30 October, 2008
आज के दौर में...
हमने अक्सर दीवारों को अपना हाल सुनाया है
गली गली सन्नाटे घूमें कैसी दिवाली कैसी ईद
संगीनों को कहाँ पता कौन अपना कौन पराया है
सहमा सहमा दिन होता है और दहशत में जाती रात
पुलिस ने उसके बेटे को कल घर में घुस के उठाया है
आपस में ही लड़ जाएँ तो रोकेगा आतंकी कौन
हममें से ही कुछ लोगो ने नफरत का बीज लगाया है
बचपन में तो पढ़ा अमन का पाठ सभी ने साथ साथ
क्यों आखिर इस उम्र मेंआकर सारा प्यार भुलाया है
आग लगी है अपने वतन में कैसी बुझे बतलाओ कोई
गाँधी जैसा कोई मसीहा कहाँ अभी तक आया है
बनकर एक आवाज उठाना होगा हमको नींद से अब
जब जब जागी है जनता तब ही इन्किलाब आया है
23 October, 2008
माँ की बरसी
सुबह ब्राह्मण भोजन करा दिया
दान दक्षिणा भी दे दी
पर भगवान के सामने सर नहीं झुकाया
आज भी नाराज हूँ उनसे मैं
काश तुम होती मम्मी
तो देखती
की तुम्हारी बेटी बड़ी हो गई है
और खाना बहुत अच्छा बनाने लगी है
कहते हैं ब्राह्मण को जो खिलाओ
वो ऊपर वाले को मिलता है
पर संतोष नहीं हुआ
काश तुम्हें बिठा के खिला पाती
तुम देख पाती
तुमने जितना सिखाया
मैंने याद रखा है
सब कुछ
छौंक से ले कर
मसालों तक
काश तुम होती मम्मी
तो अभी कुछ दिन और मेरा बचपन रहता
काश तुम होती मम्मी
तुम्हारी बेटी को एक साल में
बड़ी नहीं होना पड़ता...
20 October, 2008
चेतना
पूरी की पूरी पिघल कर
ख्वाहिश बन गई थी
इश्वर ने
तुम्हारे सांचे में मुझे ढाल दिया
जब तक मैं तुझमें नहीं होती हूँ
तू खोखला होता है
और जब तक तेरी बाहें मुझसे जुदा
मैं असुरक्षित
नियति नहीं थी ये
एक सोच का सार्थक होना था
सृजन का उद्देश्य निर्धारण
इस सोच से हुआ था
अग्निशिखा बन गया अंतस
और उचक कर छू लिया
उस ज्योति को
जिसमें से आत्माएं निकलती हैं
प्रकाश, आँच, तप, तेज
सब मिल गए
ताकि तू बन सके मेरा सांचा
ताकि आकार ले सके प्रकृति
क्या तुझे याद नहीं
मैं प्रकृति हूँ तू पुरूष
रचना...
17 October, 2008
हमसे रूठा न करो...
रूठ कर नहीं जाते हैं घर से
सुबह सुबह
तुम्हारे साथ चली जाती है
घर से हवा
दम घुटने लगता है
अपने ही घर में
खामोश हो जाती है
डाल पर बैठी गौरैया
मुरझा जाते हैं
रजनीगंधा के सारे फूल
गले में अटक जाता है
रोटी का पहला कौर
ख़त्म हो जाता है
घर का सारा राशन पानी
कीलें उग आती हैं
सारे फर्श पर
बारिश होने लगती है
कमरे के अन्दर
आरामकुर्सी पर पसर जाता है
कब्रिस्तान का वीराना
एक दिन ही होती है
इंतज़ार की उम्र
शाम होते होते
रूठ जाती हैं साँसे.
15 October, 2008
वो बारिशें...
कभी देखा है चाँद को गुलमोहर की पत्तियों पर फिसलते?
खास तौर से अगर वो पूर्णिमा का चाँद हो...
जानती हूँ तुमने देखा नहीं होगा
तुम सड़क पर सामने देख कर चलते हो
न की ऊपर झूलती गुलमोहर की टहनियां...
पत्तों में छिपी बारिश की बूँदें
हवा के झोंके से कैसे नन्ही बारिश ले आती हैं
मुझे तुम्हारी थोड़ी सी याद आ जाती है...
एक फुदक में सड़क के पार भागती है गिलहरी
मैं जोर से ब्रेक मारती हूँ
दिल्ली के पुराने किले में रूकती है गाड़ी...
झील में बोटिंग करते हुए खिलखिलाते हैं
कुछ अनजान चेहरे
धुंधले...वक्त और दूरी के कारण...
याद आती है वो पहली बारिश
जब पहली बार तुम्हारे साथ बाईक पर बैठी थी
और तुमने गिरा दिया था...
घर जा कर गाड़ी पार्क करती हूँ
और टहलने निकल जाती हूँ
आई पॉड पर गाना बज रहा है...
"मौसम है आशिकाना...
ऐ दिल कहीं से उनको
ऐसे में ढूंढ लाना, ऐसे में ढूंढ लाना...
13 October, 2008
सवाल...जवाब नहीं.
जाने मेरे कॉलेज के टीचर्स के कारण या फ़िर मेरी मित्र मंडली ऐसी रही कि मुझे सवाल करने की बहुत बुरी आदत लग गई। और सवाल भी ऐसे वैसे नहीं, कुछ ऐसी बुनियादों चीज़ों पर कि सुनने वाले का अक्सर माथा ख़राब जो जाए, और मेरे केस में अक्सर सुनने वालियों का हाल बुरा होता था।
अब मैंने देखा कि एक दिन बात हो रही थी कि ये आजकल की लड़कियों को देखो, शादीशुदा होकर भी कुंवारियों जैसी दिखती हैं, सिन्दूर कहीं छुप के लगा है, न बिंदी न चूड़ी। अब मुझे हो गई कोफ्त बिन मतलब के तंग अदा दिए बहस में...
क्यों जरूरी है कि लड़की एक किलो सिन्दूर लगा के आधा मीटर लंबा मंगलसूत्र लटकाए...ताकि मीलों दूर से नज़र आ जाए कि वो शादीशुदा है। लड़कों पर ऐसा कुछ भी नियम लागू क्यों नहीं होता, उनके लिए शादी का एक भी चिन्हं क्यों नहीं है। और किसी लड़की के लिए ये नियम इतने जरूरी क्यों हैं। थोडी सी flexibility क्यों नहीं मिलती लड़कियों को। और जहाँ मिल रही है अगर वो अपने हिसाब से जी रही है तो सब के पेट में इतना दर्द क्यों होने लगता है।
इस समाज से मुझे जाने क्यों बड़ी खुन्नस रही है हमेशा से, देखती आई हूँ न कि इसके सारे नियमों का भर हम लड़कियों को ही उठाना पड़ता है। मेरे जेनरेशन कि किसी भी लड़की से पूछ लो अगर किसी वर्ड से सबसे ज्यादा चिढ है तो वो है "compromise" और यहाँ कहीं भी उससे पुछा तक नहीं जाता है। पता नहीं हम किस शताब्दी में जी रहे हैं कि अब भी माँओं को बेटियों को सिखाना पड़ता है कि सबसे हिसाब से एडजस्ट करना चाहिए। आख़िर बाकी लोग थोड़ा सा एडजस्ट क्यों नहीं करते।
और क्या करें हम जैसी लड़कियां जब शीला दीक्षित तक कहती है कि रात को निकलने कि जरूरत क्या है। अब कोई शीला दीक्षित को समझाए, हर इंटरव्यू में ये सवाल किया जाता है कि रात को देर तक काम होने में रुकने पर कोई दिक्कत तो नहीं है तुम्हें। अब कौन लड़की कहेगी कि दिक्कत है और मौका जाने देगी...कौन कह सकता है कि दिक्कत नहीं होगी अगर आप ओफ्फिस से घर तक मेर सुरक्षा का इन्तेजाम कीजिये या जिम्मेदारी लीजिये। घर से बाहर अपने दम पर निकलती है हम लड़कियां, हर कदम पर एक लडाई, कभी अपनों से कभी बेगानों से, कभी system से, कभी समाज से।
और जाने कितनी कितनी बार अपने आप से, सिर्फ़ ख़ुद को जिन्दा रखने कि खातिर। सिर्फ़ इसलिए कि माँ बेटी बहन प्रेमिका या पत्नी के अलावा भी हम कुछ हैं....मेरा ख़ुद का भी एक अस्तित्व है।
मेरे ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड, पासपोर्ट पर मेरी माँ न नाम क्यों नहीं होता, कम से लिखने का आप्शन तक क्यों नहीं मिलता।
बुनियादी सवाल...विद्रोही तेवर...फ़िर भी ये समाज मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता...क्यों....क्योंकि मैं आत्मनिर्भर हूँ, आश्रिता नहीं।
काश मैं अपने तरफ़ कि हर लड़की को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बना सकती, अपनी जगह लेने के लिए तैयार कर सकती। हम जब कॉलेज में थे तब हामारे टीचर्स कहते थे, यहाँ लौट कर आना। तुम्हारे जैसे कितनी लड़कयों को तुम्हारी जरूरत होगी।
मेरे बिहार...मैं लौट कर आउंगी, एक दिन जरूर आउंगी.
10 October, 2008
आखिरी मुलाकात
कुछ ऐसा ही है बाज़ार का ये गाना "देख लो आज हमको जी भर के"। हालात, वक्त और बिछड़ने का अंदाज़ जुदा होने के बावजूद सुनते ही कोई पहचानी गली याद आ जाती है, गीली आँखें याद आती हैं, और एक शहर जैसे जेहन में साँसे लेने लगता है फ़िर से।
इश्क होता ही ऐसा है, गुज़र कर भी नहीं गुज़रता, वहीँ खड़ा रहता है। जब कोई ऐसा गीत, कोई ग़ज़ल पढने को मिलती है तो जैसे एक पल में मन वहीँ पहुँच जाता है। जहाँ जाना तो था पर लौट कर आना नहीं था। वो आखिरी कुछ लम्हे जब वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश होती है, किसी को आखिरी लम्हे तक ख़ुद से दूर जाते देखना, अपनी मजबूरियां जानते हुए, ये जानते हुए कि वो हँसते खिलखिलाते पल अब कभी नहीं आयेंगे।
वो आखरी मुलाकात...कुछ ऐसी बातें जो कही नहीं जा सकीं, एक खामोशी, एक अचानक से आई हुयी दूरी...और वही कम्बक्त वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश।
07 October, 2008
उमड़ घुमड़ ख्याल
हमारे देश में समस्या की जड़ को समाप्त क्यों नहीं करते?
ख़बर आई की अब IIT faculty में भी रिज़र्वेशन लागू होने वाला है। इस मुद्दे पर अलग अलग लोगों ने अपनी राय दी। मुझे तकलीफ सिर्फ़ इस बात से है की ये सरकार के हिसाब से निम्न तबके .लोग, जो की बिना रिज़र्वेशन अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति नहीं सुधर सकते...इनके लिए सबसे निचली इकाई पार काम क्यों नहीं होता। निचली इकाई यानि स्कूल...प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति को सुधरने की दिशा में कोई काम क्यों नहीं होता। अगर ये अल्पसंख्यक पढाना ही चाहते हैं तो क्यों नहीं स्कूलों में इनकी नौकरी लगायी जा रही रही है। iit जैसे संस्थान की हालत क्यों ख़राब की जा रही है।
मुझे गुस्सा इस बात का भी है की सरकार सही तरीके से कोई काम क्यों नहीं करती, इतनी सारी समितियां बनती हैं पर एक आम आदमी के पास ये तस्वीर क्यों नहीं है की रिज़र्वेशन से कितने प्रतिशत लोगो का फायदा हुआ है। कितने लोगों का नुक्सान हुआ है। क्या वाकई जिन लोगो को रिज़र्वेशन मिलता है वो इसके हक़दार हैं और उनका क्या जिन्हें इसकी कोई जरूरत नहीं है पर फ़िर भी फायदा उठा रहे हैं।
कोई सन्सुस क्यों नहीं हुआ है ताकि ये पता चले की अच्तुअल्ली भारत में SC, ST and OBC जनसँख्या के कितने प्रतिशत हैं। अगर थोडी पारदर्शिता बरती जाए तो इसके ख़िलाफ़ आने वाली कितनी ही कड़वाहटों से बचा जा सकेगा। मैं रिज़र्वेशन के सख्त ख़िलाफ़ हूँ, इसके पीछे कारन ये भी है कि मुझे इसका कोई अंदाजा नहीं है कि इससे कितने लोगों का फायदा हुआ है, अगर हुआ है तो। मैं देखती हूँ कि वो दोस्त जो साथ में पढ़ रहे हैं, कमोबेश एक ही जैसे घरों में पल बढ़ रहे हैं, सिफर इसलिए कि एक कि जाति अलग थी उसे अच्छी जगह admission मिल रहा है। और सिर्फ़ इसलिए कि दूसरा जनरल कातेगोरी का है उसे कहीं एड्मिशन नहीं मिला हालाँकि वह उससे पढने में बेहतर था। तब ये भेद भाव लगता है औरकहीं से न्यायोचित नहीं लगता।
क्या एक बेहतर स्कूल का स्य्स्तेम नहीं बनाया जा सकता जहाँ हर जाति के बच्चों को एक सी अच्छी पढ़ाई मिले, तक अगर ये बच्चे रिज़र्वेशन से भी जाते हैं तो भी पढने में अच्छे भी होंगे और किसी संस्थान का स्तर इनके आने से नहीं गिरेगा। तब कहीं जाके एक सामान समझ कि स्थापना हो पाएगी। ये ऊपर ऊपर रिज़र्वेशन देने से थोड़े कुछ होगा। बैसाखियों पर कब तक चल सकता है कोई भी समाज, चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक।main
main kabhi एक स्कूल तो जरूर खोलूंगी। जहाँ पर अच्छी पढ़ाई होगी, चाहे किसी भी समाज, किसी जाति या धर्म या लिंग का हो, वहां हर बच्चे को एक सा पढने लिखने और जीने कि आजादी होगी। एक ऐसी जगह जहाँ हर बच्चे को ये सिखाया जाए कि वह खास है और समाज में उसके सार्थक योगदान की जरूरत है। फ़िर इन्हें किसी पर निर्भर नहों होना पड़ेगा, रिज़र्वेशन पर भी नहीं। ये समझ में अपना स्थान ख़ुद बनायेंगे अपनी लगन और आत्मविश्वास से। एक दिन ऐसा आएगा...मैं लाऊंगी।
अंत में दिनकर की कुछ पंक्तियाँ
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
06 October, 2008
या देवी सर्वभूतेषु मातृरुपेन संस्थिता
इस बार...
पहली पूजा से ही दुर्गा माँ से नाराज़ हूँ, जो भगवान के सामने हाथ जोड़ दो अगरबत्ती दिखाती थी वो भी बंद कर रखा है। इतने दिन न पूजा की न सांझ दी, पूजाघर में जाना भी नहीं चाहती। शंख ला के रखा है, लिया तो यही सोच के था की दुर्गापूजा में बजाउंगी, पर छुआ तक नहीं है।
ये नाराजगी उनसे है या अपनेआप से मालूम नहीं। पर ऐसी अजीब घटनाओं के लिए तो मन इश्वर को ही जिम्मेदार मानता है, उन्ही से गुस्सा होता है। फ़िर लगता है की जाऊं तो जाऊं कहाँ, जब माँ नहीं है तो दुर्गा माँ ही से सारी बातें कह लूँ। त्यौहार के दिन कितना कुछ होता था, रोज पूजा, आरती और प्रसाद...कितनी तरह की सब्जी खास तौर से अष्टमी के दिन बनती थी। खाने का स्वाद अलोकिक होता था, माँ कहती थी त्यौहार के वक्त भगवान को भोग लगता है न, इसलिए खाने में इतना स्वाद आता है।
हर तरफ़ देखती हूँ, दोस्तों की मम्मी कभी उनके लिए कुछ बना के भेज रही है, कभी उनके बीमार पड़ जाने पर कितने नुस्खे बता रही है, कभी कपड़े भेज रही है। और हर त्यौहार पर सब घर जाने की बात कर रहे हैं। मैं कहाँ जाऊं, मेरा कोई घर नहीं, मुझे कोई नहीं बुलाता।
मुझे त्यौहार अच्छे नहीं लगते.
03 October, 2008
आतंक में सुबहें
इधर कुछ दिनों से सुबहें कुछ अजीब सी होती हैं। बेड से उठ कर अखबार उठाने जाने तक सच में इश्वर से प्रार्थना करती हूँ, कि भगवान आज कहीं ब्लास्ट न हुआ हो। आज फ़िर से खून में रंगी तसवीरें न दिखें सुबह सुबह। मेरे जीजाजी दिल्ली पुलिस में हैं, तो मैं उनसे भी बात कर रही थी कि ये अचानक क्या हो हो गया है, हर रोज़ कहीं न कहीं क्यों ब्लास्ट कर रहे हैं। उनके पास भी कोई जवाब नहीं था।
मैं सोच रही थी कि मेरी तरह कितने लोग इस डर में सुबह उठते होंगे कि कहीं कोई बम न फटा हो, पर उनके डर की वजह कहीं और गहरे होती हैं। मैं एक खास धर्म को मानने वालों कि बात कर रही हूँ, जिनको हर ब्लास्ट के बाद लगता है की कुछ निगाहें बदल गई हैं, अचानक लोगों की बातें थोडी सर्द हो गई हैं। कितना मुश्किल होता होगा न ऐसे जीना, सब कुछ हमारे जैसा होते हुए भी सिर्फ़ इसलिए की कुछ आतंकवादी इस धर्म के हैं उन्हें कितना कुछ झेलना पड़ता है।
आतंकवादी का क्या सच में कोई इमां, कोई धर्म होता है...क्या ये सब सिफर राजनीति नहीं है, एक गहरी साजिश जिसमें पहले रूस अमेरिका और अब कई जगह छोटे देश भी समस्या से जूझ रहे हैं। कल रात एक फ़िल्म देख रही थी, नाम तो याद नहीं पर उसमें एक डायलोग था "one man's terrorist is another man's freedom fighter"। फ़िर लगा की क्रन्तिकारी और आतंकवादी में कितना अन्तर होता है। कौन सा क्रन्तिकारी अपने किसी भी मकसद के लिए निर्दोषों की जान लेना सही समझता है, अगर मासूम बच्चो को अनाथ करके किसी का कोई उद्देश्य पूरा होता भी है तो is it worth it.
बरहाल मैं मूल मुद्दे से भटक गई, काफ़ी दिनों से सोच रही हूँ...
क्या बात है कि मुस्लिम हमारे साथ घुल मिल नहीं पाये हैं अभी तक। मेरी दादी को कोई मुस्लिम छू लेता था तो वो सर से nahati थी। मुझे याद है पापा के एक बड़े अच्छे दोस्त थे मुकीम, एक बार वो और भट्टाचार्जी अंकल साथ में घर आए, तो जैसा होता है दोनों ने पैर छुए दादी के। जब दोनों चले गए तो दादी ने पुछा कि क्या नाम था, तो पापा ने कह दिया कि भट्टाचार्जी और उसका छोटा भाई था।
और ये आज से तकरीबन दस साल पुरानी बात है, मैं ऐसे कई घरों को जानती हूँ जहाँ उनके खाने का बर्तन अलग होता था। मैं उस वक्त बहुत छोटी थी और मुझे आश्चर्य होता था कि ये अछूत वाला व्यवहार क्यों होता है। उन्हें रहने के लिए मकान ढूँढने में दिक्कत होती होगी, मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मैं जानती हूँ कि उन्हें कोई किरायेदार नहीं banana चाहता है। और ये सब हाल कि बात है
तो लगता है की इनमें रोष क्यों नहीं होगा, क्यों नहीं ये थोड़ा बरगलाने पर तैयार हो जाते होंगे. इन्हें सच में दिखता है की परायों की तरह हैं ये अपने देश में. नेता भी सिर्फ़ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं उनको. एक आम राय में उन्हें भरोसेमंद नहीं माना जाता है...ऐसा क्यों है.मैं एक ब्राह्मण परिवार से हूँ, भागलपुर तरफ़ से, मध्यमवर्गीय, देवघर और पटना में रही हूँ, मुझे नहीं पता की देश के अन्य हिस्सों में उनके साथ कैसा सलूक किया जाता है. पर जिस समाज में मैं रही हूँ उसमे बहुत जगह भेद भाव है. हालाँकि बहुत बदलाव आया है, जैसे की पापा के दोस्त मुस्लिम भी थे, और मुझे तो इससे कभी कोई फर्क ही नहीं पड़ा. ईद पर की सेवई मैं कभी नहीं छोड़ती थी. तो क्या आने वाली जेनरेशन ज्यादा आसानी से एक्सेप्ट करेगी उन्हें.
पर फ़िर मुझे लगता है...कहीं ऐसा तो नहीं की बहुत देर हो चुकी है. वो हमसे इतनी दूर जा चुके हैं की लौट आना सम्भव नहीं. की ये ब्लास्ट हर दिन होते रहेंगे छोटे छोटे शहरों में मौत बेमोल सडकों पर चीखती चिल्लाती रहेगी और घेत्तो में बस जायेंगे लोग. हर धर्म की अलग बस्ती, हर जाति का अलग मोहल्ला.
कभी कभी डर जाती हूँ...
मैंने इस पोस्ट में सिर्फ़ अपने ख्याल व्यक्त किए हैं, ये मेरा अनुभव है जिंदगी का. कईयों का अलग होगा मुझसे पर ये मेरी जिंदगी का हिस्सा है. मालूम नहीं पर नाज़ुक विषय है अगर मेरी बात से किसी को दुःख पहुँचता है तो अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ.