23 February, 2010

मेरी कोई सजा हो

कहीं से कोई आसमां टूटे, कहर बरपा हो
तुम बिन जी रही हूँ मेरी कोई सजा हो

आतिशें शाम को सुलगाएं, सूरज जलता रहे
घर जाने के रास्ते में रुकता, थमता जलजला हो

भूल जाऊं सारे शब्द, खो जाएँ किताबें मेरी
दर्द टूट के उभरे और लिखना न आता हो

हाथों में उभर आये टूटी कई लकीरें
इन रास्तों में मंजिल का कोई पता ना हो

8 comments:

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  2. इसे में बहुत करीब से महसूस कर रहा हूँ....

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  3. इसकी बहुत जरुरत थी... आखिर हफ्ते हो गए थे

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  4. कहीं से कोई आसमां टूटे, कहर बरपा हो
    तुम बिन जी रही हूँ मेरी कोई सजा हो
    अनोखी सोच

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  5. तुम बिन जी रही हूँ मेरी कोई सजा हो .nice

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  6. दर्द टूट के उभरे और लिखना न आता हो..............बहुत ही खुबसुरत पंक्तिया हैं ये ,.....वाह

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  7. भूल जाऊं सारे शब्द, खो जाएँ किताबें मेरी
    दर्द टूट के उभरे और लिखना न आता हो
    ओह ये तो बहुत बडी सजा हो जायेगी। बहुत अच्छी प्रस्तुति है शुभकामनायें

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  8. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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