थी...कितनी खूबसूरत लय है...किसी का नाम नहीं लेता है जब दिल...एकदम खामोश होता है तो रात की ख़ामोशी में बारिश की हलकी फुहारों सी आवाज़ आती है...एकदम मद्धम...जैसे कोई चुपके कह गया हो कानों में...आई लव यू...इतना धीमे कि हर बार वो उलझी सी सोचे...कोई था क्या...कोई सच में आया था क्या...किसे प्यार है उससे. वो मन की इस बारिश में भीगती खुदा से पूछती है...ओ पगले...तुझे तेरी इस पागल बेटी से कितना प्यार है?

खुदा हँसता है और कुछ ओले नीचे फ़ेंक मारता है...ओला लड़की के सर में लगता है और उसका ढीला स्क्रू थोड़ा और ढीला हो जाता है...वो रात में अकेले हँसती है...ठेंगा दिखाती है...झगड़ा करती है कि ऊपर बैठ कर ज्यादा होशियार मत बनो...मैं चाँद फ़ेंक कर मारूंगी तो फिर किसी लड़की का मन अधूरा छोड़ने की हिम्मत नहीं कर पाओगे...पगले कहीं के...तुम्हें सर चढा रखा है मैंने...अभी नीचे उतारती हूँ. 

खुदा की और उसकी केमिस्ट्री से सब जलते हैं...खुदा के सारे बंदे...धरती के सारे इंसान...सब कितना मस्का लगाते हैं खुदा को, कितनी घूस देते हैं...उसके कान भी भरते हैं कि ये लड़की एकदम पागल है...खराब भी है...खुदा मानता ही नहीं...खुदा के मन का एक टुकड़ा लगा है न लड़की में...इसलिए वो जानता है कि चाहे जो खराब हो...चाहे जितनी बदमाशियां करे लड़की उसका मन साफ़ है एकदम...और बचपन में जैसी थी वैसी ही है लड़की...बाकी जितनी ऊपर से परतें चढ जाएँ उसपर उसने मन को वैसा ही साफ़ और पारदर्शी रखा है जैसा उसने दे कर भेजा था...इसलिए वो खुदा की सबसे फेवरिट बेटी है. 

खुदा का जब दिल्लगी का मूड होता है तो वो उस लड़की को प्यार की लंघी मार देता है...फिर लड़की शाम शाम बडबडाती रहती है...सिगरेट फूँकती है, खुदा को बैरंग चिट्ठियां लिखती है...खूब सारा झगड़ा करती है...खुदा जी खोल कर हँसता है...कहता है कित्ती बुद्दू हो रे...हर बार एक ही गलती करती हो...अब तुम सुधरोगी नहीं तो मैं क्या करूँ...कोई इतनी सारी गलतियाँ कैसे कर सकता है एक छोटी सी जिंदगी में. लड़की कहती है...माय फुट छोटी जिंदगी...ऊपर से कोरी धमकी देते हो...डरते तो तुम हो असल में मुझसे, ज्यादा हिम्मत है तो जान लो तो सही देखो कैसे पूरे स्वर्ग में तुम्हें दौड़ाती हूँ...डरपोक हो एक नंबर के...२९ की हो जाउंगी जून में...बड़े आये छोटी सी जिंदगी में...जानती नहीं हूँ तुम्हें...तुम चैन से बैठे हो कि अभी नीचे से जितना हल्ला करना है कर ले लड़की...ऊपर बुलाओ तो सही देखो कैसे तुम्हारा जीना मुहाल करती हूँ.

खैर...आप कितनी सुनेंगे ये बातें...लड़की तो पागल है ही और खुदा का को दिमाग ठीक होता तो वो आपकी जिंदगी में एक ऐसी लड़की लिखता? नहीं न. शाम होने को आई...खुदा खुदा कीजिये...और मुझसे पीछा छुड़ाने के उपाय ढूँढिये...वैसे चांस कम है...मेरी जिंदगी में बस आने का रास्ता है. 

मन बंजारा फिर पगलाए, भागे रह रह तोरे देस...


ऊपर वाले ने हमें बनाया ही ऐसा है...कमबख्त...डिफेक्टिव पीस. सारा ध्यान बाहरी साज सज्जा पर लगा दिया, दिन रात बैठ कर चेहरे की कटिंग सुधारता रहा...आँखों की चमक का पैरामीटर सेट करता रहा और इस चक्कर में जो सबसे जरूरी कॉम्पोनेन्ट था उसपर ही ध्यान नहीं दिया...मन को ऐसे ही आधा अधूरा छोड़ दिया. अब ये मन का मिसिंग हिस्सा मैं कहाँ जा के ढूंढूं. कहीं भी कुछ नहीं मिलता जिससे मन का ये खालीपन थोड़ा भर आये. अब ये है भी तो डिवाइन डिफेक्ट तो धरती की कोई चीज़ कहाँ से मेरे अधूरे मन को पूरा कर पाएगी...मेरे लिए तो आसमान से ही कोई उतर कर आएगा कि ये लो बच्चा...ऊपर वाले की रिटन अपोलोजी और तुम्हारे मन का छूटा हुआ हिस्सा. 

तब तक कमबख्त मारी पूजा उपाध्याय करे तो क्या करे...कहाँ भटके...शहर शहर की ख़ाक छान मारे मन का अधूरा हिस्सा तलाशने के लिए...कि भटकने में थोड़ा चैन मिलता है कि झूठी ही सही उम्मीद बंधती है कि बेटा कहीं तो कुछ तो मिलेगा...चलो पूरा पूरा न सही एक टुकड़ा ही सही...ताउम्र भटक कर शायद मन को लगभग पूरा कर पाऊं...कि हाँ कुछ क्रैक्स तो फिर भी रहेंगे धरती की फॉल्ट लाइंस की तरह कि जब न तब भूचाल आएगा और मन के समझाए सारे समीकरण बिगाड़ कर चला जाएगा. 

करे कोई भरे कोई...अरे इत्ती मेहनत से बनाया था थोड़ा सा टेस्टिंग करके देखनी थी न बाबा नीचे भेजने के पहले...ऐसे कैसे बिना पूरी टेस्टिंग के मार्केट में प्रोडक्ट उतार देते हो, उपरवाले तेरा डिपार्टमेंट का क्वालिटी कंट्रोल  कसम से एकदम होपलेस है. मैं कहती हूँ कुणाल से एक अच्छा सा सॉफ्टवेर इंटीग्रेशन कर दे आपके लिए कि सब डिपार्टमेंट में सिनर्जी रहे. वैसे ये सब कर लेने पर भी मेरा कुछ हुआ नहीं होता कि ख़ास सूत्रों से खबर यही मिली है मैं पूरी की पूरी आपकी मिस्टेक हूँ...आपने स्पेशल कोटा में मुझे माँगा था...स्पेशली बिगाड़ने के लिए, बाकियों को जलन होती है कि मैं फैक्टरी मेड नहीं हैण्ड मेड हूँ...वो भी खुदा के हाथों...अब मैं सबको क्या समझाऊं कि खुदा कमबख्त होपलेस है इंसान बनाने में...उसे मन बनाना नहीं आता...या बनाना आता है तो पूरा करना नहीं आता...या पूरा करना भी आता है तो मेरी तरह कहानियों के ड्राफ्ट जैसा बना देता है कमबख्त मारा...अरे लड़की बना रहा था कोई कविता थोड़े लिख रहा था कि ओपन एंडेड छोड़ दिया कि बेटा अब बाकी हिस्सा खुद से समझो.

हालाँकि कोई बड़ी बात नहीं है कि इसमें खुदा की गलती ना हो...उनको डेडलाइन के पहले प्रोडक्ट डिलीवर करने बोल दिया गया हो...तो उन्होंने कच्चा पक्का जो मिला टार्गेट पूरा करने के लिए भेज दिया हो...हो ये भी सकता है कि उन्होंने भी रीजनिंग करने की कोशिश की हो कि इतने टाइम में प्रोडक्ट रेडी न हो पायेगा...पर डेडलाइन के लिए रिस्पोंसिबल कोई महा पेनफुल छोटा खुदा होगा जो जान खा गया होगा कि अब भेज ही दो...आउटर बॉडी पर काम कम्प्लीट हो गया है न...क्या फर्क पड़ता है. खुदा ने समझाने की कोशिश की होगी...कि छोटे इसका मन अभी आधा बना है...जितना बना है बहुत सुन्दर है पर अभी कुछ टुकड़े मिसिंग हैं...बस यहीं छोटा खुदा एकदम खुश हो गया होगा...मन ही अधूरा है न, क्या फर्क पड़ता है...दे दो ऐसे ही...ऐसे में क्या लड़की मर जायेगी...खुदा ने कहा होगा...नहीं, पर तकलीफ में रहेगी...बेचैन रहेगी...भटकती रहेगी. छोटे खुदा ने कहा होगा जाने दो...ऐसे तो धरती पर आधे लोग तकलीफ में रहते ही हैं...एक ये भी रह लेगी...खुदा ने फिर समझाने की कोशिश की...बाकी लोगों की तकलीफ का उपाय है...इसकी तकलीफ का कोई उपाय नहीं होगा...छोटा खुदा फिर भी छोटा खुदा था...माना नहीं...बस हम जनाब आ रहे रोते चिल्लाते धरती पर...लोग समझ नहीं पाए पर हम उस समय से खुदा के खिलाफ प्रोटेस्ट कर रहे थे. 

मम्मी बताती थी कि मेरी डिलीवरी वक़्त से पंद्रह दिन पहले हो गयी थी...वो बस रेगुलर चेक-अप के लिए गयी थी कि डॉक्टर ने कहा इसको जल्दी एडमिट कीजिये...वक़्त आ गया है...बताओ...हमें कभी कहीं चैन नहीं पड़ा...पंद्रह दिन कम थोड़े होते हैं...खुदा भी बिचारा क्या करता, कौन जाने हम ही जान दे रहे हों धरती पर आने के लिए. 

यूँ अगर आप दुनिया को देखें तो सब कुछ एकदम एटोमिक क्लोकवर्क प्रिसिजन से चलता है...मेरे आने के पहले पूरी दुनिया में मेरी जगह कहाँ होगी...खाका तैयार ही होगा...पंद्रह दिन लेट से आते तो कितने लोगों से मिलना न होता...लाइफ...लाईक लव...इस आल अ मैटर ऑफ़ टाइमिंग टू. तो जो लोग मेरी जिंदगी में हैं...अच्छे बुरे जैसे भी हैं...परफेक्ट हैं. हाँ मेरे आने से उनकी जिंदगी में एक बिना मतलब की उथल पुथल जरूर हो जाती है. मेरे जो भी क्लोज फ्रेंड हैं कभी न कभी मैं उन्हें बेहद परेशान जरूर कर देती हूँ इसलिए बहुत सोच समझ कर किसी नए इंसान से बातें करती हूँ...मगर जेमिनी साइन के लोगों का जो स्वाभाव होता है...विरोधाभास से भरा हुआ...किसी से दोस्ती अक्सर इंस्टिक्ट पर करती हूँ...कोई अच्छा लगता है तो बस ऐसे ही अच्छा लगता है. बिना कारण...फिर सोचती हूँ...बुरी बात है न...खुद को थोड़ा रोकना था...मान लो वो जान जाए कि वो मेरी इस बेतरतीब सी जिंदगी में कितना इम्पोर्टेंट है...मुझे कितना प्यारा है तो उसे तकलीफ होगी न...आज न कल होगी ही...तो फिर हाथ  रोकती क्यूँ नहीं लड़की? 

पता है क्यूँ? क्यूंकि मन का वो थोड़ा सा छूटा हुआ हिस्सा जो है न...वो शहरों में नहीं है...लोगों में है...जिसे जिसे मिली हूँ न...अधूरा सा मन थोड़ा थोड़ा पूरा होने लगा है...और उनका पूरा पूरा मन थोड़ा थोड़ा अधूरा होने लगा है...है न बहुत खतरनाक बात? चलो आज सीक्रेट बता ही दिया...अब बताओ...मिलोगे मुझसे?

07 April, 2012

तुम ठीक कहते थे...डायरियां जला देनीं चाहिए


मेरे साथ ऐसा बहुत कम बार होता है कि मेरा कुछ लिखने को दिल हो आये और मैं कुछ लिख नहीं पाऊं...कि ठीक ठीक शब्द नहीं मिल रहे लिखने को...कुछ लिखना है जो लिखा नहीं पा रहा है. जाने क्या कुछ लिख रही हूँ...कॉपी पर अनगिन पन्ने रंग चुकी हूँ...दिन भर ख्यालों में भी क्या क्या अटका रहता है...पर वो कोई एक ख्याल है कि पकड़ नहीं आ रहा है...फिसल जा रहा है हाथ से. 

जैसे कोई कहानी याद आके गुम गयी हो...जैसे किरदार मिलते मिलते बिछड़ जायें या कि जैसे प्यार हुआ हो पहली बार और कुछ समझ ना आये कि अब क्या होने वाला है मेरे साथ...मुझे याद आता है जब पहली बार एक लड़के ने प्रपोज किया था...एकदम औचक...बिना किसी वार्निंग के...बिना किसी भूमिका के...सिर्फ तीन ही शब्द कहे थे उसने...आई लव यू...न एक शब्द आगे...न एक शब्द पीछे...चक्कर आ गए थे. किचन में गयी थी और एक ग्लास पानी भरा था...पानी गले से नीचे ही नहीं उतर पा रहा था...जैसे भांग खा के वक़्त स्लो मोशन में गुज़र रहा हो. 

कुछ अटका है हलक में...और एकदम बेवजह सिगरेट की तलब लगती है...जिस्म पूरा ऐंठ जाता है...लगता है अब टूट जाएगा पुर्जा पुर्जा...लगता है कोई खोल दे...सारी गिरहें...सारी तहें. एक किताब हो जिसमें मेरे हर सवाल का जवाब मिल जाए...कोई कह दे कि अब मुझे ताजिंदगी किसी और से प्यार नहीं होगा...या फिर ऐसी तकलीफ नहीं होगी.

मैं बहुत कम लोगों को आप कहती हूँ...मुझे पचता ही नहीं...आप...जी...तहजीब...सलीका...नहीं कह पाती...फिर उनके नाम के आगे जी नहीं लगाती...जितना नाम है उसे भी छोटा कर देती हूँ...इनिशियल्स बस...हाँ...अब ठीक है. अब लगता है कि कोई ऐसा है जिससे बात करने के पहले मुझे कोई और नहीं बनना पड़ेगा...बहुत सी तसवीरें देखती हूँ...ह्म्म्म...मुस्कराहट तो बड़ी प्यारी है...बस जेठ के बादलों की तरह दिखती बड़ी कम है. वो मुझे बड़े अच्छे लगते हैं...कहती हूँ उनसे...आप बड़े अच्छे हो...सोचती हूँ कितना हँसता होगा कोई मेरी बेवकूफी पर...इतना खुलना कोई अच्छी बात है क्या...पर कुछ और होने में बहुत मेहनत है...अगर सच कहो और अपनी फीलिंग्स को न छुपाओ तो चीज़ें काफी आसान होती हैं...छुपाने में जितनी एनेर्जी बर्बाद होती है उसका कहीं और इस्तेमाल किया जा सकता है. 

दोस्त...तेरी बड़ी याद आ रही थी...कहाँ था तू...वो मेरी आवाज़ में किसी और को मिस करना पकड़ लेता है...पूछता है...फिर से याद आ रही है...मैं चुप रह जाती हूँ. उसे बहकाती हूँ...वो मुझे कुछ जोक्स सुनाता है...शायरी...ग़ालिब...फैज़...बहुत देर मेरी खिंचाई करता है...अपनी बातें करता है...पूछता है...तुझे मुझसे प्यार क्यूँ नहीं होता...तुझे मुझसे कभी प्यार होगा भी कि नहीं. मैं बस हंसती हूँ और मन में दुआ मांगती हूँ कि भगवान् न करे कि कभी मुझे तुझसे प्यार हो...उनकी बहुत बुरी हालत होती है जिनसे मुझे प्यार होता है...तू जानता है न...अपने जैसी सिंगल पीस हूँ...मुझे भुलाने के लिए किसी से भी प्यार करेगा तो भी भूल नहीं पायेगा...प्यार में कभी निर्वात नहीं हो सकता...किसी की जगह किसी और को आना होता है. 

वो कहती है...तू ऐसी ही रहा कर...प्यार में रहती है तो खुश रहती है...वो कोशिश करती है कि ऐसी कोई बात न कहे कि मुझे तकलीफ हो...मुझसे बहुत प्यार करती है वो, मेरी बहुत फ़िक्र करती है. मुझे यकीन नहीं होता कि वो मेरी जिंदगी में सच मुच में है. मुझे वैसे कोई प्यार नहीं करता...लड़कियां तो बिलकुल नहीं...मैं उससे कहती हूँ...मैं ऐसी क्यूँ हूँ...इसमें मेरी क्या गलती है...मैं तेरे जैसी अच्छी क्यों नहीं.

मेरा मन बंधता क्यूँ नहीं...क्या आध्यात्म ऐसी किसी खोज के अंत में आता है? पर मन नहीं मानता कि हिमालय की किसी कन्दरा में जा के सवालों के जवाब खोजूं...मन कहता है उसे देख लूं जिसे देखने को नींद उड़ी है...उससे छू लूं जिसकी याद में तेल की कड़ाही में ऊँगली डुबो दिया करती हूँ...उसे फोन कर लूं जिसकी आवाज़ में अपना नाम सुने बिना शाम गुज़रती नहीं...उसे कह दूं कि प्यार करती हूँ तुमसे...जिससे प्यार हो गया है. सिगरेट सुलगा लूं और पार्क की उस कोने वाली सीमेंट की सीढ़ियों पर बैठूं...एक डाल का टुकड़ा उठाऊँ और तुम्हारा नाम लिखूं...जो बस तब तक आँखों में दिखे जब तक लकड़ी में मूवमेंट है...
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मेरे सच और झूठ की दुनिया की सरहदें मिटने लगी हैं...मैं वो होने लगी हूँ जिसकी मैं कहानियां लिखती हूँ...मैं धीरे धीरे वो किरदार होने लगी हूँ जो मेरी फिल्म स्क्रिप्ट्स में कोमा में पड़ी है...न जीती है न मरती है. अनुपम ने मेरी हथेली देख कर कहा था कि मैं ८० साल तक जियूंगी...मैं जानती हूँ कि उसने झूठ कहा होगा...पक्का मैं जल्दी मरने वाली हूँ और उसने ऐसा इसलिए कहा था कि वो जानता है मैं उसकी बातों पर आँख मूँद के विश्वास करती हूँ...कि यमराज भी सामने आ जायें तो कहूँगी अनुपम ने कहा है कि मैं ८० के पहले नहीं मरने वाली. 

मुझमें मेरा 'मैं' कहाँ है...कौन है वो जो मुझसे प्यार में जान दे देने को उकसाता है...मेरे अन्दर जो लड़की रहती है उसे दुनिया दिखती क्यूँ नहीं...मैं बस इन शब्दों में हूँ...आवाज़ के चंद कतरों में हूँ...तुम कैसे जानते हो मैं कौन हूँ...वो क्या है जो सिर्फ मेरा है...तुमने मुझे छू के देखा है? तुम मुझे मेरी खुशबू से पहचान सकते हो? तुम्हें लगता है तुम मुझे जानते हो क्यूंकि तुम मुझे पढ़ते हो...मैं कहती हूँ कि तुमसे बड़ा बेवक़ूफ़ और कोई नहीं...लिखे हुए का ऐतबार किया? जो ये लिखती है मैं वो नहीं...मैं जो जीती हूँ वो मैं लिखती नहीं...आखिर कौन हूँ मैं...और कहाँ हो तुम...आ के मुझे अपनी बाँहों में भरते क्यूँ नहीं?

06 April, 2012

रात के अँधेरे में एक दूज का चाँद खिल जाता उसकी उँगलियों के बीच.


एक छोटी सी लड़की है...दिन में उसकी काली आँखों में जुगनू चमकते हैं...पर उसे मालूम नहीं था...एक शाम उसकी आँखों से एक जुगनू बाहर आ गया...नन्ही लड़की ने बड़े कौतुहल से जुगनू को देखा और अपनी छोटी छोटी हथेलियों से कमल के फूल की पंखुड़ियों सा उसे बंद कर लिया. देर रात हो गयी तो जुगनू की ठंढी हलकी हरी चमक मद्धम पड़ने लगी...लड़की को यकीन नहीं होता की उसकी हथेलियों से जुगनू गायब नहीं हो गया है...उँगलियों के बीच हलकी फांक करके देखती...रात के अँधेरे में एक दूज का चाँद खिल जाता उसकी उँगलियों के बीच. 

रात लड़की खाना खाने के मूड में नहीं थी...खाने के लिए हथेलियाँ खोलनी पड़तीं और जुगनू उड़ जाता...वो एकदम छोटी थी इसलिए उसे मालूम नहीं था कि जुगनू उसकी आँखों की चमक से ही आता है और अगली शाम फिर से आ जाएगा...नया जुगनू...रात को आसमान की औंधी कटोरी पर तारे बीनने का काम था उसकी मम्मी का...जब किसी तारे में कोई खोट होता तो उसकी मम्मी उस तारे को आसमान से उठा कर फ़ेंक देती...वो टूटता तारा लोग देखते और मन में दुआ मांग लेते...तारे बीनने का काम बहुत एकाग्रता का होता था...तो छोटी लड़की की मम्मी उसे मुंह में कौर कौर करके खाना नहीं खिला सकती थी. 

जब बहुत देर तक चाँद की फांक से लुका छिपी खेलती रही तो फिर लड़की को यकीन हो गया कि जुगनू सच में है...और मुट्ठी खोलते ही गायब नहीं हो जायेगा...उसने हौले से अपनी मुट्ठी खोली...जुगनू कुछ देर तो उसकी नर्म हथेली पर बैठा रहा...सहमा हुआ, कुछ वैसा जैसे पिंजरे का दरवाज़ा खोलो तो कुछ देर तोता बैठा रहता है...उसे यकीन ही नहीं होता कि वो वाकई जा सकता है...उड़ सकता है...और फिर जुगनू ने सारी दुनिया एक बच्चे की आँखों के अन्दर से देखी थी...ये दुनिया उसे डराती भी थी...चौंकाती भी थी और पास भी खींचती थी. 

जुगनू ऊपर आसमान की ओर उड़ गया...जहाँ उसे तारों को बीनने में लड़की की मम्मी की हेल्प करनी थी. 
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१२ साल बाद का पहला दिन...

आज पहली बार किसी लड़के ने उसका हाथ पकड़ा था...उसने अपनी हथेली में उसके लम्स को वैसे ही कैद कर लिया था जैसे उस पहली शाम जुगनू को मुट्ठी में बाँधा था...उसे देर रात लगने लगा था कि हथेली खोल के देखेगी तो दूज के चाँद की फांक सी उस लड़के की मुस्कराहट नज़र आएगी. 

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तीस के होने के पहले का कोई साल...

We could have danced away to the dawn...

तुम्हारे आफ्टर शेव की हलकी खुशबू मेरी आँखों में अटकी है...आज भी शाम आँखों से जुगनू आते हैं...मुझे देख कर मुस्कुराते हैं और ऊपर आसमान की ओर उड़ जाते हैं, मैं अब उन्हें रोकती नहीं...मम्मी रिटायर हो गयी है...और ऊपर कहीं तारा बन गयी है...

मैं बस जरा देर को तुम्हें मुट्ठी में बंद कर देखना चाहती हूँ कि तुम वाकई हो कि नहीं...जिस लम्हे यकीन हो जायेगा तुम्हारे होने का मुट्ठी खोल कर तुम्हें जाने दूँगी...पर सोचने लगी हूँ बहुत...तो लगता है तुम्हारा दम घुटने न लगे...इसलिए कभी तुम्हें ठहरने को नहीं कहती. लेकिन सुनो न...आज रात नींद नहीं आ रही...आज की इस लम्बी सी रात काटने के लिए मेरी आँखों में जुगनू बन के ठहर जाओ न!

05 April, 2012

खेतों में उगा दूं मैं तेरे खतों की फसलें

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रहने दो न यार...कहीं एक कोने में पड़ी रहेगी...तुम कब से परफेक्शन के चक्कर में पड़ने लगी...अनगढ़ है...थोड़ी कच्ची है. पर एक मन कहता है...इस उम्र में बचपना शोभा नहीं देता...मन माँ की कही एक बात भी खींच के लाता है...ज्यादा कच्चा आम खाओगी तो पेट में दर्द होगा...फिर भी मन नहीं मानता. इसे किसी कागज़ में लिख कर बिसरा देने को जी नहीं चाहता...कभी कभी कैसा अनुराग हो जाता है अपने लिखे से...की जैसे वसंत में फूटती पेड़ के नयी कोपल हो या घर में लगाये कलमी गुलाब में आता पहला फूल...

ग़ज़ल, नज़्म या उसके जैसा कुछ भी अब नहीं लिखती...वो एक बेहद मुश्किल विधा है मेरे लिए...मुझे लगता है कि जो लोग ग़ज़ल लिखते हैं वो नैसर्गिक रूप से उसी फॉर्म में उन्हें इमैजिन करते होंगे. मैं छोटी सी छेनी लेकर बैठी हूँ कि इसे थोड़ा सुधार सकती हूँ क्या...पर तभी लगता है की ये पत्थर के प्रतिमा नहीं हाड़-मांस की एक नन्ही सी बच्ची है...इसे दर्द होगा. वैम्पायर बेबी की तरह जो कभी बड़े नहीं होते...उम्र में फ्रीज हो जाते हैं...उनका बचपना जब बुरा लगता है तब भी नहीं जाता. तो लिखे में जितना कच्चापन है मुझमें उतनी ही जिद...कि ग़ज़ल लिखना नहीं सीखूंगी...मीटरबाजी नहीं करुँगी...तो सिंपल ये बचता है कहना कि कृपया इसे ग़ज़ल न समझें...इसे कुछ भी न समझें...ये पोस्ट इग्नोर कर दें...क्यूंकि मैं इसे छूने वाली नहीं.

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लहरों पे कश्तियाँ ले चाँद उतर जाए
लिख जाए साहिलों पे तेरा नाम इन्किलाब 

जिस्म से खुरच दे उम्र भर की झुर्रियां 
हाथों की लकीरों से तेरा नाम इन्किलाब 

शहर शहर दरख्तों पर विषबेल लिपट जाए
खो जाए जो लिक्खा था तेरा नाम इन्किलाब 

खेतों में उगा दूं मैं तेरे खतों की फसलें 
सुनहरी बालियों में झूमे तेरा नाम इन्किलाब 

टेसू का जंगल है और मुट्ठी भर इमली भी
तेरे होटों से भी मीठा तेरा नाम इन्किलाब 

हम इश्क में फ़ना हों तो इसमें रिहायी कैसी 
हमें इश्क जिंदगी है तेरा नाम इन्किलाब 

04 April, 2012

Three Cs...कुर्सी, कलम और कॉफी मग

हम हर कुछ दिन में 'जिंदाबाद जिंदाबाद...ए मुहब्बत जिंदाबाद' कहते हुए इन्किलाबी परचम लहराने लगते हैं...इश्क कमबख्त अकबर से भी ज्यादा खडूस निकलता है और हमें उनके घर में जिन्दा चिनवाने की धमकी देता है...कि शहजादा ताउम्र किले की दीवार से सर फोड़ता फिरे कि जाने किस दीवार के पीछे हो अनारकली के दिल की आखिरी धड़कनें...शहजादा भी एकदम बुद्दू था...अब अगर प्यार इतनी ही बड़ी तोप चीज़ है तो थोड़े न अनारकली के मरने के बाद ख़त्म हो जाती...खैर...जाने दें, हमें तो अनारकली इसलिए याद आ गयी कि वो आजकल डिस्कोथेक के रस्ते में दिखने लगी है ऐसा गीत गा रहे हैं लोग.

ये रूहानी इश्क विश्क हमको समझ नहीं आता...हम ठहरे जमीनी इंसान...उतना ही समझ में आता है जितना सामने दीखता है अपनी कम रौशनी वाली आँखों से...किस गधे ने आँखों के ख़राब होने की यूनिट 'पॉवर' सेट की थे...कहीं मिले तो पीटें पकड़ के उसको. पॉवर बढ़ती है तो फील तो ऐसा होता है जैसे सुपरमैन की पॉवर हो...धूप में जाते ही बढ़ने लगी...पर होता है कमबख्त उल्टा...आँख की पॉवर बढ़ना मतलब आँख से और कम दिखना...कितना कन्फ्यूजन है...तौबा! खैर...हम बात कर रहे थे प्यार की...ये दूर से वाले प्यार से हम दूर ही भले...एक हाथ की दूरी पर रहो कि लड़ने झगड़ने में आराम रहे...गुस्सा-वुस्सा होने में मना लेने का स्कोप हो...खैर, आजकल हमारा दिल तीन चीज़ों पर आया हुआ है.


पहली चीज़...मेरी रॉकिंग चेयर...मैं कुछ नहीं तो पिछले चार साल में तो ढूंढ ही रही हूँ एक अच्छी रॉकिंग चेयर पर कभी मिलती ही नहीं थी. हमेशा कुछ न कुछ फाल्ट, कभी एंगिल सही नहीं...तो कभी बहुत छोटी है कुर्सी तो कभी आगे पैर रखने वाली जगह कम्फर्टेबल नहीं...तो फाईनली मैंने ढूंढना छोड़ दिया था कि जब मिलना होगा मिल जाएगा. इस वीकेंड हम सोफा ढूँढने चले थे और मिल गयी ये 'थिंग ऑफ़ ब्यूटी इज अ जॉय फोरेवर'. हाई बैक, ग्राफिक अच्छे, मोशन सही...झूलना एकदम कम्फर्टेबल. बस...हम तो ख़ुशी से उछल पड़े. बुक कराया और घर चले आये ख़ुशी ख़ुशी.

मंडे को कुर्सी घर आई और तब से दिन भर इसपर हम लगातार इतना झूला झूले हैं कि कल रात को हलके चक्कर आ रहे थे...जैसे तीन दिन के ट्रेन के सफ़र के बाद आते हैं. पर यार कसम से...क्या लाजवाब चीज़ है...इसपर बैठ कर फ़ोन पर बतियाना हो कि कुछ किताब पढना हो या कि ख्याली पुलाव पकाने हों...अहह...मज़ा ही कुछ और है. ये फोटो ठीक कुर्सी के आते ही खींची गयी है...पीछे में हमारा लैपटॉप...और कॉपी खुली है जिसमें कि कुछ लिख रहे थे उस समय.

दूसरी चीज़ जिसपर हमारा दिल आया हुआ है वो है ये कॉफ़ी मग...इसके कवर में एक बेहद प्यारी और क्यूट बिल्ली बनी हुयी है. इसकी छोटी छोटी आँखें...लाल लाल गाल और कलर कॉम्बिनेशन...सफेत पर काली-नीली...ओहो हो...क्या कहें. देखते साथ लगा कि ये बिल्ली तो हमें घर ले जानी ही होगी उठा कर. कल सुबह इस मस्त कप में कॉफ़ी विद हॉट चोकलेट पिया...कितना अच्छा लगा कि क्या बताएं. टेबल पर रखा भी रहे इतना अच्छा कॉफ़ी मग न तो उसे देख कर ही कुछ कुछ लिखने का मन करे. मुझे न अपने घर में वैसे तो ख़ास आर्डर की दरकार नहीं है. घर अधिकतर बिखरा हुआ ही रहता है...पर कुछ चीज़ें मुझे एकदम अपनी वाली चाहिए होती हैं, उसमें कोई कम्प्रमाइज नहीं कर सकती. जैसे चोकलेट या कॉफ़ी पीनी होगी तो अपने कॉफ़ी मग में ही पियूंगी...उसमें किसी और को कभी नहीं दूँगी. बहुत पजेसिव हूँ अपनी पसंदीदा चीज़ों को लेकर.

तीसरी चीज़ जिसके लिए हम एकदम ही पागल हो रखे हैं वो है हमारी नयी कलम...लिखने को लेकर हम वैसे भी थोड़े सेंटी ही रहते हैं. पहली बार हम खुद के लिए महंगा पेन ख़रीदे हैं...हमको अच्छे पेन से लिखना अच्छा लगता है...उसमें भी नीले या काले रंग के इंक से लिखने में मज़ा नहीं आता...इंक भी हमेशा कुछ दूसरा रंग ही अच्छा लगता है. ये मेरा पहला पार्कर है...इंक पेन...और रंग एकदम जैसा मुझे पसंद हो...पेन की बनावट भी ऐसी है कि लिखने में सुविधा होती है. निब एकदम स्मूथ...कागज़ पर फिसलता जाता है. गहरे गुलाबी-लाल रंग का पेन इतना खूबसूरत है कि लिखने के पहले मन करता है पेन पर ही कुछ लिख लें पहले. आजकल इसमें शेल पिंक इंक भरा हुआ है :) जिस दिन से पेन लायी हूँ...कॉपी में बहुत सारा कुछ जाने क्या क्या लिख लिया है.

संडे को नयी इंक भी खरीदी...ओरेंज क्रश...तो मेरे पास तीन अच्छी अच्छी कलर की इंक्स हो गयीं हैं...Daphne Blue, Shell Pink and Orange Crush. अधिकतर फिरोजी रंग से ही लिखती हूँ...मुझे बहुत अच्छा लगता है...खुश खुश सा रंग है, पन्ने पर बिखरता है तो नीला आसमान याद आता है...खुला खुला. पर पिछले कई दिनों से एक ही रंग से लिख रही थी और नारंगी रंग को उसी बार देख भी रखा था...नारंगी रंग भी अच्छा है...खुशनुमा...फ्रेश...बहार के आने जैसा. मैं अधिकतर इन दोनों रंग से लिख रही हूँ आजकल. फिर से चिट्ठी लिखने को मन कर रहा है...सोच रही हूँ किसको लिखूं. हरे रंग से लिखने का फिर कभी मूड आएगा तो लिखूंगी.

तो अगर आप मेरे घर आये हो...और मैं आपको अपनी रॉकिंग चेयर पर बैठने देती हूँ...और अपने फेवरिट मग में कॉफ़ी पेश करती हूँ और कॉपी देकर कहती हूँ...औटोग्राफ प्लीज...तो मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ...इसमें से एक भी मिसिंग है तो यु नो...वी आर जस्ट गुड फ्रेंड्स ;-)  ;-)

ya ya...I am a materialistic girl! :-) 

01 April, 2012

एक अप्रैल...मूर्ख दिवस बनाम प्रपोज डे और कुछ प्यार-मुहब्बत के फंडे

बहुत दिन हुआ चिरकुटपंथी किये हुए...उसपर आज तो दिन भी ऐसा है कि भले से भले इंसान के अन्दर चिरकुटई का कीड़ा कुलबुलाने लगे...हम तो बचपन से ये दिन ताड़ के बैठे रहते थे कि बेट्टा...ढेर होसियार बनते हो...अभी रंग सियार में बदलते हैं तुमको. तो आज के दिन को पूरी इज्ज़त देते हुए एक घनघोर झुट्ठी पोस्ट लिखी जाए कि पढ़ के कोई बोले कि कितना फ़ेंक रहे हो जी...लपेटते लपेटते हाथ दुखा गया...ओझरा जाओगे लटाइय्ये  में...और हम कहते हैं कि फेंका हुआ लपेटिये लिए तो फेंकना बेकार हुआ.

खैर आज के बात पर उतरते हैं...ई सब बात है उ दिन का जब हम बड़का लवगुरु माने जाते थे और ऊ सब लईका सब जो हमरा जेनुइन दोस्त था...मतबल जो हमसे प्यार उयार के लफड़ा में न पड़ने का हनुमान जी का कसम खाए रहता था ऊ सबको हम फिरि ऐडवाइस दिया करते थे कौनो मुहब्बत के केस में. ढेरी लड़का पार्टी हमसे हड़का रहता था...हम बेसी हीरो बनते भी तो थे हमेशा...टी-शर्ट का कॉलर पीछे फ़ेंक के चलते तो ऐसे थे जैसे 'तुम चलो तो ज़मीन चले आसमान चले' टाइप...हमसे बात उत करने में कोईयो दस बार सोचता था कि हमरा कोई ठिकाना नहीं था...किसी को भी झाड़ देंगे...और उसपर जबसे एक ठो को थप्पड़ मारे थे तब से तो बस हौव्वा ही बना हुआ था. लेकिन जो एक बार हमारे ग्रुप में शामिल हो गया उसका ऐश हुआ करता था. 

एक तो पढ़ने में अच्छे...तो मेरे साथ रहने वाले को ऐसे ही डांट धोप के पढ़वा देते थे कि प्यार मुहब्बत दोस्ती गयी भाड़ में पहले कोर्स कम्प्लीट कर लो...उसपर हम पढ़ाते भी अच्छा थे तो जल्दी समझ आ जाता था सबको...फिर एक बार पढाई कम्प्लीट तो जितना फिरंटई करना है कर सकते हैं. हमारे पास साइकिल भी सबसे अच्छा था...स्ट्रीटकैट...काले रंग का जब्बर साइकिल हुआ करता था...एकदम सीधा हैंडिल और गज़ब का ग्राफिक...बचपन में भी हमारा चोइस अच्छा हुआ करता था. घर पर मम्मी पापा कितना समझाए कि लड़की वाला साइकिल लो...आगे बास्केट लगा हुआ गुलाबी रंग का...हम छी बोलके ऐसा नाक भौं सिकोड़े कि क्या बतलाएं. तो हमारे साथ चलने में सबका इज्जत बढ़ता था.

उस समय पटना में लड़की से बात करना ही सबसे पहला और सबसे खतरनाक स्टेप था...अब सब लड़की मेरे तरह खत्तम तो थी नहीं कि माथा उठा के सामने देखती चले...सब बेचारी भली लड़की सब नीचे ताकते चलती थी...हालाँकि ई नहीं है कि इसका फायदा नहीं था...ऊ समय पटना में बड़ी सारा मेनहोल खुला रहता था...तो ऐसन लईकी सब मेनहोल में गिरने से बची रहती थी...हालाँकि हमारा एक्सपीरियंस में हम इतने साल में नहीं गिरे और हमारी एक ठो दोस्त हमारे नज़र के सामने गिर गयी थी मेनहोल में...उ एक्जाम के बाद कोस्चन पेपर पढ़ते चल रही थी...उस दिन लगे हाथ दू ठो थ्योरी प्रूव हो गया कि मूड़ी झुका के चलने से कुछ फायदा नहीं होता...और एक्जाम के बाद कोस्चन पेपर तो एकदम्मे नहीं देखना चाहिए. 

देखिये बतिये से भटक गए...तो लईकी सब मूड़ी झुका के चलती थी तो लईका देखती कैसे तो फिर लाख आप रितिक रोशन के जैसन दिखें जब तक कि नीचे रोड पे सूते हुए नहीं हैं कोई आपको देखेगा ही नहीं...भारी समस्या...और उसपर भली लईकी सब खाली घर से कोलेज और कोलेज से घर जाए...तो भईया उसको देखा कहाँ जाए...बहुत सोच के हमको फाइनली एक ठो आइडिया बुझाया...एक्के जगह है जहाँ लईकी धरा सकती है...गुपचुप के ठेला पर. देखो...बात ऐसा है कि सब लईकी गुपचुप को लेकर सेंटी होती है अरे वही पानीपूरी...गोलगप्पा...उसको गुपचुप कहते हैं न...चुपचाप खा लो टाइप...प्यार भी तो ऐसे ही होता है...गुपचुप...सोचो कहानी का कैप्शन कितना अच्छा लगेगा...मियां बीबी और गुपचुप...अच्छा जाने दो...ठेला पर आते हैं वापस...कोई भी लड़की के सामने कोई लईका उससे बेसी गुपचुप खा जाए तो उसको लगता है कि उसका इन्सल्ट हो गया. भारी कम्पीटीशन होता है गुपचुप के ठेला पर...तो बस अगर वहां लड़की इम्प्रेस हो गयी तो बस...मामला सेट. अगर तनी मनी बेईमानी से पचा पाने का हिम्मत है तो ठेला वाला को मिला लो...लड़की पटाने के मामले में दुनिया हेल्पफुल होती है...तो बस तुमरे गुपचुप में पानी कम...मसाला कम...मिर्ची कम...और यही सब लड़की के गुपचुप में बेसी...तो बस जीत भी गए और अगले तीन दिन तक दौड़ना भी नहीं पड़ा...

ई तो केस था एकदम अनजान लईकी को पटाने का...अगर लईकी थोड़ी जानपहचान वाली है तो मामला थोड़ा गड़बड़ा जाता है...खतरा बेसी है कि पप्पा तक बात जा के पिटाई बेसी हो सकता है...यहाँ एकदम फूँक फूँक के कदम रखना होता है...ट्रायल एंड एरर नहीं है जी हाईवे पर गाड़ी चलानी है...एक्के बार में बेड़ापार नहीं तो एकदम्मे बेड़ापार...तो खैर...यहाँ एक्के उपाय है...फर्स्ट अप्रील...लईका सब पूछा कि काहे...तो हम एकदम अपना स्पेशल बुद्धिमान वाला एक्सप्रेशन ला के उनको समझाए...हे पार्थ तुम भी सुनो...इस विधि से बिना किसी खतरे से लड़की को प्रपोज किया जा सकता है...एक अप्रैल बोले तो मूर्ख दिवस...अब देखो प्यार जैसा लफड़ा में पड़ के ई तो प्रूव करिए दिए हो कि मूर्ख तो तुम हईये हो...तो काहे नहीं इसका फायदा उठाया जाए...सो कैसे...तो सो ऐसे. एकदम झकास बढ़िया कपड़ा पहनो पहले...और फूल खरीदो...गेंदा नहीं...ओफ्फो ढकलेल...गुलाब का...लाल रंग का...अब लईकी के हियाँ जाओ कोई बहाना बना के...टेस्ट पेपर वगैरह टाइप...आंटी को नमस्ते करो...छोटे भाई को कोई बहाना बना के कल्टी करो. 

ध्यान रहे कि ई फ़ॉर्मूला सिर्फ साल के एक दिन ही कारगर होता है...बाकी दिन के लतखोरी के जिम्मेदार हम नहीं हैं. लईकी के सामने पहले किताब खोलो...उसमें से फूल निकालो और एकदम एक घुटने पर (बचपन से निल डाउन होने का आदत तो हईये होगा) बैठ जाओ...एक गहरी सांस लो...माई बाबु को याद करो...बोलो गणेश भगवन की जय(ई सब मन में करना...बकना मत वहां कुछ)...और कलेजा कड़ा कर के बोल दो...आई लव यू...उसके बाद एकदम गौर से उसका एक्सप्रेशन पढो...अगर शर्मा रही है तब तो ठीक है...ध्यान रहे चेहरा लाल खाली शर्माने में नहीं...गुस्से में भी होता है...ई दोनों तरह के लाल का डिफ़रेंस जानना जरूरी है...लड़की मुस्कुराई तब तो ठीक है...एकदम मामला सेट हो गया...शाम एकदम गोपी के दुकान पर रसगुल्ला और सिंघाड़ा...और जे कहीं मम्मी को चिल्लाने के मूड में आये लड़की तो बस एकदम जमीन पे गिर के हाथ गोड़ फ़ेंक के हँसना शुरू करो और जोर जोर से चिल्लाओ 'अप्रैल फूल...अप्रैल फूल' बेसी मूड आये तो ई वाला गाना गा दो...देखो नीचे लिंक चिपकाये हैं...अप्रैल फूल बनाया...तो उनको गुस्सा आया...और इसके साथ उ लड़के का नाम लगा दो जो तुमको क्लास में फूटे आँख नहीं सोहाता है...कि उससे पांच रूपया का शर्त लगाये थे. बस...उसका भी पत्ता कट गया. 

चित भी तुमरा पट भी तुमरा...सीधा आया तो हमरा हुआ...ई बिधि से फर्स्ट अप्रैल को ढेरी लईका का नैय्या पार हुआ है...और एक साल इंतज़ार करना पड़ता है बाबु ई साल का...लेकिन का कर सकते हो...कोई महान हलवाई कह गया है...सबर का फल मीठा होता है. ई पुराना फ़ॉर्मूला आज हम सबके भलाई के लिए फिर से सर्कुलेशन में ला दिए हैं. ई फ़ॉर्मूला आजमा के एकदम हंड्रेड परसेंट नॉन-भायलेंट प्रपोज करो...थप्पड़ लगे न पिटाई और लड़की भी पट जाए. 

आज के लिए बहुत हुआ...ऊपर जितना कुछ लिखा है भारी झूठ है ई तो पढ़ने वाला बूझिये जाएगा लेकिन डिस्क्लेमर लगाये देते हैं ऊ का है ना ई महंगाई के दौर में कौनो चीज़ का भरोसा नहीं है. तो अपने रिक्स पर ई सब मेथड आजमाइए...और इसपर हमरा कोनो कोपीराईट नहीं है तो दुसरे को भी ई सलाह अपने नाम से दे दीजिये...भगवान् आपका भला करे...अब हम चलते हैं...क्या है कि रामनवमी भी है तो...जय राम जी की!


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