02 November, 2017

मौसम के नाम, प्यार

मौसम उनके बीच किसी किरदार की तरह रहता। किसी दोस्त की तरह जिसे उनकी सारी बातें पता होतीं। उन्हें कहना नहीं आता, लेकिन वे जिस मौसम का हाल पूछते थे वो किसी शहर का मौसम नहीं होता। वो किसी शहर का मौसम हो भी नहीं सकता था। वो मन का मौसम होता था। हमेशा से। 

कि पहले बार उसने क्यूँ भेजी थीं सफ़ेद सर्दियाँ? और लड़की कैसे थी ऐसी, गर्म पानी का सोता...लेकिन उसे ये कहाँ मालूम था कि ये गर्म पानी नहीं, खारे आँसू हैं...उसकी बर्फ़ ऊँगली के पोर पर आँसू ठहरता तो लम्हे भर की लड़ाई होती दो मौसमों में। दुनिया के दो छोर पर रहने वाले दो शहरों में भी तो। मगर अंत में वे दोनों एक सम पर के मान जाते। 

बीच के कई सालों में कितने मौसम थे। मौसम विभाग की बात से बाहर, बिगड़ैल मौसम। मनमानी करते। लड़की ज़िद करती तो लड़के के शहर में भी बारिश हो जाती। बिना छतरी लिए ऑफ़िस गया लड़का बारिश में भीग जाता और ठिठुरता बैठा रहता अपने क्यूबिकल में। 'पागल है ये लड़की। एकदम पागल...और ये मौसम इसको इतना सिर क्यूँ चढ़ा के रखते हैं, ओफ़्फ़ोह! एक बार कुछ बोली नहीं कि बस...बारिश, कोहरा...आँधी...वो तो अच्छा हुआ लड़की ने बर्फ़ देखी नहीं है कभी। वरना बीच गर्मियों के वो भी ज़िद पकड़ लेती कि बस, बर्फ़ गिरनी चाहिए। थोड़ी सी ही सही।' कॉफ़ी पीने नीचे उतरता तो फ़ोन करता उसे, 'ख़ुश हो तुम? लो, हुआ मेरा गला ख़राब, अब बात नहीं कर पाउँगा तुमसे। और कराओ मेरे शहर में बारिश' लड़की बहुत बहुत उदास हो जाती। शाम बीतते अदरक का छोटा सा टुकड़ा कुतरती रहती। अदरक की तीखी गंध ऊँगली की पोर में रह जाती। उसे चिट्ठियाँ लिखते हुए सोचती, ये बारिश इस बार कितने दिनों तक ऐसे ही रह जाएगी पन्नों में। 

***

ठंढ कोई मौसम नहीं, आत्मा की महसूसियत है। जब हमारे जीवन में प्रेम की कमी हो तो हमारी आत्मा में ठंढ बसती जाती है। फिर हमारी भोर किटकिटाते बीतती है कि हमारा बदन इक जमा हुआ ग्लेशियर होता है जिसे सिर्फ़ कोई बाँहों में भींच कर पिघला सकता है। लेकिन दुनिया इतनी ख़ाली होती है, इतनी अजनबी कि हम किसी को कह नहीं सकते...मेरी आत्मा पर ठंढ उतर रही है...ज़रा बाँहों में भरोगे मुझे कि मुझे ठंढ का मौसम बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। 

लड़की की सिसकी में डूबी आवाज़ एक ठंढी नदी होती। कि जिसमें पाँव डाले बैठे रहो तो सारे सफ़र में थरथराहट होगी। कि तुम रास्ता भूल कर अंधेरे की जगह रौशनी की ओर चले जाओगे। एक धीमी, कांपती रौशनी की लौ तक। सिगरेट जलाते हुए जो माचिस की तीली के पास होती है। उतनी सी रौशनी तक। 

बर्फ़ से सिर्फ़ विस्की पीने वाले लोग प्यार करते हैं। या कि ब्लैक कॉफ़ी पीने वाले। सुनहले और स्याह के बीच होता लड़की की आत्मा का रंग। डार्क गोल्डन। नीले होंठ। जमी हुयी उँगलियाँ। तेज़ आँधी में एक आख़िरी बार तड़प कर बुझी हुयी आँखें।

वो किसी संक्रामक बीमारी की तरह ख़तरनाक होती। उसे छूने से रूह पर सफ़ेद सर्दियाँ उतरतीं। रिश्तों को सर्द करती हुयीं। एक समय ऐसा भी होता कि वो अपनी सर्द उँगलियों से बदन का दरवाज़ा बंद कर देती और अपने इर्द गिर्द तेज़ बहती बर्फ़ीली, तूफ़ानी नदियाँ खींच देती। फिर कोई कैसे चूम सकता उसकी सर्द, सियाह आँखें। कोई कैसे उतरते जाता उसकी आत्मा के गहरे, ठंढे, अंधेरे में एक दिया रखने की ख़ातिर।

लड़की कभी कभी unconsolable हो जाती। वहाँ से कोई उसे बचा के वापस ला नहीं पाता ज़िंदगी और रौशनी में वापस। 
हँसते हुए आख़िरी बात कहती। एक ठंढी हँसी में। rhetoric ऐसे सवाल जिनके कोई जवाब नहीं होते।
'लो, हम मर गए तुम पर, अब?'

***
'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'

सबको इस बात पर आश्चर्य क्यूँ होता कि लड़की के पास बहुत से अनकहे शब्द हुआ करते। उन्हें लगता कि जैसे उसके लिए लिखना आसान है, वैसे ही कह देना भी आसान होता होगा। ऐसा थोड़े होता है।

कहने के लिए आवाज़ चाहिए होती है। आवाज़ एक तरह का फ़ोर्स होती। अपने आप में ब्लैक होल होती लड़की के पास कहाँ से आती ये ऊर्जा कि अपने ही प्रचंड घनत्व से दूर कर सके शब्द को...उस सघनता से...इंटेन्सिटी से...कोई शब्द जो बहुत कोशिश कर के बाहर निकलता भी तो समय की टाइमलाइन में भुतला जाता। कभी अतीत का हिस्सा बन जाता, कभी भविष्य का। कभी अफ़सोस के नाम लिखाता, कभी उम्मीद के...लेकिन उस लड़के के नाम कभी नहीं लिखाता जिसके नाम लिखना चाहती लड़की वो एक शब्द...एक कविता...एक पूरा पूरा उपन्यास। उसका नाम लेना चाहती लेकिन कहानी तक आते आते उसका नाम कोई एक अहसास में मोर्फ़ कर जाता।

लड़की समझती सारी उपमाएँ, मेटाफर बेमानी हैं। सब कुछ लिखाता है वैसा ही जैसा जिया जाता है। कविताओं में भी झूठ नहीं होता कुछ भी।

सुबह सुबह नींद से लड़ झगड़ के आना आसान नहीं होता। दो तीन अलार्म उसे नींद के देश से खींच के लाना चाहते लेकिन वहाँ लड़का होता। उसकी आँखें होतीं। उसकी गर्माहट की ख़ुशबू में भीगे हाथ होते। कैसे आती लड़की हाथ छुड़ा के उससे।

सुबह के मौसम में हल्की ठंढ होती। जैसे कितने सारे शहरों में एक साथ ही। सलेटी मौसम मुस्कुराता तो लड़की को किसी किताब के किरदार की आँखें याद आतीं। राख रंग की। आइना छेड़ करता, पूछता है। आजकल बड़ा ना तुमको साड़ी पहनने का चस्का लगा है। लड़की कहती। सो कहो ना, सुंदर लग रही हूँ। मौसम कहता, सिल्क की साड़ी पहनो। लड़की सिल्क की गर्माहट में होती। कभी कभी भूल भी जाती कि इस शहर में वो कितनी तन्हा है...वो लड़का इतना क़रीब लगता कि कभी कभी तो उदास होना भी भूल जाती।

कार की विंडो खुली होती। उसका दिल भी। दुःख के लिए। तकलीफ़ के लिए। लेकिन, सुख के लिए भी तो। सुबह कम होता ट्रैफ़िक। लड़की as usual गाड़ी उड़ाती चलती। किसी रेसिंग गेम की तरह कि जैसे हर सड़क उसके दिल तक जाती हो। गाना सुनती चुप्पी में, गुनगुनाती बिना शब्द के।

लड़की। इंतज़ार करती। गाने में इस पंक्ति के आने का। अपनी रूह की उलझन से गोलती एक गाँठ और गाती, 'मुख़्तसर सी बात है, तुमसे प्यार है'


और कहीं दूर देश में अचानक उसकी हिचकियों से नींद खुल जाती...ठंढे मौसम में रज़ाई से निकलने का बिलकुल भी उसका मन नहीं करता। आधी नींद में बड़बड़ाता उठता लड़का। 'प्यार करने की तमीज़ ख़ाक होगी, इस पागल लड़की को ना, याद करने तक की तमीज़ नहीं है'

01 November, 2017

She rides a Royal Enfield ॰ चाँदनी रात में एनफ़ील्ड रेसिंग

दुनिया में बहुत तरह के सुख होते होंगे। कुछ सुख तो हमने चक्खे भी नहीं हैं अभी। कुछ साल पहले हम क्या ही जानते थे कि क़िस्मत हमारे कॉपी के पन्ने पर क्या नाम लिखने वाली है।

बैंगलोर बहुत उदार शहर है। मैं इससे बहुत कम मुहब्बत करती हूँ लेकिन वो अपनी इकतरफ़ा मुहब्बत में कोई कोताही नहीं करता। मौसम हो कि मिज़ाज। सब ख़ुशनुमा रखता है। इन दिनों यहाँ हल्की सी ठंढ है। दिल्ली जैसी। देर रात कुछ करने का मन नहीं कर रहा था। ना पढ़ने का, ना लिखने का कुछ, ना कोई फ़िल्म में दिल लग रहा था, ना किसी गीत में। रात के एक बजे करें भी तो क्या। घर में रात को अकेले ना भरतनाट्यम् करने में मन लगे ना भांगड़ा...और साल्सा तो हमको सिर्फ़ खाने आता है।

बाइकिंग बूट्स निकाले। न्यू यॉर्क वाले सफ़ेद मोज़े। उन्हें पहनते हुए मुस्कुरायी। जैकेट। हेल्मट। घड़ी। ब्रेसलेट। कमर में बैग कि जिसमें वॉलेट और घर की चाबी। गले में वही काला बिल्लियों वाला स्टोल कि जिसके साथ न्यू यॉर्क की सड़कें चली आती हैं हर बार। मुझे बाक़ी चीज़ों के अलावा, एनफ़ील्ड चलाने के पहले वाली तैयारी बहुत अच्छी लगती है। शृंगार। स्ट्रेच करना कि कहीं मोच वोच ना आ जाए।

गयी तो एनफ़ील्ड इतने दिन से स्टार्ट नहीं की थी। एक बार में स्टार्ट नहीं हुयी। लगा कि आज तो किक मारनी पड़े शायद। लेकिन फिर हो गयी स्टार्ट। तो ठीक था। कुछ देर गाड़ी को आइड्लिंग करने दिए। पुचकारे। कि खामखा नाराज़ मत हुआ कर। इतना तो प्यार करती हूँ तुझसे। नौटंकी हो एकदम तुम भी।

इतनी रात शहर की सड़कें लगभग ख़ाली हैं। कई सारी टैक्सीज़ दौड़ रही थीं हालाँकि। एकदम हल्की फुहार पड़ रही थी। मुझे अपनी एनफ़ील्ड चलने में जो सबसे प्यारी चीज़ लगती है वो तीखे मोड़ों पर बिना ब्रेक मारे हुए गाड़ी के साथ बदन को झुकाना...ऐसा लगता है हम कोई बॉल डान्स का वो स्टेप कर रहे हैं जिसमें लड़का लड़की की कमर में हाथ डाल कर आधा झुका देता है और फिर झटके से वापस बाँहों में खींच कर गोल चक्कर में घुमा देता है।

कोई रूह है मेरी और मेरी एनफ़ील्ड की। रूद्र और मैं soulmates हैं। मैं छेड़ रही थी उसको। देखो, बदमाशी करोगे ना तो अपने दोस्त को दे देंगे चलाने के लिए। वो बोला है बहुत सम्हाल के चलाता है। फिर डीसेंट बने घूमते रहना, सारी आवारगी निकल जाएगी। आज शाम में नील का फ़ोन आया था। वो भी चिढ़ा रहा था, कि अपनी एनफ़ील्ड बेच दे मुझे। मैं उसकी खिंचाई कर रही थी कि एनफ़ील्ड चलाने के लिए पर्सनालिटी चाहिए होती है, शक्ल देखी है अपनी, एनफ़ील्ड चलाएगा। और वो कह रहा था कि मैं तो बड़ी ना एनफ़ील्ड चलाने वाली दिखती हूँ, पाँच फ़ुट की। भर भर गरियाए उसको। हम लोगों के बात का पर्सेंटिज निकाला जाए तो कमसे कम बीस पर्सेंट तो गरियाना ही होगा।

इनर रिंग रोड एकदम ख़ाली। बहुत तेज़ चलाने के लिए लेकिन चश्मे दूसरे वाले पहनने ज़रूरी हैं। इन चश्मों में आँख में पानी आने लगता है। हेल्मट का वाइज़र भी इतना अच्छा नहीं है तो बहुत तेज़ नहीं चलायी। कोई अस्सी पर ही उड़ाती रही बस। इनर रंग रोड से घूम कर कोरमंगला तक गयी और लौट कर इंदिरानगर आयी। एक मन किया कि कहीं ठहर कर चाय पी लूँ लेकिन फिर लगा इतने दिन बाद रात को बाहर निकली हूँ, चाय पियूँगी तो सिगरेट पीने का एकदम मन कर जाएगा। सो, रहने ही दिए। वापसी में धीरे धीरे ही चलाए। लौट कर घर आने का मन किया नहीं। तो फिर मुहल्ले में घूमती रही देर तक। स्लो चलती हुयी। चाँद आज कितना ही ख़ूबसूरत लग रहा था। रूद्र की धड़कन सुनती हुयी। कैसे तो वो लेता है मेरा नाम। धकधक करता है सीने में। जब मैं रेज देती हूँ तो रूद्र ऐसे हुमक के भागता है जैसे हर उदासी से दूर लिए भागेगा मुझे। दुनिया की सबसे अच्छी फ़ीलिंग है, रॉयल एनफ़ील्ड ५०० सीसी को रेज देना। फिर उसकी आवाज़। उफ़! जिनकी भी अपनी एनफ़ील्ड है वो जानते हैं, इस बाइक को पसंद नहीं किया जा सकता, इश्क़ ही किया जा सकता है इससे बस।

मुहल्ले में गाड़ियाँ रात के डेढ़ बजे एकदम नहीं थीं। बस पुलिस की गाड़ी पट्रोल कर रही थी। मैंने सोचा कि अगर मान लो, वो लोग पूछेंगे कि इतनी रात को मैं क्यूँ पेट्रोल जला रही हूँ तो क्या ही जवाब होगा मेरे पास। मुझे लैम्पपोस्ट की पीली रोशनी हमेशा से बहुत अच्छी लगती है। मैं हल्के हल्के गुनगुना रही थी। ख़ुद के लिए ही। 'ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त, कौन हो तुम बतलाओ'। एनफ़ील्ड की डुगडुग के साथ ग़ज़ब ताल बैठ रहा था गीत का। कि लड़कपन से भी से मुझे कभी साधना या फिर सायरा बानो बनने का चस्का कम लगा। हमको तो देवानंद बनना था। शम्मी कपूर बनना था। अदा चाहिए थी वो लटें झटकाने वालीं। सिगरेट जलाने के लिए वो लाइटर चाहिए था जिसमें से कोई धुन बजे। मद्धम।

सड़क पर एनफ़ील्ड पार्क की और फ़ोन निकाल के फ़ोटोज़ खींचने लगी। ज़िंदगी के कुछ ख़ूबसूरत सुखों में एक है अपनी रॉयल एनफ़ील्ड को नज़र भर प्यार से देखना। पीली रौशनी में भीगते हुए। उसकी परछाईं, उसके पीछे की दीवार। जैसे मुहब्बत में कोई महबूब को देखता है। उस प्यार भरी नज़र से देखना।

सड़क पर एक लड़का लड़की टहल रहे थे। उनके सामने बाइक रोकी। बड़ी प्यारी सी लड़की थी। मासूम सी। टीनएज की दहलीज़ पर। मैंने गुज़ारिश की, एक फ़ोटो खींच देने की। कि मेरी बाइक चलाते हुए फ़ोटो हैं ही नहीं। उसने कहा कि उसे ये देख कर बहुत अच्छा लगा कि मैं एनफ़ील्ड चला रही हूँ। मैंने कहा कि बहुत आसान है, तुम भी चला सकती हो। उसने कहा कि बहुत भारी है। अब एनफ़ील्ड कोई खींचनी थोड़े होती है। मैंने कहा उससे। हर लड़की को गियर वाली बाइक ज़रूर चलानी चाहिए। उसमें भी एनफ़ील्ड तो एकदम ही क्लास अपार्ट है। कहीं भी इसकी आवाज़ सुन लेती हूँ तो दिल में धुकधुकी होने लगती है। मैं हर बार लड़कियों को कहती हूँ, मोटर्सायकल चलाना सीखो। ये एक एकदम ही अलग अनुभव है। इसे चलाने में लड़के लड़की का कोई भेद भाव नहीं है। अगर मैं चला सकती हूँ, तो कोई भी चला सकता है।

पिछले साल एनफ़ील्ड ख़रीदने के पहले मैंने कितने फ़ोरम पढ़े कि कोई पाँच फुट दो इंच की लड़की चला सकती है या नहीं। वहाँ सारे जवाब बन्दों के बारे में था, छह फुट के लोग ज्ञान दे रहे थे कि सब कुछ कॉन्फ़िडेन्स के बारे में है। अगर आपको लगता है कि आप चला सकते हैं तो आप चला लेंगे। मुझे यही सलाह चाहिए थी मगर ऐसी किसी अपने जैसी लड़की से। ये सेकंड हैंड वाला ज्ञान मुझे नहीं चाहिए था।

तो सच्चाई ये है कि एनफ़ील्ड चलाना और इसके वज़न को मैनेज करना प्रैक्टिस से आता है। ज़िंदगी की बाक़ी चीज़ों की तरह। हम जिसमें अच्छे हैं, उसकी चीज़ को बेहतर ढंग से करने का बस एक ही उपाय है। प्रैक्टिस। एक बार वो समझ में आ गया फिर तो क्या है एनफ़ील्ड। फूल से हल्की है। और हवा में उड़ती है। मैंने दो दिन में एनफ़ील्ड चलाना सीख लिया था। ये और बात है कि पापा ने सबसे पहले राजदूत सिखाया था पर पटना में थोड़े ना चला सकते थे। कई सालों से कोई गियर वाली बाइक चलायी नहीं थी।

अभी कुछ साल पहले सपने की सी ही बात लगती थी कि अपनी एनफ़ील्ड होगी। कि चला सकेंगे अपनी मर्ज़ी से ५०० सीसी बाइक। कि कैसा होता होगा इसका ऐक्सेलरेशन। क्या वाक़ई उड़ती है गाड़ी। वो लड़की नाम पूछी मेरा। हाथ मिलायी। मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गए जब देवघर में एक दीदी हीरो होंडा उड़ाया करती थी सनसन। हमारे लिए तो वही रॉकस्टार थी। तस्वीर खींचने को जो लड़की थी, उसे बताया मैंने कि एनफ़ील्ड पति ने गिफ़्ट की है पिछले साल, तो वो लड़की बहुत आश्चर्यचकित हो गयी थी।

दुनिया में छोटे छोटे सुख हैं। जिन्हें मुट्ठी में बांधे हुए हम सुख की लम्बी, उदास रात काटते हैं। तुम मेरी मुट्ठी में खुलता, खिलखिलाता ऐसा ही एक लम्हा हो। आना कभी बैंगलोर। घुमाएँगे तुमको अपने एनफ़ील्ड पर। ज़ोर से पकड़ के बैठना, उड़ जाओगे वरना। तुम तो जानते ही हो, तेज़ चलाने की आदत है हमको।

ज़िंदगी अच्छी है। उदार है। मुहब्बत है। अपने नाम पर रॉयल एनफ़ील्ड है।
इतना सारा कुछ होना काफ़ी है सुखी होने के लिए।
सुखी हूँ इन दिनों। ईश्वर ऐसे सुख सबकी क़िस्मत में लिक्खे।

31 October, 2017

Create your own asylum


उसने शाम में दो दोस्तों से पूछा। तुम्हें 'एक चिथड़ा सुख' क्यूँ पसंद है। एक के पास वक़्त की कमी थी, एक के पास शब्दों की। वे उसे ठीक ठीक बता नहीं पाए कि क्यूँ पढ़नी चाहिए उसे ये किताब।

उसने पूछा, अच्छा ये बताओ, कोई ऐसी किताब पढ़ने का मन है जिसमें डूबें ना, जो उबार ले। उसने कहा, ऐसे में क्या ही पढ़ोगी निर्मल को। वहाँ कौन सा सुख है। लेकिन सुख तो था, 'वे दिन' में था, 'धुंध से उठती धुन' में भी था। सुख आइने में चुप तकता एक छोटा बच्चा है जो इस बात का यक़ीन दिलाता है कि आप अकेले पागल नहीं हैं। इस पागलखाने में और भी लोग रहते हैं।

लड़की का whatsapp स्टेटस रहता। 'Create your own asylum'। असाइलम का मतलब पागलखाना होता है, पनाह भी।

उसे लगा किताब में सुख होगा। थोड़ा सा ही सही। किताब जहाँ खुलती है, उसे समझ नहीं आया पिछले कई सालों से कैसे उसने किताब शुरू कर के आधी अधूरी रख दी हमेशा।

एक चैप्टर में कोई पूछता है लड़के से, 'ऑल अलोन' मतलब कि बिलकुल अकेले। किताब के लड़के के साथ ही लड़की सोचती है, अपना मन टटोल कर। कि इस अकेलेपन की तासीर समझ ले ठीक ठीक। उसे लगता ज़िंदगी मैथ की तरह है, सब कुछ इक्वेशन है। समझ आने के बाद हल निकाला जा सकता है। लेकिन धीरे धीरे वो समझती जाती कि हर equation सॉल्व नहीं हो सकता। फिर वो उन सवालों को अपनी राइटिंग डेस्क पर छोटी छोटी चिप्पियों में लिखती चली जाती।

बहुत साल बाद किसी किताब ने उससे वो सवाल किया है जो वो ख़ुद से अक्सर पूछती आयी है। कि सब कुछ होते हुए भी उसे इतना अकेलापन क्यूँ लगता है? इतने दोस्त हैं। जब से किताब आयी है, कितने सारे अजनबी भी हैं जो पन्ने पर जुड़े हुए हैं। उसका जब मन करे, कोई ना कोई तो होगा ही जो उससे बात कर सके। फिर ये कैसा अकेलापन है।

दूसरी चीज़ जो उसे परेशान करती, वो ये कि दुनिया के उसके कुछ सबसे प्यारे दोस्तों की तासीर में ऐसा अकेलापन क्यूँ दिखता है उसे। क्या वो अपनी तन्हाई उनपर प्रोजेक्ट करती है? क्या वो भी लोगों को ऐसी ही दिखती है, कहीं ना कहीं, अकेली? सब होते हुए भी उनके साथ रहते हुए ये कौन सा ख़ालीपन है, कौन सी कमी जिसे वो भरना चाहती है। कि जैसे उनकी ज़िंदगी में सिर्फ़ उसके होने भर की जगह कई सालों से ख़ाली थी। कि हम शायद ऐसे ही आते हैं दुनिया में। ख़ाली ख़ाली। porous। वो पूछती अपने दोस्तों से। कोई समझता है तुम्हें, ठीक ठीक। जैसे मैं समझती हूँ। मुझे कोई वैसे नहीं समझता ठीक ठीक, जैसे तुम समझते हो। तुम कैसे समझते हो मुझे ऐसे। ये कौन से हिस्से हैं, ये कौन से क़िस्से हैं?

उसका चेहरा किताब हुआ करता। उसकी आँखें गीत हुआ करतीं। उसकी मुस्कान शब्दों के बीच की ख़ामोशी रचती। उसे ग़ौर से देखो तो उसके चेहरे पर कई सारे किरदार उगा करते। कई सारी कहानियाँ हुआ करतीं। वाक्य उसके माथे की सलवटों को समझते। उसकी आँखों के सियाह को भी।

वो मुझसे मिली तो देर तक पढ़ता रहा चेहरा उसका। उसकी काजल लगी आँखें। छोटी सी बिंदी। कितने शब्द थे उसके चेहरे पर। कितना बोलता था उसका चेहरा।

उसके माथे पर शब्दों के बीच एक ख़ाली जगह थी...जैसे इग्ज़ैम के क्वेस्चन पेपर पर होती है - fill in the blanks जैसी। एक लाइन। कि जैसे लगा कि मैं चूम लूँ उसका माथा तो वाक्य का कोई मायना होगा। मुलाक़ात का भी।

प्यार। ढेर सारा प्यार।

कभी कभी तो ऐसा भी हुआ है कि पूरी शाम मुस्कुराने के कारण गालों में दर्द उठ गया हो. मैं उस वक़्त आसमान की ओर आँखें करती हूँ और उस उपरवाले से पूछती हूँ 'व्हाट हैव यु डन टु मी?' मैं शाम से पागलों की तरह खुश हूँ, अगर कोई बड़ा ग़म मेरी तरफ अब तुरंत में फेंका न तो देख लेना.
- उस लड़की में दो नदियाँ रहती थीं, [page no. 112, तीन रोज़ इश्क़]

30 August, 2017
आज वो दूसरी वाली नदी में उफान आया है।
धूप की नदी। सुख की। छलकती। बहती किनारे तोड़ के। खिलखिलाती।

याद करती एक शहर। दिल्ली की हवा में बजती पुराने गानों की धुन कैसी तो।  किसी पार्क में झूला झूलती लड़कियाँ खिलखिला के हँसतीं। छत पर खड़ा एक लड़का देखता एक लड़की को एक पूरी नज़र भर कर। चाय मीठी हुई जाती कितनी तो। लड़की अपने अतीत में होती। लड़का कहता, मुझे बस, ना, तुम्हारे जैसी एक बेटी चाहिए। कहते हुए उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर लेता। बात को कई साल बीत जाते लेकिन लड़की नहीं भूलती उसका कहना। बिछड़े हुए कई साल बीत जाते। लड़की देखती फ़ोन में एक बच्चे की तस्वीर। टूटे हुए सपने से बहता हुआ आता प्यार कितना तो। लड़की मुस्कुराती फ़ोन देख कर। असीसती अपने पुराने प्रेमी के बेटे को।

कहाँ रख दूँ इतनी सारी मुस्कान।
किसके नाम लिख दूँ। वसीयत कर दूँ। मेरे सुख का एक हिस्सा उसे दे दिया जाए। थोड़ी धूप खिले उसकी खिड़की पर। उसकी आँखों में भी। उसके शहर का ठंढा मौसम कॉफ़ी में घुलता जाए। कॉफ़ी कप के इर्द गिर्द लपेटी हुयी उँगलियाँ। कितने ठंढे पड़ते हैं तुम्हारे हाथ। नरम स्वेड लेदर के दास्ताने पहनती लड़की। कॉफ़ी शॉप पर भूल जाती कि टेबल के सफ़ेद नैपकिन के पास रह जाते दास्ताने। लड़का अगली रोज़ जाता कॉफ़ी शॉप तो वेट्रेस कहती, 'आपकी दोस्त के दास्ताने रह गए हैं यहाँ, ले लीजिए'। उसके गर्म हाथों को दास्ताने की ज़रूरत नहीं लेकिन पॉकेट में रख लेता है। फ़ोल्ड किए। नन्हें दास्ताने। कोई जा कर भी कितना तो रह जाता है शहर में।

कभी होता है, बहुत प्यार आ रहा होता है...इस प्यार आने का अचार कैसे डालते हैं मालूम ही नहीं। कहाँ रखते हैं इसको। भेजते हैं कैसे। किसको। जैसे लगता है कभी कभी। कोई सामने हो और बस टकटकी लगा के देखें उसको। कि जब बहुत तेज़ी से भागती हैं चीज़ें आँखों के सामने से तो रंग ठीक ठीक रेजिस्टर नहीं होते। लड़की चाहती कि उस रिकॉर्डिंग को पॉज़ कर दे। स्लो मोशन में ठीक उस जगह ठहरे कि जब उसका चेहरा हथेलियों में भरा था। उसका माथा चूमने के पहले देखे उसकी आँखों का रंग। याद कर ले शेड। कि कभी फिर दुखे ना ब्लैक ऐंड वाइट तस्वीरों में उसकी आँखों का रंग होना सलेटी।

प्यार। ढेर सा प्यार। बहुत ख़ूब सा। शहर भर। दिल भर। काग़ज़ काग़ज़ क़िस्सों भर। और भर जाने से ज़्यादा छलका हुआ।
किरदारों के नाम कैसे हों? 'मोह', शहर का नाम, 'विदा' लड़की का नाम, 'इतरां'। मगर सारे किरदार भी फीके लगें कि तुम्हारी हँसी के रंग जैसा कहाँ आए हँसना मेरे किसी किरदार को। तुम्हारी आवाज़ की खनक नहीं रच पाऊँ मैं किसी रंग की कलम से भी। कि चाहूँ कहना तुमसे, सामने तुम्हारे रहते हुए। एक शब्द ही। प्यार।

हमको कुछ चाहिए भी तो नहीं था।
हमको कभी कुछ चाहिए नहीं होता है। कभी कभी लिखने को एक खिड़की भर मिल जाए। एक पन्ना हो। चिट्ठी हो कोई। अटके पड़े नॉवल का नया चैप्टर हो। तुम्हारी हथेली हो सामने। उँगलियों से लिखती जाऊँ उसपर हर्फ़ हर्फ़ कर के जो कहनी हैं बातें तुमसे। कौन सी बातें ही? नयी बातें कुछ? चाँद देखा तुमने आज? आज जैसा चाँद पहले कहाँ निकला था कभी। आज जैसा प्यार कहाँ किया था पहले कभी भी तो। पर पहले तुम कहाँ मिले थे। किसी और से कैसे कर  लेती तुम्हारे हिस्से का, तुम्हारे जैसा - प्यार।

कैसे होता है। जिया हुआ एक लम्हा कितने दिनों तक रौशन होता है। वो पल भर का आँख भर आना। मालूम नहीं सुख में या दुःख में। बीतता हुआ लम्हा। बिसरता हुआ कोई। पूछूँ तुमसे। क्यूँ? मगर तुम्हारे पास तो सारे सवालों के जवाब होते हैं। और बेहद सुंदर जवाब। सवालों से सुंदर। कितना अच्छा है इसलिए तुमसे बात करना। कहीं कुछ अटका नहीं रहता। कुछ चुभता नहीं। कुछ दुखता नहीं। सब सुंदर होता। सहज। सत्यम शिवम् सुंदरम। जैसा शाश्वत कुछ। लम्हा ऐसा कि हमेशा के लिए रह जाए। ephemeral and eternal.

और तुम। रह जाओ ना हमेशा के लिए। नहीं?
उन्हूँ...हमेशा वाले दिन अब समझ नहीं आते। तुम जी लो इस लम्हे को मेरे साथ। रंग में। ख़ुशबू में। छुअन में। कि सोचूँ कितना कुछ और कह पाऊँ कहाँ तुमसे। कौन शब्द में बांधे मन की बेलगाम दौड़ को। नदी हुए जाऊँ। बाँध में सींचती रही कितनी कहानियाँ मगर लड़की का मन, तुमसे मिलकर फिर से नदी हुआ जाता। पहाड़ी नदी। जो हँसती खिलखिल।

सपने में खिले, पिछली बरसात लगाए हुए गुलाब। आँख भर आए। सुख। जंगली गुलाबों की गंध आए सपनों में। टस लाल। कॉफ़ी की गंध। कपास की। किसी के बाँहों में होने की गंध। मुट्ठी में पकड़े उसके शर्ट की सलवटें। क्या क्या रह जाए? सपने से परे, सपने के भीतर?

कहूँ तुमसे। कभी। कह सकूँ। आवाज़ में घुलते हुए।
प्यार। ढेर सारा प्यार। 

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