17 November, 2010

काँच की बोतल में सदाएं

एक दिलरुबा शहर ने
कांच की बोतल में
भर के सदाएं भेजी हैं
गुनगुनी ठंढ है, जानां चले आओ

इश्क के मौसम ने
खुशबुओं में डुबो के  
आने की अदाएं भेजी हैं
वादा है बारिश का, जानां चले आओ

रूठे हुए स्वेटर ने
कट्टी भी तोड़ दी है
कोहरे की ले बलाएँ भेजी हैं
आधी डब्बी सिगरेट की, जानां चले आओ

उस ठेले वाले ने
मूंग की पकौड़ी संग
चटपटी चटनी भी भेजी है
हो जाएँगी ठंढी, जानां चले आओ

हर याद पुरानी ने
रस्ते बिछाए हैं
खुश-आमद-आयें भेजी हैं
तुम्हें मेरी है कसम, जानां चले आओ

11 comments:

  1. जानां चले आओ..

    सर्दी के मौसम का खूब खाका खींचा है आपने,
    अच्छी रचना.

    मनोज खत्री
    ---
    यूनिवर्सिटी का टीचर'स हॉस्टल-३

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  2. पुराने दिन, पुराना यादें, पुराने प्रतीक पर नया अनुभव।

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  3. कविताओं का अपना मौसम होता है...मौसमों की अपनी कविताएं होती हैं !
    शूक्रिया !

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  4. बहुत सुन्दर एक अलग अंदाज!

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  5. 'कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं मन चाहिए', लेकिन मौसम से ही तो ऐसा मन बनता है.

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  6. This comment has been removed by the author.

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  7. थोडा सा मैंने भी इसे अपने तरफ से बढाता हूँ पर शायद तुम्हारे जैसा ना बने :)

    मैं सिर्फ दफ्तर करने आया हूँ दिल्ली,
    चूर होकर गिरता हूँ बिस्तर पर
    जगा जगा सा फिर दफ्तर पहुँचता हूँ
    जानां चले आओ.

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  8. यह सदाएं और अदाएं बहुत अच्छी लगीं ..

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  9. सुन्दर...

    बहुत बहुत सुन्दर...

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  10. उस ठेले वाले ने
    मूंग की पकौड़ी संग
    चटपटी चटनी भी भेजी है
    हो जाएँगी ठंढी, जानां चले आओ

    Sach kahun to Gulzaar ki yaad dilaa gayi aapki ye rachna... kaafi inspired hain aap unse, lagta hai... Gulzaar mere bhi favourite hain... lekin shayad kabhi unki yaa aapki tarah is tarah bimb-pratibimb nahin bana paayaa... zindgi ne anubhav nahin diye kuchh to utne.. aur kuchh hum bhi zindgi ke utne kareeb naa rahe...

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