30 April, 2008

परवीन शाकिर की एक नज्म


इधर दो चार दिनों से परवीन शाकिर की "खुली आंखों में सपना" नज्मों और गजलों का संकलन पढ़ रही हूँ। ख़रीदा तो काफ़ी पहले था पर अपने किताबघर से निकल नहीं पायी थी। काफ़ी अच्छा लग रहा है उनको पढ़ना, इस पाकिस्तानी शायर के बारे में पहली बार पापा से सुना था। फ़िर उनका एक शेर कहीं पढ़ा "उँगलियों को तराश दें फ़िर भी...आदतन उसका नाम लिखेंगे"। जेहन में गहरे उतर गई थी पंक्तियाँ और परवीन उन कुछ शायरों में से हैं जिन्हें पढ़कर शायरी के लिए दिल में एक पाकीजा सा जज्बा करवट बदलता था।

आज इनकी एक नज्म बाँटने की ख्वाहिश है....


पूरा दुःख और आधा चाँद
हिज्र की शब और ऐसा चाँद

किस मकतल से गुजरा होगा
ऐसा सहमा सहमा चाँद

यादों की आबाद गली में
घूम रहा है तनहा चाँद

मेरे मुंह हो किस हैरत से
देख रहा है भोला चाँद

इतने घने बादल के पीछे
कितना तनहा होगा चाँद

इतने रोशन चेहरे पर भी
सूरज का है साया चाँद

जब पानी में चेहरा देखा
तूने किसको सोचा चाँद

बरगद की एक शाख हटाकर
जाने किसको झाँका चाँद

रात के शाने पर सर रखे
देख रहा है सपना चाँद

सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क में सच्चा चाँद

रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चाँद

29 April, 2008

ऐ जिंदगी

तुम्हारी आवाज़ का तिलिस्म

जैसे जंगल में ठहरी हुयी हवा

थोड़ा शोर, थोड़ी खामोशी

जैसे सागर की लहरों का किनारे आना

और पैरों को छूकर चले जाना

जैसे भीड़ में

अचानक मिल जाए कोई पुराना दोस्त

या छत पर आ गिरे

पड़ोसी की काटी हुयी पतंग

कुछ छोटी छोटी खुशियाँ

जिनमें जिन्दगी का लुत्फ़ मिलता है

जैसे जब तुम मेरा नाम लेते हो...

28 April, 2008

to you...mummy


dear mummy,
this is my 101th post and this is for you. whatever i am whatever i will ever be...its all because of you. i love you maa
कभी कभी तो यकीं नहीं होता कि तुम सच में चली गई हमेशा के लिए। तुम्हारी बहुत याद आती है माँ

26 April, 2008

...

कभी कभी मेरी सारी कायनात सिमट कर एक ख्वाहिश में आ जाती है
काश तुम अपनी गोद में मेरा सर लेकर बालों में उँगलियाँ फिराओ कुछ देर

उफ़ इस ipl ने जिंदगी की सारी रूमानियत ख़त्म कर दी है

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अंधेरे में खाना बनाना पड़ता है, गर्मी के मारे हालत ख़राब हो जाती है
फ़िर भी पॉवर कट से कोई खास शिकायत नहीं होती
टीवी से हटकर तुम मेरे पास घड़ी भर ठहरते तो हो
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25 April, 2008

....

तुम सामने होते हो तो कहने को होती हैं बातें कितनी
फिर भी बिता देते हैं खामोश हम रातें कितनी
ना वैसी ठंढ फिर आई ना फिर कोहरे में लिपटी सड़कें
याद आती हैं वो पहले दिसम्बर की की मुलाकातें कितनी

घर से ऑफिस को निकले और पहुंचे चिडियाघर में हम
बना के सबसे बहाने की हम ने खुराफातें कितनी
न तो मंजिल का पता था और न रस्ते का कोई ख्याल

ले के आता था हर मोड़ सौगातें कितनी

यही तो लुत्फ़ है तेरे साथ ऐ मेरे हमसफ़र
अब गिनती नहीं कि जिंदगी में हैं रातें कितनी

फ़िदा!!!




जिंदगी में दो बार हुआ है कि मैं ख़ुद पे फ़िदा हो गई हूँ...



पहली बार तो अपने 12th के farewell के लिए साड़ी पहनी थी, जिंदगी में पहली बार। और जब आइना देखा तो मंत्रमुग्ध सी देखती रह गई, कि ये मैं ही हूँ क्या...शायद तरुणाई की आहट पहली बार महसूस हुयी थी। वैसे भी वो उम्र होती है आइना देखने की, सजने सँवरने की पर मुझे उस दिन से पहले कभी फुरसत नहीं मिली थी। भाइयों के साथ कभी पेड़ों पर टँगी पायी जाती तो कभी शर्त लगाती कि आंगन की ऊँची सी दीवार पर सब से पहले कौन चढ़ सकता है। और इन खुराफातों से फुरसत मिलती थी तो आराम से सीटी बजती कभी फील्ड में घूमती रहती, माँ कहती रहती कि कब लड़की के गुण आयेंगे इसमें। मुहल्ले के लड़के भी छेड़ते कि कभी तो लगे कि पड़ोस में कोई लड़की रहती है लगता है कि और एक लड़का ही रहता है, कभी सीटी मारती हो कभी लंघी मारती हो सुधर जाओ कौन शादी करेगा तुमसे। मुझे बड़ा मज़ा आता था, क्लास में भी जब बाकी लड़कियां कॉस्मोपोलिटन की बातें discuss करती थी मैं बोरे हो जाती थी, और बड़ा अजीब सा लगता था। कभी कभी जरूर मैं भी उस खुसुर पुसर में लगी हूँ पर ज्यादा मन नहीं लगता।



मेरे लिए बातें थी कि मुझे मोटरसाईकिल क्यों नहीं चलने मिलता है, एक्सीडेंट करुँगी तो देखा जायेगा, बाकी लोगो कि मुझे परवाह नहीं थी कि मेरी बाईक से ठुक के बेचारों के शरीर में कितनी हड्डियाँ बचेंगी. वैसे तो मैं साईकिल पर भी चलती थी तो लोग मुझे रास्ता दे देते थे और तो और बस चलता तो शायद रास्ते के सारे खम्भे भी हट जाते, पता नहीं कितनी बार मैं टकरा चुकी थी. पर मुझे इसमें भी मज़ा आता था. लोग मुझे हेलीकॉप्टर कहते थे, झाँसी की रानी और आफत भूचाल टाइप की हुआ करती थी मैं. मेरे रास्ते पड़ने वालो की शामत.
पर इन सबके बीच अचानक से मेरा farewell आ गया, और जैसा की सब पहनते थे माँ ने मुझे भी साड़ी पहना के तैयार कर दिया, पर झटका तो तब लगा जब सामने देखा। एक पल को तो लगा की कोई और खड़ी है. फ़िर आंखें खुली और महसूस हुआ की ये जो इत्त्तीई सुन्दर लड़की है आईने में, मैं ही हूँ...और शायद जिंदगी में पहली बार मैं शरमा गई...





खैर वो लड़कपन के दिनों तो अब क्या आयेंगे...पढ़ाई और अब जॉब में इतना व्यस्त हो गई की ध्यान ही नहीं रहा फ़िर से ख़ुद को देखने का. इधर कुछ दोस्त आए थे मुम्बई से, उन्हें कुतुब मीनार दिखाना था, तो चल पड़े हम. क्या धूप थी, बाप रे!!!पर मज़ा बहुत आया, और उससे भी ज्यादा आया जब फोटो देखी...धूप में ऐसा खिला हुआ था जैसे सूरजमुखी...लगा की ये मैं ही हूँ...उजली खिली हुयी सी, धूप गर्मी से बेखबर...खिलखिलाती हुयी...चंचल हँसती हुयी...
अपने इस बेलौसपने पर मैं फ़िर से फ़िदा हो गई :)

22 April, 2008

मंथन

आज मैंने बहुत रिसर्च की आइपीअल के बारे में ताकि मैं अच्छे से ये पोस्ट लिख सकूं। पता नहीं किसी को दिख रहा है या नहीं पर ये match जो की सिर्फ़ और सिर्फ़ मार्केटिंग का एक भद्दा तरीका है...क्रिकेट का कर्मयुद्ध कहलाने वाला ये नाटक घरों में युद्ध जरूर कराएगा।

इसकी और भी हज़ार बुराइयाँ नज़र आती हैं मुझे पर जो सबसे पहले दिखता है वो ये है की ये घर में रिमोट की लड़ाई करवाएगा। चाहे जितने भी सड़े हो हमारे टीवी में चलने वाले कचरा सीरियल पर हमारी गृह लक्ष्मी उन सीरियल की रोजाना खुराक के बिना नहीं रह सकती। अब ये सारे match उसी टाइम पर होंगे। ऐसे में पति पत्नी में झगड़ा नहीं होगा तो क्या होगा...कौन सा पति अपनी पत्नी को रिमोट थमने देगा जब क्रिकेट आ रहा है। पत्नियों को तो वैसे भी दोयम दर्जा ही मिलता है, उनकी क्या बिसात की पति से रिमोट छीन ले।

या अगर घर में पत्नी की चलती है तो पति बेचारा किसी ऐसे दोस्त को ढूंढेगा जिसके यहाँ match देख सके, किसी भी परिस्थिति में घर में अच्छा माहौल नहीं बनने वाला है। कोरी बजरिकता वाले इन खेलों में कोई कैसे दिल लगा सकता है ये मेरी समझ से परे है।

अब मैं आती हूँ दूसरे मुद्दे पर...ये नौटंकी आख़िर है क्या...नयापन परोसने की होड़ में आख़िर हमारा मीडिया कहाँ तक जायेगा? इस पतनशील समाज में क्या मीडिया अपनी जिम्मेदारी से इसी तरह मुँह चुराता रहेगा। और क्या हमारे देश के लोगो के पास कोई भी काम नहीं है कि कुछ भी चलते रहता है टीवी पर और वो देखते रहते हैं। आलस से सृजनशीलता का ऐसा हनन होता है कि लोग कुछ सोचना ही नहीं चाहते, जो भी entertainment के नाम पर देखने को आता है देखते रहते हैं।

पहले भी काफ़ी हो हल्ला उठा था कि खिलाड़ी बिकाऊ हौं, खास तौर से जब इंडिया कोई match हार जाती थी तब तो शामत आ जाती थी, आइकन खिलाड़ियों को भी कहाँ छोडा जाता था इस बहस के बाहर। और आज जब खुलेआम बोली लगाई गई तो सब चुप थे कोई आवाज नहीं उठी कहीं से भी। इस तरह एक खिलाड़ी जब सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लिए लड़ेगा तो देशप्रेम कि भावना कहाँ जायेगी, क्या फ़िर से कभी भारतीय टीम एक संगठित टीम कि तरह खेल पाएगी? क्या सब एक दूसरे को प्रतिद्वंदी कि नज़र से नहीं देखेंगे?

और इतने होहल्ले का मकसद क्या है? इतना पैसा फूंक कर क्या मिलेगा...क्या हासिल हो रह है किसी आम आदमी को? बस फुलझड़ियों कि तरह कुछ देर का आकर्षण ...कई सवाल और जवाब कुछ भी नहीं।

18 April, 2008

random

उजाड़ पत्तों का एक कब्रिस्तान सा है

ये जर्द पत्ते मेरी खामोशी के रंग में रंगे दिखते हैं

कुछ तो बियाबान सी लगने लगी है ज़िन्दगी

जिसमें कुछ आँसू अनाथ बच्चो की तरह बिलखते हैं

मैं कतरा कतरा बिखरती हूँ अपने दामन में

हवाएं तिनका तिनका उड़ा जाती हैं मेरे वजूद के हिस्से

मगरूर हुआ करते थे हम किसी ज़माने में

सोचा था बदल देंगे तकदीर जो भी लिखे

कितने मासूम हुआ करते थे ख्वाबों के काफिले

चांदनी रात में छत पर मिलने की ख्वाहिश की तरह

अब तो दरिया सी है प्यास और समंदर के सामने हैं

दरकते हुए दरख्तों के कभी कभी यूँही

आस कहीं आके सुलगी हुयी सी लगती है

शब्द कभी कभी यूं ही आके परेशां करने लगते हैं कि हमें कहीं कागज पे उतारो, हम यूं ही तुम्हारे दिमाग में नहीं रह सकते. ऐसे में कुछ तो लिखा जाता है, ये कविता नहीं होती, बस कुछ खयालात होते हैं, कुछ उड़ते हुए आवारा बंजारा से ख्याल

15 April, 2008

रिश्ते

किसी ज़माने में जी टीवी पर एक सीरियल आता था...रिश्ते। प्रायः एक या दो एपिसोड में कहानी ख़त्म हो जाती थी। बड़ी प्यारी सी कहानियाँ हुआ करती थीं, इश्क तब इश्क हुआ करता था, आज की तरह नौटंकी नहीं। अनगिन चलने वाले सीरियल मुझे तब भी पसंद नहीं थे, आजकल तो टीवी देखती ही नहीं हूँ।

इश्क...जैसे खुशबू सी आती है इस अल्फाज़ से, उर्दू की बात ही कुछ और होती है। रूमानियत है इस लफ्ज़ में, जैसे कुछ फिल्में थी पाकीजा, मेरे महबूब, उमराव जान, बरसात की रात, और इन सबके ददाजान...मुग़ल-ऐ-आज़म, लगता था की वाह क्या इश्क है, क्या रोल हैं, और क्या डायलॅग होते थे, "साहिबे आलम, ये कनीज आपका हिज्र बर्दाश्त कर सकती है मगर आपकी रुसवाई नहीं"। प्यार बस हो नहीं जाता था, एक लम्हे में, धीरे धीरे चूल्हे पर चाशनी सा पकता था। इजहार की कितनी मुश्किलें होती थी, और प्यार को अंजाम तक पहुँचने की कितनी जद्दोजहद होती थी।

आज के मीडिया में कहाँ है वो प्यार की खुशबु, कहाँ है वो जज्बातों की गहराई, और एक मिनट के प्यार में अंजाम तक पहुँचने की फिक्र किसे है। इजहार के डर को दूर करने के लिए लोग आराम से २४ ड्रिंक्स का सहारा ले सकते हैं। लगता है रुमानियत ख़त्म हो गई है, रिश्तों की जिस सोंधी खुशबु में जिंदगी हसीन लगती थी, pollution के कारन शायदवो हम तक पहुँचती नहीं।

अचानक से लगता है मैं किसी और सदी की हूँ, आज की इस भागम भाग जिंदगी में कहीं खोया हुआ सा पाती हूँ ख़ुद को। आज भी मुझे अच्छा लगता है अगर वो मेरे लिए दरवाजा खोले, चाहे गाड़ी का हो या घर का, आज भी लगता है की कभी कहीं खामोश सा बैठे रहें, बिना कुछ कहे हुए। disco गई मैं (जिंदगी में पहली बार) बहुत अच्छा बीही लगा फ़िर भी given an option main समंदर किनारे उसके साथ बैठना चाहूंगी। मरीन ड्राइव पर बिना कुछ कहे सिर्फ़ हवाओं को महसूस करना ज्यादा अच्छा लगा मुझे। और डांस भी, मुझे अपने घर के ड्राइंग रूम में उसके साथ किसी भी गाने पर थिरकना ज्यादा अच्छा लगेगा।

क्या मैं बहुत अजीब हूँ? इसको ही शायद ठहराव कहते हैं, ये उमर तो बाहर जा के हल्ला गुल्ला करने की, गोल्गाप्पा खाने की, खूब सारी shopping करने की होती है...ये कहाँ ठहर गई हूँ मैं, रुकना तो मेरी फितरत में नहीं था।

खैर कहाँ से कहाँ तक पहुँच गई मैं...बात शुरू की थी रिश्ते से...शायद कहीं कहीं मैं अब भी वैसी ही हूँ...unpredictable

12 April, 2008

अवश्यम्भावी

प्रलय का कहीं आह्वान हो
निकट सृष्टि का आवासन हो
हर ओर बस चीत्कार हो
दस दिशा में हाहाकार हो

हो क्रोध से विकराल जब
तलवों से रौंदे काल जब
सब भस्म करना चाहे मन
धरती गगन सागर औ वन

सारा सृजन जब नष्ट हो
मनुपुत्र की आत्मा भ्रष्ट हो
सच झूठ का ना ज्ञान हो
इश्वर का भी ना भान हो

अभिमान जब फुंकार उठे
प्रतिशोध में जब वार उठे
आपस में ही लड़ जाएँ सब
हो विश्वयुद्ध मर जाएँ सब

चुप ही रहोगे ना केशव?
या कुछ कहोगे तुम माधव?
रक्षा करोगे परीक्षित सी
या सीख दोगे अर्जुन सी

फ़िर महाभारत रचा जा रहा है
पर इस बार तो हर तरफ़ कौरव ही हैं

तुम किस ओर से लड़ोगे केशव...ये युद्ध कैसे रुकेगा
और अंत में...क्या कोई बचेगा?

उड़ान तब से आज तक

हम पंछी उन्मुक्त गगन के

पिन्जरबद्ध न गा पायेंगे

कनक तीलियों से टकरा के

पुलकित पंख टूट जायेंगे
हम बहता जल पीने वाले

मर जायेंगे भूखे प्यासे

कहीं भली है कटुक निबोरी

कनक कटोरी की मैदा से

स्वर्ण श्रृंखला के बन्धन में

अपनी गति उड़ान सब भूले

बस सपनो में देख रहे हैं

तरु की फुनगी पर के झूले
ऐसे थे अरमान की उड़ते

नील गगन की सीमा पाने

लाल किरण सी चोंच खोल

चुगते तारक अनार के दाने
होती सीमा हीन क्षितिज से

इन पंखो की होड़ा होड़ी

या तो क्षितिज मिलन बन जाता

या तनती साँसों की डोरी
नीड़ न दो चाहे टहनी का

आश्रय छिन्न भिन्न कर डालो

लेकिन पंख दिए हैं तो

आकुल उड़ान में विघ्न न डालो

काफ़ी बचपन में पढी गई कविता, शीर्षक तू याद नहीं है और ना लेखक का नाम। पार आज काफ़ी सालों बाद भी इस कविता के शब्द दिल को वैसे ही छूते हैं। सच्चाई का इतने सादे शब्दों में चित्रण, आज भी कहीं ऐसी ही जगह पाती हूँ ख़ुद को...

कुछ लोग ऐसे ही पंछियों की तरह होते हैं, उन्हें कुछ भी ना मिले पर आजादी चाहिए होती है, इसके बिना जीवन अर्थहीन हो जाता है। कोई ललक नहीं रहती, कोई उत्साह नहीं रहता और धीरे धीरे पंखों को उड़ने की आदत भी नहीं रहेगी, और इसके साथ ही शायद जिंदगी धीरे धीरे मर जायेगी।

फ़िर ना कोई चहचहाहट गूंजेगी और ना कोई अपनी उड़ान से सबका मन मोहेगा

11 April, 2008

i feel
laying my wounds bare may heal them
making other laugh at me may give me strength
letting it go may finally bring it back
how long can i hide my hurt in a smile
its better to cry and bleed and burn

the pain refuses to go away
and always returns with a vengeance
i am lost...lonely...uncertain
and resurrection seems impossible

trials, punishments, seclusion
i just want a little sunshine now
i am tired of this meloframa called life

कुछ नहीं

एक हफ्ता नहीं था वो
सात दिन थे
और हर दिन में कितने घंटे
हर घंटे में कितने मिनट, हर मिनट में कितने सेकंड

मैंने गिन गिन के काटे थे
कितनी बार हनुमान चालीसा
कितनी देर शिवलिंग के आगे बैठी रही थी

तुम्हारे जाने के आखिरी लम्हे तक मेरा विश्वास नहीं टूटा था माँ
मुझे लगा था तुम मुझे छोड़ के नहीं जा सकती हो
मुझे लगा था मेरा विश्वास तुम्हें वापस ले आएगा
जागते हैं लोग कोमा से...डॉक्टर ने भी कहा था

मैं बैठी रही, अपनी श्रद्धा को लेकर, अपना प्यार लेकर
ना मानने को उद्यत, हठी, जिद्दी
तुम आओगी...कितनी बार तुम्हारा हाथ पकड़ कर झकझोरा था
तुम्हारे कानो में कही थी, वो सारी बातें जो जिंदगी में नहीं कही

क्या तुमने सुना होगा माँ?
पता भी नहीं चला
तुम ऐसे ही गुस्सा होके चली गई थी क्या?
डांटे बिना

इसलिए तुम्हारे बेटी टूट गई माँ
आज सब हंस रहे थे मुझपर...कि मुझे हॉस्पिटल से कितना डर लगता है
मुझे नहीं लगता था ना माँ...

क्या करूँ...मुझे लगता है वहाँ से कोई वापस नहीं आता
मुझे मरने से डर लगता है

मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है माँ
तुम क्यों चली गई?

डरपोक्कीssss

शायद मेरे छोटे भाई बहन अभी यहाँ होते तो ऐसे ही चिढाते मुझे...वैसे भी मुझे सुई से बचपन से iडर लगता है, डॉक्टर से तो और भी ज्यादा, हॉस्पिटल जाने के नाम से तो मेरी घिग्घी बाँध जाती है...

पर ऐसा हमेशा से नहीं था...अभी दो साल पहली की बात है, हम IIMC में नए आए थे, mushkil से चार दिन हुए होंगे, एक soosre से ज्यादा बात cheet भी नहीं होती थी। मेरे हॉस्टल में रहने वाली मेरी एक classmate के पैर में मोच आ गई, मोच का दर्द शाम होते होते बहुत बढ़ गया। JNU कैम्पस में भी डॉक्टर है ये उस वक्त पता नहीं था। डॉक्टर की एक ही जगह मालूम थी दिल्ली में, एम्स... तो मैंने सोचा की उसे एम्स ही ले जाऊँ, पर मेरी दोस्त थी मोटी, उसे अकेले तो ले जाना सम्भव नहीं था, मैंने कितने और लोगो से पूछा, सब कोई ना कोई बहाना बना के मुकर गए। उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा था। होस्टल में ज्यादातर हम बाहर की लड़कियां थी, और किसी के लोकाक गार्जियन का कुछ पक्का नहीं था की कब होंगे कब नहीं, ऐसे में कोई भी मुसीबत किसी पर भी आ सकती थी। मैंने मन बना ही रही थी की उसे अकेले ले जाऊँ टैब तक एक लड़की तैयार हो गई। मुझे याद है उस दिन की दौड़ धुप। पर हम उसे दिखा के x ray कर के ही वापस लौटे थे।

आज ये सारी बातें जैसे सदियों पुरानी लगती हैं...लगता है वो कोई और थी जिसने हारना जाना ही नहीं था, थकन जानी ही नहीं थी, वो उर्जा वो जिंदगी से भरी लड़की जैसे कोई और ही थी...मैंने नहीं

शायद माँ के जाने के बाद सारे लोग ऐसे ही कमजोर हो जाते हैं। एक हफ्ते तक जब इस जद्दोजहद में जीना पड़ता है की शायद वो कोमा से उठ जाए...उसके बाद अगर डर लगता है...जिंदगी से...और मौत से भी...तो शायद कहीं न कहीं justified होता होगा...पता नहीं

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