29 August, 2017

कोई कविता आख़िरी नहीं होती, ना कोई प्रेम

कविता हलक में अटकी है
होठों पर तुम्हारा नाम

और साँस में मृत्यु

***
क़लम को सिर्फ़ कहानियाँ आती हैं।
ज़ुबान को झूठ।

तुम्हें तो तरतीब से मेरा नाम लेना भी नहीं आता।

***
कविता लिखने को ठहराव चाहिए।
जो मुझमें नहीं है। 

***
मैंने अफ़सोस को अपना प्रेमी चुना है
तुम्हारा डिमोशन हो गया है

'पूर्व प्रेमी'

***
शहर, मौसम, सफ़र
मेरे पास बहुत कम मौलिक शब्द हैं

इसलिए मैं हमेशा एक नए प्रेम की तलाश में रहती हूँ

***
तुम्हें छोड़ देना
ख़यालों में ज़्यादा तकलीफ़देह था
असल ज़िंदगी में तो तुम मेरे थे ही नहीं कभी 

***
मैंने तुमसे ही अलविदा कहना सीखा
ताकि तुम्हें अलविदा कह सकूँ 

***
तुम वो वाली ब्लैक शर्ट पहन कर
अपनी अन्य प्रेमिकाओं से मत मिलो
प्रेम का दोहराव शोभा नहीं देता

***
तुम्हारे हाथों में सिगरेट
क़लम या ख़ंजर से भी ख़तरनाक है

तुम्हारे होठों पर झूलती सिगरेट
क़त्ल का फ़रमान देती है

तुम यूँ बेपरवाही से सिगरेट ना पिया करो, प्लीज़!

***
'तुम्हें समंदर पसंद हैं या पहाड़?'
मुझे तुम पसंद हो, जहाँ भी ले चलो। 

***
'तुम्हारी क़लम मिलेगी एक मिनट के लिए?'
'मिलेगी, अपना दिल गिरवी रखते जाओ।'

कि इस बाज़ार में ख़रा सौदा कहीं नहीं।

***
आसमान से मेरा नाम मिटा कर
तसल्ली नहीं मिलेगी तुम्हें 

कि दुःख की फाँस हृदय में चुभी है

***
कोई कविता आख़िरी नहीं होती, ना कोई प्रेम
हम आख़िरी साँस तक प्रेम कर सकते हैं 

या हो सकते हैं कविता भी

26 August, 2017

इश्क़ और एनफ़ील्ड

'ऐसा तो होना ही नहीं था जानां, ऐसा तो होना ही नहीं था'। 

शाहरुख़ खान की आवाज में रह गया है डाइयलोग फ़िल्म का जाने कहाँ ठहरा हुआ। सुबह नींद खुल गयी आज। छह बजे। बहुत दिन से एनफ़ील्ड चलायी नहीं थी। इधर कुछ दिन से जिम भी नहीं गयी हूँ। तो पहले स्ट्रेचेज़ किए। कपड़े बदले। बूट्स निकाले। बालों का पोनीटेल बनाया। कल तीज में नथ पहनी थी, सो नाक में दुखा रही थी, उसको उतार के रखा। आँखों में कल का ही काजल ठहरा हुआ है। बची हुयी मुहब्बत रहती है जैसे दिल में। थोड़ा और सियाह और उदास करती हुयी।

ये लगा शायद स्टार्ट ना हो। कमसे कम महीना हो गया है उसे चलाए हुए। सोचा कि गूगल करके देखूँ क्या, कि Classic 500 में चोक कहाँ पर होता है। फिर लगा कि देख लेती हूँ पहले। अगर किक से भी स्टार्ट नहीं हुआ तो फिर गूगल करेंगे। नीचे आयी तो देखा एनफ़ील्ड पर एक महीन तह धूल की जमी हुयी थी। गाड़ियों की सफ़ाई ८ बजे के आसपास होती थी। कपड़े से झाड़ पोंछ कर धूल हटायी। मुझे अपनी एनफ़ील्ड पर जितना प्यार उमड़ता है, उतना किसी इंसान पर कभी नहीं उमड़ा। जैसे महबूब का माथा चूमते हैं, मैंने हेडलाईट के ऊपर एनफ़ील्ड को चूम लिया। ऐसा करते हुए ये नहीं लगा कि पड़ोसी देखेंगे तो हँसेंगे। या कोई भी देखेगा तो हँसेगा। हाँ ये ख़याल ज़रूर आया कि कोई देख रहा है सामने खिड़की से। जब भी मैं एनफ़ील्ड स्टार्ट करती हूँ तो ऐसा लगता है। सारी आँखें इधर ही हैं 🤔

उसका नीला रंग बहुत पसंद है मुझे। और उसका नाम भी तो, 'रूद्र'। हेल्मेट पहन कर बैठी और धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ाई। जिन्होंने कभी एनफ़ील्ड चलायी है, वे शायद जानते हों कि एनफ़ील्ड में फ़्यूअल गेज नहीं है। कितना पेट्रोल है इसकी जानकारी सिर्फ़ एक लाईट से होती है। ऑरेंज लाइट ब्लिंक कर रही है मतलब बाइक रिज़र्व में चली गयी है। सो पहले पेट्रोल भराने गयी। पेट्रोल पम्प पर, हमेशा की तरह, ख़ास वाली मुस्कान से लोगों ने स्वागत किया। जब भी एनफ़ील्ड से जाती हूँ, ये मुस्कान हमेशा अलग होती है। पिछली बार कार से गयी थी तो वे लोग पूछ भी रहे थे, 'मैडम बहुत दिन से 'बुलेट' लेकर नहीं आया?'।

मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सुख पिछले साल से, रॉयल एनफ़ील्ड चलाना है। मैं जब बाइक चला रही होती हूँ तो दिल की धड़कन बढ़ी होती है। सांसें तेज़। और इश्क़ जैसे पीछे वाली सीट पर पिलियन बैठा होता है। कोई ईश्वर मेरी अर्ज़ियों पर रिसीव्ड की मुहर लगने बैठा है। कि जो मेरे सपने होते हैं, पूरे हो जाते हैं। जिन दिनों बुलेट के कहानियाँ लिखा करती थी, कभी नहीं सोचा था कि मेरी ख़ुद की अपनी एनफ़ील्ड होगी जिसे मैं चलाऊँगी। 

सुबह बिलकुल ट्रैफ़िक नहीं था। बैंगलोर में इंदिरानगर और कोरमंगला के बीच इनर रंग रोड है। उधर आर्मी एरिया होने के कारण दोनों ओर सड़कों पर कोई और बिल्डिंग या दुकानें नहीं हैं। सुबह सड़क एकदम ख़ाली भी थी। मैं बाइक को रेज देती गयी, देती गयी। जैसे डर निकल जाता है दिल से। एनफ़ील्ड जब 100kmph को टच करती है तो एक थरथराहट होती है। ख़ास तौर से नब्बे से सौ जाने के बीच। एक वायब्रेशन। कि उस समय बाइक और राइडर दो नहीं, एक हो जाते हैं। एक तेज़ रफ़्तार पागलपन रह जाता है बस। A streak of madness. टर्न्स पर झुकते हुए या ब्रेक मारने के पहले, बॉडी बाइक के साथ ही झुकती है। बहुत तेज़ हवा चलती है। उसकी आवाज़ हू हू करती हुयी। चेहरे पर तेज़ हवा महसूसना। इतनी तेज़ कि आँख में पानी आ गया। मैं उस बीच सोच रही थी। इंसान को वो काम करना चाहिए जो उसे अच्छा लगता है। A person should always do the things she loves. Be it riding, writing, falling in love, speaking her mind out...whatever. कि हम अगर वो नहीं कर पा रहे जिसे करने से हमें ख़ुशी मिलती है तो ज़िंदगी किस काम की। 

मुझे रफ़्तार पसंद है। हमेशा से। मैं बहुत तेज़ चलती हूँ। बचपन से ही। साइकिल बहुत तेज़ चलाती थी। राजदूत भी उस शहर और अपनी पंद्रह साल की उम्र के हिसाब से भी। पहली बार स्प्लेंडर चलायी थी तो ८५kmph पर खींच दी थी। फिर स्कोडा फ़ाबिया और अब ऑक्टेविया। कार में मगर रफ़्तार उतनी पता नहीं चलती। ९० के ऊपर चलाओ तो शीशे बंद करने पड़ते हैं वरना कानों में लगती है। मैं लेकिन शीशे लगा कर तेज़ नहीं चला सकती। मैंने जब भी कभी ८० से ऊपर कार चलायी है तो ख़ास तौर से शीशे उतार कर। ऑक्टेविया में ऊपर सन रूफ़ है जो बारिशों के सिवा हमेशा खुला रहता है।

मेरे साथ सिर्फ़ एनफ़ील्ड चलते हुए होता है कि मैं कुछ भी नहीं सोचती। सिर्फ़ सड़क पर होती हूँ, उस लम्हे में। उस तेज़ रफ़्तार गुम हो जाने वाले बिंदु में। मुझे ऐसी ख़तरनाक चीज़ें अच्छी लगती हैं। ऐसा लगता है मैं ज़िंदा हूँ। कि मेरे अंदर एक तेज़ रफ़्तार धड़कता हुआ दिल है। कि सड़कों से मुझे मुहब्बत है। कि सफ़र मुझे ख़ुद से मिलाता है।

कि मैं इस ज़िंदगी की शुक्रगुज़ार हूँ। अपने होने के लिए। अपने रूद्र के लिए। अपनी साँसों और हर बार सही सलामत घर लौट आने के लिए।

हर बार जब मैं अपनी एनफ़ील्ड चलती हूँ, मुझे उस लड़के से थोड़ा और इश्क़ हो जाता है जिसने अपने सारे डर के बावजूद मुझे ये Royal Enfield Squadron Blue, कमबख़्त 500 cc की बाइक, सिर्फ़ इसलिए ख़रीद के दी है कि इसमें मेरी ख़ुशी है।

यूँ मेरे कई रंग हैं लेकिन जो सबसे सपनीला है वो उसके पास होने से चेहरे पर खिलता है। इश्क़ का।

23 August, 2017

प्रेम सिर्फ़ एक कोमल रौशनी है, जिसके छूने से आप थोड़ा सा और ख़ूबसूरत हो जाते हैं, बस।


ज़िंदगी इतनी सिम्पल नहीं है जितनी हमें बचपन में लगती थी। बहुत सारे फ़ैक्टर्ज़ होते हैं। बहुत सी कॉम्प्लिकेशंज़ होती हैं। सही ग़लत का कोई एक पैमाना नहीं होता। कोई आख़िरी सत्य नहीं होता। इस सब के बीच हमें हर सुबह एक लड़ाई लड़नी होती है। अच्छे और बुरे के बीच। जो चीज़ें हमें दुखी करेंगी और जिन चीज़ों से हमें सुख मिलता है उनके बीच। ऐसे लोग होंगे जो हमसे बहुत प्यार करते हैं और ऐसे भी लोग होंगे जो हमें दुःख पहुँचाना चाहेंगे। इस सब के बीच, अगर मुमकिन हो सके कि सुख हो, एक हाथ भर की दूरी पर, तो हाथ बढ़ा कर उस सुख को मुट्ठी में बाँध रखने की कोशिश करनी चाहिए।

सुख का पूरा आसमान भी काफ़ी नहीं होता। कि सुख बहुत हल्का सा होता है। बादल जैसा। रुई के फ़ाहे जैसा। हवा मिठाई जैसा। हल्का। मीठा। उड़ जाता है। एक जगह टिकता नहीं कहीं। कोई डैंडिलायन लिए रहें तेज़ हवा वाली किसी शाम और सोचें इश्क़ के बारे में। ये जानते हुए कि इनकी जगह कहीं और है। सुख बहुत थोड़ा सा मिलता है। हमें उसी को सहेज कर सम्हाल कर जीना होता है जीवन।

सुबह उठ कर धूप भरा कमरा देखती हूँ तो मन में सुख उतरता है कि मुझे धूप बहुत अच्छी लगती है। मेरे घर के हर कमरे की खिड़की पर विंडचाइम टंगी हुयी है। चौथे महले का मेरा घर अपार्टमेंट के कोने पर है इसलिए यहाँ हवा का क्रॉस-वेंटिलेशन रहता है। कभी पुरवा बहती है, कभी पछुआ। एकदम ही हवा ना चले, ऐसे दिन बहुत कम होते हैं। घर कभी शांत नहीं रहता। हमेशा विंडचाइम की हल्की सी टनमनाहट रहती है। बहुत साल पहले जब विंड चाइम पहली बार फ़ैशन में आए थे तो इनके बारे में पढ़ा था कि ये बुरी आत्माओं को बाहर रखते हैं इसलिए इन्हें खिड़की या दरवाज़े पर टांगा जाता है। ऐसा कोई ख़ास भूत प्रेत से डर लगता हो ऐसा नहीं है लेकिन फिर भी जब इस घर में पहली बार आयी। यूँ कहें कि अपने घर में पहली बार आयी तो सबसे पहले एक ख़ूबसूरत सी विंडचाइम ख़रीदी अपने घर के लिए। घर की इकलौती बालकनी में वो विंडचाइम टाँगी। घर की सबसे पुरानी यादों में भी उस की मीठी आवाज़ की जगह है। महाबलीपुरम गयी तो वहाँ पहली बार समुद्री सीपी के खोल से बनी विंडचाइम देखी। इसकी आवाज़ में एक तरह की खड़खड़ाहट थी। एक अनगढ़पना। समुद्र की लय। उसे ला कर घर में रखा तो कई दिन तक यूँ ही शोपीस की तरह खिड़की के एक कोने में टांगा था उसे। कभी कभी उसपर मिर्ची लाइट्स लगा देती थी और कमरे में आते समंदर को महसूस करती थी। फिर एक बहुत तेज़ हवा के दिन उसे खिड़की के ठीक सामने टाँग दिया। तब से उसकी जगह नहीं बदली है। जब पूरब से हवा बहती है तो पूरा समंदर उतर आता है मेरे हॉल में। सफ़ेद छोटे छोटे वृत्ताकार गोलों से बना हुआ वो विंडचाइम किसी बच्ची की घेरदार फ़्रॉक जैसा लगता है। मासूम। शुद्ध। फिर एक रोज़ मिट्टी की बनी विंडचाइम लायी। वो भी बालकनी में टाँग रखी है। पुदुच्चेरी से लायी एक छोटी सी मेटल की विंडचाइम अपनी स्टडी की खिड़की पर टाँगी हुयी है। उसकी आवाज़ बहुत ही हल्की है। पहली बार जब सुनी तो उसका मद्धम सुर और उसकी लय मन को मोह गयी। पश्चिम के कमरे की खिड़की में एक विंडचाइम और एक ड्रीमकैचर टांगा हुआ है। दोपहर की धूप में रंग भी घुलते हैं और धुन भी। किसी भी समय मेरे घर में एक विंडचाइम का ऑर्कस्ट्रा बजता रहता है। इस ऑर्कस्ट्रा की धुनें सुख को घर में बुलाती हैं। मेरे मन को सुकून से भरती हैं। ये आवाज़ मेरे लिए चैन की आवाज़ है। सुकून की। ये आवाज़ें मेरे लिए मेरा घर हैं।

मुझे फूल बहुत पसंद हैं। ताज़े फूल। मैं अक्सर सफ़ेद और पीले ज़रबेरा लेकर आती हूँ अपने घर के लिए। इसके अलावा लिली। अगर मिले तो सफ़ेद, या फिर गुलाबी और एकदम ही कुछ ना मिलें तो गहरे गुलाबी भी। लिली की ख़ुशबू मुझे बहुत पसंद है। बहुत मायावी और मिथकीय लगती है वो। इसकिए कि लिली की ख़ुशबू को पहली बार महसूसा था तो J पास में खड़ा था। किसी किरदार को रचते हुए मैं उसकी सारी पसंद नापसंद रचती जाती हूँ। तीन रोज़ इश्क़ के इस किरदार को सफ़ेद रंग बहुत पसंद था। सफ़ेद शर्ट्स। सफ़ेद फूल। उन्हीं दिनों पहली बार लिली की गंध छुई थी। रखी थी अपनी कलाई पर। जिया था थोड़ा हिज्र। लिली का फूल महँगा होता है। सौ रुपए का एक। तो जिन दिनों पास में पैसे होते हैं इतने कि एक फूल के लिए या कि उसकी गंध के लिए सौ रुपए लगा सकूँ तब ही ख़रीदती हूँ। लिली एक तरह से एग्ज़ॉटिक फूल है मेरे लिए। कभी दुर्लभ। कभी अलभ्य। कई बार मैं महीने के अंत में फूलवाले के यहाँ जाती हूँ। लिली को देखती हूँ। दाम पूछती हूँ, जबकि कई साल से वहाँ से ही फूल ले रही हूँ। लिली का दाम ७५ से १०० के बीच रहता है। मैं सोचती हूँ कि क्या उसे लगता होगा कि मैंने पैसों के लिए फूल नहीं ख़रीदे। या कि वो सोचता है मैं मूड के हिसाब से फूल ख़रीदती हूँ। ज़रबेरा सबसे अच्छे फूल होते हैं। दस से पंद्रह रुपए के बीच दाम रहता है। हमेशा पीले और सफ़ेद ज़रबेरा मिल भी जाते हैं। कभी कभी मैं पिंक और सफ़ेद या फिर गहरे लाल और सफ़ेद ज़रबेरा भी ख़रीदती हूँ। इनमें ख़ुशबू नहीं होती लेकिन ये बड़े ख़ुश फूल होते हैं। ख़ास तौर से जो पीला होता है, धूप की तरह का सुनहला पीला। उसे देख कर हमेशा मन ख़ुश हो जाता है। फूल अक्सर मेरी डाइनिंग टेबल या कि मेरी स्टडी टेबल पर होते हैं।

हम सुख को चुनते हैं। हर लम्हा। उसे सहेजते, सकेरते हैं। मैं लोगों को कहती हूँ कि मेरा घर एक अजयबघर है। म्यूज़ीयम। यहाँ मेरे साथ आओ तो मैं हर चीज़ की एक कहानी सुना दूँगी तुम्हें कि वाक़ई हर चीज़ के पीछे कहानी होती है। कुछ भी ऐवैं ही नहीं होता यहाँ। मेरी राइटिंग टेबल के एक ओर खिड़की है। खिड़की से एक गली दिखती है जो मेन रोड में खुलती है। सामने की छत पर एक नीली साइकिल रखी हुयी है। जब वो बारिश में भीगती है तो मैं किसी कहानी के अजन्मे बच्चे के बारे में सोचती हूँ। किसी छोटे लड़के के बारे में। अक्सर। खिड़की पर एक हैंगिंग गमले में मनीप्लांट का पौधा है। टेबल पर एक रंगबिरंगे पत्तों वाला कोई तो पौधा है। हरा रंग आँखों को ठंढक देता है। महोगनी की गंध वाला कैंडिल है। रात को जलाती हूँ तो जाने कहाँ की याद हूक जैसे चुभती है सीने में। दुःख, सुख की झीनी चादर ओढ़े भी आता है कभी कभी।

दुःख गहरा होता है। भारी। सांद्र। दुःख हमें घेर कर मारता है। दुःख पूरी तैय्यारी के साथ आता है और दिनों, महीनों टिका रहता है। जब तक सुख का पूरा राशन ख़त्म ना हो जाए। दुःख को मालूम होता है कि क़िला एक ना एक दिन टूटेगा ही। लेकिन हमने एक सुरंग बना रखी है इस सबके बीच। ये सुरंग कभी कविताओं के शहर में खुलती है, कभी कहानियों की नदी में। हम अपने घर में रहना चाहते हैं, मरना नहीं। तो जब भी दुःख की घेरे बंदी हमें अकुला देती है, हम किसी चुप्पी सुरंग से बाहर निकल आते हैं।

***
वह सहसा चुप हो गयी, जैसे कोई बहुत पुरानी स्मृति अपने भीतर कुरेद रही हो...
"कौन सी बात रायना?"
"हम बैरक में बैठे ठिठुर रहे थे, आग नहीं थी। उस पोल ने हमें सिगरेटें दीं, फिर हँसते हुए कहा कि दो तरह के सुख होते हैं। -- एक बड़ा सुख, एक छोटा सुख। बड़ा सुख हमेशा पास रहता है, छोटा सुख कभी-कभी मिल पाता है...सिगरेट पीना, ठंढ में आग सेंकना, ये उसके लिए छोटे सुख थे...और बड़ा सुख -- साँस ले पाना, महज़ हवा में साँस ले सकना -- इससे बड़ा सुख कोई और नहीं है..."
वह चुप हो गयी। कमरे के धुँधलके में हम कुछ देर बाहर बारिश की नीरव टपाटप सुनते रहे।
"क्या तुम उससे बाद में कभी मिलीं?"
"नहीं..." वह खड़ी हो गयी और खिड़की के बाहर देखने लगी, "बाद में हमें पता चला, वह पोलिश यहूदी था। दे शॉट हिम..."

- वे दिन ॰ निर्मल वर्मा
***
ऐसे भी दिन होते हैं कि लगता है पूरी दुनिया का दुःख मेरे सीने में अटका हुआ है। उलझा हुआ है। ऐसे दिन होते हैं कि लगता है जान चली जाएगी। दोस्त, महबूब...सब ही चले जाते हैं दिल तोड़ कर।

एक लड़की जिसे मैंने शायद अपनी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा प्यार किया था, उसने ऐसा ही कुछ लिखा था मेरी डायरी में। कि हमें छोटे छोटे सुख तलाशने चाहिए।

जानां, मैं इतने में जी लूँगी...कि किसी दूर आसमान के कोरे काग़ज़ पर मेरे नाम ये ख़त आया था।

"कोई अभागा ही होगा जो तुम्हारे ख़त ना पहचान सके"

17 August, 2017

'धुन्ध से उठती धुन' पढ़ना फ़र्स्ट हैंड दुःख है


कुछ अंतिम स्मृतियाँ: नेशनल ग़ैलरी में कारोली फेरेनीस के असाधारण चित्र, कासल की पहाड़ियाँ, पुराने बगीचे और फव्वारे जिन्हें देखकर ऑस्ट्रीयन कवि त्राकल की कविताएँ याद हो आतीं थीं। एक दुपहर रेस्तराँ में बैठे हुए सड़कों पर लोगों को चलते हुए देखकर लगा जैसे मैं पहले भी कभी यहाँ आया हूँ…
हवा में डोलते चेरी के वृक्ष और वह कॉटेजनुमा घर, जहाँ हम इतने दिन बुदापेस्ट में रहे थे। वह होटल नहीं, किसी पुराने नवाब का क़िला जान पड़ता था। क़िले के पीछे एक बाग़ था, घने पेड़ों से घिरा हुआ, बीच में संगमरमर की एक मूर्ति खड़ी थी और बादाम के वृक्ष...यहीं पर मुझे एक कहानी सूझी थी, एक छोटे से देश का दूतावास, जहाँ सिर्फ़ तीन या चार लोग काम करते हैं…कुछ ऐसा संयोग होता है कि उनकी सरकार यह भूल जाती है कि कहीं किसी देश में उनका यह दूतावास है। बरसों से उनकी कोई ख़बर नहीं लेता…वे धीरे धीरे यह भूल जाते हैं, कि वे किस देश के प्रतिनिधि बनकर यहाँ आए थे। बूढ़े राजदूत हर शाम अपने कर्मचारियों के साथ बैठते हैं और शराब पीते हुए याद करने की कोशिश करते हैं कि यहाँ आने से पहले वह कहाँ थे।
यह कहानी है या हमारी आत्मकथा?
~ निर्मल वर्मा, धुन्ध से उठती धुन
***

मैं इस किताब को ऐसे पढ़ती हूँ जैसे किसी और के हिस्से का प्रेम मेरे नाम लिखा गया हो। नेरूदा की एक कविता की पंक्ति है, 'I love you as certain dark things are to be loved, in secret, between the shadow and the soul’। मन के अंधेरे झुटपुटे में किताब के पन्ने रचते बसते जाते हैं। मैं कहाँ कहाँ तलाशती हूँ ये शब्द। दुनिया के किस कोने में छुपी है ये किताब। मैं लिखती हूँ इसके हिस्से अपनी नोट्बुक में। हरी स्याही से। कि जैसे अपनी हैंड्रायटिंग में लिख लेने से ये शब्द ज़रा से मेरे हो जाएँगे। हमेशा की तरह।

मैं इसे दोपहर की धूप में पढ़ती हूँ लेकिन किताब मेरे सपनों में खुल जाती है। बहुत से लोगों के बीच हम मुहब्बत से इसके हिस्से पढ़ते हैं। अपनी ज़िंदगी के क़िस्सों से साथ ही तो। कहाँ ख़त्म होती है धुंध से उठती धुन और कहाँ शुरू होता है कहानियों का सिलसिला। निर्मल किन लोगों की बात करते चलते हैं इस किताब में। उनकी कहानी के किरदार कितनी जगह लुकाछिपी खेलते दिखते हैं इस धुन्ध में। 

लिखे हुए क़िस्से और जिए हुए हिस्से में कितना साम्य है। पंकज ठीक ही तो कहता है इस किताब को, Master key. यहाँ इतना क़रीब से गुंथा दिखता है कहानी और ज़िंदगी का हिस्सा कि हम भूल ही जाते हैं कि वे दो अलग अलग चीज़ें हैं। मैं इसे पढ़ते हुए धूप तापती हूँ। मेरा कैमरा कभी वो कैप्चर नहीं कर पाता जो मैं इस किताब को पढ़ते हुए होती हूँ।

धुन्ध से उठती धुन पढ़ना मुहब्बत में होना है। मुहब्बत के काले, स्याह हिस्से में। जहाँ कल्पनाओं के काले, स्याह कमरे रचे जाते हैं। ख़्वाहिशें पाली जाती हैं। जहाँ दुनियाएँ बनायीं और तोड़ी जाती हैं सिर्फ़ किसी की एक हँसी की ख़ातिर। इसे पढ़ते हुए मैं देखती हूँ वो छोटे छोटे हिस्से कि जो निर्मल की कहानियों में जस के तस आ गए। वे अगर ज़िंदा होते तो मैं डिटेल में नोट्स बनाती और पूछती चलती इस ट्रेज़र हंट के बाद कि मैंने कितने क्लू सही सही पकड़े हैं। 

कहानियाँ ज़िंदगी के पैरलेल चलती हैं। मैं लिखते हुए कितने इत्मीनान से छुपाती चलती हूँ कोई एक वाक्य, कोई एक वाक़या, किसी की शर्ट का रंग कोई। लेकिन क्या मेरे पाठकों को भी इसी तरह साफ़ दिखेंगे वे लोग जिन्हें मैंने बड़ी तबियत से अपनी कहानियों में छुपाया है? वे शहर, वे गालियाँ, वे मौसम कि जो मैंने सच में जिए हैं।

आज एक दोस्त से बात कर रही थी। कि हमें दुःख वे ही समझ आते हैं जो हम पर बीते हैं या हमारे किसी क़रीबी पर। हमें उन दुखों की तासीर ठीक ठीक समझ आ जाती है। फ़र्स्ट हैंड दुःख। धुन्ध से उठती धुन पढ़ना फ़र्स्ट हैंड दुःख है। नया, अकेला और उदास। कोई दूसरा दुःख इसके आसपास नहीं आता। कोई मुस्कान इसका हाथ नहीं थामती। तीखी ठंड में हम बर्फ़ का इंतज़ार करते हैं। मौसम विभाग ने कहा है कि आज आधी रात के पहले बारिश नहीं होगी। 

'तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो', मेरी दुनिया में इस वाक्य की कोई जगह नहीं है। मेरे डर, मेरे अंधेरे, मेरे उदास क़िस्सों में किसी की आँखे नहीं चमकतीं। कितनी बार हलक में अटका है ये वाक्य। इसलिए मैं तुम्हें सिर्फ़ उन किताबों के नाम बताउँगी जिनसे मुझे इश्क़ है। ताकि तुम उन किताबों को पढ़ते हुए कभी किसी वाक्य पर ठहरो और सोच सको कि मैंने तुम्हें वो कहानी पढ़ने को क्यूँ कहा था। 

कभी चलना किसी पहाड़ी शहर। वहाँ की पुरानी लाइब्रेरी में एक रैक पर इस किताब की कोई बहुत पुरानी कॉपी मिल जाएगी। उस समय का प्रिंट कि जब हम दोनों शायद पहली बार किसी इश्क़ में पड़ कर उसे आख़िरी इश्क़ समझ रहे होंगे। प्रेमपत्र में बिना लेखकों के नाम दिए शायरी और कविताएँ लिख रहे होंगे। ग़लतियाँ कर रहे होंगे बहुत सी, इश्क़ में। साथ में पढ़ेंगे कोई किताब, बिना समझे हुए, बड़ी बड़ी बातों को। मिलेंगे कोई दस, पंद्रह, सत्रह साल बाद एक दूसरे से, किसी ऐसे शहर में जो नदी किनारे बसा हो और जहाँ मीठे पानी के झरने हों। याद में कितना बिसर गया होगा किताब का पन्ना कोई। या कि हमारा एक दूसरे को जानना भी। फिर भी कोई याद होगी कि जो एकदम नयी और ताज़ा होगी। एक रात पहले पी कर आउट हो जाने जैसी। थोड़ी धुँधली, थोड़ी साफ़। बीच में कहीं। भूले हुए गीत का कोई टुकड़ा। 

कोई धुन, धुन्ध से उठती हुयी। 
पूछना उस दिन मौसम का हाल, मैं कहूँगी। इश्क़। 

02 August, 2017

मैं तुम्हारी शब्दगंध पहचानती हूँ

मेरी सारी इंद्रियाँ कुछ ज़्यादा ही तेज़ हैं सिवाए नज़र के। आँखों पर चश्मा चढ़ा है तो दिखता कम है। लेकिन जितना दिखता है वो बहुत से डिटेल्ज़ के साथ सहेज दिया जाता है। कभी कभी मैं बिना चश्मे के चलना चाहती हूँ। पूरी धुँधली सी दुनिया की ख़ूबसूरती में भीगती हुई। बेतरह।

मैंने पहली बार तुम्हें तुम्हारे शब्दों से पहचाना था। उन शब्दों का चेहरा नहीं था। वे अंधेरे के शब्द थे। किसी पहाड़ी गुफ़ा में मीठे पानी के झरने की तरह। उनका होना दिखायी नहीं, सुनायी पड़ता था। उनका होना प्यास को पुकारता था। मैंने उन्हें छू कर जाना कि शब्दों से धुल जाती है थकान। पानी की तरावट समझने के लिए तुम्हें गर्मियाँ समझनी होंगी। या कि किसी के कॉटन दुपट्टे की छुअन। किसी पहाड़ी झरने के पानी से आँखें धो लो और फिर माँगो उस लड़की का दुपट्टा, चेहरा पोंछने के लिए। या कि उसकी साड़ी का आँचल ही। एक गंध होती है। गीले कपास में। उस गंध से यक़ीन आता है कि प्यास का प्रेत हमारा पीछा नहीं कर रहा। 

मेरे पास उस वक़्त बस इक छोटी सी बॉटल थी पास में। मैंने उसमें झरने का मीठा पानी भरा और सालों उसे देख कर इस बात का यक़ीन दिलाती रही ख़ुद को कि एक अंधेरी गुफ़ा में टटोल कर, पानी की आवाज़ तक पहुँची थी। बिना आँखों देखा सिर्फ़ स्वाद के भरोसे पानी पिया था और प्यास को मिटते हुए महसूसा था। उस भरी भरी सी पानी की बॉटल का होना एक मीठी याद थी। बस एक मीठी याद।

इक रोज़ यूँ हुआ कि किसी नए शहर में घूमते हुए रात हो गयी और शहर की सारी दुकानें बंद। आख़िर ट्रेन जा चुकी थी और मेरा होटल रूम वहाँ से दो मील दूर था। मेरे जूते कंफर्टेबल थे कि मैं विदेश में टहलते हुए हमेशा स्पोर्ट्स शूज पहनती हूँ पर उस रात मैंने ज़मीन की कुछ बातें सुननी चाही थीं। पानी की भी। इक नदी बहती थी शहर के दो टुकड़े करती हुयी। या कि शहर के दो टुकड़े जोड़ती हुयी। जैसा तुम सोचना चाहो। मैं नदी किनारे बैठी। जूते उतारे और ठंढे पानी में पैर डाल दिए। इक किताब थी मेरे बैग में। हमेशा की तरह। नदी ने कहा मेरे पास बंद किताबों की कहानियाँ नहीं आयी हैं कभी। तो मैंने उसे कहानियाँ सुनायीं। वो फिर तुम्हारी आवाज़ की मिठास चखना चाहती थी। मैंने बोतल से निकाल कर थोड़ा सा पानी नदी में बह जाने दिया। उस रोज़ मैंने पहली बार महसूसा था कि तुम पर मेरा हक़ कुछ भी नहीं। कि शब्दों पर हक़ सबका होता है। नदी, आसमान, पंछी का भी। मैं सिर्फ़ अपनी प्यास के लिए तुम्हारे शब्द बोतल में भर कर नहीं घूम सकती थी। उस दिन मैंने तुमसे उदार होना सीखा था। 

मगर जो शब्द तुम्हें मेरे लिए परिभाषित करता है, वो शब्द शायद तुम्हारे पास इतनी बहुतायत में है कि तुम्हें मालूम भी नहीं चला होगा कि कब मैंने दिन दहाड़े तुम्हारी नोट्बुक से एक पन्ना अपने लिए फाड़ लिया था। बड़े हक़ के साथ। कि तुम्हारे पास इस शब्द के कई रंग हैं। एक ज़रा सा हिस्सा मुझे भी दो। मैंने इसकी ग्राफ़्टिंग करूँगी। अपने पागलपन में ज़रा सा तुम्हारा 'kind' होना। कि तुम तो एकदम ही one of a kind हो। शायद चुप्पी की शाख़ पर खिल ही जाए मुस्कान की नन्ही कली कोई। या कि ठहाकों के काँटे उग आएँ। या इश्क़ का वर्जित फल। शब्द बड़े मायावी होते हैं। इनकी ठीक ठीक तासीर कोई भी तो नहीं जानता।  

It's a cold and cruel world, my friend. तुम्हारे शब्दों की सबसे ख़ास बात क्या है मालूम? They are kind. तुम्हारी तरह। तुम्हारे हाथों में ये शब्दगंध रहती है। तुम्हारे क़ातिल हाथों में। कि तुम्हारे हाथ तो फ़रिश्ते के हाथ हैं। तुम्हारे साफ़ दिल से भेजा जाता है उजले, पाक शब्दों में धुले, घुले इरादे। क़त्ल के। क़त्ल करने के लिए वे घंटों जिरह नहीं करते। कोर्ट केस नहीं करते। सान जो चढ़ा रक्खि है तुमने उन पर। इतनी तीखी। वे सीधा क़त्ल करते हैं। बस। एक ही लम्हे में। केस क्लोज़्ड।

तुम्हारी शब्दगंध। नींद में आती है दबे पाँव। जाग में आती है पायल की महीन झमक में। काँच की चूड़ियों में। टूटते हुए काँच दिल की छन्न में। बस कभी कभी होता है, कि शब्दगंध की जगह तुम ख़ुद चले आते हो। 

तुम ऐसे मत आया करो। मुझे तुमसे नहीं, तुम्हारे शब्दों से नहीं...अपने इस कोल्ड, क्रूअल दिल से डर लगता है। 
कि तुमसे मिल कर मेरा भी तुम्हारी तरह काइंड बनने का दिल करने लगता है। 
तुम्हारी तरह हँसने का भी।
वे दिन - निर्मल वर्मा 
***
Prequel
***

"तुम रातों को ऐसी बेपरवाही से ख़र्च कैसे कर सकती हो?"
"ये कैसा सवाल है। ठीक से पूछो वरना मैं कुछ जवाब नहीं दे रही,।"
"तुम रातों को ऐसे बेपरवाही से बर्बाद कैसे कर सकती हो? ख़ुश?"
"हाँ, अब ठीक है। वो इसलिए कि रातें मेरी अपनी होती हैं। चुरायी हुयीं। मैं अपनी नींद से मोहलत चुराती हूँ। तुम्हें मालूम मैं कितने घंटे सो रही आजकल?"
"नहीं। कितने?"
"तीन"
"नींद की कमी से मर सकते हैं लोग, मालूम है ना तुम्हें?"
"नहीं। सब कुछ तो बस, तुम्हें ही मालूम है"
"क्या करती हो रात भर जाग जाग के"
"पढ़ती हूँ, निर्मल वर्मा की 'वे दिन', बचा बचा के...और रचती हूँ वैसे शहर जिनमें तुम्हें मुझसे मिलना चाहिए"
"क्यूँ, इस शहर में क्या ख़राबी है?"
"इस शहर में मेरी पसंद के गीत नहीं बजते"
"तुम्हारी पसंद बदलती रहती है"
"धुनों की...लेकिन एक बात कभी नहीं बदलती। मुझे लिरिक्स बहुत अच्छे लगने चाहिए"
"तुम्हें शब्द मार डालेंगे"
"उफ़! ये हुयी कोई हसीन मौत, किसी कविता के हाथों मर जाना! नहीं?"
"बिलकुल नहीं। धरो किताब और जाओ सोने।"
"अच्छा, लास्ट बार, तुम अपनी पसंद का एक शहर चुन लो कि जिसमें मैं तुमसे मिल सकूँ। मैं अपनी पसंद का कोई शहर लिखूँगी तो उसमें तुम्हारी पसंद की ड्रिंक्स नहीं मिलेंगी।"
"तुम मुझे पहचान लोगी उस नए शहर में, कि जहाँ सब कुछ नया होगा"
"तुम्हें क्या लगता है, मैं तुम्हें कैसे पहचानती हूँ? तुम्हारी आँखों, तुम्हारी हँसी या कि तुम्हारे कपड़ों से?"
"पता नहीं। तुम ही बताओ"
"मैं तुम्हें तुम्हारी शब्दगंध से पहचानती हूँ।"

किसी से प्रेम किए बिना उसका दिल तोड़ना गुनाह है

दिन भर अस्पताल में बीता था। दुखते हुए टेस्ट। ये वो इग्ज़ैमिनेशंज़ नहीं थे जिन्हें पास करने या टॉप करने के लिए ख़ूब सी मेहनत करनी होती। ढंग के नोट्स बनाने होते। या क्लास में समय पर जा कर अटेंडन्स ही पूरी करनी होती। ये वो टेस्ट थे जो ज़िंदगी बिना किसी तैय्यारी के ले लेती है।

अस्पताल शायद किसी को भी अच्छे नहीं लगते होंगे। वहाँ की एक अजीब सी गंध होती है। मुर्दा गंध को ढकने वाली गंध। जैसे बिना नहाए लोग डीओ लगा लेते हैं और और भी ज़्यादा बिसाएन महकते हैं। ये ठीक ठीक गंध नहीं है। ये उस जगह का बहुत सा दुःख और अवसाद का सांद्र एनर्जी फ़ील्ड है। ये गंध से ज़्यादा महसूस होता है। ख़ास तौर से मुझे। मैं नॉर्मली हॉस्पिटल के रूट ट्रैवल में भी अवोईड करती हूँ। 

झक सफ़ेद रौशनी। एकदम सफ़ेद ब्लीच की हुयी चादरें। परदे। सब बिलकुल सफ़ेद। मगर यही सफ़ेद चादरें फ़ाइव स्टार होटल में होती हैं तो सुकून का बायस बनती हैं। उल्लास का। छुट्टियों का। मगर यही सफ़ेद हॉस्पिटल में दिखता है तो मन से सारे रंग सोख लेना चाहता है। 

वहाँ बहुत से बेड्ज़ लगे थे। हर बेड के इर्द गिर्द परदे। मेरे बग़ल वाले बेड पर आयी औरत रो रही थी। उसकी सिसकी मुझे सुनायी पड़ रही थी। कुछ इस तरह कि लग रहा था उसके आँसुओं का गीलापन मेरे पैरों तक पहुँच रहा है और मेरे तलवे ठंढे कर रहा है। मुझे ठंढे होते हुए पैर बिलकुल अच्छे नहीं लगते। मुझे उनसे हमेशा मम्मी की याद आती है। लेकिन इन दिनों मेरा पूरा बदन गरम रहता है, सिर्फ़ तलवे ठंढे पड़ने लगे हैं। मुझे ऐसा भी लगता है कि ज़मीन का लगाव कम रहा है मेरे प्रति। उसकी ऊष्मा मेरे तलवों तक नहीं पहुँचती। उसे मेरा ज़मीन पर नंगे पाँव चलना नहीं पसंद। या शायद मैं उड़ने लगी हूँ और मेरे पैरों को हवा से गरमी सोखना नहीं आता। 

मेरे हर ओर सिर्फ़ सफ़ेद था। कोई भी रंग नहीं। हॉस्पिटल के गाउन में भी कितना दर्द होता है। बदन पर डालते ही लगता है कितनी आहें और सिसकियाँ इसमें घुली होंगी। किसी सर्फ़ या ब्लीच से फ़ीलिंज़ थोड़े ना धुल जाती हैं। एसी बहुत ठंढा था। मेरे पास किताबें थीं। नोट्बुक थी। मोबाइल भी था। कुछ देर पढ़ने के बाद मैंने सब कुछ अलग रख दिया। मुझे वैसे भी मर जाने का बहुत डर लगता है। फ़ॉर्म भी तो साईन करवाते हैं। कि मैं मर गयी तो हॉस्पिटल ज़िम्मेदार नहीं होगा। वग़ैरह। यूँ ही। सवाल पूछो तो कहेंगे प्रोटोकॉल है। मतलब मज़े मज़े में पूछ लिया कि साहब आप मर गए तो हमारी ग़लती नहीं है। 

मैं भी यूँ ही लोगों से फ़ॉर्म भरवा लिया करूँ मिलते साथ…इश्क़ हो जाए तो मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। इन फ़ैक्ट मेरी कोई ज़िम्मेदारी कभी नहीं होनी चाहिए। नाबालिग़ तो होते नहीं लोग। कि मैंने फुसला लिया। जान बूझ कर आपको पुल से नीचे बहते दरिया में कूद के जान देनी है तो शौक़ से दीजिए ना। बस मेरे लिए एक आख़िरी चिट्ठी छोड़ जाइए कि हम दिखा सकें लोगों को कि मैंने अपना फ़र्ज़ निभाया था। वॉर्निंग भी दी थी। बचाने के लिए लाइफ़बोट भी भेजी थी। अब कोई मेरे इश्क़ से बचने के लिए मौत के गले पड़ जाए तो मैं क्या करूँ।
मौत। कहाँ कहाँ मिलती है। अपनी ठंढी उँगलियाँ भोंक देती है मेरे सीने में। दिल में छेद होकर सारा इश्क़ ख़ुमार बह जाए, सो भी नहीं होता। बस तड़प कहाँ होनी चाहिए, उसी की शिनाख्त करती है मौत। मेरे साथ और भी चार-छः लोग गए थे अंदर। सबके चेहरे पर क़ब्ज़ा जमाए बैठी थी मौत। जैसे जाने अंदर यमराज ख़ुद अपना भैंसा लेकर खड़े हों और बाँध कर ले ही जाएँगे। मैं हँस रही थी। पागलों की तरह। अश्लील हँसी। कि हस्पताल में नियम है कि मुर्दा शक्ल बना के घूमो। वहाँ ऐसे बेपरवाह होकर हँसना गुनाह ही था। ऐसा नहीं है कि मुझे दर्द नहीं होता। लेकिन फ़िज़िकल पेन के प्रति मेरा स्टैमिना बहुत ज़्यादा है। बर्दाश्त की हद ज़्यादा। बाएँ काँधे में हड्डी टूटी थी तो भी अपनी काइनेटिक फ़्लाइट ख़ुद ही राइड करके वहाँ से घर आयी थी। बिना किसी मदद के। घर आके पूरे घर में जो पैर के ज़ख़्म से ख़ून बहता आया था, उसे पोछे के कपड़े से पोछा था। सो दुखता है तो बस गहरी साँस लेती हूँ। इंतज़ार करती हूँ कि दर्द ख़त्म हो जाएगा। 

पर यहीं ज़रा मेरा दिल तोड़ के देखो। हफ़्तों खाना पानी बंद हो जाएगा। तोड़ना तो छोड़ो, खरोंच लगा के देखो ज़रा मेरे दिल पर। उसी में रोना धोना और चूल्लु भर पानी ढूँढ के मर जाना, सब कर लूँगी। ज़ुबान पर मेटल का टेस्ट आ रहा है। लोहे जैसा। काँसे जैसा। धातु। मुट्ठी भर दवाइयाँ हैं। निगलते निगलते परेशान। मेरे दिमाग़ दिल का उपाय क्यूँ नहीं होता इन डाक्टर्ज़ के पास। पूछूँ कि मेरा मन क्यूँ दुखता है? ये रात भर नींद क्यूँ नहीं आती। ग़लत लोगों से इश्क़ क्यूँ होता है? जिन्हें भूल जाना चाहिए, उनके नाम दिल में ज़मीन क्यूँ लिख देती हूँ। डॉक्टर ये भी तो बताएँ कि इश्क़ घूम घूम कर क्यूँ आता है जीवन में। लम्हे भर का। घंटे भर का। शाम भर का। 

तुम्हारा इश्क़ मेरा नाम पुकारता है। जैसे देर रात बेमौसम कूकती है कोई अकेली कोयल। ऐसी हूक कि जिसका कोई जवाब नहीं से नहीं आता। मैं क्या करूँ। हम दोनों के बीच कितने सारे शब्द हो जाते हैं। लेकिन शब्द बेतरतीब किसी जंगल की तरह नहीं उगते कि मैं तुम तक पहुँच नहीं पाऊँ। ना ही कोई पहाड़ या कि घाटी बनते हैं। शब्द मेरे तुम्हारे बीच नदी बनते हैं। पुल बनते हैं। बह जाने का गीत बनते हैं। मैं तुम्हारे लड़कपन की तस्वीरों के साथ अपनी ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो साथ में रखती हूँ और सोचती हूँ हम ग़लत वक़्त में मिले। हमें तब मिलना था जब मेरा दिल थोड़ा कम टूटा था और तुम थोड़े ज़्यादा बेपरवाह हुआ करते थे। 

तुम्हें मालूम है मुझे तुमसे कितनी बातें करनी हैं? मैं हर मौसम के हर शाम की कोई तस्वीर खींचना चाहती हूँ सिर्फ़ तुम्हारे लिए। गुनगुना देना चाहती हूँ कोई मुहब्बत में डूबा गीत। ख़त लिखना चाहती हूँ तुम्हें। इश्क़ कोई देश है। कोई शहर। गली। मुहल्ला कोई? कमरा है तुम्हारे दिल का…ख़ाली?

कितने शब्द लिखे गए हैं हमारे नाम से? कितनी किताबें हो जाती उन चिट्ठियों को जोड़ कर जो मेरे ख़याल में उगी लेकिन काग़ज़ पर मार दी गयीं। इस वायलेन्स के लिए कोई प्रोटेस्ट क्यूँ नहीं करता? 

ये बदन टूट फूट गया है। कोई कबाड़ी इसे किलो के भाव से तोलेगा इसलिए जब दिल्ली आती हूँ भर मन छोले कुलचे खाती हूँ। आइसक्रीम जाड़ों में। कोहरे में जिलेबी।

रूह में भी दरारें हैं। मेरे लिए महीन शब्द लिखो और गुनगुनाहट की कोई धुन। सिल दो ये बिखरा बिखरा लिबास। ज़रा देर को तुम्हारे काँधे पर सर रख लूँ। थक गयी हूँ। 

मुझे नहीं मालूम मेरे मर जाने पर कितने लोग मुझे कैसे याद रखेंगे। मगर मैं चाहूँगी तुम मुझे एक अफ़सोस की तरह याद रखो। एक जलते, दुखते, ज़िंदा अफ़सोस की तरह। कि तुम तो जानते हो। अफ़सोस की उम्र ज़िंदगी से कहीं ज़्यादा होती है। 

तुम मेरी ज़िंदगी में कभी नहीं रहे लेकिन मैं तुम्हें ऐसे मिस करती हूँ जैसे इक उम्र बिता कर गए हो तुम। रूठ कर। 

किसी किताब के पहले पन्ने पर कुछ भी लिखना गुनाह है। 
किसी से प्रेम किए बिना उसका दिल तोड़ना भी।

31 July, 2017

तुम्हारी आँखों का रंग उसकी फ़ेवरिट शर्ट जैसा है। ब्लैक।



'लिखने में हमेशा ख़ुद का एक हिस्सा रखना होता है। आत्मा का एक टुकड़ा। ये सिर्फ़ मेरा नहीं होता, जिस किसी को भी कभी मैंने गहरे, रूह से चाह लिया होता है, उसकी रूह के उतने से हिस्से पर मेरा अधिकार हो जाता है। मैं लिखते हुए इस हिस्से को किसी कहानी में सहेज देती हूँ। लेकिन ऐसा सिर्फ़ तभी हो सकता है जब इस इश्क़ में भी थोड़ी दूरी बाक़ी रहे, कि जिससे बहुत ज़्यादा इश्क़ हो जाता है उनको लेकर पजेसिव हो जाती हूँ। लिखना यानी नुमाइश करना। मैं फिर महबूब को ऐसे सबकी आँखों के सामने नहीं रख सकती। उसे छुपा के रखती हूँ बहुत गहरे, अंदर।"
'मेरे बारे में भी लिखोगी?'
'पता नहीं। तुम क्या चाहोगे?'
'लिखो मेरे बारे में।'
'पक्का? देखो, सोच लो। तुम्हारे बारे में लिखूँगी तो तुमसे एक दूरी हमेशा बना के रखूँगी ताकि तुम्हें अपनी आँखों से देख सकूँ। तुम्हारी आँखों में दिख सके...चाँद, तारे, शहर। महसूस हो तुम्हारी बाँहों में मौसम कोई। गंध तुम्हारी कलाई से उड़े और मेरी पलकों पर जा बैठे। मेरे ख़्वाब तुम्हारी आँखों जैसे महकते रहें।' 
'हाँ। इश्क़ तो शायद कई और बार हो जाएगा, लेकिन इस तरह मुझे रच के रख दे, ऐसी कोई कहाँ मिलेगी मुझे!'
'तुम एक इमैजिनेरी किरदार के लिए इश्क़ से मुँह मोड़ रहे हो? उन लोगों के लिए जो मेरा लिखा पढ़ते हुए तुमसे प्यार कर बैठेंगे और शायद बरसों तक तुम तक बात ना पहुँचे।' 
'तो यूँ कर लो, फ़िलहाल इश्क़ कर लेते हैं। तुम्हारी तरह का गहरा वाला'
'फ़िलहाल?'
'हाँ, इश्क़ कोई हमेशा की बात थोड़े होती है। ख़ास तौर से मुझसे। मेरा इश्क़ तो बस मौसमी बुखार है।'
'और फिर?'
'फिर क्या, इश्क़ ख़त्म हो जाएगा तो रख देना कहानी, कविता...जहाँ तुम्हारा मन करे तो। 
'और फिर?'
'फिर तुम अपने रास्ते, मैं अपने रास्ते। दुनिया में इतने शहर हैं, कहीं और भी जा के बस जाएँ। रोज़ रोज़ मिलने से मुहब्बत में ख़लल पड़ेगा।'
'मेरा दोस्त कहता है तुम मुझसे इश्क़ में हो...कि तुम्हारी आँखों में दिखता है'
'तुम्हारे दोस्त को मुझसे प्यार है?'
'पता नहीं'
'तो पूछो ना, तुम पास में बैठी थी तो वो मेरी आँखों में क्यूँ देख रहा था। क्या उसे मर्द पसंद आते हैं?'
'नहीं। उसे मैं पसंद हूँ। उसे मेरी चिंता है। मेरे इर्द गिर्द कोई भी होता है तो उसे ऑब्ज़र्व करता रहता है वो'
'मुझे लगता है तुम्हारे दोस्त को तुमसे प्यार है। वो प्यार जो वो मेरी आँखों में देख रहा है। उसके मन का चोर बोल रहा है ये'
'चोरी वोरि की कोई बात नहीं। उसे मुझसे प्यार हो जाएगा तो कह देगा। डरता थोड़े है वो मुझसे'
'तुमसे कौन नहीं डरता'
'तुम ना, पागल हो एकदम। हमसे कोई क्यूंकर डरेगा यार!'
'क्यूँकि तुमसे सबको इश्क़ हो जाता है और तुम्हें बस किसी किसी से'
'ये कौन सी बड़ी बात है। ये डर तो मुझे भी लगता है। मालूम, प्रेम और कॉन्फ़िडेन्स inversely proportional हैं। जब बहुत गहरा प्रेम होता है तो लगता है कि हम कुछ हैं ही नहीं। माने, कुछ भी नहीं। ना शक्ल, ना सीरत। होने की इकलौती वजह होती है कि महबूब इस दुनिया में है। हमारी रूह को एक बदन इसलिए मिला होता है कि वो हमें देख सके, छू सके। लेकिन हमारा कॉन्फ़िडेन्स इतना नीचे होता है कि हम सोचते हैं कि वो हमें एक नज़र देखेगा भी क्यूँ। कौन बताए उसे कि उसके देखने से हम जिला जाते हैं'
'तुम भी ये सब सोचती हो?'
'तुम 'भी' माने क्या होता है जी?'
'माने, तुम्हें ये सब सोचने की ज़रूरत क्यूँ आन पड़ी? कि इस दुनिया में कौन है जिसे तुमसे इश्क़ नहीं है?'
'एक ही है। बस एक ही है जिसे हमसे इश्क़ नहीं है। वो जिससे हमको इश्क़ हो रखा है'।
***
सुनो, उस किताब को अहतियात से पढ़ना। कि तुम्हारी उँगलियों के निशान रह जाएँगे उसके हाशिए में। तुम्हारे हाथों की गर्माहट भी। ये किसी को भी याद करने का सही वक़्त नहीं है, लेकिन मैं तुम्हारे सपने लिख रही हूँ। पहाड़ों पर चलोगे मेरे साथ? घाटी से उठते बादलों को देखते हुए चाय पिएँगे। सुनाएँगे एक दूसरे को याद से कविता कोई। बैठे रहेंगे पीठ से पीठ टिकाए और गिरती रहेगी पीली धूप। सूखे पत्तों का बना देंगे बुक्मार्क। बाँट के पढ़ेंगे मुहब्बत की किताब आधी आधी।

मैं अपनी ही मुहब्बत से डरती हूँ। अचानक से हो जाए हादसा कोई तो क्या ही करें लेकिन जानते बूझते हुए कौन भागे जाता है तूफ़ान की ओर। इक मेरे सिवा। और मुहब्बत। लम्हे में हो जाती है।
***
तुम्हारा तो नहीं पता। पर मैं चाहती हूँ तुम्हारी काली शर्ट को मैं याद रहूँ। मेरी उँगलियों की छुअन याद रहे। तब भी जब तुम्हारी बीवी उसे आधे घंटे सर्फ़ और गरम पानी वाली बाल्टी में भिगो रखने के बाद लकड़ी के पीटने से पटक पटक कर धोए। मैं चाहती हूँ कि वे बटन कभी ना टूटें जिन्हें तोड़ कर मैं अपनी जेब में रख लेना चाहती थी। वो कपास की गंध मेरी उँगलियों में घुली है। वो लम्हा भी। बहुत से अफ़सोस नहीं हैं जीवन में मगर तुम्हारी तस्वीरों को देखते हुए दुखता है सिर्फ़ इतना कि हमारी साथ में एक भी तस्वीर नहीं है। एक भी नहीं। कोई एक काग़ज़ का टुकड़ा नहीं जिसपर हमारे साझे दस्तखत हों। कोई पेंटिंग नहीं जिसपर हमने खेल खेल में रंग बिगाड़ दिए हों सारे। साथ में पी गयी कोई विस्की की याद भी कहाँ है। एक क़लम है मेरे पास जिससे तुमने किसी और का नाम लिखा था कभी। मुझे अमृता का साहिर लिखना याद आया था उस रोज़ भी। आज भी। 

आज फ़ेस्बुक पर एक पोस्ट शेयर की थी, किसी से पहली बार मिलने के बारे में। सो कुछ ऐसा है। जिन लोगों से कभी बाद में भी इश्क़ होना होता है, ज़िंदगी उनको एक ख़ास कैटेगरी में रखती है। ये वे लोग होते हैं जिनसे पहली बार मिलना मुझे हमेशा याद रहता है। अपने पूरे डिटेल्ज़ के साथ। उन्होंने कैसे कपड़े पहने थे। हमने कौन सी बात की थी। उनसे बात करते हुए मैं क्या सोच रही थी। सब कुछ। तुम्हें पहली बार देखा था तो तुम दूसरी ओर मुड़े हुए थे। पीछे से भी तुम्हें देख कर पहचान गयी थी। सिर्फ़ तुम्हारा चेहरा देखने की ख़ातिर कितना लम्बा चक्कर लगाना पड़ा था। चाँद ने पूरी कर ली थी अपनी सारी कलाएँ। तुम्हें पहली बार देखना, किसी सपने को छूना था। कॉपी में पंद्रह साल पुरानी चिट्ठी का पहली बार मिलना था। तुम्हें देखना, वाक़ई। पहली नज़र का इश्क़ था। इश्क़। 

चूँकि तुमने मुझे बहुत कम चूमा है इसलिए मेरा इतनी सी ज़िद मान लो। वे जो दो शर्ट्स थीं तुम्हारीं, सो भेज दो मेरे पास। मैं तुम्हें उन कपड़ों में किसी और के साथ नहीं देख सकती। दुखता है बहुत। 

तुम्हें मालूम है, जितने वक़्त मैं तुमसे दूर रहती हूँ, सिगरेट मुझे छोड़ देती है। तुमसे दूर रहना मेरे स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है। लेकिन मैं सोचती हूँ कि तुम्हारे इश्क़ में जो दिमाग़ी संतुलन खोता जाता है जैसे जैसे तुमसे दूर होने के दिनों का हिसाब मैं उँगलियों पर नहीं गिन पाती। सो पागलखाने में मैं क्या ही करूँगी अपने ख़ूबसूरत जिस्म का, दीवार पर सर फोड़ने और स्मगल की हुयी ब्लेड से कट लगाने के सिवा। 

***
ज़िंदगी कहती है मुझसे। देखो, तुम्हें ख़ुद तो कभी समझ नहीं आएँगी चीज़ें और तुम यूँ ही इश्क़ में गिरती पड़ती अपना दिल तोड़ती रहोगी। सो मैं हिंट देती हूँ तुम्हें। उन लड़कों से दूर रहना जिन्हें ब्लैक शर्ट्स पसंद हैं। काला शैतान का रंग है। अंधेरे का। स्याह चाहनाओं का। गुनाहों का। दोज़ख़ का। तुम्हारे इश्क़ का। 

और बेवक़ूफ़ लड़की, तुम्हारी आँखों का भी। 

29 July, 2017

Damn it, ये प्राग क्यूँ नहीं है!

हवा और धुंध के पीछे उसका सिर दीवार पर टिका था। कभी-कभर मीता के क़दमों की आहट सुनायी दे जाती थी। उसने पैकेट से सिगरेट निकाल कर मुँह में रख ली। माचिस की तीली जलाकर मैं सिगरेट के पास ले गया। उसने सिगरेट जलाकर उसे फूँक मार कर बुझा दिया। मैं हँसने लगा।
"क्या बात है?" उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा।
"कुछ नहीं।"
"तुम हँसे क्यूँ?"
मैंने विवशता में अपने काँधे सिकोड़ लिए।
"मुझे अब तुम्हें चूमना होगा।" मैंने कहा।
"क्यूँ?" उसने कौतुहल से मेरी ओर देखा।
"यहाँ यही प्रथा है। अगर कोई लड़की अपनी इच्छा से जलती हुयी तीली बुझा दे, तब उसका मतलब यही होता है।"
"मेरा मतलब वह नहीं था।" उसने हँसकर कहा।
"उससे कोई अंतर नहीं पड़ता।"
"तुम बहुत अभ्यस्त जान पड़ते हो।"
"फिर?" मैंने उसकी ओर देखा। 
- निर्मल वर्मा, वे दिन 
***



ये किताब है या पुराने अफ़सोसों का पुलिंदा! जाने किस किस कोने से निकल कर खड़े हो गए हैं अफ़सोस सामने। किताबों जैसे। कहानियों जैसे।

गीले। सीले अफ़सोस। धुआँते। ठंढ में ठिठुरते। एक चाय की गुज़ारिश करते।
चूमे जाने की भी।

कितना सारा अधूरा इश्क़ ज़िंदा रहता है। जब पूरा पूरा शहर सो जाता है। जब बंद हो जाती हैं सारी लाइटें। नींद के आने के ठीक पहले। पढ़ी हुयी आख़िरी किताब के पहले प्रेम के नाम। लिखना चाहते हो कौन सा ख़त? करना चाहते हो कितना प्रेम।

ये किताब पढ़ते हुए बदल जाओगे थोड़ा सा तुम भी। तुम्हें ये किताब भेज दूँगी अपने पहले। मिलूँगी जब तुमसे तो तुम्हारे सामने सिगरेट पीने के लिए माँगूँगी माचिस तुमसे। बुझा दूँगी यूँ ही। और फिर कहूँगी।

"Damn it, ये प्राग क्यूँ नहीं है!"

तुम। कि तुम्हें इतनी फ़ुर्सत कहाँ होगी कि पढ़ सको ये किताब। या कि इसके सीलेपन में धुआँती आँखों को याद दिला सको सिर्फ़ इतना सा हिस्सा ही। या कि जा सको प्राग कभी।
कहना तो ये था...
"तुम्हें, चूम लेने को जी चाहता है"। 

***
सुनो, ये किताब पढ़ लो ना मुझे मिलने से पहले। प्लीज़। मैं कह नहीं सकूँगी तुमसे। फिर लिखना पड़ेगा एक पूरा पूरा उपन्यास और जाने कितना सारा तो झूठ। जबकि सच सिर्फ़ इतना ही रहेगा।
इक धुंध में घिरी हुयी किताब पढ़ते हुए, तुम्हें चूम लेने को जी किया था।
***

दुनिया की सारी दीवारें एक जैसी होती हैं। उनका मक़सद एक ही होता है। उनकी ख़्वाहिशें भी एक ही। 
उनसे टिक कर चूमा जा सकता है किसी को। 
उनकी आड़ में भी। 

वे वादा करती हैं कि वे आपके लिए रहेंगी। वे सम्हाल लेंगी आपको।  किसी को चूमते हुए। किसी के जाने के बाद टिक के रोने के लिए भी। 

मेरी याद में बहुत सी दीवारें ज़िंदा हैं। कि मैंने उनमें जितना प्रेम चिन दिया है, उस प्रेम को साँसों की दरकार नहीं है। उस प्रेम को शब्दों की ज़रूरत होती है और मैं हर कुछ दिनों में उन नामों को ना लिखते हुए भी उनके नाम के किरदार रचती हूँ, उनके कपड़ों के रंग से आसमान रंगती हूँ, उनकी आँखों के रंग की विस्की पीती हूँ। 
***

मैं अपने हिस्से का सारा प्रेम अजनबियों के नाम लिख जाऊँगी। अफ़सोसों के नाम। दुनिया भर के आर्टिस्ट्स के नाम। जो ज़िंदा हैं और जो मर गए हैं, उनके नाम। दुनिया की हर किताब के हर किरदार से इश्क़ कर लूँगी। 

और फिर भी, मेरी जान, तुम्हारे हिस्से का इश्क़ बचा रहेगा। सलामत। 
तुम्हें ना चूमे जा सकने वाली किसी शाम के नाम। 

26 July, 2017

वो या तो प्रेम में होती या इंतज़ार में

लड़की जिन दिनों प्रेम में होती, मर जाना चाहती। 
कि वो या तो प्रेम में होती या इंतज़ार में।

फ़ोन करते हुए उसकी आवाज़ में एक थरथराहट है जिसके कारण वो उसे फ़ोन नहीं कर पा रही है। उसके आइफ़ोन में इंटेलिजेंट असिस्टेंट है उसका। बहुत ही सेक्सी आवाज़ में बातें करने वाला - सीरी। वो प्यार से कहती है लेकिन सीरी अभी इतना बुद्धिमान नहीं हुआ है लड़की की थरथराती आवाज़ से उसका नाम छान ले और ठीक फ़ोन कर ले उसको। बार बार पूछता है भौंचक्का सा…मैं कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ। क्या चाहिए तुम्हें। लड़की पगला गयी है थोड़ी थोड़ी। हँसती है और कहती है। आइ लव यू सीरी। इंटेलिजेंट असिस्टेंट को मालूम है इसका फ़ेवरिट जवाब क्या है। जैसे कोई लड़की लजाते हुए कहती है कि उसकी आवाज़ में अदा घुल आए, सीरी कहता है, ‘Ooh stop!’। अब बस भी करो। क्या ही करगा सीरी इस प्यार का। प्यार कोई सवाल तो है नहीं कि जिसका जवाब गूगल से खोज दिया जाए। स्टेटमेण्ट के लिए सीरी के पास कुछ नहीं है। बस कुछ प्रीकोडेड रेस्पॉन्सेज़ हैं। लड़की को शिकायत नहीं है। मुश्किल है।
लड़की की आवाज़ अगर थरथरा रही है तो उसकी उँगलियों का तो हाल पूछो ही मत। नील से पड़ रहे हैं उँगलियों के पोर। ऐसी थरथाराहट का कोई क्या भी करेगा। ऐसे में तो नम्बर भी नहीं डायल हो सकता। 

लड़की टेलीपैथी से जुड़ी हुयी है उन सारे लोगों से जिनसे वो प्यार करती है। हालाँकि इस नेट्वर्क का इस्तेमाल बहुत कम करती है कि इसका रीचार्ज कराना बहुत मुश्किल है और प्रीपेड कार्ड का बैलेंस देखना भी बहुत मुश्किल। आज शाम उसने लेकिन टेलीपैथी से उस लड़के को याद किया गहरे। मुझे फ़ोन करो। 

ठीक आधे सेकंड बाद उसका फ़ोन आया। सीरी पक्का जलभुन के ख़ाक हो जाता अगर सीरी को लड़की से ज़रा भी इश्क़ होता तो। 

ज़िंदगी इतनी ठंढी हुआ करती थी कि लड़की पूरा पूरा जमा हुआ आइस ब्लॉक हो जाया करती थी। ग्लेशियर जैसा कुछ। स्टारबक्स में पीती आइस्ड अमेरिकानो। एक पूरा भर के ग्लास में आइस। और फिर दो शॉट इस्प्रेसो। कॉफ़ी ऑन द रॉक्स। कितनी ठंढ होती उसके इर्द गिर्द। 

उसके फ़ोन से उसकी आवाज़ ने निकल कर लड़की को एक टाइट बीयर हग में कस लिया। लड़की एकदम से खिलखिलाती हुयी पहाड़ी नदी बन गयी। वो कहती थी उससे। तुमसे बात करके मैं नदी हुयी जाती हूँ। खिलखिलाती हुयी कह रही थी उससे, ‘क्या तुम मेरा नाम भूल गए हो?’। 

उसके गालों में छुपा हुआ डिम्पल था जो सिर्फ़ तभी ज़ाहिर होता था जब वो इश्क़ में होती थी। उसकी मुस्कान में दुनिया के सारे जादू आ के रहा करते थे। लेकिन लड़की जब इश्क़ में होती थी और ब्लश करती थी तो उसकी आँखों की रौशनी के चौंध में उसके बाएँ गाल पर का छुपा हुआ डिम्पल दिखने लगता था। वो ऐसे में अपनी दोनों हथेलियों से अपना पूरा चेहरा ढक लिया करती थी। डिम्पल को जल्दी ही नज़र लग जाती थी लोगों की और फिर लड़की की आँखों के सूरज को कई कई सालों के लिए ग्रहण लग जाता था। 

'अच्छा बताओ, अगर मैं कहूँ तुमसे ‘मैं जल्दी मरने वाली हूँ तो कितनी देर बात करोगे मुझसे?’
‘डिपेंड करता है’
‘मैं यहाँ मरने की बात कर रही हूँ और तुम कंडिशंज़ अप्लाई कर रहे हो। छी। किस बात पर डिपेंड करता है ये?’
‘इसपर कि तुम कितने दिन में मरने वाली हो’
‘अरे, कह तो रही हूँ, जल्दी’
‘जल्दी तो एक सब्जेक्टिव वर्ड होता है, तुम जब कहती हो कि मैं जल्दी आ रही हूँ दिल्ली तो तुम एक साल बाद आती हो'

लड़की उस शहर से बहुत प्रेम करती थी। साल में एक बार आना काफ़ी होता था। साल का आधा हिस्सा फिर याद के ख़ुमार में बीतता था और बचा हुआ आधा हिस्सा उम्मीद में।

मैग्लेव जानते हो तुम? मैग्नेटिक लेविटेशन। इन ट्रेनों के नाम दुनिया की सबसे तेज़ ट्रेन होने का रेकर्ड है। आकर्षण और विकर्शन का इस्तेमाल करती हुयी ट्रेनें ज़मीन को छुए बिना ही तेज़ी से भागती रहती हैं। प्रेम ऐसा ही कुछ रचता लड़की के पैरों और ज़मीन के बीच। लड़की के क़दम हवा में ही होते। वो बहुत तेज़ भागती जाती। धरती के दूसरे छोर तक कि जैसे नाप ही लेगी उसके दिल से अपने दिल तक की दूरी।

उसके पास कोई कहानियाँ नहीं होतीं कभी कभी। कभी कभी।

उन दिनों वो कहानी के टुकड़े रचती जाती और आधे अधूरे महबूब। असमय। कुसमय मर जाने वाले किरदार। उसकी याद में अटक जाती छोटी छोटी चीज़ें। पुराने प्रेम। छूटे हुए कमरे। रजनीगंधा और गुलाब की गंध। और एक लड़का कि जिसके छूने से एक पूर्ण औरत बन जाने की चाहना ने जन्म लिया था। मगर लड़की को औरतें पसंद नहीं थीं तो वो अक्सर उनके मर जाने का इंतज़ाम करते चलती थी। उनके दुःख का। उनके बर्बाद जीवन का। 

बहुत सी चीज़ों की प्रैक्टिस करती रहती लड़की। सबसे ज़रूरी होता, एक पर्फ़ेक्ट सूयसायड नोट लिखने की भी। दुनिया से जाते हुए आख़िरी चीज़ तो पर्फ़ेक्ट हो। बस ये ही डर लगता उसको कि मालूम नहीं होता कौन सा ड्राफ़्ट आख़िरी होगा। अच्छे मूड में सूयसायड नोट लिखने का मन नहीं करता और सूयसाइडल मोड में उसे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि क्या लिख रही है। 

मौत से इकतरफ़ा प्यार करती हुयी लड़की सोचती, मौत का जो दिल आए जाए उस पर…मर ही जाए वो फिर तो।

घड़ी में आठ बजे थे

मुझे उसका लिखा कुछ भी नहीं याद। ना उसके होने का कोई भी टुकड़ा। उसके कपड़ों की छुअन। उसका पर्फ़्यूम। कमरे बदलने के बाद छूटे हुए फ़र्श पर छोड़ दिए गए बासी गुलदान। पुराने हो चुके तकिया खोल का बनाया हुआ पोंछा। उसके कुर्ते का रंग। 
कुछ नहीं याद। कुछ भी नहीं। 
अफ़सोस के खाते में जमा ये हुआ कि मैंने उससे एक पैकेट सिगरेट ख़रीदवा ली। जाने क्यूँ। सच ये है कि मैं उससे सिर्फ़ एक बार मिली थी। उसके बाद बदल गयी थी मैं भी, वो भी। हम दोनों आधे आधे अफ़सोस की जगह पूरे पूरे अफ़सोस हो गए थे। मुझे अफ़सोस कि पूरे पूरे दोस्त होने चाहिये। उसे अफ़सोस कि पूरे पूरे आशिक़। 

मैं उसका कमरा देखना चाहती थी। धूप में उसकी आँखें भी। मैं उसकी कविताओं की किताब पर उसका औटोग्राफ लेना चाहती थी। लेकिन वो ना कविता लिखेगा, ना कभी किताब छपवायेगा। ना मैं कभी उसके बुक लौंच पे जाऊँगी। कितने दिनों से उससे झगड़ा नहीं किया। गालियाँ नहीं दीं। उदास नहीं हुयी क्या बहुत दिनों से? बेतरह क्यूँ याद आ रहा है वो। ठीक तो होगा ना?

कभी कभी कैसे एक पूरा पूरा आदमी सिमट कर सिर्फ़ एक शब्द हो जाता है। कभी कभी सिर्फ़ एक नाम। कभी कभी सिर्फ़ एक टाइटल ही, एक बेमतलब के घिसटते हुए मिस्टर के साथ। 

मगर एक शब्द था। उसने बड़ी शिद्दत से कहा था मुझसे। इसलिए याद रह गया है।

इश्तियाक़!

एक लड़का हुआ करता था पटना में। मुस्लिम था लेकिन अपना नाम अभिषेक बताता था लोगों को। मैं इस डिटेल में नहीं जाऊँगी कि क्यूँ। मैंने पहली बार उसका नाम पूछा तो उसने कहा, अभिषेक। मैंने कहा नहीं, वो नाम नहीं जो तुम लोगों को बताते हो। वो नाम जो तुम्हारा ख़ुद का है। उसने कहा, 'सरवर'। उन दिनों उसने एक शेर सुनाया था। शेर में शब्द था, 'तिलावत'...उसने समझाया पूजा जैसे करते हैं ना, वैसे ही। उसने ही पहली बार मुझे 'वजू करना' किसे कहते हैं वो भी समझाया था। 

उसकी कोई भी ख़बर आए हुए कमसे कम दस साल हो गए। मगर मुझे अभी भी वो याद है। हर कुछ दिनों में याद आ जाता है। शायद उसने किसी लम्हे बहुत गहरा इश्क़ कर लिया था। वरना कितने लोगों को भूल गयी हूँ मैं। स्कूल कॉलेज में साथ पढ़ने वाली लड़कियाँ। ऑफ़िस के बाक़ी कलीग्स। बॉसेज़। हॉस्टल में साथ के कमरे में रहने वाली लड़की का नाम। मगर उस लड़के को कभी भूल नहीं पाती। उसे कभी लगता होगा ना कि मैं उसे याद कर रही हूँ, मगर फिर वो ख़ुद को समझाता होगा कि इतने सालों बाद थोड़े ना कोई किसी को याद रखता है। मैं कभी उससे मिल गयी इस जिदंगी में तो कहूँगी उससे। तुम्हें याद रखा है। जिन दिनों तुम्हें लगता था कि मेरी बहुत याद आ रही है वो इसलिए कि दुनिया के इस शहर में रहती मैं तुम्हें अपने ख़यालों में रच रच के देख रही थी। तुम्हारी आँखों का हल्का भूरा रंग भी याद है मुझे।

शायद ईमानदारी से ज़्यादा ज़रूरी लोगों के लिए ये होता हो कि क्या सही है, क्या होना चाहिए। समाज के नियमों के हिसाब से। हर बात का एक मक़सद होता है। रिश्तों की भी कोई दिशा होती है। मैं बहुत झूठ बोलती हूँ। एकदम आसानी से। मगर जाने कैसे तो लगता है कि मेरे दिल में खोट नहीं है। रिश्तों को ईमानदारी से निभा ले जाती हूँ। आज ही छोटी ननद से बात करते हुए कह रही थी, कोई किसी को ज़बरदस्ती किसी को 'मानने' पर मजबूर नहीं कर सकता है। हमारे बिहार में 'मानना' स्नेह और प्रेम और अधिकार जैसा कुछ मिलाजुला शब्द होता है जिसका मायना लिख के नहीं बता सकते। तो हम लोगों को बहुत मानते हैं। कभी कभी जब बहुत उदास होते हैं कि मेरी ख़ाली हथेली में क्या आया तो ज़िंदगी कुछ ऐसी शाम। कुछ ऐसे लोग भेज देती है। कि शिकायत करना बंद करो। नालायक।

मैं अब भी लोगों पर बहुत भरोसा करती हूँ। दोस्तों पर। परिवार पर। अजनबियों पर। मुझे हर चीज़ को कटघरे में रख के जीना नहीं आता।

एक बार पता नहीं कहीं पढ़ा था या पापा ने बताया था। कि जो बहुत भोला हो उसे आप ठग नहीं सकते। उसे पता ही नहीं चलेगा। वो उम्र भर आप पर भरोसा करेगा।

ईश्वर पर ऐसा ही कोई भरोसा है।
और इश्क़ पर भी।

कैसे तो दिन। कैसे तो लोग।

कुछ किताबें आपको दिन भर पढ़ती रहती हैं, चुपचाप। ये किताब कोई बहुत अच्छी नहीं है। इसमें चमत्कृत करते बिम्ब नहीं हैं। अद्भुत घटनाएँ भी नहीं हैं। कोई ऐसा किरदार नहीं कि जो आपने कहीं देखा ना हो। 

अपनी सादगी में कितने ख़ूबसूरत और उतने ही छोटे और मासूम लमहों को बेतरतीब रख देने वाली किताब है। कोई एक किताब कैसे कितने सारे लोगों का सच हो जाती है, उनके सपने हो जाती है इसे पढ़ कर पता चलता है। ये सब बिना गर्वोनमत्त हुए, विनम्रता से। ये तो मेरा फ़र्ज़ है जैसी कोई चीज़ को जीते हुए। 

कितना सहज है सब कुछ। कितना मार्मिक। कितना गहरे अंदर दुखता हुआ। या कि अंदर ख़ुद से दुःख रहा है, ये किताब सिर्फ़ उस ज़ख़्म पर ऊँगली रख पा रही है कि ख़ालीपन कहाँ तकलीफ़ दे रहा है। 

इसे पढ़ते हुए मन तरल हुआ जाता है। नदी। समंदर। 

हम किताबों को नहीं चुनते, किताबें हमें चुनती हैं। ज़िंदगी के अलग अलग मोड़ों पर वे हमारा हाथ थामे चलती हैं। सहारा देते हुए। साथ देते हुए। राह दिखाते हुए भी तो कभी कभी। टुकड़ों टुकड़ों में याद होती गयी है ये किताब। लड़कपन की दहलीज़ पर किया गया पहला प्यार और छूटा हुआ पहला अधूरा चुम्बन जैसे। 

मुझे वे रिश्ते बहुत पसंद आते हैं जो प्रेम से इतर होते हैं। प्रेम चीज़ों को एकरंग कर देता है। सबसे ज़्यादा इंटेंस भी। 

पेज नम्बर ८० पर एक छोटा सा वाक्य लिखा है। पिछले पेज पर एक गाइड और उसकी विदेशी पर्यटक डान्स कर रहे हैं। मगर यूँ ही, मन किया तो। उन्होंने पूरे कपड़े पहन रखे हैं, भारी ओवरकोट और मफ़लर भी। कुछ ऐसा ही लेखक कहता है कि हमें ऐसे कोई नाचते हुए देखता तो पागल ही समझता। लेकिन कोई है नहीं। 
***
वह विस्मय मेरे लिए भी नया था। पूरे दिन कुछ नहीं हुआ था जिसे हम 'घटना' कह सकें। वह महज़ समय था - अपने में ख़ाली और घटनाहीन - लेकिन एक बिंदु पर आकर वह ख़ुद-ब-ख़ुद एक 'होने के सुख' में बदल गया था। हम धीमी गति से घूम रहे थे और हमारे साथ एक-एक चीज़ घूम रही थी - अंधेरे पर सरकते हुए सिनेमा -स्लाइड्स की मानिंद - टापू पर नीला झुरमुट, पवेलियन की छत, पुल पर जलते लैम्पपोस्ट...वे अलग थे, अपने में तटस्थ। सिर्फ़ एक चीज़ उनमें तटस्थ नहीं थी - वह अदृश्य थी और हमसे बँधी हुयी...एक वॉल्स ट्यून। 
- वे दिन, निर्मल वर्मा
***
न्यूयॉर्क में मेरा एक ही दोस्त है। पहले कभी इस शहर के प्रति कोई लगाव नहीं रहा लेकिन अब जैसे जानने लगी हूँ उस शहर को थोड़ा थोड़ा। कुछ शहर ज़िंदा हो जाते हैं, उनमें रहने वाले किसी एक के होने से।
मैं पिछले दो साल से देख रही हूँ अपने कुछ दोस्तों को कि पुस्तक मेले में 'धुंध से उठती धुन' ज़रूर तलाशते हैं। मुझे निर्मल कभी पसंद नहीं आए। इस साल जनवरी में अंतिम अरण्य पढ़ा और डूब गयी। पिछले कुछ दिनों में निर्मल की लगभग सारी किताबें ख़रीद ली हैं amazon से। 
गूगल कमाल है। दिखा देता है कि न्यू यॉर्क की लाइब्रेरी में धुंध से उठती धुन रखी हुयी है। मैं  उससे कहती हूँ, अच्छा एक बात बताओ, लाइब्रेरी से अगर एक किताब ग़ायब हो जाए तो क्या होगा। वो कहता है, क्या ही होगा, कुछ नहीं होगा। हम अजेंडा सेट करते हैं कि न्यू यॉर्क आएँगे और वहाँ की लाइब्रेरी से धुंध से उठती धुन चुराएँगे। फिर उसको पूछते हैं, तुम मेरे पार्ट्नर इन क्राइम बनोगे? वो हँसता है, और कहता है, 'Deal'। इस तरह से हम लोग डील इज डन करते हैं।
***
कुछ किताबें सिर्फ़ किताबें नहीं होतीं। ज़िंदा लोगों की तरह घुल मिल जाती हैं पूरे दिन में। आधी रात में और कितनी बात में भी तो। कब से धुंध से उठती धुन के लिए परेशान हो रही हूँ। बहुत मुश्किल से एक ऑनलाइन कापी मिली है। लेकिन ज़िद है कि पढ़ने को तो हाथ में भी चाहिए। स्टूडेंट एरिया में कोई प्रिंटर खोजना होगा। बाइंडिंग की दुकान खोजनी होगी। 

फिर किसी ने कहा है कि वो भेज देगा पढ़ने के बाद। मैं इंतज़ार कर रही हूँ कि उसके पढ़ने के बाद आए मेरे हाथ कभी। मैं चीज़ों को लेकर बहुत इमपेशेंट हो जाती हूँ। अब Newyork जाने का सिर्फ़ इसलिए हड़बड़ी है कि ये किताब हार्ड कापी में देखनी है। चुरानी है। 

एक किताब के क़िस्से सिर्फ़ उसके अंदर छपे नहीं होते। उसके इर्द गिर्द साँस लेते हुए भी होते हैं। 
नज़र चाहिए बस। 

06 July, 2017

एक ख़त पाठकों के नाम

प्रिय (और अप्रिय) पाठकों।

जब आप मुझसे कुछ बेहतर लेखक होने की चाह रखते हैं, तो ये समझिए कि मैं भी आपसे बेहतर पाठक होने की चाह रखती हूँ। अच्छे लेखक विरले हैं अगर तो अच्छे पाठक और भी विरले हैं।

आप मुझसे किताबों पर बात कीजिए। आप इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं। उसमें क्या अच्छा लगा। किरदारों की बुनावट में कौन सी चीज़ें अच्छी लगती हैं। क्या कोई बहुत सुंदर और नया बिम्ब दिखा किसी लेखन में।

कला के कई आयाम होते हैं। गीत और संगीत बहुत हद तक आसान होता है। कोई गीत एकदम अलग सा हो। कोई संगीतकार कि जो बहुत पॉप्युलर ना हो। मैंने गाने बहुत कम सुने हैं और वाक़ई जो सुने हैं दोस्तों के बताए, सुनाए या लिखाए गए ही हैं। आपको कोई संगीतकार बहुत अच्छा लगता है, कोई बैंड बहुत पसंद है। आप कह सकते हैं उस बारे में। मेरा इन्बाक्स खुला है।

पेंटिंग थोड़ी मुश्किल भाषा है। इसके कूटशब्द सब जगह नहीं मिलते। मैं सिर्फ़ इतना ही कहूँगी कि किसी पेंटिंग को उसका प्रिंट देख कर समझ पाना मुश्किल है। उसके लिए सच की पेंटिंग देखनी होती है। यहाँ शब्दों की जगह नहीं होती। आपको जो पेंटिंग पसंद है, आप ख़ुद ही उसकी कहानी सुन सकेंगे। चुपचाप। आप वो रंग होते जाएँगे कि जो कैनवास का हिस्सा हैं।

मैंने इस पेज को कुछ साल पहले बनाया था। मैं इसे रफ़ कॉपी की तरह इस्तेमाल करती हूँ। बिना सोचे समझे, बिना ज़्यादा सेंसर किए चीज़ें रखती हूँ। कि ये कच्चा माल है। अच्छा लिखने का एक ही तरीक़ा मुझे समझ में आता है। लिखते जाना। सिर्फ़ सोच कर मैं अच्छा नहीं लिख सकती।

लिखते हुए शब्दों पर ध्यान दें। रैंडम चीज़ें ना लिखें। सिर्फ़ अच्छा और बुरे से आगे बढ़ कर अपनी बातों को ज़्यादा स्पष्ट तरीक़े से कहें।

आख़िरी बात। मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लिए लिखती हूँ। ये बात बदलने वाली नहीं है। लिखने पर बिन माँगी सलाह से मेरा दिमाग़ ख़राब होता है। मुझे वाक़ई ग़ुस्सा आता है। कोई भी लेखक अपने पाठकों के हिसाब से नहीं लिखता। वो लिखता है कि उसके अंदर कोई कहानी होती है जो कहा जाना माँगती है।

पाठक होने की विनम्रता होनी चाहिए। मैं ये इसलिए कह रही हूँ कि मैं लेखक होने के कई साल पहले और अभी भी, सबसे पहले एक पाठक हूँ। अपने पसंद के लेखकों के प्रति एक सम्मान और कृतज्ञता से भरी रही हूँ। लिखना मुश्किल होता है। हर लेखक के लिए। आप किसी भी लेखक या कलाकार की जीवनी उठा कर पढ़ लीजिए। भयानक उथल पुथल से भरी मिलेगी। आंतरिक और बाह्य, दोनों। सारी मेहनत उस कलाकार की है। आप सिर्फ़ ग्रहण कर रहे हैं। याचक भाव से। हथेली फैलाइए।

मैं लेखक पाठक दोनों हूँ। पाठक होते हुए मैं भी याचक की मुद्रा में होती हूँ। बात मेरे पसंद के मंटो की हो, रेणु की हो, JK रोलिंग की हो, मुराकामी की हो, लोर्का की हो, सिंबोर्सका की हो, स्वदेश दीपक की हो। मैं इनके सामने ज़मीन पर होती हूँ। ये आसमान में चमक रहे होते हैं।

लेकिन जब मैं लेखक होती हूँ तो एक पाठक से बढ़ कर होती हूँ कि मेरा होना आपके होने से स्वतंत्र है। लेखक ना हों तो पाठक का अस्तित्व नहीं होता। लेकिन पाठक ना हों तो भी लेखक लिखता है।

आपका कोई अधिकार नहीं है। ना मेरे लिखे पर। ना मेरे जीवन पर।

चपलम समरपयामी

कभी कभी कमाल का मूड होता है। आज व्यंग्य लिखने का मन कर रहा है। 

ऐसा कुछ लिखने की दो वजह हो सकती है। पहली तो सिम्पल कि हम आजकल शायरी पढ़ रहे हैं। दूसरा ये कि एक दोस्त के यहाँ जाने पर उसकी चप्पल माँग के पहने। क़सम से चप्पल देखते ही पटना के हनुमान मंदिर के आगे वाला चप्पल का ढेर याद आ गया। वो चप्पल हंडरेड परसेंट वहीं से उड़ाया गया था। 

तो इन दिनों के कौंबिनेशन से दिमाग़ में अजीब अजीब ख़याल और इमेजेस उभर रहे हैं। कि जैसे एक शायरी का मंच हो। मंच के ऊपर बड़ा सा पोस्टर लिखा हो। 'मंच पर फेंके गए जूते चप्पल ज़ब्त कर लिए जाएँगे और धारक(फेंकक) को वापस नहीं मिलेंगे। समझदार लोग इसका भी जोड़ तोड़ निकाल लेंगे। वे सिर्फ़ एक पैर का जूता फेंकेंगे। इसके बाद सिंडरेला की तरह हर जूते का जोड़ा खोजा जाएगा। लोग कवि सम्मेलनों/मुशायरे के पहले whatsapp ग्रूप पर मेसेज भेज कर साथ में डिसाइड करेंगे कि इस बार लेफ़्ट पैर का जूता फेंकना है या राइट पैर का। कहीं ऐसा ना हो कि आपका दायाँ जूता और किसी और का बायाँ जूता मैच हो जाए और मुफ़्त में ही संचालकों का या कि शायर का ही फ़ायदा हो जाए। ग़लती से किसी का फ़ायदा हो जाए, इससे बड़ा धोखा क्या होगा इस जाहिल वक़्त में। इतने ख़राब दिन आ जाएँ आपके तो आप अगले मुशायरे में श्रोता बनने की जगह शायर ना हो जाएँ भला। बतलाइए! 

शहर में बड़ा मुशायरा होने के पहले मंदिर के आगे से चप्पल चोरी होने की घटनाओं में ताबड़तोड़ वृद्धि होने लगे। लोग मुशायरे में नंगे पैर जाएँ...जाने की असली वजह ये हो कि आख़िर में अपना खोया हुआ चप्पल तलाश के वापस ला सकें। मुशायरे के बाद। बेजोड़ी जूतों की सेल लगे और जैसे समझदार गृहिणी मार्केट के बचे हुयी सब्ज़ी में से छाँट के सबसे अच्छी और सस्ती सब्ज़ियाँ घर ले जाती है उसी तरह समझदार श्रोता उस चप्पलों/जूतों के महासमुद्र में जोड़ा छाँट लें। पूरी पूरी जोड़ी तो मियाँ बीबी की भी नहीं मिलती। कहीं ना कहीं कॉम्प्रॉमायज़ करना ही पड़ता है। फिर जूतों में कौन से छत्तीस गुण मिलने हैं। 

इस तरह के मुशायरों का असर हर ओर पड़ने की सम्भावना है। इससे शहर का फ़ैसन बदलेगा। अलग अलग जूते पहनना सम्मान की निशानी मानी जाएगी। सही समय पर दाद देना एक कला है। चप्पल सद्गति को प्राप्त होगी। सही समय पर, सही निशाने से, सही गति और दिशा में मारी गयी चप्पल अपने अंजाम तक पहुँचेगी। लोगों में भाईचारा बढ़ेगा। वसुधैव कुटुंबकम वाली फ़ीलिंग आएगी। जो आज मेरा है वो कल किसी और का होगा और किसी का जो है वो मेरा हो सकता है। लोग अड़ोसी पड़ोसी को अच्छी चप्पलें ख़रीदवाएँगे। 

मार्केट में नयी स्टडीज़ आएँगी। शायर लोगों का कॉन्फ़िडेन्स इस बात से डिसाइड होगा कि किसके शेर पढ़ने पर कितने लोगों ने कितना फेंका। चप्पल। जूता वग़ैरह। फेंकने शब्द को नया आयाम मिलेगा।
वग़ैरह वग़ैरह। 

***
PS: हमको मालूम नहीं है कि हम बौराए काहे हैं। लेकिन जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं। इस दीवाल पर जूता चप्पल फेंकने का कोई फ़ायदा नहीं है। लिखाई पढ़ाई होती रहती है। पसंद ना आए तो दूसरे पन्ने पर चले जाइए। श्रद्धा आपकी। कपूर भी आपका। ख़ैर।
हमको लगता है हम पगला गए हैं। 

PPS: मन तो कर रहा है साथ में अपने ही चप्पल का फ़ोटो साट दें, लेकिन घर में ऐसा फटेहाल कोई चप्पल है नहीं। बाद में एडिट करके चिपकाएँगे।

19 June, 2017

मृत्यु की न दुखने वाली तीन कहानियाँ

शीर्षकहीन 

मेरी मृत्यु को नकारो मत। उच्चारो इसे, 'मैं मर जाऊँगी जल्दी ही'। दर्द की उठती जिस रेख से मैं तुम्हारा नाम लिखा करती थी अब उससे सिर्फ़ मृत्यु के आह्वान के मंत्र लिखती हूँ। मृत्यु तुम्हारा रक़ीब है। मैं उससे कहती हूँ कि समय की इस गहरी नदी को जल्दी से पार कर ले और मुझे आलिंगन में भींच ले। मृत्यु का हठ है कि मैं उसके लिए कविताओं की पाल वाली नाव लिख दूँ। मेरे मंत्रों में इतनी टीस होती है कि उसका ध्यान भटक जाता है और वह बार बार समय की नदी के उलटे बहाव में दूसरी ओर बह जाता है। समय भी तुम्हारा रक़ीब है शायद।

तुम्हारी इच्छा है और अगर सामर्थ्य है तो इस आसन्न मृत्यु से लड़ने के लिए आयुध तैय्यार करो। मेरे हृदय को सात सुरक्षा दीवारों वाले अभेद्य क़िले में बदल दो। मेरे इर्द गिर्द प्रेम के तिलिस्म बुनो। वो भी ना हो सके तो नागफनी का जंगल तो उगा ही दो कि मृत्यु की उँगलियाँ मुझे छूने में लहूलुहान हो जाएँ और वो उनके दर्द से तिलमिला कर कुछ दिनों के लिए मेरा हाथ छोड़ दे।

मेरे पैरों के इर्द गिर्द सप्तसिंधु बहती हैं। मेरे तलवे हमेशा ठंढे रहते हैं। तुम इतना ही करो कि मेरे तलवों को थोड़ा अपनी हथेलियों से रगड़ कर गर्म कर दो। तुमने कहा तो था कि तुम आग की कविताएँ लिखते हो। तुम्हारी हथेलियों में ज्वालामुखी हैं।

मुझे समंदर भी शरण नहीं देता। मुझे रास्ते भी छल लेते हैं। मैं इतने सालों की बंजारन, बिना रास्तों के कहाँ जाऊँ? मेरे प्रायश्चित्त का किसी वेद में विधान नहीं है, सिर्फ़ दंड है, मृत्युदंड।

शायद मैंने ही तुमसे कुछ ज़्यादा माँग लिया। बर्फ़ हुए पैरों की अभिशप्त बंजारन सिर्फ़ मृत्यु का प्रणय निवेदन स्वीकार सकती है। मृत्यु। मेरा प्रेम, मेरा पंच परमेश्वर। मेरा वधिक।

बस इतना करो कि इन आँखों को एक बार आसमान भर पलाश देखने की इच्छा है…इस अंतिम समय में, मेरी खिड़की पर…टहकते टेसु के रंग में फूल जाओ…

***
स्टिल्बॉर्न 
कुछ शब्दों का दर्द परायी भाषा में भी इतना घातक होता है कि हम अपनी भाषा में उसे छूना नहीं चाहते। उसकी प्राणरक्षा के लिए उसके शरीर में मरे हुए बच्चे को DNC से निकाला गया था। छोटे छोटे टुकड़ों में काट कर।

कोई उसकी बात नहीं मानता कि समंदर हत्यारा है। हर बार गर्भपात होने की पहली रात वो समंदर का सपना देखती।

तुम्हें कभी नहीं कहना चाहिए था कि तुम्हें मेरे किरदारों से इश्क़ हो जाता है। तुम मेरे किरदारों के बारे में कुछ नहीं जानते। मुझे नफ़रत है तुम्हारे जैसे लोगों से। तुम्हें छू कर लिजलिजा हो जाता है मेरा लिखने का कमरा। मैं तुम्हारे ख़त जला दूँगी।

तुम इतने उजले शहर में कैसे रह सकते हो? कौन भरता है तुम्हारी आत्मा में उजाला हर रोज़। कहाँ दफ़्न करके आते हो तुम अपने गुनाहों की लिस्ट? किसके सीने में छिपे हैं तुम्हारे घिनौने राज?

औरत ने कपड़ों में सूखे हुए रक्त को धोया नहीं। ख़ून में रंगी हुयी चादरें किसी नदी में नहीं बहायी गयीं। उसके अजन्मे बच्चों की आत्मा उसकी नींद में उससे मिलने आती। वो गूगल कर के पढ़ती कि कितने महीने में बच्चों के अंदर आत्मा आ जाती है मगर गूगल के पास ऐसे जवाब नहीं होते। जवाब होते भी तो उसे उनपर यक़ीन नहीं होता। ये बात शायद किसी पुराण, किसी वेद, किसी स्मृति में लिखी हो। लेकिन वो एकदम साधारण स्त्री थी। उसके पास इतना कुछ समझने को अक़्ल नहीं थी। कोई ऐसा था नहीं प्रकाण्ड पंडित कि उसे बता दे ठीक ठीक कि जो बच्चे जन्म नहीं लेते उनकी आत्मा की शुद्धि हो सकती है या नहीं।

वो टुकड़ा टुकड़ा अपने बच्चों का चेहरा अपने मन में बना रही होती। आँखें। नाक। होंठ। सिर के बाल। लम्बाई। रंग। वज़न। उसकी आवाज़। उसकी हँसी। जिन दिनों वह गर्भवती होती उसकी आँखों में दो रंग दिखते। एक वर्तमान का। एक भविष्य का। दूसरी DNC के पूरे साल भर बाद उसे गर्भ ठहरा था। इस बार उसने कोई सपने नहीं देखे। इस बार बच्चों को देख कर वो ख़ुशी या अचरज नहीं, दहशत से भर जाती। हर गुज़रते महीने के साथ उसकी आँखों का अंधकार और गहराता गया। नवें महीने तो ये हाल था कि पूजाघर में फ़र्श पर बैठ कर पूजा भी नहीं कर पाती थी।
लेबर पेन के पहले ही डॉक्टर ने उसे अड्मिट करा लिया। वो कोई चांस नहीं लेना चाहती थी। सिजेरियन ओपेरेशन के बाद जब उसे होश आया तो बेड के इर्द गिर्द सब लोग जमा थे मगर चेहरे पर कोई भाव नहीं था। उसके पति ने जब उसे उसकी माँ के मर जाने की ख़बर दी थी, तब उसने उसकी आँखों में इतना अँधेरा पहली बार देखा था। उसके कान में बच्चे की आवाज़ गूँज रही थी। किलकारियाँ। आँखें। रंग। बाल। मुस्कान।

बिस्तर के बग़ल में टेबल पर एक सफ़ेद पोटली रखी थी। डॉक्टर ने कहा। ‘स्टिल बॉर्न’। औरत को इस टर्म का मतलब पता नहीं था। उसने पति की ओर देखा। पति ने टेबल से पोटली उठा कर उसके हाथ में रख दी। बच्चा गोरा एकदम। चेहरा बिलकुल औरत से मिलता। बाल काले। आँखें बंद। और साँस नहीं। नर्स ने भावहीन और कठोर आवाज़ में कहा, ‘मैडम बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ है’। औरत चुप।

इसमें किससे कहे कि मृत बच्चे की पलकें खोल दे। वो उसकी आँखों का रंग देखना चाहती है।


***

Vigilante
मालूम हिंदी में ऐसा कोई शब्द क्यूँ नहीं है? क्यूँकि हमारे देश में अच्छा काम करने के बाद छुपने की ज़रूरत नहीं पड़ती। हालाँकि हिंदी फ़िल्मों में कुछ और दिखाया जाता है। लेकिन समाज का सच ये है कि अच्छा करने वाले लोग डंके की चोट पर काम करते हैं। मर भी जाते हैं ऐसे।

उसका नाम नहीं दे सकती। मेट्रो में मिला था मुझे। उसकी आँखों में एक मासूम वहशत थी। छोटे, क़ातिल बच्चों में जैसी होती है। वैसी। क्या? आपने बच्चों के क़ातिल इरादे नहीं देखे? किसी बच्चे को कुत्ते के पिल्ले को मार देते देखा है? पानी में डुबो कर? गरम पानी में? आपको क्या लगा ये उसकी मासूमियत है? उसे सब मालूम था। वो बस मौत को चख रहा था। उसे छेड़ रहा था। अपना साइडकिक बनाने को। जैसे बैटमैन का है ना- रॉबिन। वैसे ही, कि जो काम उससे ना हो सकें, वे मौत के ज़िम्मे सौंप दे…छोटे छोटे क़त्ल। प्राकृतिक क़त्ल। जैसे पानी में किसी को फेंक देने के बाद उसे बचाने ना जाना जैसे- सीधे- साधारण- बोरिंग।

उसकी आँखें देख कर लगा कि उसे क़त्ल के ऊपर मासूमियत का पर्दा डालना आता है। चुप्पा लड़का। इंट्रोवर्ट जैसा। भीड़ में गुम हो जाने का खेल गिरगिट से सीखता। Camouflage.  उसका चेहरा ऐसा आइना था जिसमें सिर्फ़ एक क़ातिल अपना चेहरा देख सकता था। मुझे वो दिखा कि मुझे बहुत सालों से उसकी तलाश थी। मैं जानती ये भी थी कि उसे भी मेरी तलाश थी। एक कंफ़ेशन बॉक्स की नहीं…एक ऐसे साथी की जो उसके डार्क ह्यूमर के पीछे का सच जनता हो। जिसे मालूम हो कि कोई भी लतीफ़ा सच की पहली सुराख़ है और अगर मैं उसे सही तरीक़े से प्रोत्साहन दे सकूँ तो मुझे अपने क़त्ल करने के तरीक़े से अवगत कराएगा। मैंने बहुत ख़ूनी देखे थे। लेकिन उसके जैसा मासूम ख़ूनी कोई नहीं देखा था। उसके हाथों पर ख़ून का एक भी धब्बा नहीं था। उसकी आत्मा पर भी नहीं।

आपको लगता है कि आपने वहशत देखी है? कि आप ख़ूनी को भीड़ में पहचान सकते हैं। नहीं साहब। वे पारदर्शी आँखों वाले लोग होते हैं। उनकी आँखों से उनकी रूह का ब्लैकहोल दिखता है। जहाँ से कुछ भी वापस नहीं लौटता।

देश की पहली सुसाइड हेल्पलाइन में काम करता था वो। सोचिए इतना बड़ा देश। फ़ोन कॉल्ज़ इंसान की जान के बाद सबसे सस्ती चीज़। दिन भर अनगिनत फ़ोन आते थे। उस कॉल सेंटर में उसके सिवा पच्चीस लोग और थे। सब पार्ट-टाइमर। कि सिर्फ़ ये काम करने से लोगों के अंदर आत्मघाती प्रवित्ति बनने लगती थी। जितने फ़ोन आते उसके बाद वे अक्सर फ़ॉलो अप कॉल भी करते थे। अपने जीवन की सारी पॉज़िटिव ऊर्जा झोंक देने के बाद भी वे सिर्फ़ ५० प्रतिशत लोगों को बचा पाते थे। उनके लाख कोशिश करने पर भी उन्हें वे कॉल्ज़ याद नहीं रहती थीं जिसमें व्यक्ति ने मरने के बारे में सोचना बंद कर दिया। लेकिन उनसे बात करने के बावजूद जो लोग अगले कुछ दिनों में जान दे देते थे, उसका बोझ उस हेल्पलाइन में काम करने वाला कोई भी व्यक्ति सम्हाल नहीं पाता था। नियमों के हिसाब से उनके रेग्युलर चेकअप हुआ करते थे। शारीरिक ही नहीं। मानसिक भी। उनके यहाँ आने वाले मनोचिकित्सक बहुत नर्म दिल और सख़्तजान हुआ करते थे।

आप तो जानते हैं कि देश का क़ानून आत्महत्या करने वाले को दोषी क़रार देता है। सारे धर्म भी।

लड़का उस हेल्पलाइन में कभी भी ऑफ़िस से कॉल नहीं लेता था। ये कॉल्ज़ प्राइवट रखने बहुत ज़रूरी थे इसलिए फोन कभी भी रेकर्ड नहीं होते थे। उसे वर्क फ्रौम होम पसंद था। उसने अपने पूरे घर को वाइफ़ाई से कनेक्ट कर रखा था। जब फ़ोन आता तो आवाज़ स्पीकर्स के रास्ते पूरे घर में सुनाई देती थी। वो पूरी तन्मयता से फ़ोन कॉल करने वाले की कहानी सुनता था। अपनी आवाज़ में मीठापन और दृढ़ता का बैलेन्स रखता था।

उसे दो चीज़ों से बहुत कोफ़्त होती थी। आत्महत्या करने की कोशिश करने के बाद अपने मंसूबे में असफल व्यक्तियों से और fencesitters। वे लोग जो अभी तक मन नहीं बना पाए थे कि वे ज़िंदगी से ज़्यादा प्यार करते हैं या मौत से। इस ऊँची दीवार पर बैठे हुए लोगों को काले गहरे अंधेरे में धक्का देना उसे बहुत दिलचस्प लगता था। इसको बात करने का नेगेटिव स्टाइल भी कहते हैं। इसका कई बार सही असर भी होता है। कोई कह रहा है कि मैं सूयसायड करना चाहता हूँ तो वो उसकी पूरी कहानी ध्यान से सुनता था और फिर उसे उकसाता था। कि ऐसी स्थिति में बिलकुल आत्महत्या कर ही लेनी चाहिए। वो अक्सर लोगों को कायर करके चिढ़ाता था। उन्हें उद्वेलित करता था। उनकी उदासी को और गहरा करता था। उन्हें ‘लूज़र’ जैसी गालियों से नवाजता था। उनकी कमज़ोरियों को उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता था। ऐसे अधिकतर लोग उससे बात करके आत्महत्या के लिए एकदम तैयार हो जाते थे। कई बार तो वे फ़ोन पर रहते हुए अपनी कलाई काट लेते थे या छत या पुल से छलाँग लगा देते थे। उसे ‘live’ मृत्यु को छूना एक अड्रेनलिन रश देता था। यही उसका नशा था। यही उसके जीवन का मक़सद।

पहली जिस चीज़ से उसे कोफ़्त होती थी वो इस बात से कि लोग इंटर्नेट और गूगल के ज़माने में इतने बेवक़ूफ़ कैसे रह जाते हैं। कलाई कैसे काटी जाती है। फंदा कैसे डाला जाता है। कितनी फ़ीट से कूदने पर जान चली जाने की गारंटी है। शहर में कौन कौन सी गगनचुंबी इमारतें हैं जिनके छत पर कोई सुरक्षा नहीं है। मेडिकल स्टोर से नींद की गोलियाँ ख़रीदने के लिए कितनी घूस देनी पड़ती है। हाइवे का कौन सा ख़तरनाक ब्लाइंड टर्न है जहाँ अचानक खड़े हो जाने पर ट्रक उन्हें कुचल देगा। कार्बन monoxide poisoning क्या होती है। वे कौन से स्टोर हैं जो ऐसे किसी व्यक्ति के संदिग्ध आचरण को पुलिस के पास रिपोर्ट नहीं करेंगे। कुछ भी काम करने के पहले तैय्यारी ज़रूरी है। ये निहायत बेवक़ूफ़ लोग जिन्हें ना जीने का सलीक़ा आता है ना मौत की फूल-प्रूफ़ प्लानिंग। इन लोगों की मदद करने में उसका इतना ख़ून खौलता था कि कभी कभी उसका जी करता था कि चाक़ू से गोद गोद कर इन्हें मार दे।

सूयसायड हेल्पलाइन के जितने कॉल्ज़ उसके पास जाते थे। उसमें से नब्बे प्रतिशत लोग ज़िंदा नहीं बचते थे। ये उसका टैलेंट था। वो अपने आप को vigilante समझता था। मृत्यु का रक्षक। उसके हिस्से के इंसान उसके पास भेजने का कांट्रैक्ट धारी। अंधेरे में काम करता था। अपनी पहचान सब से छुपाता था। लेकिन मुझसे नहीं। उसका कहना था धरती पर उन सब लोगों की जगह है जो यहाँ रहना चाहते हैं। जिन्हें नर्क जाने की हड़बड़ी है तो हम कौन होते हैं उनका रास्ता रोकने वाले। उसे वे सारे लोग ज़बानी याद थे जो उसे फ़ोन करते थे। उनके फ़ोन नम्बर। उनके घर। उनके पसंद के कपड़े। वो उनका सबसे अच्छा दुश्मन हुआ करता था।

कल ही रात को मैंने फ़ोन किया था उसे। उसने मुझे दवा का नाम भी बताया और मेडिकल स्टोर का भी। स्लीपिंग पिल्ज़। आपको मालूम है कि स्लीपिंग पिल्ज़ को पीने के पहले पानी में घोलना पड़ता है? अगर आप यूँ ही उन्हें निगल गए तो आपका शरीर उल्टियाँ कर कर के सारी दवाई बाहर फेंक देगा।

मगर आपने तो कभी आत्महत्या के बारे में सोचा ही नहीं होगा। मुझे वे लोग समझ नहीं आते जिन्होंने कभी आत्महत्या के बारे में नहीं सोचा। रेज़र ब्लेड से ऊँगली के नाख़ून काटते हुए जिन्हें नीली नसों में दौड़ते ख़ून को बहते देखने का चस्का नहीं लगा कभी। जो पहाड़ों की चोटी से नीचे कूदने का सपना मुट्ठी में बंद करके नहीं सोते।

मेरे ख़त में आख़िरी दुआ उन सब लोगों के नाम जिन्होंने कभी मृत्युगंध को पर्फ़्यूम की तरह अपनी कलाई पर नहीं रगड़ा है। ईश्वर आपकी आँखों का उजाला सलामत रखे। 

21 May, 2017

राइटर की डायरी में लिखा आधा चैप्टर इश्क़



आज कुछ लिखना चाहती हूँ। बिना एडिट किए हुए। कि शायद रात का वक़्त है। ज़िंदगी का, अकेलेपन का, उदासी का और चुप्पी का मिलाजुला कोई नशा चढ़ा हुआ है ज़ुबान पर। उँगलियाँ सच लिख देना चाहती हैं। मगर इन दिनों बहुत ज़्यादा ही उलझनें हैं...दिमाग़ एक साथ कई सारे ट्रैक पर काम कर रहा है और असल में कन्फ़्यूज़ हो रहा है। इसलिए नौर्मल, भले इंसानों से गुज़ारिश है कि इसे स्किप कर दें और अपने क़ीमती वक़्त का बेहतर इस्तेमाल करें।

मुझे क्रिकेट की ज़रा भी समझ नहीं है। लेकिन शब्दों से हमेशा प्यार रहा है इसलिए किसी नए शब्द से पाला पड़ा तो उसे समझने की कोशिश की है। किसी नए अहसास से पाला पड़ा हो तब भी। एक गाना आया था बहुत साल पहले, 'आने चार आने बचे हैं चार आने, सुन ले वेस्ट ना करना यार', इसमें बूढ़े रिटायर्ड लोग अपने ज़िंदगी की सेकंड इनिंज़ को फ़्रंट फ़ुट पर खेलना चाहते हैं। कुछ तो उस समय और कुछ पहले का थोड़ा बहुत अन्दाज़। बैक फ़ुट पर खेलना क्या होता है, ठीक ठीक समझ आया। 

फिर लगा कि ज़िंदगी हमेशा बैक फ़ुट पर खेलते आए हैं। हम जिस समझ में पले-बढ़े हैं उसमें लड़कियों को हमेशा डिफ़ेन्सिव होना सिखा दिया जाता है। कहीं से किसी भी तरह का कोई इल्ज़ाम छू ना ले हमें। हम हमेशा एक कारण, एक वजह तैयार रखते हैं, हर चीज़ की। चाहिए वो किसी से बात करना हो, ज़रा सा ज़्यादा सजना हो, कुछ अच्छे कपड़े पहनने हों, कुछ भी। लड़कपन से ही शृंगार को ग़लत कहा जाता गया है और मेक-अप करने वाली लड़कियों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता। इस बात का असर अभी तक भी यूँ है कि मैं सिर्फ़ शादी या फ़ंक्शन में लिप्स्टिक लगाती हूँ। ख़ूबसूरत दिखना गुनाह होता है। अपनी ख़ूबसूरती को ऐक्सेप्ट करना नहीं सिखाया गया हमें। अपनी ख़ूबसूरती के साथ आने वाले साइड-एफेक्ट्स को भी नहीं। मसलन, सबको तुमसे प्यार हो जाएगा। सबको ही। 

मगर दुनिया और समाज के अलावा भी घर के संस्कार होते हैं परवरिश होती है जिसमें बाक़ी हर तरह की बराबरी होती है। पढ़ना लिखना, लोगों से बात करना, किसी भी जगह जाना या कि अपने पसंद का कैरियर चुनना ही। मैंने कई लड़कों से सुना है कि लड़कियाँ इंटेलीजेंट नहीं होतीं, या कि मैं बाक़ी लड़कियों की तरह नहीं हूँ। एक समय में मैं इसे कॉम्प्लिमेंट की तरह लेती थी। लेकिन लड़ती तब भी थी। अब देखो, बात सीधी सी ये है कि लड़कियों को बचपन से ही बहुत ज़्यादा लोगों से मिलने जुलने के अवसर नहीं मिलते हैं। वे अपने स्कूल कॉलेज या घर पर जो फ़ैमिली फ़्रेंड्स होते हैं, उनके सिवा किसी से नहीं मिलतीं। अक्सर बाहर का कोई काम नहीं करतीं। अब यहाँ इकलौता अंतर आ सकता है तो इस चीज़ से आता है कि लड़कियों के पास किताबें किस तरह की पहुँच रही हैं। उन्हें इक्स्पोज़र किस तरह का मिला है। वे किन किन चीज़ों से नहीं डरती हैं। वे किन चीज़ों के सही ग़लत को परखने का पैमाना ख़ुद बनाना चाह रही हैं।
मैं आज भी पटना वीमेंस कॉलेज की मेरी उन क्लास्मेट्स को 'awe', एक विस्मय से देखती हूँ कि जो बोरिंग रोड के उन शेडी साइबर कैफ़े में न्यूड फ़ोटो देखने की हिम्मत रखती थीं। ये तब की बात है जब हमें ब्राउज़र हिस्ट्री भी डिलीट करनी नहीं आती थी। हम जब उन छोटे छोटे क्यूबिकल्ज़ से निकलते थे तो हम भी जानते थे कि हमें कैसी नज़रों से घूरा जा रहा है। उन दिनों क्रांति इतनी छोटी छोटी हुआ करती थी कि महीने में एक बार साइबर कैफ़े जा कर बॉयफ़्रेंड को एक ईमेल कर दी। कि ईमेल कोई चिट्ठी तो है नहीं कि सबूत है कि हमने ही लिखा है, ईमेल तो कोई भी लिख सकता है। हम अपने हर काम के साथ बहाने साथ में तैयार रखते थे। समाज ने हमें हर क़दम पर झूठ बोलना सिखाया है। अफ़सोस इस बात का है कि इन छोटी छोटी चीज़ों पर झूठ बोलने की ज़रूरत पड़ी ही क्यूँ।
बहुत लम्बी नहीं लिखूँगी कहानी, लेकिन बात ये है कि उम्र इतनी हो आयी। शादी के इतने साल हो आए। और लिखते पढ़ते हुए एक दशक बीत गया लेकिन अभी भी किसी पाठक या फ़ैन से बात करते हुए हमेशा इस बात का ध्यान रखना होता है कि वो लड़की है या लड़का। लड़कियों से बात करने के अलग सिंटैक्स होते हैं और लड़कों से बात करने के अलग। ये बात उनकी उम्र से परे होती है। कोई लड़की अगर कह जाए कि आपकी किताब पढ़ के आप से प्यार हो गया तो फिर भी ठीक है, उसके बचपने और प्यार पर मुस्कुरा सकती हूँ, लेकिन यही बात अगर किसी लड़के ने कह दी तो उसको उसी समय डांट फटकार लगानी ज़रूरी हो जाती है कि वरना वो आगे जाने क्या सोच लेगा। किसी से भी बात करते हुए एक ज़रा सी रूखाइ बनाए रखनी होती है कि किसी को ये धोखा ना हो जाए कि मैं उसके लिए कोई भी सॉफ़्ट कॉर्नर या ऐसी ही कोई भावना रखती हूँ। चूँकि मैं इस अंतर और बेइमानी में भरोसा नहीं करती हूँ तो अक्सर लड़कियाँ भी ज़्यादा प्यार मुहब्बत जता रही होती हैं पब्लिक में तो असहज हो जाती हूँ। दरसल, मैं प्यार से ही असहज हो जाती हूँ। जब तक प्यार क़िस्से कहानियों में है तो ठीक, लेकिन जैसे ही कहानी से निकल कर मेरी कंगुरिया ऊँगली पकड़ना चाहता है, या कि दुपट्टे का छोर ही, हम बिलकुल ही दूर आ जाते हैं उससे।

मैं कहना चाहती हूँ कि इससे कितना नुक़सान होता है। आप किसी के प्रति अपने स्नेह को छिपाते हैं। अपना अनुराग प्रदर्शित करने से डरते हैं। अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त नहीं करते। कितना सारा कुछ अपने अंदर रख के जीना होता है। ये बेइमानी नहीं है? अंदर रखे हुए ये सारे शब्द कितनी तकलीफ़ देते हैं। हम इस डर के मारे कितना कुछ खो देते हैं। जो एक लड़का बड़ी तमीज़ से हमेशा बातें करता है, जिसको हम थोड़ा दुलार में कभी सर चढ़ाना चाहते हैं। हम जिससे ख़ूब सारी बातें करना चाहते हैं। उसके शहर के बारे में, उस लड़की के बारे में जिसका ज़िक्र उसकी कविताओं में छिपा होता है। हम पूछना चाहते हैं कि वो कौन थी जिसने तुम्हारा दिल इस तरह तोड़ा कि तुम ऐसा मारक लिखते हो। लेकिन हम डरते हैं। डरते हैं कि ज़्यादा पर्सनल ना हो जाएँ। दोस्ती ज़्यादा गहरी ना हो जाए। या कि वो फ़ैन जो दिल्ली में पुस्तक मेले में मिला था, बड़ी गर्मजोशी से बुलेट के बारे में बात करता था...बचपना था उसमें बहुत...उससे उसके जेनेरेशन के लोगों की बातें करना चाहती हूँ। मैं जानना चाहती थी कि पढ़ाई लिखाई, लड़कीबाज़ी और नौकरी के सिवा वे क्या करते हैं, क्या करना चाहते हैं। मैं सिर्फ़ साल में एक बार इन लोगों से बात नहीं करना चाहती। मैं इनसे जुड़े रहना चाहती हूँ बाक़ी वक़्त भी। कि मुझे अच्छे लगते हैं बच्चे जो किताबें पढ़ते हैं। किताबें पढ़ना चाहते हैं। मुझसे पूछते हैं कि हम किस किताब से शुरू करें।

हम असल में, हमेशा इस बात से डरते हैं कि किसी को हमसे प्यार ना हो जाए। लेकिन क्यूँ। ये क्यूँ मुझे कभी समझ नहीं आता। हम इस ख़तरे से डरना कब बंद करेंगे? क्या ही हो जाएगा...थोड़ा दिल ही दुखेगा ना...थोड़ा नींद हराम होगी...थोड़ा विस्की या कि ओल्ड मौंक की बिक्री बढ़ेगी। यही ना? बाक़ी हमको सिर्फ़ बात करने को वो लोग चाहिए जिन्हें मेरी जैसी चीज़ें पसंद हों। सिनेमा। गाने। कोई आर्टिस्ट। माडर्न आर्ट। पेंटिंग्स। रॉयल एनफ़ील्ड। हार्ले देविडसन। बंजारामिज़ाजी। शहर दिल्ली। मौसम। आवारगी। कर्ट कोबेन। आत्महंता होना। नाज़ी कॉन्सेंट्रेशन कैम्प।

हमें इश्क़ को सम्हालना सीखना है। कि कोई आ के कहे कि इश्क़ हो गया तुमसे तो उसे बिठा कर ठीक से समझा सकूँ, ज़िंदगी में ऐसे छोटे मोटे हादसे होते रहते हैं। ये बताओ, कविता पढ़ोगे या कहानी। चाय पियोगी या कॉफ़ी। है कि नहीं। अब चलो, बातें करते हैं...ब्लैक कॉफ़ी पीते हुए। तुम अपने पसंद के गाने भेजो, मैं अपने पसंद की कविताएँ। हम इसी तरह सीखते हैं। हम इसी तरह ज़िंदगी में अलग अलग रंग भरते हैं।

और हम, इस तरह, ज़िंदगी भर बैक फ़ुट पर खेलते रहे। इश्क़ की बाउन्सर से आउट होते रहे। हेल्मट और अच्छी जैकेट पहन कर बाइक चलाते रहे। लेकिन इन दिनों हम थोड़ा थोड़ा जी रहे हैं। ख़ुद से इश्क़ कर रहे हैं थोड़ा थोड़ा। इस बात से बेपरवाह कि किसी को हमसे इश्क़ हो जाएगा, मेरी बला से! बाल खोल कर घूम लेते हैं। गहरी गुलाबी लिप्स्टिक लगा लेते हैं। कि ये मेरी ज़िंदगी है और अब जितनी बची है, मैं अपने हिसाब से जियूँगी। मैनेज कर लेंगे इश्क़ भी, आफ़त भी और लिखना भी।

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