28 November, 2014

तुम्हारे इश्क़ में लड़की बग़ावत लिखती है


लिखना इन्किलाब का झंडा हाथ में थामे लड़की है जो दुनिया की आँखों में आँखें डाल कर कहती है, ख़बरदार जो मेरे दिल से उन यादों का एक पुर्जा भी मिटाना चाहा...आग लगा दूँगी...सब ख़ाक हो जाएगा...सारी कवितायें...सारी कहानियां...सारा इतिहास भस्म हो जाएगा इसी एक आग में...कम मत आंको इस आग की क्षमता को!

लिखना हर्फ़ हर्फ़ जमा करते जाना है मुहब्बत के खाते में बेनाम ख़त. लिखना खुद को यकीन दिलाना है कि मुहब्बत में बर्बाद हो जाने के बावजूद...खुद को पूरी तरह अपने प्रेमी के लिए बदल देने के बावजूद मेरा कुछ रह गया है. कुछ ऐसा जो कि हज़ार मुहब्बतों में टूट टूट बिखरने पर भी सलामत रहा है. मेरी शैली...मेरे बिम्ब...मेरा सब कुछ देखने का नजरिया. हाँ तुम मुझे कल को समझा दोगे कि गलत है मेरी आँखें...तुम्हारे दिए चश्मे से मैं देखने लगूंगी दुनिया को सिर्फ काले और सफ़ेद रंग में मगर मेरा मन मुझे फिर भी खींच कर समंदर किनारे बसे रंगरेजों के गाँव ले जाता रहेगा...मेरे कदम हर नक़्शे से भटक जायेंगे और अमलतास के जंगल में मैं भूल आउंगी तुम्हारा दिया हुआ चश्मा. हाँ, मुझे नहीं दिखेगा साफ़ साफ़ कुछ भी...हाँ, सब कुछ धुंधला होगा...हाँ, मैं पहचान नहीं पाऊँगी दोस्त और दुश्मन के बीच का फर्क...हाँ मुझे नहीं दिखेगा इश्क भी...कि वो दूर खड़ा होकर मेरी खिल्ली उड़ा रहा होगा. मगर मैं जाउंगी ऐसे जंगल...मैं जाउंगी ऐसे समंदर जिनमें मुझे जरा जरा डूबना आता हो. हाँ, मैं सीखूंगी फिर से सांस लेना...सांस...सांस...सांस..

तुम भूल जाओगे अपना क्लैरिनेट किसी केबिन में...खामोश हो जाएँगी मेरी शामें. मगर तुम्हें इससे क्या फर्क पड़ने लगा कि तुम अपने दोस्तों के साथ कहकहे लगा रहे होगे शहर के सबसे बदनाम बार में. मैं फिर से साध लूंगी संगीत के स्वर कि तुम्हें वाकई मेरे बारे में कुछ कभी पता नहीं था. पहले इस कागज़ के पन्ने पर सिर्फ तुम्हारा नाम लिखने को जी चाहता था...अब इसी कागज़ के पन्ने पर म्यूजिक अनोटेशन लिखने लगूंगी...इसी कागज़ के पन्ने पर मन की इस उहापोह को रंगने लगूंगी. ब्रश के सारे स्ट्रोक्स बेतरतीब होंगे...लेकिन जान, वे फिर भी बहुत खूबसूरत होंगे.

मुझे होमवर्क मिलेगा कि मैं तीन हज़ार बार लिखूं कि मैं तुम्हें बिसार दूँगी...कि मैं कई हज़ार सालों से मोह के बंधन में बंधी हुयी हूँ...समंदर किनारे किसी शिला पर मैं भी बैठूंगी...मगर वहां मैं नहीं लिखूंगी तुम्हारा नाम. लिखना बगावत होगी तब भी...अपने ही दिल की धड़कनों से...कि तुम्हारे नाम की आवाज़ के सिवा उसे और कोई आवाज़ अच्छी नहीं लगती...वो न झरनों के शोर में बहलता है न चेट बेकर के जैज़ से...न उसे समंदर की लहरों का संगीत कोई राहत दे पाता है. मैं ऊंचे पहाड़ों पर एक छोटा सा एक कमरे का घर बनाउंगी और हर सुबह चीखूंगी तुम्हारा नाम...अकेले...चुप पहाड़ों से...तुम तक मगर नहीं पहुंचेगा कोई भी आवाज़ का कतरा.

तुम मांगोगे मेरा पता...कि जिसपर कभी भेज सको चिट्ठियां...मैं मगर जानती हूँ न तुम्हें...इस अंतहीन इंतज़ार की यातना में जलना मंज़ूर नहीं है मुझे...इसलिए मैं कभी नहीं भेजूंगी तुम्हें अपने उस छोटे से एक कमरे के मकान का पता. तुम्हारी कोई भी बात मुझे याद नहीं रहती...यूँ भी मुझे सुन के कुछ याद नहीं रहता...तभी तो भूलने लगी हूँ अपना नाम भी. काश कि तुमने भी कभी चुपके से पहुँचाया होता कोई परचा मुझ तक...क्लास के सारे बच्चों के थ्रू गुज़रता...मेरी डेस्क तक पहुँचता तो मैं भी भींच के रहती उस नन्हे से पुर्जे पर...कि जिसपर लिखा होता...शाम मिलो मुझसे...स्कूल के पीछे वाली गली में...कल रात ही फोड़ा है बड़ी मुश्किल से उस लैम्पोस्ट का बल्ब...जरा जरा अँधेरे में देखूं तुम्हें...जरा जरा अँधेरे में छू के देखूं तुम्हारा रेशमी दुपट्टा...जरा सा तुम्हारी गर्दन के पास गहरी सांस लूं तो जानूं कि किस साबुन से नहाती हो तुम...कि तुम्हारे बालों में रह जाती है क्या गुलाबों की गंध...वो गुलाब जो तुम्हारे लिए चुराया करता हूँ पड़ोसी के गार्डन से हर रोज़...सुनो न री पागल सी लड़की...तुम्हारी मुहब्बत में दीवाना हुआ जा रहा हूँ...एक बार मिलो न मुझसे...एक आखिरी बार...उसी कोर्नर वाले लैम्पोस्ट के नीचे...मुझे भी सिखा दो कैसे जी लेती हो इतने आराम से...हँस लेती हो सहेलियों के साथ...नाच लेती हो सरस्वती पूजा के पंडाल में...गुपचुप खाने का कॉम्पिटिशन भी जीत जाती हो...मुझे भी सिखाओ न री लड़की...कि मैं तो सांस लेना भी भूलता जा रहा हूँ...

तुम्हें कविता कब पसंद थी...इसलिए जानां लिखना इन्किलाब है...तुम्हारी मुहब्बत में लिखे इन खतों पर कोई और मर मिटेगा मुझपर...तुम कभी जान भी नहीं पाओगे कि कितनी थी मुहब्बत...कितनी है मुहब्बत...तब तक मेरी जान...सांस सांस सांस. जरा थम के...जरा गहरी...स्विमिंग पूल के १४ फीट गहरे पानी में मारी है डाईव कि ऐसे ही एक लम्हें भी भूलती हूँ सांस...और ऐसे ही किसी लम्हे में मिटता है दायीं ऊँगली पर लिखा हुआ सियाही से तुम्हारा नाम...तुम्हारे नाम की अंगूठी नहीं गोदना है जिस्म पर...भूलती हूँ तुम्हें तो भूलने लगती हूँ साँस लेना...कि लिखना...कि अक्षर बगावत हैं...तुम्हारा नाम...इन्किलाबी है...कहता है मैं भूल नहीं पाऊँगी तुमको. कभी भी.

14 November, 2014

जब वो नहीं लिख रही होती खत…

वो रंगो से खुद को जुदा कर रही होती, हर ओर सिर्फ सलेटी रंग होता…काले सियाह और अप्रतिम श्वेत के बीच का सलेटी, कि जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं होती…एक एक करके फोटो अल्बम से हर खूबसूरत तस्वीर को ब्लैक ऐंड व्हाईट में बदल रही होती। उसकी किस्मत में कि उसे एक दिन प्रेम में जोगी भी हो जाना लिखा था…जब उसने अपने रंग बिरंगे परिधानों का त्याग किया तो दुनिया के सारे जुलाहों और रंगरेजों ने शोक मनाया कि उसके जैसा कोई नहीं रंगवाने आता था दुपट्टा…वह कितनी तो बातें करती सब से…दुनिया के सारे फलसफे उसे मुश्किल लगते थे। उसकी आँखों से देखो तो सब कितना आसान था, मगर दुनिया उस जैसों के लिये बनी नहीं है। 

चलती ट्रेन से कूद जाने के पहले उसे करने थे अपने सारे हिसाब बंद…बताना था सबके हिस्से में आया है कितने बटे कितने अंकों का प्यार। करने थे सारे पुराने बहीखाते क्लियर कि वह मुहब्बत के किसी किस्से में कुछ अधूरा छोड़ कर नहीं जा सकती थी। किसी की मुहब्बत का अहसान लिये नहीं जा सकती थी। यूँ तो यह सारी बातें अक्सरहाँ खतों में हो जाया करती हैं मगर कई बार खतों के जवाब आने में देर हो जाती है और फिलहाल लड़की के पास वक्त नहीं था। उसने दुनिया का नक्शा उठाया और तगादे के लिये बाकी लोगों को काले स्केच पेन से मार्क करने लगी। कभी कभी उसे घबराहट भी होती थी कि इतने सारे लोगों से कैसे कह पायेगी एक ही अलविदा। अलग अलग शहरों, देशों में बदलता जाता है विदा कहने का रंग भी। 

हिमाचल का इक शान्त सा गाँव था वह, नन्हा पहाड़ी गाँव, मासूम, प्यारा। हर ओर बर्फ गिरी थी। दूर दूर तक कोई रंग नहीं था कि उसकी आँखों में चुभ जाये। ग्लास में रंगहीन वोदका थी। मगर उस दीवाने लड़के की बातों में अब भी वही लाल रंग मौजूद था, प्रेम का, क्रान्ति का, घर में अब भी मार्क्स और चे ग्वेवारा की तस्वीरें थीं…हाँ उसकी आँखों में वो नीले समंदर की डुबा देने वाली गहराईयाँ नहीं थीं…उसकी आँखें एक उदास सियाह में बदल गयी थीं। ‘तुम मेरे साथ एक बार मौस्को चलोगी?, मेरा जाने कब से मन है मगर अकेले जाने का दिल नहीं करता।’ उसकी सुनती तो अलविदा के प्लान्स सारे पहले ही स्टौप पर धराशायी हो जाने थे। अनदेखे रूस की यादों में पुरानी फिल्म का साउंडट्रैक बहने लगा है…लारा सेय्स गुडबाई टु यूरी…इस मौसम में विदा कहना कितना मुश्किल होता है लेकिन अगर वह बर्फ पिघलने तक रूक जाती तो हर ओर इतने रंग के फूल खिल जाते कि उसके मन पर चढ़ जाते पक्के रंग, फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने मातम का काला चोला पहना है.

लड़के को उसके फितूर की कोई जानकारी नहीं थी. वह उसे बताता जा रहा था कि ऊंचे गंगोत्री के पास जो ग्लेशियर हैं ग्लोबल वार्मिंग से कितना असर पड़ रहा है उनपर. लड़के की बातें भी श्वेत श्याम होने लगी थीं अचानक. बस बचा था उसकी बातों का गहरा लाल रंग और उसकी आँखों की आग जो ख्वाबों में चुभ सकती थी. लड़की ऐसे ही सीखती न रंगों को अनदेखा करना...कहीं से तो शुरुआत करनी जरूरी थी. लड़की चाहती थी यादों के ब्लेड को तेज़ कर अपनी कलाईयों पे मार ले...बह जाने दे खून का सारा कतरा जो उसके नाम को चीखता है. लड़की सीख लेना चाहती थी उसको अपने आप से अलग कर देना. मगर ये सब इतना आसान थोड़े न था. लड़के ने चलने के पहले उसके माथे पर एक नन्हा सा चुम्बन टांका कि जिसमें जिंदगी भर की दुआएँ थीं...और मुहब्बत से उसकी आँखों में देखते हुए बोला...दस्विदानिया...रूस में ऐसा कहते हैं...फिर मिलेंगे. 

घुटने भर बर्फ में बस स्टॉप की ओर चलती हुयी लड़की को अचानक महसूस हुआ कि उसके हाथ बिलकुल सर्द पड़ गए हैं. उसने बैग की आगे की चेन से एक नीला दस्ताना निकला और अपने बायें हाथ में पहन लिया. दस्ताना जरा सा बड़ा था मगर उसकी गर्माहट सीधे दिल तक पहुँचती थी. उसे कोई पांच साल पुरानी सर्दियाँ याद आयीं...धूप में बैठ कर उनींदी आँखों से दस्ताने बुनना सीखना भी. चाचियाँ कैसे हंसती थीं कि उसके दास्ताने में अंगूठा था ही नहीं, बस पांच उँगलियाँ ही थीं. वूल्मार्क वाले निशान के गोले खरीद के लायी थी वो...गहरे नीले. खुद का तोहफा भी कोई वापस लेता है क्या? मगर उसने तो बस आधा सा ही खुद को समेटा है...इतना तो हक था उसका. उसे मालूम था कि जाने के बाद वो बहुत देर तक वो एक दस्ताना खोजता रहेगा...मगर जिंदगी में कुछ तो अधूरा कर जाने की चाहत थी...एक जोड़ी दस्ताने सही.

उसके जोग के काले कपड़ों पर एक नन्हा सा नीला दस्ताना भारी पड़ रहा था...जैसे हर अलविदा से ज्यादा चुभने वाला था इस मासूम मुहब्बत का दस्विदानिया. बारी बारी से हाथ बदल कर पहनती रही वो एक दस्ताना. हर बार जब गर्माहट दिल तक पहुँचने लगती थी उसे लगता था मौत तक जितनी जल्दी पहुँच जाए बेहतर. ये सफ़र उसके अन्दर हज़ार तूफानों की रोपनी कर रहा था...सीधी कतार में. 

वो जब नहीं लिख रही होती थी ख़त तो बाएँ हाथ में एक नीला दस्ताना पहने उन दिनों के ख्वाब बुनने लगती थी जब दोनों एक सड़क पर साथ साथ टहल रहे होंगे, एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए. लड़के ने दायें हाथ में दस्ताना पहना होगा...लड़की ने बाएँ...मगर उनके बिना दस्ताने वाले हाथ ज्यादा गर्म होंगे.
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सर्दियाँ आ गयीं मेरी जान...तुम कब आओगे?

07 November, 2014

कुछ छलावे भी कितने महँगे बिकते हैं


वो हँसते हुये कहता है मुझसे
अच्छा…तो तुम्हें लगता है तुम तलाश लोगी मुझे?
शहर के इस कोलाहल में…
गाड़ियों, लोगों और मशीनों के इस विशाल औरकेस्ट्रा में
तुम छीज कर अलग कर दोगी मेरी आवाज
बचपन में दादी से सीखी थी क्या चूड़ा फटकना?
———
मुझे कभी नहीं आता भूलना, फिर कैसे?
छुट्टियों में रह गया खिड़की की जाली पर
हफ्ते भर बिन पानी का प्यासा पौधा
टप टप बरसता है मनी प्लाँट पर भीगा नवंबर
मगर बचा नहीं पाता है मेरे आने तक आखिरी साँसें
———
तुम तो आर्टिस्ट हो
बनाते हो मुहब्बत की काली आउटर लाइनिंग
कैनवस पर चलाते हो इंतजार के स्ट्रोक्स
मुझे लगता है मैं तुम्हारा मास्टरपीस हूँ
कुछ छलावे भी कितने महँगे बिकते हैं

——— 
रूह बदलती है लिबास
मुहब्बत बदलती है नाम, चेहरे, लोग
मैं बदलती गयी उस लड़की में
जिससे तुम्हें प्यार नहीं होना था कभी

06 November, 2014

हमारे कातिल तलाश लेते हैं हमें

ईश्वर को कम पड़ गयी थी
एक बूंद स्याही
मेरी किस्मत में उसका नाम लिखने के लिये
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मैं उससे बच बच के चलती रही
कसम से
दूर...दूर और दूर
मुहल्ला। शहर। देश। प्लैनेट
और कभी कभी तो जिन्दगी से भी

आँसुओं से धुलता गया
मेरे वापस लौटने का नक्शा
दिल हँसता रहा मेरी नाकामयाबी पर
 मेरी कोशिशों पर भी

मैं कहाँ रच पायी इतनी दूरी
कि इक जिद्दी, आवारा ख्याल 
खोल ना पाये विस्मृति के सात ताले

मेरे उदास चेहरे को हथेलियों में भर कर
उसने मेरे माथे पर रखा
इक आखिरी बोसा
जिसे मिटा नहीं पाया कोई इरेजर 

हर आकाशगंगा में होता है एक सूर्य
उसकी आँखों के रंग का  
इक नदी उसकी गुनगुनाहटों सी मीठी 
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स्याही की इक लाल बूंद से 
उसने मेरा वरण किया

तब से। 

अनंत के किसी भी क्षण 
मुझे नहीं आया उसके बिना जीना
मैं हर आयाम में होती हूँ अभिशप्त
उसके विरह में जलने के लिये

21 October, 2014

विस्मृति का विलास सबके जीवन में नहीं लिखा होता प्रिये



किसी शहर में भूल जाना भी याद करना जितना आसान होगा. डायरी में लिख दिया अमुक का बर्थडे फलां फलां डेट को है. उस दिन याद से उसे मुबारकबाद कह देनी है नहीं तो साला बर्थडे पर बुलाएगा नहीं और खामखा एक केक का नुकसान हो जाएगा. मेरा गरीब पेट ऐसे कुछ ऐय्याशियों के भरोसे जीता है. उत्सव के ये कुछ दिन छिन गए तो कसम से एक दिन ओल्ड मौंक में जहर मिला कर पी जायेंगे.

वैसी ही एक दिन लिख देना है डायरी में कि फलाने को आज से चौदह दिन बाद भूल जाना है. बस. अब कोई माई का लाल हमको आज के चौदह दिन बाद याद नहीं दिला पायेगा कि कमबख्त को याद कर के देर रात टेसुआ बहाए थे और भों भों रोये थे कि उसके बिना जिंदगी बेकार है.

मगर फिर कोमल मन कहता है...विस्मृति का विलास सबके जीवन में नहीं लिखा होता प्रिये...याद का ताजमहल बनाने वाले की नियति यही होती है कि एक कोठरी से उसे देख कर बाल्टी बाल्टी आंसू बहाया करे. मैं देख रही हूँ कि मैं लिखना कोमल चाहती हूँ मगर मेरे अन्दर जो दो भाषाएँ पनाह पाती हैं उनमें जंग छिड़ी हुयी है. एक उजड्ड मन चाहता है उसे बिहार की जितनी गालियाँ आती हैं, शुद्ध हिंदी में दे कर अपने मन का सारा बोझ हल्का कर लूं...इतने पर भी मन ना भरे तो कुछ गालियाँ खुद से इन्वेंट कर लूं और दिल के सारे गुबार को निकल जाने दूं...मगर यहीं एक उहापोह की स्थिति सी आ जाती है...कि लिखते हुए चूँकि बचपन से संस्कारी बनाया गया है तो ब्लॉग पर की चिट्ठियां भी 'आदरणीय पूर्व प्रेमी' की तरह ही शुरू होती हैं...भले ही बाद में मन उसमें लिखा जाये कि करमजले तेरे कारण जो मेरी रातों की नींद उड़ी है जिसके कारण मैं ऑफिस देर से गयी और मेरी महीने में तीन दिन की तनख्वाह कटी और जो उसके कारण मेरे को एक हफ्ते दारू पीने को नहीं मिली उसके कारण मैं तुम्हें जो जो न श्राप और गालियों से नवाज़ दूं मगर नारी का ह्रदय...भयानक कोमल होता है. आड़े आ जाता है और उसे काल्पनिक कहानियों में भी विलेन नहीं बनने देता है. अगर मैं बहुत मुश्किल से उसको बाँध बून्ध कर कोई किरदार रच भी देती हूँ तो उसका नाम कुछ और रखना पड़ता है. कुछ ऐसा जिसका उससे दूर दूर तक पाला न पड़ा हो.

मुझे हिंदी और अंग्रेजी, दो भाषाएँ बहुत अच्छी तरह से आती हैं मगर गड़बड़ क्या हो गयी है कि कई बार इस तरह के टुच्चे प्रेम में पड़ने के कारण मेरे पसंद के सारे अलंकरण समाप्त हो चुके हैं. अब इस नए प्रेम से उबरने की खातिर कोई नयी भाषा सीखनी होगी कि प्रेम को भी नए शब्द मिलें या कि विरह को. भाषा का अपना भूगोल होता है...अपनी कहानियां होती हैं. नयी भाषा में नए तरह के अलंकार रचने में सुभीता रहेगा. पिछले कुछ दिनों फ्रेंच भाषा सीखने की कोशिश की थी. उस वक़्त भाषा से प्रेम में थी...फिलहाल प्रेम से बिलकुल उकताई हुयी और नए किसी विषय की तलाश में हूँ. शायद ये देखना भी बेहतर होगा कि प्रेम से इतर भाषा सीखने में मोह होता है कि नहीं. दो भाषाएँ मिल कर नए तरह के बिम्ब बनाती हैं. जैसे दो पूर्व प्रेमियों की याद एक साथ अचानक से आ जाए तो जगहें क्रॉसफेड कर जाती हैं. दिल्ली के कनाट प्लेस में वोल्गा बहने लगती है...विस्की नीट पीने की जगह सोडा की ख्वाहिश होने लगती है या कभी कभी तो इससे भी हौलनाक नतीजे सामने आते हैं. ओरेंज जूस में टकीला मिलाने की इच्छा होने लगती है. गुनी जन जानते हैं कि वोडका और ओरेंज जूस का कोम्बिनेशन दुनिया के विशेषज्ञों द्वारा मान्यता प्राप्त है. कुछ वैसे ही जैसे कुछ तरह के प्रेम को अधिकारिक नाम और सम्मान मिले हैं. हंसिये मत...एक दिन फेसबुक पर स्टेटस तो डाल कर देखिये...१८ साल की सिंगल माल्ट को क्रैनबेरी जूस में मिक्स करके पी रहे हैं...पूरी दुनिया हदास में आ जायेगी. लोगों को इस बात से कोई मतलब नहीं होगा कि देर रात कौन सा गम गलत करने के लिए आप फेसबुक पर मेसेज डाल रहे हैं मगर सिंगल माल्ट की दुर्दशा से आत्मा दुखने लगेगी. उनकी इत्ती बद्दुआयें लगेंगी कि अगले पूरे साल न इन्क्रीमेंट होगा न बोनस मिलेगा. उतनी महँगी दारू खरीदने के लिए तरस जायेंगे आप.

का बताएं बाबू, हमको भाषण मत दो...हम वाकई बहुत सेल्फिश हैं. ई सब प्रेम का ड्रामा इसलिए है कि लिखने लायक जरा मरा मैटेरियल जुगाड़ हो सके. पोलिटिक्स पर लिखना आता तो कहीं जर्नलिस्ट बन कर चिल्लाते रहते 'जनता माफ़ नहीं करेगी'. त्यौहार का मौसम है. सेंटियापे को झाड़ बुहार के बाहर फ़ेंक के आते हैं. ई कोई बेमौसम लिखने का आदत साला. उफ़. वैसे मुहब्बत का मौसम भी तो यही है न? ठंढ का...फिर कोई घपला हुआ है कहीं...ई प्यार में गिरने के मौसम में प्यार से बाहर छलांगना पड़ रहा है. यही सद्बुद्धि मिला है! सफाई में फ्रेंच वाला नोटबुक सब मिला है...जाते हैं तुमको दो चार दो गाली फ्रेंच में लिख जायेंगे और फिर याद में गरियाते हुए कहेंगे Je t'aime जानेमन.

बहरहाल...बहका हुआ मन भाषा से पीने पर ऐसे फिसलता है जैसे धोये हुए सबुनियाये घर पर अनगढ़ गृहणी...नॉन सलीकेदार यु नो? पौधों में कम्पोस्ट डालना है, गमले उठा कर लाने हैं. दिया वगैरह लाना है. इतनी लम्बी लिस्ट है. इसी में लिख लेते हैं. तुम्हारे इस बेरहम, बेमौसम ईश्क़ को हम आज से १५ दिन बाद भूल जायेंगे. तुम्हारी कसम. 

20 October, 2014

कोई मौसम हो तुम...ठंढी रेत से...गुमशुदा


वो एक बेवजह की गहरी लम्बी रात थी कि जब लड़की ने फिर से अपने आप को किसी रेत के टीले पर पाया...ये पहली बार नहीं था. उसे अहसास था कि वो पहले यहाँ आ चुकी है. एक बहुत पुरानी शाम याद आई जो ढलते ढलते रात हो चुकी थी. अलाव जल रहे थे. ठंढ का मौसम था. कुछ ऐसे कि मौसम का स्वाद दिल्ली की सर्दियों जैसा था. वो आते हुए ठंढ के मौसम को जुबान पर चखते हुए कहीं दूर देख रही थी. रात को अचानक से टूटी नींद में कोई ऐसा लम्हा इतना साफ़ उग जाए...ऐसे लम्हे बहुत कम होते थे. उसे कब की याद आई ध्यान नहीं था मगर सारे अहसास एकदम सच्चे थे. रेत बिलकुल महीन थी...सलेटी रंग की...रात की ठंढ से रेत भी ठंढी हो रखी थी. उसके पैरों में लिपट रही थी. उसने जरा सी रेत अपनी मुट्ठी में भरी...रेत में उँगलियाँ उकेरीं...बहुत बहुत सालों बाद भी वो उसका नाम लिखना चाहती थी. रेत का फिसलता हुआ रेशम स्पर्श और ठंढ उसकी हथेलियों में रह गया. जैसे मुट्ठी में रेतघड़ी बना ली उसने. जैसे वो खुद कोई रेत घड़ी हो गयी हो. कितने लम्हे थे उसके होने के...जब कि वो वाकई में था...और उसके जाने के बाद कितने लम्हे रहेगी उसकी याद? बहुत सालों बाद उसने उसका नाम लेना चाहा...कोमल कंठ से...उँगलियों के ठंढे स्पर्श से उसके माथे को छूना चाहा...जानते हुए कि चाँद उसके कमरे की खिड़की पर ठहरा होगा अभी, चाँद से एक नज़र माँग लेनी चाही...बहुत साल बाद उसे एक नज़र भर देखना चाहा...एक आस भर छूना चाहा...जैसे उसके उदास चेहरे पर कोई छाया सी उभरी और बिसर गयी...लड़की भी कब तक चाँद से मिन्नत करती उसकी आँखें देखने की...रात भी गहरी थी...चाँद भी उदास था...कुछ न होता अगर वो जागा हुआ भी होता तो...लड़की कभी न जान पाती उसकी आँखों का रंग कैसा था. 

धीरे धीरे बिसर रहा था कैस उसकी आँखों से...रुबाब पर बज रही थी कोई प्राचीन धुन...इतनी पुरानी जितना इश्क था...इतनी पुरानी जितना कि वो वक़्त जब कि कैस की जिन्दा आँखों में उसकी मुहब्बत के किस्से हुआ करते थे. मगर रेगिस्तान बहुत बेरहम था...उसकी दलदली बालू में लड़की के सारे ख़त गुम जाया करते थे. मगर लड़की गंगा के देश की थी...उसने दलदल नहीं जानी थी. उसके लिए डूबना सिर्फ गंगा में डूबना होता था...जिसमें कि यादों को मिटा देने की अद्भुत क्षमता थी. 

वो भी ऐसी ही एक रात थी. कैलेण्डर में दर्ज हुयी रातों से मुख्तलिफ. वो किस्से कहानियों की रात थी...वो किस्से कहानियों सी रात थी. लड़की को याद आता आता सा एक लम्हा मिला कि जिसमें उसके नीले रंग की पगड़ी से खुशबू आ रही थी. उसने अपनी उँगलियों में उसके साफे का वो जरा सा टुकड़ा चखा था, रेशम. उसके बदन से उजास फूटती थी. जरा जरा चांदी के रंग की. कैस किम्वदंती था. लड़की को उसके होने का कोई यकीन नहीं था इसलिए उसकी सारी बातों पर ऐतबार किया उसने. यूँ भी ख्वाब में तो इंसान को हर किस्म की आज़ादी हुआ करती है. लड़की कैस के हाथों को छूना चाहती थी...मगर कैस था कि रेत का काला जादू...अँधेरी रात का गुमशुदा जिन्न...फिसलता यूँ था कि जैसे पहली बार किसी ने भरा हो आलिंगन में. 

वे आसमान को ताकते हुए लेटे हुए थे. अनगिनत तारों के साथ. आधे चाँद की रात थी. आकाशगंगा एक उदास नदी की तरह धीमे धीमे अपने अक्ष पर घूम रही थी. लड़की उस नदी में अपना दुपट्टा गीला कर कैस की आँखों पर रखना चाहती थी. ठंढी आँखें. कैस की ठंढी आँखें. दुपट्टे में ज़ज्ब हो जाता उसकी आँखों का रंग जरा सा. बारीक सी हवा चलती थी...कैसे के चेहरे को छूती हुयी लड़की के गालों पर भंवर रचने लगती.

लड़की की नींद खुलती तो सूरज चढ़ आया होता उसके माथे के बीचो बीच और रेत एक जलते हुए जंगल में तब्दील हो जाया करती. तीखी धूप में छील दिया करती रात का सारा जादू. उसकी उँगलियों से उड़ा ले जाती स्पर्श का छलावा भी. आँखों में बुझा देती उसे एक बार देखने के ख्वाहिश को भी. दुपहर की रेत हुआ करती नफरतों से ज्यादा चमकदार. लड़की की पूरी पलटन सब भूल कर वापस लग जाती खुदाई के कार्य में. उस लुटे हुए पुराने शहर में बरामद होता एक ही कंकाल...गड्ढों सी धंसी आँखों से कभी नहीं पता चल पाता कि क्या था उसकी आँखों का रंग. उसका नीला रेशम का साफा इतना नाज़ुक होता जैसे कि लड़की का दिल...छूने से बदलता जाता रेत में. ऐसे ही गुम क्यों न हो जाती कैस की याद? 

उसे भूलना नामुमकिन हुआ करता. लड़की रातों रात दुहराती रहती एक ही वाक्य 'वो सच नहीं था...वो सच नहीं था'. वो भुलावा था. छल था. मायावी थी. तिलिस्मी. लड़की की कहानियों का किरदार.  

कैस...उफ़ कैस...कि कैस कोई किरदार नहीं था...प्रेम को दिया हुआ एक नाम था बस. एक अभिमंत्रित नाम कि जिसके उच्चारण से जिन्दा हो उठता था प्रेम...किसी के भी दिल में... 

फिर वो लड़की मीरा की तरह कृष्ण कृष्ण पुकारे या कि मेरी तरह तुम्हारा नाम.

15 October, 2014

पतिता

एक रोज़ उदात्त हो कर
तुम माफ़ कर देना चाहोगे मेरे सारे गुनाह
खोल दोगे दरवाज़ा
कि मैं वापस दाखिल हो सकूँ तुम्हारी जिंदगी में
चाहोगे कि फिर से घर की क्यारियों में रोप दूं
इश्क के नन्हे बिरवे
फसल पके, तैयार हो और हम पहले की तरह बैठे डाइनिंग टेबल पर
रेड वाइन पीते हुए तुम कहो कि मेरी आँखें खुदा की आँखों जैसी हैं
कि मेरी खुशबू से उठता है एक पाकीज़ा अहसास तुम्हारे जिस्म में
कि तुम मुझे छूने से ज्यादा मेरी इबादत करना चाहते हो

उस रोज़
मैंने क़ुबूल लिए होंगे अपने सारे अपराध
कर दिए होंगे सरकारी दस्तावेज़ पर दस्तखत
जब मैं नाम गिनाउंगी तुम्हारी पुरानी प्रेमिकाओं के
जज हत्याओं को कहेगा 'क्राइम ऑफ़ पैशन'
और मुझपर रियायत बरतते हुए कम कर देगा मेरी सजा
सिर्फ इक्यासी सालों तक की उम्रकैद बनिस्पत मृत्युदंड के

मुझे तब भी न आएगा प्रायश्चित का सलीका
मैं तब भी सीखूंगी काला जादू
और दु:स्वप्नों में नोच लूंगी उनकी नीली आँखें
रचती रहूंगी उनके नाम से अभिशप्त, आत्मघाती किरदार
कि जब तक ये उनके जीवन का सच नहीं हो जाता

मगर इतने में भी अगर नहीं मिलेगा सुकून
तो मैं शैतान के पास बेच आउंगी अपनी रूह
कर लूंगी चित्रगुप्त के साथ कोई अवैध करार
और उनके नाम लिखवा दूँगी प्रताड़नायें
और एक बेहद लम्बी उम्र

तुमसे आखिरी बार मिलने के रोज़
बताते हुए कि कितना गहरा है इश्क
चूल्हे पर रखते हुए तुम्हारे पसंद की चाय
रिसने दूँगी बहुत सारी ज्वलनशील गैस
तुमसे कहूँगी मेरे लिए जला दो एक सिगरेट
धमाके से लगेगी आग
कि जिसमें तुम्हारे साथ जल मरूंगी
बिल्कुल किसी सती स्त्री की तरह.

उस लड़की की डायरी

कुछ है. सीने में अटका हुआ.
कुछ. बाकी रह जाता है, मेरे सब कुछ लिखने के बाद भी.
कुछ. मैं कहना चाहती हूँ मगर बहुत सारी बातें कहने के बाद भी कह नहीं पाती.

मैं अपनेआप को एक्सेप्ट नहीं कर पा रही जैसी मैं हूँ...और मुझे जैसे बदलाव चाहिए उनके लिए मैं कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रही. जैसे कि साधारण सी बात है कि वजन ५८ हो रखा है. मैं इसमें से सिर्फ ८ किलो लूज कर लूं तो मुझे मन की शांति मिल जायेगी. टेक्निकली मैं किसी भी जिम में जाउंगी तो इंस्ट्रक्टर कहेगी कि एक महीने में २ किलो के हिसाब से ये बस चार महीने की बात है. मैं सुनूंगी, समझूँगी...मगर कर नहीं पाऊँगी. आजकल अपने वेट को लेकर बहुत ज्यादा कौन्सियस हो गयी हूँ. खूबसूरती सिर्फ वजन पर डिपेंड नहीं करती. मैं अपनाप से कहना चाहती हूँ कि खुद की आँखों में देखना चाहिए...यहाँ अब ही वैसी ही चमक मौजूद है...मुस्कराहट वैसी ही है...दोस्तों के साथ मैं वैसे ही हंसती खिलखिलाती हूँ...मगर इन सबके बावजूद एक और आँख उग गयी है मेरे अन्दर जो मुझे हमेशा ही क्रिटिकल दृष्टि से देखती रहती है और कहती रहती है कि मैं अच्छी नहीं लग रही...कि ड्रेस मुझ पर नहीं फब रही.

मैं मानसिक रूप से बीमार होती जा रही हूँ...ये जरा सा वजन जैसे मेरे दिमाग पर रखा हुआ है या जैसे मेरे सीने पर...हर समय बदहवासी सी लगती है. ऐसा नहीं है कि मैं प्रयास नहीं करती. जॉगिंग शुरू की थी तो कुछ दिनों में घुटने में दर्द होने लगा. मुझे अपाहिज हो जाने से सबसे ज्यादा डर लगता है. घर में नानी के घुटने ख़राब हो गए थे और दोनों को रिप्लेस करना पड़ा था. तब से मैं अपने घुटनों को लेकर बहुत जायदा हैरान और परेशान रहती हूँ.

स्विमिंग का कब से प्लान बना रखा है. घर के पास ही स्विमिंग पूल है. सुबह के टाइम पर ही वहां पर क्लासेज होती हैं. मैं जानती हूँ कि अगर मैंने ज्वाइन कर लिया तो मैं नियमित जाउंगी भी. मुझे तैरना अच्छा लगता है. अब मैं पानी में डूबती भी नहीं. अपने से मेहनत कर के मैंने फ्लोटिंग सीख ली है. मगर मैं रोज़ सिर्फ सोचती हूँ कि जाउंगी और जा नहीं पाती. मैं अपनी नज़र में अजीब किस्म की ख़राब दिखने लगी हूँ. चेहरा...माथा...आंखें सब. और मैं महसूस करती हूँ कि बीमार होने के लिए कोई वजह हो जरूरी नहीं...हम कभी कभी माँग कर ऐसी कोई बीमारी बुला लेते हैं. इस टेंशन के कारण मुझे खाना खाने से अरूचि हो गयी है. मैं अक्सर रात का डिनर स्किप कर देती हूँ. सुबह का नाश्ता समय पर खाती हूँ पर उसके अलावा खाना खाने में अजब सी गिल्ट फीलिंग होती है.

कल उससे बात कर रही थी तो वो बोल रहा था मैं सोचती बहुत ज्यादा हूँ. मैं भी जानती हूँ कि मैं ओवर अनलाईज करती हूँ चीज़ों को. मगर मैं किसकी आँखों से देखूं खुद को और सोचूं कि मैं अच्छी दिखती हूँ. और अच्छा दिखना कब से मेरे लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया. पहले ऐसा नहीं था क्यूंकि पहले वाकई सोचना नहीं पड़ता था. ऐसा कोई परिधान नहीं था जो मुझपर अच्छा नहीं लगता था. मैं ढीली ढाली टीशर्ट और डेनिम पहन लेती थी तो अच्छा लगता था...कुरता जींस हो या कि सलवार सूट....साड़ी पहनते हुए तो कभी सोचना ही नहीं पड़ा. ये कैसी अजीब बेईमानी है कि भागती हुयी इस कीमती जिंदगी का इतना सारा हिस्सा ये सोचने में लगाया जाए कि मैं क्या पहनूं कि मोटी ना लगूं. मैं ऐसी नहीं हुआ करती थी. आजकल मुझे साड़ी पहनने में भी टेंशन होती है. लोग कहते हैं कि ये सारा फितूर मेरे दिमाग का है...मैं अच्छी लगती हूँ...मगर मुझे फिर लगता है कि वो मुझसे बहुत प्यार करते हैं और मेरा दिल रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं.

मैं ऐसी नहीं थी. मैं चीज़ों को लेकर इतना सोच सोच के अपना दिमाग खराब नहीं करती थी. मुझे अगर कोई प्रॉब्लम होती थी तो मैं उसका सलूशन खोजती थी...सोच सोच के उसपर वक्त बर्बाद नहीं करती थी. तो मुझे क्या होता जा रहा है? आइडियल कंडीशन में...जॉब छोड़े हुए ५ महीने हो गए हैं...मैंने इतने में जिम या स्विमिंग ज्वाइन करके खुश रह सकती थी कि मैंने कोशिश की. मगर नहीं. उफ़. मैं पागल हुए जा रही हूँ. 

01 October, 2014

बर्बादियों के ब्लूप्रिंट


एन्टीक की एक दूकान है...जहाँ सब कुछ सेकेंड हैण्ड मिलता है...बेशकीमत और ठुकराया हुआ. कोने की दीवार पर लगा हुआ है एक पुराना आइना जिसके सोने की किनारी में लगी हुयी है जरा सी ठेस. जैसे उसने ब्रेक अप के दिन तोड़ना चाहा था अपना दिल...न सही अपनी आँखों में दिखता उस लड़के का अक्स...मगर ये सब तोड़ना कहाँ आता था मासूम लड़की को. उसने मोबाईल फेंका था आईने की ओर और उससे जरा सा टूट गया था फ्रेम. बस. मगर उस आईने को कभी मत लाना अपने घर. वो आइना सच पढ़ लेता है. उसमें हमेशा दिखेगा उस लड़की का पुराना प्रेमी. या कि फिर तुम्हारे प्रेमी की अनन्य प्रेमिकाएं. उस आईने को देखते हुए पागल हो जाओगी तुम. आखिर तोड़ डालोगी उसे और टूटे आईने के टुकड़ों से काट लोगी अपनी कलाई...इतना खून बहेगा कि जिसमें लिखी जा सकती होंगी उस खोये हुए प्रेमी को लौटा लेने लायक चिट्ठियां...मगर उसके लौट आने के पहले तुम जा चुकी होगी कभी न आने के लिए.

वहाँ रखी होगी एक पुरानी ऐशट्रे. ऐसी जैसे तुमने कभी देखी न हो. एक नन्ही सी संदूकची जैसे. हाँ वैसी ही जैसे तुमने ख़त सहेजने के लिए खरीदी थी कभी. धुंआ इतना घना होगा कि कुछ दिखेगा नहीं...सलेटी धुएं के गुच्छे तुम्हारी पलकों के सामने घूमने लगेंगे...दादरा की ताल पर ठुमकते. लोहे की बनी उस ऐश ट्रे को छूना आँखें बंद कर के...उँगलियों के पोरों से...किनारी पर उभरे होंगे उसके नाम के दो अक्षर. उन्हें महसूस करना...अन्धकार में उभरेगा उस लड़की का सियाह कन्धा...जिसपर होगा गहरा काला टैटू...इर्द गिर्द की त्वचा सूजी हुयी होगी. खून के रुके हुए रंग में लिखा होगा...लव इज टेम्पररी, स्कार्स लास्ट फॉरएवर.

एक मेज़ होगी न वहां. प्रेम करने की मेज़. उस मेज़ का विस्तार इतना असीम होगा जैसे उसकी बाँहें. तुम धोखे में पड़ जाओ कि मेज़ है या पलंग. इस सिरे से उस सिरे तक उस गोल मेज़ में कोई कोना नहीं दिखेगा तुम्हें. ऐसा झूठा जैसे उसका प्रेम. तुम्हारी सोच के साथ खिलवाड़ करता. अपनी जमीने हकीकत को सिद्ध करने के लिए तुम्हें तोहफे में दिया करता बोन्साई बरगद. गहरे लाल रंग के गमले में. टेबल होगी शुद्ध महोगनी की. लकड़ी से आएगी रूदन की आवाज़. खरोंचों में ठहरे रह गए होंगे नेलपेंट के कतरे. नीले. गहरे नीले. उसकी आँखों जैसे. तुम जान जाओगी कि सिर्फ ताबूत की लकड़ी से बनी हो सकती है ऐसी मेज़. फिर भी तुम चाहोगी कि मरने के बाद तुम्हारी ममी बनायी जाए और इसी टेबल पर लिटा दिया जाए तुम्हें. क़यामत तक के लिए.

माफ़ करना, मैं तुम्हें भटकाना नहीं चाहती...मगर सुनो न...ऐसी ही किसी दुकान से उठा लाना कोई सेकंड हैण्ड प्रेमी,

उसे बना के रखना बंधक मेज़ की किसी अँधेरी दराज़ में...कहानी के किसी अधूरे चैप्टर में...उसे सिखाना चारागरी...कि अगली बार जब दिल टूटेगा तो उसे आएगा रफ्फू करना...उसे आएगा टाँके डालना...तुम्हारी दरारों में वो लगाएगा क्यारियां...उनमें खिलेंगे पीले सूरजमुखी...तुम्हारी उदासियों पर रखेगा कर्ट कोबेन की आवाज़ का मरहम...तुम्हारी मृत्यु पर तुम्हारे माथे पर रख सकेगा एक संजीवनी बोसा.

30 September, 2014

अभिशप्त हृदया


पूर्ण अंधकार का एक क्षण. सूरज की आखिरी किरण के जाने के बहुत देर बाद और चन्द्रमा के अनुपस्थित होने का कोई दिन. अंगदेश की नगरवधू का प्रांगन. चौखट के पास संध्या बाती करती हुयी तिलोत्तमा. अन्धकार में कोमलता से प्रज्वलित होती उसकी कमनीय आँखें. याचक की मुद्रा में बैठी अंगदेश की महारानी मणिकर्णिका.
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"तिलोत्तमा...क्या तुम्हें ज्ञात है कि तुम्हारे सौंदर्य से मोहित होकर आर्य अपने राजधर्म की उपेक्षा कर रहे हैं. निकट के राज्यों से उपद्रव की घटनाएं सामने आ रही हैं...और अगर ऐसा ही चलता रहा तो राज्य का सर्वनाश निश्चित है. क्या प्रजा के प्रति तुम्हारी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है? तुम नगरवधू हो..." 

"क्षमा करें महारानी, नगरवधू होने के कारण मेरा अधिकार है कि मैं अपना प्रेमी चुन सकूं...इस आचरण से राज्य का कोई विनाश होता मुझे नहीं दिखता." 

"नहीं दिखता क्यूंकि वासना में तुम्हारी आँखें बंद हो गयी हैं तिलोत्तमा...और तुम्हारे साथ आर्य की भी...क्या इस शरीर से ऊपर तुम्हें कुछ नहीं दिखता?" 

"महारानी, आपसे एक ही विनती है, इस शरीर की कीमत को कम मत आंकिये...इसके कण कण में चरम बिंदु तक पहुँचने और पहुंचाने की क्षमता है...इस शरीर की लोच के लिए बचपन से मैंने कई कठिन आसनों को साधा है...गले की मिठास के लिए गुरुओं से दीक्षा ली है...ये अंगदेश की नगरवधू का शरीर है...बदन की लोच ही नहीं, वाणी की मिठास भी कठिन साधना का परिणाम है" 

"इस राज्य को तुम्हारी आवश्यकता नहीं है...मैं तुम्हें आदेश देती हूँ कि तुम इसी पहर राज्य की सीमा से बाहर निकल जाओ. अगर तुमने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया तो तुम्हें काल कोठरी में डाल दिया जाएगा" 

"क्षमा महारानी, मगर मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकती. मैंने राज्य के उत्सर्ग के लिए वचन दिया था कि जब तक मेरे शरीर से सुख का एक कतरा निचोड़ लेने लायक प्राण बाकी हैं, मैं इस भूमि को नहीं त्यागूंगी. आप जिसे अनावश्यकता कहती हैं, वो ही मेरे जीवन का उद्देश्य है. इस सुख को चरम सुख कहते हैं क्यूंकि इस सुख के सामने बाकी सारे सुख छोटे हैं...मेरे लिए ये सबसे बड़ा यज्ञ है जिसमें स्वयं की आहुति देनी होती है...पूर्णाहुति. 

"क्यूँ...आज तक इस शरीर को खो कर क्या पाया है तुमने?"
 
"महारानी...इस शरीर के बदले मैंने वो पाया है जो सिन्दूर की गहरी रेखा में भी नहीं बंध सका...आपकी हर बेड़ी से मुक्त...और मेरी हर इच्छा का बंदी...महारानी...मैंने इस शरीर को खो कर वो पाया है जो अतुल्य और अमूल्य है...वो निधि आपकी ही थी...आपने आत्मा का समर्पण किया मगर शरीर का नहीं...मैंने इस शरीर के मोल में सिर्फ एक ही चीज़ पायी है...
ह्रदय...सम्राट का ह्रदय."

"मैं तुमसे यहाँ सम्राट के ह्रदय की याचना करने नहीं आई हूँ. मुझे उनका शरीर चाहिए. राज्य के सिंहासन पर उनकी उपस्थिति चाहिए. भले ही वो रात्रि के सारे पहर तुम्हारे प्रांगन का रसस्वादन करते रहें मगर दिन के तीन प्रहर वे प्रजा के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करें, तुमसे इतनी ही प्रार्थना करनी है मुझे." 

"इसका मोल आप क्या दे सकती हैं महारानी?" 

"ओह, तुम इतनी क्षुद्रहृदय होगी मुझे आशंका नहीं थी...बोलो...कितनी स्वर्ण मुद्राएं चाहिए तुम्हें?" 

"आप फिर से मेरा मोल कम आंक रही हैं महारानी...पुरुष समर्पण नहीं जानता...उसके समर्पण में भी अहंकार होता है...मुझे एक स्त्री का समर्पण चाहिए...शरीर के बदले शरीर" 

"अर्थात?" 

"जितनी देर महाराज राज्य के कार्य में उपस्थित रहेंगे, आप मेरे प्रांगन में रहेंगी...मुझे आपका शरीर चाहिए. आपका पूर्ण समर्पण चाहिए. कहिये. दे सकेंगी?"
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और इस तरह महारानी ने अपना शरीर देकर राज्य के उत्सर्ग के लिए महाराज का ह्रदय मोल लिया. किसी भी शिलालेख में उनके इस त्याग का उल्लेख नहीं मिलता मगर आज भी अंगदेश की स्त्रियाँ सुहाग के लोकगीतों में उनके त्याग के चर्चे करती हैं. दुल्हन के श्रृंगार में गालियाँ पढ़ती हैं कि कोई तिलोत्तमा उनके पुरुष के जीवन में कभी प्रवेश न करे.

22 September, 2014

यस्टरडे, आइ लव्ड यू फौरएवर


तुमने सिगरेट छोड़ दी. मैंने शुरू कर दी. दुनिया में बैलेंस बरक़रार हो गया फिर से. तुम भी न. कैसी कैसी चीज़ें करते हो. अब जैसे देखो तुम किसी रोड ट्रिप पर निकल जाओगे और मैं कहीं खाली जमीन का प्लाट लेकर उसपर अपने सपनों के ब्लूप्रिंट खड़े कर दूँगी. तुम जिस दिन पब्लिक स्पीकिंग के क्लासेज ज्वाइन करोगे, मैं मौन व्रत रख लूंगी. दुनिया ऐसे ही हिसाब से चलती है मेरी जान. हम एक फल्क्रम के दो छोरों पर झूलते रहते हैं जरा जरा सा. खुदा नाराज़ हो जाएगा अगर हम करीब आने लगे...यु सी, दुनिया का बैलेंस हमारे छोटे छोटे कारनामों से बिगड़ सकता है. 

अच्छा ये बताओ, पिछली बार जब तुम प्लूटो पर गये थे तो उसे बताया कि गुलज़ार ने उसके नाम से एक किताब लिखी है? नहीं क्या? उफ्फोह...तुम इतने भुलक्कड़ कबसे होने लगे. देखो जरा शर्ट की बायीं जेब में, एक पुर्जी रखी होगी जिसमें बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है कि प्लूटो को कौन सा मेसेज देना है. अब दुबारा जाने में तो एक उम्र निकल जायेगी. तुम यूँ ही सारे प्लैनेट्स की घुमक्कड़ी करते रहे तो मेरे पास घर लौट कर कब आओगे? तुम्हें मालूम है न मेरा मूड ख़राब होता है तो चाँद बौराने लगता है. ज्वार भाटा में जाने कितने गाँव बह जायेंगे. मछुआरे लौट कर किनारे नहीं आ पायेंगे. तुमसे एक काम ढंग से नहीं होता है. बिचारा प्लूटो. कितना उदास है. कोई उसका दुःख बाँटने नहीं जाता.

चलो, जाने दो. वो जो जुपिटर का छल्ला मैंने मंगवाया था, वो जरा निकाल के दो, जा के मेटलर्जी डिपार्टमेंट को दे आऊँ. उससे एक नथ बनवानी है. शिवांगी भी न, एकदम पागल है. जुपिटर के छल्लों की नथ पहनेगी! ऐसे दोस्तों के कारण मेरी जान जायेगी किसी दिन. मान लो कोई तरह की पोइजनिंग हो गयी तो? वो तो अच्छा हुआ कि मेटलर्जी में मेरा एक एक्स बॉयफ्रेंड काम करता है. उसे मेरे ऐसे बेसिरपैर की गुजारिशों की आदत है. हफ्ते भर में टेस्टिंग हो जायेगी. सब ठीक रहा तो शादी के हफ्ता भर पहले नथ रेडी हो कर आ भी जायेगी. मैंने वी को स्टारडस्ट के लिए बोल दिया था. वो तुम्हारे स्पेसशिप की सफाई के बाद के पानी को फ़िल्टर कर लेगा. एक नथ के लायक स्टारडस्ट मिल जायेगी उसमें से. तुम अब नखरे मत करो. उसने स्पेसशिप क्लीनिंग पर अनगिनत किताबें पढ़ रखी हैं. मैं किसी इंडस्ट्रियल जगह भेजूंगी तो मुझे स्टारडस्ट कलेक्ट नहीं करने देंगे. फिर शिवांगी का रोना धोना कौन मैनेज करगा? तुमसे हो पायेगा तो बोल दो. वैसे भी स्पेसशिप पुराना हो गया है. जरा टूट ही गया तो ऐसी कौन सी मुसीबत आ जायेगी. 

आजकल तुम्हारी आँखों में सूरजमुखी नहीं खिलते. आजकल मेरी आँखों में अमावस नहीं उगती. बैलेंस. यू सी. पिछली बार तुम मेरे शहर आये थे तो बर्फ पड़ रही थी. तुमने मुझे आइस स्केटिंग सिखाई थी. मैं अब भी आईने पर भाप देखती हूँ तो तुम्हारी साँसों की गर्मी महसूस होती है. तुम्हारी धड़कनों का गैर सिलसिलेवार ढंग से मेरा नाम पुकारना याद आता है. याद के शहर में कोई बैलेंस नहीं रहता. तुम बेतरह याद आते हो. बहुत सी सिगरेट पीने के कारण जुबां का जायका चला गया है. एक एडिक्शन के कारण दूसरे से उबर गयी हूँ. आजकल चोकलेट नहीं खाती हूँ. विस्की को लेकर कितनी जिद्दी हुआ करती थी याद है, जेडी के अलावा कुछ अच्छा नहीं लगता था. आजकल कोई सी भी विस्की चल जाती है. जिससे भी तुम्हारी याद के मौसम जरा कम दर्द पहुचाएं. जरा सी नंबनेस चाहती हूँ. दिल के ठीक पास. जहाँ तुम्हारी मुस्कान अटकी हुयी है. डॉक्टर कहते हैं वाल्व में कचरा अटका हुआ है...कोलेस्ट्रोल...मैं मुस्कुराती हूँ. तुम फिजिकली प्रेजेंट होते हो. वहां भी जहाँ तुम्हारे होने का कोई अंदेशा नहीं होता.

तुमने अपनी जिंदगी में बहुत से नए दोस्त बना लिए. मैंने अपनी जिंदगी से बहुत से बेफालतू लोग उठा कर फ़ेंक दिए. दूर के एक गृह पर मैंने एक स्टूडियो अपार्टमेंट बुक कर लिया. तुम मेटालिका सुनने लगे और मैं संतूर सीखने लगी. हम एक दूसरे के बिलकुल विपरीत होते चले गए. अबकी बार मिलोगे तो देखना. तुम बिलकुल सड़क पर चलते किसी आम साइंटिस्ट की तरह साधारण दिखोगे...मैं विरह की दीप्ति में निखर कर बिलकुल असाधारण दिखूंगी. तुम मुझे पहचान लोगे. मैं तुम्हें अनदेखा कर दूँगी.

तुम्हें मुझसे प्यार हो जाएगा. मैं तुम्हें भूल जाउंगी.
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PS: तुम मुझे देख कर मुस्कुराओगे...बस...सारा बैलेंस वापस से गड़बड़ा जाएगा. 

19 September, 2014

ब्लैक टी विद अ स्लाइस ऑफ़ लेमन

भोर से तीन बार उठ चुकी हूँ मगर मौसम में ठंढक कुछ ऐसी है कि वापस कम्बल ओढ़ कर सो जाने का दिल करता रहा. अब आखिर झख मार के उठी हूँ कि दस बजने का अंदाजा हो रहा था. ये ख्वाब नींद के किस पहर देखा मगर ठीक ठीक याद नहीं है.

सामने चाय के बगान वाले ऊंचे पहाड़ थे...और आसपास बहुत से पेड़. सब कुछ इतना हरा था जैसे ग्रीन फ़िल्टर से दिख रही हों चीज़ें. ये केरल की कोई जगह थी. ठीक कौन सी जगह याद नहीं. मैं अकेले किसी ट्रिप पर निकली थी कि जाने क्या देखना था मुझे. इन पहाड़ों पर जाने के लिए सीढियाँ थीं. पत्थर की पुरानी सी सीढ़ियाँ जिनमें कहीं कहीं काई लगी हुयी थी. जरा जरा सी ठंढी हवा बह रही थी. आँख भर देखने के बाद भी सब इतना सुन्दर था कि जैसे वाकई आँखों में समा नहीं रहा था. मुझे किन तो लोगों की याद आ रही थी. किसी के शहर को जानना उस व्यक्ति को जानने जैसा होता है. मुझे वैसे भी जगहों से ज्यादा लगाव होता है लोगों के बनिस्बत.

मैं वहां मुग्ध खड़ी थी. मुझे किसी के गाँव जाना था उससे मिलने. उसके गाँव की तसवीरें देखी थी मैंने. वहां एक नदी बहती थी. इस खूबसूरत नज़ारे में क्रॉसफेड हो रहा था उसका चेहरा और उसकी आँखें. कोई आधी दूर चली थी तो जंगल में एक गेस्टहाउस था जहाँ मेरी जान पहचान के कुछ लोग थे. इनमें कुछ कॉलेज की क्लासमेट्स थीं और एक ऑफिस के जानपहचान वाली थी. ये दोनों एक जगह कैसे हो सकती हैं, या एक ट्रिप पर कैसे आयीं मुझे कोई आईडिया नहीं. उनमें से एक के पास मेरा पुराना हैंडीकैम था. कोई सात साल पुराना होने के बावजूद वो बहुत अच्छे से काम कर रहा था. फिर वहां अचानक से मेरे कुछ पुराने बक्से दिख रहे थे. वो कमरा जैसे कोई स्टोरेज रूम था जिसमें मेरी खोयी हुयी चीज़ें जमा हो गयीं थीं. मेरी शादी के बाद की एक खोयी हुयी झांझर मिली उसमें...बहुत सारे घुँघरू थे. मैंने अपने पैरों में डालने की लिए देखी तो पाया कि अट नहीं रही. पहले शायद मेरे पैर बहुत पतले और सुन्दर रहे होंगे. हम तीनो लड़कियां हँस रही थीं फिर.

वहां कोई तो प्रेजेंटेशन होने लगा. एक हॉल था. लोगों को कहानियां सुनानी थीं. लोग अलग अलग डेस्क पर बैठे थे. मैं अपने किसी दोस्त के साथ थी जिसे कोई तो काम था. वो पेपर्स में कुछ कुछ तो लिख रहा था. फिर सीन चेंज हुआ और मैं अचानक से वापस उसी स्टोरेज वाले रूम में थी और मैंने पाया कि मेरे पास बहुत सारा सामान है जिसे लेकर मैं आगे नहीं बढ़ सकती. फिर मैंने अपनी दोनों दोस्तों से कहा कि कुछ चीज़ें वो अपने साथ वापस ले जायें. मैं सिर्फ उतनी सी चीज़ें अपने साथ लेकर जाना चाहती थी जो जीने के लिए एकदम जरूरी हों. एक नोटबुक, मेरी कलमें, पानी की एक बोतल, मेरा फ़ोन और कैमरा. एक छोटे से बैग में ये सब आ गया. मैं जंगल में फिर से अकेली निकल पड़ी. सब कुछ ख्वाबों जैसा था. मैंने ऐसे जंगल देखे थे मगर सिर्फ फिल्मों में...भारत में ऐसी कोई जगह है भी यकीन नहीं हो रहा था.

सुबह नींद खुली फिर भी जरा जरा सी वहीं रह गयी हूँ...ढलानों वाले चाय के बगान में...सोचती हूँ अब फाइनली चाय पीना शुरू कर ही दूं...नींद में आते बगान यही गुजारिश कर रहे होंगे...ब्लैक टी...जरा सी नीम्बू की खुशबू लिए हुए. जगह का नाम याद आ रहा है जरा जरा सा...वायनाड. जाना है मुझे. जल्दी.

17 September, 2014

मेरा जिद्दी, बिगड़ैल, पागल हीरो

वो कॉपी के पन्नों में नहीं रहना चाहता. जिद्दी होता जा रहा है मेरी तरह. कहता है रोज रोज अलग अलग रंग की सियाही से लिखती हो...कभी गुलाबी, कभी फिरोजी, कभी पीला...मुझे हैलूसिनेशन होने लगे हैं. कमसे कम लिखते हुए तो एक जैसे मूड में लिखा करो. ये कागज़ के पन्ने हैं, तुम्हारे शहर का आसमान नहीं कि हर शाम बदल जाएँ. मैंने यूँ ही सर चढ़ा रखा है उसे. कहता है भले ही आते वक़्त सिर्फ मुस्कुराओ मुझे देख कर, लेकिन अगर आखिरी हर्फ़ के बाद वाले सिग्नेचर के पहले मुझे हग नहीं किया तो रूठ जाऊँगा...फिर हफ्ते भर तक दूसरे किरदारों के बारे में लिखते रहना...और सारी गलती तुम्हारी ही होगी.

बाबा रे उसके चोंचले दिन भर बढ़ते जा रहे हैं. कल कहने लगा कि मुझे सिगरेट नहीं सिगार चाहिए. विस्की फ्लेवर्ड. दिल तो किया चूल्हे में झोंक दूं उसे...कमबख्त. बड़ा आया सिगार पीने वाला. जब रचना शुरू किया था उसे तो कैसी मासूमियत से टुकुर टुकुर देखता था. जो बोलती थी सुनता था, जो पीने को देती थी पीता था...मगर जाने कब उसमें जान आने लगी और अब तो एकदम बिगडैल बच्चा हो गया है. तुनकमिजाज. सरफिरा. बाइक पंचर थी और कार में पेट्रोल कम तो सोचा पैदल ही ले आती हूँ, बगल में ही खोमचा है तो जनाब की फरमाइश कि वो भी जायेंगे खुद से ब्रांड पसंद करने वरना मैं सबसे सस्ता और घटिया सिगार ला दूँगी. एक वक़्त था कि बीड़ी पी के भी खुश रहता था और आज ये मिज़ाज कि ब्रैंड के बारे में फिनिकी हो रहे हैं जनाब.

तुम्हारा ऐसा टेस्ट कहाँ से डेवलप हुआ रे...तुमरे जान पहचान में तो कोई नहीं जानता कि सिगार नाम की कोई चीज़ भी होती है. सब दोस्त लोग तो छोटे शहर से आये हैं, उन्हें क्या मालूम कि सिगार क्या होता है, उसमें फ्लेवर्स कौन से होते हैं. तुमको मालूम भी है, एक सिगार १८० रुपये का आता है. इतने में अच्छी वाली सिगरेट का एक पूरा पैकेट आ जाता है, २० सिगरेट होती हैं उसमें. ऐसे ही सिगार पी पी के कड़वे हो जायेंगे होठ, फिर कौन लड़की किस करेगी तुमको. फिर तुम कहोगे कि तुम्हारे जैसी कोई लड़की रचें हम कि जिसको सिगार पीने का शौक़ हो. बाइक्स का शौक़ कम नहीं था कि ये नए फितूर पालने लगे हो. मेरे बॉयफ्रेंड से दूर रहो तुम. उसके सारे रईसों वाले शौक़ हैं. खुद तो साहबजादे लाटसाहब हैं, बड़ी ऐड एजेंसी में काम करते हैं, उनको पैसों की कोई दिक्कत नहीं है. मुझे हिंदी के गरीब लेखक के किरदार ऐसे शौक़ पालने लगे तब तो निकला मेरा खर्चा पानी. 

एक तो आजकल तुम्हारा दिमाग जाने कहाँ बौराया रहता है. मालूम कल रात को ब्रश करने के बाद नल बंद करना भूल गए थे तुम. बूंद बूँद पानी सपने में मेरे सर पर टपकता रहा. एक तो नींद गीली रही, ख्वाब गीले रहे, उसपर उनींदे लिखी कहानी गीले कागज़ से धुल गयी. तुमको जब मालूम है कि हम इंक पेन से लिखते हैं और अक्सर आधी नींद में लिखते हैं तो कमसे कम ढंग से नल बंद नहीं कर सकते थे तुम. मेरी ही गलती थी कि कागज़ से निकाल कर घर में धर दिया तुमको. ये सब करने के पहले शऊर सिखाना था तुम्हें. जाहिल ही रहोगे. घर को कबाड़खाना बना रखा है. न कलमें मिलती हैं न टिशु पेपर. कल तुम्हारी ही हिरोइन को रच रही थी कि लिपस्टिक जरा सा लाइन से बाहर हो गयी. अब मैं कितना भी खोज लूं, तुम्हारा धरा हुआ सामान कभी मेरे हाथ आया है जो कल आता. लाख मन करो कि मेरे सामान को हाथ मत लगाओ, तुमको समझ में ही नहीं आता है. लड़की का निचला होठ जरा ज्यादा पतला रह गया है और बायीं ओर को झुका हुआ. मानसिक रोगी लगती है एकदम. कितनी तो खूबसूरत मुस्कान सोची थी मैंने. एकदम स्माइल स्पेशियलिस्ट जैसे. दोनों गालों में गहरे डिम्पल. मगर तुम्हारी मनहूस किस्मत में यही बंदरिया लिखी थी तो मैं क्या करूँ. कहा है कि मेरे स्टडी से कमसे कम अलग रहा करो. इतना बड़ा घर है, कुछ काम धंधा ही सीख लो. कब से पेन्टिन्ग सिखाने की कोशिश कर रही हूँ तुम्हें लेकिन तुम हो कि ब्रश देखते खुराफात सूझती है. घर की सारी दीवारों में चीस चुके हो लेकिन एक काम की लकीर नहीं खींची है. बुरी आदत दुनिया भर की अपना लोगे, ढंग की चीज़ सीखने में तुम्हारा जान जाता है. 

चुप चाप से कोना पकड़ के बैठो और वो किताब रखी है मुराकामी की, काफ्का ऑन द शोर, उसको पढ़ो. अगले चैप्टर में तुम्हें मुराकामी को कोट करना है. बिना पढ़े लिखते खाली एक लाइन बोलोगे तो ऑथेंटिक नहीं लगेगा. खुद से पढ़ के देखो और सोचो कि कौन सी लाइन उस माहौल पर नैचुरली सूट करती है. बोलते वक़्त हड़बड़ाना नहीं, लड़की कहीं भाग के नहीं जा रही और बहुत इंटेलेक्चुअल भी है. कॉन्टेक्स्ट समझेगी. वैसे भी खूबसूरती नहीं है तो कमसेकम ऐसी चीज़ें तो होनी चाहिए कि तुम्हारे साथ अगले दस चैप्टर कुछ नया कर सके. बस इत्तनी मिन्नत है मेरे लाल, अपने साथ फुसला के उसे भी कागज़ से बाहर मत निकाल लाना. एक तुम्हारे होने से घर कम पागलखाना नहीं है जो तुम्हारी प्रेमिका के नखरे भी उठाऊं मैं. उसके आने का सिर्फ इतना मकसद है कि तुम्हारे थके हुए दिमाग और आँखों को कोई बदलाव मिले और तुम घड़ी घड़ी आइना में अपना चेहरा देखने से फुर्सत पाओ. यूँ भी इश्क एक काफी लम्बा चैप्टर है. तुम्हें किसी मुसीबत में फेंकने से पहले मैं तुम दोनों के नाम फूलों की वादी में एक डेट फिक्स कर देती हूँ. उससे तमीजदार लड़के की तरह पेश आना, समझे?  

15 September, 2014

चार दिन की जिन्दगी है, तीन रोज़ इश्क़



कॉफ़ी का एक ही दस्तूर हो...उसका रंग मेरी रूह से ज्यादा सियाह हो. लड़की पागल थी. शब्दों पर यकीन नहीं करती थी. उसे जाते हुए उसकी आँखों में रौशनी का कोई रंग दिख जाता था...उसकी मुस्कराहट में कोई कोमलता दिख जाती थी और वो उसकी कही सारी बातों को झुठला देती थी. यूँ भी हमारा मन बस वही तो मानना चाहता है जो हम पहले से मान चुके होते हैं. किसी के शब्दों का क्या असर होना होता है फिर. तुम्हारे भी शब्दों का. तुम क्या खुदा हो.
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दोनों सखियाँ रोज शाम को मिलती थीं. उनके अपने दस्तूर थे. रात को थपकियाँ देती लड़की सोचती थी कि अगली सुबह किसी दूर के द्वीप का टिकट कटा लेगी और चली जायेगी इतनी दूर कि चाह कर भी इस जिंदगी में लौटना न हो सके. उसका एक ही सवाल होता था हमेशा...वो चाहती थी कि कोई हो जो सच को झुठला दे...बार बार उससे एक ही सवाल पूछती थी...
'प्लीज टेल मी आई डोंट लव हिम...प्लीज'
वो इस तकलीफ के साथ जी ही नहीं पाती थी...मगर कोई भी नहीं था जिसमें साहस का वो टुकड़ा बचा हो जो उसकी सियाह आँखों में देख कर सफ़ेद झूठ कह सके...यू डोंट लव हिम एनीमोर...

तब तक की यातना थी. शाम का बारिश के बाद का फीका पड़ा हुआ रंग था. घर भर में बिना तह किये कपड़े थे. वेस्ट बास्केट में फिंके हुए उसके पुराने शर्ट्स थे जो जाने कितने सालों से अपने धुलने का इंतज़ार करते करते नयेपन की खुशबू खो चुके थे. सबसे ऊपर बिलकुल नयी शर्ट थी, एक बार पहनी हुयी...जिसकी क्रीज में उसका पहला हग रखा हुआ था. उसी रात लड़के ने पहली बार चाँद आसमान से तोड़ कर शर्ट की पॉकेट में रख लिया था. तब से लड़की सोच रही है कि चाँद को कमसे कम धो कर, सुखा कर और आयरन कर वापस आसमान में भेज दे...मगर नहीं...इससे क्रीजेस टूट जाएँगी और उसके स्पर्श का सारा जादू बिसर जाएगा. दुनिया में लोग रोजे करते करते मर जाएँ इससे उसे क्या. वो भी तो मर रही है लड़के के बिना. किसी ने कहा जा के उससे कि वो प्यार करती है उससे. फिर. फिर क्या पूरी दुनिया के ईद का जिम्मा उसका थोड़े है. और चाँद कोई इतना जरूरी होता तो अब तक खोजी एजेंसियों ने तलाश लिया होता उसे. मगर लड़की ड्राईक्लीनर्स को थोड़े न उसकी शर्ट दे देगी. पहली. आखिरी. 

फूलदान में पुराने फूल पड़े हुए थे. कितने सालों से घर में ताज़े फूलों की खुशबू नहीं बिखरी थी. लड़की ने तो फूल खरीदने उसी दिन बंद कर दिए थे जिस दिन लड़के ने जाते हुए उसके लिए पीले गुलाबों का गुलदस्ता ख़रीदा था. हम उम्र भर दोस्त रहेंगे. वो उसे कैसे बताती, कि जिस्म में इश्क का जहर दौड़ रहा है...जब तक कलाई में ब्लेड मार कर सारा खून बहाया नहीं जाएगा ये दोस्ती का नया जुमला जिंदगी में कुछ खुशनुमा नहीं ला सकता...मगर इतना करने की हिम्मत किसे होती भला...उसकी कलाइयाँ बेहद खूबसूरत थीं...नीलगिरी के पेड़ों जैसी...सफ़ेद. उनसे खुशबू भी वैसी ही भीनी सी उठती थी. नीलगिरी के पत्तों को मसलने पर उँगलियों में जरा जरा सा तेल जैसा कुछ रह जाता था...उसे छूने पर रह जाती थी वो जरा जरा सी...फिर कागजों में, कविताओं में, सब जगह बस जाती थी उसकी देहगंध.

लड़की को अपनी बात पर कभी यकीन नहीं होता था. वो तो लड़के के बारे में कभी सोचती भी नहीं थी. मगर उसे यकीन ही नहीं होता था कि वो उसे भूल चुकी है. उसे अभी भी कई चौराहों पर लड़के की आँखों के निशान मिल जाते थे...लड़का अब भी उसे ऐसे देखता था जैसे कोई रिश्ता है...गहरा...नील नदी से गहरा...वो क्यूँ मिलता था उससे इतने इसरार से...काँधे पर हल्के से हाथ भी रखता था तो लड़की अगले कई सालों तक अपनी खुशबू में भी बहक बहक जाती थी. मगर इससे ये कहाँ साबित होता था कि वो लड़के से प्यार करती है. वो रोज खुद को तसल्ली देती, मौसमी बुखार है. उतर जाएगा. जुबां के नीचे दालचीनी का टुकड़ा रखती...कि ऐसा ही था न उसके होठों का स्वाद...मगर याद में कहाँ आता था टहलता हुआ लड़का कभी. याद में कहाँ आती थी साझी शामें जब कि साथ चलते हुए गलती से हाथ छू जाएँ...किसी दूकान के शेड के नीचे बारिशों वाले दिन सिगरेट पीने वाले दिन कहाँ आते थे अब...वो कहाँ आता था...अपनी बांहों में भरता हुआ...कहता हुआ कि आई डोंट लव यू...यू नो दैट...मगर फिर भी तुम हो इतना काफी है मेरे लिए. उसे 'काफी होना' नहीं चाहिए था. उसे सब कुछ चाहिए था. मर जाने वाला इश्क. उससे कम में जीना कहाँ आया था जिद्दी लड़की को. किसी दूसरे शहर का टिकट भी तो इसलिए कटाया था न कि उसकी यादों से न सही, उससे तो दूर रह लेगी कुछ रोज़...

अपनी सखी से मिलती थी हर रोज़...सुनाती थी लड़के के किस्से...सुनाती थी और बहुत से देशों की कहानियां...और जैसे कोई ड्रग एडिक्ट पूछता है डॉक्टर से कि मर्ज एकदम लाइलाज है कि कोई उपाय है...पूछती थी उससे...

'प्लीज टेल मी आई डोंट लव हिम, प्लीज'.

02 September, 2014

चेन्नई डायरीज: पन्नों में घुलता सीला सीला शहर

वो शहर से ऐसे गुजरती जैसे उसे मालूम हो कि उसकी आँखों से शहर को और कोई नहीं देख सकता. रातें, कितनी अलग होती हैं दिनों से...जैसे रातरानी की गंध बिखेरतीं...सम्मोहक रातें...पीले लैम्पोस्ट्स में घुलते शहर को चुप देखतीं...गज़ब घुन्नी होती हैं रातें.

अजीब शहरों से प्यार हुआ करता लड़की को. देर रात बस के सफ़र के बाद किसी ऑटो में बैठ कर अपने फाइव स्टार होटल जाते हुए लड़की बाहर देखती रहती थी जब सीला सीला शाहर उसके अन्दर बहने लगता था. वो सोचती, चेन्नई में ह्यूमिडिटी बहुत है. सुनसान पड़ी छोटी गलियों के शॉर्टकट से ले जाता था ऑटो. लड़की महसूसती, इस शहर से प्यार किया जा सकता है. शहर न जाने कैसे तो उसे अपने काँधे पर सर टिका कर ऊंघने देता. वहां के पुलिसवाले, ऑटोवाले, बिना हेलमेट के बाइक चलने वाले छोकरे...सब उसे अपनी ओर खींचते. लड़की अपने अन्दर जरा जरा सी जगह खाली करती और चेन्नई वहां आराम से पसरने लगता.

दिन की धूप में सड़क पर निकल पड़ती...बैंगलोर के ठंढे मौसम के बाद उसे किसी शहर की गर्मी बहुत राहत देती. किसी पुराने पुल के साइड साइड चलती, एग्मोर नाम के किसी मोहल्ले में. हवा में समंदर की आस बुलाती. आँखों से करती बातें. वो क्या तलाशने निकलती और क्या क्या खरीद कर जेबों में भरती रहती. व्रैप अराउंड स्कर्ट, पर्पल कलर की कंघी...डबल चोकलेट आइसक्रीम. जाने क्या क्या. नैशनल म्यूजियम जैसी किसी इमारत के सामने खड़ी होकर गिनती फ्लाइट छूटने के वक़्त को. वक्त हमेशा कम पड़ जाता. लौटते हुए जरा जरा उम्मीदों में इकठ्ठा करती कुछ गलियों में रहती दुकानों को...एक एम्बेसेडर के खाली हुए फ्रेम को, बिना पहिये, बिना सीट...एक पुराने से घर के आगे क्यूँ रखा था फ्रेम? वो क्या स्लो मोशन में चलती थी? फिर क्यूँ सारी चीज़ें दिखती थीं उसे जो इस शहर में गुमनाम घूंघट ओढ़े रहती थीं, जैसे कि उनका होना सिर्फ इसलिए है कि चेन्नई की यादों के ये पिन ऐसे ही याद आयें उसे. एक घर के सामने से गुज़रते हुए वहां के दरबान की जरा सी मुस्कराहट...वो वापस जा के पूछना चाहती थी कि आपकी इतनी मीठी मुस्कराहट के पीछे कौन सी ख़ुशी है. एक अनजान लड़की की यादों के एल्बम में ऐसे चमकीली चीज़ का तोहफा क्यूँ? आप किसी और जन्म से जानते हैं क्या उसको?

सड़क पर सफ़ेद वेश्ती पहने लोग दिखते...एक तरह की धोती...उसे याद आते गाँव में बाबा...उनकी याद आये कितने दिन हो गए. सड़क पर गुजरती औरत के बालों में लगे बेली के फूलों की महक, बगल के रेस्टोरेंट से उठती डोसा की महक...क्या क्या घुलता जाता...सुबह लम्बी कतार में लगे हुए किसी अजनबी से कोई घंटा भर बतियाना और आखिर में पूछना उसका नाम...चंद्रा...उसके कानों के पास के बाल जरा जरा सफ़ेद हो गए थे...बहुत रूड होता न पूछना कि आपकी उम्र क्या है? कितना सॉफ्ट स्पोकन होता है कोई. उससे मिल कर किसी और की बेहद याद आना. उसका कहना कि तुम्हें बे एरिया अच्छा लगेगा. विदेश. योरोप जैसा बिलकुल नहीं. मगर लड़की को शहर लोगों की तरह लगते हैं, हर एक की अपनी अदा होती है. वो सोचती उन सारे लोगों के बारे में जो अपना अपना टिकट लिए किसी दूर देश जाना चाहते हैं. मैं नहीं जाना चाहती...मुझे घबराहट होती है. मैं अपने देश में ही ठीक हूँ. वहां मेरी किताब कौन पढ़ेगा. एक तो ऐसे ही बैंगलोर में मुझे हिंदी बोलने वाले लोग मिलते नहीं. खुद में बातें करती.

लौट आती होटल के कमरे में. स्विमिंग पूल में करती फ्लोट करने की कोशिश. पहली बार ताज़े पानी में तैर लेती. आँख भींचे रहती पहले, जरा जरा पैर मारती. स्विमिंग पूल में अकेली लड़की. साढ़े चार फीट पानी डूबने के लिए बहुत होता है. वो लेकिन सीख लेती घबराहट से ऊपर उठना. क्लोरिन चुभता आँखों को. जैसे याद की टीस कोई. वो लेती गहरी सांस...और तैर कर जाती स्विमिंग पूल के एक छोर से दूसरे छोर तक. फ्लोट करते हुए चेहरे पर पड़ती धूप. बंद हो जाता सारा का सारा शोर. दिल की धड़कनों में चुप इको होता...इश्शश्श्श...क...

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