मेरी छत से उसकी बालकनी दिखती है. मैंने उसे कई बार आसमान में जाने क्या ढूंढते देखा है. वो लड़की भी अजीब सी है...खुद में हँसती, सोचती, उदास होती...शाम को उसका चेहरा उदास दीखता है, मालूम नहीं ये शाम के रंगों का असर है या कुछ और. उसे अक्सर फ़ोन पर बातें करते देखा है...बस देखा भर है क्योंकि उसकी आवाज कभी नहीं आती, हालाँकि बहुत कम अंतर है, कुछेक फीट का बस. कभी कभी उसकी हंसी अचानक से बिखर जाती है. वो जब भी हँसती है मुझे छत पर गेहूं सुखाती अपनी बहन याद आती है.
कल मैंने उसे पहली बार सिगरेट पीते देखा...पता नहीं क्यों झटका सा लगा. मैंने उसका चेहरा ध्यान से नहीं देखा है कभी. मुझे मालूम नहीं कि वो पास से कैसी दिखती होगी. मेरी छत से शाम के धुंधलके में बस कुछ कुछ ही दीखता है उसका चेहरा. एक आध बार सड़क पर चलते भी देखा है, शायद वो ही थी पर मैं पक्का नहीं कह सकता. उसके मूड का पता उसके बालों से लग जाता है...जब उसका मूड अच्छा होता है तो उसके बाल खुले होते हैं, इतनी उंचाई पर घर होने से हवा अच्छी आती है, और उसके बाल बिखरे बिखरे रहते हैं.
वो लाइटर से खेल रही थी, उसकी आँखों की तरफ लपकती आग डरा रही थी मुझे. अचानक से ऐसा लगा कि उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी हैं. ऐसा मुझे लगना नहीं चाहिए क्योंकि मैंने उसका चेहरा पास से कभी नहीं देखा है. मुझे ये भी लगा उसके बाल सफ़ेद हो गए हैं. याद करने की कोशिश करता हूँ तो ध्यान आता है कि मुझे इस घर में आये, साल भी तो बहुत बीत गए हैं. इतने सालों में उसने कब सिगरेट पीनी शुरू की मुझे पता ही नहीं चला.
डूबता सूरज, वो और मैं तीनो एक अजीब रिश्ते में बंधे हैं...जब भी कोई एक नहीं होता है तो लगता है दिन में कुछ अधूरा छूट गया है. आज लग रहा है कि कुछ टूट रहा है, उसकी बालकनी में लोहे के बड़े जंगले लग रहे हैं. शायद उसके बच्चे शहर से बाहर रहने लगे हैं, और उनके हाल में लौटने का कोई आसार नहीं आ रहा है. मुझे ये बालकनी के ग्रिल में रहते लोग हमेशा जेल के कैदी जैसे लगते हैं. आजकल उसकी हंसी कम सुनाई देती है. घर पर बहन भी कहाँ अब गेहूं सुखाती है, अब तो मार्केट में बना बनाया आटा मिलता है. गेहूं धोना, सुखाना कौन करता है अब.
कुछ दिनों से बादल छाये हैं, सूरज बिना बताये डूब जाता है. शाम का आना जाना पता ही नहीं चलता...पूरे पूरे दिन बारिशें होती हैं...वो कई दिनों से बालकनी में नहीं आई. मेरा दिन अधूरा सा बीतता है...रिश्ते कई तरह के होते हैं ना. मुझे लगता है सूरज भी उसको मिस करता होगा.
तेज दर्द हो रहा है सर में, संडे की पूरी दोपहर खट खट होती रही है, कहीं काम चल रहा है शायद बढई या मिस्तरी का...शाम एकदम खिली हुयी हुयी है. बस थोड़े से बादल और धुला नीला आसमान. मेरा बेटा आजकल शायद छुप के सिगरेट पीता है, शाम को छत पर क्या करता है रोज के रोज. हो सकता है किसी लड़की का कॉल भी आता हो. सोच रहा हूँ उससे बात कर लूं, बहुत दिनों बाद छत पर चढ़ता हूँ. अब कुछ भी शारीरिक काम करने में आलस भी बहुत आता है, थकान भी होती है.
छत पर उस बालकनी में उसकी बेटी है, शायद विदेश से पढाई पूरी कर के लौट आई है. ग्रिल भी गायब है, मिस्तरी इसी ग्रिल को हटाने का काम कर रहे थे सुबह से शायद. मेरा बेटा एजल पर एक बालकनी पेंट कर रहा है पेंटिंग आधी बनी है. उस लड़की के बाल खुले हैं और हवा में उसका हल्का नीला दुपट्टा लहरा रहा है.
khubsurat se ehsaaso ka khubsurti ke saath prastutikaran.....
ReplyDeletekunwar ji,
शीर्षक के लिए थ्री क्लैप.. इस बार तो तुमने फिल्म बना दी है एक एक सीन सामने चलते हुए देखा.. अपने सामने वाली बिल्डिंग की एक लड़की भी याद आ गयी.. मेरी किचन से दिखती है.. उसकी शक्ल मुझे दिखती नहीं बस उसके बाल उड़ते हुए दिखे है कई बार.. अक्सर रात में दो ढाई बजे के आस पास वो बालकनी सिगरेट पीते हुए मिल जाती है.. आज तुम्हारी पोस्ट में उसी लड़की का चेहरा मिला..
ReplyDeleteऔर हाँ तुम्हारी पोस्ट्स इन दिनों सोचालय की थीम से मेल खाती है.. और ये एक कोम्प्लिमेंट ही है..
खूबसुरत एहसास की चितेरी बनती जा रही हैं आप। दर्द भी सिमटा हुआ.....हर बिंब कुछ न कुछ याद दिला देता है।
ReplyDelete"जब भी कोई एक नहीं होता है तो लगता है दिन में कुछ अधूरा छूट गया है". ऐसे एहसासों को शब्दों में ढालने की काबिलियत हरेक में नहीं होती.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर. आभार.
साइलेन्ट रीडर का साइलेन्ट प्रादुर्भाव, साइलेन्ट अनसान ।
ReplyDeleteमैं भी हूं- सायलेंट रीडर...तुम्हारे पोस्टों का।
ReplyDeleteतुम्हारे शब्द गज़ब के इमेज क्रियेट करते हैं कि हुबहू जो तुम देख रही होती हो तुम्हारे पाठक भी देखते हैं।
समय के अंतराल को बिम्बों में बुनती ... प्रवाह के साथ ख़ूबसूरती से दो पीढ़ियों के परिवर्तन को शब्दों में समेटती पोस्ट!
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया चित्र उकेरा है, जैसे वो सामने वाली खिड़की और ग्रिल हमारे सामने ही हो और हम रोज देख रहे हों।
ReplyDeleteवित्तीय स्वतंत्रता पाने के लिये ७ महत्वपूर्ण विशेष बातें [Important things to get financial freedom…]
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ReplyDeleteवाह पूजा! क्या लिखा है... जबरदस्त.. मै इसे रिकर्सिव कहानी कहूगा जो खुद को ही बार बार लिखती है.. वायरस प्रोग्रामिग मे ऎसे रिकर्सिव प्रोग्राम्स लिखे जाते है..
ReplyDeleteऔर क्या कहू.. यहा आता हू तो लगता है कि सब तो तुम कह चुकी हो.. मै तो बस हर बार की तरह ’स्तब्ध’ होता हू और चला जाता हू वापस ’कुछ’ लेकर..
वैसे नोरा जोन्स का ’कम अवे विद मी’ भी कुछ कहता है :)
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteकहते है वक़्त लिखने वाले को भी बदल देता है......सफ्हो पर उसकी सूरत बदल जाती है...यूँ तो दोनों सूरतो से वाकिफ हूँ.........पर इस बदली सूरत में एक मेच्योरटी देख रहा हूँ......भली सी लगती है ....उसी पुरानी पूजा की आत्मा लिए हुए ..........
ReplyDeleteआज सुबह सुबह बारिश गिरी है ....किशोर रेडियो पे है."ओ हँसनी ".......गा..... रहे है ......मेरे घर के बहार कोई बालकोनी नहीं है .....फिर भी एक लड़की को देख रहा हूँ.....उसके बाल खुले है
love your post....
Hi Puja you have a very good blog that the main thing a lot of interesting and useful!hope u go for this website to increase visitor.
ReplyDeleteकहां से चुराया? सच बताओ पूजा! कोई ekए 27 साल की लड्की ऎसा लिख ही नहीं सक्ती!
ReplyDeleteकहां से चुराया? सच बताओ पूजा! कोई ekए 27 साल की लड्की ऎसा लिख ही नहीं सक्ती!
ReplyDeletenice one
ReplyDeleteअनुभूति की निजता के लिए आप चाहें तो इसे सायलेंट रीडर कहें,
ReplyDeleteमैंने इसे एक खूबसूरत और मुखरित जीवन के सदृश्य पाया है. एक गहरा अनुभव जो बिना किसी उच्चरित संबन्ध के उपजे हुए कोमल संवेदन और अपनेपन को मीठी और बेहद निजी पहचान देता है. ये कहानी बाहर या पड़ौस की बालकनी के बहाने अपने भीतर लौट आने की कहानी है. आस पास की चीजों को फिर से देखने की, ख़तों की खुशबू को फिर से बांचने की और कॉफ़ी को पीने से पहले उसे जी भर के देख लेने की भी कहानी है. इसकी रूमानियत से अपनी रूमानियत बचती है और उसकी सिगरेट से उड़ते हुए धुंए में कुछ खुद के भी भूले हुए अफ़सोस नुमाया होने के अहसास जी उठते हैं.
मैंने इसे दो बार पढ़ा था. इसमें एक पंक्ति "सूरज का भी दम फूलता होता, बेचारा भागेगा नहीं तो क्या करेगा." पर आकर दोनों बार लौट गया. जाने क्यों इसे खोल नहीं पाया. मुझे लगा कि बेहद सुंदर कविता से भी अच्छा प्रवाह यहाँ आकर ठोकर खा रहा है. आज पुनः पढ़ते हुए भी इसे कमजोर ही पाया. हमारे लेखन के समय बहुत से भाव एक साथ संचरित होते हैं उनमे से शायद कोई पहले का वाक्य हमसे चिपक जाता है और वहा निरंतर पीछा करता हुआ अपने लिए जगह बना लेता है शायद ऐसा कुछ इसके साथ हो सकता है.
आपकी ये कहानी मेरे खालीपन को भरती है उसे सजाती और संवारती है. मैं दिल आपको बधाई देना चाहता हूँ कि इन दिनों ऐसी कहानियां कम ही पढने को मिल रही है. ये सत्तर के दशक की रूमानी कहानियों का अधुनातन रूप है. ऐसी कहानियों का इंतजार बना रहेगा. आप बहुत सुंदर लिखती हैं.
gdya lekhan ki saili achchhi hai, ise vikasit karna hoga, isme koi sak nahi ki ahsas bade khubsurt hai.
ReplyDelete----
blidani patrakar blogspot.com
@किशोर जी, आपको जो पंक्ति खटक रही है,मुझे भी उतनी अच्छी नहीं लगी, पर उस बात को कहने के लिए उस वक्त कुछ और नहीं मिला मुझे. सोचा बाद में बदल दूँगी पर फुर्सत नहीं मिली है और शायद मिलेगी भी तो डाल नहीं पाउंगी. लिख के एडिट करने के मामले में थोड़ी कमजोर हूँ. कोशिश करुँगी कोई और पंक्ति डालने की.
ReplyDeleteयह पटना में पढ़ा था.
ReplyDeleteतालियाँ मेरी ओर से भी... दृश्य साकार हो गया...
वो जब भी हँसती है मुझे छत पर गेहूं सुखाती अपनी बहन याद आती है.
मैं शीर्षक इसे रखता..
bahut sundar pooja........itni pyari kahani likhne k liye...sachmuch mujhe asi hi hi choti choti aur chhoo lene vali kahani pasand hai.....shayad main is khule baalo vali ladki ko janti hoon....
ReplyDelete7 july 2010-2 january 2012...इतने दिनों तक भी कहानी की एक पंक्ति कहीं चुभी ही रही थी...आज बदल दी है...किशोर जी का शुक्रिया.
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