19 June, 2007

अर्थी

"मत जाओ ना !"
उसने डबडबाती काली आंखें उठा कर इसरार किया था
शर्ट की आस्तीन मुट्ठी में भींच रखी थी उसने
"मैं वापस आऊंगा पगली तू रोती क्यों है ",उसने कहा था...

लडकी ने आंसू पोंछ लिए
कहते हैं जाते समय रोना अपशगुन होता है

रात ने अपना काला कम्बल निकला
और उस थरथराती लडकी को ओढा दिया

उसकी अर्थी उठ रही थी...घरवाले रो पीट रहे थे
और वो...बौखलाया सा देहरी पे खड़ा था
मन में हज़ारों सवाल लिए

"मुझे रोका क्यों नहीं...बताया क्यों नहीं कि इंतज़ार नहीं कर सकती तू?"
दिल कर रह था कि झिंझोड़ कर उठा दे और ख़ूब झगड़ा करे...वो ऐसे नहीं कर सकती...क्यों किया पगली...

पर उसने देखा उसके चहरे पर अभी भी सूखे हुये आंसुओं की परतें दिख रही थी...काश वो एक बार देख पाता उन आंखों को उठते हुये...बस एक बार उन आंखों में मुस्कराहट देख पाता

उस रात दो मौते हुयीं...
फर्क इतना रहा
कि एक अर्थी चार कन्धों पर उठी
और एक अपने ही दो पैरों पर

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