30 April, 2010

चाँद रातों के तागे

तेरी तलाश में फिर खुद को खंगाला हमने
लम्हा लम्हा कई यादों को निकाला हमने

दर्द सुलझे कई, उलझे कई धड़कन की तरह
बस खुदी को दिया जख्मों का हवाला हमने

साँस की तरह तेरा नाम हवा में घोला
पर ना चक्खा तेरे होठों का भी प्याला हमने

तेरा घर देखा और देख के मुस्काया किये
चाबी थी पर कभी खोला नहीं ताला हमने

चाँद रातों में तेरी याद के तागे काते
ओढा जाड़ों में हिज्र का वो दुशाला हमने

अब के पहले तुझे भूलूं ऐसा भी मुमकिन था
चाहा भी नहीं, ना दिल को सम्हाला हमने

28 April, 2010

मोबाइल में हिंदी ब्लोग्स देखना

नोट: ये एक लम्बी पोस्ट है, जिनको सिर्फ फ़ोन में हिंदी देखने के जुगाड़ में इंटेरेस्ट है, स्क्रोल करके आखिर के पॉइंट्स पढ़ सकते हैं।
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इसके लिए इंग्लिश में एक टर्म है"शो ऑफ", तो मैं आज शो ऑफ कर रही हूँ :)

बहुत दिन हो गए थे नया फ़ोन ख़रीदे हुए, अपने फ़ोन से थोड़ी बोर हो गयी हूँ तो सोचा की नया फ़ोन लिया जाए। मेरे पास फ़िलहाल सोनी एरिक्सन का फ़ोन है। फ़ोन खरीदते वक़्त ब्लॉग्गिंग नहीं की थी, और कभी जरूरत नहीं लगी थी फ़ोन पर ब्लॉग देखने या पढने की। मेरे फ़ोन में हिंदी फोंट्स नहीं होने के कारण सिर्फ बक्से नज़र आते हैं किसी भी वेब साईट पर।

अब जो नया फ़ोन खरीदना है, उसमें तीन चीज़ें चाहिए थी...दिखने में अच्छा होना, हिंदी पढने की सुविधा होना और अच्छा कैमरा होना। मैंने सब देख सुन के विवाज़ को पसंद किया। यहाँ से परशानी शुरू हुयी की हिंदी कैसे पढ़ी जाए फ़ोन पर। क्योंकि पहले की तुलना में मेरे ब्लॉग पर मेरा आना जाना बढ़ गया था।

इसके लिए बहुत सी रिसर्च की. पहले सैमसंग कार्बी बहुत पसंद आया था पर यही हिंदी फोंट्स की समस्या के कारण उसके बारे में नहीं सोचा।
रिसर्च के सिलसिले में फ़ोन, ऑपरेटिंग सिस्टम के बारे में भी बहुत कुछ पढ़ा। एक हद तक अंदाजा हो गया कि फ़ोन काम कैसे करता है। बहुत दिन कुणाल को भी परेशान करने में बिताये कि फ़ोन पर फोंट्स डाउनलोड करने का कुछ जुगाड़ बताओ। कोई सीधा और सिम्पल रास्ता नहीं मिला।

मोबाइल भी कंप्यूटर की तरह ओपेरातिंग सिस्टम से चलता है। अधिकतर स्मार्ट फ़ो में ऑपरेटिंग सिस्टम है सिम्बियन। लगभग पचास प्रतिशत स्मार्ट फ़ोन सिम्बियन ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलते हैं। मैंने सोनी एरिक्सन को मेल लिखा और अपनी समस्या से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि वो हिंदी फॉण्ट सपोर्ट नहीं देते हैं, और आगे भी उनका कोई इरादा नहीं है सपोर्ट देने का। तो मैंने सोचा कि सीधे operating सिस्टम वालों से बात की जाए।
सिम्बियन वालों का एक वेबसाइट हैं सिम्बियन आइडिया यहाँ पर वो operating सिस्टम को बेहतर बनाने के लिए लोगों से अपने आइडियास देने को कहते हैं। एक बार जा के देखे, काफी अच्छी साईट है, और आप देख सकते हैं कि लोग वाकई मोबाइल को बेहतर बनाने के लिए कई दिशाओं में सोच रहे हैं।

मैंने भी अपनी प्रोफाइल बनायीं और अपनी बात रखी कि मोबाइल में हिंदी फोंट्स मिलने चाहिए ताकि लोग ब्लोग्स और अन्य वेब साइट्स पढ़ सकें। आप मेरी पोस्ट को यहाँ देख सकते हैं। और अगर आपको लगे कि हिंदी फोंट्स की जरूरत वाकई है तो आप मुझे सपोर्ट कर सकते हैं। मुझे ३० वोट चाहिए ताकि ये आईडिया अगली स्टेज तक जा सके। सिम्बियन पर ज्वाइन करने के लिए यहाँ क्लिक करें। कुल तीन स्टेज हैं, पहले आईडिया पर लोग अपनी सहमति/असहमति देते हैं, दूसरी स्टेज में उसपर एक एक्सपर्ट ग्रुप अपनी राय देता है और तीसरी स्टेज में आईडिया की जरूरत और उसको पूरा करने में आसानी/मुश्किल देखी जाती है और आईडिया पूरा होता है/रिजेक्ट होता है। तो अगर यहाँ हम हिंदी इस्तेमाल करने वाले लोग अपनी राय दें, बताएं कि कैसे हमें हिंदी जरूरत है और बड़ी संख्या में इसकी मांग करें तो सिम्बियन अपने वर्शन के लिए ऐसा कोई सॉफ्टवेर में बदलाव करेगा जिससे किसी भी फ़ोन में हिंदी देखी जा सके।

मुझे कई बार लगता है कि हमें जो जरूरत होती है उसके लिए पूरी कोशिश किये बिना ही हम हार मान जाते हैं। अडजस्ट कर लेते हैं, समझौता कर लेते हैं परिस्थितियों से। पर अगर सच में किसी चीज़ के लिए लगातार कोशिश की जाए तो सफलता मिल के ही रहती है।

ये तो हुआ मोबाइल इस्तेमाल के लिए बदलाव की दिशा में एक लम्बा कदम जो धीरे धीरे शायद सफल होगा। हो सकता है ना भी हो।

फिलहाल के लिए जुगाड़। :)
ओपेरा एक वेब ब्रोव्सेर है, इसे आप इसकी वेबसाईट से डाउनलोड कर सकते हैं। इसकी खासियत है कि इसमें आप किसी भी कंप्यूटर पर हिंदी देख सकते हैं। अगर आपके कंप्यूटर में हिंदी फोंट्स नहीं है तब भी। इसी ब्रावज़र का मिनी वर्शन फ़ोन के लिए ओपेरा मिनी नाम से आता है। आप इसे या तो अपने फ़ोन से डाउनलोड कर सकते हैं, या कंप्यूटर पर डाउनलोड करके अपने फ़ोन पर सेव कर सकते हैं। छोटी सी २६२ किलोबाईट की फाइल है, इसे अपने मोबाइल पर सेव करें और फिर execute कर लें। इसके बारे में गूगल किया और इस पेज से सब कुछ समझ में आया, चूँकि वहां शुक्रिया बोलने का कोई तरीका नहीं है, अपने ब्लॉग पर कह रही हूँ। शुक्रिया अनिन्दा।
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मैं स्टेप बाई स्टेप लिखती हूँ
  1. यहाँ से अपने फ़ोन के लिए कंप्यूटर पर ओपेरा मिनी डाउनलोड करें। मेनू से अपना फ़ोन सेलेक्ट करें, जैसे नोकिया, सोनी एरिक्सन इत्यादि। ये एक executable फाइल है।
  2. ओपेरा मिनी फाइल को अपने फ़ोन पर सेव करें। फ़ोन में आप कहीं भी सेव कर सकते हैं। मैंने वेब पेज में सेव किया था।
  3. फ़ोन में उस फाइल पर क्लिक करें, इससे ओपेरा मिनी आपके फ़ोन में इन्स्टाल हो जायेगा। अधिकतर फ़ोन में ऑप्शन आता है कि आप इसे कहाँ सेव करना चाहते हैं। मैंने applications में सेव किया था। वहां आपको शोर्ट कट मिलेगा ओपेरा ब्रावज़र खोलने का। ये इंग्लिश का "O" लेटर होता है।
  4. वेब एड्रेस की जगह opera:config टाईप करें। ध्यान दें, इसके पहले http/www नहीं लगायें। एक पन्ना खुलेगा जिसमें Power-User settings लिखा होगा।
  5. स्क्रोल करके नीचे आयें, पन्ने के आखिर में use bitmap fonts for complex scripts लिखा मिलेगा, उसके आगे no लिखा होगा, उसे क्लिक करके yes कर दें।
  6. बस...अब कोई भी वेब पेज खोलें। हिंदी में पढ़ सकतें हैं।
मैं जानती हूँ मैंने कोई बड़ा तीर नहीं मारा है...पर ये एक ऐसी चीज़ थी जिसकी मुझे सख्त जरूरत थी। इसके लिए मैंने बहुत कुछ पढ़ा। technology के बारे में कुछ भी ना जानते हुए, ढेरों पन्ने पढ़े जिनका एक भी शब्द नहीं समझ आता था। पर धीरे धीरे आने लगा।

मैं इसे अपनी achivement मानती हूँ। काम जितना मुश्किल हो, उसे करने के बाद उतना ही अच्छा लगता है। उम्मीद है मेरी इत्ती मेहनत से किसी का फायदा होगा।

26 April, 2010

पैराशूट से उतरता चाँद

सच को लिखना जितना आसान होता है, उसको जीना उतना ही मुश्किल।
ऐसा ही दर्द के साथ भी होता है।

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एक भाषा है, जिसके कुछ ही शब्द मुझे आते हैं, पर उसके ये शब्द गाहे बगाहे मुझसे टकरा जाते हैं और मैं सोचती रह जाती हूँ कि ये महज इत्तिफाक है या कुछ और। जेऐनयू क्यों मेरी जिंदगी के आसपास यूँ गुंथा हुआ है। ऑफिस से कब्बन पार्क दिखता है, दूर दूर तक फैली हरी चादर पेड़ों की कैनोपी...और इनके बीच लहकता हुआ गुलमोहर। बायीं तरफ स्टेडियम भी। और सामने डूबता सूरज, हर शाम...और अक्सर होती बारिशें।

ऐसा था पार्थसारथी रॉक, जेऐनयू में। सामने दिखता हरा भरा जंगल, और उसके बीच लहकती बोगनविलिया। और दायीं तरफ ओपन एयर थियेटर की सफ़ेद दीवार...

कुछ भी तो नहीं बदला है, सूरज अभी भी वैसे ही हर शाम डूबता है, हर शाम। बस नहीं दिखता है तो चाँद, जेट के पीछे से पैराशूट बाँध कर उतरता हुआ चाँद।
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some lost alphabet tatooes your name in my blood. love can never be skin deep it seems.

23 April, 2010

एक शाम

डूबते सूरज को सीट के ऊपर से देखती हूँ।
आठवें फ्लोर पर ऑफिस है,
सूरज सामने लगता है

वायलिन सुनती हूँ
किसी की याद में भीगते हुए
सूरज से कहती हूँ रुको ना थोड़ी देर और

दोस्ती हो गयी है
शाम के इस लाल गालों वाले
गुदगुदे सूरज से

क्षितिज पर झूला झूलता है वो
मुस्कुराता है मुझे देख कर
उस तरफ कोई इंतज़ार कर रहा है

चलो ठीक है, जाने दिया
कल फिर आओगे ना
प्रोमिस? हाँ प्रोमिस।

महुआ


कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो शब्द नहीं एक पूरी कहानी होते हैं अपनेआप में, उनका अर्थ समझाया नहीं जा सकता। ऐसा ही एक शब्द है 'महुआ' बोलो तो जैसे मीठा सा स्वाद आ जाता है जुबान पर।

गुलाबी-लाल फूलों से ढका एक पेड़ झूमने लगता है पछुआ हवा बहने के साथ...उस बहती हवा में मिठास घुली रहती है, ऐसी मिठास जैसे रसिया बनाते वक़्त मिट्ठी की हड़िया से आती है...ये मिठास जैसे रोम रोम से फूट पड़ती है, पेड़ के नीचे की मिट्टी, लाल धूसर और फूलों की कुछ दहकती पंखुडियां...डूबता सूरज लाल होता हुआ।

इस मिठास में नशा होता है, जैसे सब कुछ नृत्य करने लगा हो...दूर कोई संथाली में गीत गाने लगता है...गीत के बोल समझ नहीं आते, पर भाव समझ आता है। बांसुरी की आवाज घुँघरू के साथ बजने लगती है। लगता है कोई जन्मों का बिछड़ा प्रियतम बुला रहा हो, किसी झील के पार से। घर के पास के पोखर में चाँद घोलटनिया मारने लगता है, महुआ को छू कर आती पछुआ नीम के पेड़ों से उचक कर उस तक भी पहुँच गयी है।

फुआ का घर अभी बन ही रहा है, हम लोग छत का ढलैया देखने आये हैं। मैं बालू में अपने भाई के साथ घरोंदा बना रही हूँ, वो बहुत छोटा है लेकिन अपने छोटे छोटे हाथों में जितना हो सके बालू ला के दे रहा है मुझे। मम्मी हम दोनों को एका एकी कौर कौर खिला रही है। महुआ की रोटी, मीठी होती है।

आसमान बहुत साफ़ है, उसमें खूब सारे तारे हैं ...मेरी आँखें ठीक हैं, मुझे बिना चश्मा के भी आसमान पूरा दिखता है, हम उसमें सप्त ऋषि ढूंढते हैं। घर चलने का वक़्त हो गया है। मैं सड़क पर एक हाथ में जिमी का हाथ और एक हाथ में रोटी लिए चल रही हूँ...मीठी मीठी महक आ रही है महुआ की।

22 April, 2010

इन मूड फॉर लव




कुछ फिल्में देख कर लगता है की प्यार वाकई बेहद खूबसूरत चीज़ है। मुझे लगता है जिनको भी इश्क के होने का गुमान हो उनको जिंदगी में तीन फिल्में जरूर देखनी चाहिए। गॉन विथ विंड, मिस्टर एंड मिसेज अईयर और इन मूड फॉर लव(Fa yeung nin wa)

आज मैं इनमें से आखिरी फिल्म की बात करुँगी। या फिर फिल्म की नहीं, फिल्म देखने से क्या होता है उसकी बात करुँगी। इस फिल्म को देखने के लिए मैं अपूर्व की आभारी हूँ, उसने लिंक दिए थे एक गीत और कुछ सीन के। फिल्म के बारे में उसका कहना है की ऐसी फिल्में आपकी जिंदगी में शामिल हो जाती हैं, एक कर्स की तरह। उसकी तारीफ़ के और शब्द उधार लेना गलत बात होगी बाकी मैं उसपर छोड़ती हूँ उसकी जब इच्छा हो इस फिल्म के बारे में लिखे।

इस फिल्म के क्लिप मैंने अपने कॉलेज के दौरान देखे थे, हमारा एक सब्जेक्ट था वर्ल्ड सिनेमा उसमें। वोंग कार वाई के बारे में पढ़ा भी था। मैंने पोस्ट में सबसे ऊपर अपने सबसे पसंदीदा दो शोट्स लगाये हैं। पहले में एक नोवेल लिख रहा है हमारा हीरो, मिस्टर चाव। मुझे बहुत पसंद आता है इस शोट का फ्रेम, जिंदगी में कितना कुछ बिखरा पड़ा होता है, इसमें से एक सही एंगल चुनना कितना मुश्किल होता है। उसकी उँगलियों में अटकी सिगरेट उठता धुआं, ऐसा लगता है हम वाकई उस सीन में खड़े हैं और उसे काम करते देख रहे हैं। फिल्म से ऐसे जुड़ जाते हैं जैसे किसी थ्री डी फिल्म में भी जा जुड़ सकें।

दूसरा शोट है जब मिस्टर चाव और मिसेज चान एक ग्राफिक नोवेल की कहानी आगे बढ़ने के सिलसिले में देर रात काम कर रहे हैं...मिसेज चान की आँखों में जो चमक है वो वाकई यकीन दिला देती है कि प्यार नाम की कोई चीज़ होती है, और ये कहानियां और कवितायें झूठ नहीं हैं। कि शोर शराबे और भाग दौड़ की जिंदगी में एक लम्हा है ऐसा जिसके खातिर जिया जाए।

इसका संगीत ऐसा है कि सदियों बाद भी आप सुनें तो रूह में उसकी गूँज सुनाई दे। एक बार सुनकर इसका संगीत भूलना नामुमकिन है...खास तौर से जिस तरह फ्रेम दर फ्रेम फिल्म में जैसे संगीत घुलता है। फिल्म देखना वैसा है जैसे पहला प्यार या पहली बारिश, और उसे याद करने तड़पना। मेरे ख्याल से हो ही नहीं सकता है कि आप फिल्म देखें और आपको कुछ याद ना आये।

और सबसे आश्चर्यजनक है कि ये फिल्म बिना स्क्रिप्ट के बनी थी, पूरी फिल्म हर रोज नयी होती थी, और उस सारी क्लिप्पिंग में से ये फाइनल फिल्म बनायीं गयी है। निर्देशक के बारे में जीनियस के अलावा कोई शब्द नहीं आता। कुछ लोगों के धरती पर आने का एक मकसद होता है, कुछ कवि होते हैं, कुछ लेखक...पर कई फिल्मों को देखने के बाद लगता है कि कोई तो है जो वाकई सिर्फ फिल्म निर्देशन के उद्देश्य से धरती पर आया है। या फिर कोई बड़ा मकसद, जैसे प्यार के अनछुए रंग दिखाने की खातिर।

ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए, दो कारणों से, अच्छी फिल्म क्या होती है ये जानने के लिए और प्यार को महसूसने के लिए।

और इसलिए कि ब्लॉग पर इतना वक़्त बिताते हैं, इससे कितना कुछ अच्छा हो सकता है ये जानने के लिए।

विडियो के बिना अधूरा रहता...

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फिल्म को कितनी बार देख चुकी हूँ...पोस्ट compose करते हुए आया एक ख्याल...

Talking to you is like falling in love, all over again. Watching you sleep is like single malt on the rocks, slowly getting imbibed in the system till it becomes you...the light woody fragrance of the forest in darjeeling.

21 April, 2010

another rainy day

i see the rain
snaking on the glass panel
water droplets racing each other
crossing, zigzaging all the way

i hear them striking the glass
in rhythm, the different notes
of a symphony, orchestrated
high in heavens, beyond the clouds

the sun takes a peek
rays sweep the rain washed terrain
tree tops look confused
unsure of the weather

evening starts to descend
guided by lightening
the clouds croon in their baritone
goodbye to the day. sun sets.

19 April, 2010

यादों का पैलेट

IIMC के आखिर के कुछ दिन थे, सबकी प्लेसमेंट आ रही थी। अधिकतर लोग दिल्ली में ही कहीं ना कहीं ट्रेनिंग कर रहे थे। ये हमारा आखिरी एक महीना था जेअनयू कैम्पस में और हमारी लाल दीवारों से जुड़े कुछ रिश्ते गहराने लगे थे। उस वक़्त ये नहीं लगा था की अब के बाद फिर शायद बहुत दिन हो जायेंगे किसी से मिले हुए, फिर देखे हुए...या शायद बात किये हुए भी।

मेरे खास दोस्तों में एक की बॉम्बे में ट्रेनिंग आई, स्टार प्लस की...मुझे सुबह ही पता चल गया। बहुत ख़ुशी हुयी कि अच्छी जगह ट्रेनिंग लगी है उसकी पर बात जैसे तीर की तरह चुभी वो ये कि आखिरी एक महीना भी छीना जा रहा है मुझसे...और मैं इस अचानक के लिए तैयार नहीं थी।

दिन भर हम एक दुसरे को देख कर कतराते रहे, किसी और रास्ते मुड़ जाते रहे। कभी अचानक लाइब्ररी चले गए तो कभी कैंटीन...आँखों में आता पानी अच्छा नहीं लगता। कहते हैं जाने वालों को हँस कर विदा करते हैं क्योंकि वो चेहरा ही यादों का सबसे साफ़ चेहरा होता है। धुंधला कर भी उसके रंग फीके नहीं पड़ते।

पर IIMC के छोटे से कैम्पस में दिन भर आप एक दुसरे से नहीं भाग सकते। मैं पानी पीने झुकी थी और पीछे मुड़ते ही उसे पाया...मैं नहीं चाहती थी कि मेरी आँखें गीली हों, मैं उसका चेहरा साफ़ देखना चाहती थी, धुंधला नहीं। पर ऐसा मेरे बस में नहीं था।

मैंने उससे कहा "ऐसा नहीं होगा कि तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकूँगी, ऐसा भी नहीं है कि तुमसे मैं रोज मिलती थी पिछले कुछ दिनों जब हम एक साथ थे। पर ये था कि आते जाते एक तुम्हारे चेहरे की आदत हो गयी थी। उस आदत से बहुत दर्द हो रहा है ये सोच कर कि अब कभी अचानक तुम नहीं नज़र आओगे कैम्पस में। तुम्हें ढूंढती रहती थी पहले ऐसा नहीं था, तुम्हें तलाशती रहूंगी ऐसा नहीं है...पर ये जो कमबख्त आदत है आँखों की, तुम्हें देख कर मुस्कुराने की...तुम बहुत याद आओगे यार, तुमको बड़ा मिस करुँगी।"

और मेरी यादों में उसकी गीली आँखें ही आती हैं अब तक...वो बोला था, इसलिए नहीं मिल रहा था तुझसे, पता था तू रुला देगी...मैं जा रहा हूँ, तुझे रोते देखा नहीं जाएगा, और मैं तेरे सामने रोना नहीं चाहता। तू बहुत ख़राब है रे पुज्जी कसम से।

इन आँखों को किसी की आदत ऐसी पड़ती ही क्यों है...कुछ लोग जैसे सूरज की तरह होते हैं, उनके आने से रोशन हो जाती है जिंदगी। ऑफिस में एक शख्स था ऐसा, मेरे नए ऑफिस में...वो इस हफ्ते जा रहा है। इतना कम वक़्त में तो आदत भी नहीं होती किसी की...पर मुझे दुःख हो रहा है उसके जाने पर। अभी जब कि उससे ठीक से बात भी नहीं की थी कभी...कैसे करती, मुझे कन्नड़ नहीं आती और उसे हिंदी।

अजीब होती है ये आँखों की आदत...शाम ढल रही है, डूबता सूरज, घर लौटते पंछी...और यादों में कहीं खोती हुयी सी मैं, V...आज तेरी बड़ी याद आई।

14 April, 2010

बारिश

क्षितिज के कोने से अटक गया था
अप्सरा का साँवला दुपट्टा
खींच रही थी वो, आँखें दिखा रही थी
बिजलियाँ कौंध गयीं देर शाम...

बिखर गए दुपट्टे में अटके सितारे
बारिश खुशबू से भिगा गयी धरती को
मचल के उठी धुंध उसको एक बार छूने के लिए
डांटा उसने जोर से, बदल गरज गए

तीन ताल बज रहा था खिड़की के पल्ले पर
बूंदों को याद थी उसके पैरों की थाप
ठुड्डी पे हाथ टिकाये पेड़ रस में डूबे थे
झूम रहा था कण कण मदोन्मत्त होकर

सूरज शर्म से लाल हो गया
शाम अँधेरे में दबे पाँव उतर गयी
धीमा हो गया राग मल्हार
रंग बुझे, पर्दा गिरा...रात हुयी

07 April, 2010

अख़बार से रंगा एक दिन

आधा दिन से ऊपर होने को आया...

मैं मान लूंगी कि मैंने आज का अखबार नहीं पढ़ा।

कि अस्सी जवानों के मारे जाने की बात सुनकर मुझे बस झुंझलाहट हुयी कि मैंने पेपर पढ़ना फिर क्यों शुरू किया.
कि मेरे दिमाग में कॉलेज के ज़माने का मीडिया एथिक्स का एक लेक्चर आया जिसमें ये था कि पहले अखबार वाले फ्रंट पेज पर ऐसी तसवीरें नहीं छापते थे जो विचलित कर सकती हूँ, खून वाली तसवीरें ब्लैक एंड व्हाईट में छापते थे।
कि सुबह से मुझे घबराहट हो रही है, मुझे लगता है मेरे हाथों पर खून लगा हुआ है। कहीं ना कहीं मेरी कोई जिम्मेदारी है जिससे मैं भाग रही हूँ। मुंह छुपा रही हूँ।

कि मुझे लगता है कि मैं उन लोगों को जानती हूँ जो उनके परिवार में थे, कि खून से रंगी पोशाकों में जो चेहरे थे उन्हें मैंने कभी, कहीं हँसते देखा है।

कि मेरी जिंदगी में बस ये दुःख है कि मैंने अपनी माँ को खो दिया है पर मुझे वही दुःख पहाड़ लगता है और जिंदगी जीने के काबिल नहीं पर मुझे आज ये सोच कर शर्म आती है।

कि मुझे लगता है कि किसी भी वजह के लिए इतनी बर्बरता से खामोशी से इतने लोगों कि जान लेना गलत है और अगर कुछ लोग इसे सही ठहरा सकते हैं तो हमारे समाज कि बुनियाद में कोई खोट है

कि थोड़ा चैन पाने के लिए मैंने टीवी देखना शुरू किया पर टीवी में 'अब तक छप्पन' चल रही थी, जिसमें वो सीन था जहाँ नाना पाटेकर बात करते करते किसी को गोली मार देता है...अंग्रेजी में शोट हिम इन कोल्ड ब्लड...व्हाटेवर दैट मीन्स।

कि मुझे रसीदी टिकट का एक वाकया याद आता है जिसमें कोई जर्मन कहता है कि इस भाषा ने इतने गुनाह किये हैं जर्मन में कभी कवितायेँ नहीं रची जानी चाहिए। मुझे भी लगता है कि कविताओं का कोई औचित्य नहीं है।

कि मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे हर बार मैं बस सोच के रह जाती हूँ और कुछ भी नहीं करती। कि मैं सोचती हूँ कि क्या वाकई मैं मुझ कर सकूंगी अगर करना चाहूँ तो।

कि किताबें अगर जला दी जाएँ तो हाथों में क्या थामें, दूसरा सहारा कहाँ है...संगीनों के साए में

कि जिंदगी से जरूरी ऐसी कौन सी जंग लड़ रहे हैं लोग...कितना भी पढूं समझ में नहीं आता।

कि एक मसीहा के इन्तेजार में बैठे हैं, पर मसीहा हम में से एक को ही तो बनना पड़ता है, जिम्मेदारी कभी कभी खुद से भी उठानी पड़ती है।

कि स्याही जैसे दिन पर फ़ैल गयी है...मुझे हर तरफ से रोना सुनाई देता है, ऐसा रूदन जिसमें आवाज नहीं है।

कि मनुष्य की बनायीं दुनिया की प्रोब्लेम्स का हल भगवान् के पास नहीं होता, हमें खुद तलाशना पड़ता है।

कि क्या मैं मन में गूंजते इस श्लोक की रौशनी में बस बैठी रहूँ..."असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।"

05 April, 2010

तीन दिनों का सफ़र

हमारे बीच एक ख़ामोशी का रिश्ता उग आया है. तीन दिन में सफ़र पूरा करने वाली इस ट्रेन के पहले पड़ाव से आखिरी पड़ाव के साथी हैं हम. इत्तिफाक से हम दोनों को खिड़की वाली आमने सामने की सीट मिली है.
दिन के ढलते हुए मैं उसके चेहरे के बदलते मौसमों को देख रही हूँ. उसके माथे पर की बनती बिगड़ती लकीरें सब्जेक्टिव थीं, उनका मतलब कुछ भी हो सकता था. पर हमेशा की तरह हम वही देखते हैं जो हमारी खुद की जिंदगी में जिया होता है. अक्स हमेशा किसी जान पहचान वाले का होता है. वो चेहरा तीन दिन के सफ़र में अपना हो गया था.
ये एक पुरानी कहानी है, तब जब ट्रेन के सफ़र में एक कूपा आपकी पूरी दुनिया होता था...बातें उस समय की हैं जब मोबाइल इस तरह से हमारी जिंदगी में दखल अन्दाजी नहीं कर सकता था. ये भी कारण है की ट्रेन में बने रिश्ते, बिना कहे एक जरूरी अनछुए हिस्से में महफूज़ रहते हैं हमेशा.
स्लीपर के थ्री टायर डिब्बे में बीच की सीट पर आधी चांदनी आती रहती थी, पेड़ों और कुछेक मकानों के अँधेरे के अलावा. उसके गाल सहलाती चांदनी से उसे बेहद तकलीफ होने लगी थी और उसके सफ़ेद पड़े चेहरे पर दर्द की सिलवटें पड़ने लगी थीं.
शहर छूटते वक़्त मैंने उसकी आँखों में सारे मौसम देखे थे. वो हर इमारत को एक प्यार भरी नज़र से उसके पूरे डीटेल्स के साथ संजो रहा था. और एक जगह उसकी आँखें फ्रीज हो गयी थीं...वो स्कूल दूर तक उसकी आँखों में लिपटा हुआ था. सोलह साल की उम्र में विश्वास करना कितना आसान होता है कि इंसान को जिंदगी में एक ही बार प्यार हो सकता है. छोटे शहर के स्कूल में खूबसूरत लड़की भी कमोबेश एक ही होती है पर क्लास के अधिकतर लड़के उसे अलग अलग रंग में याद रखते हैं. याद रखते हैं इसमें कोई शक नहीं.
उसके बारे में मुझे कुछ बातें बिलकुल अच्छी तरह याद हैं. वह किसी से विदा लिए बिना आया है. सिर्फ इसलिए कि उसे एक दिन जरूर मिलेगा पर तब कब वो कुछ बन चुका हो. पर अभी उसे डर लग रहा है कि वो इंतज़ार क्यों करेगी जब उसे मालूम भी नहीं है कि इंतज़ार करना है. उसकी आँखों में लाल बत्ती वाली एक गाड़ी की रौशनी जलती बुझती है...
उसने ट्रेन से उतरते हुए मुझसे भी विदा नहीं ली...वो रिश्ता जो शुरू नहीं हुआ कभी...आज भी अधूरा है. ट्रेन के सफ़र में आज भी मुझे उसकी याद आती है, लगता है सामने वाली सीट पर आके बैठेगा शायद तो मैं उसे बता सकूंगी. शशांक, मेरा नाम पूजा है...तुम्हारा नाम संजीवनी में मेरे फ़ेवरिट डॉक्टर का है, तुम्हारी आँखों का भूरा रंग मेरे सबसे प्यारे दोस्त की आँखों जैसा है...और मैं तुम्हें आज भी याद करती हूँ.

02 April, 2010

विरह राग

देर रात के किसी पहर में
किसी भूले राग को गाते हुए
अक्सर 'पकड़' पर अटक जाती हूँ

सुर भटके हुए लगते हैं
याद आता है अपना हारमोनियम
और सर के तबले की थाप

उँगलियों पर तीन ताल गिनती हूँ
ह्म्म्म...वक़्त की गिनती अभी दुरुस्त है
कोई दिलासा मिलता है कहीं

मैं शायद कुछ उन लड़कियों में से हूँ
जिनको रात में अकेले डर नहीं लगता
चांदनी अच्छी लगती है कमरे में

चाँद को घूरते हुए सोचती हूँ
चाँद पूरा हो गया आज बढ़ते बढ़ते
तुम्हारा काम एक महीने से चल रहा है

गुलदान में से मुरझाये फूल निकालती हूँ
तीन दिन हो गए सन्डे बीते हुए
रजनीगंधा के फूल लाने होंगे नए

लैवेन्डर कैंडिल, रुकी हुयी लौ
उँगलियों से लौ को गुदगुदी करती हूँ
उसके थिरकने पर हंसी आती है

गिटार अब एकदम आउट ऑफ़ ट्यून है
मन कसैला हो जाता है सुन कर
डेरी मिल्क का एक टुकड़ा तोड़ती हूँ

बहुत कुछ करती हूँ बहुत देर जगी हुयी
तुम्हारे बिना रात वाकई बहुत लम्बी हो जाती है...

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