21 May, 2017

राइटर की डायरी में लिखा आधा चैप्टर इश्क़



आज कुछ लिखना चाहती हूँ। बिना एडिट किए हुए। कि शायद रात का वक़्त है। ज़िंदगी का, अकेलेपन का, उदासी का और चुप्पी का मिलाजुला कोई नशा चढ़ा हुआ है ज़ुबान पर। उँगलियाँ सच लिख देना चाहती हैं। मगर इन दिनों बहुत ज़्यादा ही उलझनें हैं...दिमाग़ एक साथ कई सारे ट्रैक पर काम कर रहा है और असल में कन्फ़्यूज़ हो रहा है। इसलिए नौर्मल, भले इंसानों से गुज़ारिश है कि इसे स्किप कर दें और अपने क़ीमती वक़्त का बेहतर इस्तेमाल करें।

मुझे क्रिकेट की ज़रा भी समझ नहीं है। लेकिन शब्दों से हमेशा प्यार रहा है इसलिए किसी नए शब्द से पाला पड़ा तो उसे समझने की कोशिश की है। किसी नए अहसास से पाला पड़ा हो तब भी। एक गाना आया था बहुत साल पहले, 'आने चार आने बचे हैं चार आने, सुन ले वेस्ट ना करना यार', इसमें बूढ़े रिटायर्ड लोग अपने ज़िंदगी की सेकंड इनिंज़ को फ़्रंट फ़ुट पर खेलना चाहते हैं। कुछ तो उस समय और कुछ पहले का थोड़ा बहुत अन्दाज़। बैक फ़ुट पर खेलना क्या होता है, ठीक ठीक समझ आया। 

फिर लगा कि ज़िंदगी हमेशा बैक फ़ुट पर खेलते आए हैं। हम जिस समझ में पले-बढ़े हैं उसमें लड़कियों को हमेशा डिफ़ेन्सिव होना सिखा दिया जाता है। कहीं से किसी भी तरह का कोई इल्ज़ाम छू ना ले हमें। हम हमेशा एक कारण, एक वजह तैयार रखते हैं, हर चीज़ की। चाहिए वो किसी से बात करना हो, ज़रा सा ज़्यादा सजना हो, कुछ अच्छे कपड़े पहनने हों, कुछ भी। लड़कपन से ही शृंगार को ग़लत कहा जाता गया है और मेक-अप करने वाली लड़कियों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता। इस बात का असर अभी तक भी यूँ है कि मैं सिर्फ़ शादी या फ़ंक्शन में लिप्स्टिक लगाती हूँ। ख़ूबसूरत दिखना गुनाह होता है। अपनी ख़ूबसूरती को ऐक्सेप्ट करना नहीं सिखाया गया हमें। अपनी ख़ूबसूरती के साथ आने वाले साइड-एफेक्ट्स को भी नहीं। मसलन, सबको तुमसे प्यार हो जाएगा। सबको ही। 

मगर दुनिया और समाज के अलावा भी घर के संस्कार होते हैं परवरिश होती है जिसमें बाक़ी हर तरह की बराबरी होती है। पढ़ना लिखना, लोगों से बात करना, किसी भी जगह जाना या कि अपने पसंद का कैरियर चुनना ही। मैंने कई लड़कों से सुना है कि लड़कियाँ इंटेलीजेंट नहीं होतीं, या कि मैं बाक़ी लड़कियों की तरह नहीं हूँ। एक समय में मैं इसे कॉम्प्लिमेंट की तरह लेती थी। लेकिन लड़ती तब भी थी। अब देखो, बात सीधी सी ये है कि लड़कियों को बचपन से ही बहुत ज़्यादा लोगों से मिलने जुलने के अवसर नहीं मिलते हैं। वे अपने स्कूल कॉलेज या घर पर जो फ़ैमिली फ़्रेंड्स होते हैं, उनके सिवा किसी से नहीं मिलतीं। अक्सर बाहर का कोई काम नहीं करतीं। अब यहाँ इकलौता अंतर आ सकता है तो इस चीज़ से आता है कि लड़कियों के पास किताबें किस तरह की पहुँच रही हैं। उन्हें इक्स्पोज़र किस तरह का मिला है। वे किन किन चीज़ों से नहीं डरती हैं। वे किन चीज़ों के सही ग़लत को परखने का पैमाना ख़ुद बनाना चाह रही हैं।
मैं आज भी पटना वीमेंस कॉलेज की मेरी उन क्लास्मेट्स को 'awe', एक विस्मय से देखती हूँ कि जो बोरिंग रोड के उन शेडी साइबर कैफ़े में न्यूड फ़ोटो देखने की हिम्मत रखती थीं। ये तब की बात है जब हमें ब्राउज़र हिस्ट्री भी डिलीट करनी नहीं आती थी। हम जब उन छोटे छोटे क्यूबिकल्ज़ से निकलते थे तो हम भी जानते थे कि हमें कैसी नज़रों से घूरा जा रहा है। उन दिनों क्रांति इतनी छोटी छोटी हुआ करती थी कि महीने में एक बार साइबर कैफ़े जा कर बॉयफ़्रेंड को एक ईमेल कर दी। कि ईमेल कोई चिट्ठी तो है नहीं कि सबूत है कि हमने ही लिखा है, ईमेल तो कोई भी लिख सकता है। हम अपने हर काम के साथ बहाने साथ में तैयार रखते थे। समाज ने हमें हर क़दम पर झूठ बोलना सिखाया है। अफ़सोस इस बात का है कि इन छोटी छोटी चीज़ों पर झूठ बोलने की ज़रूरत पड़ी ही क्यूँ।
बहुत लम्बी नहीं लिखूँगी कहानी, लेकिन बात ये है कि उम्र इतनी हो आयी। शादी के इतने साल हो आए। और लिखते पढ़ते हुए एक दशक बीत गया लेकिन अभी भी किसी पाठक या फ़ैन से बात करते हुए हमेशा इस बात का ध्यान रखना होता है कि वो लड़की है या लड़का। लड़कियों से बात करने के अलग सिंटैक्स होते हैं और लड़कों से बात करने के अलग। ये बात उनकी उम्र से परे होती है। कोई लड़की अगर कह जाए कि आपकी किताब पढ़ के आप से प्यार हो गया तो फिर भी ठीक है, उसके बचपने और प्यार पर मुस्कुरा सकती हूँ, लेकिन यही बात अगर किसी लड़के ने कह दी तो उसको उसी समय डांट फटकार लगानी ज़रूरी हो जाती है कि वरना वो आगे जाने क्या सोच लेगा। किसी से भी बात करते हुए एक ज़रा सी रूखाइ बनाए रखनी होती है कि किसी को ये धोखा ना हो जाए कि मैं उसके लिए कोई भी सॉफ़्ट कॉर्नर या ऐसी ही कोई भावना रखती हूँ। चूँकि मैं इस अंतर और बेइमानी में भरोसा नहीं करती हूँ तो अक्सर लड़कियाँ भी ज़्यादा प्यार मुहब्बत जता रही होती हैं पब्लिक में तो असहज हो जाती हूँ। दरसल, मैं प्यार से ही असहज हो जाती हूँ। जब तक प्यार क़िस्से कहानियों में है तो ठीक, लेकिन जैसे ही कहानी से निकल कर मेरी कंगुरिया ऊँगली पकड़ना चाहता है, या कि दुपट्टे का छोर ही, हम बिलकुल ही दूर आ जाते हैं उससे।

मैं कहना चाहती हूँ कि इससे कितना नुक़सान होता है। आप किसी के प्रति अपने स्नेह को छिपाते हैं। अपना अनुराग प्रदर्शित करने से डरते हैं। अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त नहीं करते। कितना सारा कुछ अपने अंदर रख के जीना होता है। ये बेइमानी नहीं है? अंदर रखे हुए ये सारे शब्द कितनी तकलीफ़ देते हैं। हम इस डर के मारे कितना कुछ खो देते हैं। जो एक लड़का बड़ी तमीज़ से हमेशा बातें करता है, जिसको हम थोड़ा दुलार में कभी सर चढ़ाना चाहते हैं। हम जिससे ख़ूब सारी बातें करना चाहते हैं। उसके शहर के बारे में, उस लड़की के बारे में जिसका ज़िक्र उसकी कविताओं में छिपा होता है। हम पूछना चाहते हैं कि वो कौन थी जिसने तुम्हारा दिल इस तरह तोड़ा कि तुम ऐसा मारक लिखते हो। लेकिन हम डरते हैं। डरते हैं कि ज़्यादा पर्सनल ना हो जाएँ। दोस्ती ज़्यादा गहरी ना हो जाए। या कि वो फ़ैन जो दिल्ली में पुस्तक मेले में मिला था, बड़ी गर्मजोशी से बुलेट के बारे में बात करता था...बचपना था उसमें बहुत...उससे उसके जेनेरेशन के लोगों की बातें करना चाहती हूँ। मैं जानना चाहती थी कि पढ़ाई लिखाई, लड़कीबाज़ी और नौकरी के सिवा वे क्या करते हैं, क्या करना चाहते हैं। मैं सिर्फ़ साल में एक बार इन लोगों से बात नहीं करना चाहती। मैं इनसे जुड़े रहना चाहती हूँ बाक़ी वक़्त भी। कि मुझे अच्छे लगते हैं बच्चे जो किताबें पढ़ते हैं। किताबें पढ़ना चाहते हैं। मुझसे पूछते हैं कि हम किस किताब से शुरू करें।

हम असल में, हमेशा इस बात से डरते हैं कि किसी को हमसे प्यार ना हो जाए। लेकिन क्यूँ। ये क्यूँ मुझे कभी समझ नहीं आता। हम इस ख़तरे से डरना कब बंद करेंगे? क्या ही हो जाएगा...थोड़ा दिल ही दुखेगा ना...थोड़ा नींद हराम होगी...थोड़ा विस्की या कि ओल्ड मौंक की बिक्री बढ़ेगी। यही ना? बाक़ी हमको सिर्फ़ बात करने को वो लोग चाहिए जिन्हें मेरी जैसी चीज़ें पसंद हों। सिनेमा। गाने। कोई आर्टिस्ट। माडर्न आर्ट। पेंटिंग्स। रॉयल एनफ़ील्ड। हार्ले देविडसन। बंजारामिज़ाजी। शहर दिल्ली। मौसम। आवारगी। कर्ट कोबेन। आत्महंता होना। नाज़ी कॉन्सेंट्रेशन कैम्प।

हमें इश्क़ को सम्हालना सीखना है। कि कोई आ के कहे कि इश्क़ हो गया तुमसे तो उसे बिठा कर ठीक से समझा सकूँ, ज़िंदगी में ऐसे छोटे मोटे हादसे होते रहते हैं। ये बताओ, कविता पढ़ोगे या कहानी। चाय पियोगी या कॉफ़ी। है कि नहीं। अब चलो, बातें करते हैं...ब्लैक कॉफ़ी पीते हुए। तुम अपने पसंद के गाने भेजो, मैं अपने पसंद की कविताएँ। हम इसी तरह सीखते हैं। हम इसी तरह ज़िंदगी में अलग अलग रंग भरते हैं।

और हम, इस तरह, ज़िंदगी भर बैक फ़ुट पर खेलते रहे। इश्क़ की बाउन्सर से आउट होते रहे। हेल्मट और अच्छी जैकेट पहन कर बाइक चलाते रहे। लेकिन इन दिनों हम थोड़ा थोड़ा जी रहे हैं। ख़ुद से इश्क़ कर रहे हैं थोड़ा थोड़ा। इस बात से बेपरवाह कि किसी को हमसे इश्क़ हो जाएगा, मेरी बला से! बाल खोल कर घूम लेते हैं। गहरी गुलाबी लिप्स्टिक लगा लेते हैं। कि ये मेरी ज़िंदगी है और अब जितनी बची है, मैं अपने हिसाब से जियूँगी। मैनेज कर लेंगे इश्क़ भी, आफ़त भी और लिखना भी।

3 comments:

  1. अब तो लग रहा है की आपसे ढेर सारी बातें करूँ. काश आपसे कभी मिलना हो पाए.

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    1. :) हो जाएगा कभी ना कभी। इंटर्नेट और रियल दुनिया में अब उतना अंतर कहाँ रह गया है।

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