30 May, 2012

कोडनेम सी.के.डी.

कोई नहीं जानता कि उसका असली नाम क्या था. सब उसे सीकेडी बुलाते थे. बेहद खूबसूरत लड़का. शफ्फाक गोरा. इतना खूबसूरत कि लड़कियों को जलन होने लगे. लंबा ऊँचा कद...चौड़ा माथा...खूबसूरत हलके घुंघराले कंधे तक आते बाल...मासूम आँखें और जानलेवा गालों के गड्ढे. लेडीकिलर...कैसानोवा जैसे अंग्रेजी शब्दों का चलन नहीं था उस छोटे से शहर में वरना उसे इन विशेषणों से जरूर नवाज़ा जाता.

उसके अंदर अगाध प्रेम का सोता बहता था...वह मुक्त हाथ से प्यार बांटता था...कि प्यार भी तो बांटने से बढ़ता है. जितना प्यार करो उससे कई गुना ज्यादा लौट कर वापस आता है. उसकी अनेक प्रेमिकाएं थीं...उनमें से किसी को ये शिकायत नहीं कि वो किसी और को ज्यादा चाहता है...उसका प्यार बराबर सबमें बंटता...प्रेमिकाओं में, दोस्तों में और अजनबियों में भी. यार लोग कई बार हैरत करते कि इतनी लड़कियां हैं, कैसे मेंटेन करता है कि लोग एक प्रेम निभाने में हलकान हो जाते हैं और वो जाने कितनों से एक साथ प्यार करता है. यूँ तो सारा कोलेज ही उसपर मरता था...उसमें कुछ तो बात ऐसी थी कि कोई उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था. प्रोफेसर्स की आँखों का तारा...स्टूडेंट नेता का जिगरी यार...यहाँ तक कि कोलेज का चपरासी तक उसके साथ ऐसे हिला मिला था जैसे दाँत-काटी दोस्ती हो.

किसी को कोई जरूरत हो...पहला नाम उसका ही आता. चाहे सरस्वती पूजा के लिए चंदा इकठ्ठा करना हो कि प्रिंसिपल से मिल कर कापियों की जांच दुबारा करवाने का मुद्दा हो. घाघ से घाघ सेठ जो अधिकतर चंदा वालों को देख कर ऐसे मुंह सिकोड़ते थे जैसे बेटी का हाथ मांग लिए हों सीकेडी को देखते नरम मक्खन हो जाते थे...चाय ठंढा तो पिलाते ही थे कोलेज का हाल ऐसे प्रेम से पूछते थे जैसे कॉलेज की ईंट ईंट में उनके दान-पुन्य का प्रभाव है और सारे विद्यार्थियों पर माँ सरस्वती की अनुकम्पा उनके दिए सालाना हज़ार रुपयों के कारण ही है. सीकेडी में क्या बात थी कि मर्म पहचानता था आदमी का...और उसमें बनावट लेशमात्र की भी नहीं थी. फ़कीर की तरह जो दे उसका भी भला जो ना दे उसका भी भला गाते चलता था...मगर दुनिया उसके लिए इतनी रहमदिल थी कि उसकी झोली किसी घर से खाली नहीं लौटती थी.

दो मीठे बोल कितने ज्यादा असरकारी हो सकते हैं जानने के लिए सीकेडी के साथ कुछ देर रह लेना काफी था. खबर आई कि आज़ाद चौक पर कोलेज के दो खूंखार ग्रुप शाम को जुटने वाले हैं...किसी ने किसी की गर्लफ्रेंड को छेड़ दिया है...बस आज तो चक्कू चल जाएगा. एक आध तो मरने ही वाले हैं किसी भी हाल में...खुदा भी नहीं बचा सकता. आधा शहर लड़ाई देखने के लिए चौक पर उमड़ता है लेकिन देखता है कि लड़की ने बड़े प्रेम से राखी बाँध दी है और हक से विरोधी गुट के मुखिया से मिठाई खरीदवा के खा भी रही है और बाकियों को बंटवा भी रही है. सीकेडी कृष्ण की तरह मंद मंद मुस्कान बिखेर रहा है जैसे कि माया के सारे खेल उसी के रचे हुए हैं.

नए क्लास शुरू हुए हैं...एक लड़की है क्लास में मीना...उसका कोई पहचान का आया है, शहर में नया है. उसे स्टेशन लाने जाना है. रहने को कोई ठिकाना भी नहीं है. किससे कहे. सीकेडी. उसके होते क्या तकलीफ. छोटे से शहर के छोटे से कमरे में पहले से चार लोग रहते थे. मगर सीकेडी ने कह दिया तो सब मुस्कुराते हुए अडजस्ट कर जायेंगे...आखिर इंसान इंसान के काम नहीं आएगा तो कौन आएगा. स्टेशन पर उस अजनबी को रिसीव करने गया है. सारा सामान उतरवाया है...अरे कुली रहने दो, हम किस दिन काम आयेंगे. बिना तकल्लुफ के उसने दो बैग उठा लिए हैं...दो बैग उस लड़के ने उठाये और एकलौता गिटार मीना ने टांग लिया. बड़े शहर मुंबई से आया अजनबी चकित है. ऐसे भी लोग होते हैं. बिना कुछ मांगे दिल खोल कर गले लगाने वाले. कमरे में जाते वक्त थोड़ा हिचकिचाया है...दोस्त छोटा सा ही कमरा है मेरे पास, कुछ दिन रह लो फिर तुम्हारे लायक देख देंगे. छोटा कमरा. छोटा शहर. लेकिन दिल...दिल कितना बड़ा है सीकेडी का.

वो सबमें इतना बंटा हुआ था कि उसका अपना कुछ नहीं था. घर से लाये बेहतरीन कपड़े उसके सारे दोस्तों के बदन पर पाए जाते थे सिवाए उसके. वो किसी गर्मियों की दोपहर किसी और की टीशर्ट धो रहा होता है बाथरूम में कि शाम को किसी से मिलने जाना है पर कपड़े बाकी सारे दोस्त पहन कर निकले हुए हैं. सीकेडी...यार आज प्रीती से मिलने जाना है, तेरी वो नीली छींट की शर्ट पहन लूं...और सीकेडी उसे लगभग लतियाते हुए कहता है कि साले पूछना पड़ा तो काहे की दोस्ती...और खूँटी से उतार के आखिरी धुला कपड़ा भी हाजिर कर दिया. यार मुझपर तो कुछ भी अच्छा लग जाएगा मगर तुम साले कुछ और पहन कर जाओगे तो चुकंदर लगोगे फिर प्रीती किसी और के साथ फुर्र हो जायेगी तो तेरे दर्द भरे मुकेश के गाने हमें सुनने पड़ेंगे. सुन, किताब की रैक पर पेपर के नीचे कुछ रुपये पड़े हैं...लेता जा, आइसक्रीम खिला देना उसे...खुश हो जायेगी. उसे दूसरों की खुशी में कौन सी खुशी मिलती थी...शायद जी के देखना पड़ेगा. समझना और समझाना बहुत मुश्किल है.

कोलेज लाइफ के बाद के स्ट्रगल के दिन थे. दिल्ली में मुनिरका में छोटा सा कमरा था फिर और आईएएस के सपने वाले अनगिन साथी. बगल के दड़बेनुमा कमरे में कुछ विदेशी छात्र रहते थे जिनके पैसे खत्म हो गए थे...और अगले पैसे लगभग तीन महीने बाद आने वाले थे. उसने तीन महीने उनको खुद से बना के चावल और आलू की सब्जी खिलाई...जितना है उतना में मिल-बाँट के रहना उसका अंदर का स्वाभाव था. पागलों की तरह तैय्यारी करता था...दिन रात पढ़ाई की धुन सवार रहती थी. तीन साल लगे उसे आइएएस निकालने में...और इत्तिफाक था कि खुदा की नेमत...कमरे में रहने वाले तीनो लड़कों का एक ही साल हो गया था. वे पागलों की तरह खुश थे. रिजल्ट निकलने के थोड़ी देर में जमवाड़ा लग गया...कुछ को खुशी में पीनी थी...कुछ को गम में. पर पीने वाले सब तरह के थे. आज बहुत दिन बाद नए छोकरों पर उसके नाम का रहस्य खुलने वाला था.

सीकेडी एकदम ही नहीं पीता था. मगर चकना देखते ही उसकी आँखें ऐसे चमकती थीं जैसे उजरकी बिल्ली की मलाई देख कर. सब दारू पीने और दुखड़ा रोने में डूबते थे और इधर वो सारा चकना साफ़ कर जाता था. मूंगफली और प्याज तो जैसे उसकी कमजोरी थे...यही एक उसकी कमजोर नस थी कि चकना न बनाएगा, न खरीदने जाएगा...दारू पार्टी के सारे आयोजनों में विरक्त भाव से पड़ा रहेगा मगर चकना पर मजाल है किसी और का चम्मच भी पहुँच जाए. लोग चकना बनाते बनाते परेशान हो जाते थे मगर सीकेडी साहब किसी को एक फक्का खाने न देते थे. ऐसे ही किसी खुशमिजाज लोगों की पार्टी थी जब लोग पहली पहली बार मिले थे कोई १८ की उमर में...बहुत दिन तो पता ही न चले कि चकना जाता कहाँ है कि सब दारूबाज यही कहते हैं कि मैंने तो एक फक्का भी नहीं खाया...कसम से. फिर एक दिन किसी की नज़र पड़ी कि सारा चकना इस कमबख्त नामुराद ने साफ किया है...उसी दिन से उसका नामकरण हुआ...सी.के.डी. उर्फ चकना के दुश्मन. सीकेडी के रहते चकना खाना आइएएस निकालने से ज्यादा मुश्किल था...फिर वो आखिरी शाम भी थी दोस्तों की एक साथ.

फिर बहुत साल हुए सीकेडी कहीं खो गया. अफसरों की एलीट पार्टियों में वो कभी नज़र नहीं आता था. दोस्तों ने उसे कई साल ढूँढने की कोशिश की, मगर सब नाकाम. कोई कहता था आसाम पोस्टिंग हो गयी है तो कोई कश्मीर बताता था. गैरतलब है कि ऐसा कोई शख्स न था जिसने अपने अपने तरीके से सीकेडी को खोजा नहीं और उसकी सलामती के लिए दुआएँ नहीं मांगी हों. 'जियें मेरे दुश्मन' जैसा तकियाकलाम रखने वाला शख्स इस बड़े से देश में कहाँ गुम हुआ बैठा था.

इत्तिफाकों के लिए दुनिया बहुत छोटी है. बेटी के रिश्ते के सिलसिले में मुंगेर के एक गाँव जाना था, वहाँ एक खानदानी परिवार था, बड़ा बेटा आइआईटी करके अच्छी पोजीशन पर कार्यरत था. रिश्ता उधर से ही आया था...जिस व्यक्ति ने बताया कि वो लोग मेरी बेटी से रिश्ता जोड़ने के इच्छुक हैं उसने उनका नाम इतने इज्ज़त से लिया था कि आँख की कोर तक उजाले से भर गया था...चन्द्रभान सिंह. नाम इतना भारी भरकम था...मैंने सोचा एक बार देख के आना तो जरूरी था. गाँव ढूँढने में कोई दिक्कत नहीं हुयी...नाम बताते ही रिक्शेवाला बोला एक ही शर्त पर जाऊँगा कि उनके घर जाने के लिए आप मुझे पैसे नहीं देंगे. अपने बिटुआ के लिए आये है...हम बेटेवाले सही...हमारे यहाँ लड़की देने वाले का बहुत मान है.

चारों तरफ हरियाले खेत देखे कितना वक्त बीत गया था...रिक्शावाला चन्द्रभान सिंह की कहानियां सुनाता चल रहा था...कैसे उसकी बेटी की शादी नहीं हो रही थी तो सिन्घ बाबू के कहने पर लड़के वाले मान गए और कितनी धूम धाम से शादी हुयी थी गाँव से. अनगिन कहानियां. मेरे मन में इस व्यक्ति के लिए कौतुहल बढ़ता जा रहा था. फिर बीच सड़क पर एक आदमी एकदम सफ़ेद धोती कुर्ते में एक काँधे पर घड़ा रखे जाते दिखा...साथ में एक बूढ़ी औरत थी, कमर एकदम झुकी हुयी. पास जाते ही हँसी की आवाज़ सुनाई पड़ी...माई ई उमर छेके तोरा, अभियो जवाने बूझईछे...कमर मचकतै तो जईते काम से. बूढ़ी औरत अपने रौ में बतियाते चल रही थी. ई रहे हमरे सिन्घ बाबू...रिक्शे वाले ने रिक्शा रोका.

वो ऐसे सामने आएगा कब सोचा था...मगर वाकई सीकेडी कब क्या करेगा...कहाँ मिलेगा कौन जानता था. बस जिधर से हँसी गूँज रही है समझा जा सकता था कि वो आसपास ही होगा. मैं हड़बड़ाये हुए बढ़ा. हमारा सीकेडी...बालों में चांदी और चेहरे पर एक उम्र का तेज लिए सामने खड़ा था. आज भी एकदम पहले जैसा...दूसरों को मुस्कुराते देख खुश होने वाला. लेशमात्र भी बदलाव नहीं. मन से निश्छल. अपनी छोटी सी परिधि में कितना विशाल...एक पल को मैं अभिभूत हो गया.

शादी की सारी रस्मों के दौरान चन्द्रभान सिंह उर्फ सीकेडी के कितने पहलू खुले...उसने उस इलाके के लिए समाजसेवा नहीं की थी...लोगों का उचित मार्गदर्शन किया था बस. बच्चों को स्कूल भेजने के लिए देर देर रात तक उनके माँ बाप से बहस की थी...किसी का लोन अप्रूव नहीं होने पर बैंक मैनेजर को समझाया था कि क्यूँ इस लोन को देने से बैंक और लेनदार दोनों का फायदा है. अपनी अनगिनत किताबों का भण्डार लोगों के लिए खोल दिया था...यही नहीं जिस गाँव में बिजली आने में अनगिनत साल लगे थे वहाँ उसने इन्टरनेट स्थापित कर रखा था. किसी को कोई भी जानकारी चाहिए थी तो गूगल उनके लिए हाज़िर था. गाँव के लगभग हर व्यक्ति जिसके बच्चे बाहर पढ़ रहे थे के पास अपनी ईमेल आईडी थी.

शादी के लगभग हफ्ते पहले से उनके साझा मित्र गाँव में जुटने लगे थे. सीकेडी की बड़ी हवेली में पैर धरने की जगह नहीं थी. तरह तरह की विलायती शराब की नदी बह रही थी...इसमें रोज रात को बाजी लगती कि आज कोई एक चम्मच चकना खा के दिखा दे. सात दिनों में बाजी कोई नहीं जीत पाया था. सीकेडी की फुर्ती, उसकी आँखों की चमक, उसका चकना को देखकर बेताब हो जाना...कुछ नहीं बदला था.

हम दुनियावी लोग थे...हर कुछ दिन में परेशान होने लगते कि दुनिया बड़ी बुरी है...यहाँ कुछ अच्छा ज्यादा दिन नहीं चल सकता...देर सवेर सब कुछ करप्ट हो जाता है. सिस्टम में गड़बड़ी है, मानव स्वाभाव हमेशा बुरे की ओर झुकता है और जाने कितने फलसफे. यहाँ एक सीकेडी हमारी हर धारणा पर भारी पड़ता था...और सबसे आश्चर्यजनक ये बात थी कि उसके बड़े होने से हमें छोटे होने का बिलकुल अहसास नहीं होता था. अच्छा होना इतना सहज और सरल हो सकता है सीकेडी को देख कर पता चलता था. ईश्वर की बनायी इस दुनिया में प्राकृतिक रूप से कुछ खूबसूरत हो सकता है तो वो है इंसान का मन...हम इसे अनगिन सवालों में बांध कर परेशान कर देते हैं.

सीकेडी की कहानी में कोई उतार-चढाव नहीं हैं...एक असाधारण से शख्स की एकदम साधारण सी कहानी. ये  कितना अद्भुत है न कि वो इतना साधारण है कि विलक्षण है.
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लेखक की चिप्पी: मुझे लगता है हम सबमें एक ऐसा शख्स रहता है जिसे हम बहुत मेहनत से तहखाने में बंद करके रखते हैं कि हमें अच्छा होने से डर लगता है. वाकई...अच्छा होना ग्लैमरस नहीं...इसमें थ्रिल नहीं...मगर सुख...वो इसी तहखाने से होकर अपना रास्ता तलाशता है. 

29 May, 2012

किस्मत हाथों से गढ़ते हैं...हाथ की लकीरों से नहीं


कल शाम साढ़े छः बजे की ट्रेन है. क्या करे संध्या...मिल आये एक बार जाके उससे, शाम को वहीं पनवाड़ी के दूकान के पास रहेगा. घर में नमक खतमे पर है, दू संझा और चलेगा. लेकिन उ तो कल शाम जा रहा है. रेलवे में एसएम का निकला है उसका, वैसे लड़का तो तेज है. पहले तो लगता था कमसे कम बैंक पीओ तो जरूर करेगा. लेकिन सब जगह धांधली मचा हुआ है, उसपर जेनेरल का तो कहीं निकलना मुश्किल...उसपर किस्मत भी खराब. दू दू बार एसबीआई में निकला लेकिन इंटरव्यू में छंट गया. अब शहर का पिट पिट अंग्रेजी बोलने वाला लड़का सबसे कैसे कम्पीटीशन करेगा गाँव में सरकारी स्कूल से पढ़ने वाला लड़का. ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी नहीं आता है...लिखित तो बहुत बढ़िया है लेकिन बोलने में गला सूखता है.

संध्या का मन है कि एक बार जा के उसको देख आये. ट्रेनिंग में जा रहा है तो साल छः महीने उधरे रहेगा...उसपर पोस्टिंग भी उधर साउथ में आएगा तो घर आये पता नहीं कितना दिन हो जाएगा. सुनते हैं साउथ जाने में तीन दिन का ट्रेन का सफ़र है और स्लीपर में ई गर्मी में ऐसा चिलचिलाता धूप लगता है कि ऊपर का सीट तो एकदम तवा जैसा गरम हो जाता है. गर्मी के दिन में स्लीपर में चलना बहुत मुश्किल का काम हो जाता है. भट्टी के जैसा तपता है ट्रेन का पूरा कम्पार्टमेंट. संध्या रोटी फुलाते हुए सोच रही है...मन भी तो वैसे ही भट्टी जैसा तप रहा है. पिंटू भी उसके बारे में सोच रहा होगा क्या अभी? फिर पसीना पोछते हुए ख्याल को झटक देती है. अभी उसके सर पर बहुत चिंता है...बहन का उम्र निकलते जा रहा है, उसका शादी करना है फिर घर भी तो एकदम ढह जाने वाला है. अभी पिछली बरसात में छत इतना चू रही थी कि छापर टापना पहले जरूरी है.

वो कहना चाहती है कि वो जब तक लौट के आये किसी भी तरह बाबूजी को रोके रखेगी कि कहीं शादी का डेट फाइनल ना करें. फिर खुद पर हँसती है...उसकी भी तो उमर अब २८ हो गयी लेकिन बाबूजी सबको दो साल कम करके २६ बताते हैं. स्कूल के टीचर बाबूजी के पास जोड़ जाड़ कर भी दहेज के पैसे नहीं पुरते इसलिए इतने साल से कोई लड़का नहीं मिला है हाथ पीले करने के लिए. अचानक बाबूजी का सोच कर उसका मन भर आता है. कितनी कितनी रातों तक वो लालटेन की रौशनी में परीक्षा की कॉपी जांचना याद आता है. हर कॉपी का पचास रूपया मिलता था. बाबूजी केतना बार तो खाना भी जल्दी में निपटा देते थे कि जेहे एक ठो और कॉपी जंचा जाए. पूजा भी तो उन दिनों माँ सम्हाल लेती थी या फिर जो माँ न सम्हाल सके तो संध्या के पाले में पड़ती थी. कभी कभार संध्या कितना कुढती थी. पूजा का सारा काम करने के चक्कर में उसे स्कूल को देर हो जाती थी. घर में अलार्म घड़ी तो थी नहीं, पूरी पूरी रात उठ कर देखती रहती थी कि उजास फूटी कि नहीं. फिर क्लास में नींद आती रहती थी तो वो पिंटू उससे पहले सवाल बना जाता था.

उसके तरफ कहते हैं कि कोई लड़की कुंवारी नहीं रहती ऐसा माँ पार्वती का वरदान है. संध्या को अखबार में पढ़ी खबर याद आती है बिहार में स्त्री-पुरुष अनुपात ९०१:१००० है. इसलिए हर लड़की की शादी हो जाती है. उसने कभी अपने बारे में सोचा नहीं था लेकिन आजकल पिंटू की दीदी को देखती है तो परेशान होने लगती है. उनका उमर ई साल फरवरी में ३१ हो गया. पहले कितना हँसते खेलती रहतीं थीं, बरी पापड़ बनाने में, बियाह का गीत गाने में, कुएं से पानी खींचने में उनका कोई सानी नहीं था. आजकल हर चीज़ पर झुंझला पड़ती हैं. ई सातवाँ बार है कि लड़का वाला देख कर उनको छांटा है...और लड़का भी कैसा, काला, मोटा, पकोडे जैसा नाक, पूरा मुंह चेचक के धब्बा से भरा हुआ, झुक के कंधा सिकोड़ कर चलता है लेकिन अपने लिए लड़की खोजता है हूरपरी...जैसे उसके लिए कटरीना बैठी है बियाह रोक के. उस रात पिंटू की दीदी खूब रोई थी उसके गले लग के...और संध्या बहुत देर तक उनको समझाते रही थी और उस लड़के को गालियाँ बकते रही थी.

संध्या को कोलेज फाइनल इयर की वो घटना याद आती है. राजेश लाइब्रेरी की आखिरी रो में खड़ा था और अचानक उसे पास आकर बोला उसे कुछ जरूरी बात करनी है. वो इतना घबरा गयी थी कि सीढ़ी से गिरते गिरते बची. दिन भर सोचते रही थी कि उसे क्या बात करनी होगी...अगले दिन सुबह के क्लास के बाद उसके साथ चली थी लाइब्रेरी की तरफ जब उसने बताया था कि उसकी पक्की सहेली उसे अच्छी लगी है और वो चाहता है कि शादी के लिए उसके घर रिश्ता लेकर जाए. संध्या को बस दिशा से पूछना था कि वो राजेश को पसंद करती है या नहीं. संध्या ने अच्छी दोस्त का कर्त्तव्य निभाया था. वे दोनों आज भी मिलते हैं तो राजेश उसका शुक्रिया करते नहीं थकता. उनकी शादी पूरे समाज में पहली बिना दहेज की शादी थी. राजेश के पापा कम्युनिस्ट थे...दहेज लेने और देने के सख्त खिलाफ. राजेश उनका एक ही बेटा था.

कोलेज में उसकी सारी दोस्तों की एक एक करके शादी हो गयी थी. वो बड़े उत्साह से उनकी शादी में गीत गाती थी. आजकल गाँव में रहती है...एमए के बाद कितना पढेगी आगे ये सोच कर गाँव आ गयी है. दिन भर खाली टाइम में या तो टीवी देखती रहती है या मैग्जीन पढ़ती रहती है. स्कूल के लाइब्रेरी में बहुत सी किताबें हैं. आज उसका मन किसी मैग्जीन में नहीं लग रहा था. बहुत मन था कि एक बार जा के बस उसे देख आये. नमक भी तो खतम होने ही वाला था न.

जो संध्या की आदत थी, सोचना ज्यादा करना कुछ नहीं. सो दिन भर सोचती रही लेकिन उससे मिलने नहीं गई. मालूम तो था ही कि आज के बाद उसका चेहरा देखे बहुत बहुत साल हो जाएगा. दिल पे पत्थर रखना लड़कियों को बचपन से ही सिखा दिया जाता है. सो वो भी सिसकारी दबाए बैठे रही दिन भर. अगली शाम जब उसकी रेल का टाइम निकल गया तो गोहाल की पीछे भूसा वाला कमरा में खूब फूट फूट कर रोई...जैसे कलेजा चाक हो गया हो उसका...जैसे वो पूरी पूरी पत्थर ही हो गयी है.

वापस आई तो हर तरफ एक मुर्दा सन्नाटा था...जैसे करने को कहीं कुछ नहीं. बाबूजी रामायण पढ़ रहे थे. माँ चूल्हा धुआं रही थी रात के खाने के लिए. भैय्या का पंजाब से पहला मनीऑर्डर आया था इसलिए घर में सब थोड़े खुश थे. रात को माँ डाल में थोड़ा घी डालते हुए बोली...कैसा कुम्हला गयी है रे लड़की...इतना क्या सोचते रहती है दिन भर. राम जी सब अच्छा करेंगे. रात खटिया पर पड़े हुए संध्या देर तक आसमान के तारे देखती रही सोचती रही कि नसीब वाकई सितारों में लिखा है तो फिर जीवन का उद्देश्य क्या है. हम क्या वाकई दूर तारों के हिसाब से जियेंगे और मर जायेंगे...फिर हाथ की लकीरें क्या हैं. फिर ये क्यूँ कहते हैं कि बांया हाथ भगवान का दिया हाथ है और दांया हाथ वो है जो हम खुद बनाते हैं. स्कूल कोलेज में वो हमेशा सबसे तेज विद्यार्थी रही थी कोलेज में तो डिस्ट्रिक्ट टॉपर थी. फिर उसने कभी नौकरी करने के बारे में सोचा क्यूँ नहीं. नींद आने के पहले वो मन बना चुकी थी कि उसे भी कम्पीटीशन में बैठना है.

अगली सुबह पिंटू के यहाँ से जाकर सब बैंक पीओ की तैयारी का मटेरियल ले आई वैसे भी रद्दी में ही बिकने वाला था सब कुछ. बाबूजी को बता दिया कि जिस दिन अखबार में भैकेंसी निकलेगा उसको भी पेपर फॉर्म ला देंगे. संध्या जी जान से तैय्यारी में जुट गयी. बाबूजी भी उसे दिन रात मेहनत करता देख बहुत खुश हुआ करते थे. उसके पास खोने को कुछ नहीं था...लेकिन अगर उसका कम्पीटिशन में हो जाता तो उसके जैसी बहुत सी लड़कियों के लिए रास्ता खुल जाता. इतने सालों की लगातार पढ़ने की मेहनत काम आ रही थी. एक्जाम में बैठते और पेपर देते एक साल निकल गया. जब एसबीआई में उसका नहीं हुआ तो उसे दुःख हुआ था लेकिन उसने उम्मीद नहीं हारी थी. उसे खुद पर भी यकीन था और भगवान पर भी.

जिस दिन आंध्रा बैंक में पीओ होने का लेटर पोस्टमैन लेकर आया बाबूजी जैसे बौरा गए थे, पूरे गाँव को चिट्ठी दिखा रहे थे...मेरी बेटी अफसर बन गयी है. हमेशा काम के बोझ के कारण झुके कंधे तन गए थे और लालटेन में काम करते धुंधला गयी आँखें चमकने लगी थीं. माँ भी सब काम छोड़ कर उसका बक्सा तैयार करने में लग गयी थी. बक्से के साथ ही नसीहतों की भी भारी पोटली थी. जोइनिंग डेट के आसपास बहुत सी अफरातफरी थी...सारे पेपर ठीक से रखने थे...मन को समझाना था कि गाँव छूट रहा है. इस सब में सांझ तारे सी एक बात चमक जा रही थी...पिंटू की भी पोस्टिंग उसी शहर में है.

आखिर वो दिन आ गया जब माँ और बचपन की सारी सहेलियों से गले लग कर वो ट्रेन पर जा बैठी...उसे ऐसा लग रहा था जैसे शादी के बाद विदा होती है ऐसे सब उसे विदा कर रहे हैं. बाबूजी ट्रेन पर चढाते हुए उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले...आप परिवार का नाम ऊँचा किये हैं बेटी...हमेशा घर की मर्यादा का ध्यान रखियेगा. बाबूजी बहुत कम उससे सीधे बात किये हैं...वो उनके कंधे से लग के फफक के रो पड़ी. पूरे रास्ते अपने नए ऑफिस, बाकी साथियों के बारे में सोचती रही. जिंदगी का नया अध्याय शुरू हो रहा था.

ट्रेन हैदराबाद पहुंची तो वो अपनी छोटी सी अटैची लेकर स्टेशन पर उतरी. भीड़ छंटी तो उसने देखा फूलों का गुलदस्ता और एक झेंपी सी मुस्कान लिए पिंटू खड़ा था. शाम के साढ़े छः बज रहे थे. आज पहली बार संध्या को अपने फैसले पर बेहद गर्व हुआ. उस शाम अगर पिंटू से मिलने चली जाती तो उस लंबे इंतज़ार का हासिल कुछ नहीं होता. गलती ये होती कि प्यार में खुद को भूल जाती...मगर उसने प्यार में खुद को और निखार लिया...अपना 'मैं' बचाए रखा. इन्तेज़ार उसने अब भी किया मगर इंतज़ार के समय में कितना कुछ उसने अपने नाम भी लिखा. आत्मविश्वास से लबरेज संध्या ने आगे बढ़ कर पिंटू से हाथ मिलाया. दोनों हँस पड़े.

संध्या ने अपने हाथ की लकीरें देखीं...उसके दायें हाथ में एक लकीर पिंटू के नाम की भी उगने लगी थी. 

27 May, 2012

पूरा पूरा कुछ नहीं...अधूरी अधूरी सब कुछ.

आप १४० पर हड़बड़ में नहीं पहुँच सकते.

मैं गाड़ी की स्पीड की बात कर रही हूँ...१४० किलोमीटर प्रति घंटा.

ऐसा नहीं होगा कि आप एक्सीलेरेटर को पूरा नीचे तक दबा दिए तो गाड़ी उड़ती हुयी १४० टच कर जायेगी.
ऐसा हो भी सकता है. पर वो कारें दूसरी तरह की होती हैं. मैं एक नोर्मल कार की बात कर रही हूँ...जैसे कि मेरे पास है. स्कोडा फाबिया. एक साधारण, मिड-लेवल कार...ये कारें हमारे पागलपन के लिए नहीं, हमारी सुरक्षा के लिए बनी हैं.

कोई क्यूँ चलाना चाहेगा कार को १४० की स्पीड पर...जैसा कि मैं खुद से कहती हूँ...१४० मजाक नहीं होता. ८० पर गाड़ी चलाना तेज रफ़्तार माना जाता है. १०० पर चलाने पर अगर कुछ लोग गाड़ी की बैक सीट में हैं तो मुमकिन है कि एक आध बार टोक दें...गाड़ी थोड़ा धीरे चलाओ प्लीज. १२० की स्पीड हाइवे पर गाड़ी को ओवर टेक करने के लिए अक्सर जरूरी होती है. बहुत मूड हुआ तो १२५ और महज छूने की खातिर कि कैसा लगता है १३० पर चलाना कई बार लोग स्पीडोमीटर पर ध्यान देते हुए स्पीड बढ़ा भी सकते हैं. एक बार फिर सुई १३० टच कर जाए तो वापस लौट आते हैं. कभी हुआ है कि भीड़ में कोई शख्स आगे जा रहा है और कौतुहल इतना बढ़ जाए कि आपको तेज कदम बढ़ा कर उसका चेहरा देखना हो...वैसा ही कुछ.

१४० पर चलाने के पहले के हालात और १४० के दरमयान क्या चलता है दिमाग में? जी...दिमाग कमबख्त १४० पर भी सोचना बंद नहीं करता...इस स्पीड में भी पैरलल ट्रैक चलाता है. वैसे अगर आपने चला रखी है गाड़ी तो फिर पढ़ने का सेन्स नहीं बनता कि आप जानते हैं कि कैसा लगता है...मगर फिर भी, हर अनुभव दूसरे से अलग होता है कि हर इंसान के सोचने समझने और रिएक्ट करने के तरीके अलग होते हैं. उसमें भी मैं तो जाने किस मिट्टी से बन के आई हूँ.

इतने भाषण के बाद क्रोनोलोजिकल आर्डर में बात करती हूँ. भोर का पहला पहर था...चार बज रहे होंगे...एकदम सन्नाटा. फिर कोई दस मिनट के आसपास चिड़िया पार्टी हल्ला करना शुरू की. मेरे घर के पीछे एक बहुत बड़ा सा पेड़ है...वही सबका अड्डा है. अँधेरा अपने सबसे सान्द्र फॉर्म में था...यू नो...सूरज उगने के पहले सबसे ज्यादा अँधेरा होता है...वही वक्त. मेरा मन थोड़ा छटपट कर रहा था...या फिर कह सकते हैं कि कहीं भाग जाने का मन कर रहा था...बहुत लंबी सड़क पर

बैंगलोर से बाहर जाने के सारे रास्ते मुझे मालूम है...वैसे अब तो आईफोन में जीपीएस है पर उसके पहले भी साधारण नक़्शे को मैं ही पढ़ती थी और हम घूमने जाते थे...इसलिए शहर का अच्छे से आइडिया है. सारे रास्तों में मुझे सबसे मायावी लगता है हाइवे नंबर ७ जो बहुत से घुमावदार शहरों से होकर कन्याकुमारी जाता है. मुख्यतः दो या तीन रास्ते हैं लेकिन जिनपर ड्राइव करने जाया जा सकता है. घर से निकलते ही सोचना पड़ता है किधर जाएँ...एक रास्ता है ओल्ड मद्रास रोड...जो हाइवे नंबर ४ है...चेन्नई जाता है. पोंडिचेरी जाने के लिए भी इस रास्ते को लिया जा सकता है. एक रास्ता है एयरपोर्ट होते हुए...जिसपर आगे चलते जायें तो हैदराबाद पहुँच जायेंगे. कोरमंगला होते हुए भी एक रास्ता बाहर को जाता है...जिसका सबसे बड़ा आकर्षण है १० किलोमीटर लंबा चार लेन का फ्लाईओवर...इसमें कोई खास मोड़ भी नहीं हैं...एकदम सीधी सड़क है. एयरपोर्ट के रस्ते में अच्छा ये था कि वहाँ मेरी पसंद की कॉफी मिलती है...मगर चार बजे सुबह एयरपोर्ट का रास्ता काफी बिजी रहता है. नाईस रोड भी ले सकती थी पर उधर के रास्ते जाने के लिए थोड़ा मैप ज्यादा देखना पड़ता...तो फिर सोचा कि इलेक्ट्रोनिक सिटी फ्लाईओवर के तरफ निकलते हैं आसानी से पहुँच जायेंगे और भीड़ कम रहेगी.

मैं कार बहुत हिसाब से चलाती हूँ...इतने साल में अब अच्छी ड्राइवर का खिताब मिल चुका है. काफी कण्ट्रोल में और नियमों के हिसाब से चलाती हूँ. अक्सर शांत रहती हूँ गाड़ी चलाते हुए...कार के शीशे उतार के चलाती हूँ...एसी चलाना पसंद नहीं है. सुबह इनर रिंग रोड...कोई ट्रैफिक नहीं था...सिल्क बोर्ड होते हुए आगे और फ्लाईओवर सामने. मेरे फोन में एक प्लेलिस्ट है 'लव मी डू'...बीटल्स के एक ट्रैक के नाम पर. इसमें मेरे सारे सबसे पसंद के गाने हैं...ऐसे गाने जिनसे मैं कभी बोर नहीं हो सकती. क्लासिक. सुबह यही प्लेलिस्ट चल रही थी. हवा में हलकी सी ठंढ थी, जैसे दूर कहीं बारिशें हुयी हों...आसमान में एक तरफ सलेटी रंग के बादल दिखने लगे थे...भोर की उजास फ़ैल रही थी.

फ्लाईओवर स्वप्न सरीखा है...स्विटजरलैंड की सड़कें याद आ गयीं. एकदम सीधी बिछी हुयी सड़क...शहर के कोलाहल से ऊपर...ऐसा लगता है किसी और दुनिया में जी रहे हैं...जहाँ न शोर है, न लोग हैं, न कोई ट्रैफिक सिग्नल. किसी से गहरे प्यार में होना इस फ्लाईओवर के अलावा की दुनिया है...और किसी से अचानक औचक प्यार हो जाना ये फ्लाईओवर...भले ही मुश्किल से दस मिनट का सफ़र होगा...मगर कभी न भूल जाने वाला अनुभव. मिस्टर ऐंड मिसेज अइयर देखते हुए नहीं सोचा था पर रिट्रोस्पेक्ट में हमेशा सोचती हूँ...प्यार की उम्र हमेशा कम ही होती है...और जब कम होती है तो हम बिना किसी रिजर्वेशन के जीते हैं...फिर हमारे पास लौट के जाने को कुछ नहीं होता है...तो दस मिनट से कम के लिए ही सही पर हम पूरी शिद्दत से वो होते हैं वो हम हैं...वो जीते हैं जो हम जीना चाहते हैं. लिविंग ऑन द एज जैसा कुछ.

फ्लाईओवर पर स्पीड लिमिट ८० है. कच्ची उम्र का डायलोग. रिश्ते की लिमिट काँधे तक है. उसके नीचे छू नहीं सकते. सोच नहीं सकते. उसके होटों का स्वाद कैसा है. मैं जब पागल होती हूँ तो १५ की उम्र में क्यूँ लौटती हूँ? स्पीड लिमिट ८० है...इसके कितने ऊपर तक छू सकते हैं? सीधी...सपाट सड़क...दूर दूर तक कोई गाडियां नहीं. न आगे न पीछे. पैर एक्सीलेटर पर हलके हलके दबाव बनाता है...इंटरमिटेन्टली. थोड़ा प्रेशर फिर कुछ नहीं. सुई आगे बढती है...१००...थोड़ी देर बाद फिर १२०...दुनिया अच्छी सी लगने लगी है. १३०...दिल की धड़कन तेज हो गयी है...वो पहली बार इतने करीब आया है...उसकी साँसों में ये कैसी खुशबू है...मीठी सी...१३०...बहुत देर से सुई १३० पर है...अब सब रुका हुआ सा लगता है.

कैसी हूँ मैं...१३० की स्पीड पर सब ऐसा लगता है जैसे रुका हुआ हो...धीमा हो...खंजर दिल में है...मैं रिस रही हूँ...ऐसिलेरेटर पर फिर हल्का दबाव बनाती हूँ...दूर दूर तक कोई गाड़ी नहीं है...थोड़ा और...अब सब कुछ बेहद तेज़ी से मेरी ओर आ रहा है...आसपास चीज़ें इतनी तेज हैं जैसे मैं वक्त में पीछे जा रही हूँ...टाइम ट्रैवेल जैसा कुछ...जिंदगी और आगे का रास्ता जैसे फिश आई लेंस से देख रही हूँ...एक छोटा सा शीशा है जिसमें से मेरी पूरी जिंदगी गुज़र रही है आँखों के सामने से जैसे पुरानी कहानी में एक अंगूठी से ढाके की मलमल का पूरा थान निकल आता था.

१४०...पॉज...एकदम जैसे सांस रुक गयी हो. फ्रैक्शन ऑफ अ मोमेंट...क्या उतना ही छोटा जब पहली बार अहसास हुआ था कि प्यार हो गया है मुझे?

सब कुछ रिवाइंड हो रहा है...एक इमेज उभरती है कि कार अगर फ्लाईओवर की बाउंड्री से टकराएगी तो प्रोजेक्टाइल की तरह गिरेगी. मैं विचार को झटक देती हूँ...सामने नज़र आती सड़क के अलावा लोग बहुत तेज़ी से आ जा रहे हैं...जैसे जिंदगी वाकई एक १४० की स्पीड से दौड़ती हुयी कार है और जिंदगी में आये हुए सभी लोग सिर्फ एक धुंधला सा अक्स.

मैंने एक्सीलेरेटर छोड़ दिया है और बेहद हलके ब्रेक मारती हूँ...लगभग छूती हूँ...जैसे खुद को रोकना...कि उससे प्यार नहीं करना है...हलके ब्रेक्स...थोड़ी थोड़ी देर पर. स्पीड घटती है...१३०...१२०...१००...८०. अब ठीक है...अब सब स्टेबल है. फ्लाई ओवर भी थोड़ी देर में खत्म हो जाएगा. उम्र...अगले महीने २९ की हो जाउंगी...जिंदगी भी थोड़ी देर में खत्म हो जायेगी.

टोल प्लाज़ा आ गया है...टू वे टोल...मैं शीशे के बोक्स में बैठे उस लड़के को देख कर मुस्कुराती हूँ. जब तक वो छुट्टा निकाल रहा है...टोल बूथ के दूसरी तरफ दो लोग खड़े हैं...मुझे कौतुहल से देखते हैं. इतनी इतनी भोर में अकेली लड़की गाड़ी लेकर शहर से बाहर क्यूँ जा रही है. मुझे हमेशा से लोगों का ये बेहद उलझा हुआ चेहरा बहुत पसंद है. मैं हलके गुनगुनाने लगती हूँ...टोल का टिकट लेकर आगे बढ़ी हूँ. यहाँ हाइवे है...इस समय बैंगलोर की तरफ आने वाले बहुत से ट्रक दिख रहे हैं दूसरी लेन में. अभी भी अँधेरा है तो उनकी हेडलाइट्स जली हुयी हैं. हाइवे पर बहुत देर बहुत दूर तक ड्राइव करती हूँ...अब लौटने का मन है...हाई बीम के कारण रोड दिख नहीं रहा है ढंग से...यू टर्न या तो राईट लेन से होगा या लेफ्ट लेन से फ्लाईओवर के नीचे से. जिंदगी ऐसी ही है न...लौटने का या तो सही रास्ता होता है या गलत.

इत्तिफाक कहूँ या फितरत...लेफ्ट लेन में यू टर्न मिला है...बहुत ध्यान से कार मोड़ती हूँ...कुछ देर रुक कर देखती हूँ...कोई गाड़ी नहीं आ रही. हाइवे पर ध्यान ज्यादा देना होता है...स्पीड बहुत तेज रहती है तो अचानक से गाड़ी आ सकती है सामने...वैसे में कंट्रोल में रहना जरूरी होता है. कोलेज बंक मार कर जेएनयू में टहलते हुए कई बार टीचर भी दिख जाते थे. वैसे में नोर्मल रहना होता है जैसे किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में जाना पड़ा था कहीं और अब लौट रहे हैं.

लौटते हुए बहुत से ट्रक हैं रास्ते में और उन्हें ओवरटेक करना पड़ा है...वापस लौटना वैसे भी हमेशा उतना आसान नहीं होता जितना कि चले जाना...अवरोध होते ही हैं. १२० पर ओवरटेक करती हूँ...गानों पर ध्यान देती हूँ...फ्लाईओवर फिर से सामने है...पर इस बार स्पीड बढ़ाऊंगी तो जाने किसका अक्स ठहर जाएगा...डरती हूँ. ८० की स्थिर स्पीड पर चलाती हूँ. ले बाई है. गाड़ी पार्क करती हूँ. एसएलआर निकालती हूँ...ट्राइपोड लाना भूल गयी. खुद को कोसती हूँ कि फोटो अच्छी नहीं आ पाएंगी. गाड़ियां भूतों की तरह भागती हैं कैमरे के व्यूफाइंडर में से...कुछ ऐसे ही फोटो उतारती हूँ...फिर फोन से खुद की एक तस्वीर उतारती हूँ. जानती हूँ मेरी फेवरिट रहेगी बहुत दिनों तक.

शहर जागने लगा है...मैं पूरी रात नहीं सोयी हूँ. फिर भी थकी नहीं हूँ...जरा सी भी. पहचाने रास्तों पर लौट आई हूँ...सिल्क बोर्ड के पास बहुत से फूल बिकते रहते हैं सुबह...जासमिन की तीखी गंध आई है अंदर तक...मैं बारिशों वाले दिन और बालकनी में कॉफी की याद करती हूँ...एक सिगरेट पीने का मन करता है. दिल की धड़कन बढ़ी हुयी है अब तक. कार पार्क करती हूँ. एहतियात से घर का लॉक खोलती हूँ.

कॉफी बनाती हूँ...सूरज उग गया है पर दिख नहीं रहा...बहुत बादल हैं. मैं हमेशा उन लोगों को बहुत एडमायर करती थी जो बहुत तेज़ी से कार चलाते हुए भी स्थिर रह सकते हैं...खुद को वहाँ देखती हूँ तो अच्छा लगता है. कुछ लोग खतरे का बोर्ड देख कर आगाह होते हैं...कुछ लोग खतरे का बोर्ड देखते ही वही काम करने चल देते हैं. मैं दूसरे टाइप की हूँ. फिर से वो साइन टांग देने का मन कर रहा है. 'Danger Ahead. You might fall in love with me'...लेकिन...कोई फायदा नहीं...फिर से खुद से प्यार हो गया मुझे.

थोड़ी पागल...थोड़ी खतरनाक...थोड़ी आवारा...थोड़ी नशे में...जरा सी बंजारामिजाज...थोड़ी घुमक्कड़...थोड़ी थोड़ी प्यार में. पूरा पूरा कुछ नहीं...अधूरी अधूरी सब कुछ. 

25 May, 2012

बोली बनाम भाषा ऐंड माथापच्ची इन बिहारी

इन्सोम्निया...कितना रसिक सा शब्द है न? सुन कर ही लगता है कि इससे आशिकों का रिश्ता होगा...जन्मों पुराना. ट्रांसलेशन की अपनी हज़ार खूबियां हैं मगर मुझे हमेशा ट्रांसलेशन एक बेईमानी सा लगता है...अच्छा ट्रांसलेशन ऐसे होना चाहिए जैसे आत्मा एक शरीर के मर जाने के बाद दूसरे शरीर में चली जाती है. मैं अधिकतर अनुवादित चीज़ें नहीं पढ़ती हूँ...जानती हूँ कि ऐसे पागलपन का हासिल कुछ नहीं है...और कैसी विडंबना है कि मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म कैन्तोनीज (Cantonese)में बनी है...इन द मूड फॉर लव. ऐसा एक भी बार नहीं होता है कि इस फिल्म को देखते हुए मेरे मन में ये ख्याल न आये कि ट्रांसलेशन में कितना कुछ छूट गया होगा...बचते बचते भी इतनी खूबसूरती बरकरार रही है तो ओरिजिनल कितना ज्यादा खूबसूरत होगा.

मेरे अनुवाद को लेकर इस पूर्वाग्रह का एक कारण मेरी अपनी विचार प्रक्रिया है. मैं दो भाषाओं में सोचती हूँ...अंग्रेजी और हिंदी...ऐसा लगभग कभी नहीं होता कि एक भाषा में सोचे हुए को मेंटली दूसरे भाषा में कन्वर्ट कर रही हूँ. अभी तक का अनुभव है कि कहानियां, कविताएं और मन की उथल पुथल होती है तो शब्द हमेशा हिंदी के होते हैं और टेक्नीकल चीज़ें, विज्ञापन और सिनेमा से जुड़ी चीज़ों के बारे में सोचना अक्सर अंग्रेजी में होता है. इसके पीछे कारण ये है कि पूरी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम में हुयी है और फिर ऑफिस भी वैसे ही रहे जिनमें अधिकतर काम और कलीग्स के बीच बातें अंग्रेजी में होती रहीं. वैसे तो सभ्य भाषा का इस्तेमाल करती हूँ लेकिन अगर गुस्सा आया तो गालियाँ हमेशा हिंदी में देना पसंद करती हूँ.

मुसीबत तब खड़ी होती है जब कुछ उलट करना पड़े...जैसे किसी कारणवश कुछ मन की बात अंग्रेजी में लिखना हो...कई बार तब अनुवाद करना होता है और हालाँकि ये प्रक्रिया बहुत तेज़ी से घटती है फिर भी मन में कुछ न कुछ टूटा हुआ चूरा रह ही जाता है जो कहीं फिट नहीं होता. ये बचे खुचे शब्द फिर मेरा जीना हराम कर देते हैं. फिल्मों या विज्ञापन पर हिंदी में लिखने पर ऐसी ही समस्या का सामना करना होता है...पूरे पूरे वाक्यांश अंग्रेजी में बनते हैं...फिर उनके बराबर का कुछ हिंदी में सोचना पड़ता है...और कितना भी खूबसूरत सोच लूं ऐसा बहुत कम होता है कि किसी फ्रेज(Phrase) के हिंदी अनुवाद से तसल्ली मिल सके. अच्छा होता न दिमाग में एक स्विच होता जिसे अंग्रेजी और हिंदी की ओर मोड़ा जा सकता जरूरत के हिसाब से.

मुझे ये भी लगता है कि लेखन में, खास तौर से मौलिक लेखन में परिवेश एक बेहद जरूरी किरदार होता है...कांटेक्स्ट के बाहर आप चीज़ों को समझ नहीं सकते और कुछ चीज़ों का वाकई अनुवाद हो ही नहीं सकता है. अनुवाद की सीमा से परे जो शब्द लगते हैं वो अक्सर 'बोलियों/dialects' का हिस्सा होते हैं, इसका कारण होता है कि कई शब्दों के पीछे कहानी होती है कि जिसके बिना उनका वजूद ही नहीं होता...कुछ शब्दचित्र होते हैं जिन्हें समझने के लिए आपको अपनी आँखों से उन दृश्यों को देखना जरूरी होता है वरना शब्द तो होंगे मगर निर्वात में...परिवेश से अलग उनका कोई वजूद नहीं होता. आप भाषा का अनुवाद कर सकते हैं पर बोली का नहीं...ये कुछ वैसे ही है जैसे भाव कई बार कविता में व्यक्त हो सकता है लेकिन गद्य में नहीं.

बिहार के बारे में एक फेवरिट डायलोग है...यू कैन ओनली बी बोर्न अ बिहारी...यू कैननोट इन एनी वे बिकम अ बिहारी...यानि कि आप जन्म से ही बिहारी हो सकते हैं...और कौनो तरीका नै है बाबू...बिहार में पैदा होने के कारण बचपन से अनगिनत बोलियां सुनती आई हूँ...हमारे यहाँ कहावत है...कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी...अर्थात...हर कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और चार कोस की दूरी पर बोली बदल जाती है. गाँव में ऐसे लोग होते थे जो अनजान आदमी से पाँच मिनट बात करके उसका घर बता देते थे. बोली पहचान का उतना ही अभिन्न हिस्सा थी जितना कि किसी का नाम. ऐसे लोग रिश्ता तय करने, बर्तुहार आने के समय में खास तौर से बहुत काम के माने जाते थे. यही नहीं गाँव में कोई नया आदमी आया नहीं कि उसे टोहने के लिए इन्हें बुला लिया जाता था.

बातचीत का एक बहुत जरूरी हिस्सा होती हैं कहावतें...पापा जितने मुहावरे इस्तेमाल करते हैं मैं उनमें से शायद ४० प्रतिशत ही इस्तेमाल करती हूँ, वो भी बहुत कम. हर मुहावरे के पीछे कहानी होती है...अब उदहारण लीजिए...अदरी बहुरिया कटहर न खाय, मोचा ले पिछवाड़े जाए. ये तब इस्तेमाल किया जाता है जब कोई बहुत भाव खा रहा होता है...कहावत के पीछे की कहानी  ये है कि घर में नयी बहू आई है और सास उसको बहुत मानती है तो कहती है कि बहू कटहल खा लो, लेकिन बहू को तो कटहल से ज्यादा भाव खाने का मन है तो वो नहीं खाती है...कुछ भी बहाना बना के...लेकिन मन तो कटहल के लिए ललचा रहा है...तो जब सब लोग कटहल का कोआ खा चुके होते हैं तो जो बचे खुचे हिस्से होते हैं जिन्हें मोचा कहा जाता है और जिनमें बहुत ही फीका सा स्वाद होता है और जिसे अक्सर फ़ेंक दिया जाता है, बहू कटहल का वही बचा खुचा टुकड़ा घर के पिछवाड़े में जा के खाती है.

जिंदगी जो अफ़सोस का पिटारा बना के रखी हूँ उसमें अपने घर की भाषा(भागलपुरी/अंगिका) नहीं बोल पाना सबसे ज्यादा सालता है. पटना में रहते हुए पड़ोसी भोजपुरी बोलते थे...दिल्ली में एक करीबी दोस्त भी भोजपुरी बोलता था...तो काफी दिन तक ठीक-ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे पर अब फिर से एकदम हिंदी पर आ गए हैं. अधिकतर दोस्तों से बात हिंदी में होती है. लेकिन बिहारी को बिहारी में गरियाने का जो मज़ा है ना कि आह! फिर से कुछ उदाहरणों पर आते हैं...एक शब्द है 'चोट्टा'...बेहद प्रेमभरी गाली है...सन्दर्भ सहित व्याख्या ऐसे होती है...

'शाम ऐसे लगती है जैसे किसी छोटी लड़की के गालों पर किसी बदमाश लड़के ने चुट्टी काटी हो...और उसके सफ़ेद रुई के फाहे जैसे गाल गुलाबी हो गए हों...गुस्से से भींचे होठ लाल...और वो शुद्ध बिहारी गाली देते हुए उसके पीछे दौडी हो.
चोट्टा!'

एक दोस्त है मेरा...उसे बात करते हुए हर कुछ देर में ऐसा कुछ कहना ही पड़ता है...लात खाओगे...मार के ठीक कर देंगे...डीलिंग दोगे बेसी हमको...अपनी तरह बोक्का समझे हो...देंगे दू थाप...ढेर होसियार बूझते हो...तुमरा कुच्छो नहीं हो सकता...कुछ बुझाईबो करता है तुमको...और एक ठो सबसे ज्यादा मिस्युज्ड शब्द है...थेत्थर(verb-थेथरई, study of थेथर एंड इट्स कांटेक्स्ट: थेथरोलोजी). अब इसका अनुवाद करने में जान चले जाए आदमी का. वैसे ही एक शब्द है...चांय...अब  चांय  आदमी जब तक आपको दिखा नहीं दिया जाए आप समझ ही नहीं सकते है कि किस  अर्थ में प्रयुक्त होता है. इसमें इनटोनेशन/उच्चारण बेहद जरूरी हिस्सा है...भाषा में चूँकि शब्दों के अर्थ तय होते हैं पर बोली में शब्द के कहने के माध्यम से आधा अर्थ उजागर होता है.

बचपन से हिंदी में बात करने के कारण कितना कुछ खो चुकी हूँ अब महसूस होता है लेकिन उसे वापस पाने का कोई उपाय नहीं है...अब जब नन्हें बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देखती हूँ तो अक्सर सोचती हूँ...पराये देश की भाषा सीखते ये बच्चे कितने बिम्बों से अनभिज्ञ  रह जायेंगे...इन्हें petrichor तो मालूम होगा पर सोंधा नहीं मालूम होगा...सोंधे के साथ गाँव की गंध की याद नहीं आएगी. कितना कुछ खो रहा है...कितना कुछ कहाँ, कैसे समेटूं समझ नहीं आता. स्कूल में सिर्फ युनिफोर्म से नहीं दिमागी तरीके से भी क्लोन बनके निकल रहे हैं बच्चे...मेरी जेनेरेशन में ही कितनों ने सालों से हिंदी का कुछ नहीं पढ़ा...बहुतों को देवनागरी लिपि में पढ़ने में दिक्कत होती है. 

चौकी पर रखा हँसुआ.
इन सब ख्यालों के बीच एक दिन का धूप में बैठ कर अचानक रो देना याद आता है कि जब अचानक से ख्याल आया था कि मेरे बेटी अगर होगी तो उसको कभी कटहल बनाना नहीं सिखा पाउंगी क्योंकि कटहल काटने के लिए जिस हंसुए का इस्तेमाल जरूरी होता है वो उसके बड़े होने तक गायब हो जाएगा. ऐसे ही गायब हो जायेंगे कितने शब्द...कितनी दोस्ती...कितना अपनापन. कि जो इस मिट्टी में पैदा हुए हैं वही जानते हैं कि माथा दुखा रहा है में जो रस है वो सर दर्द कर रहा है में कहाँ.

सागर को सगरवा कहने का सुख...बचपन की याद से लहरों की तरह लौटता...गूंजता...नितुआ गे... बड़ी दिदिया...छोटकी फुआ...कुंदनमा... रे जिमिया...और आखिर में मंच पे पर्दा गिरने के पहले लौटता वो नाम जो बहुत सालों से गुम हो गया है...रे पमियाsssss 

पुनःश्च - कहाँ से कहाँ पहुँच गए...शायद इतना सारा कुछ धीरे धीरे मन में उमड़ घुमड़ रहा था...एक दिन राहुल सिंह जी के ब्लॉग पर छत्तीसगढ़ी पर ये आलेख पढ़ा था तब से.

बिहारी में एक लाजवाब सीरीज अभिषेक के ब्लॉग पर भी चल रही है...पटना की अद्भुत झलकी और कमाल के रंगीन लोग...जरा हुलक के आइये. 

24 May, 2012

धूप-छाँव जिंदगी सलीब पे चढ़ी हुयी

आखिर कोई तो बात होगी कि जो लड़की दारू पी के गाड़ी न चलने के पागलपन की हद तक खिलाफ थी उसने एक पूरी बोतल नीट खत्म की और कार उठा कर वहाँ तक के लिए निकल गयी जहाँ से आगे सडकें खत्म हो जाती थीं. क्या हुआ था...क्या कोई झगड़ा हुआ था, किसी अजनबी ने फिकरे कसे थे कि किसी अपने ने कुछ कहा था या कि बस ऐसे ही दिल को एक दिन टूटना था तो दिल टूट गया था. आखिर दिल भी सलामत रहते रहते ऊब गया था...दिल भी लड़की के अंदर ही धड़कता था न...जो लोग अक्सर नशा करते हैं वो बेहतर कंट्रोल में रहते हैं. लड़की ज्यादा पीती नहीं थी इसलिए आज जब जाने पाँच, छः कितने जाम उसके अंदर उतर चुके थे तो उसे मालूम नहीं चल रहा था कि क्या करना चाहिए. बस इतनी इच्छा थी कि सडकें खत्म हो जाएँ. कमबख्त सडकें. कहीं भी नहीं पहुँचती हुयी सडकें. बेमकसद. आवारा.
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भोर का पहला पहर था...रात की जरा भी नहीं उतरी थी...चाँद आसमान से गायब था...सूरज उगना बाकी था...कह सकते हैं कि शहर का सबसे शांत वक्त था. ऐसे में एक लड़की बालकनी में खड़ी सिसक रही भी होती तो न कोई सुनने वाला था न कोई देखने वाला. हाँ अगली या ऐसे किसी बाद की सुबह जब अखबार में गाड़ी के एक्सीडेंट की खबर आती तो मोहल्ले में शायद थोड़ी हलचल जरूर होती कि उसकी मुस्कुराहटें सूरज की धूप की तरह थीं...उसके बालकनी में उगती थीं मगर रोशन कितने दिलों का कोना करती थी.
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ये क्या पत्थर उठा लायी हो, तुम्हें भी ना...मजदूरों वाला काम करने में मन लगता है...लड़का उसकी लायी छेनी, हथोड़ी और बाकी टूल्स देखते हुए हँसा था उसपर. लड़की पर पत्थर को मूरत कर देने का जुनून सवार था. दिन रात एक किये हुए थी...पड़ोसी परेशान हो गए कि सुबह, शाम, रात, भोर...किसी भी पहर हथोड़ी की महीन ठक-ठक रूकती नहीं थी. लड़की को जाने क्या तराशना था...जाने किस छटपटाहट को मूर्त रूप देना था. पत्थर पर काम करना उसे सुकून देता. उसे अपनी सारी उर्जा कहीं प्रवाहित होती महसूस होती. उसे नृत्य करते हुए शिव की मूरत बनानी थी. पत्थर की विशालता इंटिमिडेटिंग थी...घर के मुख्य हॉल के बीचोबीच वो प्रतिमा उसके अथक प्रयासों से उभरती आ रही थी. उस छः बाय आठ के पत्थर को हॉल में पहुंचाना भी एक बेहद मुश्किल का काम था जिसके लिए उसे अपने सारे तर्क कुतर्क लगा देने पड़े थे.

संगतराश. शब्द में ही मर्दानापन था...जितनी भी कल्पना उभरती थी, कभी भी किसी औरत के हाथ में छेनी हथोड़ी सही नहीं लगती थी...उसके हाथ में कलम, कॉपी, पेंट ब्रश और बहुत हुआ तो कलछी बेलन दिख भी जायें पर डायमंड कटर जैसी तेज और खतरनाक चीज़ उसके नाज़ुक हाथों में एकदम आउट ऑफ प्लेस ही लगती थी मगर मजाल है जो एक इंच भी इधर से उधर हो जाए. मूरत को आकार देते हुए बहुत वक्त हो गया था...लड़का अब भी कभी कभार उससे मिलने चला आता था...हर बार चकित होने के लिए कि उसने अभी तक उस पत्थर पर काम करना नहीं छोड़ा है. एक दिन ऐसे ही अचानक के उसके आने से लड़की का ध्यान बंटा और मूरत की नाज़ुक छोटी ऊँगली कटर के आकस्मिक आघात से टूट कर गिर गयी.

उस छोटी घटना के बहुत दिन बाद तक काम चलता रहा...आखिरकार एक वो दिन भी आ गया जब पत्थर का वो विशाल टुकड़ा जीवंत हो उठा. लड़की प्रलय को उसकी आखिरी रेखा तक ईमानदारी से पत्थर में अमूर्त कर चुकी थी. उसका मन फिर उद्विग्न होने लगा...उसकी तलाश कहीं खत्म नहीं होती. उसे पत्थर में जीवन नहीं महसूस होता...फिर उसे लगा कि उसने प्राण प्रतिष्ठा तो की ही नहीं है...इसलिए शिव का चेहरा निष्प्राण था...मंत्रोच्चारण के लिए उसने अंजुली में जल भरा ही था कि उसका ध्यान रूद्र तांडव करते शिव के बाएं हाथ की ओर गया जहाँ छोटी अंगुली नहीं थी. गाँव के किसी पंचायत में सुनाये अंतिम फैसले सा कुछ याद में कौंध गया...खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं होती.
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उद्दाम. उन्मुक्त. किनारों पर सर पटकता समंदर. अजीब आत्मतुष्टि से भर देता है. कोई प्रणय याचना कर रहा हो पांवों में गिर कर जैसे. लड़की ने घुटनों तक की स्कर्ट पहनी थी और एक शोट में साढ़े तीन सौ किलोमीटर गाड़ी चला कर समंदर किनारे पहुंची थी. पागलपन या नशा जो कह लो. उसने ड्राइव की नहीं थी...समंदर उसे खींच लाया था...पांवों में दिल रख देना क्षणिक था...उसके बाद तो लहरों ने उसके पुर्जे पुर्जे खोल डाले...समंदर ने उसे बांहों में भर भर तोड़ा...लड़की स्विमिंग चैम्पियन थी और समंदर में तैरना आसान भी होता है...कुछ वैसे ही कि जैसे दूसरी बार प्यार हो तो पहले प्यार में रो चुके आंसुओं से ऐसा समंदर बना होता है कि दुबारा दिल टूटने पर भी तैर कर निकलना उतना मुश्किल नहीं होता.
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लड़की में कुछ तो था. खास. कि उसे कितना भी तोड़ दो...उसके कण कण से पारिजात की खुशबू आती थी. कि उसके पांवों के निशान में खुदा का सिग्नेचर दिखता था...कि उसकी उँगलियों के पोरों में बिरवे फूटते थे...कि उसकी आँखों की रौशनी में दुआएँ पनाह पाती थीं...कि उसके जैसी बस वो एक ही थी. बस एक. 

22 May, 2012

उसमें इतनी गिरहें थीं कि खोलने वाला खुद उलझ जाता था

अजीब लड़की थी कि उसे चिट्ठियां लिखने की बीमारी थी...हर कुछ दिन में ऐसे छटपटाने लगती थी जैसे हवा में ओक्सिजेन खत्म हो गयी हो. कितना भी बातें कर ले...लिखे बिना उसका दिन नहीं मानता था. ऐसे में लगता था कि कोई उसका हाथ पकड़ के मरोड़ दे...कुछ ऐसे कि उँगलियाँ चिटक जायें...नील पड़ जाएँ और वह कलम न उठा सके. उसे सादा कागज़ यूँ खींचता था जैसे मरने वाले को मौत अपनी ओर...जैसे पहाड़ों का निर्वात अपनी ओर...घाटियों की गहराई छलांग लगा देने को पुकारती हो जैसे.

फिरोजी सियाही...गुलाबी...नारंगी...हरा...उसे नीले और काले रंग से लिखना नापसंद था. उसने एक दिन आखिर परेशान होकर घर की सारी कापियों में आग लगा दी...लिखा हुआ उसे और लिखने के लिए उकसाता था और सादा कागज़ उसे भीगी चादर की तरह दोनों किनारे पकड़ मरोड़ डालता था कि लड़की का पूरा सार तत्व किसी के नाम चिट्ठी में उतर आये...पर मन का सारा गीलापन निकल जाने पर भी थोड़ी सी नमी बाकी रह जाती थी और वो बालकनी में अधभीगी चादर की तरह पसरी रहती. कभी कॉफी में खुद को डुबाती तो थोड़ा नशा चढ़ता फिर सिगरेट और बची हुयी व्हिस्की से खुद में पानी की कमी को पूरा करती.

फिलहाल पूरे घर में जले हुए कागज़ के कतरे उड़ रहे हैं और दीवारों पर लटके जाले थोड़े सियाह हो गए हैं...पंखों पर उन चिट्ठियों के बेताल चमगादड़ों की तरह लटक गए हैं. कितनी बातें...ओह कितनी बातें लिखी थी उसने...थोड़ी तकलीफ होती है उसे जब भी वो ऐसे कागजों की होली जलाती है पर ये इतना नहीं होता कि फूट फूट कर रो पड़े...उसे लिखा हुआ जलने का अफ़सोस नहीं होता...रोज रोज इतना लिखती रहती है कि जो खो गया उसके लिए रोने का वक्त नहीं मिलता उसे. हाँ सादे कागजों के लिए उसकी आँखें भर भर आती हैं. ऐसा तो नहीं होगा कि सादा कागज़ नहीं होगा तो वो चिट्ठियां ही नहीं लिखेगी फिर भी हर कुछ दिन में उसे कागजों में आग लगा देने में अच्छा लगता है.

वो सोचती है कि उसे भूलना क्यूँ नहीं आता...लिखना ही भूल जाए...या कि उसे भूल जाए जिसे चिट्ठियां लिखना चाहती है...या यही भूल जाए कमसे कम कि घर में कलम कहाँ छुपा के रखी है. पर वो तो ऐसी है कि पार्क में बैठी होगी तो धूल में उसके नाम चिट्ठी लिख आएगी, नए शहर जायेगी तो आँखों में उस शहर की सारी इमारतों की यादों में उसका नाम चस्पां कर देगी. और ये शहर...जितना पुराना हुआ है कि लगता है पूरा शहर एक विशाल लाल डब्बे में कन्वर्ट हो गया है जिसमें कि उसके नाम की अनगिनत चिट्ठियां गिरी हुयी हैं. वनीला एन्वेलोप में...सादी सी हैंडराइटिंग में खुद को कतरा कतरा समेटती गयी है लड़की.

बिना जवाब के चिट्ठियां लिखना एक अनंत काल की यातना है...ये कुछ वैसा ही है जैसे किसी से प्यार करने के एवज में ये माँगना/चाहना कि वो भी आपसे प्यार करे. लड़की चिट्ठियां लिख कर निश्चिन्त हो जाती थी...बार बार कहती थी कि जवाब ना भी दो तो कोई बात नहीं...पर न चाहते हुए भी एक जवाब की उम्मीद के नन्हे टेंड्रिल्स उसके दिल के इर्द गिर्द लिपटने लगते थे...बेहद कमज़ोर...खुद के दम पर खड़े भी नहीं हो सकते पर धीरे धीरे मजबूत होने लगते थे...फिर लड़की का दिल तो इतनी संभावनाओं और प्यार से भरा था कि उम्मीदें मरती ही नहीं थी...अमरबेल की तरह दिल से पोषित होती रहती थीं.

उसने कई बार कलम से अपनी कलाई पर निशान बनाये जहाँ कि उसे ब्लेड चलानी थी...पर उसे टैटू पसंद नहीं थे और उसे मालूम था कि धमनी काटने के बावजूद वो मरेगी नहीं...उसे कहीं न कहीं मालूम था कि उसकी चिट्ठियां दुआएँ बन जाती हैं और ऊपर खुदा के दरबार तक पहुँच जाती हैं. वो सारी चिट्ठियां जो उसने लिखी थीं उसकी जिजीविषा से पोषित थीं...उनमें उसकी आत्मा का एक अंश होता था...उसे मालूम था कि उसकी सांसें बुझने लगेंगी तो उसकी सारी चिट्ठियों से स्याही निकल कर उसकी धमनियों में बहने लगेगी...जितना उसके बदन में खून नहीं है उससे कहीं ज्यादा सियाही उसकी चिट्ठियों में भरी है...जीती-जागती सियाही...ऐसी सियाही जो संजीवनी बन सकती है...खून बन के रगों में दौड़ सकती है.

घर के सारे सादे कागजों में आग लगा देने के बावजूद भी उसका मन करता है कि वो चिट्ठियां लिखे...उसे जीने के लिए खाना-पानी-नींद नहीं चाहिए...इनके बिना उसका काम चल जाता है. उसे चिट्ठियां लिखने के लिए कागज़ चाहिए होता है...कलम चाहिए होती है...कोई भी एक शख्स चाहिए होता है जिसे वो चिट्ठियां लिख सके. उसने अनजान लोगों को चिट्ठियां लिखी हैं...उसने अनजान पतों पर चिट्ठियां लिखी हैं...उसने अनजान भाषाओँ में चिट्ठियां लिखी हैं...उसने समंदर में बोतल में बंद कर चिट्ठियां फेंकी है. उसे चिट्ठियां लिखने की बीमारी है. वो हाथ बाँध कर बैठी है...कि डाकिये का इंतज़ार उससे सांसें छीन लेता है.


ये झूठ है कि वो कविता लिखती है, कहानी लिखती है, गद्य लिखती है...वो सिर्फ, सिर्फ और सिर्फ चिट्ठियां लिखती है.


तुम्हें समझ में आती है वो लड़की? तुम्हें समझ में आती है वो चिट्ठी?

मुझे दोनों समझ में नहीं आती. 

20 May, 2012

ताला लगाने के पहले खड़े होकर सोचना...कुछ देर. फिर जाना.

यूँ तो ख्वाहिशें अक्सर अमूर्त होती हैं...उनका ठीक ठीक आकार नहीं नहीं होता...अक्सर धुंध में ही कुछ तलाशती रहती हूँ कि मुझे चाहिए क्या...मगर एक ख्वाहिश है जिसकी सीमाएं निर्धारित हैं...जिसका होना अपनेआप में सम्पूर्ण है...तुम्हें किसी दिन वाकई 'तुम' कह कर बुलाना. ये ख्वाहिश कुछ वैसी ही है जैसे डूबते सूरज की रौशनी को कुछ देर मुट्ठी में भर लेने की ख्वाहिश.

शाम के इस गहराते अन्धकार में चाहती हूँ कभी इतना सा हक हो बस कि आपको 'तुम' कह सकूं...कि ये जो मीलों की दूरी है, शायद इस छोटे से शब्द में कम हो जाए. आज आपकी एक नयी तस्वीर देखी...आपकी आँखें इतनी करीब लगीं जैसे कई सारे सवाल पूछ गयी हों...शायद आपको इतना सोचती रहती हूँ कि लगता है आपका कोई थ्री डी प्रोजेक्शन मेरे साथ ही रहता है हमेशा. इसी घर में चलता, फिरता, कॉफी की चुस्कियां लेता...कई बार तो लगता भी है कि मेरे कप में से किसी ने थोड़ी सी कॉफी पी ली हो...अचानक देखती हूँ कि कप में लेवल थोड़ा नीचे उतर गया है...सच बताओ, आप यहीं कहीं रहने लगे हो क्या?

ये 'आप' की दीवार बहुत बड़ी होती है...इसे पार करना मेरे लिए नामुमकिन है...हमेशा मेरे आपके बीच एक फासला सा लगता है. जाने कैसे बर्लिन की दीवार याद आती है...जबकि मैंने देखी नहीं है...हाँ एक डॉक्यूमेंट्री याद आती है जिसमें लोग उस दीवार के पार जाने के लिए तिकड़म कर रहे हैं...गिरते पड़ते उस पार चले भी जाते हैं...कुछ को दीवार के रखवाले संतरी गोलियों से मार गिराते हैं फिर भी लोगों का दीवार को पार करना नहीं रुकता है. अजीब अहसास हुआ था, जैसे सरहदें वाकई दिलों में बनें तभी कोई  बात है वरना कोई भी दीवार लोगों को रोक नहीं सकती है. मैंने एकलौती सरहद भारत-पाकिस्तान की वाघा बोर्डर पर देखी है...उस वक्त सरसों के फूलों का मौसम था...और बोर्डर के बीच के नो मैंस लैंड पर भी कुछ सरसों के खेत दिख रहे थे. बोर्डर को देखना अजीब लगा था...यकीन ही नहीं हुआ था कि वाकई सिर्फ कांटे लगी बाड़ के उस पार पकिस्तान है...ऐसा देश जहाँ जाना नामुमकिन सा है. बोर्डर की सेरिमनी के वक्त गला भर आया था और आँखें एकदम रो पड़ी थीं...सिर्फ मेरी ही नहीं...बोर्डर के उस पार के लोगों की भी...हालाँकि मुझे उनकी आँखें दिख नहीं रहीं थी जबकि उस वक्त मुझे चश्मा नहीं लगा था. पर मुझे मालूम था...हवा ही ऐसी भीगी सी हो गयी थी.

आपको याद करते हुए कुछ गानों का कोलाज सा बन रहा है जिसमें पहला गाना है जॉन लेनन का 'इमैजिन'. इसमें एक ऐसी दुनिया की कल्पना है जिसमें कोई सरहदें नहीं हैं और दुनिया भर के लोग प्यार मुहब्बत से एक दूसरे के साथ रहते हैं...'You may say I'm a dreamer, but I am not the only one'...कैसी हसीन चीज़ होती है न मुहब्बत कि यादों में भी सब अच्छा और खूबसूरत ही उगता है...दर्द की अनगिन शामें नहीं होतीं...तड़पती दुपहरें नहीं होतीं. आपने 'strawberry fields forever' सुना है? एक रंग बिरंगी दुनिया...सपनीली...जहाँ कुछ भी सच नहीं है...नथिंग इज रियल. मेरी पसंदीदा इन द मूड फॉर लव का बैकग्राउंड स्कोर भी साथ ही बज रहा है पीछे. बाकियों का कुछ अब याद नहीं आ रहा...सब आपस में मिल सा गया है जैसे अचानक से पेंट का डब्बा गिरा हो और सारे रंग की शीशियाँ टूट गयीं.

कल सपने में देखा कि जंग छिड़ी हुयी है और चारों तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...पर हमारे पास बचने के अलावा कोई उपाय नहीं है...सामने से दुश्मन आता है पर मेरे हाथ में एक रिवोल्वर तक नहीं है...मैं बस बचने की कोशिश करती हूँ. एक इक्केनुमा गाड़ी है जिसमें मेरे साथ कुछ और लोग बैठे हैं...ऊपर से प्लेन जाते हैं पर वो भी गोलियाँ चलाते हैं...कुछ लोग मुस्कुराते हुए आते हैं पर उनके हाथ में हथगोला होता है...हम चीखते हुए भागते हैं वहां से. छर्रों से थोड़ा सा ही बचा है पैर ज़ख़्मी होने से...कुछ गोलियाँ कंधे को छू कर निकली हैं और वहाँ से खून बहने लगा है. सब तरफ से गोलियाँ चल रही हैं...कोई सुरक्षित जगह ही नहीं है...मुझे समझ नहीं आता कि कहाँ जाऊं. फिर एक मार्केट में एक दूकान है जहाँ एक औरत से बात कर रही हूँ...उनके पास कोई तो बहुत मोटा सा कपड़ा है जिससे जिरहबख्तर जैसा कुछ बनाया जा सकता है लेकिन औरत बहुत घबरायी हुई है, उसके साथ उसकी छोटी बेटी भी है...बेटी बेहद खुश है. सपने में किसी ने सर पर गोली मारी है...मुझे याद नहीं कि मैं मरी हूँ कि नहीं लेकिन सब काला, सियाह होते गया है.

मुझे मालूम नहीं ऐसा सपना क्यूँ आया...कल ये ड्राफ्ट आधा छोड़ कर सोयी थी...

कुछ बेहद व्यस्त दिन सामने दिख रहे हैं...तब मुझे ऐसे फुर्सत से याद करके गीतों का कोलाज बनाने की फुर्सत नहीं मिलेगी...याद से भूल जायेंगे सारी फिल्मों के बैकग्राउंड स्कोर्स...कविताएं नहीं रहेंगी...लिखने का वक्त नहीं रहेगा...फिर मेरे सारे दोस्त खो जायेंगे बहुत समय के लिए. कल नील ने फोन कर के झगड़ा किया कि तू मुझे क्या नहीं बता रही है...तू है कहाँ और तुझे क्या हुआ है. बहुत दिन बाद किसी ने इतना झगड़ा किया था...मुझे बहुत अच्छा लगा. मैंने उसे झूठे मूठे कुछ समझा कर शांत किया...फिर कहा मिलते हैं किसी दिन...बहुत दिन हुए. मैं बस ऐसे ही वादे करती हूँ मिलने के. मिलती किसी से नहीं हूँ. आजकल किसी किसी दिन बेसुध हो जाने का मन करता है...मगर मेरे ऊपर पेनकिलर असर नहीं करते और मुझे किसी तरह का नशा नहीं चढ़ता. मैं हमेशा होश में रहती हूँ.

एक सरहद खींच दी है अपने इर्द गिर्द...इससे सुरक्षित होने का अहसास होता है...इससे अकेले होने का अहसास भी होता है.

16 May, 2012

मुस्कुरा कर मिलो जिंदगी...

परसों एक एचआर का फोन आया एक जॉब ओपनिंग के बारे में...मैं आजकल फुल टाइम जॉब करने के मूड में थी नहीं तो अधिकतर सॉरी बोल कर फोन रख दिया करती थी. इस बार पता नहीं...शायद हिंदी का कोई शब्द था या दिल्ली के नंबर से फोन आया था या कि जिस ऑफिस में पोजीशन खाली थी वो घर के एकदम पास था...मैंने इंटरव्यू के लिए हाँ कर दी.

मेरे इंटरव्यू नोर्मली काफी लंबे चलते हैं...कमसे कम दो घंटे और कई बार तो चार घंटे तक चला है...अनगिनत बातें हो जाती हैं. मुझे खुद भी महसूस होता है इंटरव्यू देते वक्त कि मैं काफी इंटरेस्टिंग सी कैरेक्टर हूँ और मेरे जैसे लोग वाकई इंटरव्यू के लिए कम ही आते होंगे. कभी कभी होता भी है कि इंटरव्यू के लिए गयी हूँ तो लाउंज में बैठे बाकी कैंडिडेट्स को देखती हूँ और सोचती हूँ कि कैसे लोग होंगे. उनमें से अधिकतर मुझे काफी सजग और एक आवरण में ढके हुए लगते हैं...मैं इंटरव्यू में भी फ्री स्पिरिट जैसी रहती हूँ. कितना भी  कोई बोल ले...कभी फोर्मल कपड़े पहन कर नहीं गयी...वही पहन कर जाती हूँ जो मूड करता है. जैसे आज का इंटरव्यू ले लो...प्लेन वाईट कुरता पहना था फिर दिल नहीं माना तो बस...चेक शर्ट, जींस, थोड़ी हील के सैंडिल, प्लेन सा बैग और पोर्टफोलियो. हाँ दो चीज़ें मैं कभी नहीं भूलती...हाथ में घड़ी और पसंद का परफ्यूम. 

आज भी बारह बजे दोपहर का इंटरव्यू था...मैं बाइक से पहुंची...हेलमेट उतारा...बालों को उँगलियों से हल्का काम्ब किया और पोनीटेल बना ली...रिसेप्शन डेस्क पर जो लड़की थी उसने एक मिनट वेट करने को कहा...तब तक जार्ज...जिसके साथ इंटरव्यू था सामने था. जो कि नोर्मल आदत है...एक स्कैन में पसंद आया कि बंदे ने पूरे फोर्मल्स नहीं पहने थे...डार्क ब्लू जींस, ब्लैक शर्ट और स्पोर्ट्स शूज. लगा कि ठीक है...क्रिएटिव का बन्दा है, क्रिएटिव जैसा है. उसने पूछा...चाय या कॉफी...मैंने कहा...नहीं, कुछ नहीं...बहुत दिन बाद किसी ने हिंदी में पूछा था...दिल एकदम हैप्पी हो गया...फिर जब वो मेरा पोर्टफोलियो देख रहा था तो मैंने देखा कि वो वही इंक पेन यूज कर रहा है जिसपर आजकल मेरा दिल आया हुआ है...LAMI का ब्लैक कलर में. एक पहचान सी बनती लगी...और इंस्टिंक्ट ने कहा कि इसके साथ काम करने में अच्छा लगेगा...अगेन...मुझे नोर्मली लोग पसंद नहीं आते. आजकल तो बिलकुल ही महाचूजी हो गयी हूँ.

इंटरव्यू कितना अच्छा होता है अगर इस बात का प्रेशर नहीं है कि जॉब चाहिए ही चाहिए...कितना अच्छा लगता है कोई आपसे कहे...टेल मे अबाउट योरसेल्फ...और आप फुर्सत और इत्मीनान से उसे अपने बारे में बताते जाइए. कई बार तो इगो बूस्ट सा होता है जब सोचती हूँ कि हाँ...कितना सारा तो तीर मार के बैठे हुए हैं...खामखा लोड लेते हैं, हमको भी न...उदास रहना अच्छा लगता है शायद मोस्टली. (प्लीज नोट द विरोधाभास हियर). मैं एकदम मस्त मूड में चहक चहक कर बात कर रही थी. 

इंटरव्यू लेने वाले लोग दो तरह के होते हैं...पहले थकेले टाइप...जो आपसे इतने गिल्ट के साथ बात करेंगे जैसे वो उस जगह काम नहीं करते किसी पिछले जन्म के पाप का फल भुगत रहे हैं और आप भी उस कंपनी में आयेंगे तो उनपर अहसान करेंगे टाइप...वे बेचारे दुखी आत्मा होते हैं, अपने काम से परेशान. मुझे ऐसे लोग एक नज़र में पसंद नहीं आते...अगर आप खुद खुश नहीं हो जॉब में तो नज़र आ जाता है...मेरे जैसे किसी को तो एकदम एक बार में. दूसरी तरह के वो लोग होते हैं जिन्हें अपने काम से प्यार होता है...जब वो आपको कंपनी के बारे में बता रहे होते हैं तो गर्व मिश्रित खुशी से बताते हैं...ये खुशी उनसे फूट फूट पड़ती है...ऐसे लोगों से बात करना भी बेहद अच्छा लगता है...उनके चेहरे पर चमक होती है और सबसे बढ़कर आँखों में चमक होती है. ऐसे लोगों के साथ किसी का भी काम करने का मन करता है और इंटरव्यू का रिजल्ट जो भी आये...मैं वहां ज्वाइन करूँ या न करूं पर इंटरव्यू में मज़ा आ जाता है. आज के इंटरव्यू में ये दूसरे टाइप का बन्दा बहुत दिन बाद देखने को मिला था...एकदम दिल खुश हो गया टाइप. 

मुझे एक और चीज़ भा गयी...मेरा नाम अधिकतर लोग Pooja लिख देते हैं...नाम के स्पेलिंग को लेकर बहुत टची हूँ...सेंटी हो जाती हूँ. मेरे ख्याल से ये दूसरी या तीसरी बार होगा लाइफ में कि किसी ने खुद से मेरे नाम की स्पेलिंग सही लिखी हो. मुझे नहीं मालूम कि फाइनली मैं वहां जॉब करूंगी कि नहीं...पर आज का इंटरव्यू लाइफ के कुछ बेस्ट इंटरव्यू में से एक रहेगा. 

कुछ दो ढाई बजे वापस आई तो कुणाल का फोन आया उसके इनकम टैक्स के पेपर की जरूरत थी ऑफिस में. मौसम एकदम कातिलाना हो रखा था...ड्राइव करते हुए मस्त गाने सुने और उसके ऑफिस पहुंची. वहां बगल में फोरम मॉल है जहाँ उसे कुछ काम था. हम वहां गए ही थे कि भयानक तेज बारिश शुरू हो गयी...आसमान जैसे टूट कर बरस रहा था. काफी देर सब वेट किये उधर फिर ऑफिस में डिले हो रहा था तो बारिश में भी भीगते भागते सब लोग गए. मैं उस झमाझम बरसती बारिश में एक प्यारे दोस्त से बात कर रही थी...हवा बारिश से भीगी हुयी थी...मॉल में मेरी पसंद के गाने बज रहे थे...इंटरव्यू अच्छा गया था. ओफ्फ क्या मस्त माहौल था. 

आज कुणाल ने ऑफिस थोड़ा बंक किया कि आठ साढ़े आठ टाइप छुट्टी...फिर घर पहुंचे. इधर एक App बनाने के मूड में हैं हम लोग तो उसी का रिसर्च चल रहा है. अभी तीन बजे तक साकिब के साथ डिस्कस किये हैं...अब सोने का टाइम आया...पर जैसा कि होता है, जाग गए हैं तो नींद नदारद. सोचा कुछ लिख लूं...अच्छे मूड में लिखने का कम ही मन करता है. बस ऐसे ही...यहाँ सकेरने का मन किया. इतनी अनप्रेडिक्टेबल लाइफ में कभी पुराने पन्ने पलटा कर देखूं तो यकीन हो तो सही कि खिलखिला के हँसने वाले दिन भी होते हैं. भोर होने को आई...अब हम सोने को जाते हैं. आप मेरी पसंद का गाना सुनिए जो मॉल में बज रहा था...बीटल्स का है. मेरा फेवरिट बैंड है. 

ग्लास फ्लूट के इन्स्ट्रुमेन्टल में ये गीत...ओह...जानलेवा था...कुछ गीतों पर ऐसे ही यादें स्टैम्प हो जाती हैं...मैं इस गीत को अब कभी भी सुनूंगी..उधर फोरम मॉल की रेलिंग से नज़र आती बारिश, एक दिलफरेब आवाज़ और अनंत खुशियों को महसूस करूंगी.

Sometimes...really...all you need is a tight hug... the wonderful thing about life and friendship and love is...sometimes...a friend sitting in some forlorn corner of the world says those simple words...and you really feel like you have been hugged...tightly. Imagine...underestimating the power of words! It simply is about the intensity behind those words...when you say those words as you feel them...even if you are kilometers apart...a friend's embrace melts all your sadness away. Words heal. Words hug. Words hold your hand.

Thank you...so much...I am glad I have you in my life. I love you.

PS: It just started raining again...my friends in Delhi...I am thinking of you...and for those in the parched corner of the country...for you too. Hugs.

14 May, 2012

निब तोड़ देनी है आज...

क्यूँ लिखा जाए कि एक एक शब्द बायस होता है एक बनते हुए ज़ख्म का...शब्दबीज होते हैं...खून में घुल जाने के लिए...आंसुओं में चुभ जाने के लिए...हर शब्द एक बड़े से ज़ख्म के पेड़ का नन्हा सा बीज होता है. हर शब्द जो मैं लिखती हूँ हर शब्द जो तुम पढ़ते हो.

मैं वाकई बैरागी सी हो गई हूँ...एकदम विरक्त...मन किसी शब्द पर नहीं ठहरता...मन किसी चेहरे पर नहीं ठहरता...मन कहीं नहीं ठहरता. मुझे विदा कहना नहीं आता वरना कब की चली जाती...किसी ऐसी जगह पर जहाँ से वाकई कहीं और जाने की जरूरत न पड़े.

लिखना कम कर दिया है...बेहद कम और मन में जो हाहाकार मचा रहता था वो भी कम हो गया है...अब एक निर्वात बन रहा है...जहाँ कुछ नहीं होता...जहाँ मैं नहीं होती जहाँ तुम नहीं होते...जहाँ कोई भी नहीं होता. मैंने सुबह से दो किताबें पढ़ने की कोशिश कीं...नहीं पढ़ पायी, दोनों किताबें बकवास लगीं, हो ये सकता है कि किताबें सच में वाहियात हों.

फिलहाल हर तरफ बहुत सा सन्नाटा है...आसपास के मकानों में काम करते मजदूर शायद दोपहर के खाने की छुट्टी पर गए हैं...बच्चे स्कूल से वापस नहीं लौटे...शिकारी पक्षी घात लगाए खामोश होंगे...और बादल अभी ऊंघ रहे हैं...पंखा भी बेआवाज़ चल रहा है...आज अचानक उससे आती नित्य की खटर खटर बंद है. मैं कपड़े बदल कर बाहर जाने के मूड में हूँ कि कभी कभी घर ऐसा हो जाता है जैसे दीवारें टूट गिरेंगी मुझ पर. लंबा घूमने का मन है तो जूते के तस्मे भी बाँध लिए हैं.

किसी को एक आखिरी चिट्ठी लिखने का मन है...सामने पसंद के तीनों पेन रखे हैं...समझ नहीं आ रहा किस रंग की सियाही से लिखूं. मेरे कवि, मुझे हमेशा से मालूम था मुझे तुम्हारा जाना तोड़ देगा मगर लगता था कि टूटे टुकड़ों से भी कविता रची जाती है...आज महसूस करती हूँ कि ऐसा नहीं होता. तुम्हारे साथ आसमान की सियाही भी फीकी पड़ गयी है. तुमसे अनगिन बातें की विगत कुछ सालों में पर आज विदा कहने को सारे लफ्ज़ बेमानी हैं.

मूड है...जानती हूँ जल्दी ठीक हो जाएगा...पर ये वक्त वक्त पर जो उदासी की तहें लग रही हैं मन पर, इन्हें काटने को गर्म धीपा हुआ चाकू ही चाहिए कि ये परतें सख्त होती जाती हैं...जैसे सख्तजान मैं हूँ वैसी ही कुछ. जिंदगी में ऐसा फेज कभी नहीं आया था कि इतने दिन तक इतना कुछ लिखने को छटपटाहट हो...और अब जैसे एकदम शून्य...और ये शून्य खुद नहीं आया...मैंने ही मन के दरवाजे बंद कर लिए हैं कि रचने के लिए जितना दर्द सहना होता है उतने में लगता है सांसों का तारतम्य टूट जाएगा.

उसमें भी जो लिखती हूँ एक जरा पसंद नहीं आता तो फिर मन पूछेगा ही न...कि इतना दर्द, इतना दर्द किसलिए? कौन सी मजबूरी है जो तुमसे कलम चलवाए जाती है? आज मन कर रहा है सारी कोपियाँ उठा कर जला दूं और ब्लॉग को आग लगा दूं...या कि कुछ दिन इन्टरनेट का मोडेम बंद कर दूं और लालबाग में लंबी वाक पर निकल जाया करूं.

कैसी हूँ मैं...जिसे छूती हूँ...वो कहता है 'सोना हो जाता है' मुझे कहना था मिट्टी हो जाता है...मगर सोना हो जाना...ओह...मैं उसे मिडास की कहानी सुनाती हूँ...उसे पूरी कहानी नहीं पता है...कि कैसे मिडास को वरदान मिला था कि वो जिसे छू देगा सोना हो जाएगा...मिडास तब तक बहुत खुश था जब तक कि भूख लगने पर उसका खाना भी सोने में परिवर्तित हो गया...पानी भी...और वो घबरा ही रहा था कि फूल सी नाज़ुक उसकी बेटी दौड़ती हुयी आई उसकी गोद में और एक पल में सोने की गुडिया में तब्दील हो गयी...कीमती मगर निर्जीव.

एक था पारस पत्थर...लोग उसकी पूजा करते थे कि उससे जो भी छू जाये सोना हो जाता था...पारस पत्थर का मन होता है क्या? उससे कोई पूछे कि वो जो रंग बिरंगी चिड़िया तुम पर आकार बैठी थी और सोने की मूरत हो गयी थी...तुम्हें रोना आया था क्या?

क्या तोड़ देना चाहती हूँ? क्या खुद को? विध्वंस का गीत बज रहा है...अट्टालिकाएं गिरती जा रही हैं...मेरे घर में अनपढ़ी पुस्तकों की मीनारें नेस्तनाबूद हो रही हैं...मैं कहीं जा रही हूँ...कहाँ...मन पूछता है...मुझे मालूम नहीं कहाँ.

सामने असीमित जलराशि है, उन्मुक्त, अगाध, सियाही जैसी नीली...मन पूछता है, लौट आने को सागर भी न हो तो लहरें कहाँ जायेंगी?

12 May, 2012

अकेलेपन को एन्जॉय करना इज लाइक डेवलपिंग अ टेस्ट फॉर गुड स्कॉच...इट कम्स विद टाइम.

स्कॉच के सुनहले गिलास के पीछे मोमबत्ती जल रही थी...लाईट कटी हुयी थी और गहरे अंधकार में सिर्फ उतनी सी रौशनी थी...वो भी पूरी की पूरी स्कॉच में घुल रही थी...बहुत से आइस क्यूब थे. आसमान में घने बादल छाये थे और कहीं से एक सितारे भर की रौशनी भी नहीं थी. रात के कोई दो से चार बजे तक का वक्त था...लड़की बालकनी में अकेले व्हिस्की का ग्लास लिए कुर्सी पर हलकी खुमारी में थी...जितने में दुनिया अच्छी लगने लगे. कोई गीत चल रहा था फोन पर...बालकनी की रेलिंग पर कतार से एक पुरानी ऐश ट्रे, पानी की बोतल, लाइटर और कोने में ट्राइपोड रखा हुआ था. बालकनी से लगे ही स्टडी टेबल थी जिसपर कैमरा रखा हुआ था. आज लड़की खास मूड में थी और उसने शाम को ऐलान किया था कि वो आज दो पैग पिएगी. 
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बहुत खास दिनों में उसका पीने का मूड होता...उसमें भी पूरी शाम और देर रात एक ही पैग में हमेशा निकल जाती...तो बाज़ार से उसके लिए आता भी सिर्फ एक पैग भर का सामान...मगर आज लड़की ने डिक्लेयर कर दिया था कि वो दो पैग पिएगी. उसे इस बात पर काफी अफ़सोस हुआ कि किसी ने भी नहीं पूछा कि ऐसी क्या खास बात हुयी है...तुम तो कभी भी एक पैग से ऊपर गयी ही नहीं हो. लड़की को आदत थी चढ़ जाने के बाद लोगों की प्यार मुहब्बत और इसरार से भरी बातें सुनने की...पर आज उसे दुनिया फानी लग रही थी...उससे वहां बैठा नहीं गया...लगा जैसे थोड़ी खुली हवा चाहिए. वो बालकनी में अपनी कुर्सी, पानी की बोतल और कैमरा लेकर सेटल हो गयी. 

व्हिस्की का ग्लास उसे बेहद खूबसूरत लगता है...पानी की बूँदें ठहरी हुयीं...सुनहले आइस क्यूब...रौशनी परावर्तित होती हुयी...कल उसने अनगिन तसवीरें खींची. पहला पैग खत्म होने तक वो कुछ लोगों के बारे में ऐसे ही सोच रही थी...मगर दूसरे पैग में बर्फ थोड़ी ज्यादा थी और उसे आराम से पीने की फुर्सत भी. हलके खुमार में उसे कुछ खास लोग याद आये...उसकी बड़ी इच्छा हुयी कि उन्हें फोन करे...जैसे कि अक्सर लड़के करते हैं...थोड़ी चढ़ी नहीं कि सारे पुराने दोस्तों को फोन करना शुरू. उसका दिल किया कि एक सिंपल सा मेसेज ही कर दे...व्हिस्की पी रही हूँ...आपकी याद आ रही है. मगर उसकी दुनिया में ये बहुत सिंपल सी चीज़ थी पर जो उसकी दुनिया के बाहर दुनिया है वहां चीज़ें बहुत कोम्प्लेक्स हो जाती हैं ये सोच कर उसने जब्त कर लिया. 

किसी को बेहद शिद्दत से याद करो तो उसे पता चल जाता है ऐसा उसका मानना था. एक वक्त था जब उसे बहुत हिचकियाँ आती थी...वो एक पुराने दोस्त को अक्सर तब उलाहना दिया करती थी कि मुझे इतना याद मत किया करो...दिल में गहरे उसे मालूम होता था कि वो उसे याद कर रहा है. आजकल बहुत साल हुए लड़की को हिचकियाँ आनी एकदम ही बंद हो गयी हैं. उसे लगता है कि अब उसे कोई याद नहीं करता. 

कल जब बिजली चली गयी तो लड़की ने पहला वाक्य कहा था...बर्फ कैसे जमेगी...वो बेहद उदास हो गयी थी...मगर फिर सिर्फ एक कैंडिल की रौशनी में जब बहुत सी अच्छी अच्छी तसवीरें आयीं तो उसका अफ़सोस कम हो गया. फिर बर्फ न होने को नीट पीने का बहाना भी मान लिया गया. उसे अपना पैग खुद बनाना पसंद था...ग्लास में पूरे ऊपर तक भर के आइस क्यूब्स और लगभग आधी ग्लास तक में व्हिस्की. ग्लास भी एक ही...हमेशा...स्क्वायर कट. वो ग्लासेस को लेकर बहुत पर्टिकुलर थी...दूसरे ग्लास में पी ही नहीं सकती...न दूसरे शेप के ग्लास में...न दूसरे लोगों के साथ जो उसे पसंद न हों. उसे लगता है वो बहुत जिद्दी होती जा रही है...उसे आजकल अधिकतर लोग पसंद नहीं आते. उसने कभी सोचा नहीं था कि बालकनी में अकेले व्हिस्की पीते हुए उसे इतना सुकून महसूस होगा...शी वाज एट पीस...विद हरसेल्फ एंड द वर्ल्ड. 
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अकेलेपन को एन्जॉय करना इज लाइक डेवलपिंग अ टेस्ट फॉर गुड  स्कॉच...इट कम्स विद टाइम. तन्हाई का लुत्फ़ आते आते वक्त लगता है...अच्छी व्हिस्की की पहचान होने में भी...एक कनेक्शन होता है. लाइक मैजिक. स्कॉच ऑन द रोक्स...एवरग्रीन...क्लास्सिक...तुम्हारी तरह...ईश्क की तरह...मेरी तरह भी तो. बहुत दिन हुए...लड़की परेशान है...अच्छा लगेगा क्या इतनी जान पहचान है पर साथ में पीने बैठोगे तो उसे पूछना पड़ेगा कि आइस कितनी...जैसे कोई भली लड़की चाय में चीनी कितनी पियोगे पूछ रही हो...

इस बार बता ही दो...कितनी आइस क्यूब्स डालते हो अपनी स्कॉच में?

11 May, 2012

फुटकर चिप्पियाँ

लोगों के रिकवर करने के अलग अलग तरीके होते हैं...मैं इस मामले में बहुत कमज़ोर हूँ...आई डोंट नो हाउ टू मूव ऑन...मैं अक्सर वहीं अटक जाती हूँ जहाँ से मुझे आगे बढ़ जाना चाहिए. किसी मोड़ पर बहुत दिन ठहर जाओ तो वहां घर बनाने का मन करने लगता है...रोज़ देखते देखते एक दिन वहां से नज़र आते नज़ारे दुनिया में सबसे खूबसूरत दिखने लगते हैं और हम ये भूल जाते हैं कि हम यहाँ रुके नहीं थे...ठहर गए थे कि हमें लगता था कि कोई लौट कर इसी मोड़ पर हमें ढूंढते हुए आएगा.

मुझे विदा कहना नहीं आता...मेरी जिंदगी में जितने लोग आये...सब अपनी अपनी खास जगह छेक के बैठे हैं, न कोई घर खाली करता है न मुझे निकालना आता है. छोटे बड़े हिस्से...भूले किस्से...बहुत कुछ सकेरा हुआ है. कभी कभी मुझे अपने से बड़ा कबाड़ी नहीं दिखता कि मैं टूटे हुए रिश्तों को भी सहेज के रखती हूँ कि कौन जाने कब कोई अच्छा सा 'ग़म'(pun intended) मिल जाए तो फिर सब जुड़ जाए. या फिर इन्हें गला कर फिर से किसी नए आकार में ढाला जा सके. जिंदगी में वाकई बेकार तो कुछ नहीं होता...सबकी अपनी अपनी जगह होती है.

मुझे जिन्हें भूलना होता है मैं उन्हें एक खास जगह अता करती हूँ...पासवर्ड में. एक आईडी शायद सिर्फ इसलिए है...कभी कभी बहुत जरूरी हो जाता है कि मैं किसी को भूल सकूं...कुछ दिन के लिए ही सही कि उसे याद करना बड़े ज़ख्म देने लगता है. फिर हर बार जब मैं पासवर्ड में वो नाम टाइप करती हूँ धीरे धीरे करके उसे चिट्ठियां लिखने का ख्याल उँगलियाँ बिसराने लगती हैं कि मैं जितनी बार आईडी से लोगिन करती हूँ, मुझे लगता है मैंने उसे चिट्ठी लिखी है...कि पहला शब्द तो वही होता है न...उसका नाम. लिखने के पहले पहला नाम या तो खुदा का हो या महबूब का...फिर लिखने में जिंदगी होती है.

ये सब मैं पुनरावलोकन में लिख रही हूँ क्यूंकि उस समय तो समझ नहीं आता...उस समय तो वो नाम दिन भर लिखना मजबूरी होता है इसलिए पासवर्ड बनाया जाता है. अब जब इतने सालों बाद उस पासवर्ड को बदला है तो आश्चर्यजनक रूप से देखती हूँ कि आई हैव हील्ड...मैं ठीक हूँ गयी हूँ...ज़ख्म भर गए हैं. अब मैं तुम्हारा नाम लिखते हुए मुस्कुरा सकती हूँ...अब मैं तुम्हें याद करते हुए हर्ट नहीं होती...अब तुम्हारे नाम से सीने में हूक नहीं उठती...अब मेरी सांस नहीं रूकती जब तुम मेरा नाम लेते हो.

मैं इतने ज्यादा विरोधाभास से भरी हूँ कि मुझे कभी कभी खुद समझ नहीं आता कि मैं क्या कह रही हूँ...एक शाम मैंने सुर्ख टहकते लाल रंग का सलवार कुरता पहना था जब कि कोई बात निकली और मैंने कहा...आई हेट रेड...मुझे लाल रंग एकदम पसंद नहीं है...तो एक दोस्त ने ऊपर से नीचे तक निहार कर कहा था...दिख रहा है. मैं अक्सर दो वाक्य एकदम एक दूसरे से उलट मीनिंग का एक ही सांस में कह दूँगी. ये कुछ वैसा ही है जैसे दिन भर ये सोचना कि आजकल मैं उसे याद नहीं करती हूँ.

आजकल मुझे स्कूल के बहुत सपने आ रहे हैं...अभी कल सपना देखा था कि फिजिक्स का कोस्चन पेपर है और मुझे एक भी सवाल नहीं आता...मैं एकदम घबरायी हुयी हूँ कि फेल कर जाउंगी...आज तक कभी फेल नहीं हुयी...मम्मी को क्या कहूँगी...फिर एक सवाल है जो थोड़ा बहुत धुंधला सा याद आता है मुझे...चांस है कि उसे पूरा अच्छे से लिख दूं तो पास कर जाऊं...ध्यान ये भी आता है कि मैं किसी से बहुत प्यार करती थी और पढ़ने के सारे टाइम मैं कहानियां और कविताएं लिखती रही...किताबें नहीं पढ़ीं. आज सुबह सुबह देखा है कि मैंने नया स्कूल ज्वाइन किया है और एक क्लास से निकल कर मैथ के क्लास करने दूसरी जगह जाना होता है...मैं रास्ता खो गयी हूँ...साथ में एक दोस्त और भी है...फिर एक सीनियर ने रास्ता बताया है और हम जाते हैं...बहुत सी गोल गोल घूमने वाली सीढ़ियाँ हैं...मेरे ठीक पीछे मैथ के सर भी चढ रहे हैं...मैं बहुत तेज सीढ़ियाँ चढती हूँ...मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने में कभी थकान महसूस नहीं होती. लेकिन जब ऊपर पहुँचती हूँ तो एक टेबल होता है और वहां से सीधे नीचे दिखता है और टेबल की एक टांग हिल रही है तो टेबल स्टेबल नहीं है...मुझे अब नीचे उतरना है पर अब मुझे डर लग रहा है...मुझे वैसे भी ऊँचाई से बहुत डर लगता है.

बहुत ज्यादा अनप्रेडिक्टेबल और मूड़ी हूँ...जब जो मन करे वो करने वाली...कब क्या कर जाऊं का कोई ठिकाना नहीं. कल शोपिंग पर गयी थी, खूब सारी चेक शर्ट्स खरीद कर लायी हूँ...चेक शर्ट्स मेरी हमेशा से फेवरिट रही हैं...कुछ सैंडिल्स, बैग्स, और कुछ छोटी मोटी चीज़ें. बहुत सालों बाद ऐसी सड़क किनारे वाली शोपिंग की...मोलभाव किया.

आजकल प्यार के मामले में कन्फ्यूजन वाला फेज चल रहा है...पता ही नहीं चल रहा कि कमबख्त होता क्या है...थोड़ा थोड़ा समझ भी आ रहा है कि आजकल किसी के प्यार में नहीं हूँ इसलिए ऐसे सवाल हैं...फिर भी ऐसा क्यूँ होता है कि कुछ लोगों का फोन आता है तो मुस्कुराते मुस्कुराते गाल दर्द कर जाते हैं...मुझे लगता है कि मुझे उनसे हमेशा प्यार रहेगा और प्यार सिर्फ मुस्कराहट का नाम है. बाकी जो रोना धोना हम करते हैं वो हमारा इगो होता है जो इस बात को मानता नहीं है कि हम किसी से जितना प्यार करते हैं वो हमसे उतना नहीं करता...या शायद एकदम ही नहीं करता.

बहुत दिनों से किसी के प्यार में गिरी नहीं हूँ...घुटने पर लगा पिछली बार का नीला निशान लगभग धुंधला पड़ गया है...परसों अल पचीनो पर एक किताब लायी हूँ...मन मानना नहीं चाह रहा है पर प्यार तो टोनी मोंटाना को स्कारफेस में देख कर हो गया ही था...आज बस...डूबना है उन आँखों में. मेरी जिंदगी से प्यार, फिल्में, किताबें और आवारागर्दी निकाल दो तो फिर बचता क्या है?

कल फ़राज़ को पढ़ रही थी...यूँ तो फैज़ को पढ़ने का मूड था पर किताब मिली नहीं...जाने किधर रख छोड़ी है. आजकल मन थोड़ा शांत रहता है...शांत, उदास नहीं...और सुनो...तुम उदास न रहा करो मेरी जान...जिंदगी में हज़ार काम हैं...जानती हूँ...तुम्हारी उदासी से मेरे मौसम को सर्दी हो जाती है...देखो न...फ़राज़ साहब कह गए हैं कि...शेर सुन के बताना...जो तुम्हें किसी और से प्यार हुआ क्या?

एक फुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिलफरेब थे गम रोज़गार के

09 May, 2012

बह जाने को कितना पानी...जल जाने को कितनी आग?


एक लेखक की सबसे बड़ी त्रासदी है कि उसके लिखे हर शब्द को उसके जीवन का आइना मान लिया जाता है...उसके ऊपर सच को चित्रित करने की इतनी बड़ी जिम्मेदारी डाल दी जाती है कि बिना भोगा हुआ सच वो लिखने में कतराता है...इसी बात पर एक लेखक की ही डायरी से कुछ फटे चिटे पन्ने कि कभी तमीज से इन्हें कहीं लिखने की दरकार नहीं रही.
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कल मेरे शहर में बहुत तेज बारिश हुयी...आसमान जैसे फट पड़ा था...बात मगर इसके पहले की है कि एक लेखिका कुछ सब्जियां खरीदने थोड़ी दूर के बाजार गयी थी...गौरतलब है कि मेरे अंदर एक औरत और एक लड़की भी रहती है मगर उसे शायद दुनिया कभी बाहर ही नहीं आने देती...तो ये लेखिका हर चीज़ में कहानियां ढूंढती है...तो कल भी मैं जो थी...बाज़ार गयी थी और सब्जियों के अलावा मुझे एक ड्रिल मशीन खरीदनी थी...पता चला कि ड्रिल मशीन ८०० रुपये की आती है और अगर जरूरत पड़े तो एक दिन के लिए ५० रुपये में रेंट की जा सकती है. मुझे उधारी चीज़ें अधिकतर पसंद नहीं आतीं...और एक ड्रिल का थोड़ा सम्मोहन भी है तो सोचा खरीद लेती हूँ. दूकान के पीछे जा कर एक संकरी सी गली थी जिससे ऊपर के तल्ले में जाने को सीढ़ियाँ बनी थीं. मैं कभी कोठे पर नहीं गयी पर जितना फिल्मों और किताबों में पढ़ा है वैसा ही डरावना सा माहौल था...नीम अँधेरा और एक आधा नाईट बल्ब जल रहा था...एक लंबा सा गलियारा था जिसके एक तरफ सीढ़ियाँ थीं और एक तरफ कुछ कमरे जिसमें एक धुंधला सा पर्दा पड़ा हुआ था और परदों के पार कुछ औरतें दिख रही थीं. वो कोई शेडी सा पार्लरनुमा एरिया था...वहां खड़े होकर मैं ये सोच रही थी कि ये ऐसी जगह है कि किसी भी दोस्त को इसका डिस्क्रिप्शन दूं कि मैं ऐसी जगह गयी थी तो पहला सवाल होगा कि तुम वहाँ कर क्या रही थी...उस गली के दोनों तरफ कुछ बंद दुकानें थीं और कुछ साइबर कैफे जिसके बाहर स्टूल पर इंतज़ार करके लड़कों के चेहरे ऐसे थे जैसे मेरे तीस के ऊपर भाइयों के हैं जिनको नौकरी अभी तक नहीं मिली है...मुझे अंदाज़ा था कि ऐसे गर्द-गुबार भरे कैफे में वो क्या कर रहे होंगे...मुझे ये भी पता चल रहा था कि वहां कैसी सीडियां रेंट पर मिलती होंगी. मेरा कौतुहल इतना बढ़ रहा था कि मन कर रहा था धड़धड़ा के सीढ़ियाँ चढ जाऊं...मगर दिन के चार बजे उन सीढ़ियों पर इतना अँधेरा था कि टटोल कर ऊपर चढ़ना पड़ता.

छोटे शहरों में लड़कियों के अंदर एक डर कूट कूट कर बचपन से ही भरा जाता है...अँधेरे कोनों का डर...अँधेरे कोनों से निकलते उन  हाथों का डर जो जिस्म को भंभोड़ते हैं और निशान और सवाल आत्मा पर बनाते हैं कि ऐसा मेरे साथ क्यूँ हुआ...मैं ऐसा डिजर्व करती थी...मैंने कैसे कपड़े पहने थे...मैं वहाँ क्या कर रही थी और ये सवाल उन गंदे हाथों के निशान उतर जाने के बाद भी नहीं धुलते. हालाँकि हर लड़की इन गलीज़ हाथों से रूबरू होती है मगर हर लड़की इन हाथों से बचती हुयी चलती है. उसे मालूम होता है कि ये हाथ सिर्फ अँधेरे कोनों में नहीं दबोचते बल्कि रौशनी वाले मेट्रो में...पटना की बेहद भीड़ वाले सब्जीबाजार में...रेलवे प्लेटफोर्म पर...दिन की रौशनी और भीड़ वाली जगह पर ये हाथ ज्यादा नज़र आते हैं. लड़की ये भी सीखती है कि हमेशा आलपिन लेकर चला करो और ऐसे किसी व्यक्ति को चुभा दो...लड़की ये भी चाहती है कि ऐसे हर हाथ वाले शख्स की वैसी जगह चोट करे जहाँ वो बर्दाश्त न कर पाए...जी...हर लड़की जानती है कि मर्द के शरीर में ऐसी  ही कमज़ोर जगह होती है जैसे कि औरत का मन.

मैं जानने लगी हूँ थोड़ी थोड़ी कि मेरी ये छटपटाहट क्यूँ है...शायद ऐसी ही कोई नाकाबिले बर्दाश्त छटपटाहट रही होगी कि दुनिया भर की औरतों ने लिखने के लिए मर्दों के नाम इख़्तियार किये...मेरा भी कभी कभार मन होता है कि मैं कोई और नाम रख लूं कि वो सारे फ़साने जो मुझे लिखने हैं मैं अपने नाम से नहीं लिख सकती कि उन कहानियों में मेरे न चाहते हुए भी मेरी आँखें उभर आएँगी कि मेरे नाम का एक चेहरा है जबकि कहानियों के किरदारों का कोई रंग नहीं होता...उनकी कोई मर्यादाएं नहीं होती, जिम्मेदारी नहीं होती...दुनिया नहीं होती...उनका यथार्थ वक्त के इतने छोटे से हिस्से पर नुमाया होता है कि वो पूरी शिद्दत के साथ वो हो सकते हैं जो होना चाहते हैं. एक किरदार से जिंदगी अपना हिस्सा नहीं मांगती. हालाँकि मैं दुनिया को औरत और मर्द के खाँचों में बांटना सही नहीं समझती और फेमिनिस्म के बारे में अनगिनत बातें पढ़ते हुए भी मुझे चीज़ें नहीं समझ आतीं...मेरे लिए इतना काफी होता है कि मुझे वो सारी आज़ादियाँ मिलें जो मेरे भाई को या मेरे पति को या मेरे दोस्तों को मिली हुयी हैं. हर वक्त कपड़े पहनने के पहले ये न सोचना पड़े कि इसमें अगर मेरे साथ कोई हादसा हो गया तो कोई मुझे जिम्मेवार ठहराएगा...ऐसा ही कुछ लेखन के बारे में भी है.

मैं अधिकतर गालियाँ नहीं देती पर मैं चाहती हूँ कि मैं अगर किसी को गाली दे रही हूँ तो बिना बताये ये समझा जाए कि उस गाली के बिना मेरी मनःस्थिति बयान नहीं हो सकती. मैं गलियों को भी उनके लिंग़ के हिसाब से देती हूँ...जब कि मुझे दुनिया के मर्दों से कोफ़्त होती है तो मैं ऐसी गाली नहीं देना चाहती जो कि उनकी बहन या माँ की ओर लक्षित हो...मैं वाकई उन गालियों को पसंद करती हूँ जिनमें ये बोध आता है कि वो स्त्रियोचित हैं...कि उनमें वही सारी कमियां हैं जिनके दम पर वो अपने मर्दाने अहं का दंभ भरते हैं...मुझे लगता है बाकी सारी गालियों से परे किसी मर्द को सबसे अधिक तिलमिलाहट तब होती है जब कोई औरत उन्हें 'नपुंसक' या 'नामर्द' जैसी कोई गाली दे दे. ये उनके पूरे वजूद को ही कटघरे में खड़ा कर देता है...कि औरत के लिए दुनिया बहुत सी चीज़ों से बनी होती है...लेकिन मर्द सिर्फ और सिर्फ एक चीज़ से बनता है...फिजिकल/सेक्सुअल ग्रैटिफिकेशन.

मुझे उन औरतों की कहानियां लिखने का मन करता है जिनसे मुझे साहिब बीबी गुलाम की छोटी बहू याद आती है. कितने भी बड़े लेखक को पढ़ लेती हूँ ऐसा लगता है कि ये औरत की सिर्फ बाहरी किनारों को छू पाए हैं...मान लो उसका मन थोड़ा बहुत टटोल कर समझ लें मगर उसके अंदर जो एक बेबाक सी आग भरी है उसकी आंच में हाथ जलाने से सभी डरते हैं. औरत जब अपने मन पर आती है तो दावानल हो जाती है...फिर हरे पेड़ और सूखी लकड़ी में अंतर नहीं करती. मैं हर सुबह उठती हूँ तो प्यार को कोई च से शुरू होने वाली गाली देती हूँ और इस बात पर पूरा यकीन रहता है कि दुनिया में प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं है.

इंसान की सभ्यता का सारा इतिहास मात्र एक छलावा है...झूठ और आडम्बर का एक रेशमी ककून है...जबकि सच ये है कि इस ककून के अंदर के कीड़े की नियति मर जाना ही है. आज भी आदिम भाव वही हैं...हाँ उसके ऊपर झूठ का मुलम्मा इतने दिनों से जिया जा रहा है कि  उसी को सच मान लिया जाता है. प्रेम तो बहुत दूर की बात है...राह चलते...आते जाते...आखिर हर लड़की को ऐसा आज भी क्यूँ लगता है कि सामने का मर्द नज़रों से उसके कपड़े उतार रहा है...और मौका मिलते किसी अँधेरी गली में वो सारा कांड कर डालेगा जिसमें इस बात का कोई रोल न होगा कि लड़की ने कैसे कपड़े पहने थे, उसकी उम्र क्या थी, चेहरे के कटाव कैसे थे...अंत में वह सिर्फ और सिर्फ एक देह है...एक नारी देह.
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फिल्म में छोटी बहू कहती है...मेरी बाकी औरतों से तुलना मत करो...मैंने वो किया है जो किसी और ने नहीं किया...कल तेज बरसती बरसात में भीगते हुए मैं आइसक्रीम खा रही थी...बारिश इतनी तेज थी कि चेहरे पर थपेड़े से महसूस हो रहे थे...सर से पैर तक भीगी हुयी...एक हाथ में फ्लोटर्स...एक हाथ में आइसक्रीम...और मन में अनगिनत ख्यालों का शोर...नगाडों की तरह धम-धम कूटता हुआ. सड़क पर किसी ने कहा 'नाईस'...आवाज़ में तिक्त ताने मारने का भाव नहीं सराहने का भाव था...मैंने चश्मा नहीं पहना था तो मुझे उसका चेहरा नहीं दिखा...मैं थोड़ा आगे बढ़ भी चुकी थी...मैंने आइसक्रीम लिए हाथ को ऊपर उठाया जैसे शैम्पेन के ग्लास को उठाते हैं और कहा 'चीयर्स'. उसी रास्ते वापस लौट रही थी तो देखा उसकी गोद  में एक बच्चा था...मुझे जाने कैसे लगा कि बेटी है...वह उसे हाथ हिला कर मुझे बाय कहने को कह रहा था...मैंने बाय किया भी...इस सबके बीच बहुत तेज बारिशें थी और बिना चश्मे के मुझे कुछ दिख नहीं रहा था. मैं सोच रही थी...कि वो सोच रहा होगा कि मेरी बेटी भी ऐसी ही होती...उसके एक आध और बातों में मैंने वो चाहना पकड़ ली थी...मैं उसे कहना चाहती थी...ऐसी लड़की को दूर से ही ऐडमायर करना आसान है...ऐसी लड़की का पिता बनना...बहुत बहुत मुश्किल.

आज़ाद होना वो नहीं होता कि जो मन किये कर रही है लड़की...वैसे में हर मर्द में एक तुष्टि का भाव होता है कि मैंने इसे आज़ादी दी हुयी है...मैंने उसे खुला छोड़ा है...ऐसे में लड़की में भी एक अहसान का भाव होता है समाज के प्रति, पिता के प्रति, प्रेमी के प्रति, पति के प्रति, दोस्त के प्रति...हर उस मर्द के प्रति जिसने उसे आज़ादी दी है...बात तब खतरनाक हो जाती है जब लड़की मन से आज़ाद हो जाती है, स्वछन्द...जब उसे अपने किसी किये पर पश्चाताप नहीं होता कि उसने वही किया जो उसकी इच्छा थी. ऐसी खुली लड़की से फिर सब डरते हैं...उसमें इतनी कूवत होती है कि सिर्फ अपने सवालों भर से समाज की चूलें हिला दे. कल मैं वो लड़की थी.


ऐसी लड़की बारूद के ढेर पर बैठी नहीं होती...ऐसी लड़की खुद बारूद होती है. उससे बच कर चलना चाहिए. 
समझ रहे हो आप?

07 May, 2012

चिल्लर ख्याल...सुबह सुबह ढनमनाते हुए


आजकल मेरा दिमाग जाने कहाँ रहता है...कल ऊँगली काट ली सब्जी कट करते हुए...सोच कुछ रही थी...नया चाकू था एकदम नीट कट लगा...गहरा...खून बहुत तेज़ी से बह रहा था...मुझे खून सम्मोहित करता है...टहकता...दर्द में डुबोता...तो देख रही थी तब तक कुणाल भागते आया...नल के नीचे पानी से धोना शुरू किये पर खून रुकने से रहा...फ्रिज से बर्फ निकाली और ऊँगली पर रखी...कुणाल की आँखें तब तक घूमनी शुरू हो गयीं थीं...उसे खून देख कर चक्कर आता है...दो मिनट और खड़ा रहता तो वहीं बेहोश हुआ रहता तो उसको भेजे हॉल में कि तुम जाओ हम खुद से देख लेंगे. खून का बहाव इतना तेज था कि रुक ही नहीं रहा था...कितनी भी जोर से बर्फ से दबाए रखे थे ऊँगली को एकदम तीखी धार बहे जा रही थी...उसपर एक फ्रैक्शन ऑफ सेकण्ड भी दबाव कम होता तो बस फिर से धार तेज हो जाती...सिंक एकदम लाल सा हुआ जा रहा था वो तो अच्छा था कि सिंक में कोई बर्तन नहीं थे. 

काफी देर हुआ और खून रुकने को नहीं आया तो समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं...बचपन में मम्मी हमेशा बर्फ लगवाती थी और खून रुक जाता था...थोड़ी देर रुकता था तो बर्फ जैसे हटाती थी दर्द भी वापस लौटता था और फिर से धार शुरू. जब कुछ नहीं हो रहा था तो सोचा पट्टी बाँधने के सिवा कोई उपाय न था...कुणाल को तो बुलाने का सवाल नहीं था...वो एक बार झांकते हुए आया कि हम बाँध देते हैं...हम उसको डान्ट धोप के भेजे कि यहाँ एक छे फुट का बेहोश लड़का हमको नहीं चाहिए...फूटो यहाँ से...हम बहादुर हैं खुद से कर लेंगे सब. फिर रुई में सैवलोन लगाये और एक बार क्लीन किये फिर खूब सारी रुई में सैवलोन लगा के ऊँगली पर कस के दबाये और लिकोप्लास्ट चिपकाये...एकदम टाईट ड्रेसिंग किये कि खून टपके न. 

सारे टाइम ऊँगली को ऊपर उठाये रखे...कुणाल कह रहा था कि हार्ट के लेवल से ऊपर रखना चाहिए कट को...हर दर्द के साथ ऐसा ही होना चाहिए न? हार्ट के लेवल से ऊपर रखा जाए उसे...फिगरेटिवली स्पीकिंग. खैर...जमीन पर बैठे और हाथ बेड पर ऊपर रखे कि खून न बहे...बीच बीच में झाँक के देख भी लेते थे कि ठीक है कि नहीं...लाल तो नहीं हो रही है पट्टी...तो देखा कि ठीक है. खून बहना रुक गया था पर उतना खून बहता देख कर मेरा मन भी कैसा कैसा होने लगा था और मेंटली लग रहा था कि थक गए हैं...हालाँकि बहुत ज्यादा खून नहीं बहा होगा...या शायद  बहा होगा, मालूम नहीं. थक के सो गए. कुणाल कुछ दूध कोर्नफ्लेक्स खाया...हम आउट थे...देखे नहीं. 

नींद खुली तो शाम हो रही थी...खून बहना रुक गया था...पर हम भी हम हैं, ढेर होशियार बनते हैं. कल तेल लगाए हुए थे बाल में तो शाम होते होते एकदम सर भारी लगना और सर दर्द शुरू हो चुका था. हमको लगा खून रुक ही गया है...आराम से शैम्पू कर लेते हैं, बचा के करेंगे. अब बचा के ठेंगा होना था...नहा के निकलते निकलते फिर से ऊँगली ने खून की जमना बहानी शुरू कर दी...खुद को खूब सारा कोसा कि बुद्धि पे बलिहारी...वगैरह...फिर से टाईट ड्रेसिंग की. 

शाम डूबते हुए छत पर गयी थी...अक्सर बाल सुखाने के लिए छत पर जाना अच्छा लगता है...कल शाम एकदम एकरंग थी...बादल भी एकदम सलेटी...कोई नारंगी, लाल, गुलाबी नहीं...आसमां भी नीला नहीं...ग्रे...छत पर बैठ कर कुछ दोस्तों के बारे में सोचा कि संडे की इस शाम वो कहाँ होंगे, क्या कर रहे होंगे...और ये कि किसी को बहुत शिद्दत से याद करो तो क्या वाकई उसे पता चलता है...हिचकी आती है क्या? कल चाँद बहुत खूबसूरत था और बादल से छन कर चाँद की किरणें दिख रही थीं...मैंने चाँद की किरनें कभी नहीं देखी थीं इस तरह...बीम होती हुयीं. सुन्दर था सब...एकरंग होते हुए भी. 
कुणाल और साकिब के साथ रात को वाक पे निकले...मोहल्ले में इधर उधर घूमे...आइसक्रीम कैंडी खाए...रात को बहुत सेंटी हो गए थे...होपलेस केस हैं...हमको कुछ भी नहीं आता है...गुड फॉर नथिंग...लिखने का भी टैलेंट दिया ही था तो या तो खूब सारा देता या आम इंसानों टाइप आम ही रहने देता...ये न इधर के हैं न उधर के हैं. ना कुछ बड़ा तोडू टाइप लिखेंगे कि शान से किसी को दिखा सकें कि देखो बेट्टा किताब है मेरा...न चैन से बैठ के कोई खूब सारा पैसा मिलने वाला नौकरी करेंगे कि अपने पैसे पर ऐश कर सकें. 

दिमाग खराब करेंगे अपना और कुणाल का कि रे हम क्या करें हमको इतनी बेचैनी काहे है...सबको तो नहीं होती सब अपनी जिंदगी में खुश रहते हैं...हमको तो साला कोश्चन ही पता नहीं है तो आंसर कहां से ढूँढेंगे. मालूम ही नहीं है कि क्या चाहिए...बस इतना पता है कि कुछ तो है जिसके पीछे भागते जा रहे हैं...कोई तलाश है...और ये कि बेचैनी है बहुत. दर्द है बहुत. कहीं ठहरना नहीं होता है. 

सुबह उठी हूँ...देखती हूँ घुटने पर एक काला निशान है...कल किसी चीज़ से फिर टकराई होउंगी घर में...ऊँगली अलग दर्द दे रही है...बिना फर्स्ट फिंगर के इस्तेमाल के टाइपिंग भी आफत है...पर ऐसे ही जेनरली जाने क्या क्या लिखने का मन करते रहता है...इतना सारा अलाय बलाय लिखे बिना वो बाहर भी तो नहीं आता जो अंदर कहीं हिलोरें मार रहा है. पता नहीं क्या लोचा है यार...लाइफ में बहुत कन्फ्यूजन है...बहुत परेशानी है और कमबख्त जिंदगी है भी तो इतनी छोटी सी...कितनी और होगी...बहुत हुआ तो दस साल...चालीस वगैरह से ऊपर जीने का कोई खास अरमान नहीं है. जिंदगी इतनी तेज़ी से भाग रही है कि क्या कहें...परेशान हो जाती हूँ हर वीकेंड कि कमबख्त एक और हफ्ता गुज़र गया. 

आज ऐसे ही कैमरा लेकर कुछ कुछ फोटो खींचने के लिए जाने का मन है...परती जमीन सा लगता है सब कुछ...मीलों मीलों खाली...एक बबूल का पेड़ तक नहीं. जाने इस तलाश को कब सुकून मिलेगा. कुणाल कहता है कि मैं लोगों के प्रति बहुत क्रिटिकल होती हूँ इसलिए मेरे दोस्त नहीं बनते...मुझे वाकई बहुत कम लोग पसंद आते हैं...बहुत ही कम...पर जो पसंद आते हैं उनपर जान छिडकती हूँ...बहुत कम लोग मुझे पसंद करते हैं...vice-versa टाइप की चीज़ है. जिंदगी में कम लोग हों...पर अच्छे हों...मैं किसी ऐसे के साथ टाइम वेस्ट नहीं कर सकती जो मुझे पसंद न हो...मुझे समझ आता है कि मेरी जिंदगी बहुत छोटी है...बहुत छोटी तो मैं अकेली ही रह लूंगी लेकिन किसी ऐसे शख्स को बर्दाश्त नहीं करूंगी जिसे मुझे झेलना पड़े...हद होपलेस केस हूँ. 

कल अनुपम से बात कर रही थी कि यार बहुत ज्यादा डिप्रेसिंग फेज चल रहा है कमबख्त इतनी जल्दी जल्दी उदास होती हूँ कि कुछ काम ही नहीं आ रहा...लगता है पागल हो जाउंगी...कितनी शाम लगता है जान दे दूं...कहीं छत से जाके कूद जाऊं...पर उम्मीद करती हूँ कि फेज है...गुजरेगा...बस इस बार बहुत लंबा चल रहा है...मुझे इतने दिन तक उदास रहने की आदत नहीं है. दिन के सारे पहर रटती हूँ कि गुजरेगा...गहरी सांसें लो लड़की...इट विल बी आलराईट...जस्ट...सांस लेती रहो...जिंदगी ऐसी ही है...क्या करोगी...जस्ट...कीप ब्रीदिंग...ओके?

06 May, 2012

एइ मेघला, दिने ऐकला, घोरे थाके ना तो मोन

सुनो, जान...उदास न हो...कुछ भी ठहरता नहीं है...है न? कुछ दिन की बात है...मुझे मालूम है तुम्हें किसी और से प्यार हो जाएगा...कुछ दिन की तकलीफ है...अरे जाने दो न...लॉन्ग डिस्टंस निभाने वाले हम दोनों में से कोई नहीं हैं...तब तक कुछ अच्छी फिल्में देखो मैं भी जाती हूँ कुछ मनपसंद हीरो लोग की फिल्म देखूंगी...आई विल बी फाइन और सुनो...तुम भी अच्छे से रहना.

देखो ये गाना सुनो...मुझे बिस्वजीत बहुत अच्छा लगता था...देखो न इस गाने में वो मिट्टी का कुल्हड़ देखे...वैसे चाय तो तुम्हें भी पसंद नहीं है...मुझे भी नहीं...और कुल्हड़ में कॉफी सोच कर कुछ खास मज़ा नहीं आता...चलो ग्रीन टी ही सोच लो..ना...होपलेस...हाँ इलायची वाली कॉफी...शायद वो अच्छी लगे. पर देखो न मौसम कितना अच्छा है...ठंढी हवाएं चल रही हैं अभी थोड़ी देर में बारिश होने लगेगी...और देखो न बिस्वजीत कितना अच्छा लग रहा है...डार्क कलर की शर्ट है...क्या लगता है? काली है कि नेवी ब्लू? देखो न माथे पर वो बदमाश सी लट...जब वो अपने बाल पीछे करता है मैं अनायास तुम्हारे बारे में सोचने लगती हूँ...तुम किसी दिन किसी और शहर में किसी नयी बालकनी में बारिश का इन्तेज़र करते हुए...अचानक मुझे याद करते हुए ऐसे ही लगोगे न? या शायद उससे ज्यादा खूबसूरत लगोगे...खूबसूरत...हद है ऊपर वाले की बेईमानी...लड़के के ऊपर इतना टाइम बर्बाद किया...तुम इतने अच्छे न भी दिखते तो भी तो मुझे इतने ही अच्छे लगते न रे.

पता नहीं कहाँ हो आज...क्या कर रहे हो...सुबह से रबिन्द्र संगीत सुन रही हूँ...तुम्हारी बड़ी याद आ रही है...रबिन्द्र संगीत सुनने से बचपन की यादें भी अपनी जगह मांगती है तो तुम्हारी याद थोड़ी कम तकलीफदेह हो जाती है. इसी चक्कर में ये विडियो दिखा यूट्यूब में...देखो न...सिंपल से साईकिल शॉप में है पर कितना अच्छा लग रहा है सब कुछ...तुम थे न लाइफ में तो ऐसे ही सब अच्छा लगता था...झूला याद है तुम्हें? घर की छत पर एक तरफ गुलमोहर और एक तरफ मालती के अनगिन फूल खिले थे...कितना सुन्दर लगता था न छत? पर सुनो...मेरे बेस्ट फ्रेंड तो रहोगे न? कि प्यार वगैरह तो फिर से किसी से हो जाएगा आई एम स्योर पर दोस्ती इतनी आसानी से तो नहीं होती है. तुम्हारे इतना अच्छा मुझे कोई नहीं लगता...मुझे इतनी अच्छी तरह से समझता भी तो कोई नहीं है.

तुम उदास एकदम अच्छे नहीं लगते...फॉर दैट मैटर...उदास तो मैं भी अच्छी नहीं लगती...तो एक काम करते हैं न...उदास होना किसी और जन्म के लिए मुल्तवी करते हैं...ओके? उस जन्म में एक दूसरे से शादी कर लेंगे और भर जिंदगी एक दूसरे को तबाह किये रहेंगे...खूब रुलायेंगे...मारा पीटी करेंगे...कैसा प्लान है? जाने दो न...मौसम उदास हो जाएगा मेरे शहर से तुम्हारे शहर तक. दो शहर एक साथ रोने लगें तो उन्हें चुप करने को दिल्ली के वो सारे खँडहर उठ कर चले आयेंगे जहाँ हमने साथ रबिन्द्र संगीत सुनते हुए कितने दिन बिताए हैं. एक काम करती हूँ न...प्लेस्लिस्ट बना के भेज देती हूँ तुम्हारे लिए...वही गाने सुनना...वरना गानों में तुम्हारा टेस्ट तो एकदम ही खराब है...और प्लीज अपनी वो दर्दीली गजलें मत सुनना...उन्हें सुनकर अच्छे खासे मूड का मूड खराब हो जाता है.

बहुत याद आ रही थी तुम्हारी...पर तुम्हें कहाँ चिट्ठी लिखूं तो मन भटका रही थी सुबह से गाने वाने सुन के...अब तकलीफ थोड़ी कम है...ये वाला गाना रिपीट पर चल भी रहा है...तुम भी सुनो...अच्छा लगे तो अच्छा...वरना तुम्हारे समर ऑफ सिक्सटी नाइन से भी दर्द कम होता है...बशर्ते उसकी बीट्स पर खूब सारा डांस कर लो. मेरी जान...ओ मेरी जान...तुम्हारे शहर का मौसम कैसा है? मेरी याद जैसा खूबसूरत क्या?

05 May, 2012

जवान जानेमन, हसीन दिलरुबा...

ई बैटमैन की हेयरस्टाइल है...कैसी है?
कल बहुत दिन बाद मैंने शोर्ट बाल कटाये...१०थ तक मेरे बाल हमेशा छोटे रहे थे पर उसके बाद लंबे बालों का शौक़ था तो कभी छोटे करवाए नहीं...पर होता है न, मन एकरसता से ऊब जाता है, उसमें मैं तो और किसी चीज़ पर टिकती ही नहीं...बहुत दिनों से सोच रही थी पर लंबे बाल इतने सुन्दर थे कि कटाने में मोह हो जाए, हर बार पार्लर सोच के जाऊं कि इस बार शोर्ट करवा लूंगी और ट्रिम करवा के लौट आऊँ. कल जेन को मेसेज किया कि कोई अच्छा पार्लर बताओ, उसने जो पता बताया वो गूगल मैप पर कहीं मिल ही नहीं रहा था...तो हम थक हार के अपने पुराने वाले पार्लर जाने ही वाले थे कि उसका मेसेज आया कि जाने के पहले फोन कर लेना हम एड्रेस समझा देंगे, एकदम सिंपल रास्ता है.

मैं 'कंट्रोल फ्रीक' की श्रेणी में आती हूँ...जब तक चीज़ें मेरे हाथ में हैं मैं खुश रहती हूँ...पर थोड़ा सा भी कुछ मेरे कंट्रोल से बाहर हुआ नहीं कि धुक धुकी शुरू...कार ड्राईव करने में यही होता है...किचन में कोई और खाना बनाये तो यही होता है...बेसिकली मुझे हर चीज़ में टांग अड़ानी होती है. डेंटिस्ट, ब्युटिशियन, कार वाश...ऐसी जगहों पर मेरी हालत खराब रहती है. सबसे डरावनी चीज़ होती है किसी ऊँची कुर्सी पर बिठा दिया जाना ये कहते हुए कि अब सब भूल जाओ बेटा और भगवान का नाम जपो.

तो हम बाल कटाने के लिए ऐसे ही तैयार होते हैं जैसे बकरा कटने के लिए...इन फैक्ट कल जेन फोन करके बोली भी कि 'रेडी फॉर द बुचर'...खैर. ले बिलैय्या लेल्ले पार के हिसाब से हम एक गहरी सांस लिए और बैठ गए कुर्सी पर. फैशन की ज्यादा समझ तो है नहीं हमें तो बस इतना कहा कि बाल छोटे कर दो...कंधे से ऊपर...उसने पूछा आगे की लट कितनी बड़ी चाहिए तो बता दिया कि कान के पीछे खोंसी जा सके इतनी बड़ी. बस. फिर चश्मा उतार कर वैसे भी हम अंधे ही हो जाते हैं...आईने में बस एक उजला चेहरा दिखता है और काले बाल. डीटेल तो कुछ दिखती नहीं है. फिजिक्स का कोई तो कोश्चन भी याद आया जिसमें आईने की ओर दौड़ते आदमी का स्पीड निकालना था उसके अक्स के करास्पोंडिंग या ऐसा ही कुछ पर ध्यान ये था कि आईने के इस तरफ जितनी दूरी होती है...आईने के उस तरफ भी इतनी ही दूरी होती है. तो मुझसे मेरा अक्स बहुत दूर था. यही फिलोस्फी रिश्तों पर भी अप्लाय होती है...बीच में एक आइना होता है...हम अपने ओर से जितनी दूरी बनाते हैं, सामने वाला भी उतनी ही दूर चला जाता है हमसे...हम पास आते हैं तो वो जिसे कि हम प्यार करते हैं...हमारा अक्स, वो भी एकदम पास आ जाता है.

कुर्सी पर बैठे बुझा तो रहा ही था कि बाबु घने लंबे बाल गए...छे छे इंच काट रही थी कैंची से...किचिर किच किच...हम बेचारे अंधे इंसान...सोच ये रहे थे कि कुणाल को बताये भी नहीं हैं...छोटे बाल देख कर कहीं दुखी न हो जाए...ब्युटिशियन हमारे बाल की खूब तारीफ़ भी किये जा रही थी कि कितने सुन्दर बाल हैं...हम फूल के कुप्पा भी हुए जा रहे थे. हालाँकि बैंगलोर के पानी में बालों की बुरी हालत हो गयी है फिर भी फैक्ट तो है...बाल हमारे हैं खूब सुन्दर...इसके साथ वो हमको बिहार की सुधरी स्थिति पर भी ज्ञान दे रही थी...पार्लर में लोग हिंदी में बात कर रहे थे...ब्युटिशियन हिंदी में बात कर रही थी...आइना में कुछ दिख नहीं रहा था...कुल मिला कर खुश रहने वाली जगह थी. हमको आजकल अक्सर लगने लगा है कि बिना चश्मे के चीज़ें ज्यादा सुन्दर दिखती हैं.

 हम तो कहते हैं, हमरी वाली बेटर है बैटमैन से :)
खैर...खुदा खुदा करके हेयरकट समाप्त हुआ और हमने चश्मा चिपकाया...आईने में छवि निहारी...वाकई उम्र  कम लग रही थी...एकदम जैसे कान्वेंट में लगते थे(दिल के बहलाने को...) वैसे ही छुटंकी लग रहे हैं ऐसा खुद को समझाया...फिर बाइक उठायी और निकल लिए जेन से मिलने...अरे इन्स्टैंट फीडबैक चाहिए था न कि कैसे लग रहे हैं...पति को तो जानते हैं...जब तक बोलेंगे नहीं, नोटिस भी नहीं करेगा कि बाल कटाये हैं. फ़िल्टर कॉफी टिकाई गयी...तारीफ भी की...कि बहुत कूल हेयरकट है और मैं बहुत यंग दिख रही हूँ. बस हम क्या हवा में उड़ने लगे तभी से.

उसे एक बच्चों की पार्टी के लिए गिफ्ट खरीदना था...तो हम एक टॉय शॉप गए, चार तल्लों की बड़ी सी दुकान जिसमें सिर्फ खिलोने. दो घंटे हम उधर ही अटक गए...एक ठो बैटमैन का बड़ा मस्त सा गुल्लक ख़रीदे...उसमें हम अब अपना पेन सब रखेंगे. घूम फिर के घर आये वापस. कुणाल, साकिब और अभिषेक दस बजे के आसपास घर लौट रहे थे फिर प्लान हुआ कि बाहर खाते हैं तो हम लोग 'खाजा चौक' पहुंचे. जैसा कि एक्सपेक्टेड था पतिदेव को खाने और मेनू से ऊपर बीवी की हेयरस्टाइल में कोई इंटरेस्ट नहीं दिखा...तो बताना पड़ा कि बाल कटाये हैं. कुछ स्पेशियल कोम्प्लिमेंट भी नहीं मिला...हम बहुत्ते दुखी हो जाते लेकिन तक तक एकदम लाजवाब पनीर टिक्का और भरवां तंदूरी मशरूम आ चुके थे...तो उदास होना मुल्तवी कर दिया.

आज छः बजे भोर के उठे हुए हैं...ऐवें मन किया तो पोस्ट चिपकाये देते हैं...वैसे भी वीकेंड में कौन ब्लॉग पढता है.

04 May, 2012

जे थूरे सो थॉर...बूझे?

ऊ नम्बरी बदमास है...लेकिन का कहें कि लईका हमको तो चाँद ही लागे है...उसका बदमासी भी चाँदवे जैसा घटता बढ़ता रहता है न...सो. कईहो तो ऐसा जरलाहा बात कहेगा कि आग लग जाएगा और हम हियां से धमकी देंगे कि बेट्टा कोई दिन न तुमको हम किरासन तेल डाल के झरका देंगे...चांय नैतन...ढेर होसियार बनते हो...उ चोट्टा खींस निपोरे हीं हीं करके हँसता रहेगा...उसको भी बहुत्ते मज़ा आता है हमको चिढ़ा के.

एक ठो दिन मन नै लगता है उसे बतकुच्चन किये बिना...उ भी जानता है कि हम कितना भी उ थेत्थर को गरिया लें उससे बतियाए बिना हमरा भी खानवे नै पचेगा. रोज का फेरा है...घड़ी बेरा कुबेरा तो देखे नहीं...ऑफिस से छुट्टी हुआ कि बस...गप्प देना सुरु...जाने कौन गप्प है जी खतमे नै होता है. कल हमरा मूड एकदम्मे खराब था...उसको बोले कि हम अब तुमसे बतियायेंगे नहीं कुछ दिन तक...मूड ठीक होने दो तब्बे फोनियायेंगे...लेकिन ऊ राड़ बूझे तब न...सेंटी मारेगा धर धर के और ऊपर उसका किस्सा सुनो बारिस और झील में लुढ़कल चाँद का...कोई दिमागे नै है कि कौन मूड में कौन बात किया जाता है...अपने राग सुनाएगा आप जितना बकझक कर लीजिए हियाँ से. कपार पे हाथ मारते हैं कि जाने कौन बेरा ई लड़का मिला था जो एतना माथा चढ़ाये रखे हैं...इतने दुलरुआ तो कोइय्यो नहीं है हमरा.

कल बतियावे से जादा गरियावे का मन करे...और उसपर छौड़ा का लच्छन एकदम लतखोर वाला कि मन करे कि कोई दिन न खुब्बे लतियायें तुमको...एकदम थूर दें...थूरना बूझते हो न बाबू? इधर ऊ पिक्चर देख के आये 'अवेंजर्स' तुमको तो अंग्रेजी बुझायेगा नहीं तो तुम जा के उसका हिंदी वाला देखना...देखना जरूर...काहे कि उसमें एक ठो नोर्स देवता है...'थॉर' उसके पास एक हथोड़ा होता है जिससे ऊ सबको थुचकते रहता है. हमको लगता है हो न हो ई जो भाईकिंग सब था कभी न कभियो बिहार आया होगा...यहाँ कोई न कोई थूरा होगा ऊ सबको धर के...तो ई जो थॉर नाम का देवता है न...असल में कोई बिहारी रहा होगा...जे थूरे सो थॉर...बूझे? देखो केतना बढ़िया थ्योरी है. त बूझे ना बाबू जो दिन हत्थे चढोगे न बहुत पिटोगे.

राते में ई सब प्रेम पतिया तोरे लिखने के मन रहे बाबू लेकिन का है कि सूत गए ढेर जल्दी...कल मने बौराये हमहूँ निकल गए थे न घर से बाहर...भर दुपरिया टउआते रहे थे, गोड़ दुखाने लगा, खाना उना खा के चित सूत गए सो अभी भोर में आँख खुला है. कल का डीलिंग दे रहे थे जी...अंग्रेजी में बात करो, काहे कि हमको अपने जैसन बूझते हो का...भागलपुरी नै आता है तो अंग्रेजीयो में पैदल रहेंगे का...बहुत बरस पहले सीरी अमिताभ बच्चन जी कहे गए हैं से हम भी कोट करे देते हैं...आई कैन वाक इंग्लिस, आई कैन लाफ इंग्लिस, आई कैन रन इंग्लिस...बिकोज इंग्लिस इज अ भेरी फन्नी लैंगुएज.'

बाबु दुनिया का सब सुख एक तरफ और एक बिहारी को बिहारी में गरियाने का सुख एक तरफ...का कहें जी कल तुमसे बतिया के मन एकदम्मे हराभरा हो गया...वैसा कि जैसा पवन का कार्टून देख के हो जाता है...एकदम मिजाज झनझना गया...सब ठो पुराना चीज़ याद आने लगा कि 'लटकले तो गेल्ले बेट्टा' से लेकर 'ले बिलैय्या लेल्ले पर' तक. गज़बे मूड होई गया तुमसे बतिया के...कि दू चार ठो और दोस्त सब को फोन करिये लें...खाली गरियाये खातिर...कि मन भर गाली उली दे के फोन धर दें कि बहुत्ते दिन से याद आ रहा था चोट्टा सब...ढेर बाबूसाहब बने बैठे हो...खुदे नीचे उतरोगे चने के झाड़ से कि हम उतारें? सब भूत भगैय्ये देते कि फिर दया आ गया...बोले चलो जाने देते हैं...चैन से जी रहा है बिचारा सब.


लेकिन ई बात तो मानना पड़ेगा बाबू...मर्द का कलेजा है तोहार...हमको एतना दिन से झेलने का कूव्वत बाबु...मान गए रे...छौड़ा चाहे जैसन चिरकुट दिखे...लड़का...एकदम...का कहें...हीरा है हीरा.

चलो...अब हमरा फेवरिट वाला कार्टून देखो...जिससे एकदम्मे फैन बन गए थे बोले तो पंखा बड़ा वाला कि एसी एकदम से पवन टून का...और बेसी दाँत मत चियारो...काम धंधा नहीं है तुमको...चलो फूटो!

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