07 January, 2011

गिरहें


उसने गीत को अपना क़त्ल करने दिया...और वह आँखों को बंद कर अपने जिस्म में बंदी हो गयी. शब्द होने के बावजूद वो बहुत अकेली थी. उसे बहुत दिनों बाद जाकर समझ आया है कि लोग नितांत अकेलेपन से घबराकर शायद आत्महत्या कर लेते होंगे.

वायलिन बजता रहा देर शाम और वो छत की आखिरी सीढ़ी पर पांव रोके खड़ी रही. उसे बेतरह अकेला महसूस हो रहा था और किसी से बात करने की नाकाबिले बर्दाश्त इच्छा हो रही थी. पर उसे ये बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि वो किससे बात करे. दुनिया में इस तरह एकदम अकेला होना उसे बहुत खल रहा था. गीत में बोल नहीं थे...उसे सुनना ऐसा था जैसे एकाकी समंदर की ओर ना लौटने के लिए बढ़ना...जैसे बिना जिरह किये मौत को पथरीली आँखों से खुद के पास धीमे धीमे आते हुए देखना. 

दुनिया में बहुत से लोग थे जो उससे बात कर सकते थे...पर उसका किसी से भी बात करने का मन नहीं था...उसे अचानक से लगा कि उसकी दुनिया एकदम खाली हो गयी है, वो किसी से भी प्यार नहीं करती है. इस ख्याल से उसे बहुत डर लगा. उसकी जिंदगी में ऐसा कोई लम्हा नहीं था जब उसे किसी से प्यार ना हो...अपनेआप से भी नहीं. उसे प्यार की लत लगी हुयी थी, ये लत शराब या सिगरेट से काफी ख़राब होती है. वायलिन के तार से उसकी नसें कट रही थीं और खून जमीन पर रिसता जा रहा था. 

उसे पहाड़ बहुत पसंद थे और समंदर भी...मगर फिलहाल उसे पहाड़ों से नीचे गिर जाना और समंदर में डूब जाना जिंदगी का मकसद दिख रहा था. लहरें आती रहे और खुली आँखों से जिंदगी को दूर जाती देखती रहे...मौत क्या बहुत तकलीफदेह होती होगी? जिंदगी से ज्यादा?

06 January, 2011

एक लेखक का कन्फेशन- २

वो:   क्या लिख रही हो?
मैं:   कुछ
वो:   कुछ माने? तुमको पता नहीं है कि क्या लिख रही हो.
मैं:   नहीं
वो:   तो फिर क्यों लिख रही हो? लिखने का कोई मकसद, कोई मंजिल होनी चाहिए ना?
मैं:   अच्छा? ऐसा होना जरूरी है क्या? और अगर ना हो तो, लिखने का कोई तयशुदा मकसद ना तो हो, लिखना लिखना नहीं       रहेगा? तो फिर क्या रह जाएगा? मकसद?
वो:   मैंने तो बस यूँ ही पुछा था कि क्या लिख रही हो, तुम तो मुझे ही सवालों से बाँधने लगी. आजकल तुम इतने सवाल करने लगी हो, पहले तुम कितनी खुशगवार बातें किया करती थी.
मैं:   तुम्हें संतोष हो जाएगा अगर मैं ये कहूँ कि मैं तुम्हें भुलाने के लिए बहुत से किरदार रच रही हूँ जो बिलकुल तुम्हारे जैसे नहीं हैं? कि मैं बहुत सी कहानियां लिख रही हूँ जो तुम्हारी बात कहीं भी नहीं कहते...तुम मान लोगे कि मैं तुम्हें याद ना करने के लिए अपनी कलम इस्तेमाल करती हूँ. लोगों को जैसे पी के नशा होता है मुझे लिख के होता है, या कहो...लिखने के दौरान होता है.
वो:   तुम मुझे भुलाना चाहती क्यों हो, मेरे होने के साथ जीना इतना मुश्किल तो नहीं है.
मैं:   मुश्किल तो नहीं है, सच कहते हो...मुश्किल तो सिगरेट ना पीना है, मुश्किल तो ये सोचना है कि आज ग्लास में कितनी आइस क्यूब्स डालूं...या फिर सर्दी है थोड़ी, नीट पी लूं क्या, मुश्किल तो ये सारे निर्णय हैं. तुम्हारे होने के साथ जीना तो इनके सामने खिलवाड़ लगता है. तुम समझ रहे हो ना?
वो: जान...अगर मैं कहूँ कि सिगरेट और शराब छोड़ तो तो प्लीज ऐसा करोगी?
मैं:    नहीं, तुम्हें ये कहने का कोई हक नहीं है.
वो:   आजकल तुम अबूझ होती जा रही हो मेरे लिए.
मैं:   अच्छा है...इसी तरह अबूझ होते हुए अनजान होकर तुम्हारे लिए भूलने लायक हो जाउंगी, जो बातें समझ में नहीं आती उन्हें याद रखना हद दर्जे का मुश्किल काम है...कुछ कुछ वैसा जैसे कि सुबह डिसाइड करना कि आज तुमसे मिलने कौन से कपड़े पहन कर आऊं. शायद एक दिन ऐसा आएगा जब मुझे सचमुच यकीन हो जाए कि कपड़ों से कोई फर्क नहीं पड़ता...कि तुम मेरी रूह से प्यार करते हो.
वो:   करता हूँ...तुम्हारी रूह से प्यार करता हूँ, पर एक बात समझाओ. प्यार तो हमेशा अपनी जगह था, प्यार होने के लिए तुम्हारे पास होना जरूरी नहीं होता. फिर जब तुम पास नहीं होती हो, याद किसकी आती है? प्यार कहीं चला तो नहीं जाता...याद तो इस खुशबू की आती है ना, तुम्हारी उँगलियों की आती है जो मेरी उँगलियों में फंसी हुयी हैं. मेरे कंधे पर जो तुम सर टिकाये बैठी हो इस अहसास की आती है. फिजिकली पास होना भी उतना ही जरूरी है.
मैं:   मुझे लगता है मैं ये कहानी पूरी नहीं कर पाउंगी.
वो:   क्यों?
मैं:   सच और झूठ के बीच की लकीरें धुंधलाने लगी हैं. मुझे लगता है मैंने आज कुछ ज्यादा पी ली है...वो तुम्हारे आने की ख़ुशी और तुम्हारे जाने का ग़म एक साथ था ना, इसलिए. तुम यूँ एक दिन के लिए मुझसे मिलने मत आया करो.
वो:   देखो...अल्कोहल हेल्थ के लिए ठीक नहीं होता.
मैं:  नहीं, मोडरेट क्वांटिटी में अल्कोहल दिल के लिए अच्छा होता है, ऐसा रिसर्च में आया है. और चूँकि दिल में तुम रहते हो तो अल्कोहल तुम्हारे लिए भी फायदा करेगा. तुम्हारे लिए पी रही हूँ जान.
वो:  सुबह होने को आई, उजास फूट रही है.
मैं:  तुम्हारे जाने वाली सुबह...कितनी चुभती है.
वो:   मैं बैठा हूँ...तुम कहानी पूरी कर लो, फिर जाऊँगा.
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उसने कभी कहानी पूरी नहीं की...हर बार वो देर रात तक एक कहानी की बातें करते थे. उसे कहानी लिखनी थी, पर पूरी नहीं करनी थी क्योंकि उसके हमराही का वादा था कहानी पूरी होने तक साथ रहने का.
उसकी कलम में स्याही की जगह शराब भरी होती थी...वो लिखती थी तो उसे नशा चढ़ता था, वो पीती थी तो उसे लिखने का मन करता था.
कहानी मुकम्मल नहीं थी...पर लिखना, बेहद मुकम्मल हुआ करता था.

भोर का अनर्गल प्रलाप

मुझे कभी नहीं लगता था कि मुझे कार चलाने में मज़ा आएगा. बचपन में इस जिद के कारण ड्राइविंग सीखी ही नहीं, कार को मैं डब्बा बोलती थी...बैठे और चले गए, कितना बोरिंग है. पापा ने बिगाड़ भी तो रखा था, १५ साल की उम्र में राजदूत सिखा कर...बाइक चलाने में मज़ा आता था, थ्रिल महसूस होता था. और वो कच्ची उम्र थी तो लोगों की शक्लों पर बदहवासी देख कर बेहद अच्छा लगता था. मेरी साथ की दोस्तों में से किसी ने भी बाइक नहीं सीखी थी. आज तक भी कम लोगों को जानती हूँ, कई तो यकीन ही नहीं करते कि मैं राजदूत चलाती थी. कुणाल ने भी जब पहली बार छोटे भाई को देखा राजदूत पर तब जाके माना कि मैं चलती होउंगी कभी. वो शादी का पहला साल था, साड़ी पहन कर ससुराल में थी...पर अपनी राजदूत देखते ही सब छोड़ के चलाने का मन करने लगा.
खैर...मैं बात कर रही थी कि क्यों मुझे लगता था कि मुझे कार चलाने में मज़ा नहीं आएगा...कि बहुत बोरिंग है. मेरी फ्लाईट और मैं जैसे एक जान हैं. मैं स्कोडा फाबिया चलाती हूँ...कल मैं दूसरी बार लॉन्ग ड्राईव पर गयी, अकेले. तो महसूस किया कि मुझे प्यार हो गया है, कार ड्राईविंग से :) वैसा ही अहसास होता है, कुछ नया करने पर, दिल की धड़कने बढ़ी रहती हैं, मूड अच्छा अच्छा सा रहता है और दिल बस ऐसे ही गीत गाता रहता है.
मुझे लगता है कि जिंदगी में हमेशा कुछ नया सीखते रहना चाहिए, इससे जिंदगी खुशगवार रहती है. नया करने में जो थ्रिल आता है उससे हर दिन को एक नया मकसद मिलता है. इधर काफी दिनों से कुछ नया सीखा नहीं था तो मज़ा नहीं आ रहा था जीने में. आजकल फिर से सुबह उठती हूँ तो सोचती हूँ कि आज कार लेकर किधर जाऊं...ये और बात है कि रोज नहीं जाती हूँ, पर फिर भी सुबह को सोचने के लिए एक अच्छी चीज़ तो मिलती है.
पैदल चलने पर हर तरफ घूरते लोग होते हैं, आश्चर्य होता है कि इतने सालों बाद भी आदत नहीं पड़ी है. या ये भी हो सकता है कि बाइक चलाने के कारण अब लोगों के घूरते हुए देखने की आदत ख़त्म हो गयी है. एक सेकंड के अन्दर आप किसी के सामने से गुज़र जाते हैं...उसपर हेलमेट, जैकेट तो बहुत हद तक लगता है कि नज़रें कुछ देख नहीं पाएंगी. कार चलाना इस सुरक्षा को एक कदम आगे ले जाता है. कार मेरी खुद की पूरी दुनिया है, जहाँ मैं एकदम महफूज़ हूँ, जहाँ कोई घूरेगा नहीं. कल मोहल्ले में भी गाड़ी चलाई तो अहसास हुआ इस बात का और भी शिद्दत से.
मुझे समझ नहीं आता है कि हमारा समाज किधर गलती कर रहा है कि आखिर क्यों लड़कियां तो घूरते नहीं चलती लड़कों को...पर जहाँ तीन शोहदे खड़े हैं दूर से किसी लड़की पर नज़र चिपकाये रखेंगे. ऐसे में कई बार दिल करता है कि ऐसे ही उठ कर थप्पड़ मार दूं. कोई पूछे कि क्यों तो कहूँ कि ये जो घूर रहे हो तुम बिना मतलब के, मेरा भी बिना मतलब के थप्पड़ मारने का मन किया. या फिर तुम्हारे देखने से उतनी ही तकलीफ होती है जितनी तुम्हें इस थप्पड़ से हुयी है. लड़कियां घूरने की चीज़ नहीं हैं...तमीज का ये चैप्टर लगता है आजकल माँ-बाप अपने बेटों को पढ़ाते ही नहीं.
सुबह सुबह मन बहुत भटकता है...खैर.
ऑफिस जाने का टाइम हो रहा है...कार की बड़ाई फिर कभी.

05 January, 2011

ढाई आखर प्रेम का

इश्क सवालों की एक उलझी हुयी गुत्थी ही तो है और क्या. आज मैं आपको एक लड़की की कहानी सुनाती हूँ जिसकी जिंदगी में सवाल रास्तों की तरह खड़े हो जाते हैं...हर सवाल चुनने के पहले उसे ये भी देखना पड़ता है कि सवाल का उत्तर दे कर उसे ले जाने वाला सपनों का शहजादा दिखता कैसा है.
एक छोटे शहर की आम लड़की थी वो...नहीं नहीं वो रहती दिल्ली में ही थी, पर कहते हैं ना, कुछ शहर हमारे दिल के तहखानों में बसे होते हैं. उसकी दिली ख्वाहिश थी कि कोई शब्दों से उसका दिल चुरा कर ले जाए, पर उसे डर ये लगता था कि कोई उसकी सूरत पर ना मर मिटे...खुदा ने उसे कमाल का हुस्न बक्शा था...रंग जैसे दूध के मर्तबान में किसी ने सिन्दूर का हाथ लगा दिया हो गुलाबी उजला, गोल मासूम चेहरा और बड़ी बड़ी सुरमई आँखें...सपनीली, खोयी खोयी सी, उसपर हर रंग के कपड़े फबते थे पर जब वो वासंती पीला पहनती थी तो जैसे शरद में भी फूल खिल उठते थे.
उसके कमरे में फिल्म सितारों के नहीं किताबों के पहले पन्ने शीशे में मढ़ कर टंगे रहते थे...आलमारी पर उसने काफी कुछ चिपका रखा था, कई सारी पंक्तियाँ मोती जैसे अक्षरों में, अखबार की कतरनें, पत्रिकाओं से काटे गए चित्र. लड़की को लिखने का शौक़ भी एक ऐसे ही शायर को पढ़ कर जागा था. उसका पसंदीदा शगल था लेखकों को ख़त लिखना...लड़की का सोचना था कि तारीफ और बुराई दिल खोल कर करनी चाहिए, उसे कोई पसंद आता तो पन्ने दर पन्ने भर देती...लड़की ऐसा ही इश्क के बारे में सोचती थी, कि कुछ बचा कर नहीं करना...इश्क है तो पूरा है, मन से और आत्मा से है.
लड़की को अक्सर प्यार हो जाता, तब वो बेसब्री से अपने लेखक को पढ़ती...नायिका की जगह खुद को रखती, नाराज़ होती, मनुहार करती...कल्पना की एक पूरी दुनिया बस जाती उसके इर्द गिर्द, जिसमें कुछ पंक्तियाँ होती...कुछ फलसफे होते. बस वादे नहीं होते उसकी प्रेम कहानी में...ना मिलने का, ना बिछड़ने का. उसने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा...उसका प्यार एकतरफा होके भी पूरा था क्योंकि प्यार सवाल नहीं करता था...वो खुद भी सवाल कहाँ करती थी कभी. उसके खतों में उसका नाम तक नहीं लिखा होता था कभी...पर उसके ख़त किसी बेहतरीन साहित्यिक रचना से कम नहीं होते थे. जिन खुशकिस्मत लेखकों को उसके ख़त मिले थे, वो अक्सर उसकी बातें किया करते थे. ऐसी कोई महफ़िल नहीं होती जिसमें उसके चर्चे नहीं होते.
सब कुछ अच्छा चल रहा था...बस एक दिन आलमारी ने गलती कर दी, आपको आलमारी याद है, जिसमें उसने कई पंक्तियाँ अपनी खूबसूरत लेखनी में सजा रखी थीं? एक शाम उसके घर एक मेहमान आया, उसे किसी कवि सम्मलेन में भाग लेना था. जैसा कि अधिकतर घरों में होता है, एक पंक्ति का परिचय दिया गया दोनों का, बस...और बात वहीं ख़त्म हो जाती पर चूँकि लड़की की अगले दिन हिंदी की वार्षिक परीक्षा थी, उसके पिता ने आगंतुक से उसके उत्तर जांच लेने को कहे. लड़की के कमरे में जाते ही लेखक ठिठक गया...लेखक जिसका कि नाम अक्षर था सवालों में घिर गया. आलमारी पर लिखे शब्द चलचित्र से उसकी आँखों में घूमने लगे...और एक पुराने कागज़ की लेखनी से हूबहू मिलने लगे. उसे एक मिनट का एकांत चाहिए था...सिगरेट के बहाने से निकला और लाइटर की रौशनी में उसने कई जगह से मुड़ा वो कागज़ निकाला...पास से देखने में कागज़ थोड़ा जल भी गया, पर पंक्तियाँ एकदम अलमारी पर की लेखनी से मेल खाती थीं.
अक्षर को चक्कर आ गया...तबीयत ठीक ना होने की बात कर के वो अपने कमरे में आराम करने चला गया. सारी रात वह सोचता रहा...उस ख़त के बारे में. क्या वो सच में लड़की का पहला ख़त था, उसे उससे पहला प्यार हुआ था? लड़की ने कभी ना अपना नाम बताया, ना पता...बस साल, महीने हफ़्तों उसके ख़त आते रहे. वह कहाँ भूल पाया था वो पहला ख़त, आज भी तो हमेशा अपने बटुए में लेके घूमता फिरता है. फिर क्या करना चाहिए उसे? पूछ ले उससे...बता दे कि उसके खतों ने कैसे उसे जिलाए रखा है, घनघोर गरीबी, दुत्कार और हर तरफ अस्वीकृतियों के बावजूद...उसके ख़त ने प्राण फूंके हैं उसके लेखन में. कि उसकी हर कृति में दीपशिखा सी वो जली है.
फिर उसकी आँखों में उभरा लड़की का चेहरा, उसकी चकित आँखें जब वो उसके कमरे में ठिठक गया था...उसका वो सवाल कि क्यों, क्या बात हुयी भला? आप मुझे पढ़ने से क्यों इंकार कर रहे हैं. कि वो उलझन में पड़ गया कि प्यार कहाँ था...उन खतों से या इस पनियाली आँखों वाली लड़की से प्रथम दृष्टि में जो हुआ वो प्यार था. कि क्या ये दोनों एक ही हैं, प्यार के दो रंग?
अगले दिन उसकी वापसी थी, उसने बस एक बार लड़की को आँखों से पिया...और विदा हो गया. लगभग तीन महीने बाद, लड़की के नाम एक ख़त आया...एक पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण था और पुस्तक की पहली प्रति लेखक के दस्तखत के साथ थी.
उसने पूरी रात जाग कर उपन्यास पढ़ा, पूरा सच लिखा गया था सारे खतों के साथ...उपन्यास का अंत एक सवाल पर था, तुम्हारी जिंदगी में मेरी कोई जगह हो सकती है? लड़की सोचती रही, सोचती रही...सारे लेखक, उनको लिखे सारे ख़त...इश्क का हर पन्ना उसकी आँखों में तैरता रहा...पर हर रंग से गाढ़ा रंग था पहले प्यार का, पहले ख़त का. पर उसका सवाल अब भी बाकी था...सवालों का सही उत्तर देकर उसे ले जाने वाला सपनो का शहजादा दिखता कैसा है?
भोर के साथ सवाल एक ही रह गया था...इश्क का चेहरा कैसा होता है? कैसी होती हैं वो आँखें जिनसे इश्क देखता है. लड़की ने  वसंत के कपड़े पहने थे...और विमोचन पर जब उसने अक्षर को देखा...तो उसके सारे सवाल कहीं खो गए. सारे चौराहे, तिराहे, दोराहे मिल गए और एक गुलाब की पंखुड़ियों सा रास्ता सामने बिछ गया. पहला प्यार इतना खूबसूरत होता है, उसने पहली बार जाना. शब्दों में बंधा इश्क स्वतंत्र हुआ और मुकम्मल भी हुआ.

31 December, 2010

बहीखाता

पुराने साल की पुरानी आदत है...हिसाब किताब ले के बैठ जाने की. आज साल का आखिरी दिन...सोच रही हूँ क्या क्या गुज़रा इस बीते साल में. एक आम सी जिंदगी में खास क्या हो सकता है...उपलब्धियों के नाम पर बस एक दिन की लॉन्ग ड्राईव आती है जो मैंने खुद से की थी. नयी चीज़ सीखी, कार चलाना...नया सामान ख़रीदा...अपना हैंडीकैम...नए लोगों को पढ़ा, जाना...किशोर चौधरी. 

दिसंबर का ये महिना मेरे लिए अक्सर खोने पाने का रहता है...पिछले साल इसी समय सागर का पहला मेल आया था...इस साल एक बहुत पुराने दोस्त का कमेन्ट देखा कल अपने ब्लॉग पर...साथ ही तारीफ भी, कि अच्छा लिखने लगी हो. दोस्तों से दुःख भी पहुंचा...एक करीबी दोस्त ने शादी कि और बुलाना तो दूर, बताया भी नहीं. वाकई दूरियां आ जाती हैं रिश्तों में...उसी तरह शिंजिनी की शादी में दिल्ली गयी...देर रात उस बंगाल समाज में रुकी. भाई हिम्मत का काम था...वो तो बचपन से इन्द्रनील से दोस्ती होने के कारण थोड़ी बहुत बांगला समझ में आती थी तो कमसेकम पता चल रहा था कि क्या चल रहा है. इस साल मनीष से भी बहुत साल बाद मिली...नील और मनीष दोनों मेरे हाथ का खाना खा के आश्चर्य करते रहे कि हमको सच में खाना बनाना आ गया. दिल्ली में पूजा से मिली...उसने इतने प्यार से चाय बनायी कि मैं कभी नहीं पीती थी पर उसका दिल रखने के लिए चाय पी और अच्छी भी लगी. प्यार में बहुत स्वाद होता है. 

वोंग कार वाई की फिल्मों से परिचय हुआ...लगा कि इतने दिन कैसे नहीं देखी...पहली बार अज्ञेय को ध्यान से पढ़ा...कुश और अपूर्व से मिली, देखा कि अपूर्व कितना भला सा लड़का है, कुश के बारे में कुछ नहीं कहूँगी ;) पीडी के रस्ते के ज्ञान के बारे में जाना... नीरा से मिली, उनको अपनी बाइक पर घुमाया...अनगिन गप्पें मारी...बहुत सारी किताबें पढ़ी.

अपनी उम्र के साथ तालमेल बिठाने में साल अंत आते आते कामियाब हुयी...लगता था बुड्ढी हो गयी हूँ, बहुत मच्योर हो गयी हूँ...सब सोच के करती हूँ, आगे पीछे, दुनिया, समाज...सारा बोझा अपने सर ले के घूमती थी. एक दिन लगा बस...दिल की आवाज़ पर कार ले के निकली थी...अपने इस पागलपन में ये भी दिखा कि अब भी कुछ बचा हुआ है मुझमें...जो पहले वाली पूजा जैसा है. फिर से किसी ने कहा 'तू एकदम पागल है' और उसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लिया. उम्र जैसे अचानक कम हो गयी. 

फिर से पहली बार प्यार हुआ...गोवा गयी..आलसी वाली छुट्टी मनाई...कुणाल को रोज देखती हूँ तो लगता है प्यार बढ़ता जाता है exponentially यकीन आता है कि सोल्मेट्स होते हैं...शादी के तीन साल तो हो गए. बहुत बड़ा माइलस्टोन है. प्यार की बारीकियां, झगड़े, आफतें...और शादी की जिम्मेदारियों के बावजूद...प्यार सलामत है. touchwood. 

पापा और भाई से थोड़ी ज्यादा गप्पें मारी...मम्मी की थोड़ी ज्यादा याद आई...रोना थोड़ा ज्यादा आया. सुबह उठ कर आज भी पहला ख्याल मम्मी का ही आता है...अब कभी कभी इस ख्याल पर मुस्कुराने का मन करता है, साल में दो तीन बार ही सही. जब सपने में मम्मी से डांट खा के उठती हूँ तो अक्सर भूल जाती हूँ कि कहाँ हूँ, लगता है पटना में हूँ और उठ कर कॉलेज जाना है. तब अक्सर हँसी आती है सुबह.

बाइक अब भी ९० पर चलाती हूँ मूड होता है तो...देर रात मोहल्ले में बाल खुले छोड़ कर, गाना गाते या सीटी बजाते हुए भी बाइक चलाती हूँ...ऐसे में भूतों के डरने पर मज़ा भी आता है...कभी कभी अपने डरने पर भी मज़ा आता है. चाँद अब भी खूबसूरत दिखता है...दोस्तों की याद अब भी आती है. जिनसे सालों हो गए मिले हुए, उनकी भी. लगता है सब होते और मैं सबको कार में ठूंस कर कहीं दूर चली जाती, वहां सब मिल कर पिकनिक मनाते.

कहानी लिखने की कोशिश की...और अपनी नज़र में आश्चर्यजनक रूप से सफल हुयी...किरदार लोगों को सच लगते हैं, कहानियां सच में घटी हुयी लगती हैं. यानि कल्पना बहुत हद तक detailed है. ये बात इसलिए भी अच्छी लगती है कि मुझे कभी लगता नहीं था कि मैं कभी कहानी रच पाउंगी. ब्लॉग को आजकल रफ कॉपी की तरह इस्तेमाल करती हूँ. फिल्में दिमाग में चलती जाती हैं, लिखते जाती हूँ...बिना सोचे कि अच्छी हैं, बुरी हैं या अधूरी हैं. फिल्में बनाना आसान होगा अब किसी दिन. पिछले साल व्यंग्य लिखने की कोशिश की थी...इस साल कहानी. अच्छा लगता है कि सब कुछ हो रहा है...बिना रुकावट के. ये भी लगता है कि मेरी कोई खास पकड़ नहीं है जैसे सागर, दर्पण या अपूर्व की है...एक बार में लग जाता है कि ये इनकी शैली है...समझ नहीं आता कि अपनी कोई शैली बनायीं भी है या ऐसे ही. लिखना अच्छा लगता है...लिखती हूँ...वैसे भी ब्लॉग ही तो लिख रही हूँ कौन सा छप रहा है नैशनल पेपर में कि सब पढ़ के कहिएं कैसा ख़राब है या अच्छा है :)

साल के अंत में...बहुत दिनों बाद...इश्वर का धन्यवाद करती हूँ...कुणाल के लिए, अपने परिवार के लिए और मेरे कुछ खास दोस्तों के लिए जो मेरी जिंदगी को पूरा करते हैं. मैं जहाँ हूँ...संतुष्ट हूँ...सुखी हूँ. 

सबको नए साल की हार्दिक शुभकामनायें. 

29 December, 2010

जिगसा पजल

वो हमेशा की तरह उस झील के किनारे पर खड़ी थी...बंगलोर शहर से बाहर नए एयरपोर्ट से थोड़ी दूर, नैशनल हाइवे नंबर सात  पर पहाड़ियों के पांवों तले लेटी वो झील जिया की जिंदगी में बहुत ख़ास हो गयी थी. उस झील के पार एयरपोर्ट था और हवाईजहाज जब गुजरते थे तो जैसे झील के पानी में हलचल मच जाती थी. झील से थोड़ा ही हट कर रेलवे लाइन भी गुज़रती थी और पास में हाइवे था. जिया को लगता था कि शहर में बस एक यही जगह है जिधर से शहर पहुँचने के तीनो रास्ते दिखते हैं...एक तरह का संगम...प्रयाग...मीटिंग पॉइंट.

नॅशनल हाइवे नंबर सात कन्याकुमारी तक जाता था...झील के किनारे बैठी वो अक्सर सोचती थी कि कार लेकर चलती जाऊं, चलती जाऊं जब तक कि सड़क ख़त्म ना हो जाए...और अगर वो NH 7 पर ड्राइव करती जाए तो सच में ऐसी जगह पहुँच जायेगी जहाँ से आगे जाने का कोई रास्ता नहीं होगा. सामने उछाल मारता समंदर...वैसा ही होगा जैसी ये झील है. समंदर पार करना बहुत मुश्किल है. कन्याकुमारी पहुँच कर आगे जाने का कोई रास्ता नहीं होता. सब ख़त्म हो जाता है पानी की कुछ लहरों तक आ कर. उनके रिश्ते की तरह.

अभी कल ही की बात लगती है जब तुषार और वो शाम को काफी सालों बाद मिले थे. उसे बहुत दिनों बाद बर्फ का गोला नज़र आया था एक ठेले पर तो वो काफी खुश थी...उसपर तुषार को सर्दी थी तो वो गोला नहीं खा सकता था...उसे चिढ़ा कर खाने में और भी मज़ा आ रहा था. शाम बेहद खूबसूरत थी, मीठी, खट्टी प्यारी...एक हमेशा याद रहने वाली शाम के सारे रंग मिले हुए थे. सड़क किनारे ऊँचे पेवमेंट पर वो खामोश ही बैठे थे. दिसंबर महीने की हलकी ठंढ थी जो शाम ढलते बढ़ती जा रही थी.

तुषार ने बिना किसी भूमिका के ही कह दिया था...जिया, अगर मैं कहूँ कि हम आखिरी बार आज मिल रहे हैं तो?. उसे लगा वो मज़ाक कर रहा है पर उसकी आवाज़ थोड़ी ठहरी हुयी थी इसलिए डर भी लगा कि कहीं सीरियस बात तो नहीं कर रहा...तुषार बोलता गया...अब तुम्हारी शादी हुयी यार...डेढ़ साल होने को आये. तुम्हें चाहिए कि अपनी शादी पर ध्यान दो. मैं रहूँगा तो खामखा कभी अपने पति से लड़ पड़ोगी मेरे लिए. मैं जानता हूँ, हर लड़का इन्सेक्युर होता है. वो तुम्हारी पूरी दुनिया होना चाहिए, तुम्हारा बेस्ट फ्रेंड, तुम्हारा सब कुछ. मेरी कोई जगह नहीं है तुम्हारी जिंदगी में. यूँ तो जिया ने कोशिश की, बात को परे हटाने के...हम आखिरी बार मिल रहे हैं...पागल हो गया है, मर नहीं जाएगा मेरे बिना! पर असल में ये बात उसने अपने खुद के लिए कही थी.

तुषार ने लम्हे में सब कह दिया...कहने को बचता क्या था फिर. प्यार, शादी सब कुछ जैसे पानी में रंगों की तरह घुलने लगा. कला खट्टा गोला में हर स्वाद अलग महसूस होने लगा, कभी खट्टा, कभी तीखा, कभी मीठा. बहुत से मंज़र आँखों के सामने तैर गए, कितने झगड़े...कितना मनाना और कितने सारे साथ के पिकनिक वाले दिन. शादी के दिन कितना तो रोई थी तुषार से लिपट कर. याद बस वो लम्हा आता था...जब उसने कहा था, पागल मैं थोड़े कहीं जा रहा हूँ, आता रहूँगा तुझसे मिलने बंगलोर...तू शादी कर रही है, मर थोड़े रही है. मैं हमेशा तेरे साथ हूँ रे...पापा ने भी विदाई के समय यही कहा था. कि हम आते रहेंगे मिलने. पर पापा तो छुट्टी कहाँ मिली...तुषार ही आया था, साल भर बाद लगभग...छोटे भाई के साथ घर से भाईदूज का सामान लेकर.

जिया ने कुछ नहीं कहा...कहना चाहती थी, कि मैं कोई गर्लफ्रेंड थोड़े हूँ जो ब्रेक अप हो जाएगा हमारा...दोस्ती कोई ख़त्म हो जाने वाली चीज़ थोड़े है. कि एक दिन उठ कर तुम बोल दो कि तुम्हारी पूरी जिंदगी कोई और है...मेरी कोई जगह नहीं है. सिर्फ इसलिए कि किसी से मैंने शादी की है, उससे बेहद प्यार करती हूँ वो मेरी पूरी दुनिया नहीं ना हो जाएगा. मम्मी है, पापा हैं, भाई है...घर के इतने सारे लोग, नाना नानी, भाई बहन और कुछ खास दोस्त. सब मिलकर मेरी पूरी दुनिया बनाते हैं. इस जिगसा पज़ल का तुम एक जरूरी हिस्सा हो...तुम्हारे जाने से मेरी दुनिया में एक खाली प्लाट रह जाएगा.

पर ऐसे एकतरफ़ा निर्णय ले लेने पर कहने को क्या बचता है. अगर सच में उसे लगता है कि उसे मेरी जिंदगी में नहीं होना चाहिए तो मैं उसे नहीं रोकूंगी. लग कुछ वैसा रहा था जैसे जब पहली बार उसने बताया था कि वो होस्टल जा रहा है. उसका जाना जरूरी था, पढ़ना था...आगे कुछ अच्छा बनना था. जाना तो पड़ेगा ही. ठीक है जाओ...फोन करोगे कि नहीं? जिया को लग रहा था कि जैसे सब कुछ धीमा हो गया है...पलकें भी स्लो मोशन में ही झपक रही थीं. बर्फ का गोला पिघलते वो भी जैसे  जम सी ही गयी थी...सोच रही थी तुषार का मतलब  बर्फ होता है...

जाते वक़्त तुषार को हग करते वक़्त उसने मसहूस किया कि उसने बस एक लम्हे भर ज्यादा उसे पकड़े रखा है, हर बार से बस थोड़ा सा टाईटली हग किया है...उस वक़्त उसे महसूस हो गया कि तुषार अब वापस सच में नहीं आएगा मिलने. उसे पता नहीं क्यों उस वक़्त उस झील की याद आई.

NH7 के साथ चलती उस झील पर लगभग हर महीने किसी ना किसी दिन जाने का दिल कर आता है उसका. झील किनारे खड़े होकर वो बहुत सोचती है...जिसमें ये बातें भी आती हैं कि तुषार अब जाने कैसा दिखता होगा...बहुत साल हो गए बंगलोर आके बसे हुए. कभी कभी बच्चों के साथ भी आती है वहां, उन्हें खेलते हुए देख कर यादों को दुलराती है. जिंदगी के मुश्किल इक्वेशन अब भी मुश्किल लगते हैं उसे. ये रिश्तों की पेचीदगियां...परत दर परत सामाजिकता का खोल उसने ना अपने ऊपर चढ़ने दिया ना किसी और रिश्ते पर.

जब भी उसका झील पर जाने का मन करता है, वो जानती है कि तुषार बंगलोर आया हुआ है...हर बार वो वहां खड़ी होकर सोचती है कि इस बार कैसे आया होगा...फ्लाईट से, कर ड्राइव करके या ट्रेन से? उसकी आँखें अपने जिगसा पजल के हिस्से को बेतरह मिस करती हैं.

28 December, 2010

मेरी पहली लॉन्ग ड्राइव- अकेले

कोई कहे कि तुम एकदम पागल हो...इसको कॉम्प्लीमेंट की तरह लेना कब शुरू किया पता नहीं, पर अजीब चीज़ें करना, रिस्क लेना, जिनसे डर लगे वही काम करना...जिंदगी को छू के देखना...मौत को धप्पा दे आना इन सब कामों में मज़ा बहुत आता है. नहीं?
मैंने कार ड्राइविंग इस साल की शुरुआत में ही सीख ली थी...लाइसेंस जनवरी एंड में आ गया था. पर उसके बाद से कार चलाई ही बहुत कम है, एक तो कुणाल को डर लगता है तो वो मेन रोड पर हमको देता ही नहीं है...उसको टेंशन ही इतनी होती है. चेहरा देखने लायक होता है उसका, पूरा ध्यान उसका सड़क पर, और मैं गप्पें मारती चलती हूँ. अभी शनिवार रात को एक मित्र को मराथल्ली ड्रॉप करना था, रात के कोई एक बज रहे थे. गाड़ी मैं ही चला के ले गयी, कभी कभी ज्यादा जिद करने पर और रात को चूँकि सड़कें खाली रहती हैं तो कुणाल चलाने दे देता है हमको. लगभग ऊँगली पर गिन सकते हैं कि कितनी बार गाड़ी मैंने चलाई है साल में. 
कल दोपहर से ही खुराफात सूझ रही थी मुझे, ऑफिस जाने के पहले दोनों चाभियाँ ले कर उतरी थी...बाइक की भी और कार की भी. मेरे घर में पार्किंग से कार निकाल पाना बहुत मुश्किल है...अपार्टमेन्ट के दो गेट हैं...पीछे वाले गेट में अक्सर बहुत सी गाड़ियाँ लग के रास्ता ही ब्लोक रहता है वरना उस गेट से गाड़ी निकलना एकदम आसान है. थोड़ा सा रिवर्स करो और बस सीधे सड़क पर. वहीं सामने वाले गेट से निकलने के लिए बहुत आड़ा टेढ़ा करके निकालना पड़ता है. पिछली बार कोशिश की थी तो मिरर पर स्क्राच लगा दिया था. इतना रोना आया था कि मत पूछो.

ऑफिस जाने टाइम तो नहीं जा पायी कि रास्ते में बहुत गाड़ियाँ थी...वापस आई, कुक से खाना बनवाई फिर सोच रही थी कि कल व्हाईटफील्ड में मीटिंग है, बाइक से १८ किलोमीटर कुछ ज्यादा हो जायेंगे. कार से जा पाती तो कितना अच्छा रहता. भगवान का नाम लिया और दिल में कहा 'बेटा चढ़ जा सूली पर, जो होगा देखा जाएगा' अब सोचती हूँ तो हँसी आती है. बेसमेंट में पहुंची तो फिर से बाइक लगी हुयी थी कार के आगे...दरबान भी बेचारा देख रहा था कि मैं रोज कार की चाभी लिए आती हूँ और फिर जाती कहीं नहीं हूँ. तो उसने सामने से बाइक हटा दी. मैंने कार पहली बार निकाली अपार्टमेन्ट से बाहर.

गहरी सांसें ले रही थी...और दिल में कह रही थी 'यू कैन डू ईट, कम ऑन पूजा'. डर तो इतना लग रहा था कि दिल लगता था उछल के बाहर आ जाएगा...हाथ एकदम ठंढे पड़ रहे थे, एकदम. पहले तो कार के शीशे उतारे थे सारे ताकि बाहर की आवाज़ सुनाई पड़ती रहे. फिर मैंने हिम्मत की और सारा ध्यान सड़क पर रखा...शुरू के टाइम के कुछ लम्हे मुझे जिंदगी भर याद रहेंगे...सांस अटक रही थी. 'आई कैन डू ईट' के साथ एक और ख्याल भी आ रहा था 'मैं एकदम पागल हूँ' और घड़ी घड़ी सर को हिला रही थी कि मेरा खुद का कोई भरोसा नहीं है. फिर दिल में सोलिड बोल्ड ख्याल आया 'कि क्या होगा हद से हद एक स्क्रैच आएगा कार में, मर थोड़े ना जाउंगी'. बस फिर डर नहीं लगा...और मैंने कॉनफिडेंस के साथ कार चलायी. 

ट्रैफिक वाली सड़कों पर तो कोई चिंता नहीं थी, २० की स्पीड पर क्या खाक होगा...खुली सड़कों पर उफ़ क्या मज़ा आता है. थोड़ा सा रोड खाली मिला नहीं कि आह...रात का समय...दिल में कोई गाना, मस्त सा मौसम, थोड़ा सा डर कि कुणाल को बताये बिना भाग आई हूँ :) किल्लर कॉम्बो होता है...एकदम दिल खुश हो जाने वाला टाइप्स. 

वापस आई तो दोस्त बोले...क्या जमाना आ गया है, अपनी ही गाड़ी ले के भागना पड़ रहा है...भाई हंसा बहुत देर तक पहले फिर बोला 'रे बिलाई क्या सब काम करती है' और जिससे सबसे डर लग रहा था...कि कुणाल जानेगा तो जान मार देगा पर वो कितना प्यारा है उसने बस कहा कि बता के जाया करो :) हम उससे ये भी पूछे कि तुम सोचे थे कि हम ऐसे गाड़ी लेके फरार हो जायेंगे. वो बोला एकदम सोचे थे, हर रोज़ सोचते हैं कि आज घर जायेंगे तो तुम गायब रहोगी. वो मुझे कित्ती अच्छी तरह समझता है :)  No wonder I love him like crazy.

ये थी मेरी पहली लॉन्ग ड्राइव की कहानी...खुद के साथ...और ये पूरी पूरी सच्ची है :)

27 December, 2010

तुम्हारे सवाल अनाथ हो गए हैं

'तुम मुझे २४ घंटे का कॉल सेंटर समझती हो क्या? ये क्या जिद है कि अभी बात करनी है...मुझे और भी काम हैं, सुबह से मीटिंग में था. प्लीज दिन, समय कुछ तो देख कर कॉल किया करो. इमरजेंसी को उसी तरह ट्रीट करो, लाइटली लोगी तो तुम्हें ही नुक्सान होगा'

'तुम समझ नहीं रहे हो, मुझे अभी बात करनी है...मुझे जब बात करनी होती है तो करनी होती है, अगर मैं बात ना करूँ तो पागल हो जाउंगी. मैं जानती हूँ देर रात है...तुम्हें भी नींद आ रही है, तुम प्लीज, फ़ोन को ऑन करके सो जाओ...मैं अपनी बात कह के फोन काट दूँगी, प्रोमिस. देखो मेरा कोई भी नहीं है तुम्हारे अलावा...थोड़ा तो समझने की कोशिश करो, मैं कहाँ जाउंगी. मुझसे कोई बात भी नहीं करता'
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कितना मुश्किल होता है ना...ऐसे खुद में घुटना, किसी का ना होना जिससे आप कभी भी बात कर सकें. गहरी नींद से उठा कर...पर ऐसा एक बचपन भर ही होता है. उसके बाद? वो पागलों जैसे हँसी थी, उसके बाद दुनियादारी होती है. बात करने का वक़्त होता है, प्यार करने की उम्र होती है और प्रोपोज करने का मोमेंट होता है...ये सब एकदम सही समय पर होने चाहिए. इधर उधर नहीं हो सकता...एकदम नहीं. अरे समाज बिखर नहीं जाएगा जिसको जो मन करे वो करने लगे तो. नियम होते हैं, सामाजिकता होती है...तुम मेरी कोई नहीं हो...पहले इस रिश्ते का नाम लाओ फिर मैं बात करूँगा तुमसे. 

सब कुछ छूटता जाता है...तुम मानोगे नहीं पर हम हर लम्हा अकेले होते जाते हैं. पहले दोस्तों से बातें कम होती हैं, फिर बंद...फिर एक ख़ास कोई होता है जिंदगी में,  बस. फिर धीरे धीरे उससे भी बातें बंद हो जाती हैं, हाँ ख़त्म नहीं होतीं, बंद हो जाती हैं. फिर हम क्या करते हैं मालूम है? संगीत में अपनी रूचि ढूंढ लेते हैं और जब कोई हमारी बात सुनने को नहीं होता है हम कोई गीत सुन लेते हैं, दिल को समझा लेते हैं कि कोई हमसे बात कर रहा है. इससे भी ज्यादा अकेले होते हैं तो कोई शौक़ पाल लेते हैं, कभी पेंटिंग, कभी गार्डेनिंग...जो ज्यादा डेस्पेरेट हो जाते हैं वो तो जानवर भी पाल लेते हैं. बताओ गोल्डफिश से बात करने लगते हैं लोग...वैसे देखो तो दीवारों से बात करने से तो बेहतर ही है...नहीं?
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बच्चा एक एक शब्द करके बोलना सीखता है. फिर छोटे वाक्य, धीरे धीरे अटकते हुए एक पूरा वाक्य जिस दिन कहता है उस दिन कितनी ख़ुशी होती है सबको. बड़े होने के बाद हम एकदम उसी तरह खामोश होना सीखते हैं...सबसे पहले जाती है हँसी की आवाज़, खिलखिलाना जिससे कि कमरे खुशगवार हो जाएँ फिर धीरे धीरे जाता है किसी को पुकारना...एक एक शब्द करके हम खामोश होना सीखते हैं और आखिर कर एक ऐसा दिन आता है जब ख़ामोशी हमारे दिल के अन्दर पैठ जाती है. वहां से वापस आना मुमकिन नहीं होता. वहां लोग पहाड़ हो जाते हैं, खामोश...वहां से बस अनुगूंज आती है. तुम्हारी खुद की आवाज़, लौट कर आती है...उसमें मेरा कुछ नहीं होता. तुम अपनी दुनिया में इतने गुम होते हो कि सुन भी नहीं पाते कि मैंने जवाब देना बंद कर दिया है...कि तुम्हारे सवाल अनाथ हो गए हैं. 
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जाते जाते तुम्हें भार मुक्त करना चाहती थी...मेरी आखिरी ख्वाहिश है कि मेरी कवितायें जला दीं जायें, मैं नहीं चाहती कि मेरे जाने के बाद मेरी आवाज़ का कोई टुकड़ा इन वादियों में भटकता फिरे, गुमराह हो. मैं पूरी तरह अपनी ख़ामोशी के आगोश में जाना चाहती हूँ. मैं अपने पूरे होश-ओ-हवास में वसीयत करती हूँ कि जहाँ कहीं भी मेरे लिखे अलफ़ाज़ हैं वो सिर्फ मेरी जिंदगी के हैं, कोई कमउम्र नौजवान उन्हें पढ़कर इश्क को हकीकत ना समझ बैठे. इश्क एक गहरी ख़ामोशी में डूबने का नाम है...और इस घुटती साँस में हम अकेले होते हैं...सब अकेले होते हैं. 

किसी राह पर, किसी इंतज़ार में

मुझे बहुत कम किताबें पसंद आती हैं...और जो बेहद पसंद आती हैं ऐसा तो बहुत कम होता है. मैंने पचपन खम्भे लाल दीवारें जब पढ़ी थी...वो एक ठहरी हुयी दोपहर थी. घर के बरामदे पर मेरा नीले रंग का सोफा हुआ करता था उन दिनों...वो सोफा पूरे दोपहर आराम से लेट कर किताबें पढने के लिए बेस्ट था. आज भी लेट कर सोफे पर किताबें पढ़ना मुझे मेरे सबसे खुशनुमा दिनों की याद दिलाता है. 
आज मैंने सोचा है...देर रात जागुंगी, बहुत कुछ लिखूंगी...बहुत वक़्त हुआ, पूरी रात जाग कुछ लिखा नहीं...कुछ पढ़ा नहीं. दिन में चाहे जितना भी लिख लो, रात की बराबरी कोई और वक़्त कर ही नहीं सकता. फ़र्ज़ किया जाए कि रात के तीन बजने वाले हैं और मैंने कल ही कुणाल की जिद पर एक horror फिल्म देखी है...वैसे फिल्म बुरी नहीं थी पर जब भी ऐसी फिल्में देखती हूँ मुझे रात में थोड़ा डर लगता है. और चूँकि मेरे पास मेरे इस डर से बचाने के लिए कोई भगवान नहीं हैं तो मैं चाहती हूँ कि ऐसे किसी हालत में ना फंसूं. डर लगने पर मेरे पास कोई रास्ता नहीं होता है सिवाए गहरी सांसें लेकर खुद की सोच को किसी और दिशा में मोड़ने के. ये नहीं कह सकती कि हमेशा ऐसा कर ही पाती हूँ. But then, that is the reason why I have like tons of drafts that I am never gonna publish.

वापस पचपन खम्बे लाल दीवारें पर...मैंने जब किताब पढ़ी थी तो पूरी एक बार में एक सांस में. मुझे याद आता है कि जब मैंने पढ़ना शुरू किया था कोई दोपहर शुरू होने वाली थी...ग्यारह बज रहे होंगे...ख़त्म होने में लगभग दो घंटे लगे होंगे...मेरी बरामदे की खिड़की से घर का मेन गेट दिखता था और गेट के सामने जामुन का बड़ा सा पेड़...और सड़क. देर दोपहर उस सड़क पर कोई नहीं आता था, वो दोपहर आज की रात की तरह थी, एकदम खामोश. मेरा रोना भी चुप ही होता था...आँखों से आँसू चुप चाप चल पड़ते थे, जैसे किसी को दिल भर के प्यार करने के बाद उसकी जिंदगी से जाना पड़े. किसी से दूर होते वक़्त आप क्या कह सकते हैं. ऐसा क्या कह दूं कि मेरे जाने का दर्द कम हो जाए...ऐसे कोई शब्द नहीं होते हैं. 

वो दोपहर थी...नील नहीं आने वाला था, हाँ पचपन खम्बे का नील...मुझे लगता था कि सामने की सड़क से वो आएगा, आज की शाम से पहले आएगा. जिंदगी में पहली बार किसी उपन्यास के किरदार से प्यार हुआ था. मेरी जिंदगी में नील के नहीं होने के कारण मैं बहुत टूट कर रोई थी उस दिन. बहुत गुस्सा आया था उषा प्रियंवदा पर...उस दिन पहली बार जाना था किसी का जिंदगी से ऐसे चला जाना...एकदम फेड आउट हो जाना, जैसे वो कभी जिंदगी का हिस्सा था ही नहीं. मैंने ये किताब अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा खोयी है और खरीदी भी है. तब से नील का जाना बहुत चुभा है...आज भी कभी ऐसी रात में सोचती हूँ तो याद आता है वो पाटलिपुत्रा का चौराहा जो घर के सामने पड़ता था...दूर के हलके जमुनी रंग के पेड़...और नील, जो उस दोपहर नहीं आया. नील किरदारों में मेरा पहला प्यार है...हमेशा से. कभी कभी लगता है आज भी उसका इंतज़ार उसी राह पर कर रही हूँ पर वो कभी आएगा नहीं. 

किसी के जाने पर ऐसे टूट कर बस एक ही बार और रोई हूँ...गॉन विद द विंड के रेट बटलर के लिए. उफ़ वो कितना हैंडसम था...उसका जाना इतना हार्ट ब्रेकिंग था. Frankly my dear, I don't give a damn. आज उसकी बात नहीं कर पाउंगी...फिर कभी. 

24 December, 2010

उसकी सजाएं

दिन गुज़रते, उसकी सजाएं और भी ज्यादा कातिल होतीं जा रही थीं...
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वो अपनी स्कूटी मेरे एकदम पास ला कर जोर से ब्रेक मारती और रोकती. हमेशा कहता था कि जिस दिन तुम्हारी गाड़ी के ब्रेक फेल हुए सबसे पहला मरने वाला मैं ही होऊंगा. उसके इस रुकने के अलावा कोई तरीका नहीं था पता करने का कि स्कूटी वही चला रही होगी, मैं तो क्या कोई भी नहीं पहचान पाए उसे. कितने परदे होते थे उसके मेरे बीच. सबसे पहले अपना हेलमेट उतारती थी, फिर स्कार्फ, गले तक बंद ऊँची जैकेट, दास्ताने और आखिर में उसके वो बड़े सनग्लासेस...इतने पर्दों के बाद जाके नज़र आती थी उसकी आँखें...हलकी नीली, पारदर्शीं. उन आँखों में कौन सी ख़ुशी नाचती रहती थी मैं समझ नहीं पाया...क्यों होती थी इतना खुश वो मुझसे मिलकर हमेशा?

स्कूटी स्टैंड पर लगा कर वो धीमे क़दमों से मेरे पास आती थी और एक पल को लगता था जैसे चिलचिलाती गर्मी में बर्फ सा ठंढा पानी का एक जग अन्दर उतर गया हो. वो लगती भी तो थी बर्फ की गुड़िया, छू देने भर से पिघल जाने वाली...बाँहों में होती थी तो रूह तक भीगने लगती थी. उसका ये पल भर मेरी बाँहों में आना हर बार इतना आश्चर्य और सुकून कैसे देता था मैं आज तक नहीं समझ पाया. वो जितनी देर आसपास रहती थी मौसम जाड़ों का होता था, खुशगवार...धूप गुनगुनी और हवा में खुनक. हर बार चैन से बैठ कर मेरी गर्लफ्रेंड्स की कहानियां सुनती थी, कभी अपनी राय देती थी...कभी कोई मुश्किल का हल बताती थी. कभी कभी जिद्द पर अड़ जाती कि अपनी गर्लफ्रेंड्स का नाम तो बताओ, किसी एक का बता दो कमसेकम. मैं हर बार बहाने बना के टाल जाता था. इस जिद के बावजूद उसे मेरी किसी गर्लफ्रेंड का नाम जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है ये भी मैं जानता था.

मैं उसे उस वक़्त से जानता था जब रिश्तों के नाम नहीं होते...जिंदगी में होना होता है बस. मैं नहीं जानता कि मैं उसे कैसे प्यार करता हूँ...एक दोस्त की तरह, बहन(?), प्रेमिका या सब कुछ से परे कुछ. उससे पहली बार मिला था उसके कुछ सालों बाद इतना तो जान गया था कि उसको बहन की तरह तो बिलकुल भी नहीं प्यार करता हूँ...उसके अलावा किसी भी रिश्ते से ऐतराज़ नहीं था. जिंदगी के इतने मोड़ पर हम टकराते रहे कि किस्मत जैसी किसी चीज़ पर आज यकीन करने को दिल चाहता है. जिंदगी में उसके पहले भी लड़कियां थीं, उसके बाद भी लड़कियां आयीं पर सबके होने के साथ और सबके होने के बावजूद वो हमेशा मेरी जिंदगी का हिस्सा रही.

जिंदगी के किसी चौराहे पर, किसी मोड़ पर...ठहरे हुए किसी लम्हें में वो पलक झपकाने जैसी याद आ जाती थी, अचानक. जब भी फुर्सत से जिंदगी के बारे में सोचा करता था वो जैसे किसी परदे की पीछे झांकती मिलती थी. बचपन के उन दिनों की तरह जब उसे छुपा छिपी खेलना पसंद था...और मुझे क्रिकेट. उसका छुपा छिपी मुझे बहुत बचकाना लगता था और उसका वो कहीं से भी आके 'धप्पा' दे देना बेहद गुस्सा दिलाता था. सारे लड़कियों के खेल, खाली नौटंकी. बिन मतलब की जिद...कि मैं आई हूँ तो क्रिकेट खेलने मत जाओ...अरे तुम कोई महारानी हो जो तुम्हारे आने पर खेलने नहीं जाऊं. सन्डे को अधिकतर बड़े मैच होते थे.
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उससे मिले कुछ साल बीत गए थे. बड़े दिन बाद वापस पटना जाना हुआ था, इत्तिफाकन वह भी घर आई हुयी थी उस समय. हफ्ते भर की छुट्टियाँ थी पर कुछ ना कुछ कारण होने से मिलने नहीं जा पाया. छुट्टियाँ ख़तम और वापस आना पड़ा...ट्रेन में सारे वक़्त सोचता रहा कि उससे मिल नहीं पाया इस बार, उसे पता चला तो क्या करेगी. झगड़ झगड़ के जान ही ले लेगी, उसका गुस्सा, उफ्फ्फ...बस मम्मी गुस्सा किया करती थी मेरे ऊपर इतना ज्यादा उसके अलावा.

अगली शाम सड़क पर टहल रहा था कि उसे देखा. खुले लहराते बाल, स्लीवलेस टी-शर्ट और गले में पड़ा स्कार्फ...गहरे लाल रंग का...दूर से ही पहचान में आ गयी. पर वो इतना तेज़ क्यों चला रही थी स्कूटी, ना हेलमेट ना जैकेट...दिमाग तो नहीं फिरा है लड़की का. इस बार उसने बाइक थोड़ी सी दूर पार्क की...जब वो मेरी तरफ आ रही थी तो सोच रहा था कि ये हमेशा इतनी सुन्दर थी या आज ख़ास लग रही है, उसके चेहरे से नज़र ही नहीं हट रही थी. वो एक खाली सी सड़क थी, बहुत ज्यादा ट्रैफिक नहीं था कालोनी के भीतर...वो एकदम धीमे कदम लेती हुयी मेरे पास आई...उसने कुछ तो हील पहन रखी होगी, बिलकुल मेरी आँखों की हाईट पर उसकी आँखें थीं...मेरे बायें कंधे पर अपना हाथ रखा और मेरी आँखों में देखते हुए बोली...तुम इस बार पटना आके मुझसे मिले बिना चले गए? जानते हो मुझे कैसा लगा?

मेरी आँखों में आँखें डाले हुए वो जैसे स्लो मोशन में मेरे पास आती गयी, जब कि उसका चेहरा धुंधला गया...वो बस महसूस हो रही थी होटों से इंच भर के फासले पर जब उसने कहा 'ऐसा'. और एक लम्हे में वो मेरी बाँहों से फिसल कर अपनी स्कूटी पर पहुँच गयी, यु टर्न लिया और चली गयी...बस ऐसे ही. मैं जब तक सम्हलता कि वो जा चुकी है मुझे याद तक नहीं आ रहा था कि वो सच में आई थी या मैंने कोई सपना देखा था. पूरा शरीर शॉक की अवस्था में था. उबरने में थोड़ा वक़्त लगा. आसपास देखा तो सब एकदम शांत, धीमा जैसे कहीं कुछ हुआ ही ना हो. उसकी हलकी सी खुशबू अपने आसपास महसूस कर सकता था मैं. दिल की धड़कन ऐसे बढ़ी हुयी थी जैसे पूरी कालोनी का एक राउंड दौड़ के खड़ा हुआ हूँ. मतलब...वो आई तो थी.

मैंने बहुत बार उस शाम का विश्लेषण करने की कोशिश की...पर उस शाम को यथार्थ की तरह देख ही नहीं पाता था...सब लगता था जैसे सपने में घटा हो. उसकी आँखें, उसके बाल, उसका स्कार्फ, उसकी बाहें...और उसकी सांसें मेरी साँसों में घुलती हुयी...बस. मैं उससे प्यार करता हूँ क्या? और इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल था कि वो मुझसे प्यार करती है क्या?

उसे फ़ोन लगाया तो नंबर स्विच ऑफ...अगले दिन घर फोन किया तो आंटी ने कहा कि कहीं टूर पर गयी है बाहर...फ़ोन नहीं लेगी उधर. लैंडलाइन से कॉल कर लेती है रोज़ शाम को, कोई बात है...कोई मेसेज देना है? अब मेसेज क्या दूं उसे जहाँ सवाल दर सवाल फैले हुए हैं. उस दिन के बाद सदियों उसे ढूँढने की कोशिश की, वो कहीं नहीं मिली. उसने कभी कॉल नहीं किया...कभी याद भी नहीं किया. उससे मिलने के ठीक एक महीने बाद मेरे नाम एक पार्सल आया था...मैं इतना परेशान था उसे ढूँढने में कि पार्सल खोला भी नहीं था. कुछ सात आठ साल हो गए होंगे...एक दिन अचानक से वो पार्सल सामने मिला.

पार्सल में एक गहरे लाल रंग का स्कार्फ था और एक छोटा सा कागज़ का टुकड़ा...एक ही पंक्ति लिखी हुयी थी उसपर. 'मेरी सन्डे शाम की फ्लाईट है...रोकने आओगे क्या?'. दिल तो किया वो सामने रहती अभी तो खींच के थप्पड़ मारूँ उसको...पर वो दूर देश में थी कहीं...हर नेटवर्क से कटी हुयी.

कल की मेरी फ्लाईट है...रास्ता बहुत लम्बा है, दूसरे महाद्वीप तक का, बीच में कई समंदर आते हैं...सोच के कई सारे टापू...
हर सिम्त सोचता हूँ कि उसे जब मिलूँगा तो पहले थप्पड़ मारूँ या उसके होठों को चूमूँ?

22 December, 2010

तुम्हारे आने का कौन सा मौसम है जान?

जान...आज जाने कितने साल हो गए तुम्हें एक नज़र देखे हुए. अभी अभी लॉन्ग ड्राइव से लौटी हूँ. ड्राइविंग लाइसेंस एक्सपाइर होने वाला है, उसको रिन्यू कराने के पहले के कई सारे कागजातों का पुलिंदा है, मेडिकल सर्टिफिकेट है, इन सबके बीच कमजोर होती नज़र है...उम्र का तकाजा वाले कुछ मूड स्विंग्स हैं.

सोचती हूँ कि इस लाइसेंस के ये आखिरी दिन थोड़ी दूर तक ड्राइव करती चली जाऊं, कौन जाने किस शहर में, किस ट्राफिक सिग्नल पर तुम दिख जाओ. जबसे तुमने मना किया है गाड़ी तेज नहीं चलाती हूँ. वैसे तो मेरा आज भी मानना है कि मुझे अगर किसी ट्रैफिक एक्सीडेंट में मरना होगा तो पैदल चलते हुए मरूंगी, गाड़ी चलाते हुए नहीं. पर क्या करूँ, जाते हुए तुम्हारा आखिरी फरमान जो था...गाड़ी ठीक से चलाना. सोचती हूँ, तुम्हें पता होगा क्या कि वो हमारी आखिरी मुलाक़ात होगी? बोलना ही था तो कुछ अच्छा कहते...अपना ख्याल रखना, मैं तुमसे हमेशा प्यार करता रहूँगा, मुझे याद तो रखोगी न टाइप कुछ...मगर गाड़ी ठीक से चलाना?! ये कोई बात है आखिरी मुलाक़ात में कहने की.

कार अब तक जाने कितनी दूर आ चुकी है...शायद उतनी ही जितनी मैं खुद, जितनी दूरी मेरे तुम्हारे बीच खिंच गयी है कुछ उतनी? आजकल मौसम में ठंढ बहुत बढ़ गयी है और मैंने एक बार अपनी तबियत का ख्याल न रखते हुए(तुम्हें याद तो है न तुमने मुझे अपना ख्याल रखने नहीं कहा था?) मैंने खिड़की के शीशे उतार दिए. गाल लगभग सुन्न ही हो गए थे...चश्मे पर भी भाप सी जमने लगी थी. आँख के आंसू हवा में घुलने लगे थे और कार के शीशे पर भी पानी की नन्ही नन्ही बूँदें ठहरने लगी थीं.

घर पर हूँ और सोच रही हूँ कि आज के सूचना और टेक्नोलोजी के ज़माने में ऐसा कैसे मुमकिन है कि कहीं तुम मुझे ढूंढ ना पाओ. जिस जमाने में ये सब कुछ नहीं था तब भी तुम मुझे ढूंढ निकालते थे...याद है वो नए साल का सरप्राइज जब तुम हॉस्टल की दीवारें फांद कर बस मुझसे मिलने आये थे एक लम्हे के लिए बस. वो लिफ्ट में जब तुमने कहा था 'किस मी' तुम्हें याद है कि चलती लिफ्ट के वो भागते सेकंड्स जब भी याद करती हूँ हमेशा स्लो मोशन में चलते हैं.

बहुत साल हो गए जान...अफ़सोस कि मैं एक स्त्री हूँ इसलिए ये नहीं कह सकती...कि जान मैंने सात पैग व्हिस्की पी है, दो डब्बे सिगरेट फूंकी है और तब जा के कहने की हिम्मत कर पायी हूँ...काश कि ऐसा होता मेरी जान. पर मैंने कोई नशा नहीं किया है...तुम्हारी याद को ताउम्र जीते हुए, आज इस सांझ में तुम्हारी आँखों में आँखें डाल कर कहना चाहती हूँ 'मुझे लगता है मुझे तुमसे प्यार हो गया है जान...काश तुम सामने होते तो तुम्हारे होठों को चूम सकती'.

Some people come in your life for a reason, some people come in life for a season and some people come in your life for-ever.

'तुम्हारी बहुत याद आती है जान...किसी रोज आ जाओ अब...बहुत कम जिंदगी बाकी है'

21 December, 2010

प्यार की खुशबू

पहला प्यार...अलग लोगों को अलग चीज़ें याद आती होंगी. मैं याद करती हूँ तो मुझे याद आती है धूप वाले जाड़े की दोपहरें...और लान में लगी कुर्सियां. कहीं पढ़ा भी था कि दिसंबर इश्क करने का वक़्त होता है. हमने अपने समीकरणों पे रख के देखा और कहावत को सही पाया...होना भी चाहिए, दिसंबर में जाड़े की छुट्टियाँ जो होती हैं, ये इकलौती ऐसी छुट्टियाँ होती हैं जिनके बाद एक्जाम नहीं होते. स्कूल/कॉलेज खुलने के बाद भी नोर्मल क्लास होते हैं. 

जाड़ों की अच्छी प्यारी धूप में कुर्सी टेबल लगा के बैठे हुए पढ़ा करते थे. हाँ...पहले प्यार से हमेशा केमिस्ट्री भी याद आती है, एक वही ऐसा सब्जेक्ट था जो गुनगुनी धूप में किसी के बारे में सोचते हुए भी पढ़ा जा सकता था. कलम उधर इक्वेशन लिखती और दिलो दिमाग इधर अपने समीकरण दौड़ाता रहता. कार्बोन, हाइड्रोजेन और ओक्सीजेन उनके बीच के बोंड्स सब चलते रहते...सब कुछ याद भी होता रहता. मैं अपने दिमाग को मल्टी-टास्किंग कहती थी. किसी को पूरी शिद्दत से याद करते हुए पढ़ाई करना कोई साधारण इंसानों का काम था, इसके लिए बेहद concentration की आवश्यकता होती थी.

मेरे पाटलिपुत्रा वाले घर में बहुत सारे कनेल के पेड़ थे जो जाड़ों में पीले फूलों से लदे रहते थे तो हवा में हलकी सी कनेल की तीखी गंध भी तिरती रहती थी. उसके अलावा बहुत से गुलाब जो हमारे पड़ोसी ने लगाए थे और मेरे घर के आगे के जंगली गुलाबों की खुशबू bhi  रहती थी. वो गुलाब खूबसूरत नहीं होते थे पर बेहद खुशबूदार होते थे धूप की गर्मी में ये सारी खुशबुयें एक मोहक समां बना देती थीं. मोहल्ले में गुलमोहर और अमलतास के पेड़ थे और बोगनविलिया...तो जब पढ़ना बहुत हो जाता था तो आराम से धूप की ओर पीठ कर के चेहरे को अपने पसंदीदा सिल्क के स्कार्फ से आधा ढक लेते थे और किसी गीत को गुनगुनाते हुए झपकी मार लिया करते थे. 

याद इस वाकये की यों आई कि मेरा एक करीबी दोस्त अभी लन्दन से वापस आ रहा था...सो हमने कह दिया, मेरे लिए एक सेंट लेते आना. लोग अक्सर विदेश से परफ्यूम लेके आते हैं पर हमको चूँकि पता था कि अगर हम बोलेंगे नहीं तो अठन्नी नहीं लाएगा सो हमने कह दिया. उसने मेरे लिए जो परफ्यूम लिया उसका नाम है 'Trésor in Love' by Lancôme. अब जैसा कि होता है...हमने इन्टरनेट पर रिसर्च मारा कि ये कैसा परफ्यूम है...क्योंकि नील ने तो बस काउंटर पर पूछा होगा और लिया होगा मेरी जिम्मेदारी बनती है कि देख लूं कि कौन लोग लगाते हैं ऐसा परफ्यूम. हमको बहुत ज्यादा आइडिया तो है नहीं इन चीज़ों का, ऐसा ना हो कोई पूछ ले या कुछ बोल दे तो हमको कुछ बोलने को ना मिले. 

परफ्यूम को पहली बार लगाया था तो पटना की दोपहरें ही याद आयीं थी...गुनगुनी, खुशमिजाज़ और खुशबूदार, एक दौर की जब चिंता नहीं होती थी, जब सब अच्छा होता था. बाद में पढ़ा तो जाना कि ये एक स्प्रिंग यानि कि बहार या वसंत की खुशबू है.  अच्छी सी, खुशनुमा सी...इसके description में लिखा है कि ये प्यार के पहले लम्हे को शीशी में बंद करने की कोशिश है. अधिकतर इन चीज़ों पर मेरा विश्वास नहीं होता. चूँकि खुद भी इसी फील्ड से हूँ...जानती हूँ कि advertising में ये सब बस कोरे शब्द हैं...पर आश्चर्यजनक रूप से इस परफ्यूम के विषय में सच में ऐसा लगता है कि पहले प्यार की ही खुशबू है. 

तो ये आज की पोस्ट...To my women readers...indulge yourselves...it makes you feel happy, young, liberated. और बाकी लड़के जो पढ़ रहे हैं...अगर वाइफ, प्रेमिका या किसी अजीज दोस्त को कोई परफ्यूम गिफ्ट करना है तो कर सकते हैं. उसे अच्छा लगेगा. 

डिस्कलेमर: इस पोस्ट को लिखने के लिए हमको कोई पैसे नहीं मिल रहे हैं...ना कोई फ्री की परफ्यूम मिल रही है :) ये पोस्ट पूरी पूरी लोगों की मदद करने के लिहाज से लिखी गयी है :)

20 December, 2010

मुझे जां ना कहो मेरी जां

'जान'...तुम जब यूँ बुलाते हो तो जैसे जिस्म के आँगन में धूप दबे पाँव उतरती है और अंगड़ाइयां लेकर इश्क जागता है, धूप बस रौशनी और गर्मी नहीं रहती, खुशबू भी घुल जाती है जो पोर पोर को सुलगाती और महकाती है. तुम्हारी आवाज़ पल भर को ठहरती है, जैसे पहाड़ियों के किसी तीखे मोड़ पर किसी ने हलके ब्रेक मारे हों और फिर जैसे धक् से दिल में कुछ लगता है, धडकनें तेज़ हो जाती हैं साँसों की लय टूट जाती है. इतना सब कुछ बस तुम्हारे 'जान' बुलाने से हो जाता है...एक लम्हे भर में. तुम जानते भी हो क्या?

कभी कभी यूँ ही तुम्हारी आवाज़ सुनने की हसरत जाग जाती है...तब मैं आँखें बंद कर सोचने की कोशिश करती हूँ कि तुम कैसे बोलते हो...पर कहीं ना कहीं याद में कोई कमी रह जाती है और याद की तुम्हारी आवाज़ तुम्हारी आवाज़ जैसी बिलकुल नहीं लगती. तुम्हारी आवाज़ को याद करते हुए मुझे अपने संगीत सीखने के दिन याद आते हैं...जब पहली बार जाना था कि मन्द्र सप्तक के सुरों में नीचे बिंदी लगाते हैं और तार सप्तक के सुरों में ऊपर...कोमल स्वरों में छोटी रेखा खींचनी होती है स्वर के नीचे...वो बचपन के दिन थे, कई बार सही मात्राएँ लगाना भूल जाती थी...ऐसे में राग की 'पकड़' से राग समझना बहुत मुश्किल हो जाता था. वो मात्राएँ ही राग का स्वरुप निर्धारित करती थीं उनके बिना रियाज़ नामुमकिन था...मेरा अगला संगीत का क्लास एक हफ्ते बाद होता था. उस पूरे हफ्ते मैं किसी सुनी हुयी धुन को बजाने की कोशिश करती रहती थी. पर हर बार कहीं ना कहीं कोई सुर गलत लग जाता था और आलाप बहुत ही बेसुरा हो जाता था. ऐसा ही कुछ होता है तुम्हारी आवाज़ को तलाशने पर...कभी भी कुछ पूरा नहीं मिलता. मैं किन्ही अँधेरी गुफाओं में टटोल कर बढ़ती रहती हूँ कि कहीं तुम्हारी याद की कोई प्रतिध्वनि कहीं से टकरा के वापस लौट रही हो...उससे तुम्हारा पता पूछ लूंगी.

तुम्हारे बिना एकदाम खामोश अँधेरा होता है और मैं खुद को एक सीलन वाली सुरंग में पाती हूँ...वहां बस पानी कि टप-टप सुनाई पड़ती रहती है. मैं चाहती हूँ कि मैं अपनी धड़कनें सुन सकूँ...पर ख़ामोशी इतनी गहरी होती है कि जैसे दिल धड़कना बंद कर देता है. ऐसे उदास अकेलेपन में जिस्म ऐंठना शुरू कर देता है...तुमने जेठ के समय के खेत देखे हैं? कभी कभी दरारें पड़ जाती हैं कुछ वैसी ही टूटन सी होती है. कई बार यूँ भी लगता है कि सब कुछ एकदम कठोर, एकदम शीशे की तरह पारदर्शी भी हो गया है. इस बार जब तुम आओगे और कहोगे 'जान' तो मैं छन् से बिखर जाउंगी एकदम छोटे टुकड़ों में.

तुम्हारी आवाज़ के खालीपन को कई चीज़ों से भरने की कोशिश भी करती हूँ...दूर सड़क पर दौड़ते बस, ट्रक, स्कूटर...पेड़ पर बैठा कव्वा, बैक होती गाड़ी का सायरन...फ्रिज का हल्का वाइब्रेशन, नीचे गली से आता लोगों का शोरगुल...सब सुनती हूँ. कुछ लोगों को फोन भी करती हूँ...कभी गाने भी सुनती हूँ पर ये जिद्दी दिल है कि अड़ा हुआ है...तुम्हारी आवाज़ ही चाहिए और कुछ भी नहीं. सारे खिलोने तोड़ डाले कि 'मैय्या मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों'. अब मैं इस दिल को चाँद कहाँ से ला के दूं?

रात को नींद नहीं आती, लगता है कि मर जाउंगी. कि सोचती हूँ कि मरने के पहले, एक पल को सब कुछ ठहर जाए...तुम सामने रहो और उठ कर एक बार तुम्हारे होठों को चूम लूं.

मुझे जां ना कहो, मेरी जां
जां ना कहो, अनजान मुझे
जां कहाँ रहती है सदा



(बंगलोर की एक ठंढी दोपहर...सुबह से इस गीत को सुनने के बाद...गीता दत्त के कहानी से वाकिफ होते हुए,  याद के एक ज़ख्म को सहलाते हुए लिखी गयी)

17 December, 2010

आई स्टिल लव यु जान

एक खामोश ढलती शाम, जिंदगी सी पर रंगों से भरी, जीवंत, खुशमिजाज़ जैसे कि एक भरपूर जिंदगी जीने के बाद महसूस होती है. शहर में कई हाई-टेक, एक्टिविटी पार्क उभर आये हैं जिनमें हर उम्र के लोगों के करने के लिए कुछ है. पर कई बार लोगों का बस बैठ के बात करने का मन होता है बिना किसी बैकग्राउंड म्यूजिक के, ऐसे चंद लोगों के लिए उस ३० मंजिली इमारत की छत एक कैफे में परिवर्तित है. छत के किनारे शीशे के रेलिंग्स हैं और कहते हैं शाम का नज़ारा वहां से बेहद खूबसूरत और अनछुआ दिखता है. ऐसी शाम को ढलते हुए देखने वाले लोग कुछ कम हैं, इसलिए उस कैफे में शोरगुल भी बहुत कम होता है. वहां हर तरह की cuisine भी मिल जाया करती है. नीश(niche) मार्केट को देखने वाले इस कैफे की दूर दूर तक ख्याति फैली है और लोग एक ख़ास तरह के मूड में अक्सर वहां आते हैं.

कैफे की एक ऐसी ही शाम पश्चिम वाले सोफे पर दो लोग एक खामोशी में अपना रंग घोल रहे थे. कोई पचास की उम्र का बेहद आकर्षक पुरुष, बेफिक्री से रखे बाल जो कि बिलकुल सफ़ेद थे पर आश्चर्यजनक रूप से उसकी उम्र को कम ही करते दिखते थे. गुजरती धूप में उसकी हलकी भूरी आँखों में आसमान का अक्स नज़र आ रहा था. साथ बैठी स्त्री की आँखें एकदाम काली थीं, गाँवों में रात को जैसा आसमान नज़र आता था कुछ साल पहले, वैसी हीं कुछ. संदली रंग का सिल्क का कुरता उसके गोरे रंग को गज़ब का निखार रहा था. इस उम्र में भी उसके चेहरे पर एक बालसुलभ मुस्कान थी जो उसकी खूबसूरती को और बढ़ा दे रही थी. दायें गाल पर पड़ता हल्का डिम्पल और आँखों में थोड़ी चंचलता.

'तो जान, बच्चे तो सेटल्ड हो गए तुम्हारे? अब तो निश्चिन्त लग रहा होगा.' 
'पता है शिशिर, मुझे कोई जान नहीं बुलाता'. 
'अरे अभी मैंने बुलाया ना! अब तो इतनी जल्दी भी भूलने लगी है, एकदम बुड्ढी हो गयी है तू'
'हाँ, उम्र तो हुयी अब...अब नहीं भूलूंगी तो कब भूलूंगी. अब बच्चे नहीं रहे घर में ना, मन भी नहीं लगता है. कॉलेज में यूँ तो आधा दिन कट जाता है, पर बाकी का पता नहीं क्या करूँ. सोच रही हूँ फिर से क्लास्सिकल म्यूजिक शुरू करूँ, पर पता नहीं  अब इतने साल हो गए गाऊँगी कैसा. तू अभी तबला बजा पायेगा क्या?'
'पता नहीं, मुझे भी बहुत साल हो गए...उतना अच्छा तो शायद नहीं बजा पाऊंगा पर शायद बजा लूं थोड़ा बहुत. आजकल राशि को रविन्द्र संगीत का शौक़ लगा है. दिन भर बोलते रहती है पापा वो 'पुरानो शेई डिनर कोथा' सुनाओ ना. ये बैक टू रूट्स वाले अच्छा काम कर रहे हैं ना...वरना कितना कुछ है जो खो रहा है ना. तुम्हें पटना की याद आती है?'
'हाँ आती है ना, पर बच्चे तो बस देखते हैं बस, बिहार की आत्मा को जी नहीं सकते. उनका दोष थोड़े ही है, इस जेनेरेशन को जड़ें समझ में नहीं आएँगी ना, किसी जगह से जुड़ना वहां की हवा, पानी, यादों को पनपने देना...हम इसलिए कर पाए कि बचपन एक जगह गुज़ारा. बच्चे तो इस हजारों देशों के इस शहर से उस शहर के बीच में बस इतना याद रख पाएं कि भारतीय हैं तो बस मेरे लिए काफी है. मेरी निलोफर तो मुझपर गयी है, पुरातत्ववेत्ता बन जायेगी जल्दी ही. कौन कौन से किले, महल, खँडहर भटकती रहती है, रोज आके कहानी सुनाती थी कि मम्मा आपको पता है यहाँ के भगवान लोगों की बीमारियाँ दूर कर देते हैं. उसकी दोपहर वाली गप्पें बड़ी मिस कर रही हूँ आजकल.'
'मेरे घर आ जाया कर, बेटी पता नहीं किसपर गयी है. इतना बोलती है कि चुप होने का नाम ही नहीं लेती, उसको देखता हूँ अक्सर तेरे बचपन की याद आती है. तेरी दो चोटियाँ और कभी ना बंद होने वाला रेडियो. आके उसकी गप्पें सुना कर, लिखती भी है, जाने क्या. मुझे कभी पढ़ाया नहीं पर झुमुक बताती है कि आजकल उसकी सारी कापियों के आखिरी पन्नो में कुछ ना कुछ लिखा मिलता है. तू उसे शायद थोड़ा आइडिया भी दे सकेगी, इतनी उर्जा है कि क्या करेगी कंफ्यूज हो जाती है. कभी बोलती है किताब लिखूंगी, कभी बोलती है फिल्म बनाउंगी...कभी सब कुछ करने का एक साथ सोचती है. हम दोनों मियां बीवी के लिए तो एकदम पहेली है. थोड़ा थोड़ा अब समझ में आता है कि अंकल आंटी एक तुझे बड़ा करने में कैसे परेशान हो जाते होंगे. कभी कभी लगता है कि दिल में इतना चाहता था कि मेरी बेटी तेरी जैसी हो...तो ऊपर वाले ने सुन ली. पता है, आजकल मैं मंदिर भी जाता हूँ उसके साथ कभी कभी.'
'आती हूँ रे, मेरा भी बड़ा मन है उससे मिलने का, बचपन में देखा था...नाक नक़्शे एकदम तेरे जैसे हैं, खास तौर से आँखें. चंचल तो उस समय भी बहुत थी. झुमुक को पूरे घर में दौड़ाती रहती थी. पर बच्चे चंचल ही अच्छे लगते हैं, बड़े होके तो सबकी अपनी अपनी पर्सनालिटी हो जाती है. कितने साल बाद एक शहर में हैं ना हम लोग...बंगलोर अच्छा लगने लगा है, इतने साल बाद लौटी हूँ ना. हरियाली कम नहीं हुयी है एकदम, मेरे कॉलेज कैम्पस में तो ख़ास तौर से, केबिन के आगे खिड़की खुलती है...दिन भर अच्छी हवा आती है और कभी कभी तो गौरेय्या भी अन्दर फुदक आती है.' 
'हाँ जान, साल तो बहुत हो गए, मुझे लगता है छह, नहीं आठ साल हो गए...पिछली बार आई थी तो जिनी का दसवां जन्मदिन था. और आज लड़की अठारह की होने वाली है बताओ, सच में बेटियों के बढ़ते देर नहीं लगती.' 
'तू मुझे जान क्यों बुलाता है, नाम लेकर नहीं बुला सकता क्या?'
'जान बुलाता हूँ क्योंकि तुझमें मेरी जान बसती है, तुझे कोई प्रॉब्लम है?' 
'और झुमुक को क्या बुलाता है?'
'झुमुक'
'अरे, ये तो बेईमानी हुयी ना, बीवी है तुम्हारी वो'
'तो? बीवी में जान बसनी जरूरी है? करता तो हूँ बहुत प्यार उससे, मरता हूँ उसपर...पर जान!, जान मेरी तुझमें बसती है, बचपन का प्यार भूला नहीं जाता रे. तुझे बुरा लगता है?'
'नहीं रे, कभी तेरी किसी बात का बुरा नहीं लगा...तू भी एक पागल है'
'हाँ, और दूसरी पागल तू'
'हम बिलकुल नहीं बदले शिशिर...देख ना, पूरी अच्छी प्यारी जिंदगी गुजरी, तू भी उसका हिस्सा रहा...तेरी जिंदगी में मैं भी रही. सब उतना कॉम्प्लीकेटेड नहीं है जितना लोग बनाते हैं. हमारी किस्मत भी अच्छी थी, हमें लाइफ पार्टनर भी अच्छे, समझदार और इतने प्यार करने वाले मिले'
'हाँ जान'
'फिर'
'फिर क्या?'
'चलते हैं...पार्टी प्लान करनी है ना...तेरे गोल्डेन बर्थडे की, पचास का हो गया तू, बच्चों ने फोन किया था कल...कि पार्टी आप ही अरेंज कीजिये...आपकी पार्टियाँ बेस्ट होती हैं'
'ब्रेकिंग न्यूज़ सुनी, मैं तुझसे बहुत प्यार करता हूँ रे, आई स्टिल लव यु जान'
एक मुस्कराहट और उसकी आँखों में देर तक देख के बोली 'पता है मुझे'

16 December, 2010

तेरे बोसे हमपे उधार हैं जानां

तुझको पल भर मिलूं और खूबसूरत हो दुनिया
मेरी नज़र में बस इक यही प्यार है जानां

तुझसे झगडूं तो मेरा बचपन लौट लौट आये
इससे प्यारी कोई तकरार है जानां?

नीम बेहोश पलकों को तेरे ख्वाब चूमें
तेरे बोसे हमपे उधार हैं जानां

तुम्हारी बालकनी पे शाम कोई सूरज डूबे
मेरी रातों को भी कौन सा करार है जानां

इत्तिफकों की कोई लौटरी निकल आये
तू मिले तो लगे, परवरदिगार है जानां

अबकी बार मेरी बाँहों में पल भर रुकना
तुझे मालूम पड़े तुझको भी प्यार है जानां

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