25 April, 2019

मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे

इन दिनों किंडल ऐप डाउनलोड कर लिया है और उसपर एक किताब गाहे बगाहे पढ़ती रहती हूँ। उसमें एक दूसरी किताब की बात है जो कि एक उपन्यास के बारे में। इस उपन्यास का नाम है lost city radio, एक रेडीओ प्रेज़ेंटर है जो युद्ध के बाद रेडीओ स्टेशन में काम करती है और सरकार के हिसाब से ख़बरें पढ़ती है… लेकिन उसका एक कार्यक्रम है जिसमें वो खोए हुए लोगों के नाम और उसके बारे में और जानकारियाँ देती है। युद्ध के बाद खोए हुए अनेक लोग हैं। पूरे देश में उसका प्रोग्राम सबसे ज़्यादा लोग सुनते हैं…उसका चेहरा कभी मीडिया के सामने उजागर नहीं किया जाता।

मैं इस उपन्यास को कभी पढ़ूँगी। लेकिन उसके पहले इसकी दो थीम्स जो कि मुझे बहुत आकर्षित करती हैं। आवाज़ें और खो जाना या तलाश लिया जाना। मैं आवाज़ों के पीछे बौरायी रहती हूँ। जितने लोगों को मैंने डेट किया, कई कई साल उनसे बात नहीं करने के बावजूद उनकी आवाज़ मैं एक हेलो में पहचान सकती हूँ… जबकि बाक़ी किसी की आवाज़ मैं फ़ोन पर कभी नहीं पहचान पाती, किसी की भी नहीं। लड़कों की आवाज़ तो मुझे ख़ास तौर से सब की एक जैसी ही लगती है। गायकों में भी सिर्फ़ सोनू निगम की आवाज़ पहचानती हूँ…वो भी आवाज़ नहीं, वो गाते हुए जो साँस लेता है वो मुझे पहचान में आ जाती है… पता नहीं कैसे। मुझे आवाज़ों का नशा होता है। मैं महीने महीने, सालों साल एक ही गाना रिपीट पर सुन सकती हूँ… सालों साल किसी एक आवाज़ के तिलिस्म में डूबी रह सकती हूँ।

बारिश की दोपहर मिट्टी की ख़ुशबू को अपने इर्द गिर्द महसूसते हुए सोचती रही, उसकी आवाज़ का एक धागा मिलता तो कलाई पर बाँध लेती…मौली… कच्चे सूत की। उसकी आवाज़ में ख़ुशबू है। गाँव की। रेत की। बारिश की। ऐतबार की। ऐसा लगता है वो मेरा कभी का छूटा कोई है। कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं…जन्मपार के रिश्ते। मैं उसके साथ का कोई शहर तलाशती हूँ। एक दिन न, मैं आपको समंदर दिखाने ले चलूँगी। मुझे सब मालूम है, उसके घर के सबसे पास कौन सा समंदर है, वहाँ तक जाते कैसे हैं। एक दिन मैं अपने उड़नखटोला पर आऊँगी और कहूँगी, ऐसे ही चल लो, रास्ते में कपड़े ख़रीद देंगे आपको। बस, अभी चल लो। फिर सोचती हूँ कि ऐसे शहर क्यूँ मालूम हैं मुझे। कि रात जब गहराती है तो बातें कितने पीछे तक जाती हैं। बचपन तक, दुखों तक, ख़ुशी के सबसे चमकीले लम्हे तक। दिन में हम वैसी बातें नहीं करते जैसी रात में करते हैं। मैं समंदर की आवाज़ में उलझे हुए सुनना चाहती हूँ उन्हें…कई कई पूरी रात। चाँद भर की रोशनी रहे और क़िस्से हों। सच्चे, झूठे, सब। मुझे उन लड़कों से जलन होती है जो उनके साथ रोड ट्रिप पर जाते हैं और पुराने मंदिर, क़िले, महल, दुकानें देखते चलते हैं। जो उन्हें गुनगुनाते हुए अपना पसंद का कोई गीत सुना पाते हैं। उनसे बात करते हुए लगता है कि ज़िंदगी कितनी छोटी है और उसमें भी कितना कम वक़्त बिताया हमने साथ। मगर कितना सुंदर। कि बाक़ी लोग पूरी उम्र में भी कोई ऐसी शाम जी पाते होंगे… मैं सोचती हूँ, पूछती हूँ और ख़ुद में ही कहती हूँ, कि नहीं। कि कोई दो लोग दूसरे दो लोगों की तरह नहीं होते। न कोई शाम, शहर या धुन्ध ख़ुद को कभी दोहराती है।

कभी कभी लगता है मैं खो गयी तो वे किसी से पूछेंगे नहीं मेरे बारे में, बस किसी बहुत ख़ुशनुमा सी शाम ज़रा से उदास हो जाएँगे। आज एक बहुत साल पहले पढ़ा हुआ शब्द याद आ रहा है। अरबी शब्द है, ठीक पता नहीं कैसे लिखते हैं, एक लिस्ट में पढ़ा था, उन शब्दों के बारे में जो अनुवाद करने में बहुत मुश्किल हैं…यकबरनी… यानी तुम मुझे दफ़नाना…

मुझे नहीं मालूम कि मुझे ऐसी छुट्टियाँ सिर्फ़ किसी कहानी में चाहिए या ऐसे लोग सिर्फ़ किसी क़िस्से में लेकिन उनसे बात करते हुए लगता है ज़िंदगी कहानियों जैसी होती है। कि कोई शहज़ादा होता है, किसी तिलिस्म के पार से झाँकता और हम अपनी रॉयल एनफ़ील्ड उड़ाते हुए उस तिलिस्म में गुम हो जाना चाहते हैं। 

hmmm

उससे बात करते हुए अक्सर माँ की याद आती है। माँ के जाने के साथ मेरे जैसी एकदम ज़िद्दी लड़की की सारी ज़िद एकदम हाई ख़त्म हो गयी। मैं इतनी समझदार हो गयी कि कभी किसी चीज़ के लिए किसी को दुबारा कहा भी नहीं। उसके जाने के हाई बाद मैं बहुत fiercely इंडिपेंडेंट भी हो गयी, किसी से ज़रा सी भी मदद माँगने में मेरी मौत आती है। मुझे कमज़ोर हो जाने से डर लगता है। मैं किसी से एक ग्लास पानी भी माँग नहीं सकती। पिछले साल पैर टूटने के बाद मैंने थोड़ा सा ख़ुद को बदला, कि अगर ख़ुद से नहीं कर सकते तो ज़रा सा किसी से पूछ सकते हैं…कमज़ोर होना इतना डरावना भी नहीं। 

बहुत साल पहले उसने एक दिन कहा था, ‘मैं तुम्हारा मायका हूँ, तुम अपने को इतना अकेला मत समझा करो। मैं काफ़ी हूँ तुम्हारे लिए’। मैं कैसी कैसी चीज़ें पूछती थी उससे। धनिया पत्ता की चटनी में डंडी डालेंगे या सिर्फ़ पत्ते। उस वक़्त जब कि मेरी पूरी दुनिया में कोई भी नहीं था, वो मेरी दुनिया में आख़िरी था जो मेरे साथ खड़ा था…last man standing. उसके लिए ये इतनी ही छोटी सी बात थी, जितनी मेरे लिए बड़ी बात थी। वो सिर्फ़ मेरे प्रति थोड़ा सा काइंड था लेकिन उसकी इस ज़रा सी काइंडनेस ने मेरी दुनिया सम्हाल रखी थी। आप कभी कभी नहीं जानते इक आपके होने से किसी की ज़मीन होती है पैर के नीचे। मैं उसे कभी भी ठीक समझा नहीं सकती कि वो क्या था, है। 

अंग्रेज़ी में एक शब्द होता है, pamper … हिंदी में जिसे लाड़ कहते हैं। या थोड़ा और बोलचाल की भाषा में, माथा चढ़ाना। मैं कई सालों से इस शब्द के दूसरे छोर पर हूँ। जिनसे भी मैंने कभी प्यार किया है, वे जानते हैं कि मेरे लिए सब कुछ उनके लिए होता है। शॉपिंग करने गयी तो अपने से ज़्यादा उनके लिए सामान ख़रीद लाऊँगी। चिट्ठियाँ, रूमाल, किताबें, अच्छे काग़ज़ वाली नोट्बुक, झुमके, बिंदी, फूल … सब कुछ होता है मेरे इस लाड़-प्यार-दुलार में। घर में जो छोटे हैं उन्हें इसी तरह मानती हूँ बहुत। उनकी पसंद की चीज़ मालूम होती है। उनके पसंद के रंग, उनके पसंद के फूल। मगर इस शब्द के दूसरी ओर नहीं रही मैं कितने साल से। कि ज़िद करके कह दूँ, मैं नहीं जानती कुछ, बस, चाहिए तो चाहिए। 

वो मुझे मानता है। पैम्पर करता है। इक छोटी सी चीज़ थी, कि शाम मेरे हिसाब से चल लो, घूम लो… और उसने हँस के कह दिया, लो, शाम तुम्हारे नाम… जो भी कहोगी, आज सब तुम्हारी मर्ज़ी का। आइसक्रीम खाओगी, ठीक है… यहाँ से फ़ोटो खींच दूँ, ठीक है…. ऊपर सीढ़ियों पर जाना है, ठीक है… बैठेंगे थोड़ी देर… ठीक है। कभी कभी जैसे ज़िंदगी भी कहती है, लो आज तुम्हारी सारी माँगें मंज़ूर। कि मैं वैसे भी बहुत छोटी छोटी चीज़ों में ख़ुश हो जाती हूँ। वो बिगाड़ रहा है मुझे। मैं कहती हूँ, सर चढ़ा रहे हो, भुगतोगे। वो हँसता है कि तुम क्या ही माँग लोगी। 

मैं एक दिन उसके गले लग के ख़ूब ख़ूब रोना चाहती हूँ कि मम्मी की बहुत याद आती है। कब आएगा वो टाइम, कि जिसके बारे में लोग कहते थे कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। इतनी severe ऐंज़ाइयटी होती है। सुबह, शाम, रात। तुम ज़रा सा रहो। इन दिनों। कि जब थोड़ा चैन आ जाएगा, तब जाना। 

उसे फ़ोन करती हूँ तो न हाय, हेलो, ना मेरा नाम… बस, हम्म… और मैं हँस देती हूँ… कि पहले फ़ोन करती थी तो बस इतना ही था, ‘बोलो’… मैं कहती थी तुम न मुझे रेडियो की तरह ट्रीट करते हो, कि बटन ऑन करोगे और सब ख़बरें मिल जाएँगी। उसका होना अच्छा है। उसका होना मुझे बचाए रखता है। 

17 April, 2019

मैं precious, और तुम, बेशक़ीमत

उसे क़रीब से जानना थोड़ा unsettling है। अस्थिर। जैसे अपनी धुरी पर घूमते घूमते अचानक से थोड़ा डिस्को करने का मन करने लगे। जैसे बाइक उठा के घर से बाहर निकलें तो सब्ज़ी ख़रीदने के लिए और उड़ते उड़ते चले जाएँ एयरपोर्ट और दो चार घंटे वहाँ कॉफ़ी पीते और सोचते रहें कि उसके शहर चले जाएँ टिकट कटा के या कि किसी शहर जाएँ और उसको वहाँ बुला लें।  इस सारे सोचने और क़िस्सों का शहर रचते हुए काग़ज़ पर लिखते जाएँ ख़त, उसको ही। कि जैसे मेरे लिखने से हम ज़रा से याद रहेंगे उसको, हमेशा के लिए। कि जैसे कई टकीला शॉट्स के बाद भी होश में रहें और वो हँस के कहे कि पानी नीट मत पीना, थोड़ी सी विस्की मिला लेना तो उस आवाज़ के ख़ुमार में बौरा जाएँ। कि उसकी हँसी सम्हाल के रखें। कि इसी हँसी की छनक होगी न जब उसके इश्क़ में दिल टूटेगा।

हम बहुत हद तक एक जैसे हैं। जैसे आज शाम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि मौसम इतना अच्छा था कि दोपहर में छत पर  कुर्सी निकाल कर बैठा और रेलिंग पर पैर टिका दिए और किताब ख़त्म की। इस तरह जगह की डिटेलिंग सिर्फ़ मैं करती हूँ। कि यहाँ घूम रही हूँ, ये कर रही हूँ, सामने फ़लाना पेड़ है, हवा चल रही है, विंड चाइम पगला रही है। इट्सेटरा इट्सेटरा। फिर ये भी लगता है कि सुनने वाले को ये डिटेल्ज़ बोरिंग तो नहीं लगते। कि मैं क्या ही कह रही हूँ फ़ालतू बातें। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर खिड़की के सामने नारियल का पेड़ है या आम का या डेकोरेटिव पाम का… लेकिन मुझे फ़र्क़ पड़ता है तो मैं कहती हूँ ऐसे। लेकिन पहली बार कोई ऐसा था, जिसने इतनी छोटी सी डिटेलिंग की ताकि मैं देख सकूँ ठीक उस रंग में जैसी उसकी दोपहर थी। बात सिर्फ़ इतनी भी होती तो ठीक था…बात ख़ास इसलिए है कि मैंने पूछा नहीं था। उसने ख़ुद से बताया। वो शहर में होता तो उड़ते उड़ते जाती बाइक पर, सिर्फ़ उसे ज़ोर से hug करने के लिए।

वो पूछता है, तुम्हें मैं समझ में आता हूँ। मैं सोचती हूँ, क्या कहूँ। थीसीस की है तुमपर। तुम्हारे हर शब्द को लिख के रखा है। तुम्हारी आँखों का रंग हर क़िस्से में झलकता है। तुम्हारे कहे बिना बात समझती हूँ। तुम्हारे आधे सेंटेन्सेज़ सही सही पूरे करती हूँ और तुम नाराज़ नहीं होते हो। तुम्हारी याद में अटकी फ़िल्मों के नाम मुझे सूझते हैं। लेकिन, यूँ तो कोई किसी को ताउम्र साथ रह के भी नहीं जान सकता और किसी को जानने के लिए एक मुलाक़ात ही काफ़ी होती है। एक बात बताऊँ वैसे, मुझे कभी नहीं मालूम था कि तुमने कॉलेज में कितनी लड़ाई वग़ैरह की थी...लेकिन तुम्हारे साथ चलते हुए एक एकदम ही स्ट्रेंज सी निश्चिन्तता होती थी। जैसे कि कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। ये सिर्फ़ एक दिन की छोटी सी बात से आयी थी। वो दिल्ली का अजीब सा मुहल्ला था...लड़के जैसे लड़कियाँ घूरने के लिए ही पैदा हुए थे। बहुत अजीब जगह, जहाँ डर लगे। तुमने बिना कुछ कहे, मेरा हाथ पकड़ा और साथ में चलने लगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में आश्वस्ति थी। कुछ चीज़ें जो हम शब्दों के बग़ैर कहते हैं। स्पर्श की भाषा में। उस दिन पता चला मुझे। तुम्हारे साथ डर नहीं लगेगा, कभी भी।

मुझे उसकी हँसी अच्छी लगती है। और उसकी आँखें। और उसकी बातें। और उसका शब्दों का एकदम ठीक ठीक इस्तेमाल करना। कि ग़लती से भी, कभी भी एक शब्द ग़लत नहीं बोल सकता। इम्पॉसिबल। कि इसपर शर्त लगायी जा सकती है। हार जाने वाली शर्त। पर उससे हारना अच्छा लगता है। उसके कम शब्दों में कुछ शब्द जो मेरे नाम के इर्द गिर्द गमकते हैं। precious. कितना साधारण सा शब्द है। लेकिन वो कहता है तो ख़ास लगता है। कि भले ही वो मेरे लिए बेशक़ीमत हो। मैं उसके लिए सिर्फ़ क़ीमती हूँ, तो भी चलेगा। कि वो आप कहता है, मुझे नहीं मालूम, ग़ुस्से में कि दुलार में। पर कहता है तो अच्छा लगता है। कि मुझे आप सिर्फ़ पापा कहते हैं।

अजीब सी किताब है। Norwegian Wood। लेकिन जब वो कहता है कि वो मुझे कभी नहीं भूलेगा। उसका उसकी पसंद की भाषा में कहना। I will always remember you. बहुत प्यारा महसूस होता है। जैसे किसी एक साल मैथ के इग्ज़ैम में सच में 99 मार्क्स आ गए हों। कि ग़लती से सारे सवाल सही बन गए थे।

द लेकहाउस याद आ रही है। जिसमें वो लड़की के लिए शहर के नक़्शे में एक रूट चार्ट करता है कि यहाँ जाओ, ये देखो… और लड़की उस रास्ते पर चलती है, सोचती हुयी… कि काश हम सच में साथ होते… फिर सामने वो बड़ी सी दीवार आती है, जिसपर कमोबेश दो साल पुरानी ग्रफ़ीटी बनी हुयी है। कि केट, मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस ख़ूबसूरत शनिवार की शाम का शुक्रिया। कैमरा ‘together’ शब्द पर जा के ठहरता है। प्यार में कैसी कैसी चीज़ें लोगों को क़रीब ले आती हैं। कि दूरी सिर्फ़ मन में होती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा हो सकता है कि उसके शहर में बारिश हो और यहाँ की हवा में खुनक आए।

फिर द ब्लूबेरी नाइट्स का वो सीन, जब कि लड़की पूरी दुनिया में भटकती हुयी भी उस कोने की छोटी वाली दुकान के लड़के को पोस्टकार्ड भेजती है। कहती है उससे, पता नहीं तुम मुझे कैसे याद करोगे। उस लड़की की तरह जिसे ब्लूबेरी पाई पसंद थी, या उस लड़की की तरह, जिसका दिल टूटा हुआ था।

मैं सोचती हूँ कि मुझे क्या याद रहेगा। इमारत से पीठ टिकाए बैठना। आसमान को देखते हुए हँसना। दिल्ली मेट्रो के स्टेशन पर विदा कहते हुए फ़्लाइइंग किस देना। क्या क्या। कि कहानी और सच के बीच अंतर करना सीखना ज़रूरी है वरना मैं भी किसी पागलपन की कगार पर तो हूँ ही। कब से एक कहानी के बाहर भीतर कर रही हूँ। किरदार मेरे साथ साथ शहर घूमते हैं और मैं जाने क्या कुछ महसूसती हूँ। कि कोई एक शहर हो जिसमें मेरी पसंद की सारी जगहें हों। वो कॉफ़ीशॉप्स जहाँ मेरे पसंद की कॉफ़ी मिलती है। वो पोस्ट बॉक्स जहाँ से तुम्हें पोस्टकार्ड गिराया था। पतझर का सुनहले पत्तों वाला मौसम। डाकटिकटों में रचे-बसे शहर जहाँ में जाना चाहती हूँ एक शाम कभी।

मुझे लिखने से डर लगने लगा है। लिखे हुए लोग ज़िंदगी में मिल जाते हैं। जब तीन रोज़ इश्क़ लिखा था तो उसमें लड़की एक घंटे में एक पैग विस्की पीती है...विस्की के पैग से समय नापा जा सकता है। मैंने तब तक ऐसे किसी इंसान को नहीं जाना था जो ड्रिंक्स के हिसाब से घंटे माप सके। और फिर मैं तुमसे मिली। उस दिन पता है, मन किया तुम्हें वो पूरी कहानी पढ़ के सुनाऊँ... कि देखो, अनजाने में ऐसा लिखा है।

तुम हो मेरे इंतज़ार में? या कि सिर्फ़ मैंने लिखे हैं इतने सारे शहर कि जिनका कोई सही डाक पता नहीं। तुम मुझे चिट्ठियाँ लिखने से मना करो। मेरी चिट्ठियों से सबको ही प्यार हो जाता है। without exception। मेरी चिट्ठियाँ उतनी ही पर्फ़ेक्ट हैं, जितनी मैं flawed। फिर चिट्ठियों से प्यार करोगे और लड़की से नफ़रत। क्या करेंगे फिर हम।

मैं पूछती हूँ उससे। तुम जानते हो न, मैं क्यूँ चाहती हूँ कि किसी को याद रहूँ। कि मुझे मालूम है किसी दिन आसान होगा मेरे लिए कलाइयाँ काट कर मर जाना। उसकी आवाज़ में फ़िक्र है। कि ऐसी बातें मत करो। मुझे नहीं चाहिए प्यार मुहब्बत। मुझे बस, थोड़ी सी फ़िक्र चाहिए उसकी…बस। मैं उसकी आँखें याद करूँगी और दुनिया के सबसे फ़ेवरिट सूयसायड पोईंट से कूदना मुल्तवी कर दूँगी। हाँ इसे प्यार नहीं कहते। लेकिन इतना काफ़ी है, कि इसे ज़िंदगी कहते हैं। और तुम्हारे होने से ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और मेरी हँसी में जादू। इससे ज़्यादा मुझे नहीं चाहिए। 

12 April, 2019

ओल्ड स्कूल

‘तुम न, अब एक घर ले लो।’
‘अच्छा, और बसा तुम दोगी?’
‘बसाना? पागल हो गए हो क्या। दिल तोड़ना, घर तोड़ना, हाथ पैर तोड़ना… ये सब काम हम अच्छा से करते हैं, ये बसाना वसाना हमसे न हो पाएगा’
‘तो फिर मेरे घर में करना क्या है तुमको? अपने अफ़ेयर करोगी मेरे यहाँ तुम?’
‘उफ़, नहीं यार। ख़ाली प्यार मुहब्बत थोड़े न है दुनिया में। तुमसे कौन सा प्यार है हमको, लेकिन इतने साल से हो न मेरी ज़िंदगी में। तुमको चिट्ठी लिखने का मन करता है। कोई पता ही नहीं है तो मैं कहाँ भेजूँ तुम्हारे नाम की चिट्ठी। फिर, मैं चाहती हूँ, कभी ऐसा भी हो कि मैं चाहूँ तुम तक जाना और जा सकूँ। ऐसे बंजारो की ज़िंदगी जीते हो, मैं तुम्हारे इंतज़ार में थक गयी हूँ। ये तो बेइमानी है ना कि तुम जब चाहो, मुझ तक चले आओ। तुम्हें सब पता है, मेरा घर, दफ़्तर, मेरे दोस्तों का घर, मेरी पसंद की कॉफ़ी शॉप्स… सब कुछ। पूरा नक़्शा है तुम्हारे पास। रात दस बज रहे हैं, वीकडे है, घर पर नहीं हूँ तो कॉफ़ी पी रही होऊँगी। फ़्राइडे नाइट है तो कहाँ होऊँगी।’
‘हाँ तो, तुम इतनी प्रिडिक्टबल और आसान हो…थोड़ा मुश्किल होती तो मैं तलाशता फिरता तुमको जगह जगह।’
‘तुम कहना चाहते हो मैं बोरिंग हूँ?’
‘अरे, लड़की, ख़ुद ही सब बोल दो…मैंने कब कहा कि बोरिंग हो… मैंने कहा कि प्रेडिक्टबल हो। क्या बुरा है इसमें? एक तरह की निश्चिंत्ता होती है। कि जैसे लीवायज़ की ५०१ जींस, ३० नम्बर वाली एकदम फ़िट आएगी, जैसे नुक्कड़ की टपरी वाली आंटी मेरी पसंद की निम्बू की चाय बनाएगी, जैसे कि ब्लैक शर्ट हमेशा खिलेगी, कि बारिश में भीगने का हमेशा मन करेगा। हमेशा वाली चीज़ें अच्छी होती हैं’।
‘तो एक घर ख़रीद लो फिर, रेंट पर भी मत लो’।
‘तुम तो आज नहा धो के पीछे पड़ गयी हो। क्या करना है तुमको मेरे घर से?’
‘कह तो रहे हैं, चिट्ठी लिखेंगे’
‘सुन रही हो अपनी बात…तुम्हारे चिट्ठी लिखने भर के लिए घर क्यूँ लें…पोस्ट ऑफ़िस में पोस्ट बॉक्स आता है, वो ले लेते हैं… या तुम ईमेल भी तो कर सकती हो। या whatsapp. कौन लिखता है आज के ज़माने में चिट्ठी’।
‘तुम जानते हो ना, हम थोड़े ओल्ड स्कूल हैं।’
‘थोड़े? बाबू, तुम प्रागैतिहासिक हो। म्यूज़ीयम में रखेंगे तुमको। वो भी नैचुरल हिस्ट्री म्यूज़ीयम में’
‘तुम टिकट का पैसा दे कर मिलने आओगे हमसे?’
‘हाँ। फिर तुम्हारे ऊपर किताब भी लिखेंगे। कि अच्छी ख़ासी लड़की थी। चिट्ठी चिट्ठी करते करते ख़ुद ही कहानी हो गयी’।
‘तो फिर, घर नहीं लोगे तुम?’
‘ग़ज़ब ज़िद्दी हो। टेपरिकॉर्डर अटक गया है वहीं का वहीं तुम्हारा…नहीं लूँगा घर। मुझे ज़रूरत नहीं लगती घर लेने की। इतना ट्रैवल होता है। आज यहाँ, कल वहाँ… किस शहर में घर लूँ, बताओ। आधे साल तो अमरीका में रहता हूँ, बचा थोड़ा बहुत यूरोप… ऐसे कहाँ रखें घर हम। थोड़ा प्रैक्टिकल कारण भी तो है’
‘तुम दिल्ली में घर ले लो’
‘अच्छा, दुनिया के इतने अच्छे अच्छे शहर छोड़ कर दिल्ली में। क्यूँ भला? भयानक प्रदूषण और उससे भी ज़्यादा प्रदूषित दिमाग़ के लोगों के सिवा है क्या इस शहर में।’
‘ऐ, मेर सामने दिल्ली को गरियाओ मत। मैं जो हूँ दिल्ली में, सो? मेरा कोई मोल नहीं!’
‘मोल तो इतना है कि बेमोल हो तुम। प्रेशियस। बेशक़ीमत।’
‘तो मेरी बात मान लो’
‘तुझे घर ले दूँ? ऐसा करता हूँ, तेरे नाम से पेपर्स बनवा देता हूँ। अब ठीक है?’
‘कुछ भी। ऐसे कैसे मेरे लिए घर ख़रीद दोगे। पता है पच्चीस साल तो ईएमआई चलती है होम लोन की’
‘तो तुझे लगता है कि तू अगले पच्चीस साल में मेरे साथ नहीं रहेगी?’
‘उफ़। ये थोड़े कह रहे हैं हम। तुम अनर्गल आर्ग्युमेंट मत करो’
‘मुझे घर नहीं ख़रीदना’
‘एक कारण बता दो’
‘कारण ये कि बुद्धू। मेरा घर तुम हो। तुम्हारे होते मेरे पास लौटने को हमेशा कुछ होता है। मैं दुनिया के हर शहर घूमता हुआ तुम्हारे लिए होता जाता हूँ। ये जो झुमके, मिनीयचर पेंटिंग और साउंड बॉक्स ला के दिए हैं तुम्हें… इसलिए कि इनके इर्द गिर्द ख़ुश रहती हो तुम। मेरे न होने पर भी भरी भरी सी। जब तुम्हारे बाथरूम में अपना टूथब्रश देखता हूँ तो लगता नहीं है कि कहीं और जाने की ज़रूरत है। मैं तुम्हारे इर्द गिर्द बंजारा नहीं रहता। बसा हुआ होता हूँ। तुम्हारे ख़ालीपन में। तुम्हारे इंतज़ार में। जब भी लौटता हूँ ऐसी कोई शाम होती है, दिल्ली की कोई पुरानी इमारत होती है और इतनी ज़्यादा ख़ुश होती हो तुम कि मैं किसी सफ़र में अकेला नहीं होता। तुम्हारी चिट्ठियों का पता मेरा दिल है। तुम लिख लिया करो। मैं पढ़ लिया करूँगा वापस आ के। मोमिन इसलिए न कहते हैं, हाल ए दिल यार को लिखूँ क्यूँ कर, हाथ दिल से जुदा नहीं होता’।
‘ये कौन सी किताब से पढ़ कर आए हो?’
‘पढ़ कर नहीं आया हूँ। लिखूँगा अब। एक अच्छी सी किताब, जिसमें हम दोनों ऐसे ही शाम शाम शाम बकझक करते रहेंगे। जिसमें जीने के लिए हमें अपनी अपनी ज़िंदगी से कोई समझौता नहीं करना पड़ेगा। जिसमें मेरा और तुम्हारा पता एक ही होगा। भले ही मैं वहाँ रहूँ, न रहूँ’
‘उफ़’
‘क्या हुआ?’
‘किराया लगेगा’
‘पागल लड़की’
‘तुमसे कम ही’

08 April, 2019

तिलिस्म सिर्फ़ तोड़े जाते हैं, उनसे मुहब्बत नहीं की जाती...

लड़की कोहरे की बनी होती तो फिर भी ठीक होता। वो सिगरेट के धुएँ की बनी थी। उँगलियों में रह जाती। बालों में उलझ जाती। बिस्तर, तकिए, कम्बल…जब जगह बसी रहती। तलब वैसी ही लगती थी उसकी। रोज़। रोज़। रोज़। सुबह, शाम, रात…नींद के पहले, जागने के बाद।
कैसे चूमता कोई उसे? क्यूँ चूमता कोई उसे?

लड़की - शब्दों की बनी, उदास, ख़ुशनुमा, गहरे शब्दों की। वो चाहती कि वो फूलों की बनी हो। आँसुओं की या किसी और टैंजिबल चीज़ की - हवा, पानी, मिट्टी, आग जैसी चीज़ों की… लड़की चाहती कि उसे छुआ जा सके। 
ताकि उसे तोड़ा जा सके। 

कितना लड़ सकती थी वो…ज़िंदगी के इस मोड़ पर थकान इतनी ज़्यादा थी कि उसने हथियार रख दिए। वो रोयी भी नहीं। बस उसकी आवाज़ ज़रा सी काँपी। ‘मैं नहीं करती तुमसे प्यार’। वो एक छोटा सा सवाल पूछना चाहती थी इस आत्मसमर्पण के बाद। 
‘ख़ुश?’


उसके पास सच की दुनिया नहीं थी। कहानियाँ थी सिर्फ़। और दोस्त। इस दुनिया में कहानी के मोल कुछ भी नहीं ख़रीदा जा सकता। 


माँगने को भी कुछ नहीं था उसके पास। किसी के हिस्से ज़रा सा सुख माँगना भी अधिकार में आता है। प्राचीन मंदिर और मक़बरे उसके भीतर उगते। वसंत की बेमौसम बारिश का कोई राग भी। टीन की छत पर बेतहाशा बरसती बारिश…चुप्पी महबूब का नाम चीख़ती। दूर किसी छत पर बारिश में भीगता लड़का गुनगुनाता, इस बात से बेख़बर कि लड़की तिलिस्म होती जा रही है। और मेरी जान, तिलिस्म सिर्फ़ तोड़े जाते हैं, उनसे मुहब्बत नहीं की जाती...

लड़की कभी कभी सीखना चाहती बाक़ी चीज़ें। झूठ बोलना, जिरहबख़्तर बाँधना। ख़ुदकुशी के तरीक़े। लौट सकना। करना थोड़ा कम प्यार किसी से। सीमारेखा बनाना। और अपनी उदासी में ज़रा कम ख़ूबसूरत दिखना।
कि हर कोई उसे उदास देखना न चाहे। 

मुहब्बत मैथ भी नहीं, फ़िज़िक्स का कोई unsolvable equation हुए जाती। एकदम अबूझ। इक रोज़ उसे क़ुबूल करना ही पड़ता कि इतनी उलझी हुयी चीज़ उसे ज़रा भी समझ नहीं आती। कि step-by-step marking के बावजूद उसके नम्बर बहुत कम आएँगे।
जाने कितने साल वो ज़िंदगी के इसी क्लास में गुज़ारेगी कि जिसे कहते हैं, moving on. 


Suicide letter उसका मास्टरपीस था। दुनिया का सबसे ख़ूबसूरत प्रेम पत्र।


वो नहीं जानती थी प्यार के बारे में कुछ ज़्यादा। उसने ऐसा कोई दावा भी कभी नहीं किया। उसके इर्द गिर्द लेकिन बहुत समझदार लोग थे। सबने उससे कहा, किसी के लिए फूल ख़रीद लेने की ख़्वाहिश को प्यार नहीं कहते। 


02 April, 2019

खिलते फूलों वाले शहर

फूलों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, जैसे कि वसंत कितना कम वक़्त के लिए आता है किसी पेड़ पर, मगर क्या लहक के सुर्ख़ रंग बिखेरता है। देखो ऊपर तो आसमान भी गहरा लाल दिखे। और फिर पूरा पौधा सुर्ख़ लाल लगे, ऐसे सेमल या कि पलाश बहुत ज़्यादा दिन खिले नहीं रहते।

दिल्ली से गए कितना कम वक़्त हुआ लेकिन देखती हूँ सेमल के जिन पेड़ों को कितनी कितनी देर तक देखती रही थी कि इस सुर्ख़ रंग से थोड़ा सा इश्क़ रच सकूँ, उन पर अब एक भी लाल फूल नहीं दिखता, बल्कि छोटे छोटे हरे पत्ते खिल रहे हैं। क्या कहानियाँ ऐसे ही शुरू होती हैं?

इक कैफ़े कई साल से देख रही थी और सोच रही थी जाने का, लेकिन जाने तो कैसे वहाँ का मुहूर्त ही नहीं बनता था। कुछ यूँ कि वहाँ जाते जाते कहीं और को निकल जाते। आज कहीं और के लिए निकले थे और ज़रा सा वो कैफ़े जाने का मन कर गया तो चले गए। कि कैफ़े का नाम सही था, फ़र्ज़ी कैफ़े।

पिछले हफ़्ते इसी कैफ़े के पास सेमल खिले हुए थे। मैंने कितनी तो तस्वीरें उतारी थीं। आज कैफ़े गयी तो खिड़की से बाहर देखा, सोचा, खिले सेमल के मौसम में आऊँगी कभी। इसी खिड़की पर। देखूँगी कि धूप में लाल होता सेमल कैसा दिखता है इस खिड़की से। जिस दोस्त के साथ थी, उसे भी किसी और दोस्त की बेतरह याद आयी। हम इस वसंत की इस दोपहर किसी फ़िल्म के सीन को डिस्कस करते हुए जाने किन लोगों को याद कर रहे थे। मैं भी किसी और के बारे में सोच रही थी। किसी दूर देश में पी हुयी ऐब्सिन्थ के बारे में। किसी दूर दोपहर जी हुयी ज़िंदगी के बारे में।

हम किसके जीवन में कहाँ कहाँ रह जाते हैं, हमें ख़ुद भी मालूम नहीं होता। मैंने कभी किसी को एक फैबइंडिया का पर्फ़्यूम दिया था। मेरी थोड़ी आदत है कि जो चीज़ बहुत अच्छी लगती है, वो दोस्तों के लिए भी ख़रीद लेती हूँ। ख़ास तौर से ख़ुशबुएँ बहुत पसंद हैं मुझे। लैवेंडर इत्र कलाइयों पर रगड़ती हुयी सोचती हूँ जो किसी चिट्ठी में मेरी कलाइयों की गंध आएगी, कैसी आएगी? स्याही और काग़ज़ से धूप में मिलती हो, ज़रा ज़रा फीकी…वैसी? किसी की याद में कैसी दिखती रही होऊँगी मैं।

मैंने कई दिन से कहानी नहीं लिखी। सारे किरदार रूठ गए हैं। या कि मैं ख़ुद में इतनी उलझी हूँ कि अपने आसपास के किरदारों को देख नहीं पा रही। दिल्ली में गुज़रता हर शख़्स मुझे किसी कहानी का हिस्सा लगता है। आज जैसे स्टारबक्स में थी, दो लड़के ऐसे तन्मय हो कर बात कर रहे थे कि मुझे भारी कौतुहल हुआ कि वे क्या बात कर रहे होंगे। उनके चेहरों के बीच बमुश्किल छह इंच का फ़ासला होगा। उनकी हँसी साझी थी, आँखों की चमक भी एक दूसरे में रेफ़्लेक्ट कर रही थी। मैं सुन सकती थी कि वे क्या कह रहे हैं और समझ भी सकती थी…लेकिन मैंने ऐसा किया नहीं। मैं बस रौशनी में खड़ी, मुस्कुरा रही थी, कि मैं उनकी कहानी से ज़रा सा दूर हूँ…इसलिए नहीं कि मैं उनकी भाषा नहीं जानती, बल्कि इसलिए कि मैं नहीं चाहती कि उनकी कहानी उस कहानी से अलग हो, जो मैंने मन में सोच रखी है। दो मर्द जो प्रेम में हों, मैंने कभी रियल ज़िंदगी में नहीं देखे हैं। मेरे ख़यालों के शहर में वे एक प्रेमी जोड़ा हैं जो किसी दोपहर का वायलेंट प्रेम डिस्कस कर रहे हैं और उनके साँवले चेहरे कत्थई हो रहे हैं। कल फ़्लाइट में आते हुए एक पुरानी कहानी पढ़ रही थी, अधूरी ही, उसमें एक लड़का लड़की को उलाहना दे रहा है कि बटन तोड़ने का इतना ही शौक़ है तो बटन टाँकने भी सीख लो, कितने शर्ट फेकूँ ऐसे मैं और लड़की हँसती हुयी कहती है, कभी ना कभी तंग आ कर टीशर्ट पहनना शुरू कर दोगे। मुश्किल ख़त्म। कितने प्यारे किरदार थे वो…और कैसी मीठी दोपहर जिसमें उनकी कहानी उभरी थी ख़याल में। कहानी जो ज़रा सी लिख के छोड़ दी।

दिल्ली में इतने रंग हैं कि मैं घर लौटती हूँ तो लगता है होली खेल के लौटी हूँ। पूरे देश के लोग आ के यहाँ रहते हैं तो चेहरों में इतनी विविधता, हेयर स्टाइल्ज़ में, कपड़ों में…यहाँ तक कि चेहरों पर आते भाव भी अलग अलग दिखते हैं। कभी कभी लगता है मैं कोई छायाकार हूँ। स्टिल लाइफ़ फ़ोटोग्राफर। मेरी कल्पना के शहर गुम हो रहे हैं…उनमें इश्क़ करने वाले लोग भी।

गरमी आ गयी है लेकिन अभी भी ज़रा ज़रा ठंड धप्पा कर देती है किसी पीले फूलों से ढके पेड़ों वाली सड़क पर, शाम टहलते हुए। मैं दूर से देखती सोचती हूँ, पिछले हफ़्ते तो ये ज़रा भी यहाँ नहीं था। ये कैसे अचानक से खिलता है…और कौन सा पेड़ है ये, नाम क्या है इसका। मगर पास नहीं जाती हूँ। कहीं जाने को देर हो रही है। दिल्ली अभी भी, और शायद हमेशा, मेरी जान रहेगी। 'शायद हमेशा', कितना सुंदर कॉम्बिनेशन है ना। इश्क़, उस एक से...कि जो जादू है...तिलिस्म है...शैदा...कितने शब्दों तक पहुँची हूँ, कि उसने ऊँगली थाम कर दिखाया है रास्ता... और कभी कभी ख़ुद तक भी तो उसकी कविता से पहुँचती हूँ। कि उसकी कविताओं में एक पगडंडी होती है जो मेरे मन में उतरती है। कि हर मौसम मिज़ाज ज़रा सी विस्की, ज़रा सी ऐब्सलूट और एक क्लासिक माइल्ड्स माँगने लगता है... वो धुएँ से उभरता है, महबूब... और लगता है कि इश्क़ अगर दुनिया के किसी शहर में अब भी जिया जा सकता है तो वो शहर सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली ही है।

पिछली बार आयी थी तो शेखर से पहली बार मिली थी। हम सीपी के पार्क में बैठे रहे थे पूरी शाम, ऐसे ही, बातें करते। वो अपने दोस्त के साथ आया था। मैंने उस दिन कह दिया था, आज मैं बातें सुनूँगी नहीं, बस कहूँगी…सुनोगे तो ठीक, वरना मैं स्टारबक्स में जा के लिख भी सकती हूँ। इस लड़के ने कई कई लोगों को तीन रोज़ इश्क़ पढ़ायी है। मन था उससे मिलने का…उस मुलाक़ात के बारे में फिर कभी। वो अनंतनाग में रहता है। आज उसकी whatsapp स्टोरी पर खुबानी के फूल देखे…ओह, कितने प्यारे गुलाबी, कैसे नाज़ुक और कितने ही सुंदर… इतने सुंदर कि अगली गाड़ी पकड़ के कश्मीर जाने का मन कर जाए। इतने सुंदर। हमारी ज़िंदगी में जो लोग आते हैं, वे कौन से रंग जोड़ेंगे हमारे आसमान में, हम नहीं जानते।

वे तस्वीरें अपने दूसरे पसंदीदा शहर भेज दीं। ख़ूबसूरती बाँटनी चाहिए। इस दुनिया में ज़रा सी हँसी, ज़रा सा प्यार, ज़रा सी ख़ूबसूरत तस्वीरें ही तो हैं…

29 March, 2019

इस वसंत के गुलाबी लोग, हवा मिठाई की तरह मीठे, प्यारे और क़िस्सों में घुल जाने वाले

इतनी कोमलता कैसे है इस दुनिया में? कितनी ख़तरनाक हो सकती है कोमलता?
इस कोमलता से जान जा सकती है क्या? इतनी कठोर दुनिया में कैसे जी सकता है कोई इतना कोमल हो कर।

स्पर्श को कैसे लिखते हैं कि वो पढ़ते हुए महसूस हो? इतने साल हो गए, अब भी कुछ बहुत गहरे महसूस होता है तो लिखना बंद हो जाता है। कि कैसे, इतनी कोमलता कैसे है इस दुनिया में? कैसे बचे रह गए हो तुम, इतना कोमल होते हुए भी। 

ये सारे आर्टिस्ट्स ऐसे क्यूँ होते हैं? पिकासो की तस्वीर देखते हुए उसकी आँखों का वो हल्का का पनियल होना क्यूँ दिखता है किसी भागते शहर की भागती मेट्रो में ठहरे हुए दो लोगों को एक दूसरे की आँखों में। इतने क़रीब से देखने पर आँखें ज़रा ज़रा लहकती हैं। मैं भूल जाती हूँ उसे देख कर पलकें झपकाना। ऊँगली से खींच कर काजल लगाती हूँ ज़रा सा ही, कि बचा रहे थोड़ा सा प्यार हमारे बीच। 

दिल्ली में इस बार हिमांशु वाजपेयी की दास्तानगोई थी। उससे मिल कर अंकित की फिर याद आयी। आम की दास्तान सुनना असल में तकलीफ़देह था। अंकित की इतनी याद आयी। इतनी। परसों एक दोस्त से मिली तो उस वाकये का ज़िक्र करते हुए कह उठी, मैं अंकित को ज़िंदगी भर नहीं भूल सकती। उसका होना जादू था। एक क़िस्से का जादू, किसी फ़रिश्ते सा। कि उसमें कुछ था जो इस दुनिया का नहीं था। कि वो जाने किस दुनिया का लड़का था। फिर इतनी कम उम्र में कौन लौटता है इस तरह अपने ईश्वर के पास। 

मुझे बहुत प्यारे लोगों से डर लगता है। ये डर बहुत दिनों तक अबूझ था, इन दिनों थोड़ा सा मुझे समझ में आ रहा है। ये जो फूल सा हाथ रखना होता है। सिर्फ़ अंकित ने रखा था…जब हम आख़िरी बार मिले थे। मुझे उस दिन भी उसका हाथ बिलकुल रोशनी और दुआओं का बना हुआ लगा था। मगर फिर अंकित नहीं रहा बस उसके तितलियों से हाथ रह गए हैं मेरे काँधे पर। उसके जीते जी कितना कुछ था वो। मैंने वो मैं क्यूँ नहीं लिखी कभी उसको। उसकी ईमेल id उसकी हैंडराइटिंग में मेरी नोटबुक पर है। कि कहा नहीं कभी उसके जीते जी।
***

तस्वीर खींचते हुए वो मुस्कुराया और फिर तस्वीर देखी मोबाइल पर…हमारे बीच ज़रा सी दूरी थी। उसने काँधे पर हाथ रखा और मुझे ज़रा सा अपने क़रीब खींच लिया। उसके हाथ इतने हल्के कैसे थे?

उसे विदा कहने के लिए मैं कार से उतरी। ऐसे कैसे गले लगाते हैं किसी को जैसे वो फ़्रैजल हो। एकदम ही नाज़ुक, कि छूने से टूट जाएगा। जैसे कोई तितली आ बैठी हो हथेली पर अचानक। precious। कितना क़ीमती है वो मेरे लिए। कितना प्यार उमड़ता है कभी कभी। जल्दी आना, उसने कहा। ज़्यादा मिस मत करना, मैंने कहना चाहा, पर कहा नहीं।

वे लड़के होते हैं ना, जिनसे मिलने ख़ाली हाथ जाने का मन नहीं करता। हम थोड़े अपॉलॉजेटिक से हो जाते हैं। सॉरी, आज मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं लायी। कहानी सुनोगे? नयी सुनाएँगे, जो किसी को नहीं सुनायी है अभी। वो लड़के जिन से मिल कर जाने मन में कौन सी मौसी, दीदी, फुआ की याद आ जाती है जो हमारे लिए हमेशा कुछ न कुछ लेकर ही आती थी बाहर से। जिनके आने का इंतज़ार हमारे भीतर बसता था। जो मेरी ज़िंदगी में कभी नहीं रहीं, लेकिन जिनकी कमी मुझे हमेशा खली। 

हम जब शायद कुछ और उम्र दराज़ हो जाएँगे तो तुमसे पूछ सकेंगे और तुम्हारा हाथ पकड़ कर बैठ सकेंगे किसी कॉफ़ी शॉप में, बिना कोई एक्स्प्लनेशन दिए बग़ैर। तुम्हारे सामने बैठ कर नर्वस हो कर लगातार कुछ न कुछ कहे जाने की बेबसी नहीं होगी। हम चुपचाप बैठ कर देख सकेंगे तुमको, आँख झुकाए बग़ैर। बिना कुछ कहे। किसी अकोर्डिंयन की धुन को रहने देंगे हमारे बीच, जैसे वक़्त का एक वक्फ़ा हमेशा के लिए याद रह जाएगा। हमेशा। जिसपर कि तुम यक़ीन नहीं करते हो। 

कुछ और समय बाद बुला सकूँगी तुम्हें अपने घर खाने पर। सिर्फ़ दाल भात चोखा। दिखा सकूँ तुम्हें दुनिया भर से लायी हुयी छोटी छोटी चीज़ें…कि ज़िद करके दे सकूँ तुम्हें चिट्ठियाँ लिखने का सुंदर काग़ज़, कि लिखो मत। रखना लेकिन पास में। कभी किसी को चिट्ठी लिखने का मन किया और काग़ज़ नहीं मिला सुंदर तो क्या ख़राब काग़ज़ पर लिख के दोगे। 

एक तुम्हारी आउट औफ़ फ़ोकस फ़ोटो खींच लूँ, अपनी ख़ुशी के लिए। अपने धुँधले किसी किरदार को तुम्हारी शक्ल दूँगी। कि तुम ज़रा से और ख़ूबसूरत होते तो मुश्किल होती। अच्छा है तुम्हारा ऐसा होना, कि अच्छा है मेरा भी इन दिनों कुछ कम ख़ूबसूरत होना। हम अपने से बाहर की दुनिया देख पाते हैं। तुम्हें देखते ही रहने का मन करता रहता तो तुम्हें शूट कैसे करती।

***

वो कितना मीठा और हल्का सा है। हवा मिठाई जैसा। उसके साथ होना कितना आसान है। जैसे पचास पैसे में ख़रीद कर खा लेने वाली हवा मिठाई। जिसके लिए ज़्यादा सोचना नहीं पड़ता। किसी की इजाज़त नहीं लेनी पड़ती। बचपन की एक छोटी सी ख़ुशी…उसके साथ ज़रा सा होना। सड़क पार करते हुए अचानक से हाथ पकड़ लेना। उससे मिलने के पहले आते हुए रास्ते में छोटी सी मुस्कान मुसकियाना। 
कोमल होना। प्यारा होना। अच्छा होना। 

इस बेरहम दुनिया में ज़रा सा होना किसी की पनाह। किसी का शहर, न्यू यॉर्क। किसी की पसंद की कविता की किताब के पहले पन्ने पर लेखक का औटोग्राफ। 

इस दुनिया में मेरे जैसा होना। इस दुनिया का इस दुनिया जैसा होना।

बदन दुखता रहे, हज़ार हस्पताल की दौड़ भाग के बाद, कितने इंजेक्शंज़ और जाने कितने टेस्ट्स की थकान के बाद। 

हर कुछ के बाद भी। किसी शाम कह सकना ज़िंदगी से। शुक्रिया। फिर भी। काइंड होने के लिए। कि मुहब्बत मुझे जीने का हौसला देती है और लिखना मुझे जीने के लायक़ मुहब्बत। 

लव यू।

24 March, 2019

सेमल के मौसम में तोड़ना दिल...कि गिरे हुए सारे उदास फूल मेरे नाम हों

हमें बचपन में ही दुःख से बहुत डरा दिया गया है। हम कभी उसे लेकर कम्फ़्टर्बल नहीं होते। जबकि अगर ज़िंदगी की टाइम्लायन देखें तो वो समय जब हम सच में दुःख के किसी लम्हे के ठीक बीच थे, बहुत कम होते हैं। हम अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा आगत दुःख के भय और प्राचीन दुःख की स्मृति में जीते हैं।

तो इस दुःख के ठीक बीच होते हुए मैं ज़रा सा एकांत तलाशती हूँ, कि इसे ठीक से निरख सकूँ। मैं पहले हॉरर फ़िल्मों से बहुत ज़्यादा डरती थी, लेकिन कुछ दिन पहले हॉरर फ़िल्म देख रही थी तो मैंने पहली बार हिम्मत कर के उस भूत को खुली आँखों से पूरा देख लिया, बिना अफ़ेक्टेड हुए, जैसे कि कोई पेंटिंग देखती हूँ। इक तरह से मैंने ख़ुद को उस फ़िल्म के बाहर ठीक उस दर्शक की जगह पर रखा, जहाँ मुझे होना चाहिए था…फ़िल्म के भीतर के भुक्तभोगी की तरह नहीं। उसके बाद जब भी वह भूत आता तो मुझे डर नहीं लगता। जब आँखें बंद कर के घबरा रहे होते हैं तो हम नहीं जानते कि वो क्या है जिससे हम इतना डर रहे हैं। जिस चीज़ की शिनाख्त हो जाती है, वो थोड़ा कम भयावह हो जाता है। भिंची आँखों को सब कुछ ही डराता है।

आज इसी तरह आँखें खोल कर तुम्हें जाते हुए देखा। तुम्हें मुड़ के न देखते हुए देखा। तुम्हें मालूम मैं क्या लिख कर डिलीट कर रही थी? ‘Hug?’. कितनी बार डिलीट किया। कि विदा कहते हुए कहाँ पता था कि इसे विदा कहते हैं। पता होता तो जाने क्या करती। कि जब कि मैं थी ऐसी कि हर बार विदा कहते हुए सोचती थी कि ये आख़िरी बार है, फिर भी ज़रा सी कोई कसक रह गयी है बाक़ी। ये ‘ज़रा सा’ थोड़ा कम दुखना चाहिए था। तुम्हारा हाथ एक मिलीसेकंड और पकड़े रखने का मन था। मिलीसेकंड समझते हो तुम? जितनी देर तुमने मुझे देखा, ये वो इकाई है… मिलीसेकंड। तुम एकदम ही पर्फ़ेक्ट हो। कुछ भी ग़लत नहीं हो सकता तुमसे। सिवाए विदा कहने के। तुम्हें ना, ठीक से विदा कहना नहीं आता।

ज़रा सी विरक्ति सिखा देना बस। मेरे सब दोस्त मेरे जैसे ही पागल हैं…ज़रा से इश्क़ में पूरा मर जाने वाले। ये मौसम और ये शहर ठीक नहीं है उदास होने के लिए। अलविदा का मौसम किसी और रंग में खिलता है, सेमल और पलाश रंग में नहीं। फिर दुनिया में कितने शहर हैं जिनमें दोस्तों से मिल कर बिछड़ा जा सकता है। महबूबों से भी। सिवाए दिल्ली के। लेकिन ये भी तो है कि शहर दिल्ली के सिवा कोई भी और होता तो किरदार बीच कहानी में ही मर जाता।

मेरी जान,
इस दिलदुखे शहर से मेरे हिस्से की सारी मुहब्बत और उसके बाद की सारी उदासियाँ तुम्हारे नाम। Know you are loved. Not as much as you would want, but more than you assume. किसी रोज़ मेरे लिए भी इतना ही आसान होगा लौट पाना। मैं उस दिन की कल्पना से ख़ौफ़ खाती हूँ।

शहर तुम्हारे लिए उदार रहे। रक़ीब आपस में क़त्ले-आम मचाएँ। मुहब्बत अपनी शिनाख्त करवाती फिरे, कई कई सबूत जमा करवाए। फिर मेरे लिखने की शर्त यही है कि दिल टूटना ज़रूरी है तो, मेरी जान, दास्तान मुकम्मल हो। आमीन।

हाँ सुनो, मेरे वो काढ़े हुए रूमाल किसी दिन लाइटर मार के ख़ाक कर देना। मेरी वो दोस्त सही कहती थी, रूमाल देने से दोस्ती टूट जाती है। मुझे उसकी बात मान लेनी चाहिए थी।

Love,
तुम्हारी….

20 March, 2019

बिंदियाँ

प्रेम के अपने कोड होते हैं। सबके लिए। लड़की जब प्रेम में होती तो बिंदी लगाती। छोटी सी, लाल, गोल बिंदी। यूँ और भी बहुत चीज़ें करती, जब वह प्रेम में होती... जैसे कि काजल लगाना, काँच की मैचिंग चूड़ियाँ पहनना... महबूब की पसंद के रंग के कपड़े पहनना... लेकिन जो उसके सिर्फ़ अपने लिए थी, वो थी एक छोटी सी लाल बिंदी।

इक रोज़ उसे दूसरे शहर जाना था। भोर की फ़्लाइट थी। हड़बड़ में तैयार हो रही थी। माथे की बिंदी उतार कर आइने पर चिपकायी और नहाने के बाद वहाँ से उतार कर माथे पर लगाना भूल गयी। कि वो इतने गहरे प्रेम में थी कि उसने अपना चेहरा ही नहीं देखा। यूँ भी शहर का प्रेम व्यक्ति के प्रेम से कहीं ज़्यादा रससिक्त और गाढ़ा होता है।

इक बहुत सुंदर दोपहर जब पूरे शहर में पलाश और सेमल के लाल रंग दहक रहे थे वो एक दोस्त के साथ घूम रही थी...बस तस्वीर उतारते हुए ही। आसमान में खिले लाल फूलों की तस्वीर। सड़क पर गिरे पलाश के अंगारे जैसे फूलों के लो ऐंगल शॉट। कि शहर में वसंत कैसा बौरा कर आया था।

सड़क पर ट्रैफ़िक बहुत ज़्यादा था और दौड़ कर सड़क पार करते हुए दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ लिया। बीच सड़क अचानक स्त्री को याद आया कि उसने बिंदी नहीं लगायी है। कि यह प्रेम नहीं है।
***

वे उसके घर के पास शूट पर गए थे। दिन भर भटक भटक कर अपनी पसंद के शॉट्स खींचते रहे। बीच पार्क में थोड़े से हिस्से में सिर्फ़ सेमल के पेड़ थे। मिट्टी पर गहरे लाल फूलों की चादर बिछी हुयी थी। शाम की सुनहली रोशनी में वे फूल ज़िंदा भी लग रहे थे जिन्हें पेड़ से बिछड़े पूरा दिन बीत गया था...जैसे कोई आँख बंद कर सोता हुआ दिखे, मरा हुआ नहीं। ज़िंदगी की लाली बरक़रार थी। चाँद चुपचाप निकल आया था। पूर्णिमा को जाता हुआ चाँद। लगभग पूरा गोल। पुरानी पत्थरों के उस छोटे के गुंबद में लोग गिटार बजा रहे थे और गा रहे थे। 'लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो'। तय किया गया कि घर जा के थोड़ी देर आराम करेंगे फिर डिनर पर निकलेंगे, कि लड़के का घर एकदम पास ही था और वे इतने थक गए थे कि कॉफ़ी शॉप पर की कुर्सी पर भी बैठने का ख़याल उन्हें डरा रहा था।

उनकी जानपहचान कई साल पुरानी थी। इतनी कि वे सोचते भी नहीं किसी शब्द के बारे में, जिसे उनके बीच रहना चाहिए था। हिंदी में फ़ैमिली फ़्रेंड्ज़ जैसे शब्द नहीं होते। लड़की कई बार उसके घर आ चुकी थी लेकिन ये पहली बार था जब लड़के की शादी हो चुकी थी। दिन भर के शूट में वे लगभग इस बात को भूल ही गए थे। शादी नयी नयी थी लेकिन उनका ऐसे दिन दिन भर भटकना और शाम को कहीं क्रैश करना नया नहीं था। आदतन था।

लड़की हाथ मुँह धोने चली गयी और लड़के ने किचन में चाय चढ़ा दी। आदतन लड़की ने चेहरा धोने के पहले बिंदी उतारी और आइने में चिपका दी, बस गड़बड़ ये हुयी कि आदतन उसने बिंदी वापस चेहरे पर लगायी नहीं। वहीं भूल गयी। दोनों ने चाय पी, कम्प्यूटर पर दिन भर के शूट किए हुए फ़ोटोज़ और विडीओज़ देखे, अच्छे फ़ोटो शोर्टलिस्ट किए और थोड़ी देर तक दीवार से पीठ टिकाए बैठे रहे बस।

इसके कुछेक महीने बाद जब लड़के की पत्नी लौट कर आयी और आते साथ ज़ोर से चीख़ी... तो लड़के का ध्यान गया कि आइने में एक छोटी सी लाल बिंदी चिपकी हुयी है। इतने दिनों में कभी उसका ध्यान तक नहीं गया, वरना शायद उसे उतार सकता था। पत्नी ने जब पूछा कि किसकी बिंदी है तो उसने सोचते हुए कहा कि शायद उस लड़की की होगी, उसे मालूम नहीं है। उसके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि लड़की ने अपनी बिंदी वहाँ क्यूँ लगायी। उसे ऐसा बिलकुल नहीं लगता था कि लड़की का ऐसा करना कहीं से इस बात को स्थापित करता है कि वो इस घर को अपना घर समझती है। ऐसा समझने के लिए उसे बिंदी चिपकाने की ज़रूरत थोड़े थी। वो वाक़ई इस घर को अपना घर समझती आयी थी।

पर इस घटना के बाद, जैसा कि होता आया है। वे कई कई सालों तक नहीं मिले और लड़की ने बिंदी लगानी बंद कर दी। उसके कई दोस्तों ने कहा कि उसका चेहरा बिंदी के बिना सूना लगता है लेकिन किसी ने ये नहीं कहा कि उस लड़के के बिना शहर, शूटिंग, ठहरी हुयी तस्वीरें... सब थोड़ी थोड़ी ख़ाली और उदास लगती हैं। कि चेहरे ही नहीं, ज़िंदगी में भी एक छोटी सी बिंदी भर जगह ही ख़ाली हुयी थी लेकिन उससे सब सूना सूना लगता है।

***

आक्स्फ़र्ड बुकस्टोर में किताबें और नोट्बुक नहीं ले जाने देते। औरत के पास बैग में इतनी किताबें थीं कि उसने पूरा बैग ही नीचे छोड़ दिया सेक्योरिटी के पास। उसने नोर्वेजियन वुड ख़रीदी। मुराकामी की ये किताब उसे बेहद पसंद थी। ख़ास तौर से वो हिस्सा जहाँ लड़की पूछती है कि मुझे हमेशा याद रखोगे, ये वादा कर सकते हो। वो यहाँ अपने एक पुराने क्लासमेट से मिलने आयी थी। वे डिबेट्स और एलोक्यूशन में साथ हिस्सा लेने जाते थे। लड़की हिंदी डिबेट करती थी, लड़का अंग्रेज़ी। कई साल बाद मिल रहे थे वो। ऐसे ही इंटर्नेट के किसी फ़ोरम पर मिले और पता लगा कि एक ही शहर में हैं तो लगा कि मिल लेते हैं।

इस बीच लड़का सॉल्ट एंड पेपर बालों वाला एक ख़ूबसूरत आदमी हो गया था जिसका बहुत ही सक्सेस्फ़ुल स्टार्ट-अप था। उसकी गिनती देश के कुछ बहुत ही चार्मिंग स्पीकर्ज़ में भी होती थी। जिस इवेंट में जाता, लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते। लेकिन। इस सफ़र में उसके साथ तन्हाई ही थी बस। स्टार्ट अप के बहुत ही तनावपूर्ण दिनों में उसकी पत्नी ने उसे तलाक़ दे दिया था। उसके पास वाक़ई अपने घर को देने के लिए वक़्त नहीं था। वो हफ़्तों घर नहीं आता था। लेकिन पत्नी के जाने के बाद उसे महसूस हुआ था कि सब कुछ हासिल करने के बाद तन्हाई ज़्यादा दुखती है। बात को सात साल हो गए थे। इस बीच उसके कई अफ़ेयर हुए लेकिन ऐसी कोई नहीं मिली जिससे शादी की जा सके।

औरत इंडिगो ब्लू साड़ी में प्यारी लग रही थी, जिसे क्यूट कहा जा सके। आदमी ख़ुद को जींस टीशर्ट में थोड़ा अंडरड्रेस्ड फ़ील कर रहा था। ‘जानता कि तुम इतनी अच्छी लगोगी तो कुछ ढंग से तैय्यार होकर आता। तुम्हारे साथ बैठा बुरा तो नहीं लग रहा?’। औरत की हँसी गुनगुनी थी। उसके हाथों की तरह, ये उसने बाद में जाना था। हज़ार बातें थीं उनके बीच। किताबों की, शहरों की, अफ़ेयर्ज़ की… नीली साड़ी में बैठी औरत यह जान कर काफ़ी अचरज में थी कि इतना कुछ हासिल करने के बाद भी उसे ख़ाली ख़ाली सा लगता है। क्यूँकि औरत को कभी ख़ाली ख़ाली सा लगा ही नहीं। वो एक इवेंट मैनज्मेंट कम्पनी में काम करती थी और वीकेंड्ज़ में गर्ल्ज़ ओन्ली ट्रिप पर जाती थी। कोई सॉफ़्ट कॉर्नर अगर उसके पास बचा भी था तो सिर्फ़ किताबी किरदारों के हिस्से। वो मुराकामी के इस हीरो से बेइंतहा प्यार करती थी। उसने अपना पसंदीदा हिस्सा पढ़ाया और कहा, किताब पूरी पढ़ लेना, हम तब दोबारा मिलेंगे। ‘अगर तुम्हें किताब अच्छी लगी, मतलब मैं भी अच्छी लगूँगी’। बैग नीचे था और यहाँ बुक्मार्क के लिए कुछ मिल नहीं रहा था, ना वो हिस्सा अंडरलाइन कर सकती थी। तो उसने माथे से नीली बिंदी उतारी और वहीं पैराग्राफ़ के दायीं ओर चिपका दी। ऐसे में कहना थोड़ा मुश्किल था कि वो अच्छी अभी से लग रही है। किताब पढ़ने की ज़रूरत नहीं।

आक्स्फ़र्ड से निकल कर वे सीपी में घूमे थोड़ी देर और फिर डिनर के लिए चले गए। एक लम्बी इत्मीनान वाली शाम एक सुंदर रात में ढल गयी थी। डिनर के बाद वजह तो थी, पर कोई जगह नहीं बची थी जहाँ साथ वक़्त बिताया जा सके। वे आख़िरी कस्टमर थे। लगभग दो बजे रेस्ट्रॉंट वालों ने ऑल्मोस्ट धकिया के बाहर किया था उन्हें। चलते हुए उन्होंने हाथ मिलाया और उसका ध्यान गया, कितने गर्म थे उसके हाथ…दुनिया पर्फ़ेक्ट लगी थी उस छोटे से वक्फ़े में जब उसका हाथ पकड़ा था।

बची हुयी रात, थोड़ी सी और सुबह और ज़रा सी दोपहर मिला कर उसने नोर्वेजियन वुड पूरी ख़त्म कर दी थी। ख़त्म कर देर तक चुप बैठा रहा। कि ऐसी किताब क्यूँ पढ़ने को कहा उसने। कि किताब अच्छी लगी, लेकिन इसे पसंद करने वाली लड़की के भीतर कोई गहरी उदासी होगी ऐसा क्यूँ लगा। उसने पूछा भी नहीं कि उसे क्यूँ पसंद है ये किताब। वादे के मुताबिक़ अब वो उससे मिल सकता था। ये सोचते हुए उसे सोफ़े पर ही नींद आ गयी। सपने में गहरा कुआँ था और उसमें खो जाते लोग। चाँदनी ने थपड़िया के उसे आठ बजे के आसपास जगाया। अब इस वीकेंड तो क्या ही करेंगे। अगले वीकेंड का देखते हैं। वे रहते भी शहर के दो छोर पर थे। इक उम्र के बाद प्रेम में भी पहले जैसा उतावलापन नहीं रह जाता।

सपने अच्छे आए पूरी रात। वो किताब हाथ में लेकर सोया था। ऊँगली से बिंदी को टटोलते हुए। जैसे कि वो पास थी, कि इस बिंदु से कहानी शुरू होगी। नीले समंदर, बर्फ़ीले पहाड़। लड़का कई दिनों बाद सपने देख रहा था।

सुबह की कॉफ़ी बेहतरीन बनी थी। वो मुस्कुराते हुए सुबह का अख़बार लेकर आया। कवर पेज पर ही ख़तरनाक बस ऐक्सिडेंट की तस्वीर थी। उसका मूड ख़राब हो गया। मीडिया वाले कुछ भी छाप देते हैं, तमीज़ नहीं इनको। ख़बर के पहले ही मरनेवालों की लिस्ट थी। सबसे ऊपर उसी का नाम था। उसे घबराहट हुयी। इतना अलग नाम था उसका कि कोई और हो ही नहीं सकती थी। घबराते हुए हाथों से फ़ोन लगाया तो स्विच्ड ऑफ़। मोबाइल पर ख़बर देखी तो एक जगह मरने वालों की तस्वीर भी थी। उसने वही कपड़े पहन रखे थे, एकदम शांत चेहरा। माथे पर बिंदी नहीं। उसका ध्यान क्यूँ गया इस बात पर कि माथे पर बिंदी नहीं थी। उसका मन किया कि किताब से बिंदी निकाल के अख़बार पर चिपका दे। क्या करेगा इक नीली बिंदी का। कहाँ जगह बचती है दुनिया में कि जहाँ किसी के चले जाने के बाद उसकी बिंदी चिपका दी जाए। 

11 March, 2019

बौराने वाले मौसम के लिए

पता है, किसी लड़के से दोस्ती करने के लिए ज़रूरी है कि लड़का थोड़ा कम ख़ूबसूरत हो और लड़की भी थोड़ी कम प्यारी हो। कि दो ख़ूबसूरत लोग कभी आपस में दोस्त तो हो ही नहीं सकते। कि मन ही अंदर से गरियाना शुरू हो जाता है, 'धिक्कार है...डूब मरो, ऐसे लड़के से कोई दोस्ती करता है!'। ये क्या क़िस्से कहानियाँ बक रही हो... कविता सुनाओ। लेकिन समय पर कविता याद थोड़े आती है। कि ख़ूबसूरत लड़कियों के साथ भी तो प्रॉब्लम होती है... ज़िंदगी में कभी फ़्लर्ट किया हो तो जानें... मतलब, बस एक नज़र देखना भर होता था और दुनिया भर के लड़के क़दमों में बिछे मिलते थे... क़सम से, कोई बढ़ा चढ़ा के नहीं बोल रहे हैं। अब ऐसे में क्या ही जाने लड़की कि कोई लड़का अच्छा लग रहा है तो क्या कहें उससे। तारीफ़ करें? उसकी आवाज़ की, उसकी हँसी की, उसके ड्रेसिंग सेंस की? ज़्यादा डेस्प्रेट तो नहीं लगेगा? कि क्या ज़माना आ गया है, तारीफ़ करने में डर लगने लगा है। उफ़! वाक़ई उमर हो गयी है अब... ये सब सूट नहीं करता इस उमर को। ग़ालिब ने कोई शेर लिखा होगा, कि कोई लड़का अच्छा लगने लगे तो क्या कहते हैं उसे… उन्हूँ… परवीन शाकिर ने पक्का लिखा होगा। वो क्या था, “बात वो आधी रात की रात वो पूरे चाँद की, चाँद भी ऐन चैत का उस पे तिरा जमाल भी”… हाँ लेकिन भरी दुपहरिया बोलने में कैसा तो लगेगा, एकदम फ़ीलिंग नहीं आएगी। उसपे लड़के ने पूछ दिया कि जमाल कौन है तो हे भगवान, क्या ही समझाऊँगी उसको! ये लड़कियाँ इतना कम क्यूँ लिखती हैं रोमांटिक.. अंग्रेज़ी में तारीफ़ करने से जी ही नहीं भरता, वरना लाना डेल रे का गाना चला देती, कुछ बातें तो समझ आ जातीं शायद। लेकिन, उफ़, वहाँ भी तो लेकिन है। अंग्रेज़ी गाना कभी भी एक बार में एकदम शब्द दर शब्द समझ भी तो नहीं आता। थोड़ा समय तो ऐक्सेंट खा ही जाता है। दिमाग़ किताबों के पन्ने पलट रहा है, कुछ तो चमकेगा ही कहीं, परवीन का शेर है, धुँधला रहा है, छूट रहा है पकड़ से। आपसे किसी लड़की ने कहा है कभी, कोई ख़ूबसूरत लड़का पास में बैठा हो तो याद में जो किताब के पन्ने पलटते हैं हम, वो कोरे होते जाते हैं? हाँ, याद आया, एकदम से माहौल पर फ़िट, ‘अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ…इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ’, उफ़, आपा ने बचा लिया। फिर वो भी तो याद आ रहा है साहिर और अमृता का प्ले, एक मुलाक़ात, मतलब शेखर सुमन कितने अदा से कहता था, ‘ये हुस्न तेरा, ये इश्क़ मेरा, रंगीन तो है बदनाम सही, मुझपर तो कई इल्ज़ाम लगे, तुझ पर भी कोई इल्ज़ाम सही’। साथ वाली फ़ोटो में ये शेर लिख के टैग कर दूँ तो क्या ही स्कैंडल होगा। वो रहने दो, अब तो वो भी याद आने लगा, ‘जब भी आता है तेरा नाम मेरे नाम के साथ, जाने क्यूँ लोग मेरे नाम से जल जाते हैं’। मगर इस शेर के साथ एक पुराने दोस्त की महबूब सी याद जुड़ी हुयी है। इसे छू नहीं सकते। इश्क़ में इतनी ईमानदारी तो रखनी ही चाहिए कि पुराने प्रेमियों वाले शेर नए वाले प्रेमियों के लिए न इस्तेमाल करें। लेकिन ये इश्क़ थोड़े है, ये तो ज़रा सी हार्म्लेस फ़्लर्टिंग है। ज़रा सा नशा जैसे। हल्का वाला, मारियुआना। इसमें तो थोड़ी ब्लेंडिंग चलनी चाहिए। नए पुराने का कॉक्टेल।

इस फीके से शहर में दुनिया की सबसे अच्छी कॉफ़ी मिलती है। फ़िल्टर कॉफ़ी। एकदम कड़क, ख़ूब ही मीठी। कुछ कुछ उन नए लोगों की तरह जो पहली बार में अच्छे लगते हैं। हाँ, बहुत अच्छे नहीं। पहली बार में बहुत अच्छे लगने वाले लोगों से ऐसा ख़तरनाक क़िस्म का इश्क़ होता है कि कुछ भी भूलना पॉसिबल नहीं होता है उनके बारे में। मुझसे पूछो तो मेरे मेमरी कार्ड में यही अलाय बलाय इन्फ़र्मेशन भरा हुआ है। किसी की आँखों का रंग, किसी के कपड़ों का रंग। कहीं बजता हुआ किसी दूसरी भाषा का गीत जिसका एक शब्द भी समझ नहीं आता। कोई रैंडम सी कोरियन फ़िल्म जिसमें लड़की मुड़ कर अंतिम अलविदा कहती है, ‘सायोनारा’ और सब्टायटल्ज़ पढ़ती हुयी लड़की के दिल में एकदम से बर्छी धंसी है… उसे ये शब्द पता है। वो सुन कर जानती है कि अब वो लौट कर नहीं आएगी। पियानो की धुन है, बहुत तेज़, बहुत तीखी। जानलेवा।

वो लड़के को एक कहानी सुनाना चाहती है। इस उलझन के लिए लेकिन कहानियों में कविताएँ उतरती हैं। उसे लगता है चुप रहना बेहतर होगा। वो मुस्कुराती है किसी पुराने दोस्त को याद करके। उसे शहर घुमाने का वादा जाने कब पूरा होगा।

सुबह सुबह सोच रही है कि लो मेंट्नेन्स होना कोई इतनी अच्छी बात नहीं है, ऐसे वही लोग होते हैं जिनका कॉन्फ़िडेन्स थोड़ा कम होता है। पहले उसे ऐसा बिलकुल नहीं लगता था लेकिन अब वो सोचती है कि डिमैंडिंग होना चाहिए। कि हक़ की लड़ाई सबसे पहले पर्सनल लेवल पर होती है। आप अगर अपने अपनों से अपने हिस्से का अटेन्शन नहीं माँगेंगे तो बाहर किसी से अपना हक़ कैसे माँगेंगे। कि कोई आपको इतना टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड क्यूँ ले हमेशा। कि आपके पास लौट आने को एक रास्ता क्यूँ हो। कि पुल जलाने ज़रूरी होते हैं, इसलिए कि उन पुलों पर से चल कर जो महबूब आते हैं उनके हाथ में ख़ंजर होता है। वे आपका गला रेत कर आपको मरने के इंतज़ार में छोड़ सकते हैं… ये तो तब, जब आपके महबूब रहमदिल हुए तो, वरना तो इंतज़ार एक धीमी मौत है सो है ही।

कभी कभी लगता है, कितना नेगेटिव हो सकते है हम। अच्छे खासे प्यारे लड़के से बात शुरू होकर जलते हुए पुल और मौत तक आ गयी है। कितना मुश्किल होता है कॉफ़ी के लिए पूछना। कि बेवजह वक़्त बिताना। किसी से थोड़ा सा वक़्त माँगना। कि सब कुछ ग़दर कॉम्प्लिकेटेड है। कि हम हर छोटी सी बात के आगे पीछे हज़ार दुनियाएँ बनाते हुए चलते हैं। इन हज़ारों ख़्वाहिशों वाली हज़ारों दुनिया में कोई एक दुनिया होती है जिसमें हम किसी एक शहर में रहते हैं। अक्सर मिला करते हैं चाय कॉफ़ी पे और साथ में लिखते हैं कहानियाँ। कि हम कई बार एक दूसरे से की जाने वाली बातें किरदारों के थ्रू करते हैं। कि धीरे धीरे हम दोनों किसी कहानी के किरदार हो जाते हैं।

17 February, 2019

नमकीन समंदर पानी में घुलता फ़िरोज़ी लड़का

उन्हें मालूम भी नहीं होता। बेपरवाही में गुज़रते हैं शहर से... एक दूसरे के सामने से भी। अपने में खोए हुए। उनके पीछे हो रही बारिश सिहरती है... उनके हिस्से की ठंड शहर ओढ़ लेता है, पतझर को थोड़ा लम्बा रुकने की गुज़ारिश करते हुए। सड़कों पर पीले पत्ते कुछ ज़्यादा दिन बिछे रह जाते हैं। पतझर एक बेहद उदार मौसम है, आप तो जानते ही होंगे।

लड़की बहुत दिन बाद अपने मुहल्ले लौटी है। ११ साल जहाँ रूक जाओ, घर हो ही जाता है। उसने पहली बार ग़ौर किया कि वो इस जगह के मौसमों को पहचानती है। यहाँ के फूलों को, पेड़ों को, आसमान के हिस्से को भी। इन रास्तों को भी तो पता है कि किसी किसी मौसम, जब सारे गुलाबी फूल खिल जाते हैं, लड़की देर रात सिगरेट क्यूँ पीती है।

वे साल में एक बार मिलते थे। बातें करते थे। चुप रहते थे बहुत देर। सड़कों पर चलते थे दूर दूर तक। कभी कभी भीड़ वाली सड़कों पर एक दूसरे का हाथ पकड़ लेते थे। कॉफ़ी पीते हुए अक्सर देखते थे एक दूसरे के हाथ, कप के इर्द गिर्द लिपटे हुए और सोचते थे कि हाथ पकड़ के बैठना कितना सिर्फ़ उन्हें असहज करेगा या आसपास बैठे और लोगों को भी। ज़िंदगी ने ठीक ठीक हिसाब रखा था, लड़की के हिस्से में स्याही तो बहुत आयी थी, क़िस्से भी बहुत… लेकिन उसकी फ़ेवरिट ब्लैक कॉफ़ी - आइस्ड अमेरिकानो पीने से डॉक्टर ने मना कर दिया था। इन दिनों, गहरी गुलाबी चाय पीती थी लड़की, बहुत मीठी ख़ुशबू वाली, बिना शक्कर की चाय… ठीक उसके होठों के रंग की। लड़के के इतने तामझाम नहीं थे, हमेशा से वही सिंपल कैपचीनो।

अच्छा, प्यारा, सादामिज़ाज लड़का था। अक्सर कपड़े भी सफ़ेद ही पहनता था। प्योर कॉटन की शर्ट्स जो ठीक ठीक आँसू सोख लेते थे। लड़की के बचपन में उसकी मम्मी स्कूल ड्रेस में एक तिकोना रूमाल आलपिन से टाँक के भेजती थी हर रोज़, जो रोज़ कहीं खो जाता था। फिर लड़ाई झगड़ा, गिरना पड़ना तो लगा ही रहता था। तो आँसू हमेशा सफ़ेद शर्ट की स्लीव में ही पोंछे गए थे। लड़की बचपन से जानती थी। सफ़ेद कॉटन की शर्ट्स अच्छे से आँसू सोख लेती हैं। लेकिन क्या ये बात लड़के को पता थी? 

उसकी शर्ट्स की ही ख़ासियत होती होगी, लड़की में इतना बचपना तो था नहीं कि हर आख़िरी मुलाक़ात में रो दे। यूँ भी काजल लगाने वाली लड़कियाँ अपने आँसुओं पर अच्छा ख़ासा कंट्रोल रख सकती हैं। वे जिनके अज़ीज़ सफ़ेद शर्ट्स पहनें आख़िरी मुलाक़ात में, वे लड़कियाँ तो ख़ास तौर से। 

लड़की हर बार उसके लिए कोई तोहफ़ा ले कर आती। कभी काढ़े हुए रूमाल। कभी बहुत दूर देश से कोई सिगरेट लाइटर। कभी किसी नए शहर में सुनी जिप्सी गानों की सीडी। इक बार बहुत सुंदर सा मफ़लर लेकर आयी। फ़िरोज़ी रंग का, बेहद नर्म ऊन से बना हुआ। जैसे लड़की पहली बार मिलती थी तो गले में बाँहें डालती थी… एकदम हौले से… जैसे लड़का कोई ख़्वाब है। टूट जाएगा। उस साल दिल्ली में ठंड भी बहुत पड़ी थी। उन्होंने उस साल ठंड के लिहाज़ से पहली बार साथ में थोड़ी सी विस्की पी थी। ये उस शहर में इस साल की आख़िरी शाम भी थी। कोहरीले शहर में हथेलियाँ इतनी ठंडी थीं कि वे हाथ थामे चल रहे थे। एक दूसरे में ज़रा ज़रा सिमटते हुए। 

लड़की साल में बस यही कुछ दिन सिगरेट पीती, जब उसके साथ होती। उसकी जूठी सिगरेट। लड़का हर साल आख़िरी दिन, जाने के ठीक पहले, एक पूरी डिब्बी सिगरेट ख़रीदता। वे रेलवे स्टेशन से बहुत दूर होते लेकिन फिर भी जैसे रेल की सीटी सुनायी देती…पटरियों पर से गुज़रती रेल की थरथराहट लड़की के बदन में भर जाती। वो सड़क पर चलते हुए भी कभी कभी पूरी थरथराने लगती थी। फिर हथेलियों को आपस में रगड़ती हुयी कहती, इस साल ठंड बहुत ज़्यादा है ना। इस बार वो कुछ यूँ ही थरथरा रही थी तो लड़के ने अपने गले से फ़िरोज़ी मफ़लर उतारा और उसके गले में लपेट दिया। लड़की ने कुछ नहीं कहा। उसके आँसू मफ़लर को गीला करने लगे। शहर के इस बिंदु से स्टेशन और एयरपोर्ट बराबर दूरी पर थे। दोनों अपना सामान लेकर चले थे, छोटे छोटे बक्से, पहियों वाले। पेवमेंट पर दाएँ बाएँ रख दिया था। जैसे सोफ़े के हत्थे होते हैं। उनके चेहरे पर पड़ती हल्की धूप आँखों की उदासी को गर्माहट दे रही थी। ख़ुद को संयत करने के लिए लड़की ने गहरी साँस ली तो महसूस किया कि हवा की ख़ुशबू थोड़ी अलग है। फ़िरोज़ी मफ़लर से लड़के की भीनी भीनी गंध आ रही थी। लड़के ने उसके काँधे पर हाथ रखा और थोड़ा सा उसे अपने पास खींच लिया। लड़की ने उसके काँधे पर सिर टिका दिया। दोनों के चेहरे पर एक उदास रोशनी थी। प्रेम और विदा की मिलिजुली।

लड़के ने डिब्बे से सिगरेट निकाल कर जलायी। लड़की को सिगरेट देते हुए ज़रा से उसके हाथ भी काँपे… कोई ट्रेन उसके भीतर भी गुज़र रही थी। इस शहर से बहुत दूर जाती हुयी। वे चुप थे। बातें इतनी थीं कि शुरू होतीं तो ख़त्म नहीं होतीं। ऐसी बातें ना कही जाएँ तो विदा कहना आसान होता है। सिगरेट ख़त्म हुयी तो लड़के ने उसे पेवमेंट पर हल्का सा रगड़ कर बुझाया और फिर जेब से वालेट निकाला। लड़की हँस पड़ी। ‘फिर से?’। ‘और नहीं क्या’, लड़का आँखें नचाता हुआ बोला। प्रेम में ये उनका छोटा सा खेल था। वालेट में रेज़गारी के साथ सिगरेट का टुकड़ा था, लड़के ने बड़े प्यार से उसे चूम कर बाय बाय कहा और अभी की बुझायी सिगरेट बट को उसमें रख दिया। फिर उसने सिगरेट की डिब्बी लड़की को दे दी। उसमें उन्निस सिगरेटें बची थीं। लड़का हर बार जाने के पहले एक पैकेट सिगरेट ख़रीदता, उसमें से एक सिगरेट जला कर दोनों पीते और फिर वो सिगरेट का डिब्बा लड़की को दे कर चला जाता। कि साल में जब भी कभी मेरी बहुत याद आए तो एक सिगरेट जला लेना और हम साथ में सिगरेट पी रहे होंगे। लड़की हर बार पूछती, साल में सिर्फ़ उन्निस दिन बहुत याद करना, कुछ कम नहीं है, लड़का कहता कि नम्बर में न बाँधो तो प्यार इन्फ़िनिट हो जाएगा। मैं नहीं चाहता तुम मुझसे इतना प्यार करो, या कि मुझे इतना याद करो। कम की बाउंड्री वो सिगरेट से जला कर मार्क कर देता था। लड़की जिरह करती, मुझपर ही लिमिट क्यूँ। तुम कर सकते हो, जितना मर्ज़ी प्यार मुझसे… लड़का कहता, तुम ज़्यादा प्यार करती हो, तुम्हें ख़ुद की कोई लिमिट बनानी नहीं आती। मैं इतने से में नहीं बाँधूँगा तो तुम मेरे प्यार में पागल, घर बार छोड़ कर बुलेट लिए निकल जाओगी दुनिया के किसी भी रास्ते पर। लड़की उसके बेसिरपैर के तर्कों पर हँसती, हँसते हँसते आँख भर आती। 

लड़की ने गले से फ़िरोज़ी मफ़लर उतार कर थोड़ी देर हाथ में लिए लिए पूछा, ‘‘मैं तुम्हारा मफ़लर रख लूँ?’। ‘रख लो’… लड़की ने उसका जवाब सुनते सुनते भी लड़के के गले में मफ़लर लपेट दिया। ‘सॉरी, थोड़ा गीला होगा। इतना रोना नहीं चाहिए था मुझे, तुम पर खिलता है। बहुत शौक़ से लायी थी तुम्हारे लिए’। लड़के ने उसे बाँहों में भरा। दोनों के बदन से एक सी ख़ुशबू आ रही थी। धूप, धुएँ और आँसुओं में हल्के भीगे फ़िरोज़ी मफ़लर की।

इक पूरा लम्बा साल और क़ायदे से देखा जाए तो सिर्फ़ अट्ठारह सिगरेटें। कि लड़की आख़िरी सिगरेट बचा कर रखती थी जब तक लड़के से दुबारा मिल न ले। पहली सिगरेट एयरपोर्ट पर पीती। स्मोकिंग लाउंज में सिगरेट जलाने के लिए एक बटन होता था जो ज़ाहिर तौर से मर्दों की हाइट के लिए होता था…लड़की पंजों पर उचक कर सिगरेट जलाती। मुस्कुराती। कि लड़का होता तो उसकी सिगरेट जला देता। कश छोड़ते हुए छत को देखती लड़की…आँखें भर आतीं। सोचती, छत पर कुछ ख़ूबसूरत बना होना चाहिए कि जब वो कश छोड़ते हुए ऊपर देखे, तो महबूब की आँखें कुछ कम याद आएँ। 

पहला हफ़्ता सबसे मुश्किल गुज़रता। पहला महीना भी। 

स्टडी टेबल पर लिखते हुए सिगरेट जला लेती। काग़ज़ से लड़के की ख़ुशबू आती। उँगलियों पर फ़िरोज़ी स्याही लगी होती तो उसका मफ़लर याद आता। वो सिर्फ़ ख़त लिखना चाहती। या कि कविताएँ। कविता लिखना शुरू करती तो हिचकियाँ आने लगती बहुत। फिर वो स्टडी से बाहर छत पर आ जाती। आधा चाँद होता आसमान में… आधा उसकी आँखों में चुभता। उसे लगता सब कुछ आधा आधा ही है दुनिया में… आधी पी हुयी सिगरेट बुझा देती। चटाई बिछा कर लेट जाती और गुनगुनाती। लड़के ने दस सिगरेटें लगातार पी रखी होतीं उस शाम और सीने में जलन हो रही होती। वो छोटी छोटी साँस लेता। सीने पर हाथ रखता और जाने किससे कहता, ‘ओह, इतना याद मत किया करो जान।’। 

अगली सुबह लड़की अपना बैग तैयार करती। कुछ कॉटन की साड़ियाँ, शॉर्ट्स, टीशर्ट्स। लोर्का, बोर्हेस और सिंबोर्सका की किताबें। लैवेंडर इत्र। स्याही की बोतल। कलमें। एयरबीऐनबी पर एक स्टूडीओ बुक करती और समंदर किनारे के शहर को निकल पड़ती ड्राइव कर के। रास्ते में जैज़ सुनती, रफ़ी को भी और 90s के गाने भी। कई बार सोचती… काश कि उसका शहर देख पाती। लड़के का शहर कोई तिलिस्म लगता उसे। गूगल के थ्री डी मैप में देखती। गालियाँ, दुकानें, उसका दफ़्तर, उसकी सिगरेट की दुकान। सब कुछ रियल लगता। कि जैसे वो लड़का भी सिगरेट के डिब्बे पर लिखी झूठी वॉर्निंग नहीं है। सच में उससे इश्क़ करने से मर सकती है वो। 

पता नहीं साल कैसे बीतता। कितना वो जलती, कितना सिगरेट सुलगती। मुश्किल होने लगता अलग अलग शहरों में जीना। दायरों में बंध के मुहब्बत करना। लड़की चाहती कि ख़रीद ले एक पूरी पैकेट सिगरेट और एक साथ पी डाले। कि साँस साँस तकलीफ़ महसूस हो, तो शायद माने कि मुहब्बत कोई अच्छी चीज़ नहीं है। लिखने भर को की गयी मुहब्बत कब ज़िंदगी में अपना हिस्सा माँगने लगती है, तय नहीं किया जा सकता। कविताएँ लिख कर उसका दिल नहीं भरता। इरॉटिका लिखती। उसके दिमाग़ में वायलेंट लवमेकिंग के दृश्य उगते। नमकीन समंदर पानी में घुलता फ़िरोज़ी लड़का। फ़िरोज़ी स्याही से लिखे क़िस्सों के किरदार फ़िरोज़ी ही होते हैं, हमेशा। फ़िरोज़ी मफ़लर से बंद कर रखी होती है उसने उसकी आँखें…इतनी ज़ोर से पकड़ी है कलाई कि गुलाबी दाग़ पड़ गए हैं उसकी उँगलियों के… लड़की समंदर किनारे सोयी हुयी है। लहर आती जाती भिगोती है उसे। वो आँख बंद करती है खोलती है… सूरज जलता बुझता है। गोल गोल लाल नारंगी रोशनियाँ नाचती हैं उसकी बंद आँखों में… हिकी… तुम समझे नहीं मैं मफ़लर ही क्यूँ लायी तुम्हारे लिए, उफ़! 

सारी सिगरेटें पी गयी है लड़की। समंदर किनारे। पूरी धूप में जलती है। बालों में खारा पानी है। बदन पर रेत। बैरा ड्रिंक रख के गया है अभी दो मिनट पहले। विस्की ऑन द रॉक्स। एक ही घूँट में पी कर ग्लास नीचे रखती है और महसूसती है कि तीखी प्यास लगी है, सर घूम रहा है, सिगरेटें ख़त्म हैं और ये पहला ही महीना है। 

उसे मेसेज करती है, ‘सुनो, सिगरेट ख़त्म हो गयी हैं ग़लती से। भिजवा दो, या लेकर आ जाओ। मैं इस शहर में हूँ’। अगली सुबह फ़ोन देखती है तो ख़ुद को लानत भेजती है कि नशे में भी इतना होश रहता है कि कौन सा मेसेज सेंड करना है और कौन सा सेव ऐज ड्राफ़्ट। क़िस्सा लिखती है, लेकिन किसी किताब में छापने के लिए नहीं।

ब्लॉग है जो कि प्राइवेट है… उसमें भी पोस्ट्स कोई पब्लिश नहीं… लेकिन वे ड्राफ़्ट्स… वे मुहब्बत के नहीं, क़त्ल के ड्राफ़्ट हैं। लड़की सोचती है उससे कहेगी कभी, ‘सुनो, मुझसे समंदर किनारे किसी शहर में कभी मत मिलना’।

15 February, 2019

हमेशा टाइप के लोग

‘अच्छा ये बताओ, अगर ऐसा हो सके, कि तुम जो भी चुनोगे… उसे पूरी तरह भूल जाओगे, तो तुम क्या भूलना चाहोगे?’
‘तुम्हें’
‘मुझे?! मुझे क्यूँ भूलना चाहोगे तुम? मुझे तो तुम ठीक से जानते भी नहीं। अभी तो कुछ ख़ास है भी नहीं भूलने को। ठीक से सोच कर जवाब दो’
‘मतलब मैं इंतज़ार करूँ, तुम्हारे साथ भूलने को कुछ ख़ास हो जाए, तब भूलूँ तुम्हें?’
‘हाँ। ये अच्छा रहेगा’
'डूब मरो समंदर में तुम’
‘तुम भूल रहे हो, मेरे शहर में समंदर नहीं है…तुम्हारे शहर में है…तुम ही काहे नहीं डूब मरते समंदर में’

अजीब लड़की थी ये… और उससे भी अजीब उसकी बातें। उफ़। मतलब। कौन हँसता है ऐसे जैसे कोई उसकी हँसी का हिसाब नहीं रखता हो। कि हम सबको गिन के मुस्कुराहटें मिलती हैं कि नहीं, और हँसी का तो स्टॉक पूरी दुनिया में कम है, उसपर ये लड़की हँसती इतनी थी जैसे सारा स्टॉक अकेले ख़त्म कर देगी। वो तो अच्छा था कि उनके शहर एक दूसरे से इत्मीनान की दूरी पर थे। इतने क़रीब कि जब जी चाहे जा सकते थे और इतने दूर कि जब जी चाहे, तब तो हरगिज़ ही नहीं जा सकते। लड़का बस लौट ही रहा था ऑफ़िस से अभी। कितना अच्छा तो दिन गया था, स्क्रिप्ट क्लोज़ हुयी थी, दोस्त पार्टी पर खींच ले गए थे। थोड़ी सी चढ़ी थी, लेकिन शराब नहीं… ख़ुशी। टैक्सी और उस लड़की का मेसेज एक साथ आया। शहर का ट्रैफ़िक अच्छा लगा उसे। कमसेकम एक डेढ़ घंटे इत्मीनान से उससे बात कर सकता था। लम्बी, बेसिरपैर की बातें। 

‘तुम्हें पता है, कुछ शब्द इग्ज़िस्ट नहीं करते क्यूँकि किसी ने वैसा महसूस नहीं किया होता। हमारा काम होता है वे शब्द बनाना। जैसे कि भविष्य की याद। तुम। मान लो तुम्हारा नाम रख दूँ इस फ़ीलिंग के लिए। अपूर्वा। कि मुझे लगता है तुम मेरे भविष्य की याद हो। तुम्हारे साथ कितना सारा कुछ है जो कभी किसी रोज़ के नाम लिखना चाहता हूँ मुझे समझ नहीं आता। 
तुम्हारे लिए शहर बनाने का मन करता है। तुम्हारे शहर की बारिश चखने का मन करता है। मुझे लगता था मेरे शहर की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है ये समंदर… लेकिन तुमसे मिलने के बाद लगता है किसी शहर की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ बस तुम हो सकती हो।’
‘ऐसे थोड़े होता है’
‘अरे, नहीं होता है तो कहा क्यूँ था, बैंगलोर आना… यहाँ की सबसे अच्छी चीज़ मैं हूँ… मेरे साथ घूमोगे तो कुछ ठीक-ठाक लगेगा शहर, वरना इस शहर में कुछ भी नहीं है… बहुत ही बोरिंग जगह है’
‘तो मैंने तो सच ही कहा था। बैंगलोर है ही बोरिंग’
‘बोरिंग ठीक है। बोरिंग की याद नहीं आती। बोरिंग दुखता नहीं। बोरिंग को भूलने की मेहनत नहीं करनी पड़ती।’
‘तुम इतने आलसी क्यूँ हो?’
‘अरे सेल्फ़-प्रेज़र्वेशन कहते हैं इसे… आत्मरक्षा।’

‘तो तुम सच में मुझे भूल जाना चाहोगे?’
‘सच में कुछ ऐसा है जिससे तुम्हें पूरी तरह भूलना मुमकिन हो?’
‘शायद होगा, पर मैं तुम्हें पूरी तरह याद हो जाऊँ, फिर पता चलेगा’
‘और जो नहीं भूल पाया तो?’
‘तो फिर क्या, लिख लेना कोई कहानी, लिख के भूलना आता तो है तुम्हें’
‘सब कुछ लिख के भूलते नहीं…कुछ लिख के याद भी रह जाता है। हमेशा।’
‘तो मैं ‘हमेशा' टाइप हूँ?’
‘तुम अपने टाइप हो। तुम्हारा कोई टाइप नहीं है’
‘हम्म…’
‘बाय फिर?’
‘फिर? मेरा नाम भूल गए तुम?’
‘हाँ। यहाँ से शुरू करते हैं। नाम भूलने से’

‘ठीक’
‘ठीक’

13 February, 2019

ढेर सवाल जवाब में मत उलझो, बुड़बक बिल्ली, अचरज से ही मरती है

शाम से सोच रहे हैं कि तमीज़ की हद कहाँ खींची जाती है। अपने आप से मुझे समझ कब आएगा! इतना क्युरीयस क्यूँ हूँ हर चीज़ को लेकर। सवाल पे सवाल पे सवाल। ऐसे सवाल जो कोई सोचेगा भी नहीं। कुछ ज़्यादा ही कल्पना है हर चीज़ को लेकर और फिर कल्पना तथ्य के कितने क़रीब है, सो पता करने के सवाल। इतना अचरज लिए जीती हूँ। हर सुबह धूप को देखती हूँ तो लगता है पहले देखा नहीं इस रंग में। कुछ ज़्यादा ही दौड़ते हैं कल्पनाओं के घोड़े...

मतलब हमसे तो बात करना ही बेकार है। कोई अच्छा लगेगा तो उसके शहर, मौसम, गली, दोस्त, किताबें... सब जान लेना होगा हमें। 

मुझे दोस्तों की याद अक्सर शाम में आती है। दिन तो ऑफ़िस के कामकाज में फुर्र हो जाता है। शाम सूरज डूबता है तो जैसे दिल भी डूबने लगता है। ऐसा लगता है एक और दिन ख़त्म हुआ जिसमें उसकी आवाज़ का नशा नहीं घुला। कि जैसे सिगरेट, दारू, ड्रग्स वालों को तलब होती है... मुझे लोगों की आदत पड़ने लगती है जल्दी... उसमें भी सिर्फ़ ज़रा सी आवाज़ चाहिए होती है अक्सर। तो फ़ोन किया शाम को। कॉलेज में हमें जब वोईस ट्रेनिंग दी गयी थी तो फ़ोन पर बात करने के तरीक़े भी सिखाए गए थे, कुछ उस समय की ट्रेनिंग कुछ अपना जीवन का अनुभव... या तो फ़ोन में हेलो से समझ जाती हूँ, वरना पूछ लेती हूँ, व्यस्त तो नहीं हैं... अंग्रेज़ी में किया तो सिंपल, good time to talk? जब लोगों के पास फ़ुर्सत होती है तो फ़ोन उठा कर पहले शब्द जो वह कहते हैं उसमें घुल जाती है। कभी मेरा नाम, तो कभी सिर्फ़ हेलो, बहुत प्यार वाले लोग हुए तो जानेमन... 

तो कल शाम की बात थी। फ़ोन किया। सरकार की आवाज़ में ज़रा सी नीम नींद थी। ज़रा सा शाम का अँधेरा। मैंने पूछा, 'क्या कर रहे थे अभी'। उन्होंने कहा, 'नहाने जा रहा था'। मेरे जैसा मुँहफट इंसान... पूछने वाली थी, आप कौन सा साबुन लगाते हैं। फिर लगा ये बदतमीज़ वाला सवाल है...तो रोक लिया। पूछा नहीं। लेकिन मन में आयी बात ना कहें तो बाक़ियों के पेट में दर्द होता है साला हमारा माथा दुखा जाता है। सवाल सीधे दिमाग़ के थ्रू जाता है और अंदर बाहर अंदर बाहर करता रहता है। ख़ुशबुएँ खँगालता हुआ। सोचता हुआ कि उस जैसा आदमी...फिर लगता है, उस जैसा तो कोई दूसरा आदमी है ही नहीं... फिर भी क़सम से सिर्फ़ साबुन के बारे में सोचता हुआ... ना उसे नहाते हुए, ना उसका भीगा बदन... कुछ भी नहीं सोचा... सोचा बस ये कि वो किस साबुन से नहाता होगा। फिर दुनिया के सारे साबुनों और उसकी गंध में डूबती रही... जिनकी गंध मैं पहचानती हूँ। कितने सारे साबुन याद आए रात भर में। 

लिरिल - उसके साथ वाला ऐड्वर्टायज़्मेंट... पटना की गरमी वाले दिन, जिसमें हमेशा सिर्फ़ लिरिल ही लगाती थी। वो मेरे घर आया हुआ था  जस्ट नहा के निकला था बाथरूम से... मतलब तौलिया लपेट कर, उफ़! क्या ही कहें पहली बार किसी लड़के को वैसे देखा था। बदन पर ज़रा ज़रा पानी की बूँदें, साँवला रंग... पहली बार लगा इसी को रेड-हॉट कहते हैं। बदन जिस पर से पानी की बूँदें भाप बन कर उड़ जाएँ। हमने शरीफ़ लड़की की तरह नज़रें फेर लीं लेकिन वो दृश्य एकदम छप गया था था मिज़ाज में। हरारत की तरह। मैं उसे क़रीब से नहीं जानती थी तो ज़ाहिर सी बात है, गंध के बारे में कुछ नहीं पता था। बाथरूम में लिरिल की सांद्र गंध थी। मैं इसी साबुन से रोज़ नहाती थी लेकिन उस रोज़ पहली बार किसी की देह गंध भी घुली हुयी महसूस की। हिंदी के तो शब्द ही ख़त्म थे, अंग्रेज़ी से उधार लेने पड़े... heady cocktail of fragrances... कुछ ऐसा कि सर घूम जाए। 

सेंट औफ़ ए वुमन का वो सीन भी याद आया कल, कर्नल कहता है, मैं इस गंध को पहचानता हूँ और ठीक ठीक नाम बता देता है, ओगिल्वि सिस्टर्ज़ सोप। जो कि डौना को उसकी ग्रैंड्मदर ने दिए हैं। फिर अपनी लिखी वो कहानी जिसमें लड़का लड़की दोनों अपनी पसंद का साबुन लाने के लिए लड़ रहे होते हैं और आख़िरी लिरिल से ही नहाते हैं। पीयर्स मेरे नानाजी लगाया करते थे। ज़िंदगी भर उन्होंने अपना साबुन नहीं बदला। मुझे अब भी बचपन में लौटना होता है तो पीयर्स ले आती हूँ। पटना में जिस घर में रहते थे, वहाँ हमारे एक पड़ोसी थे, वो सिर्फ़ लाइफ़ बॉय ही लगाते थे। ये इसलिए पता चला कि हमलोग होली का रंग छुड़ाने के लिए हमेशा लाइफ़बॉय का इस्तेमाल करते थे। एक बार लाना भूल गए तो वो आंटी हम सब को नया साबुन ला के दे दी थी, सबको मालूम था। 

मेरे दिमाग़ में ख़ुशबुओं की पूरी डिक्शनरी है। जिसमें कई लोग रहते हैं। साबुन। पर्फ़्यूम। आफ़्टर शेव लोशन। मॉस्चराइज़र। कितना कुछ मालूम रहता है। किसी का हाथ चूमा था तो उसकी उँगलियों से सिगरेट की गंध आ रही थी। जो लोग मुझे पसंद होते हैं, उनकी गंध मुझे याद होती है। और अगर नहीं होती है तो बौराने लगते हैं। समंदर किनारे भटकते हुए आँख बंद करके पूरे ध्यान से याद करने की कोशिश करते हैं कि कैसी गंध थी उसकी। किसी स्टेशन पर विदा कहते हुए। आख़िरी बार गले लगते हुए गहरी साँस लेना और सोचना कुछ भी नहीं। जाती ट्रेन को देखना। ख़ाली स्टेशन पर भरी भरी आँख और भरा भरा दिल लिए गुनगुनाना। इश्क़ की ख़ुशबू लपेटना इर्द गिर्द... किसी नर्म सी शॉल जैसे। टहलना कच्ची सड़क पर, झील किनारे। 

कि जब सोची जा सकती हैं कितनी सारी चीज़ें, पूछा जा सकता है कितना सारा कुछ... उलझना इसी सवाल पर। कि कौन सा साबुन लगाता है वो। कैसी ख़ुशबू आती है उसके गीले बदन से। रात को नहा कर निकलता है तो हवा ठंडी और दीवानी हुयी जाती है। कि वो आदमी है कि तिलिस्म। खुलता ही नहीं। बाँधता है बाँहों में। ख़यालों में। कहानियों में। चुप्पी में भी। 

Curiosity killed the cat. हम भी ना, उफ़। मर जाएँ!
Read more: https://www.springfieldspringfield.co.uk/movie_script.php?movie=scent-of-a-woman

11 February, 2019

फ़रवरी की यूँही वाली कोई शाम

इधर अचानक से इस बात पर ध्यान गया कि एक आर्टिस्ट - लेखक मान लो, और बाक़ी लोगों में क्या अंतर होता है। घटना छोटी सी थी, लेकिन उससे पता चला कि कोई आर्टिस्ट हमेशा चीज़ों को उसके डिटेल्ज़ के साथ देखता है। जबकि आम तौर से लोग चीज़ों को हमेशा generalise कर के देखते हैं। मेरे लिए लोगों को किसी भी वर्गीकरण में रखना मुश्किल होता है। मैं जिन्हें जानती हूँ, उनके डिटेल्ज़ के साथ जानती हूँ। उनके शहर का आसमान, उनके वसंत के रंग, उनके पसंद की किताबें... उनकी आवाज़ की कोमलता, उनकी सहृदयता ... दोस्तों के साथ के उनके क़िस्से... सब से जानती हूँ ...

यहाँ मैं भी एक generalisation ही कर रही हूँ। लेकिन ऐसा देखा है कि किसी भी आर्टिस्ट की नज़र बहुत चीज़ों पर होती है। उसे रोज़ के आसमान के अलग रंग दिखते हैं। क्लाद मौने ने एक ही जगह के अलग अलग मौसमों में चित्र बनाए कि सूरज की रौशनी हर मौसम को अलग छटा बिखेरती थी। किसी भी महान कलाकृति में अक्सर छोटी छोटी चीज़ों पर पूरा अटेंशन दिया गया होता है। हमारे मन्दिरों में जो मूर्तियाँ होती हैं उनमें गंधर्वों और अप्सराओं के कपड़े इतने अलग अलग होते हैं कि किन्हीं दो पर एक डिज़ायन नहीं मिलता।

दूसरी जिस चीज़ पर कल ध्यान गया वो ये था कि हमें बचपन में जब वर्गीकरण सिखाया गया तो हर चीज़ को एक पहले से बेहतर या कमतर तरीक़े से आँकना ही सिखाया गया। दो चीज़ें अलग हो सकती हैं, जिनकी आपस में तुलना बेमानी है, ये कम सिखाया गया। हमेशा किसी दूसरे बच्चे से बेहतर होना, किसी से ज़्यादा मार्क लाना रिपोर्ट कार्ड में, दौड़ में आगे बढ़ना जैसी चीज़ें... लेकिन हम सबकी ज़िंदगी अलग अलग होगी और हम किसी से हमेशा कॉम्पटिशन में नहीं हैं, ये कम सिखाया गया। कम लोगों को सिखाया गया। इसलिए भले ही मैं किसी की तुलना में कुछ ज़्यादा हासिल करना नहीं चाहूँ, यहाँ कुछ लोग हमेशा होंगे जो मुझसे होड़ लगाएँगे। जिन्हें इस बात से ख़ुशी मिलेगी या दुःख होगा कि हम पीछे रह गए या आगे निकल गए.

मेरे घर में कभी बहुत ज़्यादा दबाव नहीं था कि बहुत ज़्यादा पढ़ो या उससे ज़्यादा नम्बर लाओ। हाँ, लोगों को ये शौक़ ज़रूर था कि मुझे ख़ूब ख़ूब पढ़ता देखें और टोकें, कि इतना मत पढ़ो। वो एक सुख मैंने कभी नहीं दिया किसी को। पता नहीं कैसे तो, पर बचपन में सीख गए थे कि क्लास में तीसरी या चौथी पोज़ीशन लाने के लिए बहुत कम पढ़ना पड़ता है लेकिन फ़र्स्ट आने के लिए बहुत ज़्यादा पढ़ना पड़ता है और उसके बाद भी चान्स है कि आप सेकंड कर जाएँगे। कितना भी पढ़ लो, फ़र्स्ट आने की गारंटी कभी नहीं है। तो हमने तय कर लिया था। पढ़ पढ़ के जान नहीं देना है। ज़िंदगी जिएँगे ख़ुश ख़ुश। IIMC में गए तो मालूम था कि बाद की ज़िंदगी पता नहीं कैसी होगी। यहाँ रिपोर्ट कार्ड तो मिलना नहीं है तो जितना वक़्त है, थोड़ा मज़े ले लेते हैं। 

माँ के नहीं रहने पर बहुत सी चीज़ों का हिसाब ही गड़बड़ा गया था। लोग मुझे मेरे बिखरे कमरे से जज करने की कोशिश करते और मैं उन्हें करने देती। अब भी मेरे घर में स्टडी को छोड़ के सब बिखरा हुआ ही है। लेकिन मैं जानती हूँ, मुझे हर चीज़ में फ़र्स्ट नहीं आना है। एक छोटी सी ज़िंदगी है। मुझे वो करना है जिसमें मुझे ख़ुशी मिलती है। जैसे कि लिखना। लूप में जैज़ सुनना। रात को साड़ी का आँचल लहराते, बाल खोल के डान्स करना। मैं कहानी अच्छी सुनाती हूँ, लिखती अच्छा हूँ। तो लिखना पढ़ना करेंगे। बाक़ी साफ़ घर रखने वाले लोग उसमें ख़ुशी पाते हैं तो करें। मेरे घर को जज करें तो हम उनसे सर्टिफ़िकेट लेने के इंतज़ार में तो हैं नहीं। 

चीज़ों की ये absoluteness या uniqueness मैंने अब बहुत हद तक समझी और सीखी... कि मुझे सबसे अच्छी चीज़ नहीं चाहिए... कुछ ख़ास चाहिए जो ख़ास कारणों से पसंद है। लोगों के साथ भी ऐसा ही है। मेरे क़िस्म के लोग। मेरे जैसे थोड़े थोड़े। कि इसलिए वो सिंपल सी फ़िल्म Ye Jawani Hai Deewani मुझे बहुत पसंद है। वो कहती है, तुम मुझसे बेहतर नहीं हो, बस मुझसे अलग हो। 

अपने आप को इस दौड़ से थोड़ा बाहर निकाल के रखना बहुत सुकूनदेह है। मेरे पास मेरे क़िस्म की किताबें, मेरे क़िस्म के लोग हैं। मेरी चुनी हुयी चुप्पी और मेरी चुनी हुयी बातें हैं। मेरे चुने हुए सुख और मेरे ना चुन पा सकने वाले दुःख हैं। कि ज़िंदगी मेहरबान है। और जितना है, वो काफ़ी है।

06 February, 2019

बंदिनी

'मैं किसी और से प्यार करती हूँ'।

दुनिया का सबसे मुश्किल कन्फ़ेशन हमें अपने प्रेमी से करना पड़ता है। उस प्रेमी से जो अभी तक 'पूर्व प्रेमी' नहीं हुआ है। हमारे वर्तमान में हमें उससे प्यार है, थोड़ा सा। जिन्होंने भी कभी ज़िंदगी में कई कई बार प्रेम किया है, वे जानते हैं कि एक बिंदु आता है जब हम ठीक दो इंसानों के प्रेम में होते हैं। एक हमारा अतीत होने वाला होता है और एक हमारा भविष्य... लेकिन उस वर्तमान में दोनों प्रेमी होते हैं। कभी कभी हम नए प्रेम को एक भूल का नाम देते हैं और अपने पुराने प्रेम के पास लौट जाते हैं। कभी कभी हम नए प्रेम को ज़्यादा गहराई से महसूसते हैं और पुराने प्रेम को विदा कहते हैं। 

हम घबराहट में जीते हैं कि जैसे मर जाना इससे ज़्यादा आसान होगा। अपना दिल हमें ख़ुद समझ नहीं आता कि आख़िर ऐसा हुआ क्यूँ। हमसे ग़लती कहाँ हुयी। क्या हमने किसी और एक साथ वक़्त ज़्यादा बिताया या उसके बारे में सोचने में वक़्त ज़्यादा बिताया। हम समझते हैं कि प्यार बहुत हद तक इन्वॉलंटरी है। अपने आप हो जाने वाला। हादसा कोई। एक लम्हे में हो जाने वाला इश्क़ भी होता है जिसे हम कुछ भी करके रोक नहीं सकते। कि जैसे गॉडफ़ादर फ़िल्म में होता है। बिजली गिरना कहते हैं जिसे सिसली में। Hit by a thunderbolt. इक नज़र देख कर हम जानते हैं कि कुछ भी पहले जैसा नहीं होगा और जाने कितना कितना वक़्त लगेगा उसे भूलने में। 

भीड़ में उसे दूर से आते हुए देखा था। पास आने पर उसकी आँखें देखीं। उसकी हँसी। साथ चलते हुए पाया कि हम आराम से टहल रहे थे जैसे कि वक़्त को कोई हड़बड़ी नहीं हो कहीं जाने की। कहाँ लिख पाते हैं उस लम्हे को। हूक जैसा लम्हा। सीने में कई कई परमाणु विस्फोट करता हुआ। हम कितने शांत रहते हैं ऊपर से। ज़मीन के कई कई फ़ीट नीचे परमाणु परीक्षण होते हैं फिर भी सतह पर ग़ुबार दिखता ही है। मेरे चेहरे पर मुहब्बत दिखती है। मेरे लिखे में उसकी आँखें दूर से चमकती हैं। मैं ही नहीं, दुनिया जानती है जब मैं इश्क़ में होती हूँ। ग़नीमत यही है कि इश्क़ में लगभग हमेशा ही होती हूँ तो दिक्कत थोड़ी कम आती है। सवाल जवाब कम होते हैं। 

मैं इश्क़ में हूँ। ऐसे इश्क़ के जो चुप्पा हो गया है। चाहता है बाक़ी सभी प्रेमियों से कह दूँ, देखो… अब मुझे सिर्फ़ एक उसी से प्यार है। भले ही इसके बाद वे सब मुझसे बात करना बंद कर दें। कितनी भी तन्हाई आ जाए ज़िंदगी में, झूठ तो नहीं कह सकती न। कि दिल वाक़ई एक उसके सिवा कोई नाम नहीं लेता। कोई धुन नहीं बहती मेरे अंधेरे में। कोई और शहर पसंद नहीं आता। फिर उसकी चुप्पी भी तो ऐसी ही है, कितनी कहानियाँ रचती हुयी। वो जाने क्या सोचता है मेरे बारे में। हम क्या हैं। जस्ट गुड फ़्रेंड्ज़? या उसे भी थोड़ा डर लगता है मेरे क़रीब आने से। अपनी ज़िंदगी से थोड़े से रंग वो मेरे शहर भी भेजना चाहता है या नहीं। सोचता भी है, कभी?

मर्द अजीब होते हैं। एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर में भी लॉयल्टी की दरकार रखते हैं। औरतें लेकिन कोई हक़ नहीं माँगतीं। ऐसा क्यूँ है? मेरा मन क्यूँ करने लगा है कि दूसरी औरतों के लिए कोई परचम लहराऊँ… समझाऊँ उन मर्दों को कि वे तुम पर यूँ ही मर मिटी हैं। कल किसी और पर मर मिटेंगी। तुम उनके होने में हमेशा की कामना क्यूँ करते हो। प्यार में हमेशा जैसी कोई चीज़ होती तो तुम अपनी बीवी से और वो अपने पति से प्यार नहीं करती। शादी का मतलब तो यही होता है। फिर पूरी दुनिया में इतने सारे अफ़ेयर होते ही क्यूँ हैं? क्यूँ वही चीज़ चाहिए होती है जिसपर किसी और का नाम लिखा हो? कि सारे मनुष्य इस बंधन में स्वाभाविक रूप से नहीं बन्धते। कुछ ग़लती से भी आ जाते हैं कूचा ए क़ातिल, अर्थात शादी के मंडप में। ये औरतें जब कहें कि वे किसी और से प्यार करती हैं अब… और सवाल पूछें, can we still be friends? तो या तो दिल बड़ा कर के हाँ कह दो… या दो क़दम पीछे हट के कहो, कि शायद भविष्य में किसी दिन… लेकिन फ़िलहाल तुम्हें किसी और के साथ सोच नहीं सकता। इतना ही होता है ना। कोई उस औरत का भी तो सोचो… कितने मुश्किल से कह पायी होगी तुमसे। कि ज़रा सा प्यार तो होगा ही … अगर नहीं होता तो तुम्हारी बेरुख़ी से उसे तकलीफ़ थोड़े होती। उसे तुम्हारा दुखना परेशान नहीं करता। अपनी बात कहती और भूल जाती। लेकिन इश्क़ कमबख़्त होता ही ऐसा दुष्ट है। सबको बराबर से नहीं होता… एक समय नहीं होता। तभी तो… ‘Love is all a matter of timing’, 2046 में देखते हुए समझ आता है। इस बहती दुनिया में हम सब अलग अलग वक़्त में प्रेम कर रहे होते हैं। जी रहे होते हैं अपने एकल यूनिवर्स में… एकदम अकेले। लेकिन ज़रा भी अधूरे नहीं। हमें यक़ीन है, हमारे वक़्त में वो ज़रूर आएगा, ठीक सामने… सिगरेट का गहरा कश खींचता हुआ। बिना अलविदा कहे, बिना मुड़ के देखे लौट जाने को। 

प्रेम। क़िस्से कहानियों का प्रेम। किरदारों का प्रेम। जिन्हें सामने बिठा कर कह नहीं सकते कि इतनी मुहब्बत है तुमसे कि नॉवल पूरा नहीं कर रही कि उसमें तुम्हारी मृत्यु लिखनी है। प्रेम से कहाँ कह पाती हूँ कि दिल का टूटना भी क़ुबूल है, इसमें मर जाना भी। मेरे सपनों में दिखता है वो। एक फ़िक्स्ड दूरी पर। कवियों, लेखकों के डॉक्टर भी अलग क़िस्म के होने चाहिए। कैसे समझाऊँ कि वजूद के बीच दुखता है उसका न होना। उससे न कह पाना कि प्यार है तुमसे। मेसेज के आख़िर में hugs वाली स्माइली नहीं भेज पाना। कि शाम दुखती है सीने में… सिर्फ़ इसलिए कि एक और दिन बीत गया उससे दूर… बिना उससे कोई भी बात किए हुए… बिना उसे देखे हुए, छुए हुए। कि हम रहना चाहते हैं उसके शहर में। सिर्फ़ इस सुख में कि हम एक आसमान के नीचे ऐसी सड़कों पर हैं जो उस तक दौड़ के पहुँच जाएँगी। वो बिसर जाएगा, एक दिन। लेकिन उसके पहले कितनी कितनी बार मरूँगी मैं। अब तो याद भी नहीं आता कितने दिन हुए उससे मिले हुए। कितने साल। कि मैं इस घबराहट में कैसे जियूँ कि उससे दुबारा मिले बिना मर गयी तो! 

कर दो माफ़ हमें। नहीं कर सकते अब किसी से भी प्यार। हमारे दिल पर एक उस डकैत ने क़ब्ज़ा जमाया हुआ है। पहरा देता है दिन रात दुनाली टाँगे हुए। किसी को दाख़िला नहीं मिलेगा अब। दिक्कत ये भी है कि तुम्हें लड़ने भी नहीं देंगे उससे। मान लो जो गोला बारूद, रॉकट लौंचर लिए आ भी गए तुम तो जाने ही नहीं देंगे उस तक हम। मेरे जीते जी तुम उसकी मुस्कान की चमक भी नहीं छू पाओगे। इसलिए, विनती है… हमें भूल जाओ… हम किसी और से प्यार करते हैं।

मुहब्बत इसी अजीब शय का नाम है जहाँ ख़ुद ही डालते हैं बेड़ियाँ और करते हैं आत्मसमर्पण... फिर अपना ही नाम देते हैं - बंदिनी।

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...