16 December, 2011

दिल्ली की छत, ब्लू लेबल और दो लड़कियां

कोई बीस साल पुरानी दोस्ती थी उनकी और उसमें वो आज दस साल बाद मिल रही थीं...दो औरतें या कि लड़कियां, जैसा भी आपको कहने में सुविधा हो...

दिल्ली की एक बेहद सर्द सी रात थी...लड़की का घर एक चार मंज़िला इमारत के ऊपर कुछ असबेसटोस की शीट्स लगा कर बनाए एक कमरेनुमा मकान में था. इसे बरसाती या दुछत्ती कहते हैं. दिल्ली में वैसे भी घर ढूँढना बहुत मुश्किल है...या तो बेर सराय, जिया सराय जैसे मुहल्लों में दीमक के घरों जैसे कमरे जो कहीं अंतहीन अंधेरी गलियों में खुलते हैं या तो पॉश इलाकों में ऐसी बरसाती जिसमें रहने की जगह तो सही है पर उसमें जीना अपने आप में एक बहुत बड़ी जंग होती जाये हर रोज़.

गर्मियों में चारों तरफ से सूरज उस कमरे को किसी प्रेशर कुकर की मानिंद गरम कर देता था...दीवारें, छत सब कुछ धीपता रहता था और उसमें जिस दिन उसे घर पर रहना हो जीना मुहाल हो जाता. एक बड़ा सा देजेर्ट कूलर बमुश्किल कोई राहत दे पाता था...ऐसे कमरे में जीना उसे हर लम्हा उससे प्यार करने की याद दिलाता था...जानलेवा गरमियाँ और जानलेवा सर्दियाँ. सब होने पर भी वो कमरा उसे नहीं छोड़ता था तो शायद इसलिए कि कमरे के आगे का थोड़ा सा छत का हिस्सा उसके नाम लिखा था. उसकी अपनी बालकनी जिसमें से आसमान अधूरा या टुकड़ों में नहीं पूरा दिखता था औंधे कटोरे जैसा. चाँद सितारों और डूबते सूरज को देखने का मोह उसे कहीं और जाने नहीं देता...उनींदी शिफ्ट्स के बीच वो किसी शाम सूरज से मिलने का वक़्त निकाल लेती तो कभी चाँद से डेट पर जाने का वादा भी निभा ले जाती...इन दोनों से उसी बेतरह इश्क़ करने के बावजूद उसे बेवफ़ाई जैसा कुछ महसूस नहीं होता...कभी भी. इस बारे में सूरज या चाँद ने भी कभी उसे ताने नहीं मारे.

उसे क्या मालूम था कि इसी घर की किस्मत में वो क़यामत की मुलाक़ात भी लिखी है...उसकी एक बचपन की दोस्त थी, कुछ तीस साल की जिंदगी में दस साल का कुल जमा रिश्ता था और फिर २० साल लम्बा अंतराल...किस्मत ने उन्हें जोड़ा था और आज दोनों इस छत पर दिसंबर की किसी सर्द रात मिल रहीं थी...मकान मालिक अलग रहता था इसलिए लड़की को बहुत सी आज़ादियाँ मिली हुयी थीं उस घर में...इसमें कभी भी आना जाना सबसे जरूरी थी. गैर जरूरी चीज़ों में था व्हिस्की में कोहरा मिला कर पीना और कोहरे और सिगरेट के धुएं को आपस में गुन्थ्ते देखना...इसके अलावा कुछ ऐय्याशियाँ भी थीं जैसे कि लोहे की उस  भारी कड़ाही में अपनी अलग बोरसी जलाना...थोड़े कोयले और लकड़ियों से.

यहाँ से चूँकि किस्से में दो लड़कियां आने वाली हैं तो उनके नाम का पहला अक्षर ले लेते हैं कि इस कहानी के सभी किरदार नकली हैं...किसी का पूरा नाम लिख दिया तो उस नाम की कितनी लड़कियां उस नाम से खुद को जोड़ के देख लेंगी और इसमें लेखक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी. जिसका घर है वो बेहद खूबसूरत है उसकी आँखें गहरी काली हैं और घने बाल कमर तक झूल रहे हैं...खुले बालों में कुछ पानी की बूँदें भी ठहरी हुयी दिखती हैं. चलो मान लेते हैं कि इस लड़की का नाम पी है...पी से पिया होता है, पिहू होता है, पियाली भी होता है...आप चाहो तो मान लो उसका नाम पियाली है...दूसरी का नाम स रखते हैं...सा से सारिका, सरगम, सांझ भी होता है तो आप मान लो उसका नाम सरगम है...उसकी आँखों में बड़ी वार्मथ है...गर्माहट समझते हैं आप...कॉफ़ी के कप वाली नहीं...व्हिस्की वाली...उसकी आँखें गहरे भूरे रंग की हैं, जिसमें आग का लपकना दिख जाता है कभी कभी. 

दोनों ने एक दूसरे को बहुत दिनों बाद देखा है दिल भरा हुआ है. स को पी का घर बहुत पसंद आया है. घर के हर हिस्से से पी की खुशबू आती है, चाहे वो बिखरी हुयी किताबें हों...सिगरेट के करीने से लगे खाली डब्बे हों कि उसका व्हिस्की ग्लास का कलेक्शन. कितना हसीन है कि जाड़ों की सर्द रात में खुले आसमान के तले बैठी हुयी हैं. कोहरा गिर रहा है...बहुत देर तक ख़ामोशी भी रही...और फिर पी ने ही कहना शुरू किया. पता है स मुझे लगता है शराब का आविष्कार किसी ईर्ष्यालु मर्द ने हम औरतों को देख कर किया होगा...आगे की थ्योरी है कि मर्द समझ ही नहीं सकते कि औरतें बिना पिए ही अपने दिल के सारे राज़ एक दूसरे के सामने कैसे कह देती हैं...मर्दों ने कई बार चाहा कि वो भी अपनी भावनाओं का इज़हार कर सकें पर उन्हें कहना ही नहीं आ पाया...फिर एक दिन एक बेहद इंटेलेक्चुअल मर्द ने शराब का अविष्कार किया कि इसे पी कर वो अपनी हर बात कह सकें. थ्योरी सही थी लेकिन कुछ मर्दों ने कहा कि उनके साथ ऐसा कुछ नहीं होता...कि वो पी कर भी वैसी ही हालत में रहते हैं जैसा कि बिना पिए...तो मर्दों की उस सभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ कि ऐसे मर्दों को बाकी मर्दों की भलाई के लिए स्वांग रचाना होगा. तब से ये उनका अपना सीक्रेट है जो किसी औरत को नहीं बताया जाएगा. 

स कहीं जादू में खोयी हुयी थी...उसे अपना पहला प्यार याद आ रहा था...वो भी कुछ ऐसी ही बहकी बहकी बातें किया करता था जो उसे कभी समझ नहीं आती थी. 'पी, तुझे कैसे पता ये थ्योरी?'. अब पी का दूसरा सबसे फेवरिट सेंटेंस था 'मुझे दारु पीने वाले मर्द बड़े पसंद हैं'. उसके पीछे की थ्योरी भी...जो लोग दारू पीते हैं वो बड़े खतरनाक टाइप के कांफिडेंट लोग होते हैं...और उससे बड़ी बात कि बड़े सच्चे होते हैं. उन्हें इस चीज़ से डर नहीं लगता कि जब वो आउट होंगे कोई उनके मन के अन्दर झाँक के देख लेगा...वो जैसे होते हैं खुद को बेहद प्यार करते हैं...या कमसे कम पसंद तो करते ही हैं. तुझे कभी हुआ है ऐसे लड़के से प्यार जिसे अपनी ड्रिंक बेहद पसंद हो? यार पीकर वो ऐसी अच्छी अच्छी बातें करता है कि बिना पिए कभी भी न करे. कभी कभार तो मुझे लगता है उन्हें हमेशा थोड़े नशे में ही होना चाहिए...ज्यादा अच्छे लगते हैं. ऐसे मर्द कितने रूखे से जीव होते हैं...किसी चीज़ में ज्यादा सोचना नहीं...अपना खाना वक़्त पे मिल जाए...ऑफिस दिन भर ठीक ठाक बीत जाए बस...इसी में खुश. पर उन्हें उसकी पसंद की शराब मिल जाए फिर देखो कैसे मौसम में रंग घुलता है...कैसे इश्क परवान चढ़ता है और अगर दर्द देखना है तो तब देखो कि कैसे इश्क में फ़ना होते हैं लोग. बिना किसी से कहे किस तरह टूटे हुए होते हैं. ये एक ऐसा वक़्त होता है जब वो सच में वल्नरेबल होते हैं. मुझे उनपर जितना तरस आता है उतना ही प्यार भी आता है. 

पी को सदियों से ऐसा कोई नहीं मिला था जिससे वो सारी बातें कर सके...लड़कियां उसकी दोस्त बनती नहीं थीं और लड़को को उससे प्यार हो जाता था...जिंदगी बड़ी तनहा थी. आज जैसे उसने खुद को ही पा लिया था...स की भी बातें थी बहुत...पर आज पी का मौसम था...बोले जा रही थी. स तू मुझसे ज्यादा मत मिला कर, मुझसे बात भी मत कर...मैं वैसी लड़की हूँ जिसे माएँ अपनी बड़ी होती बेटियों को बचा के रखती हैं कि बिगड़ न जाएँ...मैं हर चीज़ को करप्ट कर देती हूँ...ओक्सिजन हूँ ना...पर ये लोग जानते नहीं कि मैं न हूँ तो ये सांस भी न ले पाएं. सुलगती हुयी पी ने कश छोड़ा था तो धुआं भी एक पल ठहर कर उसके चेहरे का भाव देखने लगा था. स तो खैर वैसे भी आज कहानी ही सुनने आई थी. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये लड़की इतनी अकेली कैसे हो सकती है...उसने हमेशा पी को पढ़ा था...उसके शब्दों में, उसकी बातों में, उसकी अनगिन तस्वीरों में...हर जगह. पार्टियों की जान हुआ करती थी पी...उसके हिस्से वाकई इतनी तन्हाई है ये स को एकदम समझ नहीं आ रही थी. दो एकदम विपरीत स्वाभाव वाली लड़कियां एकदम एक सी तनहा कैसे हो सकती हैं. 


स चकित थी पी का चेहरा देख कर, उसमें कहीं कोई शिकवा, कोई गिला नहीं था. वो एक ऐसी लड़की का चेहरा था जिसने बेहद शिद्दत से जिंदगी को प्यार किया हो...बिना किसी अफ़सोस के. इश्क के कितने अनगिन किस्से थे पी के पास...और स के पास भी. आज इस बेहतरीन शाम के लिए ब्लू लेबल खोली गयी थी...और दो पैग बचे हुए थे अब...रात भी बर्फ पिघलने के रफ़्तार से ही ढल रही थी...सुबह के पहले की सबसे अँधेरी घड़ी थी. आग में थोड़ा धुआं धुआं सा था...रात भर रिपीट मोड में गा के शायद नुसरत साहब भी थक गए थे...ऐसे दो कद्रदान फिर जाने कब मिले, इसलिए उन्होंने शिकायत भी नहीं की थी...मार्लबोरो का नया पैकेट खोला जा रहा था...माहौल था कि जैसे कोई रेडियो का सिफारिशी प्रोग्राम ख़त्म होने को आ रहा हो...और आज की आखिरी फरमाइश झुमरीतलैय्या के फलाना साहब से...स ने सवाल पूछा...पी तू शादी किससे करेगी? पी ने व्हिस्की का ग्लास उठाया...उसमें आखिरी घूँट बाकी थी और पिघले हुए बर्फ के टुकड़े, बॉट्म्स अप मारा...आखिरी पैग बनाते हुए बोली...कोई होगा जो मेरे इस नीट व्हिस्की के लिए बर्फ के टुकड़े ला दिया करे फ्रिज से? जब भी मैं पीने बैठूं...ऐसा लड़का जिस दिन मिल जाएगा उससे शादी कर  लूंगी
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स का तो पता नहीं...बेचारी भली लड़की है, कहाँ से ऐसा लड़का ढूंढेगी...पर मैं, मैं तो लेखक हूँ ना...अपनी पी को ऐसे कैसे रहने दूं, उसे लिए ऐसा लड़का भी रचना पड़ेगा एक दिन. तब तक के लिए...अगर आप ऐसे किसी लड़के को जानते हैं तो बताएं. मैं पी से बात करुँगी. बस आज के एपिसोड में इतना काफी है. अगली बार कभी स की कहानी भी सुनाती हूँ. वैसे मैं लड़का होती तो मुझे पी से प्यार हो जाता? आपको हुआ क्या? 

ओ री सखी, जा महबूब के देश!

तुम किस देस के वासी हो? कहीं से तुम्हारा फोन नंबर मिलेगा? किसी से पूछूँ जो तुम्हें जानता हो...जो मेरे दरकते दिल पर हाथ रख के कहे, सखी री फ़िक्र न कर, तेरा महबूब इसी दुनिया में है...तो क्या हुआ अगर वो तुझसे बहुत बहुत दूर है...एक न एक दिन तू मिलेगी उससे...सखी जो बताये कि पुरवा पे उड़ कर मेरे दिल का हाल तुम तक पहुँच जाएगा...मेरी सखी जो कहे कि जान न दो, मर जाओगी तो प्यार कैसे करोगी उससे.

सखी जो कहे कि मेरी जान...मैं हूँ रे...मैं सम्हाल लूंगी तुझे, तू आगे बढ़, टूट कर प्यार कर...जब तेरा दिल टूटेगा तो मैं मरहम लिए आउंगी...मैं तेरे लिए हिज्र की किताबें और फिराक के गीत ढूंढ के दूँगी...मैं तेरे लिए वो आवाजें तलाश लाऊंगी जो तेरे टूटे हुए दिल को राहत दें...सखी री, तू कहाँ रे...कि तुम न होगी तो मैं कैसे प्यार में पडूँगी कि मैं तो जानती हूँ कि एक दिन महबूब नहीं रहेगा...वो चाँद सितारों के देश का मेरा महबूब है. पर तुम, तुम तो मेरी ही मिटटी की हो न...तुम तो रहोगी न मेरे पास...बोलो न..रहोगी न मेरे पास, हमेशा, हमेशा?

कहाँ हो री सखी...कि महबूब की गलियों में बड़ा छलावा है...कि मुझे सारे शहर एक से लगते हैं...तू कहाँ रे, तुझे तो उससे प्यार नहीं है...तुझे तो देख के पता चल पायेगा कि किस शहर में उसका बसेरा है. तू ढूंढ के ला दे न मुझे उसके मकान का पता कि इश्क में बावरी मेरी आँखें कुछ देख नहीं पा रही हैं...तू जायेगी तेरी आँखों में प्यार नहीं छलकेगा कि दुनिया उसकी दुश्मन हो जाए...मेरी कासिद बनोगी? उन तक पहुंचाना मेरे दिल का सारा हाल पर याद रखना री कि 'कहना गलत गलत'.

सखी रे...मुझे तो लगता भी नहीं कि कभी उनका दीदार होगा...तेरा गाँव महबूब के देश में ही है कहीं...तू मेरी आँखों से उसे देख आ...मुझे सारा हाल बयान कर देना कि मुझे लगे कि मैंने देख लिया है उसे...मैं तेरे रास्ते के लिए निमकी और ठेकुआ बाँध देती हूँ और थोड़ा सत्तू भी...इतने में तो तू उसके घर पहुँच जायेगी. उससे जा के कहना कि एक लड़की तेरे इश्क में पागल हुयी है...उसने मुझे भेजा है एक बार तुम्हें छू कर आने के लिए और कुछ मत कहना कि उसे मुझसे प्यार हो जाएगा तो कैसे जियेगा वो...चुप क़दमों से लौट आना...उसे कुछ जियादा मत बताना मेरे बारे में.

दुनिया इश्क से बहुत जलती है...तो देख लेना सखी, मेरे महबूब से अकेले मिलना...शाम के किसी वक़्त जब सूरज डूब चुका हो और चाँद के निकलने में देर हो थोड़ी...खुले आसमान के नीचे, जहाँ दीवारें न हों...ऐसी जगह मिलना.



ओ री सखी री...उसके देश से मेरे गाँव का सफ़र बहुत लम्बा है...पर तू ये सफ़र तय करना...और जब तेरी आँखों उसका हाल सुनकर मेरा जान देने को जी चाहे तो मेरे लिए कनेल के फलों को पीस कर जहर तैयार कर देना...जब मैं बिलकुल न जी पाऊं उसके बगैर तो मुझे चुप चाप मर जाने देना. मेरे लिए इतना करेगी न सखी?
बोल?

14 December, 2011

जिंदगी. बेरहम. जिंदगी.

तुम अपना प्यार सम्हालो बाबा...मुझसे  नहीं होगा...ऐसे तो मर जाउंगी...न खाया जाता है न पिया जाता है, कैसी कैसी तो तलब उठती है...कभी सिगरेट की तलब जागती है तो लगता है बड़के भैय्या जो ताक में नुका के रखे हैं उससे एक ठो निकाल के जला लें...तो कभी लगता है परबतिया के घर में जो ताड़ी उतर के आता है वही चढ़ा जाएँ. तुमरा प्यार एकदम्मे मेरा दिमाग ख़राब कर देगा...तुम्हारे शब्दों में कहें तो तुम्हारा प्यार मुझ अच्छी खासी लड़की को दीवानी बना डालेगा.

मत मिला करो अब मुझसे, फ़ोन भी मत किया करो और झूठ मत पूछा करो कि कैसी हूँ...अगली बार कह दूँगी 'मर रही हूँ जहाँ हो सब छोड़ कर आओ और मुझे बांहों में भर लो' तब क्या करोगे? आ पाओगे सब कुछ छोड़ कर बस एक बार मुझे बांहों में भरने के खातिर...और जो मान लो आ भी गए तो वापस कैसे जाओगे. शहर की गाड़ी तो दिन में एक्के बार आती है इधर गाँव में, रात बेरात परदेसी को कौन रुकने देगा अपने घर में.

नहीं करना मुझे तुमसे प्यार...ऐसे दिन भर सूली पर टंगे टंगे मर जाउंगी मैं...अभी पैर वापस खींचती हूँ...ये तुमने क्या कर दिया है मुझे...मुझे ऐसे जीना नहीं आता. मेरी सारी समझदारी, सारी होशियारी रखी रह जाती है. तुम कौन से देश में ये कैसा सम्मोहन रचते हो...होगे तुम बहुत बड़े जादूगर, मैं एक छोटे से गाँव की थोड़ी पढ़ी लिखी लड़की हूँ बाबा मुझे बहुत दुनिया की समझ नहीं है. मुझे बस इतना समझ आता है कि जब प्यार हो तो तुम्हें मेरे पास होना चाहिए.

ये कैसे जंगल में आग लगा कर छोड़ गए हो...वो देखो कैसे वनचंपा धू धू करके जल रही है, सुलगते चन्दन की चिता सी गंध तुम्हें विचलित नहीं करती? तुम ऐसे कैसे मुझे छोड़ जाते हो...तुम्हारा दिल कैसा पत्थर है कि नहीं पसीजता. कैसे जी लेते हो मेरे बगैर.

आज गाय के सानी में धतुरा था, मैंने देखा नहीं..कोई दिन धनिया की जगह धतूरे की चटनी पीस के खा लूंगी... किसी दिन बिच्छू चलता रहेगा देह पर और मैं उसके डंक को महसूस नहीं कर पाऊँगी कि तुम्हारे बिना ऐसे ही तो जल रही हूँ कि लगता है ऊँगली के पोर पोर से आग निकल रही हो...बीड़ी फूंकते हुए, कलेजा धूंकते हुए ऐसे ही जान दे दूँगी कि तुम्हें पता भी चल पायेगा!

मैं मर जाउंगी ओ रे बाबा! तुम्हें क्या बताऊँ...जाने दो मुझे, मुक्त करो...ये तिलिस्म में किसी और को बाँध लेना रे शहरी बाबू...बड़े निर्दयी हो तुम...मेरा जी जला के तुम्हारा मन नहीं भरता. अगली बार से मेरे लिए पलाश के फूल मत लाना...मेरा पूरा साल गुज़र जाता है फिर पलाश के इंतज़ार में. जो किसी साल तुम नहीं आये तो क्या करुँगी.

चले जाओ रे! तुम्हारे लाये पलाश सुखा के साड़ी रंगी थी...देखो पिछले मेले में वही पहने हुए तस्वीर खिंचाई थी...मेरे पास तुम्हारी यही एक चीज़ है. ये तस्वीर लो और चले जाओ. कभी वापस मत आना. अब बर्दाश्त नहीं होता मुझसे.









मत पूछो कि मुझे क्या चाहिए...तुम मेरा नाम लो बस उसी लम्हे...उसी लम्हे मर जाना चाहती हूँ. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ...कसम से...मुझे और कुछ नहीं चाहिए...मैं मर जाना चाहती हूँ. बस. 

जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...

ये वही दिन थे
जब उँगलियों से उगा करती थी चिट्ठियाँ...
कि जब सब कुछ बन जाता था कागज
और हर चमकती चीज़ में
नज़र आती थीं तुम्हारी आँखें


ये वही दिन थे
जब मिनट में १० बार देख लेती थी घड़ी को
जिसमें किसी भी सेकण्ड
कुछ बीतता नहीं था
और मैं चाहती थी
कि जिंदगी गुज़र जाए जल्दी

ये वही दिन थे
दोपहर की बेरहम धूप में
फूट फूट के रोना होता था 
दिल की दीवारों से 
रिस रिस के आते दर्द को 
रोकने को बाँध नहीं बना था 

वही दिन 
कि जब फोन काट दिया जाता था
आखिरी रिंग के पहले वाली रिंग पर
कि बर्दाश्त नहीं होता
कि उसने पहली रिंग में फोन नहीं उठाया 

कि दिन भर 
प्रत्यंचा सी खिंची
लड़की टूटने लगती थी
थरथराने लगती थी 
घबराने लगती थी 

ये वही दिन थे
जब कि बहुत बहुत बहुत 
प्यार किया था तुमसे
और अपनी सारी समझदारियों के बावजूद 
प्यार बेतरह तोड़ता था मुझे

ये वही दिन थे
मैं चाहती थी
कि एक आखिरी बार सुन लूं
तुम्हारी आवाज़ में अपना नाम
और कि मर जाऊं
कि अब बिलकुल बर्दाश्त नहीं होता

तुम्हारे नाम चिट्ठी

हे इश्वर!

अखबारों में आया है कि आज तेरा एक कतरा मिला है तेरे जोगियों को...तेरी तलाश में कब से भटक रहे थे...तेरी तस्वीर भी आई है आज...बड़ी खूबसूरत है...पर यकीन करो, मेरे महबूब से खूबसूरत नहीं.

मेरा महबूब भी तुम सा ही है...उसके वजूद का एक कतरा मुझे मिल जाए इस तलाश में कपड़े रंग लिए जोगिया और मन में अलख जगा ली. सुबह उसके ख्यालों में भीगी उतरी है कि कहीं पहाड़ों पर बादल ने ढक लिया चाँद को जैसे...यूँ भी पहाड़ों में चाँद कम ही नज़र आता है जाड़े के इन दिनों...कोहरे में लिपटे जाड़े के इन दिनों.

ये भी क्या दिल की हालत है न कि तुम्हारी तस्वीर देख कर अपने महबूब की याद आई...बताओ जो ढूँढने से तुम भी मिल जाते हो तो मुझे वो क्यूँकर न मिल पायेगा. आज तो यकीन पक्का हुआ कि तुम हो दुनिया में...भले मेरी हाथों की पहुँच से दूर मगर कहीं तो कोई है जिसने तुम्हें देखा है...उन्ही आँखों से कि जिससे कोरा सच देखने में लोग अंधे हो जाते थे. तुम्हारा एक कतरा तोड़ के लाए हैं.

वैसा ही है न कुछ जैसे रावण शिव लिंग ले के चला था कैलाश से कि लंका में स्थापित करेगा और पूरे देवता उसका रास्ता रोकने को बहुत से तिकड़म भिड़ाने बैठ गए थे...और देखो न सफल हो ही गए. मगर जो मान लो ना होते तो मैं कहाँ से अपने महबूब की याद आने पर शंकर भगवान को उलाहना दे पाती कि हे भोला नाथ कखनS हरब दुःख मोर! मैं देखती हूँ कि आजकल मुझे याद तुम्हारी बहुत आती है...क्या तुमपर विश्वास फिर से होने लगा है? मेरे विश्वास पर बताओ साइंसजादों का ठप्पा कि तुम हो...जैसे कि मैं इसी बात से न जान गयी थी तुम्हारा होना कि दिल के इतने गहरा इतना इश्क है...

इश्क और ईश्वर देखो, शुरुआत एक सी होती है...इश्वर का मतलब कहीं वो तो नहीं जो इश्क होने का वर दे? हाँ मानती हूँ थोड़ा छोटी इ बड़ी ई का केस है इधर पर देखो न...अपना हिसाब ऐसे ही जुड़ता है. सुबह उठी तो मन खिला खिला सा था...सोचा कि क्यूँ तो महसूस हुआ कि जिंदगी में लाख दुःख हों, परेशानियाँ हों, कष्ट हों...मैं तुम्हें तब तक उलाहना नहीं देती तब तब प्यार है जिंदगी में.

आज सुबह बहुत दिन या कहो सालों बाद तुम्हारे प्लान पर भरोसा किया है...कि तुम्हारी स्कीम में कहीं कुछ सबके लिए होता है. अभी ही देखो, घर पर कितनी परेशानी है...पर शायद ऐसा ही वक़्त होता है जब मुझे तुम पर सबसे ज्यादा भरोसा होता है. तुम मेरे इस भरोसे तो रक्खो या तोड़ दो...पर लगता तो है तुम कुछ गलत नहीं करोगे.

आज सुबह मन बहुत साफ़ है...जैसे बचपन में हुआ करता था...कोई दर्द नहीं, कोई ज़ख्म नहीं, कोई कसक नहीं. सोच रही हूँ कि वो जो अखबार में जो तस्वीर छपी है...उसमें कोई जादू भी है क्या? कि अपने महबूब की बांहों में होना ऐसा ही होगा क्या? कि हे ईश्वर तेरा ये कौन सा रूप है जिससे मैं प्यार करती हूँ? नन्हे पैरों से कालिया सर्प के फन पर नाचते हे मेरे कृष्ण...वो समय कब आएगा जब मैं तुम्हें सामने देख सकूंगी!

तुम्हारे प्यार में पागल,
पूजा 

12 December, 2011

दुनिया का सबसे झूठा वाक्य

दुनिया का सबसे ज्यादा झूठ बोलने वाला वाक्य ढूंढ रही थी...दुनिया यानि मेरी या मेरे जैसे और लोगों की दुनिया का सबसेट...आखिर दुनिया उतनी ही तो है न जितनी हम जानते हैं...बाकी दुनिया तो हम तक पहुँचती नहीं. कम्पीटीशन कड़ा है...बहुत से उम्मीदवारों को छांटने के बाद मुझे दो बहुत ही मजबूत उम्मीदवार दिखे...'मैं तुमसे प्यार नहीं करती' और 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. एकदम अलग अलग समय और माहौल में बोले गए ये दो वाक्य अक्सर सबसे ज्यादा जो कहते दिखते हैं ठीक उससे उलट मतलब होता है इनका.

पहला वाला 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ/आई डोंट लव यू' से तो बहुतों का पाला पड़ा होगा...गौर कीजिये कि ये वाक्य लड़कियों की ओर से कहा जा रहा है...ऐसा नहीं है कि लड़के ऐसा झूठ बोलते ही नहीं है पर अगर आप कोई रिसर्च करेंगे तो देखेंगे कि इस मामले में लड़कियां झूठ बोलने में लड़कों को काफी पीछे छोड़ती हैं. रिसर्च जाने दीजिये, अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और लड़की/महिला हैं तो आप जानती हैं उम्र के कितने पड़ाव पर कितनी सहेलियों के किस्से जब उन्हें किसी लड़के ने हिम्मत करके प्रपोज कर दिया था. याद कीजिए...हॉस्टल का कमरा हो कि शाम को मोहल्ले का पार्क जहाँ रोज की गपशप(गोसिप?) होती है.

लड़कियां वैसे भी लड़कों से ज्यादा बातें करती हैं...मुझे अपने हॉस्टल का कमरा याद आता है...जहाँ हर रात खाने के बाद तमीज का सेशन होता था जिसमें मेरे जैसे कुछ लोग होते थे जो अपनाप को बहुत समझदार समझते थे...ख़ास तौर से रिश्तों के मामले में. मुझे हमेशा लगता था कि मुझे दूर की चीज़ें भी महसूस होती हैं. ये लवगुरु टाईप का तमगा अर्न(earn...you have to earn a Bournville types) करना होता है. जब बहुत दिन तक आपकी दी हुयी मुफ्त की सलाह से लोगों का फायदा हो तो सम्मिलित रूप से लोग आपको ये महान उपाधि देते हैं. ये तब भी होता है जब कोई मुश्किल दौर से गुज़र रही हो और आप उसके मन को हूबहू समझ सकें और उसके मन मुताबिक कोई रास्ता निकल सकें. बहुत मुश्किल काम होता है ये...अपने फ्रीटाइम के इस उपयोग के कारण हमेशा से रिश्तों की कई गुत्थियाँ हमने अनुभव से सुलझाई हैं.

खैर...दिल्ली में तो काफी नोर्मल सी चीज़ थी पर पटना में प्यार वगैरह बड़ी आफत हुआ करती थी...किसी को जाने, देखे, मिले, समझे बिना लड़के प्रोपोज कर मारते थे और लड़कियां बेचारी मुश्किल में पड़ जाती थीं. सबको घर से धमकी आलरेडी मिली रहती थी लड़कों से ज्यादा बात वात मत करो टाइप्स...वैसे में कोई लड़का सीधे आ के बोल रहा है कि 'आई लव यू' तो अगर उसको पसंद भी करते हैं तो क्या कर सकते हैं. बेचारी लड़की दिल पर पत्थर रख के कहती थी 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ'.

लड़की के ऐसा कहने के पीछे बहुत सारा लोजिक रहता था...लड़की सबसे पहले सोचती थी लड़के का टाइटिल क्या है...यानि कि हमारे कास्ट का है कि नहीं...पहला न तो वहीं से उपजता था...पटना में उस समय कास्ट का बहुत पंगा चलता था...तो अगर लड़का दूसरी जाति का है तो बिना सोचे समझे, प्यार को मौका दिए न कह दिया जाता था. अगर बमुश्किल लड़का आपकी जाति का निकला(जो कि कभी नहीं होता था...सब आपस में मैच ऑप्शन के टेबल की तरह इधर उधर हुए रहते थे) तो दूसरी परेशानी आती थी कि कोई जान लेगा तो क्या होगा. लड़के से मिलेंगे कैसे, कोचिंग बंद हो जायेगी...भाई रोज छोड़ने आएगा...मम्मी से डांट पड़ेगी...वगैरह. इन सबसे सबसे मुश्किल चीज़ होती थी कि मिलेंगे कहाँ...और दूसरा खतरा...किसी ने देख लिया तो. तो इन सब प्रक्टिकल कारणों से लड़कियां सीधे न कह लेती थीं. एक बार में झंझट ख़तम.

दुनिया का सबसे बड़ा झूठा वाक्य का दूसरा उम्मीदवार है 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. ये वाक्य भी अधिकतर लड़कियां ही कहती हैं. इस वाक्य को कहने का एक और सिर्फ एक आशय होता है...कि मैं एकदम ठीक नहीं हूँ...थोड़ा मेरे और करीब आकर देखो कि मेरा दिल क्यूँ टूटा है...मैं क्यूँ बिखर रही हूँ...मुझे सम्हाल लो...मैं तुमसे इतना प्यार करती हूँ कि तुम्हें किसी तरह की परेशानी या दुःख न हो इसलिए कहती हूँ कि मैं ठीक हूँ. लड़की ऐसी अजीब शय होती है वो भी मुहब्बत में कि जान देने जा रही होगी और आप उससे पूछेंगे कि कैसी हो, मैं आ जाऊं तो कह देगी 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो' इस वाक्य का हमेशा उल्टा मतलब होता है...डेंजर सिग्नल है एकदम ये वाला. इसको कभी भी इग्नोर नहीं करना चाहिए.


कैसा अजीब होता है न प्यार कि खुद मरे जा रहे हैं उसकी चिंता नहीं है मगर महबूब अगर पूछे कि कैसी हो तो एक शब्द नहीं निकलेगा कि आ जाओ, मर रही हूँ. ये कैसी फितरत है...प्यार का ये कौन सा पहलू है मुझे आज तक समझ नहीं आता. कि जब आपको उसकी सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है उस वक़्त आप चाहोगे कि वो खुद समझ जाए...बिना कहे हुए. इसलिए ये वाक्य बहुत खतरनाक है...इसका मतलब है कि आप जाओ, जहाँ भी है वो और उसे बाँहों में भर लो...लड़की बस इतना ही चाहती है.

कैसा होता है ये चाहना कि आप खुद कहो कि हाँ, अब चले जाओ, मैं ठीक हूँ जबकि दिल कहता है कि अभी कुछ देर और ठहर जाओ, दिल के टाँके कच्चे हैं...ज़ख्म थोड़ा भर जाने दो. उसपर जिंदगी ऐसी बेरहम है कि हालात ऐसे पैदा करती है कि वक़्त हमेशा कम पड़ता है...सोचो आप किसी आवाज़ को एक बार सुनने को तरस रहे हो...पर जानते हो कि वो ऑफिस में होगा...आप मेसेज करते हो...उधर से रिप्लाय आता है कि बीजी हूँ, बाद में फ़ोन करूँ...तुम ठीक हो न? लड़की क्या करेगी...करना चाहिए कि फ़ोन कर ले...एक मिनट की आवाज़ सुन कर रख दे...पर वो करेगी नहीं...वो जवाब देगी...कि वो ठीक है...उसकी चिंता एकदम मत करो. उसका दिल चाहेगा कि कहे कि ऑफिस छोड़ के अभी घर आ जाओ...मैं बहुत परेशान हूँ पर वो करेगी क्या...मेसेज करेगी, खाने में क्या बनवा लूं?

इन दोनों वाक्यों के पीछे की पूरी कहानी जानना बेहद जरूरी है...ये वाक्य कभी भी फेस वैल्यू पर नहीं लिए जा सकते. इनके पीछे बहुत कुछ होता है...अक्सर रोती आँखें और खाली, सूना सा दिल होता है...खैर.

तुमसे कुछ कहना था आज...मैं तुमसे प्यार नहीं करती...और मैं ठीक हूँ...मेरी बिलकुल चिंता मत करो! :)

PS: स्माइली से धोखा मत खाइए...वो बस ध्यान भटकाने के लिए है, मैं देख रही थी कि ऊपर के भाषण का कोई असर हुआ भी है कि एक स्माइली से आप भटक जायेंगे

दिल्ली मेरी जान...उफ्फ्फ दिल्ली मेरी जान!

वो कहते हैं तुम्हारे जन्म को इतने साल हो गए, उतने साल हो गए...मगर दिल्ली मेरी जान...मेरे लिए तो तुम जन्मी थी उसी दिन जिस दिन पहली बार मैंने तुम्हारी मिटटी पर पैर रखा था...उसी लम्हे दिल में तुम्हारी नन्ही सी याद का चेहरा उगा था पहली बार...वही चेहरा जो कई सालों तक लौट लौट उगता रहा पार्थसारथी के चाँद में.

तुम मुझमें किसी अंकुर की तरह उगी जिससे मैंने तब से प्यार किया जबसे उसके पहले नन्हे हरियाले पत्तों ने मेरी ओर पहली बार मासूमियत से टुकुर टुकुर देखा...तुम्हारी जड़ें मेरे दिल को अपने गिरफ्त में यूँ लेती गयीं जैसे तुम्हारी सडकें मेरे पांवों को...दूर दूर पेड़ों के बीच जेऐनयु में चलती रही और तुम मेरे मन में किसी फिल्म की तरह दृश्य, रंग, गंध, स्वाद सब मिला कर इकठ्ठा होती गयी.

अब तो तुम्हारा इत्र सा बन गया है, जिसे मैं बस हल्का सा अपनी उँगलियों से गर्दन के पास लगाती हूँ और डूबती सी जाती हूँ...तुमसे इश्क कई जन्मों पुराना लगता है...उतना ही पुराना जितना आरके पुरम की वो बावली है जिसे देख कर मुझे लगा था कि किसी जन्म में मैं यहाँ पक्का अपने महबूब की गोद में सर रखे शामें इकठ्ठा किया करती थी. पत्थर की वो सीढियां जो कितनी गहरी थीं...कितनी ऊँची और बेतरतीब...उनपर नंगे पाँव उतरी थी और लम्हा लम्हा मैं बुत बनती जा रही थी...वो तो मेरे दोस्त थे कि मुझे उस तिलिस्म से खींच लाये वरना मैं वहीँ की हो कर रह जाती.

तुम्हें मैं जिस उम्र में मिली थी तुमसे इश्क न होने की कोई वजह नहीं थी...उस अल्हड लड़की को हर खूबसूरत चीज़ से प्यार था और तुम तो बिछड़े यार की तरह मिली थी मुझसे...बाँहें फैला कर. तुम्हारे साथ पहली बारिश का भीगना था...आसमान की ओर आँखें उठा कर तुम्हारी मिटटी और तुम्हारे आसमान से कहना कि मुझे तुमसे बेपनाह मुहब्बत है.

आईआईएमसी की लाल दीवारें मुहब्बत के रंग में लाल थी...वो बेहद बड़ी इमारत नहीं थी, छोटी सी पर उतनी छोटी कि जैसे वालेट में रखा महबूब का पासपोर्ट साइज़ फोटो...कि जिसे जब ख्वाइश हो निकल कर होठों से लगा लिया और फिर दुनिया की नज़र से छुपा पर वापस जींस की पीछे वाली जेब में, कि जहाँ किसी जेबकतरे का हाथ न पहुँच सके. उफ़ दिल्ली, तुम्हें कैसे सकेरती हूँ कि तुम्हारी कोई तस्वीर भी नहीं है जिसे आँखों से लगा कर सुकून आये.

दिल्ली मेरी जान...तुम मेरी तन्हाइयों का सुकून, मेरी शामों की बेकरारी और मेरी जिंदगी का सबसे खुशनुमा पन्ना हो...तुमसे मुझे दिल-ओ-जान से मुहब्बत है और तुम्हें क्या बताऊँ कि कैसी तड़प है तुम्हारी बांहों में फिर से लौट आने की.

दिल्ली तेरी गलियों का, वो इश्क़ याद आता है...
पुराने फोल्डर्स में देखती हूँ तो एक शाम का कतरा मिला है...पार्थसारथी का...अपने लिए सहेज कर यहाँ लगा रही हूँ...गौर से अगर देखोगी तो इस चेहरे को अपने इश्क में डूबा हुआ पाओगी...और हालाँकि ये लड़की बहुत खूबसूरत नहीं है...पर इश्क करते हुए लोग बड़े मासूम और भले से लगते हैं.

दिल्ली मेरी जान...उफ्फ्फ दिल्ली मेरी जान!

10 December, 2011

वसीयत

मौत की सम्मोहक आँखों में देखते हुए मैं तुम्हें बार बार याद करती हूँ...इत्मीनान है कि तुम्हें आज शाम विदा कह चुकी हूँ...बता भी चुकी हूँ कि तुमसे कितना प्यार करती हूँ...दोनों बाँहों के फ़ैलाने से जितना क्षेत्रफल घिरता है, उतना...मेरे ख्याल से इतने प्यार पर तुम अपनी बची हुयी जिंदगी बड़े आराम से काट लोगे...मुझे यकीन है...तुम बस याद रखना कि ये वाक्य संरचना नहीं बदलेगी 'मैं तुमसे प्यार करती हूँ' कभी भी 'मैं तुमसे प्यार करती थी' नहीं होगा. मेरे होने न होने से प्यार पर कोई असर नहीं होगा.

मैं ऐसे ही मर जाना चाहती हूँ, तुम्हारे इश्क में लबरेज़...तुम्हारी आवाज़ के जादू में गुम...तुम्हारे यकीन के काँधे पर सर रखे हुए कि तुम मुझसे प्यार करते हो. इश्क के इस पौधे पर पहली वसंत के फूल खिले हैं...यहाँ पतझड़ आये इसके पहले मुझे रुखसत होना है...तुम ये फूल समेट कर मेरे उस धानी दुपट्टे में बाँध दो...मेरे जाने के बाद दुपट्टे से फूल निकाल कर रख लेना और दुपट्टा अपने गाँव की नदी में प्रवाहित कर देना...उसके बाद तुम जब भी नदी किनारे बैठोगे तुम्हें कहीं बहुत दूर मैं धान के खेत में अपना दुपट्टा हवा में लहराते हुए, मेड़ पर फूल से पाँव धरते नज़र आउंगी. मेरा पीछा मत करना...मेरा देश उस वक़्त बहुत दूर होगा.

यकीन करना कि मैं कहीं नहीं जा रही...तुम्हारे आसपास कहीं रहूंगी...हमेशा...हाँ ध्यान रखना, मेरी याद में आँखें भर आयें तो उस रात पीना नहीं...कि खारा पानी व्हिस्की का स्वाद ख़राब कर देता है और तुम तो जानते ही हो कि व्हिस्की को लेकर मैं कितना 'टची' हो जाती हूँ. तुम्हें ऐसा लगेगा कि मैं ये सब नहीं देख रही तो मैं आज बता देती हूँ कि मरने के बाद तो मैं और भी तुम्हारे पास आ जाउंगी...आत्मा पर तो जिस्म का बंधन भी नहीं होता, न वक़्त और समाज की बंदिशें होती हैं उसपर...एकदम आज़ाद...मेरे प्यार की तरह...मेरे मन की तरह. 

जिंदगी जितनी छोटी होती है, उतनी ही सान्द्र होती है...तुम तो मेरे पसंद के सारे लोगों को जानते हो कि जो कम उम्र में मर गए...कर्ट कोबेन, दुष्यंत कुमार, गुरुदत्त, मीना कुमारी...उनकी आँखों में जिंदगी की कितनी चमक थी...जिसके हिस्से जितनी कम जिंदगी होती है उसकी आँखों में खुदा उतनी ही चमक भर देता है. तुमने तो मेरी आँखें देखी हैं...क्या लगता है मेरी उम्र कितने साल है?

इतनी शिद्दत से किसी को प्यार करने के बाद जिंदगी में क्या बाकी रह जाता है कि जिसके लिए जिया जाए...मैं नहीं चाहती कि इस प्यार में कुछ टूटे...मुझे इस प्यार के परफेक्ट होने का छलावा लिए जाने दो. मैं टूट जाने से इतना डरती हों कि वक़्त ही नहीं दूँगी ये देखने के लिए कि हो सकता है इस प्यार में वक़्त के सारे तूफ़ान झेल लेने की ताकत हो. 

मुझे चले जाने से बस एक चीज़ रोक रही है...फ़र्ज़ करो कि तुमने मेरे ख़त नहीं पढ़े हैं...ये ख़त भी तुम तक नहीं पहुंचा है...अपने दिल पर हाथ रख के जवाब दो, तुम्हें पूरा यकीन है तो सही कि मैं तुमसे बेइंतेहा प्यार करती हूँ या कि मेरे जाने के बाद कन्फ्यूज हो जाओगे? 
मेरे बाद की कोई शाम...




मैं तुम्हारे नाम अपनी बची हुयी धड़कनें करती हूँ...कि मोल लो इनसे इश्क के बाज़ार में तुम्हें जो भी मिले...याद का सामान जुगाड़ लो कि भूली हुयी शामों में राहत हो कि एक पागल लड़की ने चंद छोटे लम्हों के लिए सही...तुम्हें प्यार बहुत टूट के किया था. 

09 December, 2011

मौन की भाषा में 'आई लव यू' कहना...

कैसा होता होगा तुम्हें मौन की भाषा में 'आई लव यू' कहना...जब कि बहुत तेज़ बारिश हो रही हो और हम किसी जंगल के पास वाले कैफे में बैठे हों...बहुत सी बातें हो हमारे दरमियाँ जिसमें ये भी बात शामिल हो कि जनवरी की सर्द सुबहों में ये आसमान तक के ऊंचे पेड़ बर्फ से ढक जाते हैं.

एक सुबह चलना शुरू करते हुए जंगल ख़त्म न हो पर दिन अपनी गठरी उठा कर वापस जाता रहे...उस वक़्त कहीं दूर रौशनी दिखे और हम वहां जा के शाम गुजारने के बारे में सोचें. किसी ठंढे और शुष्क देश में ऐसा जंगल हो जिसमें आवाजें रास्ता भूल जाया करें. कैफे में गर्म भाप उठाती गर्म चोकोलेट मिलती है...कैफे का मालिक एक मझोले से कद का मुस्कुराती आँखों वाला बूढ़ा है...वो मुझसे पूछता है कि क्या मैं चोकलेट में व्हिस्की भी पसंद करुँगी...मेरे हाँ में सर हिलाने पर वो तुम्हारा ड्रिंक पूछता है...तुम उसे क्या लाने को कहते हो मुझे याद नहीं आता. शायद तुम हर बार की तरह इस बार भी किसी अजनबी से कहते हो कि अपनी पसंदीदा शराब लाये. लोग जिस चीज़ को खुद पसंद करते हैं, उसे सर्व करते हुए उसमें उनकी पसंद का स्वाद भी 'घुल जाता है.

उस अनजान देश में...जहाँ मैं तुम्हारे अलावा किसी को नहीं जानती...जहाँ शायद कोई भी किसी को नहीं जानता, वो बूढ़ा हमें बेहद आत्मीय लगता है. बाहर बेतरह बारिशें गिरने लगी हैं और ऐसा लगता है कि आज रात यहाँ से कोई और राह नहीं जन्मेगी. बारिश का शोर हर आवाज़ को डुबो देता है और मुझे ऐसा महसूस होता है कि जैसे मैं सामने कुर्सी पर नहीं, तुम्हारे पास बैठी हूँ, तुम्हारी बाहों के घेरे में...जहाँ तुम्हारी धड़कनों के अलावा कोई भी आवाज़ नहीं है और वक़्त की इकाई तुम्हारी आती जाती सांसें हैं.

जब कोई आवाजें नहीं होती हैं तो मन दूसरी इन्द्रियों की ओर भटकता है और कुछ खुशबुयें जेहन में तैरने लगती हैं...तुम्हारी खुशबू से एक बहुत पुराना वक़्त याद आता है...बेहद गर्म लू चलने के मौसम होते थे...जून के महीने में अपने कमरे सोयी रहूँ और पहली बारिश की खुशबू से नींद खुले...तुम्हारे इर्द गिर्द वैसा ही महसूस होता है जैसे अब रोपनी होने वाली है और धान के खेत पानी से पट गए हैं. गहरी सांस लेती हूँ अपने मन को संयत करने के लिए जिसमें तुम्हारा प्यार दबे पाँव उगने लगा है.

मुझे आज शाम ही मालूम पड़ा है कि नीला रंग तुम्हें भी बेहद पसंद है...मैं अनजाने अपने दुपट्टे के छोर को उँगलियों में बाँधने लगी हूँ पर मन कहीं बंधता नहीं...सवाल पूछता है कि आज नीले रंग के सूट में तुमसे मिलने क्यूँ आई...मन का मिलना भी कुछ होता है क्या. सोचने लगती हूँ कि मैं तुम्हें अच्छी लग रही होउंगी क्या...वैसे ही जैसे तुम मुझे अच्छे लगने लगे थे, जब पहली बार तुम्हें जाना था तब से. आई तो थी यहाँ लेखक से मिलने, ये कब सोचा था कि उस शख्स से प्यार भी हो सकता है. सोचा ये भी तो कहाँ था कि तुम फ़िल्मी परदे के किसी राजकुमार से दिखोगे...या कि तुम्हारी आँखें मेरी आँखों से यूँ उलझने लगेंगी.

मैं अब भी ठुड्डी पर हाथ टिका तुमसे बातें कर रही हूँ बस मन का पैरलल ट्रैक थोड़ा परेशान कर रहा है. तुमसे पूछती हूँ कि तुम्हें उँगलियों की भाषा आती है क्या...और सुकून होता है कि नहीं आती...तो फिर मैं तुम्हारे पास बैठती हूँ और तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेती हूँ...हथेली के पीछे वाले हिस्से पर उँगलियों से लिखती हूँ 'I' और पूछती हूँ कि ये पढ़ पाए...तुम न में सर हिलाते हो...फिर मैं बहुत सोच कर आगे के चार अक्षर लिखती हूँ L-O-V-E...तुम्हें गुदगुदी लगती है और तुम हाथ छुड़ा कर हंसने लगते हो. मुझे लगता है कि जैसे मैं घर में बच्चों को लूडो खेलने के नियम सिखा रही हूँ, जानते हुए कि वो अपने नियम बना के खेलेंगे...आखिरी शब्द है...और सबसे जरूरी भी...तीन अक्षर...Y-O-U. तुम्हारे फिर इनकार में सर हिलाने के बावजूद मुझे डर लग जाता है कि तुम समझ गए हो.










तुमसे वो पहली और आखिरी बार मिलना था...वैसे हसीन इत्तिफाक फिर कभी जिंदगी में होंगे या नहीं मालूम नहीं...मैं अपनी रूह के दरवाजे बंद करती हूँ कि तुम्हारी इस एक मुलाकात के उजाले में जिंदगी की उदास और याद की तनहा शामें काटनी हैं मुझे. यकीन की मिटटी पर तुम्हारे हाथ के रोपे गुलाब में फूल आये हैं...इस खुशबू से मेरी जिंदगी खुशनुमा है कि मैंने तुमसे कह दिया है कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ. 

08 December, 2011

भूल तो नहीं जाओगी?

भूल जाउंगी तुम्हें...

जैसे लड़की भूलती है
सरस्वती पूजा के मंडप पर
रखना
आम के बौर 

जैसे मंदिर भूल जाए
सुबह सुबह की घंटी
और लड़की के कंठ में फूटता
अलौकिक प्रेम का कोई स्वर 

जैसे लड़की फिर से भूल जाए
गुरुवार को ओढ़ना 
अपना वासंती दुपट्टा
तुम्हारे प्यार में रंगने पर भी 

जैसे शिवरात्रि भूल जाए
भांग के नशे में
किसी लड़की का तुम्हें मांगना
व्रत न रखने के बाद भी 

जैसे सावन भूल जाए 
रचना तुम्हारे नाम की मेहंदी 
और झूले के 
आसमान तक की पींगें

जैसे शंख भूल जाए
पूजा ख़त्म होने का अंतिम नाद
आये हुए देवता
यज्ञभूमि में बस जायें 

जैसे आत्मा भूल जाए
जिस्म के किसी बंधन को
तुमसे मांग बैठे
तुम्हें पूरा का पूरा 


जैसे कौड़ियाँ भूल जायें 
गिनती हमारे साथ के सालों की
और तुम हमेशा के लिए 
हो जाओ मेरे 

07 December, 2011

होना तो ये चाहिए था कि इतने में तुम्हारी याद की आमद कमसे कम कल सुबह तक मुल्तवी हो जाए...

यूँ कहने को तो वो सारा सामान मौजूद था कि जिससे तुम्हारी याद न आये...कहा यूँ भी जा सकता है कि तुम बिन जीने का सारा सामान मौजूद था...एक मेरे जैसे ही स्माल साइज़ में व्हिस्की (JD- यही कहते हो न तुम जैक डैनयल्स को ?), दो अदद बोतल बीयर, चार-पांच फ्लेवर्स में बकार्डी ब्रीजर...औरेंज, ब्लैकबेरी, लाइम और जमैकन पैशन...रंग बिरंगी बोतलों में बंद जिंदगी के रंगों से फ्लेवर्स या कि तुम्हारी याद के रंगों के...मार्लबोरो लाइट्स...पसंदीदा लाइटर...अपनी कार और खुली सडकें...हाँ रॉकस्टार के गाने भी, सीडी में पहला गाना ही था...मेरी बेबसी का बयान है, बस चल रहा न इस घड़ी...होना तो ये चाहिए था कि इतने में तुम्हारी याद की आमद कमसे कम कल सुबह तक मुल्तवी हो जाए. बड़ी मेहनत से एक साथ ये सारी चीज़ें जुगाड़ी थीं...तुम्हारे आने के पहले इतनी तनहा तो कभी नहीं थी मैं.

तो कायदे से होना ये चाहिए था कि तुम्हारी आवाजों के चंद कतरे कतार में लगा दूं और बाकी खालीपन को शराब और सिगरेट के नशे में डुबो दूं...प्यार होता है तो सबसे पहले खाना बंद हो जाता है मेरा...सुबह से एक कौर भी निगल नहीं पायी हूँ...पानी भी गले से नहीं उतरता...ड्राइव करते हुए आज पहली बार सिगरेट पी...ओह्ह्ह क्या कहूँ तुमसे प्यार करना क्या होता जा रहा है मेरे लिए...एक खोज, एक तलाश की तरह है कि जिसमें मैं अपने अंधेर कुएं में सीढ़ियाँ लगा कर उतरने लगी हूँ.

पर तुम्हारी ये आवाज़ के कतरे भी दुष्ट हैं, तुम्हारी तरह. सच्ची में, कमबख्त बड़े मनमौजी हैं...एक तो नशे के कारण थोडा बैलंस वैसे भी गड़बड़ाया है उसपर ये कतरे पूरे घर में उधम मचाते घूम रहे हैं...किसी दिन तुम्हारे प्यार में घर जला बैठूंगी मैं...अपनी हालत नहीं सम्हलती उसपर सिगरेट की मनमर्जी...उँगलियों से यूँ लिपटी है कमज़र्फ कि जैसे तुम्हारा हाथ थाम किसी न ख़त्म होने वाली सड़क पर चल रही हूँ.

पैग बना रही हूँ...बर्फ के टुकड़े खाली ग्लास में डालती हूँ तो बड़ी महीन सी आवाज़ आती है...जैसे शाम बात करते हुए तुमने अचानक से कहा था 'कितनी ख़ामोशी बिखर गयी है न!'...ये कैसी ख़ामोशी है कि चुभती नहीं...पिघलती है, कतरा कतरा...जैसे मैं पिघल रही हूँ...जैसे बर्फ पिघल रही है व्हिस्की में डूबते उतराते हुए. ग्लास पहले गालों से सटाती हूँ...पानी की ठंढी बूँदें चूम लेती हैं...कि जैसे पहाड़ों से उतर कर तुम आते हो और शरारत से अपनी ठंढी हथेलियों में मेरा चेहरा भर लेते हो...खून बहुत तेजी से दौड़ता है रगों में और कपोल दहक उठते हैं तुम्हारे होठों की छुअन से. उसपर तुम छेड़ देते हो कि तुम्हें शर्माना भी आता है!

तुमने किया क्या है मेरे साथ? मुझे लगता था कि जितनी पागल मैं आलरेडी हूँ, उससे आगे कुछ नहीं हो सकता  पर जैसे हर शाम कई नए आयाम खुल जाते हैं मेरे खुद के...जिंदगी उफ़ जिंदगी...इश्क का ऐसा रंग बचा भी है मुझे कब मालूम होना था. हर शाम ग्लास में एक आखिरी घूँट छोड़ देती हूँ...तुम कहोगे कि शराब की ऐसी बर्बादी नहीं करते...पर जानां, तुम नहीं समझोगे हर शाम उम्मीद करना क्या होता है...कि आखिरी घूँट तक शायद तुम आ जाओ इस इंतज़ार में रात कट जाती है.



इस सलीकेदार दुनिया में तुम्हें इसी पागल से प्यार होना था...अब? क्या करोगे? जाने दो इतनी बातें कि इनमें उलझ गए तो जिंदगी ख़त्म हो जायेगी और तुम्हें पता भी न चलेगा...जहाँ हो अपना ग्लास उठाओ...आज अलग अलग शहर में, एक आसमान के नीचे बैठ चलो इश्क के नाम अपने जाम टकराते हैं, चाँद गवाही देगा कि जिस लम्हे तुमने अपना जाम उठाया था, उसी लम्हे मैंने भी...चीयर्स!

06 December, 2011

उसकी आँखों का इंतज़ार अब भी कच्चा ही था...

फिर उसने कच्ची इमली दांतों से काट कर उसका खट्टापन ख़त्म होने के पहले आँखें मींचे मीचे मीचे ही पक्का वादा किया की वो आज के बाद उसे भूल जायेगी, एकदम से पक्का भूल जायेगी. यह कहते हुए उसकी आँखें बंद थीं और खट्टापन इतना था कि हमेशा की तरह उसे कुछ और सूझ नहीं रहा था...भिंची हुयी आँखों से कुछ दिख भी नहीं रहा था...और वादा उस छोटे से पल में ही मांग लिया गया था...गोया कि लड़के को पता था की आँखें खुलते ही लड़की उसकी कोई बात नहीं मानने वाली...और लड़की ने आँखें ऐसे भींची थीं जैसे सब सपना हो और आँखे खोलते ही पहले जैसी हो जायेंगे चीज़ें.

लड़की को चिंता इस बात की ज्यादा थी कि उसके चले जाने के बाद टिकोले के मौसम में सबसे पहले टिकोले कौन ला के देगा...लड़का जानता नहीं था कि उसका सबसे बड़ा कॉम्पिटिशन बाकी लड़के नहीं, टिकोले और इमलियाँ हैं...वो शायद लड़की से इतना बड़ा वादा करवाता भी नहीं. कौन सा हमेशा के लिए जा रहा था...डिफेन्स अकेडमी में भी छुट्टियाँ होती थी, वो भी बाकी कॉलेज के लड़कों की तरह घर आता. पर लड़के के मन में जाने क्या हुआ कि उसने बंद आँखों वाली लड़की से वादा मांग लिया. वैसे भी जब वो इमली या टिकोले खा रही होती थी उससे कुछ भी मांग लो मिल जाता था...उसकी धानी चूनर में जड़ा शीशा हो कि शहर से आई नयी कलम.

लड़की का नाम भी ऐसा था कि कहीं भूलती नहीं थी...जुगनू...किताबों में से उजाले की तरह झाँकने लगती थी. ऐसे में वो पढ़ाई कैसे करता. उसने पहले तो सोचा था कि जुगनू को कहेगा उसे चिट्ठियां लिखती रहे पर जुगनू का कभी पढ़ाई में मन लगे तब तो, सारे वक़्त इधर उधर दौड़ती मिलती थी...कच्चे अमरुद हों, आम के बौर आये हों, पेड़ में नयी नारंगी फली हो या कि अनार का लाल फल झाँक रहा हो उसे तो सब पेड़ों के सारे फल  याद रहते थे. इसके साथ उसे ये भी तो याद रहता था कि कब गाँव से कुछेक किलोमीटर वाली पक्की सड़क पर फ़ौज का ट्रक जाता था...उसे शायद याद नहीं रहता था, बस उसे पता चल जाता था...और फिर जुगनू उसका हाथ पकड़े मेड़ पर दौड़ती चलती थी...उसे बस ट्रक को देख कर हाथ हिलाना होता था.

वैसे तो पूरे गाँव को यकीं था कि जुगनू का फौजी भाई एक दिन लौट आएगा कहीं से पर सबसे ज्यादा यकीन जुगनू को था की भैय्या वापस आएगा. आश्चर्य ये था कि जुगनू को हर फौजी उसका भाई या भाई का दोस्त लगता था और वो पूरे मन से हर साल अनगिन राखियाँ भेजती थी, बहुत सारे पतों पर...जिन जिन पतों पर उसके भाई की पोस्टिंग थी, उन सभी पतों पर.

लड़का जानता था कि जुगनू इंतज़ार कर सकती है...पर वो नहीं चाहता था कि उसके खो जाने पर जुगनू की चिट्ठियां कोई और पढ़े...उसने जुगनू को तब भी देखा है जब कोई और नहीं देखता. गाँव में तो कोई यकीन ही न करे कि जुगनू रोती भी है, सब उसे बस हमेशा उधम मचाते और पेड़ों से भगाते ही रहते हैं...इसके अलावा भी कोई जुगनू है जो कितनी बार पेड़ की फुनगी के पास कहीं देखती है की जितनी दूर तक दिख रहा है वहां पर उसके भैय्या की वर्दी दिखाई पड़ी या नहीं...सिर्फ लड़के ने जुगनू का इंतज़ार देखा है. उसकी अधीरता...उसका हर शाम उदास होना देखा है.

जिस दिन जुगनू को बताया कि वो डिफेन्स अकैडमी जा रहा है, जुगनू की आँखें चमक उठी थीं...उसे जाने कैसे तो लगा था कि लड़का पक्का भैय्या को कहीं से ढूंढ लाएगा...या कोई अन्दर की बात बताएगा जो उसे कोई नहीं बताता...कुछ समझाएगा जो बाकी लोगों को समझ नहीं आता. लड़का घबराता था...जुगनू का दिल जाने कैसा तो होगा...उसे अकेले छोड़ने पर परेशान भी हो रहा था...पर फिर उसने जुगनू से वादा ले लिया था कि वो उसे भूल जायेगी, उसे ढूंढेगी नहीं, उसे चिट्ठियां भी नहीं लिखेगी.

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बहुत साल हुए जब जुगनू उसे दिखी...उसकी आँखों का इंतज़ार अब भी कच्चा ही था...आर्मी में डॉक्टर थी वो. जाने कैसे समय में इतना पढ़ लिया उसने कि AFMC की उतनी कठिन परीक्षा पास कर डॉक्टर बन गयी. लड़का मानता ही नहीं कि वो जुगनू है...शाम के धुंधलके में उस बहुमंजिली बिल्डिंग की छत पर एक आकृति दिखी थी उसे...कुछ बहुत जाना पहचाना था उसमें तो वो कुछ देर रुक गया. सिगरेट जलने की गंध से पलटा था तो जुगनू की आँखें नज़र आई थीं, लाइटर की रौशनी में.

दो आँखों में दो इंतज़ार पल रहे थे...दोनों इंतज़ार उतने ही सच्चे थे...लड़के ने आगे बढ़ कर जुगनू का एक इंतज़ार तो ख़त्म कर दिया...उस बात को भी बहुत साल हुए...दोनों के इर्द गिर्द एक घर उग आया...घर में खुशियाँ, गीत, डांस, पार्टियाँ सब आने लगी बारी बारी से. दुनिया का हिसाब किताब चलता रहा...सियासत न बदली थी, न बदली.

बहुत साल हुए...जितने में सब ख़त्म हो जाने लगा था...हाँ लेकिन दूसरा इंतज़ार अब भी दोनों बाँट कर करते हैं...

या फिर कहरवा - धा-गे-न-ति-नक-धिन...

तुम वहाँ से लौटा लाओ मुझे जहाँ से दुनिया ख़त्म होती है...उस परती जमीन पर पैर धरने से रोको कि वहाँ सदियों सदियों कुछ भी नहीं उगा है...वहाँ की धरती दरकी हुयी है और दरारें खूबसूरत पैरों में बिवाइयाँ डाल देती हैं...वहाँ बहुत धूल है और पानी का नामो निशान नहीं...ऐसी जमीन पर खो गयी तो कहीं नहीं जा पाऊँगी फिर...उजाड़ देश में जाके सारी नदियाँ सूख जाती हैं...मुझे लौटा लाओ जमीन के उस आखिरी छोर से कि मैं सरस्वती नहीं होना चाहती...मैं अभिशप्त जमीन के नीचे नहीं बह सकती...मुझे लौटा लो, मेरा हाथ पकड़ो...वो बहुत खतरनाक रास्ता है...वहाँ से लौटना नहीं होता.

मेरी बाहें थामो कि आज भी पहाड़ों की गहराई मुझे आमंत्रण देती है...मुझे पल भर को भी अकेला मत छोड़ो कि तुम नहीं जानते कि इन आसमान तक ऊँचे पहाड़ों के शिखरों को देखते हुए कब मैं इन सा हो जाना चाहूंगी...तुम सेकण्ड के उस हजारवें हिस्से में बस मेरे दुपट्टे का आखिरी छोर पकड़ पाओगे कि तुम भी गुरुत्वाकर्षण के नियम को अच्छी तरह समझते हो...तुम्हें पता होता कि नीचे जाने की रफ़्तार क्या होगी...बहुत उंचाई से जब नदी गिरती है तो प्रपात हो जाती है...पर तुम भी जानते हो कि मैं नदी नहीं हूँ पर पहाड़ों से गिरना वैसे ही चाहती हूँ...मैं वहाँ से गिरूंगी तो मिटटी में लुप्त हो जाउंगी...फिर सदियों में कहीं सोता फूटेगा पर अभी का मेरा पहाड़ी नदी का अल्हड़पन नहीं रहेगा उसमें...

न ना, मेरी कान्गुरिया ऊँगली को अपनी तर्जनी में फँसाये रहो कि उतना भर ही बंधन होता है जिंदगी से बंधा हुआ...मुझे छुओ कि मुझे अहसास हो कि मेरा होना भी कुछ है...सड़क पार करते हुए कभी भी मेरा हाथ मत छोड़ो कि मुझे हमेशा से तेज़ रफ़्तार दौड़ती चीज़ें आकर्षित करती हैं. कभी देखा है मंत्रमुग्ध सी गुजरती ट्रेन को...पटरियों पर कैसी धड़-धड़ गुजरती है कि जैसे एक्सपर्ट कुक किचन में सब्जियां काटता है...खट-खट-खट...क्या लाजवाब रिदम होती है...जैसे तबले पर तीन ताल बज रहा हो...या फिर कहरवा - धा-गे-न-ति-नक-धिन...धा-गे-न-ति-नक-धिन. देखा है कैसे उँगलियाँ तबले पर के कसे हुए चमड़े पर पड़ती हैं...क्षण का कौन सा वां हिस्सा होता है वो? फ्रैक्शन ऑफ़ अ सेकण्ड...कैसा...कैसा होता है कि एकदम वही आवाज़ आती है...देखो न मेरी आँखों में वैसी ही हैं...सफ़ेद और फिर बीच में काली. पलक झपकने में भी एक ताल होता है, एकदम ख़ामोशी में सुनोगे तो सुनाई देगा...

मेरी आवाज़ तुम्हें तरसती है कि जैसे कैमरा की आँख पल पल घटती जिंदगी में से किसी क्षण को...कहाँ बाँध लूं, कहाँ समेट लूं...कैसे कैसे सहेज लूँ इस छोटी सी जिंदगी में तुम्हें...और कितना सहेज लूँ कि हमारे यहाँ तो कहते हैं कि मरने के बाद भी सब ख़त्म नहीं होता...उसके बाद कुछ और ही शुरू होता है...फिर हम ये झगड़ा क्यूँ करते हैं कि ये मेरा कौन सा जन्म है और तुम्हारा कौन सा...तुम्हें भी एक जिंदगी काफी नहीं लगती न?

तुम मुझे वहाँ से लौटा लाओ जहाँ दुनिया ख़त्म होती है...

लौट आने को बस सादा कागज़ होता है...कभी कभी वो भी नहीं

स्ट्रगलिंग राइटर को देखा है? किसी शहर में उसके लिए कभी कोई जगह नहीं रहती...लेखक स्वाभाव से आवारा होता है इसलिए उसे हमेशा लौट आने के लिए एक जगह चाहिए होती है, एक कोना, एक कमरा, एक बिस्तर जिसे वो घर कह सके. अगर उसके पास लौट आने को आसरा नहीं होगा तो उसकी यात्राएं अनंत तक फैलती जायेंगी और एक वक़्त ऐसा भी आएगा कि जब उसके पास लौट आने की इच्छा ही नहीं बची होगी.

राइटर मकान मालिक से इल्तिजायें करता है, आंटी प्लीज थोड़ी सी जगह चाहिए रहने के लिए...बरसाती में रह लूँगा...आपको कभी कोई तकलीफ नहीं होगी...न सही ये बरामदा ही घेर कर वो कोने वाली जगह मुझे दे दो...एक गद्दा और कुछ किताबें...बस इससे ज्यादा कुछ नहीं है मेरे पास. प्लीज आंटी...घर पर आपकी भी हेल्प कर दिया करूँगा...प्लीज आंटी प्लीज...थोड़ी सी तो जगह की बात है, आप इतने बड़े घर में अकेले बोर भी हो जायेंगी...मुझे गिटार बजाना आता है, बहुत अच्छे से...आपकी पसंद के गाने बजाऊंगा. मदर प्रोमिस.

रिश्ते भी कभी कभी ऐसे हो जाते हैं...कहने में दर्द होता है मगर हम जानते हैं कि रिश्ते में हाशिया भर को ही मिले, हमें जीने के लिए चाहिए होता है. आजादी की कीमत तभी है जब कहीं न कहीं, छोटा सा ही सही, बंधन हो. There is nothing like absolute freedom. पूरी तरह से बंधनमुक्त होने पर हम अपनी आजादी तक एन्जॉय नहीं कर पाते...मन जो होता है न, वही मांगता है जो उसे नहीं मिलता...तो जब आपको बंधन नहीं मिलते आप बंधन की ओर भागते हो. कहीं कोई एक हो, जो आपको बाँध के रख सके...अपनी मर्जी से मोड़ सके, तोड़ सके...दुःख पहुंचा सके.

हम लाख खुद को तटस्थ करना चाहें, मन का एक कोना हमेशा छीजता रहता है...मन तब तक खुला है जब तक कोई कहे कि तुम्हारी सीमा आसमान है...किसी के कहे बिना इस कथ्य का होना भी नहीं होता...वैसा ही है जैसे हनुमान जी के पास बहुत सी शक्तियां थी, पर जब तक उनको कोई याद नहीं दिलाता उन्हें पता ही नहीं था कि वो क्या क्या कर सकते हैं.

बड़े साइंटिस्ट लोग रिसर्च कर के कह रहे हैं कि हमें जो दिखता है  इसलिए नहीं कि वो है...उसका होना इसलिए है की उसे देखने वाला कोई है...उस तरह से सच तो फिर कुछ भी नहीं रहा...उस तरह से तो फिर जो मैंने देखा वो सच...तो सबका सच अलग अलग होगा...और होता भी तो है. उफ्फ्फ!

हाशिया...गुम हो जाएगा ये भी धीरे धीरे...कागज़ ख़त्म हो रहा है, कलमें और दवात भी...और इसी के साथ एक पूरी प्रोसेस लुप्त हो रही है. लिखना सिर्फ शब्दों को सकेर देना नहीं है...लिखने में आता है जबान पे घुलता सियाही का स्वाद...आँखों से शब्दों को पीना...और सफ़ेद कागज़ का आमंत्रण...कुछ लिखने का, कुछ गढ़ने का...कुछ बनने का. एक ऐसी दुनिया रचने का जिसमें सब कुछ लेखक ही है पर एक परदे के पीछे. एक नाम लिखते ही किरदार जन्म ले लेता है और उसके साथ ही जन्मता है एक पूरा संसार...लेखक इसलिए तो भगवान् से कम नहीं होता.

राइटर के पास लौट आने को बस सादा कागज़ होता है...कभी कभी वो भी नहीं क्यूंकि उसमें तुम्हारा चेहरा उग आता है...तुम...तुम...तुम...जिस दिन मैं इस 'तुम' की परिभाषा लिख लूंगी, उस दिन मेरी कहानी पूरी हो जायेगी.

ओह! मेरी उँगलियाँ ठंढ से अकड़ रही हैं, अभी तो शुरूआती दिसंबर है...पूरा जाड़ा आना बाकी है. तुम्हारे पास लाइटर है न, जरा मेरी उँगलियाँ सेक लेने दो...एक आखिरी चिट्ठी लिखनी है तुम्हें. 

05 December, 2011

मुझे/तुम्हें वहीं ठहर जाना था

कसम से तुम्हारी बहुत याद आती है, जितना तुम समझते हो और जितना मैं तुमसे छिपाती हूँ उससे कहीं ज्यादा. मैं अक्सर तुम्हारे चेहरे की लकीरों को तुम्हारे सफहों से मिला कर देखती हूँ कि तुम मुझसे कितने शब्दों का झूठ बोल रहे हो...तुम्हें अभी तमीज से झूठ बोलना नहीं आया. तुम उदास होते हो तो तुम्हारे शब्द डगर-मगर चलते हैं. तुम जब नशा करते हो तो तुम्हारे लिखने में हिज्जे की गलतियाँ बढ़ जाती हैं...मैं तुम्हारे ख़त खोल कर पढ़ती हूँ तो शाम खिलखिलाने लगती है.

वो दिन बहुत अच्छे हुआ करते थे जब ये अजनबीपन की बाड़ हमारे बीच नहीं उगी थी...इसके जंग लगे लोहे के कांटे हमारी बातों के तार नहीं काटा करते थे उन दिनों. ठंढ के मौसम में गर्म कप कॉफ़ी के इर्द गिर्द तुम्हारे किस्से और तुम्हारी दिल खोल कर हंसी गयी हँसी भी हुआ करती थी. लैम्पोस्ट पर लम्बी होती परछाईयाँ शाम के साथ हमारे किस्सों का भी इंतज़ार किया करती थी. तुम्हें भी मालूम होता था कि मेरे आने का वक़्त कौन सा है. किसी को यूँ आदत लगा देना बहुत बुरी बात है, मैं यूँ तो वक़्त की एकदम पाबंद नहीं हूँ पर कुछ लोगों के साथ इत्तिफाक ऐसा रहा कि उन्हें मेरा इंतज़ार रहने लगा एक ख़ास वक़्त पर. मुझे बेहद अफ़सोस है कि मैंने घड़ी की बेजान सुइयों के साथ तुम्हारी मुस्कराहट का रिश्ता बाँध दिया और मोबाईल की घंटी का अलार्म.

वक़्त के साथ परेशानी ये है कि ये हर शाम वहीं ठहर जाता है...मैं घड़ी को इग्नोर करने की पुरजोर कोशिश करती हूँ पर यकीन मानो मेरे दोस्त(?) मुझे भी उस वक़्त तुम्हारी याद आती है. कभी कभी छटपटा जाती हूँ पूछने के लिए...कि तुम ठीक तो हो...तुम्हारा कहना सही है, तुम्हारी फ़िक्र बहुत लोगों को होती है...इसी बात से इस बात की भी तसल्ली कर लेती हूँ कि जो लोग तुम्हारा हाल पूछते होंगे वो वाकई तुम्हारा ध्यान रखेंगे, मेरी तरह दूर देश में बैठ कर ताना शाही नहीं चलाएंगे. मुझे माफ़ कर दो कि मैंने बहुत सी शर्तें लगायीं...बहुत से बंधन बांधे... तुम कहीं बहुत दूर आसमानों के देश के हो, मुझे जमीनी मिटटी वाली से क्या बातें करोगे. मैं खामखा तुम्हें किसी कारवां की खूबसूरत बंजारन से शादी कर लेने को विवश कर दूँगी कि इसी बहाने तुम कहीं आस पास रहोगे.

तुम आसमानों के लिए बने हो मेरे दोस्त...अच्छा हुआ जो हमारी दोस्ती टूट गयी. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके लिए दो लम्हा भी रुका जाए...कई बार तो मुझे अफ़सोस होता है तुम्हारा वक़्त जाया करने के लिए. तुम्हारी जिंदगी में बेहतर लोग आ सकते थे...बेहतर किताबें हो सकती थीं, बेहतर रचनायें लिखी जा सकती थीं. तुम उस वक़्त का जाहिर तौर से कोई बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे...तुम्हारे दोस्त कुछ बेहतर लोग होने चाहिए...मैं नहीं...मैं बिलकुल नहीं. तुम कोई डिफेक्टिव पीस नहीं हो कि जिसे सुधारा जाए...मैं तुम्हें बदलते बदलते तोड़ दूँगी, मैं अजीब विध्वंसक प्रवृत्ति की हूँ.

तुम्हें पता है लोग कब कहते हैं की 'मुझसे दूर रहो'?
जब उन्हें खुद पर विश्वास नहीं होता...जब वो इतने कमजोर पड़ चुके होते हैं कि खुद तुमसे दूर नहीं जा सकते...तब वे चाहते हैं कि तुम उनसे दूर चले जाओ.


आज बशीर बद्र का एक शेर याद आया तुम्हारी याद के साथ...
मैं कब कहता हूँ वो अच्छा बहुत है
मगर उसने मुझे चाहा बहुत है 


मैं तुम्हारे बिना जीना सीख रही हूँ, थोड़ी मुश्किल है...पर जानते हो न, बहुत जिद्दी हूँ...ये भी कर लूंगी. 

हाँ, एक बात भूल गयी...

तुम मुझसे दूर ही रहो!


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