जैसे गरमी के दिनों में लंबी सड़क पर चलते चलते
बरगद की छांव मिल जाये
ऐसी होती है माँ की गोद
चुप चाप बैठ कर घंटों रोने का मन करता है
बहुत से आंसू...जाने कब से इकट्ठे हो गए हैं
सारे बहा सकूं एक दिन शायद मैं
कई बार हो जाती है सारी दुनिया एक तरफ
और सैकड़ों सवालों में बेध देते हैं मन को
उस वक़्त तुम मेरी ढाल बनी हो माँ
आंसू भले तुम्हारी आँखों से बह रहे हो
उनका दर्द यहाँ मीलो दूर बैठ कर मैं महसूस करती हूँ
इसलिये हँस नहीं पाती हूँ
जिंदगी बिल्कुल ही बोझिल हो गयी है
साँसे चुभती हैं सीने में जैसे भूचाल सा आ जता है
और धुएँ की तरह उड़ जाने का मन करता है
कश पर कश...मेरे सामने वो धुआं उड़ाते रहते हैं
मैं उस धुंए में खुद को देखती हूँ
बिखरते हुये...सिमटते हुये
माँ...फिर वही राह है...वही सारे लोग हैं और वही जिंदगी
फिर से जिंदगी ने एक पेचीदा सवाल मेरे सामने फेंका है
तुम कहॉ हो
रात को जैसे bournvita बाना के देती थी
सुबह time पे उठा देती थी
मैं ऐसे ही थोड़े इस जगह पर पहुंची हूँ
मेरे exams में रात भर तुम भी तो जगी हो
मेरे रिजल्ट्स में मेरे साथ तुम भी तो घबरायी हो
पर हर बार माँ
तुमने मुझे विश्वास दिलाया है
कि मैं हासिल कर सकती हूँ...वो हर मंज़िल जिसपर मेरी नज़र है
और आज
आज जब मेरी आंखों की रौशनी जा रही है
मेरी सोच दायरों में बंधने लगी है
मेरी उड़ान सीमित हो गयी है
ये डरा हुआ मन हर पल तुमको ढूँढता है
तुम कहॉ हो माँ ?
28 June, 2007
The broken sun
one fine day the beautiful yellow sun
ruptured and fell to the ground in fragments
shards of yellow material struck me with great velocity
and vengeance
my blood started to evaporate...i was bathed
in golden yellow molten spots all over
soon all that remained was a scaffolding
i was no longer a body able to sustain, to nurture
i was just like the clothes line...
different days different clothes were hung
i can support them on my frame but ...i dont own them
they belong to somebody else
i looked at the portrait of the sky...
a gaping hole where the sun used to be
a hollow wound that oozes pain
unable to heal...by itself...or me
or for that matter...anybody else...
ruptured and fell to the ground in fragments
shards of yellow material struck me with great velocity
and vengeance
my blood started to evaporate...i was bathed
in golden yellow molten spots all over
soon all that remained was a scaffolding
i was no longer a body able to sustain, to nurture
i was just like the clothes line...
different days different clothes were hung
i can support them on my frame but ...i dont own them
they belong to somebody else
i looked at the portrait of the sky...
a gaping hole where the sun used to be
a hollow wound that oozes pain
unable to heal...by itself...or me
or for that matter...anybody else...
फिर वही दर्द फिर वही गाने
फिज़ा भी है जवां जवां, हवा भी है रवाँ रवाँ
सुना रहा है ये समां सुनी सुनी सी दास्ताँ
बुझी मगर बुझी नहीं...ना जाने कैसी प्यास है
करार दिल से आज भी ना दूर है ना पास है
ये खेल धूप छांव का..ये पर्वतें ये दूरियाँ
सुना रहा है ये समां सुनी सुनी सी दास्ताँ
हर एक पल को ढूँढता हर एक पल चला गया
हर एक पल विसाल का ,हर एक पल फिराक का
कर एक पल गुज़र गया, बनाके दिल पे एक निशां
सुना रहा है ये समां,सुनी सुनी सी दास्ताँ
पुकारते हैं दूर से, वो काफिले बहार के
बिखर गाए हैं रंग से,किसी के इंतज़ार में
लहर लहर के होंठ पर, वफ़ा की हैं कहानियाँ
सूना रहा है ये समां सुनी सुनी सी दास्ताँ
वही डगर वही पहर वही हवा वही लहर
नयी है मंजिलें मगर वही डगर वही सफ़र
नयी है मंजिलें मगर वही डगर वही सफ़र
नज़र गयी जिधर जिधर मिली वही निशानियाँ
सुना रहा है ये समां सुनी सुनी सी दास्ताँ...
26 June, 2007
the taste of cigarette
मुझे सिगरेट का taste अच्छा लगता है...मेरे कलीग ने कहा कि ये तो नया फंडा है ये taste की बात तो पहली बार सुन रहा हूँ...
और मैं कल रात की बात सोच रही थी...किसी से बात कर रही थी मैं और बता रही थी कि जिंदगी में कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो खाने के लिए नहीं बनी होती हैं पर उनका taste होता है और ऐसी ही चीजों में तो मज़ा है...मैंने examples दिए...बचपन में स्लेट पर लिखने के लिए पेंसिल आती थी...हलकी भूरी रंग की, उसे खाने में जितना मज़ा आता था लिखने में नहीं, मैं तो शायद दसवीं तक भी कभी कभी कुतर जाती थी। इसी तरह 8th में मुझे पेंसिल की नोक खाने का चस्का लगा था...इसके अलावा जब भी बारिश होती है और मिट्टी की सोंधी गंध उड़ती है तो बहुत मन करता है की इस गंध का स्वाद कैसा होगा...
ऐसा ही एक अनजाना सा स्वाद धुएँ का होता है...गाँव में जब मिट्टी के चूल्हे में शाम को ताव दिया जाता था और पूरा गोसाईंघर धुएँ से भर जाता था...उस वक़्त मन करता था जबान पे उसे लेने का...दार्ज़लिंग के रस्ते में सड़क के दोनो ओर उंचे देवदार के पेड़ थे...धुंधले से कोहरे में लिपटे हुये, उनके तने कि छाल थोड़ी भीगी सी थी, वैसा ही कुछ होता धुआँ अगर सॉलिड होता तो...वो पेड़ जैसे धुएं के बने थे...
धुएँ पर मैं हमेशा से मुग्ध रही हूँ...
ये तो रही बचपन की बात...उफ़ वो प्यारे प्यारे दिन..जब हम कितने अच्छे हुआ करते थे...सिगरेट से नफरत किया करते थे...और सिगरेट पीने वालो से भी(अभी भी कोई खास प्यार नहीं हुआ है हमें इस category के लोगों से)
अनुपम...तुम्हारे कारण सब बदला...मेरी पहली ट्रेनिंग थी...जब तुमसे मिली...वो हमारा स्टूडियो, विक्रम, संदीप सर और तुम...एक खिड़की और कोने पर तुम्हारी टेबल...वहाँ बैठ के काम करने का मज़ा ही कुछ और था...और फिर बालकनी में जा के तुम्हारा धुएँ के छल्ले बनाना...लंच के बाद की वो गपशप...कितना कुछ सीखा मैंने तुमसे...और इस कितने कुछ में था...एक freedom...अपनी जिंदगी को waste करने की freedom जो हर smoker को होती है...पता नहीं क्यों पर लगा की ठीक है...i mean मैं क्यों किसी से सिर्फ इसलिये नफरत करूं की वो सिगरेट पीता है...
और अभी कुणाल की marlboro lights एक कहानी सी है जो वहीँ से शुरू होती है...धुएँ के taste से...मेरे पहले कश से...जो अच्छा लगा...क्योंकि ये तो मैं जाने कब से ढूँढ रही थी...ये और बात है की मैंने सिगरेट शुरू नहीं की...पर हाँ होंठों पर जो धुएँ का अंश रह जाता है ना...अच्छा लगता है :)
और मैं कल रात की बात सोच रही थी...किसी से बात कर रही थी मैं और बता रही थी कि जिंदगी में कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो खाने के लिए नहीं बनी होती हैं पर उनका taste होता है और ऐसी ही चीजों में तो मज़ा है...मैंने examples दिए...बचपन में स्लेट पर लिखने के लिए पेंसिल आती थी...हलकी भूरी रंग की, उसे खाने में जितना मज़ा आता था लिखने में नहीं, मैं तो शायद दसवीं तक भी कभी कभी कुतर जाती थी। इसी तरह 8th में मुझे पेंसिल की नोक खाने का चस्का लगा था...इसके अलावा जब भी बारिश होती है और मिट्टी की सोंधी गंध उड़ती है तो बहुत मन करता है की इस गंध का स्वाद कैसा होगा...
ऐसा ही एक अनजाना सा स्वाद धुएँ का होता है...गाँव में जब मिट्टी के चूल्हे में शाम को ताव दिया जाता था और पूरा गोसाईंघर धुएँ से भर जाता था...उस वक़्त मन करता था जबान पे उसे लेने का...दार्ज़लिंग के रस्ते में सड़क के दोनो ओर उंचे देवदार के पेड़ थे...धुंधले से कोहरे में लिपटे हुये, उनके तने कि छाल थोड़ी भीगी सी थी, वैसा ही कुछ होता धुआँ अगर सॉलिड होता तो...वो पेड़ जैसे धुएं के बने थे...
धुएँ पर मैं हमेशा से मुग्ध रही हूँ...
ये तो रही बचपन की बात...उफ़ वो प्यारे प्यारे दिन..जब हम कितने अच्छे हुआ करते थे...सिगरेट से नफरत किया करते थे...और सिगरेट पीने वालो से भी(अभी भी कोई खास प्यार नहीं हुआ है हमें इस category के लोगों से)
अनुपम...तुम्हारे कारण सब बदला...मेरी पहली ट्रेनिंग थी...जब तुमसे मिली...वो हमारा स्टूडियो, विक्रम, संदीप सर और तुम...एक खिड़की और कोने पर तुम्हारी टेबल...वहाँ बैठ के काम करने का मज़ा ही कुछ और था...और फिर बालकनी में जा के तुम्हारा धुएँ के छल्ले बनाना...लंच के बाद की वो गपशप...कितना कुछ सीखा मैंने तुमसे...और इस कितने कुछ में था...एक freedom...अपनी जिंदगी को waste करने की freedom जो हर smoker को होती है...पता नहीं क्यों पर लगा की ठीक है...i mean मैं क्यों किसी से सिर्फ इसलिये नफरत करूं की वो सिगरेट पीता है...
और अभी कुणाल की marlboro lights एक कहानी सी है जो वहीँ से शुरू होती है...धुएँ के taste से...मेरे पहले कश से...जो अच्छा लगा...क्योंकि ये तो मैं जाने कब से ढूँढ रही थी...ये और बात है की मैंने सिगरेट शुरू नहीं की...पर हाँ होंठों पर जो धुएँ का अंश रह जाता है ना...अच्छा लगता है :)
19 June, 2007
शायद...
तुमने भी तो कितनी नज़्में
अधूरी सी...पन्नो पर छोड़ रखी हैं
तुम भी उस पन्ने की तरह तरसती रहो
कि वो वापस आएगा
तुम्हें पूरा करने के लिए
एक दिन
शायद एक दिन वो लौट ही आये
अधूरी सी...पन्नो पर छोड़ रखी हैं
तुम भी उस पन्ने की तरह तरसती रहो
कि वो वापस आएगा
तुम्हें पूरा करने के लिए
एक दिन
शायद एक दिन वो लौट ही आये
अनदेखा
चांदनी अब कफ़न सी लगती है
धूप जलती चिता सी लगती है
चीखते सन्नाटों में घिरी वो
नयी दुल्हन विधवा सी लगती है...
कभी देखी तुमने उसकी आंखें
बारहा जलजलों को थामे हुये
चुभते नेजों पे चलती हुयी लडकी
साँस भी लेती है तो सहमी हुये...
याद है तुमको वो बेलौस हंसी?
जो हरसिंगार की तरह झरा करती थी
याद है सालों पहले के वो दिन
जब वो खुल के हंसा करती थी...
धूप जलती चिता सी लगती है
चीखते सन्नाटों में घिरी वो
नयी दुल्हन विधवा सी लगती है...
कभी देखी तुमने उसकी आंखें
बारहा जलजलों को थामे हुये
चुभते नेजों पे चलती हुयी लडकी
साँस भी लेती है तो सहमी हुये...
याद है तुमको वो बेलौस हंसी?
जो हरसिंगार की तरह झरा करती थी
याद है सालों पहले के वो दिन
जब वो खुल के हंसा करती थी...
अर्थी
"मत जाओ ना !"
उसने डबडबाती काली आंखें उठा कर इसरार किया था
शर्ट की आस्तीन मुट्ठी में भींच रखी थी उसने
"मैं वापस आऊंगा पगली तू रोती क्यों है ",उसने कहा था...
लडकी ने आंसू पोंछ लिए
कहते हैं जाते समय रोना अपशगुन होता है
रात ने अपना काला कम्बल निकला
और उस थरथराती लडकी को ओढा दिया
उसकी अर्थी उठ रही थी...घरवाले रो पीट रहे थे
और वो...बौखलाया सा देहरी पे खड़ा था
मन में हज़ारों सवाल लिए
"मुझे रोका क्यों नहीं...बताया क्यों नहीं कि इंतज़ार नहीं कर सकती तू?"
दिल कर रह था कि झिंझोड़ कर उठा दे और ख़ूब झगड़ा करे...वो ऐसे नहीं कर सकती...क्यों किया पगली...
पर उसने देखा उसके चहरे पर अभी भी सूखे हुये आंसुओं की परतें दिख रही थी...काश वो एक बार देख पाता उन आंखों को उठते हुये...बस एक बार उन आंखों में मुस्कराहट देख पाता
उस रात दो मौते हुयीं...
फर्क इतना रहा
कि एक अर्थी चार कन्धों पर उठी
और एक अपने ही दो पैरों पर।
उसने डबडबाती काली आंखें उठा कर इसरार किया था
शर्ट की आस्तीन मुट्ठी में भींच रखी थी उसने
"मैं वापस आऊंगा पगली तू रोती क्यों है ",उसने कहा था...
लडकी ने आंसू पोंछ लिए
कहते हैं जाते समय रोना अपशगुन होता है
रात ने अपना काला कम्बल निकला
और उस थरथराती लडकी को ओढा दिया
उसकी अर्थी उठ रही थी...घरवाले रो पीट रहे थे
और वो...बौखलाया सा देहरी पे खड़ा था
मन में हज़ारों सवाल लिए
"मुझे रोका क्यों नहीं...बताया क्यों नहीं कि इंतज़ार नहीं कर सकती तू?"
दिल कर रह था कि झिंझोड़ कर उठा दे और ख़ूब झगड़ा करे...वो ऐसे नहीं कर सकती...क्यों किया पगली...
पर उसने देखा उसके चहरे पर अभी भी सूखे हुये आंसुओं की परतें दिख रही थी...काश वो एक बार देख पाता उन आंखों को उठते हुये...बस एक बार उन आंखों में मुस्कराहट देख पाता
उस रात दो मौते हुयीं...
फर्क इतना रहा
कि एक अर्थी चार कन्धों पर उठी
और एक अपने ही दो पैरों पर।
18 June, 2007
देर आयद
आठ ही बिलियन उम्र जमीं की होगी शायद
ऐसा ही अंदाजा है कुछ साइंस का
चार आशारिया छः बिलियन सालों की उम्र तो बीत चुकी है
कितनी देर लगा दी तुमने आने में
और अब मिल कर
किस दुनिया की दुनियादारी सोच रही हो
किस मज़हब और जात पात की फिक्र लगी है
आओ चलें अब ----
तीन ही बिलियन साल बचे हैं !
कल CP में भटकते हुये गुलज़ार की "रात पश्मीने की" खरीदी...ये कविता मुझे बहुत पसंद आयी...सो लिख दी...
ऐसा ही अंदाजा है कुछ साइंस का
चार आशारिया छः बिलियन सालों की उम्र तो बीत चुकी है
कितनी देर लगा दी तुमने आने में
और अब मिल कर
किस दुनिया की दुनियादारी सोच रही हो
किस मज़हब और जात पात की फिक्र लगी है
आओ चलें अब ----
तीन ही बिलियन साल बचे हैं !
कल CP में भटकते हुये गुलज़ार की "रात पश्मीने की" खरीदी...ये कविता मुझे बहुत पसंद आयी...सो लिख दी...
15 June, 2007
अभागी लड्की
मैंने अभी भागी हुयी लड़की के बारे में लिखा...जो अपनी आजादी चुनती है....
फिर ये क्या है -- अभागी लड़की...अ+भागी यानी जो भागी हुयी ना हो वो लड़की
ये हज़ारों लडकियां हैं जो अपने पैदा होने के कर्ज चुकाते चुकाते मर जाती हैं। ये वो लड़कियाँ हैं जो शायद कल्पना चावला की तरह उँची उड़ान भर सकती थी...ये वो लड़कियाँ हैं जो सानिया मिर्ज़ा की तरह अपना नाम रोशन कर सकती थी...ये वो चिनगारियां हैं जो समाज को रौशनी दे सकती थी मगर इन्हें कमरों में बंद कर दिया गया...
मेरी जिंदगी मेरी नहीं है...कर्ज़ है जो मेरे जन्मदाता वसूल किये बिना नहीं मानेंगे, अगर पैदा होने का कर्ज मर कर अदा किया जा सकता तो कर देती पर इस पैदा करने का कर्ज़ तो जिंदगी भर की घुटन है। मैं उस अभागी लड़की की तरह नहीं रह सकती हूँ। मेरी जिंदगी पर मेरा हक भी है भले तुम देना चाहो ना चाहो। बहुत बार कुछ चीजों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। मैं लडूँगी, जब तक मुझमें सांस बाकी है मैं लडूँगी.
फिर ये क्या है -- अभागी लड़की...अ+भागी यानी जो भागी हुयी ना हो वो लड़की
ये हज़ारों लडकियां हैं जो अपने पैदा होने के कर्ज चुकाते चुकाते मर जाती हैं। ये वो लड़कियाँ हैं जो शायद कल्पना चावला की तरह उँची उड़ान भर सकती थी...ये वो लड़कियाँ हैं जो सानिया मिर्ज़ा की तरह अपना नाम रोशन कर सकती थी...ये वो चिनगारियां हैं जो समाज को रौशनी दे सकती थी मगर इन्हें कमरों में बंद कर दिया गया...
मेरी जिंदगी मेरी नहीं है...कर्ज़ है जो मेरे जन्मदाता वसूल किये बिना नहीं मानेंगे, अगर पैदा होने का कर्ज मर कर अदा किया जा सकता तो कर देती पर इस पैदा करने का कर्ज़ तो जिंदगी भर की घुटन है। मैं उस अभागी लड़की की तरह नहीं रह सकती हूँ। मेरी जिंदगी पर मेरा हक भी है भले तुम देना चाहो ना चाहो। बहुत बार कुछ चीजों के लिए संघर्ष करना पड़ता है। मैं लडूँगी, जब तक मुझमें सांस बाकी है मैं लडूँगी.
11 June, 2007
the runaway bride: part 2
पंख होने पर कोई क्या करता है?
उड़ने की कोशिश...है ना? तो अगर उसने उड़ने की कोशिश की तो कौन सा गुनाह कर दिया? अगर एक नयी जगह उसे एहसास होता है कि उसमें एक खास काबिलियत है...जो शायद बहुत कम लोगों में होती है...वो अपने शब्दों से चित्र बना सकती है...उसके पास लोगों कि भावनाओं को छूने कि ताकत है, वो हँसा सकती है, रुला सकती है, चिढा सकती है खिझा सकती है...ऐसा बहुत कम लोगों में होता है।
यहाँ रह कर उसे अहसास होता है कि उस सुदूर जगह उसके जैसी कई लड़कियों को जिंदगी के बुनियादी अधिकार भी नहीं मिलते...सबसे पहला अधिकार...सोचने का...गलतियाँ करने का, और अपनी गलतियों से सीखने का।वो अपनेआप को बड़ी खुशकिस्मत महसूस करती है और आज़ाद भी...पंखों में कितनी जान है उसे अब पता चलता है। ऐसे में अगर आसमान नापने का मन करता है तो क्या गलत करता है।
ऐसे में लगता है कि जिंदगी बेहद हसीं है,जीने का मन करता है, कुछ कर दिखने का ज़ज्बा उसमें करवट बदलने लगता है। कुछ वक़्त बीतता है और कालेज से बाहर आकर उसने असली जिंदगी देखी है...जिंदगी जिसमें हज़ारों और चीज़ें हैं, उसका काम है, एक जिम्मेदारी है, salary के पैसों को खर्च करने का प्लान है। घर जाना है किसके लिए क्या लूँ, सारा बाज़ार ख़रीद लाती है।बहुत अच्छा लगता है उसे इस तरह सब के लिए कुछ कुछ करना।
इस आजादी कि आदत तो नहीं पड़ती है पर उसका नज़रिया बदल जाता है बहुत सी चीजों को लेकर। इस बदले नज़रिये में एक शादी के प्रति नज़रिया भी है। पुरुष जाति के जिन नमूनों से वो मिली है उसे लगता है कि किसी के साथ जिंदगी बिताना कितना मुश्किल होगा। अपने घर पे हमेशा से एक अच्छी बेटी बनी रही है। उसका वजूद बस एक बेटी बनने मे सिमटा हुआ था। पहली बार उसे अपने नारीत्व का अहसास हुआ है और उसे लगा है कि जिंदगी भर साथ बिताने वाला कोई भी इन्सान नहीं हो सकता। उसके मन में कल्पनाएँ भी उभरने लगती हैं उस अनजान से शख्स के प्रति। कोई ऐसा जो उसे समझे...उसके सपने देखे, कोई ऐसा जो उसे उसकी उड़ान दे,पर कटने कि कोशिश ना करे।
उसकी आंखों में एक घर का सपना पलने लगता है। उसका अपना घर, जो किसी कि बाहों के इर्द गिर्द होने से बँटा है। उसके कई दोस्त होते हैं,दोस्त जो उसकी जिंदगी में उतने ही जरुरी होते हैं जैसे किसी भी लड़के कि जिंदगी में होते हैं। उसकी अपनी एक दुनिया होती है, अपने सपने होते हैं।वो चाहती है की जिंदगी का ये हिस्सा उसके साथ रहे जैसे लड़कों के साथ रहता है। वो अपने दोस्त खोना नहीं चाहती, पर वो जानती है उसे कोई नहीं समझने की कोशिश करेगा.
एक दिन इन्ही अनजान रास्तों पर खुशियों के पीछे दौड़ता हुआ एक शख्स मिलता है, ये उसके सपनो का राजकुमार तो नहीं है पर उसके साथ जिंदगी बहुत अच्छी लगने लगती है। अपनी खुशियाँ अपने डर, अपनी बेबसी सब वो उससे बाँट सकती है। वो बहुत अलग है बाक़ी लोगों से...थोडा सा पागल, बिल्कुल उसकी तरह। उसे पता भी नहीं चलता है कब वो अनजान सा लड़का उसकी जिंदगी का अटूट हिस्सा बन जता है जिसके बिना जीना नामुमकिन लगता है।
जिंदगी एक दोराहे पर खडी हो जाती है...उसे प्यार हो चुका है और वो चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती इस बारे मे...बस सोच सकती है कि शायद घर वाले मान जाएँ। निर्णय लेने का दिन आता है। हिम्मत करके उसे अपने पापा के सामने बात रखी है, उसे लगा था कि पापा मान जायेंगे, आख़िर आज तक पापा कि दुलारी बेटी रही है, जो माँगा है पापा ने हमेशा दिया है, आज भी दे देंगे।
डरते डरते वो पापा से बात करती है, सारी बात रखने की कोशिश करती है, पर सदियों पुरानी रूढियाँ पैरों में जंजीर बन के लिपट जाती हैं, वो कोशिश करती है, समझाने कि। पर सच यूं ही सच नही होता..सच को सच बनने के लिए दो लोगों कि जरुरत पड़ती है...एक जो सच बोल सके और दूसरा जो सच सुन सके। उसकी आंखों में नज़र आते समंदर को सिर्फ आंसू समझने कि गलती करते हैं पापा। ये तूफ़ान नहीं दिखता है उन्हें। ये नहीं दिखता कि इस तूफ़ान से उसकी सारी जिंदगी तबाह हो जायेगी। विश्वास सिर्फ पापा का ही नहीं टूटता है उसका भी टूटा है...किससे कहे अब, कौन सुनेगा। पर फिर भी एक उम्मीद है कि बात पक्की करने के पहले एक बार उससे बात की जायेगी।
वो इंतज़ार करती रहती है, सिर्फ इतना कि एक बार मेरी बात सुन लो और कुछ नहीं चाहिऐ, मत मिलो उससे, नहीं जानो कि मेरी पसंद कैसी है पर दिन में ये जो तूफ़ान उठा है एक बार उसकी आहट तो सुनने की कोशिश करो। मत बदलो अपने आप को पर एक ईमानदार कोशिश तो करो मुझे समझने की ।
माँ का फरमान आता है...तुम्हें वहीँ शादी करनी होगी जहाँ हम कहेंगे। उसको भूल जाओ। एक कोशिश भी नहीं ये जानने की कि ये "उसको" है कौन, कैसा दिखता है क्या करता है, एक बार कोशिश भी नहीं देखने की की आख़िर बेटी ने उसे पसंद क्यों किया। प्यार की कोई कीमत नहीं, आपसी समझ की कोई कद्र नहीं। कद्र है तो बस बरसो पुराने सामाजिक नियमों की, जो इतने पुराने हो गए हैं कि दम घुटता है ऐसे परिवेश में।
उसे पता नहीं है की इन्केलाब कितनी बार ऐसे स्तिथि में आया है। वो बस ये जानना चाहती है की आख़िर जो उनके बस मैं है वो करते क्यों नहीं। उसके सवालों का जवाब तो दे दें। सिर्फ जातिगत अधार पर किसी व्यक्ति को खुद को साबित करने का मौका भी नहीं देना...ये कहॉ का इंसाफ़ है। वो मरती हुयी आंखें अपनी माँ की तरफ उठाती है, आत्मा के टुकड़े दिखते हैं आंखों में, दर्द पिघल कर बहता रहता है पर राहत नहीं होती। बेटी मर जाये परवाह नहीं है, बेटी खुश नहीं रहेगी परवाह नहीं है, परवाह है तो बस झूठी शान की। उसपर ये कहना की सब अपने लिए सोचते हैं। अगर बेटी अपने लिए सोच रही है तो क्या माँ पिता नहीं सोचते।
पढा लिखा के इस तरह बलि चढ़ाने के लिए बड़ा किया था, वो भी इस नपुंसक समाज के लिए, जिसकी रीढ़ की हड्डी नहीं है। वो सब से लड़ सकती ही पर अपने घर में जंग हार जाती है। कहते हैं ना औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है, माँ ही नहीं मानेगी तो पापा को समझने को रह क्या जाता है। बहरों को फरियाद सुनाने से क्या फायदा। आख़िर ये जिंदगी उसकी है, माँ पिता तो बस एक दिन में छुट्टी पा जायेंगे, समाज का काम एक दिन आके खाना खाना है पर उस इन्सान के साथ जिसे जीवन बीतना है उसकी राय की कोई परवाह नहीं। शादी के फैसले में सबको बोलने का हक है सिवाय उस बेचारी के। उसका दिमाग खराब हो गया है पढ़ लिख के ना...
उसने बहुत कोशिश की बताने की, माँ को पापा को, पर कोई सुने भी तब ना। चीख चीख के कहती रही की उसके बिना मर जायेगी पर नहीं। आख़िर वो झुक गयी, आख़िर कब तक अपनी आंख के सामने माँ को दीवार में सर पटकते देख सकती थी। कब तक एपने पापा के आंसू देखती। इस सब में उसके आंसू किसी ने नहीं देखे। तुम रोती हो तो आंसू है और मेरे आंसू पानी। कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके दिल पे क्या बीत रही है। सारे लोग तैयार हैं उसके मरने का जश्न मनाने के लिए। कोई नहीं पूछेगा की बेटा आप कैसी है...खुश तो छोड़ ही दो। जिंदा है कि नहीं ये देखने की परवाह नहीं है। चाहे उसकी अर्थी उठ जाये, जब तक परिवार की इज़्ज़त नहीं उछली सब खुश हैं...पर कुछ दिन बाद उस लडकी को अहसास होता है की इस बलिदान की जरुरत नहीं है। ये भगवान् नहीं हैं। वो क्यों इनके लिए खुद जान दे।
एक दिन दर्द हद से ज्यादा बढ जाता है। आंसू बर्दाशत नहीं होते। इतने दिन रो के कोई असर नहीं हुआ तो हर मान ली उसने। एक दिन अचानक से लगा कि वो नहीं मरेगी...इनके लिए तो बिल्कुल ही नहीं। अपने सपने दिखते हैं उसे। उस दिन अचानक से वो निर्णय ले लेती है...बस थोडा सा सामान, पैसे और दो जोडी कपडे...
निकल जाती है वो अपना आसमान तलाश करने के लिए...
ये आसमान किसी की बाहों में हो जरुरी नहीं...उसका खुद का आसमान भी हो सकता है...अपनी जिंदगी...अपनी शर्तों पर...भीख में मांगी हुयी नहीं...हर साँस पर किसी के अह्सानों का बोझ नहीं...खुली हवा...खुला आसमान
आप कहेंगे उसने बेवकूफी की...गलती की...गलत किया
पर एक बार उसकी तरफ से देखिए, ऐसी लडकियां अपने आप से नहीं पैदा होती, ये इसी समाज से बनती हैं...
self made woman- स्वनिर्मित...अपना भविष्य अपने हाथ में ले कर...अपने गलत निर्णय की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार।
ऐसी लड़कियों की हिम्मत...समझदारी...जोश और जूनून ही नए समाज की नींव रखता है...
मेरा सलाम... ऐ भागी हुयी लडकी
उड़ने की कोशिश...है ना? तो अगर उसने उड़ने की कोशिश की तो कौन सा गुनाह कर दिया? अगर एक नयी जगह उसे एहसास होता है कि उसमें एक खास काबिलियत है...जो शायद बहुत कम लोगों में होती है...वो अपने शब्दों से चित्र बना सकती है...उसके पास लोगों कि भावनाओं को छूने कि ताकत है, वो हँसा सकती है, रुला सकती है, चिढा सकती है खिझा सकती है...ऐसा बहुत कम लोगों में होता है।
यहाँ रह कर उसे अहसास होता है कि उस सुदूर जगह उसके जैसी कई लड़कियों को जिंदगी के बुनियादी अधिकार भी नहीं मिलते...सबसे पहला अधिकार...सोचने का...गलतियाँ करने का, और अपनी गलतियों से सीखने का।वो अपनेआप को बड़ी खुशकिस्मत महसूस करती है और आज़ाद भी...पंखों में कितनी जान है उसे अब पता चलता है। ऐसे में अगर आसमान नापने का मन करता है तो क्या गलत करता है।
ऐसे में लगता है कि जिंदगी बेहद हसीं है,जीने का मन करता है, कुछ कर दिखने का ज़ज्बा उसमें करवट बदलने लगता है। कुछ वक़्त बीतता है और कालेज से बाहर आकर उसने असली जिंदगी देखी है...जिंदगी जिसमें हज़ारों और चीज़ें हैं, उसका काम है, एक जिम्मेदारी है, salary के पैसों को खर्च करने का प्लान है। घर जाना है किसके लिए क्या लूँ, सारा बाज़ार ख़रीद लाती है।बहुत अच्छा लगता है उसे इस तरह सब के लिए कुछ कुछ करना।
इस आजादी कि आदत तो नहीं पड़ती है पर उसका नज़रिया बदल जाता है बहुत सी चीजों को लेकर। इस बदले नज़रिये में एक शादी के प्रति नज़रिया भी है। पुरुष जाति के जिन नमूनों से वो मिली है उसे लगता है कि किसी के साथ जिंदगी बिताना कितना मुश्किल होगा। अपने घर पे हमेशा से एक अच्छी बेटी बनी रही है। उसका वजूद बस एक बेटी बनने मे सिमटा हुआ था। पहली बार उसे अपने नारीत्व का अहसास हुआ है और उसे लगा है कि जिंदगी भर साथ बिताने वाला कोई भी इन्सान नहीं हो सकता। उसके मन में कल्पनाएँ भी उभरने लगती हैं उस अनजान से शख्स के प्रति। कोई ऐसा जो उसे समझे...उसके सपने देखे, कोई ऐसा जो उसे उसकी उड़ान दे,पर कटने कि कोशिश ना करे।
उसकी आंखों में एक घर का सपना पलने लगता है। उसका अपना घर, जो किसी कि बाहों के इर्द गिर्द होने से बँटा है। उसके कई दोस्त होते हैं,दोस्त जो उसकी जिंदगी में उतने ही जरुरी होते हैं जैसे किसी भी लड़के कि जिंदगी में होते हैं। उसकी अपनी एक दुनिया होती है, अपने सपने होते हैं।वो चाहती है की जिंदगी का ये हिस्सा उसके साथ रहे जैसे लड़कों के साथ रहता है। वो अपने दोस्त खोना नहीं चाहती, पर वो जानती है उसे कोई नहीं समझने की कोशिश करेगा.
एक दिन इन्ही अनजान रास्तों पर खुशियों के पीछे दौड़ता हुआ एक शख्स मिलता है, ये उसके सपनो का राजकुमार तो नहीं है पर उसके साथ जिंदगी बहुत अच्छी लगने लगती है। अपनी खुशियाँ अपने डर, अपनी बेबसी सब वो उससे बाँट सकती है। वो बहुत अलग है बाक़ी लोगों से...थोडा सा पागल, बिल्कुल उसकी तरह। उसे पता भी नहीं चलता है कब वो अनजान सा लड़का उसकी जिंदगी का अटूट हिस्सा बन जता है जिसके बिना जीना नामुमकिन लगता है।
जिंदगी एक दोराहे पर खडी हो जाती है...उसे प्यार हो चुका है और वो चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती इस बारे मे...बस सोच सकती है कि शायद घर वाले मान जाएँ। निर्णय लेने का दिन आता है। हिम्मत करके उसे अपने पापा के सामने बात रखी है, उसे लगा था कि पापा मान जायेंगे, आख़िर आज तक पापा कि दुलारी बेटी रही है, जो माँगा है पापा ने हमेशा दिया है, आज भी दे देंगे।
डरते डरते वो पापा से बात करती है, सारी बात रखने की कोशिश करती है, पर सदियों पुरानी रूढियाँ पैरों में जंजीर बन के लिपट जाती हैं, वो कोशिश करती है, समझाने कि। पर सच यूं ही सच नही होता..सच को सच बनने के लिए दो लोगों कि जरुरत पड़ती है...एक जो सच बोल सके और दूसरा जो सच सुन सके। उसकी आंखों में नज़र आते समंदर को सिर्फ आंसू समझने कि गलती करते हैं पापा। ये तूफ़ान नहीं दिखता है उन्हें। ये नहीं दिखता कि इस तूफ़ान से उसकी सारी जिंदगी तबाह हो जायेगी। विश्वास सिर्फ पापा का ही नहीं टूटता है उसका भी टूटा है...किससे कहे अब, कौन सुनेगा। पर फिर भी एक उम्मीद है कि बात पक्की करने के पहले एक बार उससे बात की जायेगी।
वो इंतज़ार करती रहती है, सिर्फ इतना कि एक बार मेरी बात सुन लो और कुछ नहीं चाहिऐ, मत मिलो उससे, नहीं जानो कि मेरी पसंद कैसी है पर दिन में ये जो तूफ़ान उठा है एक बार उसकी आहट तो सुनने की कोशिश करो। मत बदलो अपने आप को पर एक ईमानदार कोशिश तो करो मुझे समझने की ।
माँ का फरमान आता है...तुम्हें वहीँ शादी करनी होगी जहाँ हम कहेंगे। उसको भूल जाओ। एक कोशिश भी नहीं ये जानने की कि ये "उसको" है कौन, कैसा दिखता है क्या करता है, एक बार कोशिश भी नहीं देखने की की आख़िर बेटी ने उसे पसंद क्यों किया। प्यार की कोई कीमत नहीं, आपसी समझ की कोई कद्र नहीं। कद्र है तो बस बरसो पुराने सामाजिक नियमों की, जो इतने पुराने हो गए हैं कि दम घुटता है ऐसे परिवेश में।
उसे पता नहीं है की इन्केलाब कितनी बार ऐसे स्तिथि में आया है। वो बस ये जानना चाहती है की आख़िर जो उनके बस मैं है वो करते क्यों नहीं। उसके सवालों का जवाब तो दे दें। सिर्फ जातिगत अधार पर किसी व्यक्ति को खुद को साबित करने का मौका भी नहीं देना...ये कहॉ का इंसाफ़ है। वो मरती हुयी आंखें अपनी माँ की तरफ उठाती है, आत्मा के टुकड़े दिखते हैं आंखों में, दर्द पिघल कर बहता रहता है पर राहत नहीं होती। बेटी मर जाये परवाह नहीं है, बेटी खुश नहीं रहेगी परवाह नहीं है, परवाह है तो बस झूठी शान की। उसपर ये कहना की सब अपने लिए सोचते हैं। अगर बेटी अपने लिए सोच रही है तो क्या माँ पिता नहीं सोचते।
पढा लिखा के इस तरह बलि चढ़ाने के लिए बड़ा किया था, वो भी इस नपुंसक समाज के लिए, जिसकी रीढ़ की हड्डी नहीं है। वो सब से लड़ सकती ही पर अपने घर में जंग हार जाती है। कहते हैं ना औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है, माँ ही नहीं मानेगी तो पापा को समझने को रह क्या जाता है। बहरों को फरियाद सुनाने से क्या फायदा। आख़िर ये जिंदगी उसकी है, माँ पिता तो बस एक दिन में छुट्टी पा जायेंगे, समाज का काम एक दिन आके खाना खाना है पर उस इन्सान के साथ जिसे जीवन बीतना है उसकी राय की कोई परवाह नहीं। शादी के फैसले में सबको बोलने का हक है सिवाय उस बेचारी के। उसका दिमाग खराब हो गया है पढ़ लिख के ना...
उसने बहुत कोशिश की बताने की, माँ को पापा को, पर कोई सुने भी तब ना। चीख चीख के कहती रही की उसके बिना मर जायेगी पर नहीं। आख़िर वो झुक गयी, आख़िर कब तक अपनी आंख के सामने माँ को दीवार में सर पटकते देख सकती थी। कब तक एपने पापा के आंसू देखती। इस सब में उसके आंसू किसी ने नहीं देखे। तुम रोती हो तो आंसू है और मेरे आंसू पानी। कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके दिल पे क्या बीत रही है। सारे लोग तैयार हैं उसके मरने का जश्न मनाने के लिए। कोई नहीं पूछेगा की बेटा आप कैसी है...खुश तो छोड़ ही दो। जिंदा है कि नहीं ये देखने की परवाह नहीं है। चाहे उसकी अर्थी उठ जाये, जब तक परिवार की इज़्ज़त नहीं उछली सब खुश हैं...पर कुछ दिन बाद उस लडकी को अहसास होता है की इस बलिदान की जरुरत नहीं है। ये भगवान् नहीं हैं। वो क्यों इनके लिए खुद जान दे।
एक दिन दर्द हद से ज्यादा बढ जाता है। आंसू बर्दाशत नहीं होते। इतने दिन रो के कोई असर नहीं हुआ तो हर मान ली उसने। एक दिन अचानक से लगा कि वो नहीं मरेगी...इनके लिए तो बिल्कुल ही नहीं। अपने सपने दिखते हैं उसे। उस दिन अचानक से वो निर्णय ले लेती है...बस थोडा सा सामान, पैसे और दो जोडी कपडे...
निकल जाती है वो अपना आसमान तलाश करने के लिए...
ये आसमान किसी की बाहों में हो जरुरी नहीं...उसका खुद का आसमान भी हो सकता है...अपनी जिंदगी...अपनी शर्तों पर...भीख में मांगी हुयी नहीं...हर साँस पर किसी के अह्सानों का बोझ नहीं...खुली हवा...खुला आसमान
आप कहेंगे उसने बेवकूफी की...गलती की...गलत किया
पर एक बार उसकी तरफ से देखिए, ऐसी लडकियां अपने आप से नहीं पैदा होती, ये इसी समाज से बनती हैं...
self made woman- स्वनिर्मित...अपना भविष्य अपने हाथ में ले कर...अपने गलत निर्णय की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार।
ऐसी लड़कियों की हिम्मत...समझदारी...जोश और जूनून ही नए समाज की नींव रखता है...
मेरा सलाम... ऐ भागी हुयी लडकी
08 June, 2007
judgement day
well...to say the least i am afraid
to be honest....hoooo i am so goddamn afraid
its a pain that has drained the blood out my face...off yahan bhi poetry..pain drain..jaane kya kya
i just hope i am successful in my endeavors.
asato ma sadgamaya
tamso ma jyotirgamaya
mrityorma amritam gamaya
to be honest....hoooo i am so goddamn afraid
its a pain that has drained the blood out my face...off yahan bhi poetry..pain drain..jaane kya kya
i just hope i am successful in my endeavors.
asato ma sadgamaya
tamso ma jyotirgamaya
mrityorma amritam gamaya
04 June, 2007
चाह !!!
सदियों से एक चाह दबी है मेरे इस शोषित मन में...
एक पंछी की तरह एक दिन मैं उड़ती उन्मुक्त गगन में
गीले गोयठों की अंगीठी फूँक फूँक सुलगाऊँ जब
अपने नन्हे हाथों से मैं भारी भात पसाऊँ जब
सूरज की एक नयी किरण धुली थाली से टकराये
और एक धुंधला सा उजियारा कमरे में फैला जाये
मेरे मन का अँधियारा भी कुछ कम होने लगता है
सपनों के कुछ बीज मेरा मन पल पल बोने लगता है
मन करता है मेरा एक दिन देहरी के बाहर जाऊं
बिन घूंघट के दुनिया देखूं, खेतों में फिर दौड़ आऊँ
कहते हैं नया स्कूल खुला है गांव के बाहर पिछले मास
कोई मेरा नाम लिखा दे तब से लगी हुयी है आस
पर मैं किससे कहूँ और फिर मेरी बात सुनेगा कौन
चुप चुप पूजा घर में रोती दिन भर साधे रहती मौन
मेरे जैसे कितनी हैं जो हर घर में घुटती रहती
जीती हैं पर कितना जीवन पाटी में पिसती रहती
काश कि मेरा होता एक दिन ...मेरा सारा आसमान
इतनी शक्ति एक बार...बस एक बार भर लूँ उड़ान
एक पंछी की तरह एक दिन मैं उड़ती उन्मुक्त गगन में
गीले गोयठों की अंगीठी फूँक फूँक सुलगाऊँ जब
अपने नन्हे हाथों से मैं भारी भात पसाऊँ जब
सूरज की एक नयी किरण धुली थाली से टकराये
और एक धुंधला सा उजियारा कमरे में फैला जाये
मेरे मन का अँधियारा भी कुछ कम होने लगता है
सपनों के कुछ बीज मेरा मन पल पल बोने लगता है
मन करता है मेरा एक दिन देहरी के बाहर जाऊं
बिन घूंघट के दुनिया देखूं, खेतों में फिर दौड़ आऊँ
कहते हैं नया स्कूल खुला है गांव के बाहर पिछले मास
कोई मेरा नाम लिखा दे तब से लगी हुयी है आस
पर मैं किससे कहूँ और फिर मेरी बात सुनेगा कौन
चुप चुप पूजा घर में रोती दिन भर साधे रहती मौन
मेरे जैसे कितनी हैं जो हर घर में घुटती रहती
जीती हैं पर कितना जीवन पाटी में पिसती रहती
काश कि मेरा होता एक दिन ...मेरा सारा आसमान
इतनी शक्ति एक बार...बस एक बार भर लूँ उड़ान
31 May, 2007
dot dot dot
i was talking to this junior of mine...a small chat took me back to those days of fun, when life had a purpose and i was moving towards it.
i remembered those college days when my friends used to admire me for my never say die attitude...those days just flew past my eyes. i wonder where that energy came from...upon serious thought i came across only one reason...i was happy in my present and i was sure of my future. i was sure i would build a future for myself. i was sure i could achieve what i wanted to.
two years down the line a lot has changed. i have come a long way, i have seen reationships break, i have let the hell break loose on me. but along with everything i notice one thing...the spontaneous energy, the iressistable charm, the light of my eyes is gone. they no longer spark with mischief, my mouth no longer turns upward by itself.
i am much more tensed today and i lost the fighting spirit that was my mark. looks like there is a long way to go...my optimism needs a recharge. i am no longer the person who used to laugh at the challenges of life, who used to mock destiny. take initiatives...
i have lost the passion to live...life has become mundane...
everyting is predictable...getting up coming to office...working...taking a bus going home...fighting with mom...trying to convince her...a lot is happening in cycles.
i think its high time i take charge of my life again and give it the direction i want to...shape my world...fill in shades of golden yellow sunshine...dangle a rainbow...and start a new quest...to find myself.
i remembered those college days when my friends used to admire me for my never say die attitude...those days just flew past my eyes. i wonder where that energy came from...upon serious thought i came across only one reason...i was happy in my present and i was sure of my future. i was sure i would build a future for myself. i was sure i could achieve what i wanted to.
two years down the line a lot has changed. i have come a long way, i have seen reationships break, i have let the hell break loose on me. but along with everything i notice one thing...the spontaneous energy, the iressistable charm, the light of my eyes is gone. they no longer spark with mischief, my mouth no longer turns upward by itself.
i am much more tensed today and i lost the fighting spirit that was my mark. looks like there is a long way to go...my optimism needs a recharge. i am no longer the person who used to laugh at the challenges of life, who used to mock destiny. take initiatives...
i have lost the passion to live...life has become mundane...
everyting is predictable...getting up coming to office...working...taking a bus going home...fighting with mom...trying to convince her...a lot is happening in cycles.
i think its high time i take charge of my life again and give it the direction i want to...shape my world...fill in shades of golden yellow sunshine...dangle a rainbow...and start a new quest...to find myself.
29 May, 2007
thinking laterally
ya...this should have been the second part of hte story but i just dont feel like writing one today.
i am trying to put my thoughts into bullet points so that i am able to present them in a better fashion...anyway this is going to be a war of wits and i have to keep my answers ready.
what do you do when someone is hell bent on taking your silences as approvals and refuses to take a no for a no....for heavens sake how much more clarity can anyone expect from me...
i speak my mind but you dont care to listen...why are you afraid to give me a chance, a chance to explain things. are you afraid you might agree... your ego might hurt, your superiority challenged, your domination threatned?
i will talk logically i promise that...just let me put the pros and cons of the situation in hand and the direction to be taken now. for once i have a right to throw some light on the facts that are there to stare in your face.
there are two ways to tackle it...
either we take the emotional angle or we take the practical angle
the problem persists because you tend to exploit all angles to your cause...talk to me once
i am only asking for a chance to let me explain myself...the decision you want to take is going to affect me for the rest of my life...you cannot have the last say in it...the decision has to be mine.
after all you...the society...my relatives...its a one day affair for them...its a matter of around 30 years the minimum for me...i cannot just accept your decision
I REFUSE
i am trying to put my thoughts into bullet points so that i am able to present them in a better fashion...anyway this is going to be a war of wits and i have to keep my answers ready.
what do you do when someone is hell bent on taking your silences as approvals and refuses to take a no for a no....for heavens sake how much more clarity can anyone expect from me...
i speak my mind but you dont care to listen...why are you afraid to give me a chance, a chance to explain things. are you afraid you might agree... your ego might hurt, your superiority challenged, your domination threatned?
i will talk logically i promise that...just let me put the pros and cons of the situation in hand and the direction to be taken now. for once i have a right to throw some light on the facts that are there to stare in your face.
there are two ways to tackle it...
either we take the emotional angle or we take the practical angle
the problem persists because you tend to exploit all angles to your cause...talk to me once
i am only asking for a chance to let me explain myself...the decision you want to take is going to affect me for the rest of my life...you cannot have the last say in it...the decision has to be mine.
after all you...the society...my relatives...its a one day affair for them...its a matter of around 30 years the minimum for me...i cannot just accept your decision
I REFUSE
28 May, 2007
the runaway bride part 1
"लड़की भाग गयी !!!"
नाटक शुरू होता है...खोजबीन लांछन ताने, उलाहनों का वक़्त आ गया....
"यही संस्कार दिये हैं तुमने अपनी बेटी को" घर का मुखिया यानी पिता उसकी माँ पर चीखता है....माँ बेचारी चुप चाप किसी कोने में खडी रहती है...ये नहीं पूछती की बेटी को संस्कार देने के काम में क्या तुम्हारा हाथ बंटाना जरुरी नहीं था...
दोनो में से कोई ये नहीं सोचेगा की आख़िर ऐसी नौबत क्यों आयी कि लड़की ने ऐसा कदम उठाया...
इस नाटक की शुरुआत काफी पहले हो जाती है...ये तो अन्तिम चरण होता है...
आइयेइस नाटक के पात्रों से मिलते हैं...
पर उससे पहले जरुरी है इस की पृष्ठभूमि पर नज़र डालना क्योंकि इसमें इसका सबसे बड़ा योगदान रहता है
माहौल एक मध्यमवर्गीय गृहस्थ के घर का...दो बच्चे... माँ गृहिणी...पिता कार्यरत
छोटा परिवार सुखी परिवार
ये तब तक की बात है जब तक लड़की छोटी है और आदर्श है सबके लिए...छोटे भाई बहन उससे प्रेरणा लेते हैं...और उनके साथ के सारे लोग उसका उदहारण देकर अपने बच्चों का जीना मुहाल किये रहते हैं...वो कितना पढ़ती है , तुम क्यों नहीं पढ़ते, सारा दिन उछल कूद मचाते रहते हो वगैरह वगैरह...
उसके मम्मी पापा अपनी आदर्श बेटी के हर दिन के अवार्ड्स से फूले नहीं समाते...
वक़्त गुजरता रहता है...कुलांचे मारकर...कब किशोरावस्था में वो कदम रखती है पता भी नहीं चलता...
पर उस लड़की को पता चलने लगा है...कि कुछ तो चल रहा है...अचानक से घर की चारदीवारी २ फुट उँची कर दी जाती हैं...उसे अजीब लगता है...खिड़कियों पे परदे लग जाते हैं और दिन रात नसीहतें शुरू हो जाती हैं...लड़की को ऐसे रहना चाहिये...ऐसे हँसना चाहिऐ..उँची आवाज में बोलना तो सरासर गलत बात है...जोर से हँसना बदतमीजी है...और अचानक से वो सारे लड़के जिनके साथ खेल कर वो बड़ी हूई है उसके भैया हो जाते हैं...उसे उठा कर किसी कॉन्वेंट स्कूल में डाल दिया जाता है जहाँ लड़कों की परछाई तक उसपर ना पहुंचे...
ये सब उसकी शादी की तैयारी है...लड़के वाले देखेंगे की लड़की को पटर पटर अंग्रेजी बोलनी आती है कि नहीं...12th में उसे डाक्टर ही बनना है इसके अलावा कुछ सोच भी नहीं सकती...कहीं ना कहीं उसे ये लगता है कि एक ना एक दिन वो अपने पैरों पर खड़ी होगी और अपने हिसाब से जिंदगी जियेगी...
चारदीवारी में हँसना बोलना रहना और घर को रोशन करना...इसलिये तो बेटियाँ होती हैं।
इस पढ़ाई में कई बार ऐसे टीचर्स आते हैं जो जिंदगी का एक खुला नज़रिया रखते हैं...इनसे मिलकर कई बार लगने लगता है कि जिंदगी एक चारदीवारी से दूसरी चारदीवारी का सफ़र नहीं है...और पति...एक सर्वनाम नहीं है बल्कि एक साथी होता है, उसके ये इरादे घर वालों को खतरनाक लगने लगते हैं।
वो सोचते हैं की ज्यादा पढ़ लिखकर लड़की का दिमाग खराब हो गया है, अब इसकी जल्दी से शादी कर देनी चाहिऐ जिससे इसके इरादे पूरे ना हो पाएं।अचानक से लड़की नोटिस करती है की भाभी, छोटे भाई या नानी वगैरह उसे ससुराल का नाम लेकर चिढ़ाने लगती हैं...और एक दिन अचानक से उसे पता चलता है कि उसकी शादी तय हो रही है...पर मैं तो अभी बहुत छोटी हूँ वो सबको समझाने की कोशिश करती है पर अफ़सोस कोई सुनने को ही तैयार नहीं होता...
किन्हीं कारणों से उसकी शादी वहाँ तय नहीं होती(बेचारी चैन की साँस लेती है कि अबकी बात तो मुसीबत टली)...पर डरती रहती है की आख़िर कब तक, कब तक यूं ही बचती रहेगी.आख़िर बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी.बाक़ी सारी लड़कियाँ कालेज लाइफ का पूरा मज़ा लेती हैं...कभी सिनेमा जाती कभी चाट और वो सोचती रहती है की अगर गए तो पता चल जाएगा और डांट पड़ेगी...graduation के बाद उसकी मेहनत रंग लाती है और दिल्ली(या किसी भी बड़े शहर) के एक बहुत ही अच्छे कॉलेज में उसका चयन हो जाता है।
वो बहुत खुश है...की आख़िर उसे आजादी मिल गयी। घर वाले परेशान हैं कि बाहर जाकर लड़की बिगड़ जायेगी किसी के चक्कर में पड़ जायेगी, बड़ी मुश्किल से सबको समझा बुझा कर वो आती है....
यहाँ सब कुछ अच्छा चल रह है...और अगर सच में देखा जाये तो जिंदगी उसने जीनी शुरू कर दी है। अपनी मरजी से, और उसमे एक आत्मविश्वास आ गया है। जब औरों के सामने अपने विचार रखती है, अपने तर्क रखती है तो लोग काफी सराहते हैं उसकी प्रतिभा को...उसे उसका आसमान नजर आने लगा है...परों में ताकत महसूस होने लगी है...उसे लगता है की वो उड़ सकती है, बहुत बहुत ऊंचा उड़ सकती है.
नाटक शुरू होता है...खोजबीन लांछन ताने, उलाहनों का वक़्त आ गया....
"यही संस्कार दिये हैं तुमने अपनी बेटी को" घर का मुखिया यानी पिता उसकी माँ पर चीखता है....माँ बेचारी चुप चाप किसी कोने में खडी रहती है...ये नहीं पूछती की बेटी को संस्कार देने के काम में क्या तुम्हारा हाथ बंटाना जरुरी नहीं था...
दोनो में से कोई ये नहीं सोचेगा की आख़िर ऐसी नौबत क्यों आयी कि लड़की ने ऐसा कदम उठाया...
इस नाटक की शुरुआत काफी पहले हो जाती है...ये तो अन्तिम चरण होता है...
आइयेइस नाटक के पात्रों से मिलते हैं...
पर उससे पहले जरुरी है इस की पृष्ठभूमि पर नज़र डालना क्योंकि इसमें इसका सबसे बड़ा योगदान रहता है
माहौल एक मध्यमवर्गीय गृहस्थ के घर का...दो बच्चे... माँ गृहिणी...पिता कार्यरत
छोटा परिवार सुखी परिवार
ये तब तक की बात है जब तक लड़की छोटी है और आदर्श है सबके लिए...छोटे भाई बहन उससे प्रेरणा लेते हैं...और उनके साथ के सारे लोग उसका उदहारण देकर अपने बच्चों का जीना मुहाल किये रहते हैं...वो कितना पढ़ती है , तुम क्यों नहीं पढ़ते, सारा दिन उछल कूद मचाते रहते हो वगैरह वगैरह...
उसके मम्मी पापा अपनी आदर्श बेटी के हर दिन के अवार्ड्स से फूले नहीं समाते...
वक़्त गुजरता रहता है...कुलांचे मारकर...कब किशोरावस्था में वो कदम रखती है पता भी नहीं चलता...
पर उस लड़की को पता चलने लगा है...कि कुछ तो चल रहा है...अचानक से घर की चारदीवारी २ फुट उँची कर दी जाती हैं...उसे अजीब लगता है...खिड़कियों पे परदे लग जाते हैं और दिन रात नसीहतें शुरू हो जाती हैं...लड़की को ऐसे रहना चाहिये...ऐसे हँसना चाहिऐ..उँची आवाज में बोलना तो सरासर गलत बात है...जोर से हँसना बदतमीजी है...और अचानक से वो सारे लड़के जिनके साथ खेल कर वो बड़ी हूई है उसके भैया हो जाते हैं...उसे उठा कर किसी कॉन्वेंट स्कूल में डाल दिया जाता है जहाँ लड़कों की परछाई तक उसपर ना पहुंचे...
ये सब उसकी शादी की तैयारी है...लड़के वाले देखेंगे की लड़की को पटर पटर अंग्रेजी बोलनी आती है कि नहीं...12th में उसे डाक्टर ही बनना है इसके अलावा कुछ सोच भी नहीं सकती...कहीं ना कहीं उसे ये लगता है कि एक ना एक दिन वो अपने पैरों पर खड़ी होगी और अपने हिसाब से जिंदगी जियेगी...
चारदीवारी में हँसना बोलना रहना और घर को रोशन करना...इसलिये तो बेटियाँ होती हैं।
इस पढ़ाई में कई बार ऐसे टीचर्स आते हैं जो जिंदगी का एक खुला नज़रिया रखते हैं...इनसे मिलकर कई बार लगने लगता है कि जिंदगी एक चारदीवारी से दूसरी चारदीवारी का सफ़र नहीं है...और पति...एक सर्वनाम नहीं है बल्कि एक साथी होता है, उसके ये इरादे घर वालों को खतरनाक लगने लगते हैं।
वो सोचते हैं की ज्यादा पढ़ लिखकर लड़की का दिमाग खराब हो गया है, अब इसकी जल्दी से शादी कर देनी चाहिऐ जिससे इसके इरादे पूरे ना हो पाएं।अचानक से लड़की नोटिस करती है की भाभी, छोटे भाई या नानी वगैरह उसे ससुराल का नाम लेकर चिढ़ाने लगती हैं...और एक दिन अचानक से उसे पता चलता है कि उसकी शादी तय हो रही है...पर मैं तो अभी बहुत छोटी हूँ वो सबको समझाने की कोशिश करती है पर अफ़सोस कोई सुनने को ही तैयार नहीं होता...
किन्हीं कारणों से उसकी शादी वहाँ तय नहीं होती(बेचारी चैन की साँस लेती है कि अबकी बात तो मुसीबत टली)...पर डरती रहती है की आख़िर कब तक, कब तक यूं ही बचती रहेगी.आख़िर बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी.बाक़ी सारी लड़कियाँ कालेज लाइफ का पूरा मज़ा लेती हैं...कभी सिनेमा जाती कभी चाट और वो सोचती रहती है की अगर गए तो पता चल जाएगा और डांट पड़ेगी...graduation के बाद उसकी मेहनत रंग लाती है और दिल्ली(या किसी भी बड़े शहर) के एक बहुत ही अच्छे कॉलेज में उसका चयन हो जाता है।
वो बहुत खुश है...की आख़िर उसे आजादी मिल गयी। घर वाले परेशान हैं कि बाहर जाकर लड़की बिगड़ जायेगी किसी के चक्कर में पड़ जायेगी, बड़ी मुश्किल से सबको समझा बुझा कर वो आती है....
यहाँ सब कुछ अच्छा चल रह है...और अगर सच में देखा जाये तो जिंदगी उसने जीनी शुरू कर दी है। अपनी मरजी से, और उसमे एक आत्मविश्वास आ गया है। जब औरों के सामने अपने विचार रखती है, अपने तर्क रखती है तो लोग काफी सराहते हैं उसकी प्रतिभा को...उसे उसका आसमान नजर आने लगा है...परों में ताकत महसूस होने लगी है...उसे लगता है की वो उड़ सकती है, बहुत बहुत ऊंचा उड़ सकती है.
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