बंगलोर में आए तीसरा हफ्ता होने को आया, और इस बार घर के सारे काम निपटा दिए हैं तो थोडी फुर्सत है, अब आराम से शनिवार की सुबह उठ कर सोचा कि आज तो कहीं घूमने जाना है। वैसे सवाल बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं था कि कहाँ जाएँ...dark knight रिलीज़ हुए इतने दिन हो गए और हम अपनी व्यस्तताओं के कारन देख नहीं पाये हैं, तो तय किया कि देख ली जाए...पर ये क्या नेट पर टिकेट बुक करने कि सोची तो देखती हूँ कि सारे हाउसफुल हो चुके हैं, यही नहीं कल का टिकेट भी नहीं मिल रहा है कहीं पर। मेरे तो दिल के सारे अरमान घर कि सींक में बह गए...दुखित हो के खाना बनाया, क्या खाक मन करेगा खाना बनने का अगर वीकएंड में कहीं जाने का प्रोग्राम ही सेट नहीं हो पाये।
यहाँ पर टिकेट कि इतनी ख़राब हालत क्यों है, दिल्ली में तो कोई दिक्कत ही नहीं होती थी, और इस तरह कि अडवांस बुकिंग तो कभी नहीं सुनी थी। और यहाँ तो ये हाल है कि ब्लैक में भी टिकेट नहीं मिलते (ऐसा दोस्तों ने बताया ) सुबुक सुबुक...बहू हू हू हू ...अब क्या करूँ कहाँ जाऊं
दुखी हो के सुबह सुबह गुस्से में सिर्फ़ डोसा और साम्भर बना लिया वरना तो आज आराम से पूडी सब्जी बनती फुर्सत से हैप्पी हो के, मगर हाय रे बंगलोर...अब मुझे मेरे सारे बेचारे दोस्तों का दर्द समझ में आ रहा है जो विप्रो, तस्स, आईबीएम जैसी जगह हैं और इस तरह वीकएंड में रोते रहते हैं कि कहाँ जाएँ। और जब भी फ़ोन करो सोते हुए मिलते हैं, क्या करेंगे, और कोई काम तो है nahin मैं तो ऐसी प्राणी हूँ कि म्यूज़ियम बोटानिकल गार्डन टाइप कहीं पर भी खुश हो जाउंगी, पर अभी जो फ़िल्म देखनी थी उसका क्या, उसपर तुर्रा ये कि सबने मन कर रखा है घर में मत देखना, हॉल में देखने लायक है। बड़ी अच्छी बात है, बहुत अच्छी फ़िल्म भी होगी पर इसको देखने के लिए क्या हम बंगलोर में हॉल खोलें?
अब मेरे पास कल का दिन भी है, मगर मालूम नहीं कहाँ घूमने जाएँ
किसी को कोई आईडिया हो तो बताइए :(
02 August, 2008
30 July, 2008
तसवीरें और प्यार...
29 July, 2008
मौसम, प्यार और तुम
याद है वो ब्लैंक sms के दिन
जब कहने को कुछ खास नही होता
और तुम्हारी याद आती
एक ब्लैंक मेसेज कर देती...
तुम पूछते, क्या बात है
मैं बस हँसती...
बात पता होती तो लिखती न
बुद्धू :P
और ऐसे ही सिलसिला चलता रहता
दिन रात अनवरत
जिस अंगूठे में दर्द पेन पकड़ने से होता था
उसमें sms करने से होने लगा
याद है वो छोटी कहानियाँ
जो अक्सर मेल किया करती थी तुम्हें
हमारी कहानी जैसी
और वो जगह जगह की तस्वीरों पर
शीर्षक लिखना
वो दिन जब बहुत सारा कुछ होता था
कभी शब्द होते थे...कभी खामोशी होती थी
और सब कुछ तुम्हें बताने का मन करता था
दिखाने का मन करता था
कुछ कुछ वैसा ही है यहाँ का मौसम
बहुत सी बारिश, ठंढ, कम्बल, धूप
एक ही दिन में सब कुछ
जैसे पहला पहला प्यार...
जब कहने को कुछ खास नही होता
और तुम्हारी याद आती
एक ब्लैंक मेसेज कर देती...
तुम पूछते, क्या बात है
मैं बस हँसती...
बात पता होती तो लिखती न
बुद्धू :P
और ऐसे ही सिलसिला चलता रहता
दिन रात अनवरत
जिस अंगूठे में दर्द पेन पकड़ने से होता था
उसमें sms करने से होने लगा
याद है वो छोटी कहानियाँ
जो अक्सर मेल किया करती थी तुम्हें
हमारी कहानी जैसी
और वो जगह जगह की तस्वीरों पर
शीर्षक लिखना
वो दिन जब बहुत सारा कुछ होता था
कभी शब्द होते थे...कभी खामोशी होती थी
और सब कुछ तुम्हें बताने का मन करता था
दिखाने का मन करता था
कुछ कुछ वैसा ही है यहाँ का मौसम
बहुत सी बारिश, ठंढ, कम्बल, धूप
एक ही दिन में सब कुछ
जैसे पहला पहला प्यार...
24 July, 2008
वाह बंगलोर...आह दिल्ली
बंगलोर एक खूबसूरत शहर है, खास तौर से दिल्ली से आने के बाद यहाँ के छोटे छोटे दो मंजिल के घर बड़े प्यारे लगते हैं। पर वो कहते हैं न, शहर की भी आदत होती है। जैसे सुबह सुबह अख़बार पढने की, चाहे आपके पास खबरों का कोई दूसरा मध्यम भी हो, अख़बार पढ़े बिना मन नहीं लगता।
कुछ वैसे ही दिल्ली की आदत है, खास तौर से जेऐनयू की गलियों में भटकने की आदत...अब इतनी दूर आ गई हूँ कि जाना सपना ही लगता है, पता नहीं अब कब जा पाऊँगी, बड़ा दुःख होता है। वो गलियां जैसे कहीं मुझमें ही भटकती रहती हैं मैं ख़ुद अपने अन्दर के रास्तों पर कुछ बिखरे लम्हे उठाती रहती हूँ। फ़िर याद आता है गुडगाँव और वो कितनी सारी रातें और कितनी सारी बातें। नैवैद्यम का डोसा, सुबह सुबह mac d पहुँच जाना, वो ऑफिस की इतनी भाग दौड़। वो हॉस्टल का खाना...
और मुझे यकीन नहीं होता की मैं सबसे ज्यादा मिस करती हूँ दिल्ली की बारिश...उससे जुड़ी सैकड़ों यादें, पकोडे, कॉफी और वो घुमावदार सड़कें जहाँ अक्सर मैं ख़ुद से टकरा जाती थी। बंगलोर में भी रोज बारिश होती है, पर यहाँ भीगने का मन नहीं करता(बीमार भी पड़ जाती हूँ)।
एक नए शहर में जिंदगी की नई शुरुआत करनी है, सब कुछ फ़िर से शुरू करना है...एक एक करके दो कमरों के अपार्टमेन्ट को घर बनाना है।
तो कमर कस के तैयार हूँ।
ॐ जय श्री गणेशाय नमः
कुछ वैसे ही दिल्ली की आदत है, खास तौर से जेऐनयू की गलियों में भटकने की आदत...अब इतनी दूर आ गई हूँ कि जाना सपना ही लगता है, पता नहीं अब कब जा पाऊँगी, बड़ा दुःख होता है। वो गलियां जैसे कहीं मुझमें ही भटकती रहती हैं मैं ख़ुद अपने अन्दर के रास्तों पर कुछ बिखरे लम्हे उठाती रहती हूँ। फ़िर याद आता है गुडगाँव और वो कितनी सारी रातें और कितनी सारी बातें। नैवैद्यम का डोसा, सुबह सुबह mac d पहुँच जाना, वो ऑफिस की इतनी भाग दौड़। वो हॉस्टल का खाना...
और मुझे यकीन नहीं होता की मैं सबसे ज्यादा मिस करती हूँ दिल्ली की बारिश...उससे जुड़ी सैकड़ों यादें, पकोडे, कॉफी और वो घुमावदार सड़कें जहाँ अक्सर मैं ख़ुद से टकरा जाती थी। बंगलोर में भी रोज बारिश होती है, पर यहाँ भीगने का मन नहीं करता(बीमार भी पड़ जाती हूँ)।
एक नए शहर में जिंदगी की नई शुरुआत करनी है, सब कुछ फ़िर से शुरू करना है...एक एक करके दो कमरों के अपार्टमेन्ट को घर बनाना है।
तो कमर कस के तैयार हूँ।
ॐ जय श्री गणेशाय नमः
16 July, 2008
एक गीत और एक कहानी
Ajnabi Shahar.mp3 |
जिंदगी...अजनबी क्या तेरा नाम है?
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
ये मिलती है बिछड़ती है बिछड़ के फ़िर से मिलती है...
एक वो शहर होता है जिसमें हम बसते हैं
और एक शहर होता है जो हमारे अन्दर बसता है
अपने शहर को छोड़ कर आने से वो शहर तो शायद हमें भूल जाता है
पर जाने कैसे हमारे अन्दर जो शहर है उसकी मिट्टी से सोंधी खुशबु आने लगती है, चाहे कहीं भी बारिशो में फँसें हो हम। जाने कैसे गीत गुनगुनाने लगता है वो शहर, दर्द के, टूटने के, बिखरने के, एक बार अलग होकर कभी न मिलने के। जाने कैसी हवाएं बहती हैं इस शहर में की हमेशा टीस ही लगती है और जाने कैसी मिट्टी है इस शहर की कि जिसमें यादों की बेल कभी सूखती नहीं। मुस्कुराहटों का अमलतास हमेशा खिला रहता है और गुलमोहर के पेड़ छाया देते रहते हैं।
शहर बदलना एक अजीब सा अहसास होता है, मुझे कभी रास नहीं आता, जो अपनेआप में अजीब है, क्योंकि मैं ठहरी भटकती आत्मा, पर जाने कैसे जहाँ रुक जाती हूँ जैसे पैरों से जड़ें उग आती हैं, और शहर छोड़ते हुए उन्हें काट के आना पड़ता है।
दिल्ली शायद हमेशा मेरे दिल के सबसे करीब रहेगा, इस शहर में मैंने बहुत कुछ खोया...कुछ पाया और कुछ पीछे छोड़ आई। इस पाने खोने के दरमियाँ मैंने जाने कब अपने आप को उस मिट्टी में रोप दिया, या जाने दफ़न हो गई, कुछ तो हुआ जिससे मैं वाकिफ नहीं, लगता है कहीं वही मैं भी रह गई हूँ।
शायद जिस लम्हा, माँ को खोया मैं भी कहीं घूमने निकल गई अपने शरीर से बाहर, अब भी हूँ तो सही, पर पहले जैसी नहीं। बदल गई हूँ और इस बदलाव को बर्दाश्त नहीं कर पा रही।
लिखना चाहती भी हूँ और नहीं भी, डर भी लगता है ऐसे ख़ुद को एक्स्पोज़ करने में, कई बार दुःख हुआ है इसके कारण. पर शायद लिखे बिना रह भी नहीं सकती।
जिंदगी में सिर्फ़ एक चीज़ से सबसे ज्यादा प्यार किया है...अपनी कविता से...शायद इसके बिना भी जीने की आदत डालनी पड़े।
कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता
कभी ज़मीं तो कभी आसमाँ नहीं मिलता
पर सोचती हूँ
मैंने कौन सा आसमाँ माँगा था
अलविदा दिल्ली...
बड़ी तेज़ी से भागता रहता है वो शहर मेरा
जाने कैसे मेरी यादों से छूटा ही नहीं
अब भी कुछ बदला नहीं आह मेरी दिल्ली में
उसे क्या फर्क हम रहे वहां या नहीं
पूछूंगी तो कह देगी की जाओ बंजारन
दो दिन को रुके और दिल्लगी की बातें
भटकने वालो का ऐसा दिल हुआ नहीं करता...बस जाओ कहीं
अब उम्र हो गई तुम्हारी भी...हमारी भी
जाने कैसे मेरी यादों से छूटा ही नहीं
अब भी कुछ बदला नहीं आह मेरी दिल्ली में
उसे क्या फर्क हम रहे वहां या नहीं
पूछूंगी तो कह देगी की जाओ बंजारन
दो दिन को रुके और दिल्लगी की बातें
भटकने वालो का ऐसा दिल हुआ नहीं करता...बस जाओ कहीं
अब उम्र हो गई तुम्हारी भी...हमारी भी
11 July, 2008
कविता की मौत
मेरे अन्दर रहती थी एक कविता
मुझ जैसी थी
किसी अपने ने उसपर इल्जाम लगाया
बेवफाई का
वो कविता थी, सीता नहीं
कि अग्नि परीक्षा दे सकती
पन्ने तो जल जायेंगे ही आग में
चाहे उसपर जज्बात किसी के भी लिखे हों
इसलिए
कल रात
मेरे अन्दर की कविता ने
खुदखुशी कर ली
मुझ जैसी थी
किसी अपने ने उसपर इल्जाम लगाया
बेवफाई का
वो कविता थी, सीता नहीं
कि अग्नि परीक्षा दे सकती
पन्ने तो जल जायेंगे ही आग में
चाहे उसपर जज्बात किसी के भी लिखे हों
इसलिए
कल रात
मेरे अन्दर की कविता ने
खुदखुशी कर ली
06 July, 2008
रिश्ता...
एक पल को तो लगा
तुम कहोगे
तुम मेरे साथ कुछ वक्त बिताना चाहते हो...
सिर्फ़ इस चाहने से ही
दर्द सा कुछ टीस उठा मेरे अन्दर
ऐसा क्यों होता है
कि सिर्फ़ मैं चाहती हूँ
गुज़रे दिनों जैसे कुछ लम्हे
अब भी...
रिश्तों के नाम बदलने के साथ ही
बदल जाते हैं हमारे तुम्हारे समीकरण भी
और हर गुजरते दिन के साथ
मैं और तनहा होती जाती हूँ
मुझे अच्छे लगते हैं वो दिन
जब हमारे रिश्ते का नाम नहीं था
क्योंकि तब बहुत कुछ चाहती नहीं थी तुमसे
अब चाहने लगी हूँ
तुमसे कुछ उम्मीदें जुड़ गई हैं
और इनका टूटना
मुझे तोड़ने लगता है
तुम तब कहीं ज्यादा अपने थे
जब तुम मेरे कोई नहीं थे
वो रिश्ता कहीं ज्यादा मजबूत था
जो बना ही नहीं था
तुम कहोगे
तुम मेरे साथ कुछ वक्त बिताना चाहते हो...
सिर्फ़ इस चाहने से ही
दर्द सा कुछ टीस उठा मेरे अन्दर
ऐसा क्यों होता है
कि सिर्फ़ मैं चाहती हूँ
गुज़रे दिनों जैसे कुछ लम्हे
अब भी...
रिश्तों के नाम बदलने के साथ ही
बदल जाते हैं हमारे तुम्हारे समीकरण भी
और हर गुजरते दिन के साथ
मैं और तनहा होती जाती हूँ
मुझे अच्छे लगते हैं वो दिन
जब हमारे रिश्ते का नाम नहीं था
क्योंकि तब बहुत कुछ चाहती नहीं थी तुमसे
अब चाहने लगी हूँ
तुमसे कुछ उम्मीदें जुड़ गई हैं
और इनका टूटना
मुझे तोड़ने लगता है
तुम तब कहीं ज्यादा अपने थे
जब तुम मेरे कोई नहीं थे
वो रिश्ता कहीं ज्यादा मजबूत था
जो बना ही नहीं था
अरसा पहले...
वो बातें और हुआ करती थी
वो ज़माने और हुआ करते थे
ठोकरों में रखते थे दुनिया को
वो हौसले और हुआ करते थे
हम ख़ुद ही अपने खुदा होते थे
वो ज़ज्बे और हुआ करते थे
रौंद देते थे हालातों की नागफनियाँ
वो काफिले और हुआ करते थे
जिनमें देने में खुशी मिलती थी
वो रिश्ते और हुआ करते थे
अब तो लगता है पुराने हो गए हम
वो नए और हुआ करते थे
वो ज़माने और हुआ करते थे
ठोकरों में रखते थे दुनिया को
वो हौसले और हुआ करते थे
हम ख़ुद ही अपने खुदा होते थे
वो ज़ज्बे और हुआ करते थे
रौंद देते थे हालातों की नागफनियाँ
वो काफिले और हुआ करते थे
जिनमें देने में खुशी मिलती थी
वो रिश्ते और हुआ करते थे
अब तो लगता है पुराने हो गए हम
वो नए और हुआ करते थे
30 June, 2008
फ़िर से एक सवाल
कुछ अनकहा रह गया था न
हम दोनों के बीच
खामोशी याद दिलाती है तुम्हारी...
वो अनकहा अहसास
जो महसूस करती हूँ आज भी
ठहरी हुयी हवा में...
वो अनकहा सच
जो तुम्हारी आँखें बोलती थीं
तनहाइयों के दरम्यान...
वो अनकहा झूठ
जो मैं हमेशा ख़ुद से कहती आई थी
हमेशा, अपने दिल से भी...
वो अनकहा दर्द
जो तुम्हारी मुस्कान में घुल गया था
जब तुमने मुझसे विदा ली थी...
बहुत अपनी सी लगती है तुम्हारी याद
तुम मेरे थे क्या?
हम दोनों के बीच
खामोशी याद दिलाती है तुम्हारी...
वो अनकहा अहसास
जो महसूस करती हूँ आज भी
ठहरी हुयी हवा में...
वो अनकहा सच
जो तुम्हारी आँखें बोलती थीं
तनहाइयों के दरम्यान...
वो अनकहा झूठ
जो मैं हमेशा ख़ुद से कहती आई थी
हमेशा, अपने दिल से भी...
वो अनकहा दर्द
जो तुम्हारी मुस्कान में घुल गया था
जब तुमने मुझसे विदा ली थी...
बहुत अपनी सी लगती है तुम्हारी याद
तुम मेरे थे क्या?
27 June, 2008
एक नज़्म...
तू छिपा ले अपना दर्द मुस्कान के पीछे
पर मेरी आंखों में बादल बन बरसता तो है
तू चाहे तो कर मुझसे बेईन्तहा नफरत
यूँ ही सही तू मुझे सोचता तो है
मुझसे दूर जाने की खातिर ही घर बदला होगा तूने
पर गुजरता था जहाँ से तू वो रास्ता तो है
तू अपने आसमाँ को देखता है मैं अपने आसमाँ को देखती हूँ
पर जिस चाँद को तूने देखा वो कुछ मेरा भी तो है
अपने दोस्तों से तो तू लड़ नहीं सकता
मेरे बिना तेरा गुस्सा तनहा तो है
तुम्हारी जिंदगी की किताब में धुंधला सा ही सही
पर मेरी यादों का एक पन्ना तो है
२१/२/०१
पर मेरी आंखों में बादल बन बरसता तो है
तू चाहे तो कर मुझसे बेईन्तहा नफरत
यूँ ही सही तू मुझे सोचता तो है
मुझसे दूर जाने की खातिर ही घर बदला होगा तूने
पर गुजरता था जहाँ से तू वो रास्ता तो है
तू अपने आसमाँ को देखता है मैं अपने आसमाँ को देखती हूँ
पर जिस चाँद को तूने देखा वो कुछ मेरा भी तो है
अपने दोस्तों से तो तू लड़ नहीं सकता
मेरे बिना तेरा गुस्सा तनहा तो है
तुम्हारी जिंदगी की किताब में धुंधला सा ही सही
पर मेरी यादों का एक पन्ना तो है
२१/२/०१
26 June, 2008
कॉपी के पन्ने...२
तू दूर जाती है तो भूल जाता हूँ खुदा को भी
जाने किससे दुआ करता हूँ कि मुड़ कर देखो
आंसू नहीं तुम एक हसीं ख्वाब हो
कुछ देर मेरी पलकों पर ठहर कर देखो
किस कदर ज़ज्ब कर चुका हूँ तुझे मैं ख़ुद में
कभी मेरे करीब से गुज़र कर देखो
कहती हो मेरी आंखों में नशा सा है
मेरी आंखों में तुम हो जरा गौर कर देखो
मुझसे न पूछ मेरी जान मेरी वफ़ा का नाम
तन्हाई में अपने दिल से पूछ कर देखो
तुझसे भी खूबसूरत है तेरा नाम वफ़ा
न यकीं हो तो मेरी धड़कनें सुन कर देखो
जाने किससे दुआ करता हूँ कि मुड़ कर देखो
आंसू नहीं तुम एक हसीं ख्वाब हो
कुछ देर मेरी पलकों पर ठहर कर देखो
किस कदर ज़ज्ब कर चुका हूँ तुझे मैं ख़ुद में
कभी मेरे करीब से गुज़र कर देखो
कहती हो मेरी आंखों में नशा सा है
मेरी आंखों में तुम हो जरा गौर कर देखो
मुझसे न पूछ मेरी जान मेरी वफ़ा का नाम
तन्हाई में अपने दिल से पूछ कर देखो
तुझसे भी खूबसूरत है तेरा नाम वफ़ा
न यकीं हो तो मेरी धड़कनें सुन कर देखो
24 June, 2008
एक लम्हे की कहानी
मैं तो नहीं लिखती कहानियाँ
बस कविता जैसा कुछ
टुकड़ों टुकड़ों में
मैं तो नहीं रख सकती
अंजुरी भर पानी
आसमान पर फेंक दूँगी
गुलदस्ते से
एक गुलाब निकाल कर
किताबों में छुपा दूँगी
अनगिनत तारे नहीं
उस एक चाँद से
मेरा झगड़ा चलता है
सागर की सैकड़ों लहरें नहीं
मैं तो रखूंगी
शंख में एक बूँद
इतने बड़े आसमान को
काट कर, खिड़की पर
परदा टांग दूँगी
मैं तो बस
कतरा कतरा सम्हालती हूँ
मैं तो
लम्हा लम्हा जीती हूँ
जिंदगी...
बहुत बड़ी है
इसकी कहानी नहीं लिख पाती मैं
इसकी कहानी लिख नहीं पाऊँगी मैं
हाँ, एक लम्हे की कहानी है
लम्हे की कहानी सुनाऊँ
सुनोगे?
बस कविता जैसा कुछ
टुकड़ों टुकड़ों में
मैं तो नहीं रख सकती
अंजुरी भर पानी
आसमान पर फेंक दूँगी
गुलदस्ते से
एक गुलाब निकाल कर
किताबों में छुपा दूँगी
अनगिनत तारे नहीं
उस एक चाँद से
मेरा झगड़ा चलता है
सागर की सैकड़ों लहरें नहीं
मैं तो रखूंगी
शंख में एक बूँद
इतने बड़े आसमान को
काट कर, खिड़की पर
परदा टांग दूँगी
मैं तो बस
कतरा कतरा सम्हालती हूँ
मैं तो
लम्हा लम्हा जीती हूँ
जिंदगी...
बहुत बड़ी है
इसकी कहानी नहीं लिख पाती मैं
इसकी कहानी लिख नहीं पाऊँगी मैं
हाँ, एक लम्हे की कहानी है
लम्हे की कहानी सुनाऊँ
सुनोगे?
कॉपी के पन्ने
लड़कपन तो नहीं कह सकते लेकिन स्कूल के आखिरी सालों(12th) में हमेशा कॉपी के आखिरी पन्नो पर केमिस्ट्री के फार्मूला और फिजिक्स के थेओरेम के अलावा ये कुछ खुराफातें मिली रहती थी। माँ हमेशा इन्हें कचरा कहती थी, कोई कॉपी उलट के देखा तो क्या कहेगा। पर हम भी थेत्थर थे लिखते रहते थे, आज मेरे पास एक कूड़ेदान के जैसी दिखने वाली फाइल है, जिसमें सारे पन्ने फटे हुए रखे हैं। जब इनको खोलती हूँ तो लगता है एक दशक पीछे पहुँच गई हूँ...
इन कतरनों की कुछ पंक्तियाँ...
---०---०---
जिस्म के परदे हटा कर रूह तक झांक लेती हैं
मुहब्बत करने वालों की अजीब निगाहें होती है
---०----०----
कोई जब मुस्कुरा के मुझको दुआ देता है
मुझको उसकी आँखें तुझ जैसी लगती हैं
---०---०---
जब वो सोते हैं छुपा के अपनी नफरत पलकों में
तो लगते हैं कुछ कुछ मुहब्बत के खुदा जैसे
---०---०---
मेरे जिस्म में यूँ बसी है उसकी खुशबु
वो मेरी रूह का हिस्सा जैसे
यूँ झुकती हैं पलकें उसको देख कर
वो ही हो मेरा खुदा जैसे
---०---०---
यूँ लगता है तुम्हारे होठों पर मेरा नाम
काफिर के लबों से ज्यों दुआ निकले
---०---०---
इन कतरनों की कुछ पंक्तियाँ...
---०---०---
जिस्म के परदे हटा कर रूह तक झांक लेती हैं
मुहब्बत करने वालों की अजीब निगाहें होती है
---०----०----
कोई जब मुस्कुरा के मुझको दुआ देता है
मुझको उसकी आँखें तुझ जैसी लगती हैं
---०---०---
जब वो सोते हैं छुपा के अपनी नफरत पलकों में
तो लगते हैं कुछ कुछ मुहब्बत के खुदा जैसे
---०---०---
मेरे जिस्म में यूँ बसी है उसकी खुशबु
वो मेरी रूह का हिस्सा जैसे
यूँ झुकती हैं पलकें उसको देख कर
वो ही हो मेरा खुदा जैसे
---०---०---
यूँ लगता है तुम्हारे होठों पर मेरा नाम
काफिर के लबों से ज्यों दुआ निकले
---०---०---
21 June, 2008
सिजोफ्रेनिया...कितना सच कितना सपना
कल मैंने "a beautiful mind" देखी, फ़िल्म एक गणितज्ञ की सच्ची जिंदगी पर आधारित है। नाम है जॉन नैश, प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी में अपनी phd करने आया है, अपने आप में गुम रहता है कम लोगों से दोस्ती करता है, और उसका रूममेट है चार्ल्स। जॉन एक बिल्कुल ओरिजनल थ्योरी देता है वो। बाद में वह पेंटागन से जुड़े गवर्मेंट के काम में काफ़ी मदद करता है। वह कोड बड़ी आसानी से ब्रेक कर लेता है। इसलिए सरकार उसकी सुविधाएं लेती है।
हम बाद में पाते हैं की वो स्चिजोफ्रेनिया से पीड़ित है उसका रूममेट चार्ल्स सिर्फ़ एक हैलुसिनेशन है। यही नहीं वह जिन कोड्स को ब्रेक करने के लिए दिन रात एक किए रहता है वो कोड्स भी उसके मन का वहम है। जिस व्यक्ति के लिए वो काम कर रहा है वो एक्जिस्ट ही नहीं करता।
इस फ़िल्म में हम प्यार, rationality, और इच्छाशक्ति देखते हैं। मुझे फ़िल्म काफ़ी पसंद आई। इसका एक पहलू खास तौर से मुझे व्यथित करता रहा। इसमें जॉन उन व्यक्तियों को इग्नोर करता है जो सिर्फ़ उसकी सोच में हैं। एक जगह वो कहता है की वो चार्ल्स को मिस करता है। इसी विषय पर एक और फ़िल्म देखी थी १५ पार्क अवेन्यु, कहानी में ये सवाल उठाया गया था कि सिर्फ़ इसलिए कि एक स्चिजोफ्रेनिक इंसान जिन लोगों के साथ रहता है उन्हें बाकी दुनिया नहीं देख पाती उनका होना negate कैसे हो जाता है। आख़िर उस इंसान के लिए ये काल्पनिक लोग उसकी जिंदगी का हिस्सा हैं , वो उनके साथ हँसता रोता है। यहाँ बात फ़िर से मेजोरिटी की आ जाती है, क्योंकि उसका सच सिर्फ़ उसका अपना है बाकी लोग उसमें शामिल नहीं हैं उसे झूठ मान लिया जाता है।
इन लोगों को दुःख होता होगा, अपने ये दोस्त छूटने का...और दुनिया इनके गम को समझने की जगह इन्हें पागल बुलाती है। क्यों? सिर्फ़ इसलिए की उनका सच हमारे सच से अलग है, क्योंकि हम उनकी दुनिया देख नहीं सकते इसका मतलब ऐसा क्यों हो कि ये दुनिया नहीं है। कई बार ऐसे लोगों को भूत वगैरह से पीड़ित मान लिया जाता है और इनकी जिंदगी जहन्नुम बन जाती है।
कभी कभी लगता है...काश हम थोड़े और संवेदनशील होते, दूसरों के प्रति...थोड़ा और accommodating होते किसी के अलग होने पर। किसी को एक्सेप्ट कर पाते उसकी कमियों, उसकी बीमारियों के साथ।
फिल्में ऐसी होनी चाहिए जो देखने के घंटों बाद तक आपको परेशान करती रहे, सोचने को मजबूर करे। काश ऐसी कुछ अच्छी फिल्में हमारे यहाँ भी बनती... वीकएंड है और देखने को कोई ढंग की मूवी नहीं।
लगता है मुझे जल्द ही डायरेक्शन में कूदना पड़ेगा। भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री मुझे पुकार रही है। :-D :-)
हम बाद में पाते हैं की वो स्चिजोफ्रेनिया से पीड़ित है उसका रूममेट चार्ल्स सिर्फ़ एक हैलुसिनेशन है। यही नहीं वह जिन कोड्स को ब्रेक करने के लिए दिन रात एक किए रहता है वो कोड्स भी उसके मन का वहम है। जिस व्यक्ति के लिए वो काम कर रहा है वो एक्जिस्ट ही नहीं करता।
इस फ़िल्म में हम प्यार, rationality, और इच्छाशक्ति देखते हैं। मुझे फ़िल्म काफ़ी पसंद आई। इसका एक पहलू खास तौर से मुझे व्यथित करता रहा। इसमें जॉन उन व्यक्तियों को इग्नोर करता है जो सिर्फ़ उसकी सोच में हैं। एक जगह वो कहता है की वो चार्ल्स को मिस करता है। इसी विषय पर एक और फ़िल्म देखी थी १५ पार्क अवेन्यु, कहानी में ये सवाल उठाया गया था कि सिर्फ़ इसलिए कि एक स्चिजोफ्रेनिक इंसान जिन लोगों के साथ रहता है उन्हें बाकी दुनिया नहीं देख पाती उनका होना negate कैसे हो जाता है। आख़िर उस इंसान के लिए ये काल्पनिक लोग उसकी जिंदगी का हिस्सा हैं , वो उनके साथ हँसता रोता है। यहाँ बात फ़िर से मेजोरिटी की आ जाती है, क्योंकि उसका सच सिर्फ़ उसका अपना है बाकी लोग उसमें शामिल नहीं हैं उसे झूठ मान लिया जाता है।
इन लोगों को दुःख होता होगा, अपने ये दोस्त छूटने का...और दुनिया इनके गम को समझने की जगह इन्हें पागल बुलाती है। क्यों? सिर्फ़ इसलिए की उनका सच हमारे सच से अलग है, क्योंकि हम उनकी दुनिया देख नहीं सकते इसका मतलब ऐसा क्यों हो कि ये दुनिया नहीं है। कई बार ऐसे लोगों को भूत वगैरह से पीड़ित मान लिया जाता है और इनकी जिंदगी जहन्नुम बन जाती है।
कभी कभी लगता है...काश हम थोड़े और संवेदनशील होते, दूसरों के प्रति...थोड़ा और accommodating होते किसी के अलग होने पर। किसी को एक्सेप्ट कर पाते उसकी कमियों, उसकी बीमारियों के साथ।
फिल्में ऐसी होनी चाहिए जो देखने के घंटों बाद तक आपको परेशान करती रहे, सोचने को मजबूर करे। काश ऐसी कुछ अच्छी फिल्में हमारे यहाँ भी बनती... वीकएंड है और देखने को कोई ढंग की मूवी नहीं।
लगता है मुझे जल्द ही डायरेक्शन में कूदना पड़ेगा। भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री मुझे पुकार रही है। :-D :-)
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