मैं ऐसी ही किसी शाम मर जाना चाहती हूँ...मैं दर्द में छटपटाते हुए जाना नहीं चाहती...कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जाना चाहती.
उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.
उफ़...बहुत दर्द है...बहुत सा...यूँ लगता है गुरुदत्त के कुछ किरदार जिंदगी में चले आये हैं और मैं उनसे बात करने को तड़प रही हूँ...विजय...विजय...विजय...पुकारती हूँ. सोचती हूँ उसके लिए एक गुलाब थी...कहीं कोई ऐसी जगह जाने को एक राह थी...जहाँ से फिर कहीं जाने की जरूरत न हो. मैं भी ऐसी किसी जगह जाना चाहती हूँ. आज बहुत चाहने के बावजूद उसके खतों को हाथ नहीं लगाया...कि दिल में हूक की तरह उठ जाता है कोई बिसरता दर्द कि जब आखिरी चिट्ठी मिली थी हाथों में. उसकी आखिरी चिट्ठी पढ़ी थी तो वो भी बहुत कशमकश में था...तकलीफ में था...उदास था. ये हर आर्टिस्ट के संवेदनशील मन पर इतनी खरोंचें क्यूँ लगती हैं...साहिर ठीक ही न लिख गया है...और विजय क्या कह सकता है कि सच ही है न...'हम ग़मज़दा हैं लायें कहाँ से ख़ुशी के गीत....देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम'.
ये शहर बहुत तनहा कर देने वाला है...यहाँ आसमान से भी तन्हाई ही बरसती है. आज दोपहर बरसातें हुयीं...किताब पढ़ रही थी और अचानक देखा कि बादल घिर आये हैं...थोड़ी देर में बारिश होने लगी...अब एक तरफ मिस्टर सिन्हा और उनके सिगार से निकलता धुआं था...दुनिया को नकार देने के किस्से थे...बेजान किताबें थीं और एक तरफ जिंदगी आसमान से बरस रही थी जैसे किसी ने कहा हो...मेरी जान तुम्हें बांहों में भर कर चूम लेने को जी चाहता है. मैंने हमेशा जिंदगी को किताबों से ऊपर चुना हो ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता...तो बहुत देर तक बालकनी से बारिशें देखती रही...फिर बर्दाश्त नहीं हुआ...शैम्पू करके गीले बालों में ही घूमने निकल गयी...एक मनपसंद चेक शर्ट खरीदी है अभी परसों...फिरोजी और सफ़ेद के चेक हैं...थोड़ी ओवरसाइज जैसे कोलेज के टाइम पापा की टीशर्ट होती थी.
मेरी आँखों में मायनस दो पावर है पिछले दो सालों से लगभग...उसके पहले बहुत कम थी तो बिना चश्मे के सब साफ़ दिखता था. आजकल आदत भी हो गयी है बिना चश्मे के कभी नहीं रहने की...कुछ धुंधला फिर से किताब का याद आता है...गुरुदत्त को चश्मे के बिना कुछ दिखता नहीं था और एक्टिंग में आँखों का सबसे महत्वपूर्ण रोल है ऐसा वो मानते थे...हालाँकि ये बात उन्होंने कहीं सीखी नहीं...पर जीनियस ऐसे ही होते हैं. आज जब कोलनी में टहल रही थी तो चश्मा उतार दिया...ताकि बरसती बूँदें सीधे चेहरे और आँखों पर गिर सकें...आसमान को देखते हुए पहली बार ध्यान गया कि बिना चश्मे के चीज़ों का एकदम अलग संसार खुलता है...किसी गीली पेंटिंग सा...किसी कैनवास सा...खास तौर से बारिश के बाद. पेड़ों की कैनोपी...गुलमोहर के लाल फूल...सब आपस में ऐसे गुंथे थे जैसे मेरी यादों में कुछ नाम...कुछ लोग...और दुनिया जब साफ़ नहीं दिखती ज्यादा खूबसूरत दिखती है...थोड़ी सब्जेक्टिव भी हो जाती है...बहुत कुछ अंदाज़ लगाना पड़ता है...सामने से आती कार या बाइक में बैठे इंसान मुझे देख कर अगर हंस रहे थे तो मुझे दिखता नहीं. कभी कोई फिल्म बनाउंगी तो इस चीज़ को जरूर इस्तेमाल करूंगी...ये बेहद खूबसूरत था.
बारिशें होती हैं तो कुछ लोगों की बहुत याद आती है और ये शहर एक बंद कमरा होने लगता है जिसमें बहुत सीलन है...और गीले खतों से सियाही बह चुकी है. मैं नए ख़त लिखने से डरती हूँ कि जब उदास होती हूँ ख़त नहीं लिखूंगी ऐसा वादा किया है खुद से. तन्हाई हमारे अन्दर ही खिलती है...और मैं यकीं नहीं कर पाती हूँ कि कितनी जल्दी सब अच्छा होता है और अचानक से जिंदगी एकदम बेज़ार सी लगने लगती है.
ऐसे मूड में गुरुदत्त पर कुछ लिखूंगी तो सब्जेक्ट के साथ बेईमानी हो जायेगी इसलिए वो पोस्ट लिखना कल तक के लिए मुल्तवी करती हूँ...ऐसा सोच रही हूँ और रोकिंग चेयर पर झूलते हुए गाने सुन रही हूँ. आज एक दोस्त ने कहा उसे मेरी बहुत याद आ रही है...मुझे अच्छा लगा है कि किसी को मेरी याद आई है.
आज किसी से फोन करके दो तीन घंटे बात करने का बहुत मन कर रहा था...पूरी कोंटेक्ट लिस्ट स्क्रोल करके देख ली...हिम्मत न हुयी कि किसी से जिंदगी के तीन घंटे मांग लूं...मेरा क्या हक बनता है...ऐसा ही कुछ उलूल जुलूल खुद को समझाती हूँ...बालकनी से आसमान देखती हूँ...अनुपम की याद आती है...promise me you will never say that writing is a curse to you. वादा तो निभाना है.
ऐसी किसी सुबह उठूँ...थोड़े से दर्द के साथ...कुछ दोस्तों से बात करने को दिल चाहे और फोन न कर पाऊं...बार बार फोन स्क्रोल करूँ...सोचूँ...कि कितना सही होगा खुद के लिए दो तीन घंटे का वक्त मांग लेना किसी की जिंदगी से...सोचूँ कि किसपर हक बनता है...फिर हज़ार बारी सोचूँ और आखिर फोन ना करूँ किसी को..चल जाने दे ना...रात को पोडकास्ट बना लेंगे.
कल हमारे साहिबे आलम दिल्ली तशरीफ़ ले जा रहे हैं...जल्दी का प्रोग्राम बना है...हम यहाँ मर के रह गए दिल्ली जाने के लिए...पर कुछ मजबूरियां हैं...शाम से उदास हूँ जबसे खबर मिली है. अब कल गुरुदत्त को ही आवाज़ दूँगी...पुरानी चिट्ठियां पढूंगी...दर्द को दर्द ही समझता है...ओह...काश कि थोड़ा सुकून रहे...थोड़ा सा बस...काश!