27 February, 2014

सीले उलाहने, देर, बहुत देर बाद


तुमने मुझे आखिरी चिठ्ठी कब लिखी थी? क्या कहा, सुसाईड लेटर? बेईमान कहीं के...उसमें तो सबका नाम था...तुम्हारी मां का, बहन का, एक आध पुरानी प्रेमिकाओं का भी कि तुम शादी का वादा नहीं निभा पाये, वो फलाना चिलाना से शादी कर ले ईत्यादि...मैं भीड़ में शामिल थी। तुम्हें इतना भी नहीं हुआ कि एक पर्सनल सुसाइड नोट मेरे लिये लिख जाते।

मरने का इतना ही शौक था तो मुझसे कहा क्युं नहीं, मैं तुम्हारे लिये अच्छा सा इंतजाम कर देती...हमारे बिजनेस में बहुत से ग्राहक मौत ही तलाशने आते हैं...उन्हें अदाओं से फुसला कर उनकी बीवियों के लिये जिन्दा रखने का काम मैं और मेरी सहेलियां अच्छी तरह कर लेती हैं। तुम्हें मैं पसंद नहीं थी तो एक बार कहना तो था, मैडम से कह कर कोइ और तुम्हारे लिये रेगुलर कर देती...जीने के लिये इतना ही तो चाहिये होता है ना कि कोई आपका इंतजार कर रहा हो...इससे क्या फर्क पड़ता है कि इंतजार घर पर हो रहा है या कोठे पर, बीवी कर रही है या रखैल...अच्छा चलो, रखैल न कहूं प्रेमिका कह दूं...तुम्हारी तसल्ली के लिये। कितने खत लिखा करते थे तुम मुझे...तुम्हारी परेशानियां, तुम्हारा गिरवी रखा घर, बौस के पास तुम्हारा गिरवी रखा जमीर...सब तो लिखते थे तुम, फिर इतना सा क्युं नहीं लिख पाये कि तुम्हारा जहर खाने को दिल कर रहा है।

तुम्हें मालूम होगा ना कि तुम्हारे खत मुझे जिलाये रखते थे। कैसी बेरंग दुनिया है मेरी मालूम है ना तुम्हें? दीवारों का रंग उड़ा हुआ, जाने कब आखिरी बार पुताई हुयी थी...सियाह लगता है सब। बस एक छोटा सा रोशनदान जिससे धुंधली, फीकी रोशनी गिरती रहती थी और ठंढ की रातों में कोहरा। लोग भी तो वैसे ही आते थे, बदरंग...जिन्होनें सुख की उम्मीद भी सदियों पहले छोड़ दी थी...कैसा बुझा हुआ सूरज दिखता था उनकी आँखों में...वो काली रातों के लोग थे...दिन में उनकी शक्लें पहचानना नामुमकिन है...मगर दिन में तो शायद मैं खुद को भी पहचान नहीं पाती। कैसा होता है दिन का उजाला?

तुम्हारे खतों में गांव होता था...हरे खेत होते थे...दूर तक बिछती पगडंडियां होती थीं...मैं अक्सर सोचती थी कि तुम जाने किस तलाश में इस बड़े शहर में भटक रहे हो। बिना नौकरी के सिर्फ छोटे मोटे काम करने से तुम्हारा गुजारा कैसे चलता होगा। बहुत बाद में मुझे पता चला कि तुम बहुत बड़े जमींदार के बेटे हो, खर्चा-पानी की तुम्हें कोई दिक्कत नहीं है, मगर फिर तुम्हारे चेहरे पर बिहारी मजदूरों की तरह रोज की रोटी के इंतजाम की दहशत क्युं दिखायी देती थी? तुम्हें क्या चाहिये था हर रोज? रोजी कहती थी कि तुम ड्रग अडिक्ट हो। मुझे लेकिन तुम्हारी बात पर पूरा यकीन था कि तुम्हारी कलाई पे निशान कलम की निब से हो जाते थे...मुझे कभी कभी शक होता था कि तुम मुझे खून से चिठ्ठियाँ लिखते थे...तुम्हारे खून का रंग चमकते सूरज की तरह लाल होता होगा जब तुम निब चुभाते होगे फिर कागज सारा जीवन सोख कर उसे मटमैला भूरा बना देता होगा। दुनिया ऐसा ही न करती है तुम्हारे साथ?

कौन थे तुम? आखिर क्यूं आये थे मेरी जिन्दगी में? खतों की इस जायदाद के बदले पेट में तुम्हारा बच्चा होता तो कमसे कम इस नर्क से निकलने का कोई कारण होता मेरे पास। तुम्हारे सारे खत मैंने गद्दे के नीचे बिछा दिये हैं...कोई भी कस्टमर हो, तुम्हारे होने का धोखा होता है तो तकलीफ थोड़ी कम हो जाती है। सिसकी रोकने में थोड़ी परेशानी हो रही है मगर जल्दी ही मैं फिर से चुप रोना सीख जाउंगी। यूं भी अंधेरे में किसे महसूस होती हैं हिचकियां। गर्म बियर की दो बोतल अंदर जाने के बाद क्या अंदर क्या बाहर, दुनिया पिघल जाती है बस उतने में। नसों में बहता है धीमे धीमे। दर्द की चुभन होती है धीरे धीरे।

तुम्हें नहीं होना चाहिये था। या फिर तुम्हें नहीं जाना चाहिये था। बचपन से बहुत बुरी आदतें रहीं हैं मेरी...एक तुम भी रह जाते। आज तुम्हारे घर वाले मंदिर के बाहर कंबल बांट रहे थे, तुम्हारे पुराने कपड़े भी...तुम्हारी कलम, दवात, किताबें...यूं टुकड़ों में तुम्हें बँटते देखा तो लगा तुम इतने विशाल थे, मेरे पास तो तुम्हारे वजूद की कोरी पुर्जियां मौजूद थीं। मैंने वो पीला कुरता मांग लिया जिसमें तुम पहली बार मुझसे मिलने आये थे। मैंने आज तक वैसा सुंदर कपड़ा नहीं पहना...धुला...इस्त्री किया हुआ...लोबान की गंध में लिपटा।

तुमसे कभी कहा नहीं, धंधे का उसूल है...मगर भटके हुये मेरे मालिक...मुझे तुमसे प्रेम हो गया था...मैं तुम्हें जिन्दा रखने के लिये कुछ भी करती...बस एक खत लिख के जाते तुम मेरे नाम। खुदा तुम्हें जन्नत बख्शे।
आमीन। 

25 February, 2014

जाने का कोई सही वक्त नहीं होता

आने का वक्त होता है। होना भी चाहिये।
हिरोईन जब उम्मीदों से क्षितिज को देख रही हो...या कि छज्जे से एकदम गिरने वाली हो...या कि म्युजिक डायरेक्टर ने बड़ी मेहनत से आपका इन्ट्रो पीस लिखा है...तमीज कहती है कि आपको ठीक उसी वक्त आना चाहिये म्युजिक फेड इन हो रहा हो...जिन्दगी में कुछ पुण्य किये हों तो हो सकता है आप जब क्लास में एन्ट्री मारें तो गुरुदत्त खुद मौजूद हों और जानलेवा अंदाज में कहें...'जब हम रुकें तो साथ रुके शाम-ए-बेकसी, जब तुम रुको, बहार रुके, चाँदनी भी'...सिग्नेचर ट्यून बजे...और आपको इससे क्या मतलब है कि किसी का दिल टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है...आने का वक्त होता है...सही...

मगर जाने का कोई सही वक्त नहीं होता। कभी कभी आप दुनिया को बस इक आखिरी प्रेमपत्र लिख कर विदा कह देना चाहते हैं। बस। कोई गुडबाय नहीं। यूं कि आई तो एनीवे आलवेज हेट गुडबाइज...ना ना गुड बौय्ज नहीं कि कहाँ मिलते है वैसे भी...मिलिट्री युनिफौर्म में ड्रेस्ड छोरे कि देख कर दिल डोला डोला जाये और ठहरने की जिद पकड़ ले। भूरी आँखें...हीरो हौंडा करिज्मा...उफ़्फ टाईप्स। बहरहाल...सुबह के छह बजे नींद खुल जाये, आसमान काला हो...बादलों का हिंट को हल्का सा और तकलीफ सी होती रहे...माने ये हरगिज भी जैज सुनने का टाईम ना हो...मगर किसी एक ट्रैक पर मन अटक जाये तो इसका माने होता है कि मन बस कहीं अटकना चाहता है, उसका कोई ठिकाना नहीं है। अगर जैज कैन आलसो नौट जैज अप योर लाईफ तब तो आप एकदम्मे अनसुधरेबल कंडिशन में आ गये ना। दैट देन इज एक्जैक्टली द टाइम टु मूव औन। 

चलना तो है मगर कहाँ...कभी कभी इसका जवाब घर पे नहीं मिलता, सफर में ही मिलता है...किसी शहर पहुंचो तो पता चलता है कि यहीं आना चाहते थे सदियों से मगर ये किसी प्लान का हिस्सा नहीं था...कभी ऐसा भी हुआ है कि शौर्टकट इसलिये मारा कि देर हो रही है मगर रास्ते में कोई ऐसा शख्स मिल गया जिसके बारे में सोच तो कई दिन से रहे थे लेकिन उसे कभी फोन तक नहीं करेंगे...ऐसे ही का जिद। उससे बतियाते ये भी भूल गये कि देर कौन चीज में हो रहा था और कि औफिस जा के ऐसा कौन सा तीर मार लेंगे कि सब कुछ भुतला के जान दिये हुये हैं...सोना नहीं, खाना नहीं...टाईम कहाँ बच पाता है...ऐसे में मैं कहां बच पा रही हूं...हर समय हड़बड़ी...उसपर हम स्लो आदमी... ताड़ाताड़ी काम नहीं होता है हमसे। हमको छोड़ दो चैन से...मूड के हिसाब से काम करने दो। जैसे अभी मन करता है लालबाग में उ जो टीला है उसपर बैठें थोड़ी देर...कुछ अलाय बलाय शूट करें...कुछ नै तो हिमानी और नैन्सी को लंबा लंबा चिठ्ठी लिखे मारें। 

पापा से बात कर रहे थे। पापा बहुत सुलझे हुये हैं हर चीज में लेकिन उनको समझ नहीं आता है कि मेरी बेचैनी का सबब क्या है...मैं सब छोड़ कर कहां चली जाना चाहती हूं, क्या करना चाहती हूं...कैसे करना चाहती हूं...जो कर रही हूं उसमें क्या बुरा है। मैं पापा को बता नहीं पाती क्युंकि मुझे खुद ही नहीं पता कि मुझे क्या करना है...बस इतना पता है कि जब कुछ अच्छा न लगने लगे, रास्ता बदल लेना है...ये रास्ता कहां को जायेगा मालूम नहीं...वी विल क्रौस दैट ब्रिज व्हेन वी कम टु इट। 

पता है मुझे क्या अच्छा लगता है? मुझे कलम से लिखना अच्छा लगता है, मेरे पास एक ही ब्रांड के सारे पेन हैं, इंक पेन...और बहुत सारे रंग की इंक...मुझे कागज़ पर लिख कर तस्वीरें खींचना अच्छा लगता है पर मुझे मेरी पसंदीदा तस्वीर के लिये जितना वक्त चाहिये होता है कभी मिलता नहीं है...कभी धूप चली जाती है कभी मूड। वक्त कम पड़ जाता है हमेशा। 

जब सब कुछ अच्छा चल रहा हो...मौसम खुशनुमा हो...खिड़की से नीला आसमान दिखे...मनीप्लांट मुस्कुराये...धूप अपने मन मुताबिक लगे, सुबह गुनगुनाने का दिल करे...चले जाने का ये सबसे मुनासिब वक्त है। थोड़ी देर और रहने की कसक रहे...चले जाने  पर मीठा मीठा अफसोस रहे, जाने वाले को भी और पीछे छूट जाने वाले को भी। जब जाना उदास कर जाये थोड़ा सा, बस वही...एकदम पर्फेक्ट है...टाईम टु मूव औन।

14 February, 2014

Muse- जुगराफिया- A love letter to Berne

'Muse'- कुछ शब्दों की खुशबू उनकी अपनी भाषा में ही होती है, अब जैसे हिन्दी में मुझे इस शब्द का कोइ अनुवाद नहीं मिला है...प्रेरणा बहुत हल्का शब्द लगता है, म्यूज के सारे रोमांटिसिज्म को कन्वे भी नहीं कर पाता है। बहुत दिनों से सोच रही थी कि औरतों को प्रेरणा देने के लिये किन ईश्वरों की रचना की गयी होगी या कि ग्रीक मिथक के सारे लेखक और पेन्टर सिर्फ मर्द हुआ करते थे इसलिये ऐसी किसी विचारधारा की कभी जरुरत ही न पड़ी। स्त्री रचने के लिये किसी बाहरी तत्व पे ज्यादा निर्भर भी नहीं रहती। उसके अंदर कल्पना के अनेक शहर बसे होते हैं।

बहरहाल, बहुत दिनों से सोच रही थी इन देवियों के बारे मे...मेरे भी म्यूज बदलते रहते हैं। म्यूज हर फौर्म के अलग अलग होते हैं। आज का मेरा विषय है- भूगोल यानि कि जुगराफिया...क्या है कि बचपन से मेरी जियोग्राफी खराब रही है। शोर्ट में हम उसे जियो कहते थे मगर सब्जेकट ऐसा टफ था कि जीने नहीं देता था। यूं शहर बहुत घूम चुकी हूं तो इस विषय से लगने वाला भय भी प्यार मे कन्वर्ट होने लगा। तो कुछ शहरों की बात करते हैं।
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हर शहर की अपनी खुशबू होती है। सबसे पहले आता है बर्न। स्विटजरलैंड। हेडफोन पर दिन भर बजता एक ही गीत...सिबोनेय...रास्ते खुलते जाते...ज्युरिक में रहते हुये जब बर्न जाने का मूड हुआ था तो दुपहर हो गयी थी। घंटे भर का रास्ता था, जा के आ सकती थी। सोचा कि चल ही लेती हूं। शहरों की किस्मत में आने वालों के नाम लिखे होते हैं।

शहर...बर्न...कागज के एक टुकड़े पर बस इतना ही लिखा है
Cities say welcome, Berne opened its arms wide and hugged me tight...whispering an incomprehensible 'Welcome back' into my ears...as I was swept off my feet.

मैं उस शहर की खुशबू बयां नहीं कर सकती...वहां की आबो हवा में कोइ पुराना गीत घुला हुआ था। मैं इस शहर बहुत पहले आ चुकी थी। बर्न मेरा अपना शहर था...मेरी आत्मा से जुड़ा हुआ। मुझे याद है स्टेशन का वो लम्हा...एयर कंडिशन्ड कोच से बाहर पहला कदम रखा था...बर्न ने बाँहें पसार कर मुझे टाइटली हग किया था...मैं कहीं और नहीं थी, मैं कुछ और नहीं थी...मैं उस लम्हे प्यार के उस बुलबुले में थी जिसकी दीवारें सदियों पहले ईश्क की बनी थीं। मेरी साँस साँस में उतरते बर्न से इस बेतरह प्यार हुआ कि लगा इस लम्हे जान चली जायेगी। मैं स्टैच्यू थी और शहर मेरे आने से इतना खुश था कि शिकायत भी नहीं कर रहा था कि आने में बड़ी देर कर दी, मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा था।

बर्न का मौसम दिलफरेब था। झीनी ठंढी हवा कि जिसमें लेस वाली फ्राक पहनने का दिल करे। चौकोर पत्थर वाली सड़कों पर नंगे पाँव दौड़ने का दिल कर रहा था। ऐसा पहले कभी नहीं लगा था...किसी शहर से नहीं लगा था। इमारतें किस्से सुना रही थीं...मेरी खुराफातों के...मेरी खूबसूरती के...सुनहले थे मेरे बाल...कान्धे पर लहराते हुये...पास के झरने में खुद को देखा तो ब्लश कर रही थी मैं, गाल गुलाबी हो गये थे। शहर की खिड़की से दिखते फूलों जैसे। मेरी आँखें नीली थीं...आसमान जैसी नीलीं। मैं फूल से हल्की थी। सामने नदी बह रही थी...पानी गहरा हरा...जीवंत...भागता हुआ...नदी की चुप गरगलाहट सुनायी पड़ती थी...बच्चा मुस्कुराता था नींद में कोई। शहर के बीच टाउन स्कवायर। एक तरफ बर्न की पार्लियामेंट तो एक तरफ बैंक...और कोइ दो भव्य इमारतें। स्क्वैयर पर फव्वारे, उनके संगीत मे किलकारी मारते बच्चे। पानी से खुश होते...भागते...छोटे लाल हूडि पहने हुये...लड़कपन की दहलीज पर लड़कियां, उनके दोस्त...धूप...जिन्दगी एक बेहद खूबसूरत मोड़ पर ठहरी हुयी। आसपास के रेस्टोरैंट्स में वाईन पीते लोग। उनके चेहरे पर कितना सुकून। बर्न शोअॉफ कर रहा था।

पहले दिन वक्त बहुत कम था। भागती हुयी ट्रेन इसी वादे के साथ पकड़ी कि कल फिर आउंगी...अगली रोज जल्दी पहुंच गयी...दिन भर भटकती फिरी...शहर थामे हुये था मेरा हाथ। हेडफोन्स नहीं थे आज, कविताऐं सुननी थी मुझे...ट्रेन स्टेशन के ठीक सामने एक ग्रुप गा रहा था...भाषा समझ नहीं आयी पर भाव मालूम था...ये इस एक दिन के लिये भागते हुये शहर से मिलने की मियाद थी...गली गली गले मिलने की...नदी के उपर बने उँचे ब्रिज से देर तक नदी की शिकायतें सुनने की...फूल बेचते लड़कों को देख कर मुस्कुराने की...बार बार और बार बार रास्ता भटक जाने की...गहरी सांसों में इक छोटी सी मुलाकात दिल में बसाने की। भागते हुये आना कि घंटाघर में जब पाँच बजते तो दिखता शहर...बर्न...मुस्काता हुआ।

दिन के खाने में सिर्फ डार्क चोकलेट ही होनी थी...पीने को झरने से आता ठंढा पानी...डूबने को ईश्क...मेरा कोइ पुराना रिश्ता है शहर से...किसी और जन्म का।

कहने वाले कह सकते है कि उस शाम की ट्रेन पर मैं वापस ज्युरिक आ गयी मगर मैं जानती हूं रुह के सफर को...उस दिन गयी थी बर्न...रह गयी हूं वहीं, उस दिलफरेब शहर की बाँहों में...कि फिर भीगी आँखों से विदा कहती...अनजान लोगों से भी खाली उस ट्रेन में सुबकती लड़की थी कौन?

म्युजेज के नाम पहला खत...दिलरुबा शहर बर्न तुम्हारे लिये। I'll love you forever. 

28 January, 2014

तेरे हाथों पे निसार जायें मेरे कातिल...

ख्वाब था।

सुबह धूप ठीक आँखों पर पड़ रही थी। मगर ख्वाब इतना खूबसूरत था कि हरगिज़ उठने का दिल नहीं किया। बहुत देर तक आंख बंद किये पड़ी रही। नीम नींद में आँखों में इन्द्रधनुष बनते रहे। आँखें मीचती और हल्के से खोलती। मौसम इतना सुहाना था कि तुम्हारी बांहों में मर जाने को जी चाहे। चाह ये भी थी कि बीमारी का बहाना बना के छुट्टी डाल दी जाये और गाड़ी लेकर कहीं लौंग ड्राइव पर निकल जायें।

बात बस इतनी सी थी कि तुम्हारा ख्वाब देखा था।

तुम और मैं किसी ट्रेन में मिल गये हैं अचानक से। जाने कौन सी ट्रेन है और हम एक डिब्बे में कैसे बैठे हैं जबकि हमें दो अलग अलग दिशाओं में जाना है। स्लीपर बौगी है। हम किसी पुल से गुजर रहे हैं। रेल का धड़धड़ाता शोर है। शाम का वक्त है। देर शाम का। गहरा नारंगी आसमान सिन्दूरी हुआ है। दूर एक मल्लाह विरह का गीत गा रहा है। उसे मालूम है, जिन्दगी के अगले किसी स्टेशन तुम और मैं दो अलग दिशाओं में जाने वाली तेज रफ्तार ट्रेनों में बैठ एक दूसरे से फिर कभी न मिलने वाले स्टेशन का टिकट कटा कर चले जायेंगे। तुम गुनगुना रहे हो। जैसे धूप जाड़े के दिनों में माथा सहलाती है वैसे। खुले हुये बाल हैं, थोड़े गीले, जैसे अभी अभी नहा के आयी हूं। हल्के आसमानी रंग का शॉल ओढ़ रखा है। खिड़की से सिर टिकाये बैठी हूं। ठंढ इतनी है कि गाल लाल हुये जाते हैं। हाथों मे दस्ताने हैं हमेशा की तरह।

कुछ मुसाफिरों ने दरख्वास्त की है कि मैं खिड़की बंद कर दूं। हवा पूरे कम्पार्टमेंट की गर्मी चुरा लिये जा रही है। उनके पास दान में मिले कुछ कंबल हैं बस। मैं खिड़की तो यूं कब का बंद कर देती, मगर तुम्हारी ओर नहीं देखने का कोइ सही बहाना चाहिये था। शीशे की खिड़की बंद होते ही आँखों के कमरे में तूफान आया है। तुमने एक खूबसूरत सा कंबल खोला है। धीरे धीरे कर के कुछ और लोग हमारी बौगी में आ गये हैं। मैंने दास्ताने उतार लिये हैं। मुझे ठीक याद नहीं, तुम्हारे कंबल को कब हौले से ओढ़ा था मैंने। हल्की झपकी आयी थी। आँख खुली तो तुम्हारा कंबल कांधे पर था। तुम भी कोई एक फुट की दूरी पर थे। तुम्हारी कलम मेरे पास गिर कर आ गयी थी शायद। तुमने कंबल में मेरा हाथ अपने हाथों में लिया था और कहा था 'तुम्हारे हाथ बहुत मुलायम हैं', तुमने मेरे हाथों को जो अपने हाथों में लिया था वो याद है मुझे...जैसे फर का कोइ खिलौना हो...नन्हा सा खरगोश जैसे, कितने कोमल थे तुम्हारे हाथ। तुमने कहा था कि तुम्हारी कलम उधर गिर गयी है, और मैं वो तुम्हें लौटा दूं। जाने किसने गिफ्ट किया था तुम्हें। हो सकता है न भी किया हो, बस लगा मुझे।

हाथ कोई फूल होता गुलाब का तो हम कौपी तले दबा के रख देते, हमेशा के लिये। मगर हाथ जीता जागता था। दिल की तरह। सुबह उठी तो दर्द मौर्फ कर गया था। दिन भर कैसी कैसी तो गज़लें सुनी सरहद पार की...मन लेकिन उसी नदी के पुल पर छूट गया था जिस पर तुमने मेरा हाथ पकड़ा था। सोचती हूं क्यूं। समझ नहीं आता। ख्वाब तो बहुत आते हैं, इक ख्वाब पर दूसरे रात की नींद कुर्बान कर देना मेरी फितरत नहीं, मगर सवाल सा अटक गया है कहीं। मालूम है  कि एकदम बेसिर पैर की बात है मगर दिल ही क्या जो समझ जाये। लगता है कि जैसे तुमने बड़ी शिद्दत से याद किया है। तुम हँस दो शायद, पर लगा ऐसा कि तुमने भी यही सपना देखा था कल रात। कि तुमने भी बस इतना ही ख्वाब देखा था। फिर किसी स्टेशन हम दोनों उतरे और तुम अपने घर वापस चल दिये, मैं अपने भटकाव की ओर।

दिन को ऐसी घबराहट हुयी, लगा कि सांस रुक जायेगी। जैसे तुमने अचानक मेरे शहर में कदम रखा हो। जाड़ों का ठिठुरता मौसम इतनी तेजी से गुजरा जैसे फिर कभी आयेगा ही नहीं। वसंत हड़बड़ में आया। मुझे अच्छी तरह याद है कि औफिस के रास्ते के सारे पेड़ों मे कलियां तक नहीं फूटी थीं। बाईक लेकर उड़ती हुयी जा रही थी कि अटक गयी। मौसम की बात रहने दो, बंगलोर मे अमलतास के पेड़ कभी नहीं थे। यहाँ की बोगनविलिया भी लजाये रंगो की होती थी। ये चटख रंग तो ऐसे आये हैं जैसे मन पर ईश्क रंग चढ़ता है। धूप छेड़ रही थी। तुम किसी हवाईजहाज में चढ़े थे क्या? कहां हो तुम...आखिर कभी तो याद कर लिया करो। तुम्हारे नाम क्या कोइ पौधा लगा रखा है...दिल कोई बाग तो नहीं है कि तुम्हारी जड़ें जमती जायें। उँगलियों से तुम्हारे आफ्टरशेव की खुशबू आती रही। दिन भर तुम्हें खत लिखती रही। जब सारी बातें खत्म हो गयीं तो तुम्हारे इस ख्वाब को कहीं ठिकाने लगाने की परेशानी शुरू हुयी। सीने में दर्द लिये जीने में दिक्कत होती है, चेहरा जर्द पड़ जाता है। हर ऐरा गैरा शख्स पूछने लगता है कि बात क्या है। किसको सुनायें रामकहानी। कवितायें लिखना भूल गयी हूं वरना इतनी तकलीफ नहीं थी। दो लाइन में इतना सारा दुख कात के रखा जा सकता था।

एक पूरा दिन बीत गया है...साल की कई कहानियों जैसा। धूप का गहरा साया छू कर गुज़रा है। आंखों में तुम्हारे हाथ बस गये हैं। दुआ करने को हाथ जुड़ते हैं तो बस तुम्हारा चेहरा उभरता है। ख्वाबों का पासवर्ड याद है तुम्हारी उँगलियों को भी। तुम्हारा कत्ल हो जाना है मेरे हाथों किसी रोज जानां। मत मिला करो यूं ख्बाबों में मुझसे। मेरे लिये जरा वो गाना प्ले कर दो प्लीज...आज जाने की जिद न करो...देर बहुत हुयी। कल का दिन बहुत हेक्टिक है। देखो, आज की रात छुट्टी लेते हैं...मेरे ख्वाबों मे मत आना प्लीज।

अगले इतवार का पक्का रहा। दुपहर। धूप में बाल सुखाते नींद आ जाती है। गोद में सर रख सुनाना मुझे गजलें। मिलना धूप के उस पुल पर जहां से किसी शहर की सरहद शुरू नहीं होती। मेरे लिये याद से लाना गहरे लाल रंग की बोगनविलिया और पीले अमलतास। जाते हुये रच जाना हथेलियों पर तुम्हारे नाम की मेंहदी। रंग आयेगा गहरा कथ्थई। उंगलियों की पोरों को चूमना...कहना, मेरे हाथ बेहद खूबसूरत हैं...फूलों की तरह नाजुक...मुलायम...मेरे लिये लाना खतों का पुलिंदा...कहानियों की कतरनें...हाशिये की कवितायें। चले जाना कमरे में फूलदान के बगल में रख कर ये सारा ही कुछ। देर दुपहर कहानियों से रिसेगी कार्बन मोनोक्साईड...मैं तुम्हारे प्यार में गहरी साँस लेते सो जाउंगी एक आखिरी मीठी नींद। तुम ख्वाबों में आना। तुम रहना। तुम कहना। तुम्हारे हाथ...

24 January, 2014

उसकी दुनिया में सब को अपने कत्ल का सामान चुनने की आजादी थी


लड़की उतनी ही इमानदारी से अमानत अली खान के इश्क में डूबती जितनी कि कर्ट कोबेन के। एक आवाज मखमली थी...गालिब के पुराने शेरों से नये ज़ख्मों की मरहम पट्टी हुयी जाती। पूरी दोपहर कमरे के परदे गिरा कर संगेमरमर के फर्श पर सुनी जाती अमानत अली खान की आवाज़...विकीपीडिया उनकी तस्वीरें दिखाता...लूप में भंवर सा आता और एक पूरी उम्र डूब जाती। छोटी सी आर्टिकल है, इश्क की आंच को भड़काने का काम करती है। आवाजें कहीं नहीं जातीं, कभी भी। कहां लगता है कि पटियाला घराने की इस आवाज को चुप हुये चार दशक बीत गये।
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मुझे तुम्हारा नाम याद नहीं और तुम मेरी आवाज भूल गये हो...ये भी दिन देखना था इश्क में. सुनो, एयरपोर्ट में एक लड़की से मिली थी। वो बार बार एक नंबर डायल करती, आवाज सुनती और काट देती। आधे घंटे से उसके पीछे लाइन में खड़ी थी, आखिर मुझे भी तो दिल्ली जैसे अनजान शहर में अपने पहचान की इकलौती सहेली को फोन करके एयरपोर्ट बुलाना था...कब तक इंतजार करती। उससे पूछा क्या बात है...डबडबायी उन आंखों को देख कर सब भूल गयी। उसे बाहर लेकर आयी, हम दोनों एक नये से चाय के नुक्कड़ पर खड़े रहे कितनी ही देर। चलो, कहीं चलते हैं, मेरी अगली फ्लाइट शाम को है। हम दो अजनबी औरतें जाने किस जन्म का पुराना किस्सा कहने जा रही थीं। डीटीसी की बसें खाली ही थीं, इतनी सुबह शहर दिल्ली जगा नहीं था। उसका नाम परमिंदर कौर था। लंबे नीले ओवरकोट में गज़ब खूबसूरत लग रही थी। हाफ ग्लव्स में सिर्फ आधी उंगलियां ही दिख रही थीं, नील पड़ी हुयीं। सारी ठंढ जैसे उन उंगलियों मे जम गयी थी। रोती आखें कितनी खूबसूरत लग सकती हैं जानने के लिये सिर्फ उसकी आखें देखनी चाहिये। दिल्ली में पुस्तक मेला लगा हुआ था, हम कैसे प्रगति मैदान पहुंचे मुझे याद नहीं। वो बता रही थी कि उसे कौमिक्स और कवितायें पढ़ना अच्छा लगता है। मैं उसे गारबेज बिन के बारे में बता रही थी, वो मुझे किसी ओक्टावियो पाज़ के बारे में। वियर्ड सी पसंद थी उसकी।

वो भी गर्लस स्कूल में पढ़ी थी। हम यूं ही डिस्कस करने लगे कि मिल्स ऐंड बून जैसा कुछ ढंग का हिंदी में पढ़ने को क्युं नहीं मिलता। हमारे जैसी सिचुएशन जिसमें बहुत थोड़ी सी दरकार बचती है किसी भी तरह किसी को छू भर लेने की। बात यही चल रही थी कि पूरी की पूरी जमुना उसकी आखों में उतर आयी। एक लड़का हुआ करता था तुम्हारे जैसा ही, मुस्कुराने का टैक्स वसूलता हुआ। कभी जो उसे देख कर मुस्कुरा देता तो वही होली, वही ईद हुयी जाती थी। ईश्क जैसा कि तुम जानते ही हो, दुःसाहस का दूसरा नाम है। इक रोज उसने ऐडमिन औफिस में एन्ट्री मारी और रजिस्टर से उसके घर का फोन और ऐड्रेस ले उड़ी। उस दिन से हर रोज उस लड़के को कौल करती। एक रोज उसने ऐसे ही कौल किया था तो उधर लड़के ने तीन नाम गिना दिये...तुम लावण्या हो ना? टाइटल में सेन लिखती हो। लड़की बहुत उदास हुयी...मगर मुहब्बत ऐसी ही किसी शय का नाम है. उम्मीद न जीने देती है न जान लेने देती। हर रोज़ का नियम बना हुआ था. वो रोज़ फोन करती और लड़का हर बार अनगिन लड़कियों के नाम गिनाता रहता। इश्क़ जिद्दी था. लड़की तो और भी ज्यादा। लड़के ने शायद दुनिया की सारी लड़कियों के नाम गिना दिये, बस एक उसके नाम के सिवा। यूँ तो उसका नाम परमिंदर कौर है, मगर लड़के ने कुछ और कोडनेम रखा था उसका। एक बार गलती से फोन पर बात करते हुए वही नाम ले गया था, 'परी'. वो दिन था और आज का दिन है, वैसी हसीं गलती दुबारा हो जाए, इस उम्मीद पर अटकी है जिंदगी कहीं। मालूम, उसने उस लड़के को कभी छुआ भी नहीं, मगर उँगलियों को उसका फोन नंबर ऐसे याद है जैसे तितलियों को उड़ने की दिशा, फूलों को सो जाने का वक़्त या कि फिर उस लड़के को परमिंदर का नाम.

इस उम्र में बालों में चांदी नज़र आने लगी है. पिछली बार डॉक्टर से मिली थी तो उसने सिजोफ्रेनिया बताया था, और भी कुछ परेशानियां हैं जिससे भूल जाती है बहुत कुछ. उससे नंबर पूछो तो याद नहीं रहता, कई बार तो उस लड़के का नाम भी भूल जाती है. फिलहाल उसकी परेशानी ये है कि अक्सर उसे खुद का नाम याद नहीं रहता, ऐसे में मान लो जो उस लड़के ने कभी उसे सही नाम से पुकारा भी हो, ठहरना कहाँ याद रह  पायेगा। एक बार अजमेरी गेट गयी थी उसे ढूंढने के लिए. निजामुद्दीन दरगाह पर मन्नत की चद्दर भी चढ़ाई। लेकिन आजकल फोन कोई और उठाता है अक्सर , मद्रासी ऐक्सेंट रहता है. शायद कोई नर्स होगी, लगता है  उसकी तबियत खराब चल रही है। इसी सिलसिले में कल कितनी बार फोन लगाया, आखिर में उसकी आवाज सुन पायी बस।

वहीं सीढ़ीयों पर बैठे कितना वक्त गुजर गया। सामने की भीड़ में आता हर चेहरा मुझे तुम्हारी याद दिलाने लगा था। तुम भी तो कमाल की आदत हो ना। मुझे ठीक याद नहीं उसकी कहानी सुनते सुनते कब गुम होने लगी मैं। बात दिल्ली की थी, उसपे दिलफरेब सर्दियाँ। यही वक्त था न जब तुम इस शहर में हुआ करते थे। पुराने किले की झील जिस साल जम जायेगी तुम मेरे साथ स्केटिंग करोगे प्रोमिस किया था तुमने। सामने बर्फ गिर रही थी...मैं सोच रही थी कि पुस्तक मेले में तुम जरुर आओगे। सिर्फ एक बार तुम्हें छू कर तुम्हारे होने की तस्दीक कर लेना चाहती थी बस। इधर खुमारी सी है...इतना सारा कुछ खूबसूरत मिलता रहता है, एक तुम नहीं होते और तुम्हें बताये बिना जीना तो कब की भूल चुकी हूं। मान लो ये परमिंदर की कहानी तुम्हें सुनाती तो तुम जाने कितने किस्से और बना लेते उससे। किरदार की जिन्दगी का खाका खींचना तुम्हारे जैसा कहां आया मुझे...दिखते हो तुम, परमिंदर की मौसियों की जिन्दगी की सीवन उधेड़ते हुये। तुम्हें बहुत मिस करती हूं...आजकल तुम्हारे खत आने बंद हो गये हैं। वो पोस्टबौक्स नंबर याद है तुम्हें? गलती हो गयी ना, मेले में जाने के पहले सबसे पहले यही कहते हैं ना कि खो गये तो कहां मिलेंगे...हम अपनी जगह तय करना भूल गये। तुम मेरा कहीं और इंतजार कर रहे हो...मैं किसी और मोड़ पर तुम्हारे इंतजार में ठहरी हुयी। तुम्हें दुनिया के कितने शहर में तलाश आयी...आज दिल्ली की इस बातूनी दुपहर इक अनजान लड़की के साथ बैठे हुये तुम्हें पूरा दिन याद किया है। सोचती हूँ अपने घर में तुम इस वक्त शाम के हिस्से की सिगरेट पी रहे होगे। मेरे बैग में अब तक वो आखिरी सिगरेट पड़ी है...याद है हमने वादा किया था एक साथ सिगरेट छोड़ देंगे। तुम आजकल कौन सी सिगरेट पीते हो? वही गोल्ड फ्लेक? मुझसे कोइ कह रहा था कि रद्दी सिगरेट होती है, क्युं पीती हूं। दरअसल कुछ दिन सिगार पीने का शौक लगा था...मगर किसी अफेयर की तरह कुछ महीनों चला। इधर डॉक्टर ने मना किया है, तब से तुम्हें तलाश रही हूं, आखिरी सिगरेट साथ लिये।

तुम्हारी बात चलती है तो सारी कहानियां बेमतलब लंबी हो जाती हैं, देखो परमिंदर बिचारी बोर हो रही है...और मैं अपनी ही गप लिये बैठी हूं, अपनी लव स्टोरी तो क्लासिक है, बाद में सुनाती हूं। फिलहाल एयरपोर्ट जाने का वक्त हुआ। कोई बारह बजे के आसपास बाराखंबा रोड पर दिखा था कोई तुम्हारे जैसा। सुनो, पिछले साल १८ जनवरी को उस वक्त कहां थे तुम? फिलहाल कहां जा रहे हो? वो जो झील है ना...उसके सामने एक बोट है, २५ नम्बर की, गहरे लाल रंग में। मैने वहां अच्छे से पैक कर तुम्हारे लिये एक विस्की, एक पैक गोल्ड फ्लेक और तुम्हारे नाम लिखे सारे खत है। मैंने दिल्ली की इस सर्द शाम से तुम्हे, विस्की और सिगरेट को एक साथ छोड़ दिया है।

अपना ख्याल रखना मेरी जान। तुम्हारी दुनिया में भी मुझे अपने कत्ल का सामान चुनने की आजादी है...मैं हिज्र चुनती हूं। तुमसे अब कभी न मिलूंगी। 

06 January, 2014

आय लव यू औरोरा बोरियालिस

लड़की इगलू में रहती थी कि उसे बेतरह ठंढी और उदास जगहों से लगाव था। इगलू में कोई खिड़की नहीं होती...बस एक छोटा सा दरवाजा होता है, जिससे घुटनों के बल रेंग कर अंदर आया जा सकता है। इगलू की दीवारों पर उसने बहुत सी तस्वीरें लगा रखी थीं...जब मौसम बेतरह खराब होता और घर में खाने को कुछ नहीं होता, वो दीवारें ताकती रहती। वो कल्पना करती थी कि जब वसंत आयेगा तो उसके कबीले के बाकी लोग लौट आयेंगे और गाँव में उत्सव मनाया जायेगा।

उसका अक्सर दिल करता कि इगलू में एक खिड़की बना दे...मोटे शीशे की खिड़की...जिसके आर पार बर्फीली सर्दियाँ दिखें। उसे चश्मे से दिखती तुम्हारी आखें याद रह गयीं थीं। यूं उसने बर्फ के इस रेगिस्तान को खुद चुना था और वो जब जी चाहे कहीं भी जाने के लिये स्वतंत्र थी मगर फिर भी वो कही नहीं जाना चाहती और बस भाग जाने के सपने बुनती। उसके सपनों में सफेद घोड़े वाला राजकुमार नहीं होता...पोलर बियर होता या फिर स्लेड होती...बर्फ पर फिसलती और सपनों में होता वसंत...बोगनविलिया के मुस्कुराते फूलों वाला वसंत...कोई एक पुराने खंडहर जैसा किला भी हुआ करता अक्सर...वो रास्ते में गुनगुनाते हुये चलती...मिट्टी की उन राहों में धूल होती...बर्फ नहीं। सोचते हुये ही झील का पानी जमने लगता और वसंत विदा लिये बिना चला जाता। लड़की रोती रहती और उसके आँसू झील मे मिलते जाते। पारदर्शी बर्फ में बहुत सी यादों की परछाई दिखती लेकिन लड़की उस दुनिया तक वापस नहीं जाना चाहती।

रातों को अक्सर उसे किसी के हंसने की आवाज सुनायी देती। उसे लगता कि भ्रम है लेकिन आवाज इतनी सच होती कि उसे अगले दिन बर्फ की सारी दीवारों में कान लगा कर सुनना होता कि कहीं गलती से कोइ जानवर बंद तो नहीं हो गया है। उसे जाने कैसे तो लगता कि ये किसी की आखिरी हंसी है। उसे यकीन था कि जिस दिन से वो उत्तरी ध्रुव आयी है उस दिन के बाद से किसी ने उस चश्मे वाले लड़के को हंसते नहीं देखा होगा। उसे आज भी लगता था कि दोस्ती प्यार से बड़ी चीज होती है। मगर कभी कभी उसे किसी अहसास पर यकीन नहीं होता और लगता था कि दुनिया कोई सपना है, किसी दिन जागेगी तो सिर्फ समंदर ही होगा...इकलौता सच। उछाल मारता समंदर...लहर लहर किलकता...याद से एकदम अलग। समंदर में उष्मा होगी...लहरें पुरानी सखियों की तरह गले मिलेंगी और उसके सारे दर्द बहा कर ले जायेंगीं कि जो कभी था ही नहीं, उसके जाने का रोना कैसा।

मगर फिलहाल ऐसा कुछ नहीं था, समंदर का पानीं बर्फीला ठंढा था, वो जब भी तैरने की कोशिश करती, सरदर्द लिये लौटती। आधी दूरी में ही ऐसा लगने लगता जैसे पूरी दुनिया बर्फ में तब्दील हो गयी है। सूरज सिर्फ ड्राइंग कौपी का कोई किरदार है...नारंगी रंग कैसा होता है वो भूलने लगी थी। याद से गर्माहट भी तो चली गयी थी। आखिरी बार किसी ने कब गले लगाया था उसे...कोहे निदा से कौन सी आवाज आती थी? उसे लग रहा था वो नाम भूल जाएगी इसलिये उसने इगलू की दीवार पर बहुत सारा कुछ लिखा हुआ था...

वादी-ए-कश्मीर...व्यास नदी...काली मिट्टी...गंगा...बनारस घाट...बस नंबर ६१५...लालबाग...बरिस्ता...सिंगल माल्ट औन द रौक्स...आँखों का पावर -२.००

क्या क्या और होना चाहिये था?

उसने पूछा औरोरा बोरियालिस से, वह अपने घर का रास्ता भूल गयी है। समंदर किनारे गीले कपड़ों मे ठंढ बहुत लग रही थी...याद तो उसे ये भी नहीं कि उसका नाम क्या है। बर्फ में चीजें चिरकाल तक सुरक्षित रहती हैं। जब तक खोजी टोली उसे ढूंढ पायेगी, शायद वो चश्मिश लड़का इस दुनिया में ही न रहे। फिर किसी को क्या फर्क पड़ता है कि उसने बर्फ में जिस अक्षर को लिखा उससे किसका नाम शुरु होता था। औरोरा बोरियालिस लेकिन तब भी गिल्टी फील करेगा और कोई भी झील में अगर औरोरा की रिफ्लेक्शन को शूट करेगा तो उसे लड़की के इनिशियल्स दिखेंगे। 

04 January, 2014

चिंगारी की तीखी धाह

सपने मुझसे कहीं ज्यादा क्रियेटिव हैं। जहाँ मैं जागते नहीं जा सकती, एक मीठी नींद मुझे पहुँचा देती है। कल सपने में तुम्हें देखा। अपने बचपन के घर में...मेरा जो कमरा खास मेरे लिये बना है, वहाँ। जाने क्या करने आये थे तुम। मैं तुम्हें इगनोर करने में व्यस्त थी, पूछा भी नहीं। एक मुस्कुराहट भी नहीं...किस मोड़ पर आ पहुंचे हम अपनी जिद से। एक वक्त था, तुम्हें देख कर मुस्कुराहटों का झरना फूट पड़ता था। कितना भी रोकती...बस तुम्हारा होना काफी होता। याद मुझे कल का भी है...तुम कितने कौतुहल से घूम रहे थे मेरे घर में...तुम्हें कभी बताया भी तो नहीं था...मेरा घर, पीछे का पोखर, आगे का पीले फूलों वाला पेड़...सर्पगंधा...कामिनी...और जो जंगली गुलाब खुद उग आये थे।

बात सपने से शुरु होती है मगर उसे ठहरना कहाँ आता है...छोटी सी पहाड़ी और उसके पीछे डूबता सूरज। तुम्हारी वापसी की फ्लाइट कब की है? शहर आये हो, मिलते हुये जाना। यूं मेरे अलावा उस शहर में कुछ खास नहीं है, कसम से।
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तुमसे प्यार की उम्मीद करना गलत है...जैसे मुझसे उम्मीद की उम्मीद करना। जिसे जो मिलता है, वही तो वापस दे सकता है। तुम्हारा रीता प्याला देखती हूं। गड़बड़ खुदा की है कि तुम्हारे प्याले में पेन्दा ही गायब है...दुनिया भर का इश्क तुम्हें अधूरा ही छोड़ेगा...पूरेपन के लिये बने ही नहीं हो तुम। लोगों को याद तुम्हारा पागलपन रह जाता है, मगर मुझे तुम्हारा दर्द क्युं दिखा...अब भी...रात हिचकियां आयीं तो मुझे पूरा यकीन था कि इस वक्त तुमने ही याद किया होगा मुझे।

देर तक छाया गांगुली की आवाज़ में पिया बाज़ प्याला सुन रही थी...तुम्हारी बहुत याद आ रही है आजकल, उम्मीद है, तुम अच्छे से होगे। ऐसी बेमुरव्वत याद आनी नहीं चाहिये। यूं होना तो बहुत कुछ नही चाहिये जिन्दगी में, मगर जिन्दगी हमारी चाहतों के हिसाब से तो चलने से रही।
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एक उजाड़ सा खंडहर है। अभिशप्त। एक अंधा कुआं है। चुप एकदम। और एक राजकुमारी है, जिसे समय के खत्म हो जाने तक वहीं बंद रहना है। कभी कभी तेज हवायें चलती हैं तो पीपल के पत्ते बजते है, राजकुमारी का चंचल मन पायल पहनने को हो आता है। मगर पायल को भी श्राप लगा है। जैसे ही राजकुमारी अपने पैरों में बाँधती है, पायल काँटे वाले नाग में तब्दील हो जाती है। फिर राजकुमारी जहां भी जाती है उसकी दुष्ट सौतेली मां को खबर हो जाती है और वो राजकुमारी से उसकी मां के दिये कान के बूंदे छीन लेती है। राजकुमारी बहुत रोती है, लेकिन उस दुष्ट का कलेजा नहीं पसीजता। वे जादू के बून्दे थे, रोज रात को ऐसा लगता जैसे मां लोरियाँ सुना रही हो...राजकुमारी चैन की नींद सो पाती। पैरों से पायल उतारने में नागों ने राजकुमारी को कई बार डस लिया। उसकी उँगलियां सूज गयीं। चुप की लंबी रात काटने के लिये अब राजकुमारी चिट्ठियां भी नहीं लिख सकती थी, अपना प्यारा पियानो भी नहीं बजा सकती...हवा में तैरता हुआ गीत पहुंचता है कभी कभी और बांसुरी की आवाज। राजकुमारी को यकीन है कि ये बांसुरी की आवाज भी अाज के वक्त की नहीं है। द्वापर में कृष्ण भगवान ने जो बंसी बजायी थी, ये उसी बांसुरी के भटकते हुये सुर हैं। सामने एक अदृश्य दीवार है जो उसे कहीं जाने नही देती। उसे कभी कभी यकीन नहीं होता कि दुनिया वाकई है या सिर्फ उसकी कल्पना से सारा कुछ दिखता है उसे। सदियों से अकेले रहने पर थोड़ा बहुत पागलपन उग जाता है, खरपतवार की तरह।
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राजकुमारी जमीन की धूल में एक अक्षर लिखती है...मैं दर्द से छटपटा के जागती हूं। उस अक्षर से सिर्फ तुम्हारा नाम तो नहीं शुरु होता।
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26 December, 2013

ये आकाशवाणी है...सबसे पहले हम सुनेंगे समाचार रात ८ बजे.

मिश्रा साहब आज रिटायर हो रहे थे...अपनी नौकरी के ३० सालों तक उन्होंने आकाशवाणी की सेवा की...सभी अधिकारी अभिभूत थे। उनके जैसा अनुभव किसी को भी नहीं था। पटना में पहला एफ एम चैनल खुला तो उन्होनें बहुत कोशिश की कि मिश्रा जी उनका औफिस ज्वायन कर लें मगर मिश्रा साहब की जिन्दगी आकाशवाणी की लाल दीवारों के नाम थी। शहर की बाकी आधिकारिक इमारतों से इतर आकाशवाणी बिल्डिंग का अपना व्यक्तित्व था, ऐसा मिश्रा जी का यकीन था।

सभी उन्हें घेर कर बैठे थे। नयी पीढ़ी के अपने सवाल थे, मिश्रा जी का बहुमूल्य अनुभव संजो कर रखने लायक था, तकनीकी पक्ष हो या कि सीनियर औफिसरों के साथ अच्छी ट्यूनिंग के रहस्य, मिश्रा जी का खजाना खुला था आज, जो जवाब चाहिये, सब मिलेंगे। जैसा कि दस्तूर था, एक टाइटन की घड़ी और प्रशस्ति पत्र के साथ एक शॉल दी गयी और प्रोग्राम खत्म । खाने पीने के शोरगुल में फिर लोग मिश्रा जी को भूल गये। किसी ने उनके चेहरे की बेचैनी नहीं पढ़ी। मिश्रा जी को बस एक बेचैनी खाये जा रही थी और वो चाहते थे कि कोई उनसे वो सवाल करे जिसका जवाब लिये वो पिछले कई सालों से घूम रहे हैं...जाने से पहले उन्हें एक प्रायश्चित्त करना था। कह देने से उनके दिल का बोझ हल्का हो जाता। वो सुनना चाहते थे कि जो उन्होनें किया वो उन्हें बाकी सबों से एक अलग पहचान देता है...वो कहीं यादों में अमर होना चाहते थे।

सवाल ये था, आप इतने सालों से अाकाशवाणी में ही क्यूं टिके हुये हैं। सवाल किसी को जरूरी नहीं लगा क्युंकि मिश्रा जी की उम्र के बाकी लोग भी अपनी अपनी संस्थाओं के प्रति ताउम्र वफादार रहे। मिश्रा जी मगर जिस उम्र की बात कर रहे थे, उसमें उड़ान थी...उनके सपनों में भी दिल्ली की बेदिली देखने की हसरतें थीं...मुम्बई के धक्के खाने का जज़्बा था..आज शायद किसी को यकीन न हो इस बात पर, मगर एक ज़माने में मिश्रा जी बड़े हंसोड़ हुआ करते थे. ये उस वक्त की बात है जब मिश्रा जी का ये नामकरण नहीं हुआ था. उस समय लोग उन्हें दिलीप बुलाया करते थे. बेहद खूबसूरत मिश्रा जी जब जन्मे थे तो दिलीप कुमार पर फ़िदा उनकी माँ ने उनका नाम दिलीप रख दिया था. स्कूल कॉलेज में दिलीप के फिल्मों में जाने के चर्चे आम थे. छोटी उम्र में सपनों को लिमिट नहीं पता होती. दिलीप को कहाँ मालूम होना था कि मजबूरी में बहन की शादी के साथ ही उनकी जीवनसंगिनी भी तय हो जायेगी.

मगर ये सब भी बहुत बाद की बात है. कहानी जहाँ से शुरू होती है, वहां दिलीप को कॉलेज के एक प्रोग्राम के सिलसिले में आल इण्डिया रेडियो जाना पड़ा था. वहां के डायरेक्टर को दिलीप भा गया. लड़के में कुछ ख़ास तो था. उस वक़्त एक नार्मल सी वेकेंसी निकली थी. छोटे दफ्तर में काम बहुत ज्यादा खाकों में बटा हुआ नहीं होता है. तो पेपर बॉय से लेकर टेलेफोन ऑपरेटर तक सब करना दिलीप का काम था. रोज चार घंटों की छोटी सी शिफ्ट होती थी. कॉलेज के बाद रोज दिलीप एआईआर चला जाता था. पैसों से छोटा मोटा जेब खर्च निकल आता था. अक्सर शाम के प्रोग्राम की कहानी भी वही लिखता था.

बहुत सारे आर्टिस्ट्स से भी मिलना जुलना होता रहता था. धीरे धीरे रेडियो के प्रति उसकी भी समझ विकसित होने लगी थी. क्या प्रोग्राम होना चाहिए, क्या लोगों को पसंद आएगा. इस बीच एक दिन उसके हाथ बहुत सी चिट्ठियां लगीं. उसे लगा क्यूँ न एक ऐसा प्रोग्राम बनाया जाए जिसमें लोग पुरानी चिट्ठियां भेजें और रेडियो एनाउंसर उसके इर्द गिर्द कहानी बना कर प्रेजेंट करे. आइडिया बेहतरीन था. लोगों को तुरंत पसंद आया. इन्टरनेट और मोबाईल के ज़माने में भी चिट्ठियों का वजूद कहीं था. उसने जो पहली चिट्ठी पर बेस्ड कहानी बनायी थी वो दरअसल उसके पिताजी की थी और इसलिए उसने घर में बहुत डान्ट भी खायी थी. मगर उस उम्र में वो चिकना घड़ा था, इधर से सुनता उधर से निकाल देता. खोजी जासूस की तरह रद्दी की दुकानों की ख़ाक छानता...पुराने ख़त तलाशता. प्रोग्राम सुपरहिट था. हर उम्र के लोग ट्यून इन करके सुनते थे. यही वो वक़्त था जब पहली बार शहर में ऍफ़एम चैनल आया था. उसने इस उभरते सितारे की तारीफ सुनी तो उसे कई प्रलोभन दिए मगर दिलीप को न जाना था न गया.

ठीक यहीं हुआ था वो छोटा सा हादसा जिसने दिलीप के पैर बरगद की तरह रोप दिए उसी जमीं पर. एक रोज़ शाम के प्रोग्राम के लिए म्यूजिक शोर्टलिस्ट कर रहा था कि फोन की घंटी बजी...उस तरफ कोई बड़ी मासूम सी आवाज़ थी.
'आप दिलीप हैं न?'
'जी, क्या मैं जान सकता हूँ मैं किससे बात कर रहा हूँ?'
'आपने कभी किसी को ख़त लिखे हैं?', आवाज़ बेहद दिलकश थी.
'नहीं'
'क्यूँ?' सवाल बेहद पेचीदा...दिलीप का पहली बार ध्यान गया कि उसके ऐसे कोई दोस्त नहीं रहे जिन्हें वो ख़त लिख सके...उसकी पूरी जिंदगी इस छोटे शहर के इर्द गिर्द ही लिपटी हुयी है. आज एक छोटे से सवाल से कितने सारे सवाल उठ खड़े हुए...बागी सवाल...जो कि भाग जाने के लिए उकसाने लगे.
'आपने मेरे खतों के अफसाने बना दिए...बहुत गलत किया. मैं आपको कभी माफ़ नहीं करुँगी'
और फोन कट गया...किसी नाज़ुक सी लड़की का दिल दुख गया ये सोच कर ही दिलीप के सीने में हूक सी उठने लगी. उस दिन पहली बार उसने सिगरेट जलाई थी. खांसते खांसते इतना दर्द हुआ कि कायदे से दिल में चुभी बात निकल जानी चाहिए थी...मगर ये तो ग़ालिब का 'तीरे-नीमकश' था. इतनी आसानी से भला कैसे निकलता.

उस रोज़ घर आया तो भयानक सर दर्द हो रखा था. उसकी इच्छा कमरे में गुलाम अली सुनते हुए सो जाने की थी. भूख तो कब की मर चुकी थी. मगर ऊपर वाले की इच्छा के बाहर किसका जोर चलता है. घर पहुंचा तो देखा कि उत्सव का माहौल है. अचानक उसे याद आया कि पिताजी बहन के रिश्ते से लौटे होंगे. जमघट लगा हुआ था. बहन की सहेलियां, बहुत से रिश्तेदार, पड़ोसी...सभी आये हुए थे. रात को जब घर थोड़ा शांत हुआ तो पिताजी ने बुलाया था उसे. लड़के वालों को बहन तो पसंद आई ही थी, दिलीप भी उन्हें भा गया था. लड़के की चचेरी बहन के साथ दिलीप का रिश्ता तय कर आये थे पिताजी. दोनों शादियाँ छः महीने बाद थीं. दिलीप इस अचानक हुए फैसले के लिए एकदम तैयार नहीं था मगर पिताजी की बात बचपन से आज तक टाली भी कब थी. जिंदगी की जद्दोजहद शुरू हो गयी.

अगले रोज फिर वही फोन आया था. आज मगर उस लड़की का बहुत सी बातें करने का मन था. वो दिलीप को उस लड़के के बारे में बताती गयी जिसे उसने चिट्ठियां लिखी थीं. दिलफरेब किस्से...उसपर आवाज़ ऐसी दिलकश कि रश्क होने लगता उस लड़के से जिसकी वो बात कर रही थी. लड़की कहती थी कि उसे इश्क भूलना नहीं आता...दिलीप ने बहुत से गायक, शायर वगैरह देखे हैं, उसे भुलाने का कोई नुस्खा जरूर मालूम होगा. दिलीप को प्यार कभी हुआ नहीं था जो उसे भूलने की आदत हो मगर वो उसके लिए उसकी पसंद के गानों का वादा कर सकता था. घर पर शादी की तैय्यारियाँ जोरों से थीं और इधर उस अनजान लड़की से बातें बढ़ती ही जा रहीं थी. दिलीप उसके बारे में कुछ भी पूछता तो वो बताती नहीं. लड़की का नशा होता जा रहा था उसे.

ऑफिस के अपने कमरे में दिलीप ने कई सारी कतरनें रखी थीं...कभी बाद में फुर्सत से अलग करने के लिए. इसी में अनगिन चिट्ठियों के साथ उसे उस लड़की की तस्वीर भी मिल गयी. अब तस्वीर के साथ किसी को तलाशना मुश्किल तो था नहीं उस छोटे से शहर में. हर कबाड़ी वाले के पास जाने का एक्स्ट्रा काम उसने अपने सर लिया. चौथे दिन उसके घर का पता मिल गया. वो सारी चिट्ठियां, उसकी तसवीरें और बहुत सा कबाड़ एक ही दिन बेचा गया था. दिलीप ने उसके घर का पता नोट किया कि एक बार मिल के देख ले उसे...तसल्ली हो जायेगी.

रात करवटों में कटी. किसी के घर जाने का सबसे सही वक़्त कौन सा होता है? बहुत सोच समझ के दिलीप ने तय किया शिफ्ट के ठीक एक घंटा पहले चला जाएगा. शाम के चार बजे की हलकी सर्दियाँ थीं. उसने अपना पसंदीदा नीली धारियों वाला सफ़ेद स्वेटर पहना और उसके घर की ओर निकल गया. उसका घर लगभग शहर के आखिरी छोर पर था. पहुँचने में बीस मिनट लग गए. दरवाजा एक बेहद उदास आँखों वाली सभ्रांत महिला ने खोला. घर में अजीब सी ख़ामोशी थी. अन्दर आने का आग्रह उससे टाला नहीं गया. पानी पीकर उसने कहा कि वो पिहू से मिलने आया है, बस थोड़ी देर में चला जाएगा. उन्होंने कुछ कहा नहीं, अपने पीछे आने का इशारा किया. एक छोटे से कमरे का दरवाजा खोला, अन्दर हलके नीले रंग का सब कुछ था...दीवारें, परदे, लाइट्स...बहुत सी फ्रेम्स में लगी तसवीरें. ये पिहू का कमरा था. नज़रें सारा मुआयना करते हुए एक तस्वीर पर ठहर गयीं...वही तो थी...पिहू...हंसती हुयी, उसके पास जो तस्वीर थी उससे अलहदा...फ्रेम पर अपराजिता के नीले फूलों की माला लटकी हुयी थी. उसे चक्कर आ गए...अचानक से पीछे हटा और दीवार का सहारा लिया. 'ये कब की बात है?'
'पिछले साल की?'
'आर यू स्योर?'
'मैं उसकी माँ हूँ'.
दिलीप ने उसकी चिट्ठियां दिखायीं...और उन्होंने कन्फर्म किया कि ये उसी की हैण्डराईटिंग है. दिलीप में हिम्मत नहीं थी कि उन्हें पूरी बात बताये...उसकी बात का यकीन करता भी कौन. वापस ऑफिस आते हुए उसे समझ नहीं आ रहा था कि आवाज़ के पीछे भागने के लिए खुद को गलियां दे या सच्चाई जान जाने के लिए खुद की पीठ ठोके. फोन लेकिन नियत समय पर आया.
'तुम कौन हो?...और फोन कैसे कर रही हो?'
'मैं खुद तुम्हें बता देती मगर बताओ सही...फिर तुम मुझसे बात करते?'
'शायद नहीं...मगर ऐसी कौन सी बात इतनी जरूरी थी'
'उसे भूलना जरूरी है मेरे लिए दिलीप वरना मैं इस दुनिया से कभी नहीं जा पाउंगी...हमेशा के लिए यहीं भटकती रह जाउंगी...प्लीज मेरी हेल्प कर दो'.
दिलीप को अचानक से लगा जैसे पूरी ईमारत बर्फ की बनी हो और ठंढ उसके दिल को बर्फ करती जा रही है. वादा मगर वादा था. वो रोज़ अपने नियत समय पर ऑफिस आता. उसकी कहानी सुनता और अपने हिसाब से उसकी मदद करता. इस बीच उसे कई और जगह जाने के ऑफर आये मगर उसका मन उसी टेलेफोन से जुड़ गया था. जब तक पिहू की आत्मा को मुक्ति नहीं मिल जाती वो कहीं नहीं जा सकता था.

शादी के दिन उसे बार बार पिहू की याद आती रही. उसके घर में टंगी उसकी तस्वीर में वो लाल जोड़े में थी...मुस्कुराता चेहरा...कितने भोले अरमान थे उसकी आँखों में. अपनी पत्नी का चेहरा उसे बेहद मासूम लगा. उसने खुद से वादा किया कि वो ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे उसकी पत्नी उससे इतना प्यार करने लगे कि मरते हुए भी उसकी आत्मा जा न सके...दुनिया और दिलीप के बीच एक अदृश्य दीवार उसी दिन खिंच गयी थी. वो लोगों को अपने करीब आने ही नहीं देता. ऑफिस में उसके चुटकुलों पर लगते ठहाके बंद हो गए थे. वो कई बार लोगों पर झुंझला जाता. धीरे धीरे उसे मालूम ही नहीं चला कब उसका नाम दिलीप की जगह मिश्रा जी हो गया और ऑफिस का हर कर्मचारी अपने सारे समस्याओं का हल उससे मांगने लगा. वो जितना लोगों से दूर जाता...लोग उतनी ही उसे अपनी जिंदगी में शामिल करते चले जाते. पिहू का फोन भी अब कम आता...कभी कभी सिर्फ ब्लैंक काल्स आते.

रिटायर्मेंट के दिन जैसे जैसे पास आ रहे थे...काल्स एकदम ही बंद हो गयी थीं. इधर तो कई महीनों से उसका कोई ब्लैंक कॉल भी नहीं आया. आकाशवाणी का दफ्तर सूना, खामोश और अकेला होता जा रहा था. घर वापस लौटते हुए चाँद, पेड़ और गंगा भी चुप रहती थी. घर पर बच्चे बड़े हो गए थे और अपने सपनों की तलाश में नए शहरों में जा के बस चुके थे.

कल उनका रिटायर्मेंट सेलेब्रेशन था. लोग उन्हें ख़ुशी ख़ुशी विदा कर रहे थे. उन्हें पूरा यकीन था कि पिहू का कॉल जरूर आएगा. रात होने को आई...सब लोग अपने अपने घर चले गए. वे बताना चाहते थे लोगों को कि कैसे कम पैसों की इस नौकरी को उन्होंने सिर्फ इसलिए बचाए रखा कि पिहू उनसे मदद मांग रही थी किसी को भूलने के लिए...रोज़ रोज़ बिना नागा किये, सिर्फ उसकी कहानी सुनने आते थे वो...कि इतने सालों बाद पिहू शायद अपने आसमान में खुश है...कि ब्लैंक काल्स पिहू नहीं करती. कि वो पिहू से प्यार नहीं करते...कि पिहू उनसे प्यार नहीं करती. वो तो बस उसे उस लड़के को भूलने में मदद कर रहे थे. उनकी कहानी किसी ने पूछी ही नहीं. मिश्रा जी ने अपना सामान पैक कर लिया था. आखिरी सादे कागज़ पर वे पहली बार ख़त लिखने बैठे थे...अपनी पिहू को...कि अपना फ़र्ज़ उन्होंने पूरा कर दिया था.


फोन बजा था...


'दिलीप'
'हाँ'
'एक ख़त लिखने में इतनी देर कर दी'

16 December, 2013

अाँख बंद करने में क्या जाता है


अगर अाप को खुद की अौकात पता न हो तो दिन में ऐसे अनगिन लोग अायेंगे जिनका अापके जीवन में होने का इकलौता उद्देश्य ये होगा कि अापको अापकी अौकात याद दिलाते रहें। यूं अपनी अौकात बड़ी पर्सनल चीज़ है, मगर इतनी पर्सनल कि सार्वजनिक, जैसे पटना के गर्ल्स स्कूल के उस लेस्बियन अफेयर का अभी याद अाना...कैसी दो लड़कियां थीं वो, साथ वैसे ही रहतीं जैसे स्कूल की बाकी लड़कियां, फिर उनके प्यार में ऐसा क्या था कि उनके चर्चे लंच की रूखी रोटी में अचार का जायका डाल देते थे? पता नहीं सच क्या था, वे नॉर्मल बेस्ट फ्रेंडस भी तो हो सकती थीं, फिर स्कूल में एन्टरटेन्मेंट की कमी को ध्यान रखते हुये सर्व सम्मति से बिल पास हुअा कि सब को उनके बारे में अफवाह फैलाने की पूरी इजाजत है, बशर्ते अफवाह में सच की कोइ मिलावट न हो। ऐसे किसी भी अफेयर के बारे में वो मेरा पहला इन्ट्रो था। फिर याद तो इस्मत की कहानी 'लिहाफ' भी अा रही है, उसका मुकदमा, मंटो के साथ की उसकी बातें भी 'तुमने एक ही तो तबियत से कहानी लिखी है'। 

अाजादी। द अायरनी अॉफ इट...किलर। हम कैसे देश में रहते हैं जहाँ का सर्वोच्च न्यायालय निर्णय लेता है कि बंद कमरे में दो वयस्क अपनी मर्जी से जो करें उनका पर्सनल नहीं सामाजिक मामला है! एक तरफ गे/लेस्बियन रिलेशन क्रिमिनल हैं लेकिन मैरिटल रेप के मामले में कोइ ठोस लॉ नहीं हैं, ना ही ये एक क्रिमिनल ओफेन्स है। जहाँ इन्वोल्व होना चाहिये वहाँ पीछे और जहाँ स्पेस देने की जरुरत है वहाँ अपना कानून चला दिये। ये कैसा इंसाफ है? 

हर कुछ दिन में चैन की साँस लेने के दिन अाते हैं तो ऐसा ही फैसला कोई भी सुना कर हमारी अौकात याद दिला दी जाती है, ठंढे पाले में चलो इंडिया गेट पर, मोमबत्ती जलाते हैं...सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बेहद निराशा हुयी। मुझे एक तो समाज चलाने के नियम वैसे ही खास समझ नहीं अाते। ये क्या कम बुरा है कि LGBT को हर तरफ मजाक का विषय बनाया जाता है कि वापस इसे इलिगल भी बना दिया गया। दिल्ली हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक जजमेंट दिया था। सोचो, एक प्यार के बीच कितने लोगों से परमिशन लेनी पड़ती है. हर तरह का कानून सही लोगों के खिलाफ अौर गलत लोगों के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। 

कोलेज में बहुत सी चीज़ें सीखीं पर जो सबसे जरुरी लेसन था वो ये कि लोगों को उनके हिस्से के निर्णय लेने की स्वतंत्रता अौर उनके फैसले का हर हद तक सम्मान...यही एक बेहतर मनुष्य की पहचान होती है। किसी के मुश्किल निर्णयों में हमेशा उसके साथ खड़े रहना, न कि खिलाफ, चाहे तुम्हें वो फैसला कितना भी गलत लगे। अपनी गलतियों से सीखना सबका बुनियादी अधिकार है। अपनी खुद की खुशियाँ तलाश करना भी। 

किसी भी तरह की माइनोरिटी होना त्रासद होता है, कम से कम इसे क्रिमिनल ना किया जाये। अपने देश के संविधान अौर न्यायपालिका पर अब भी मेरा पूरा विश्वास है...शायद ये अपने देश से प्यार के कारण ही है...उम्मीद है, हमारे नेता सिर्फ हवा में बातें ना करेंगे बल्कि कुछ कारगर करेंगे। तब तक के लिये सिर्फ प्रार्थना कि हमारे देश को थोड़ी सद्बुद्धि अाये।

मेरा नया मैक बुक प्रो

इधर बहुत दिन से अपना पर्सनल लैपटौप नहीं था पास में. पिछली बार जब सोनी वायो खरीदा था तो देखा था कि मैक में हिन्दी टाइपिंग का कोई ऐसा औप्शन नहीं था जिसे इस्तेमाल किया जा सके. मेरे लिये लैपटौप का अच्छा काम करना जितना जरुरी था उतना ही जरुरी था कि दिखने में भी अच्छा हो. लाल रंग का वायो मुझे बेहद पसंद था. उसपर कुछ बहुत पसंदीदा लिखा भी. फिर पिछले साल, बिना किसी वार्निंग के वो क्रैश कर गया. अपने साथ मेरा कितना कुछ हमेशा के लिये लेकर. हार्ड डिस्क से अाजतक भी कुछ रिकवर नहीं हुअा. इस बीच काम के लिये औफिस से नया लैपटौप मिला, डेल का...मैंने उससे बोरिंग पीसी अाजतक नहीं देखा. जहाँ मुझे कलम तक अलग रंगों में चाहिये होती है, वहाँ उस लैपटौप पर कुछ लिखने का मन ही करे. साल होने को अाया, अाखिर सोचा कि अब अौर इंतज़ार नहीं...नया लैपटौप लेना ही होगा.

दूसरी परेशानी अौफिस के काम को लेकर थी, लैपटौप बेहद स्लो है. मुझे मेरी सोच की रफ्तार से चलने वाला कुछ चाहिये था. दिन भर स्लो लैपटौप में काम करने से वक्त भी ज्यादा लगता अौर इरिटेशन अलग होती. कलम के बजाये लैपटौप पर ज्यादा लिखने की अादत भी इसलिये पड़ी कि लैपटौप फास्ट ज्यादा है. फिर से अॉप्शन देखे तो मैक के बराबरी का कुछ भी नहीं दिखा...दिक्कत सिर्फ ये थी कि मैक में लिखने के लिये सब कुछ फिर से सीखना पड़ता. इतने सालों से गूगल का ट्रान्सलिटरेट टूल इस्तेमाल करने के बाद बिना सोचे टाईप करने की अादत बन गयी है...लिखना एकदम एफर्टलेस रहा है. यहाँ हर शब्द लिखने के बाद देखना पड़ता है. रफ्तार इतनी स्लो है कि कोफ्त होती है. मगर उम्मीद पे दुनिया कायम है...मूड बना कर स्टोर गये तो देखे कि जो पसंद अा रहा है करीब ९० हज़ार का है. इतना सोच के गये नहीं थे, वापस अा गये. फिर शुरु हुअा अपने को समझाने का वही पुराना सिलसिला जो हर महँगी चीज़ की इच्छा हो जाने पर होता है...जस्टिफाय करना खुद को कि मुझे इतना महँगा सिस्टम क्यूँ चाहिये. मन कहता इतनी मेहनत करती हूँ अाइ टोटली डिजर्व इट. फिर लगे कि फिजूल खर्ची है...कहीं पर थोड़ा ऐडजस्ट कर लूँ तो कम पैसे में बेहतर चीज अा सकती है, मन कौम्प्रमाइज करना नहीं चाहे, उसे या तो सब कुछ चाहिये, या कुछ भी नहीं।

नया मैक प्रो हाल में ही अाया था। रिव्यु सारे अच्छे दिखे। अब सारी अाफत सिर्फ इस बात की थी कि नये सिरे से सब सीखना कितना मुश्किल होने वाला है। दिन भर सोचा, फिर लगा, अाज नहीं कल करना ही है, जितनी जल्दी शुरु हो जाये, सुविधा ही रहेगी। हिन्दी टाइपिंग सारी फिर से सीखनी होती...काल करे सो अाज कर...मेरे वाले प्रो में ५१२ जीबी रैम है, रेटिना डिस्पले है अौर इसका वजन सिर्फ १.५ किलो है। कैलकुलेट किया तो देखा कि इससे ज्यादा वजन तो पानी की बोतल जो लेकर चलती हूं उसका होता है। नया मौडल पुराने वाले से कहीं ज्यादा हल्का भी है अौर तेज़ भी...इसमें फ्लैश मेमोरी है, गिरने पर भी डेटा खराब नहीं होगा, काफी तेज भी है। दो हफ्ते होने को अाये इस्तेमाल करते हुये, बहुत प्यारी चीज़ है।

अगर अाफत है तो सिर्फ ये, कि इस पर अभी लिखने की अादत नहीं बनी है, थोड़ा वक्त लगेगा। दूसरी अाफत है कि इस पर हिन्दी लिखना मुश्किल है काफी...बहुत सी मात्राअों के लिये शिफ्ट दबाना पड़ता है, कुछ के लिये तो अौप्शन की अौर शिफ्ट की, दोनो दबाना पड़ता है, इसके बाद जा के तीसरा की दबाते हैं। फिलहाल लिखना दुःस्वप्न जैसा है। हर अक्षर लिखने के पहले सोचना पड़ता है, कभी कभी लगता है कि क्या अाफत मोल लिये। स्पीड भी बहुत स्लो है टाइपिंग की। कितना कुछ तो बस लिखने के अालस में नहीं लिखती हूं। पर धीरे धीरे स्थिति बेहतर हो रही है। साल खत्म होने को अाया, कुछ नया, इस साल के जाते जाते। १३ इंच का मेरे मैक मेरी रिसर्च के हिसाब से ये अभी दुनिया का सबसे अच्छा लैपटौप है :)

मुश्किलें बहुत हैं...पर सीखना जारी है। जस्टिफिकेशन भी कि मुझे यही लैपटौप क्युँ चाहिये था। वो सब चलता रहेगा। फिलहाल I am trying to prove to myself, I am worth it :) वो लोरियल के ऐड जैसा। गिल्ट है जोर से। पर बाकी खर्चे पर कंट्रोल कर लूंगी, अौर खूब सारी मेहनत से काम करूँगी इसपर वगैरह वगैरह, फिर कुणाल ने न खरीदा होता तो हम खुद से थोड़े इतना महंगा लैपटौप खरीदने जाते, ये तो गिफ्ट है...इतना क्या सोचना। हज़ार अाफतों वाली जिन्दगी में, डूबते को तिनके का सहारा है मेरा मैक। दिसंबर महीने का मेरा प्यार का कोटा फुल :) इंस्टैन्ट लव। हाय मैं सदके जावां...बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला :) :)

11 December, 2013

सवालों का बरछत्ता

मैं हवा में गुम होती जा रही हूँ, उसे नहीं दिखता...उसके सामने मेरी अाँखों का रंग फीका पड़ता जाता है, उसे नहीं दिखता...मैं छूटती जा रही हूँ कहीं, उसे नहीं दिखता...
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मैं गुज़रती हूँ हर घड़ी किसी अग्निपरीक्षा से...मेरा मन ही मुझे खाक करता जाता है। यूँ हार मानने की अादत तो कभी नहीं रही। कैसी थकान है, सब कुछ हार जाने जैसी...कुरुक्षेत्र में कुन्ती के विलाप जैसी...न कह पाने की विवशता...न खुद को बदल पाने का हौसला, जिन्दगी अाखिर किस शय का नाम है?

कर्ण को मिले शाप जैसी, ऐन वक्त पर भूले हुये ब्रम्हास्त्र जैसी...क्या खो गया है अाखिर कि तलाश में इतना भटक रही हूँ...क्या चाहिये अाखिर? ये उम्र तो सवाल पूछने की नहीं रही...मेरे पास कुछ तो जवाब होने चाहिये जिन्दगी के...धोखा सा लगता है...जैसे तीर धँसा हो कोई...अाखिर जिये जाने का सबब कुछ तो हो!
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क्या चाहिये होता है खुश रहने के लिये? कौन सा बैंक होता है जहाँ सारी खुशियों का डिपॉजिट होता है? मेरे अकाउंट में कुछ लोग पेन्डिंग पड़े हैं। उनका क्या करूँ समझ नहीं अाता...अरसा पहले उनके बिना जिन्दगी अधूरी थी...अरसा बाद, उनके बिना मैं अधूरी हूँ...किसी खाके में फिट कर सकती तो कितना अच्छा होता...दोस्त, महबूब, दुश्मन सही...कोई नाम तो होता रिश्ते का।
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ऐसा नहीं है कि मैं नहीं जानती कि एक दूसरे के बिना हम जी लेंगे, बस इतना भर लगता था कि एक झगड़े में पूरी उम्र बात न करने जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिये। खुश होगे तुम, कि तुम्हें खुश रहने का हुनर अाता है, बस इतना जानना था कि कभी तन्हा बैठे हुये मेरी याद तुम्हें भी अाती है क्या?

मैं अब भी खुद को नहीं जानती...कितना कुछ समझना अब भी बाकी है। अफसोस ये है कि मै कोई अौर होना चाहती हूँ, बेहतर कोई...जिसे रिश्तों की, जिन्दगी की ज्यादा समझ हो। खुद को माफ कर पाना अासान नहीं लगता। अब कोरी स्लेट नहीं मिल सकती जिसपर फिर से लिखा जाये सब कुछ।
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कुछ खत रखे हैं, ताखे पर। उन्हें भेज दूँ। बहीखाता जिन्दगी का बंद करने के पहले कुछ उधार चुका दूँ लोगों का बकाया। निगेटिव होती जा रही हूं, अपनी मुस्कान भूल अायी हूँ कहीं। सब उल्टा पुल्टा है। खुशी अंदर से अाती है। बस इस अंधेरे का कुछ करना होगा। 

08 December, 2013

एकांत मृत्यु


कैसा होता है...बिना खिड़की के कमरे में रहना...बिना दस्तक के इंतजार में...चुप चाप मर जाना. बिना किसी से कुछ कहे...बिना किसी से कुछ माँगे...जिन्दगी से कोई शिकवा किये बगैर. कैसे होते हैं अकेले मर जाने वाले लोग? मेरे तुम्हारे जैसे ही होते हैं कि कुछ अलग होते हैं?

अभागा क्यूँ कहती थी तुम्हें मेरी माँ? तुम्हारे किस दुख की थाती वो अपने अंदर जिये जाती थी? छीज छीज पूरा गाँव डूबने को आया, एक तुम हो कि तुम्हें किसी से मतलब ही नहीं. मुझे भी क्या कौतुक सूझा होगा कि तुमसे दिल लगा बैठी. देर रात नीलकंठ की परछाई देखी है. आँखों के समंदर में भूकंप आया है. कोई नया देश उगेगा अब, जिसमें मुझ जैसे निष्कासित लोगों के लिये जगह होगी. 

रूह एक यातना शिविर है जिसमें अतीत के दिनों को जबरन कैदी बना कर रखा गया है. ये दिन कहीं और जाना चाहते हैं मगर पहरा बहुत कड़ा है, भागने का कोई रास्ता भी मालूम नहीं. जिस्म का संतरी बड़ा सख्तजान है. उसकी नजर बचा कर एक सुरंग खोदी गयी कि दुनिया से मदद माँगी जा सके, कुछ खत बहाये गये नदी किनारे नावों पर. दुनिया मगर अंधी और बहरी होने का नाटक करती रही कि उसमें बड़ा सुकून था. सब कुछ 'सत्य' के लिये नहीं किया जा सकता, कुछ पागलपन महज स्वार्थ के लिये भी करने चाहिये. 

मैं उस अाग की तलाश में हूँ जो मुझे जला कर राख कर सके. कुछ दिनों से ऐसा ही कुछ धधक रहा है मेरे अंदर. जैसे कुछ लोगों की इच्छा होती है कि मरने के बाद उनकी अस्थियाँ समंदर में बहा दी जायें ताकि जाने के बरसों बाद भी उनका कुछ कण कण में रहे. मैं जीते जी ऐसे ही खुद को रख रही हूँ...अनगिन कहानियों में अपनी जिन्दगी का कुछ...कण कण भर.

वैराग में दर्द नहीं होना चाहिये. मन कैसे जाने फर्क? वसंत का भी रंग केसर, बैराग का भी रंग भगवा. पी की रट करता मन कैसे गाये राग मल्हार? बहेलिया समझता है चिड़ियों की भाषा...कभी कभी उसके प्राण में बस जाती है एक गूंगी चिड़िया, उसके अबोले गीत का प्रतिशोध होता है अनेक चिड़ियों का खुला अासमान. एक दिन बहेलिये के सपने में आती है वही उदास चिड़िया अौर गाती है मृत्युगीत. फुदकती हुयी अाती है पिंजरे के अन्दर अौर बंद कर लेती है साँकल. बहेलिये की अात्मा मुक्त होती है अौर उड़ती है अासमान से ऊँचा. 

दुअाअों की फसल उगाने वाला वह दुनिया का अाखिरी गाँव था. बाकी गाँवों के बाशिन्दे अगवा हो गये थे अौर गाँव उजाड़...अहसानफ़रामोश दुनिया ने न सिर्फ उनकी रोजी छीनी थी, बल्कि उनके अात्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा दीं थीं. गाँव की मुद्रा 'शुकराना' थी, कुबुल हुयी दुअा अपने हिस्से के शुकराने लाती थी, फिर हफ्तों दावतें चलतीं. मगर ये सब बहुत पुरानी बात है, अाजकल अालम ये है कि बच्चों की दुअाअों पर भी टैक्स लगने लगा है. फैशन में अाजकल बल्क दुअायें हैं...लम्हा लम्हा किसी के खून पसीने से सींचे गये दुअाअों की कद्र अब कहाँ. कल बुलडोजर चलाने के बाद जमीन समतल कर दी गयी. खबर बाहर गयी तो दंगे भड़क गये. हर ईश्वर उस जगह ही अपना अॉफिस खोलना चाहता है. गाँव के लोग जिस रिफ्यूजी कैम्प में बसाये गये थे वहाँ जहरीला खाना खाने के कारण पूरे गाँव की मृत्यु हो गयी. मुअावज़े की रकम के लिये दावेदारी का मुकदमा जारी है. 

खूबसूरत होना एक श्राप है. इस सलीब पर अाप उम्र भर टाँगे जायेंगे. अापकी हर चीज़ को शक के नज़रिये से देखा जायेगा...अापके ख़्वाबों पर दुनिया भर की सेन्सरशिप लगेगी. अापको अपनी खूबसूरती से डर लगेगा. ईश्क अापको बार बार ठगेगा और सारे इल्ज़ाम अापके सर होंगे. इस सब के बावजूद कहीं, कोई एक लड़की होगी जो हर रोज़ अाइना देखेगी और कहेगी, दुनिया इसी काबिल है कि ठोकरों मे रखी जाये. 

एक जिन्दगी होगी, बेहद अजीब तरीके से उलझी हुयी, मगर चाँद होगा, लॉन्ग ड्राइव्स होंगी...थोड़ा सा मर कर बहुत सा जीना होगा. कर तो लोगी ना इतना?

01 December, 2013

तितलियों का राग वसंत

टेक १: इनडोर. कमरा
वो नीले रंग में उँगलियाँ डुबाती है...एक पूरा का पूरा ओर्केस्ट्रा बज उठता है...लड़की घबरा उठती है और उँगलियों की अचानक हुयी हरकत से पेंट की शीशी नीचे गिर कर टूट जाती है...टूटने की कोई आवाज़ नहीं होती. यादों का एक अंधड़ आता है और उसे किसी बेहद पुराने समय में खींच कर ले जाता है...एक महीने की बच्ची के पालने पर एक नीले रंग का खिलौना झूल रहा है. उसकी माँ नीले रंग के दुपट्टे में उसे देख रही है और एक गीत गा रही है...रिकोर्ड प्लेयर पर क्लासिक एलपी बज रहा है...ला वि एन रोज...

बहुत दिन बाद उसे ला वि एन रोज का मतलब पता चलता है...गुलाबी रंग की दुनिया या ऐसा कुछ...मगर इस गाने को सुनती है तो उसकी आँखों में एक नीला आसमान ही खुलता है...परदे दर परदे हटा कर.

उस लड़की को रंग सुनाई देते हैं...
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जिंदगी से संगीत चले जाने पर एक बेहद बड़ी जगह खाली हो गयी थी...उसके डॉक्टर ने उसे बताया कि उसे शायद खुद को एक्सप्रेस करने के लिए किसी और माध्यम का इस्तेमाल करना चाहिए...बचपन से उसकी पेंटिंग सीखने की दिली तमन्ना भी थी...तो आज वो एजल लेकर आई थी और ऐसे ही बेखयाली में नीली रंग की शीशी में हलके से ऊँगली को डुबोया था.

उसे कोई भी आवाज़ सुने महीनों बीत गए थे...उसे कभी कभी लगता था कि इतनी खामोशी है कि वो पागल हो जायेगी.

शुरुआत सिर्फ रंगों और पुरानी यादों से हुयी फिर उसे डॉक्टर ने कुछ और केसेज के बारे में बताया...जहाँ पूर्णतः या आंशिक बहरे लोग चीज़ों को छू कर सुन सकते थे...सुनना वैसे भी कंपन का एक दिमागी इन्तेर्प्रेटेशन ही होता है...

वो छू कर सुन सकती है...
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टेक २: आउटडोर, बारिश

खिड़की से बाहर बारिश हो रही है...लड़की चुपचाप देख रही है...लड़की बाहर निकलती है बारिश में...पोर्टिको से जरा सा हाथ बाहर निकाला है. गुदगुदी होती है और सरगम दौड़ जाती है पानी की बूंदों में...रे ग म प ग रे सा नी...कौन सा राग था? नी-इ-र भ-र-न कैसे जा-आ-ऊँ सखी री...डगर चलत छेड़े...श्याम सखी री...वो प्यासी पानी में खोये सुरों की तलाश में निकली थी. उसने हलके नीले रंग की टीशर्ट पहनी थी और काली चेक के शॉर्ट्स. ये उसका सबसे पसंदीदा नाईटवियर था. उसने छोटे छोटे कदम लिए और बाँहें फैला कर बारिश में खड़ी हो गयी. वो वाद्ययंत्र थी...वायलिन के तार सी खिंची हुयी...बारिश की हर बूँद एक नया सुर उत्पन्न कर रही थी उसमें. संगीत कहीं बाहर नहीं...उसके अंदर था...उसके कण कण से फूटता हुआ. वो देर तक बारिश में भीगती हुए इस नए राग को अपने अन्दर सकेरती रही.

उसे सुनने के लिए चीज़ों को छूना पड़ता इसलिए संगीत सीखना उसके लिए बेहद मुश्किल होने वाला था मगर उसकी जिद अभी भी गयी नहीं थी. उसने कई लोगों से बात कर कर फाइनली अपना टीचर पसंद किया. उसके जैसा ही था वो भी. या उससे ज्यादा सिरफिरा और पागल मगर उसकी उँगलियाँ गिटार पर ऐसे भागती थीं जितनी तेज़ तो बारिश भी नहीं होती. लड़की दिन दिन भर उसे सुनते रहती. रात रात भर प्रैक्टिस करती. उसकी दुनिया में किसी और चीज़ की जरूरत नहीं थी.

फिर एक रात उसे नीले रंग के सपने आये. पेरिस की सड़कों पर नीले गुलाब की पंखुडियां बिखरी हुयी थीं और उसके चाहने वालों को दो तरफ से पुलिस ने रोके रखा था. वो तेज़ी से सड़कों पर भागी जा रही थी. उस रात पहली बार एक कंसर्ट करने की ख्वाहिश ने उसके अन्दर जन्म लिया.

टेक ३: आउटडोर, कंसर्ट, पागल होते लोग, बहुत सा शोर और फिर...म्यूट.
घंटों बारिश होती रही थी मगर इंतज़ार करते लोग टस से मस नहीं हुए थे. उसने सब कुछ काले रंग का पहन रखा था. सिर्फ गले में एक स्कार्फ के सिवा. (फ्लैशबैक) उसे आज भी वो दिन याद है...देर रात तक वो प्रैक्टिस करती रही थी. अगली सुबह वो ऐसी बेसुध थी कि महसूस भी न कर पायी कि घर का दरवाज़ा खुला है और कोई अन्दर आया है. उँगलियाँ लहूलुहान हो गयी थीं. उसे बारिश के शोर को संगीत में उतारना था. उसने कुछ नहीं कहा...उसकी उँगलियाँ चूमीं और गले से स्कार्फ उतार कर उसके हथेली पर लपेट दिया. फिर अपने साथ खींच कर ड्राइव पर ले गया था. उसके घर पर जाने के लिए एक लकड़ी का पुल था...पुल पर दौड़ते हुए बिल्ली और कुत्ते के बच्चे. लड़की नहीं जानती थी कि वो उसे अपने घर क्यूँ ले गया था. उस स्कार्फ को गले में बांधते हुए उसे लगा था वो दुनिया में अकेली नहीं है. कंसर्ट पर जाने के पहले उसने खुद को आदमकद आईने में देखा. ऊपर से नीचे तक ब्लैक और गले में लिपटा गहरा लाल स्कार्फ...जैसे वो कान में धीरे से कह जाए...आई लव यू.

बहुत देर तक लोग उसे सांस थामे सुनते रहते...आखिरी गीत में उसने लोगों के बीच खुद को छोड़ दिया...वो हवा में थी...उसका पूरा बदन हवा में...उसके चाहने वालों ने उसे हाथों हाथ उठा रखा था. ऐसा कौन नहीं था जिसने उसे छुआ न हो...हर आत्मा का अलग शब्द था...राग था...कंसर्ट ख़त्म होते हुए वो सिम्फनी हो गयी थी.

डॉक्टर कहता था वो सुन नहीं सकती थी...दुनिया के डिफिनेशन के हिसाब से वो सुन नहीं सकती थी...मगर कहीं कोई खुदा था जिसने उसके हिस्से इतना सारा संगीत लिख रखा था कि वो बारिश सुनती थी, लहरें सुनती थी, धूप सुनती थी, पागलपन सुनती थी...मौसम सुनती थी, तितलियों का वसंत राग सुनती थी...विन्सेंट की स्टारी नाईट सुनती थी...वो इतना कुछ सुनती थी कि कोई और सुन नहीं पाता था. उसने ही एक दिन मेरी नब्ज़ सुनी और मुझे बताया कि मेरा दिल हर तीन सौ पैंसठ बार धड़कने के बाद एक चुप साधता है. दिल को कमबख्त साल और दिन में अंतर नहीं मालूम न. उसे लगता है इतनी सी धड़कनों बाद तुम्हारा फोन आएगा...वो जो तुम मेरे बर्थडे पर करते हो.

मैंने फिलहाल उसे फुसला दिया है कि उसकी भी मैथ मेरे जैसी ख़राब होगी...ऐसा कोई नहीं जिसे मैं इतना याद करूँ. अच्छा हुआ उसने नब्ज़ पर ही हाथ रखी थी...जो दिल पर रखती तो तुम्हारा नाम जान जाती. अभी अभी उसे फ्लाईट पर चढ़ा कर आई हूँ. ड्राइव करते हुए तुम्हें ही सोचती रही. रात बहुत हुयी...हिचकियों से तुम्हारी नींद खुली हो तो माफ़ करना. 

29 November, 2013

सियाही का रंग सियाह

उसे उदास होने का शौक लगा रहता...वो देखती साथ की दोस्तों को उदास आहें भरते हुए...गम में शाम की उदासी का जिक्र करते हुए...धूप में बादल को तलाशते और बारिश वाले दिनों में सूरज की गर्मी ढूंढते हुए. उसकी बड़ी इच्छा होती कि वो भी किसी के प्यार में उदास हो जाए...कोई उससे दूर रहे और वो उसकी याद में कवितायें लिखे लेकिन उसके साथ ऐसा होता नहीं. उसे किसी से प्यार होता तो वो उसे अपने दिल में बहुत सी जगह खाली कर के परमानेंट बसा लेती...फिर उसे कभी उस ख़ास को 'मिस' करने का मौका नहीं मिलता.

उसके इर्द गिर्द बहुत सुख थे इसलिए वो दुःख के पीछे मरीचिका सी भागती...उसे दुःख में होना बहुत ग्लैमरस लगता. इमेज कोई ऐसी उभरती कि करीने से लगा मस्कारा थोड़ा थोड़ा बह गया है...काजल की महीन रेखा भी थोड़ी डगमगा रही है कि जैसे हलके नशे में काजल लगाया गया हो. चेहरे पर के मेक-अप की परतों में रात को नहीं सोने वाले काले गड्ढे ढक दिए गए हैं...कंसीलर से छुपा लिया है टेंशन के कारण उगे मुहांसों को भी...और इतने पर भी अगर कमी बाकी रह गयी तो एक बड़ा सा काला चश्मा चढ़ा लिया कि कुछ दिखे ही ना. फीके रंग के कपड़े पहनना कि आसपास आती रौशनी भी उदास दिखे. चटख रंग के कपड़े उदासी को पास नहीं फटकने देते. 
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तारीखों का चकमक पत्थर है, घिसती हूँ तो कुछ चिंगारियां छूटती हैं...हाथ छुड़ा के भागती है कोई लड़की दुनिया की भीड़ में कि उसे मालूम है कि जब जंगल में आग लगती है तो किसी मौसम से कोई फर्क नहीं पड़ता. उसने भारी बरसातों में जंगल जलते देखे हैं...धुआं इतना गहरा होता है कि देख कर मालूम करना मुश्किल होता है कि आसमान का काला रंग जंगल से उठ रहा है या जंगल का सियाह रंग बादलों से बरस रहा है.
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कि उसकी उँगलियों से स्याही और सिगरेट की गंध आती थी. उसके लिए सिगरेट कलम थी...सोच धुआं. बारिश का शोर टीन के टप्पर पर जिस रफ़्तार से बजता था उसी रफ़्तार से उसकी उँगलियाँ कीबोर्ड पर भागती थीं. उसके शहर में आई बारिशें भी पलाश के पेड़ों पर लगी आग को बुझा नहीं पाती थीं. भीगे अंगारे सड़क किनारे बहती नदियों में जान देने को बरसते रहते थे मगर धरती का ताप कम नहीं होता था.

तेज़ बरसातों में सिगरेट जलाने का हुनर कई दिनों में आया था उसे. लिखते हुए अक्सर अपनी उँगलियों में जाने किसकी गंध तलाशती रहती थी. उसकी कहानियां बरसाती नदियों जैसी प्यासी हुआ करती थीं.
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एक लड़की थी...बहुत दिनों से कहानी लिखने की कोशिश कर रही थी पर उसके किरदार पूरी जिंदगी जीने के पहले ही कहानी के पन्नों से उठ कर कहीं चले जाते थे. उसे लिखते हुए कभी मालूम नहीं होता किस किरदार की उम्र कितनी होगी. वो हर बार बस इतना ही चाहती कि कहानी का अंत कम से कम उसे मालूम हो जाए मगर उसके किरदार बड़े जिद्दी थे...अपनी मनमर्जी से आते थे अपने मनमाफिक काम करते थे और जब उनका मूड होता या जब वे बोर हो जाते, लड़की से अलविदा कहे बिना भी चले जाते. यूँ गलती तो लड़की की ही थी कि वो ऐसे किरदार बनाती ही क्यूँ थी...मगर बहुत सी चीज़ों पर आपका हक नहीं होता...वो आपके होते हुए भी पराये होते हैं.
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मेरी उँगलियों में तुम्हारी सिगरेट की गंध बसी हुयी है, मेरी शामों में तुम्हारा रूठ कर जाना...मेरी बरसातों में हरा दुपट्टा ओढ़े एक लड़की भीगती है...ठंढ की रातों में मुंह से सफ़ेद धुआं निकलता है तो स्कूल ड्रेस के लाल कार्डिगन की याद आती है. मौसमों के पागल हो जाने के दिन हैं और मैं पूरे पूरे दिन भीगते हुए गाने सुनना चाहती हूँ.

मैं समंदर में एक कश्ती डाल देना चाहती हूँ...मैं तूफ़ान की ओर बढ़ती हूँ और तूफ़ान कदम समेटता है...मैं देखती हूँ उस लड़की को जो मुझसे एकदम अलग है...मुझे उस लड़की से डर लगता है...उस लड़की से किसी को भी डर लगता है. वो जाने किस नींद से जागने लगी है...वो लड़की कितनी गहरी है कि प्यार का एक बूँद  भी नहीं छलकता उसकी अंजुरी से...उस लड़की में कितना अंधकार है कि हर रौशनी से दूर भागती है. वो कितनी डिसट्रक्टिव है...उसमें कितना ज्यादा गुस्सा है. मैं उसकी इच्छाशक्ति को देखती हूँ तो थरथराती हूँ. देखती हूँ कि दुर्गा अवतार से काली बनना बहुत मुश्किल नहीं होता.

तांडव करते हुए सबसे पहले जो टूटता है वो अभिमान है...

28 November, 2013

नीले कोट की सर्दियाँ कब आएँगी?

कभी कभी लगता है सब एकदम खाली है. निर्वात है. कुछ ऐसा कि अपने अन्दर खींचता है, तोड़ डालने के लिए. और फिर ऐसे दिन आते हैं जैसे आज है कि लगता है लबालब भरा प्याला है. आँख में आंसू ऐसे ही ठहरे रहते हैं कोर पर और खूब खूब सारा रो लेने को जी चाहता है. मन भरा भरा सा लगता है. कुछ ऐसा कि लगता है विस्फोट हो जाएगा. जगह नहीं है इतने कुछ की.

बहुत शिद्दत से एक सिगरेट की तलब महसूस होती है. पैकेट निकाल कर सामने रखा है. इसमें ज़िप लॉक टेक्नोलॉजी है कि जिससे सिगरेट हमेशा फ्रेश रहे. मालूम नहीं कितनी असरदार है तकनीक. एक सिगरेट निकाल कर खुशबू महसूस करती हूँ उसकी. अच्छी ही लगती है. याद नहीं ये वाला पैकेट कितने दिन पहले ख़रीदा था. सिगरेट के पैकेट पर कभी एक्सपायरी डेट दिखी हो ऐसा याद नहीं. हाँ मेरी एक्सपायरी डेट जरूर लिखी दिखती है. स्मोकिंग सीरियसली हार्म्स यू एंड अदर्स अराउंड यू. इसलिए अगर पीना है तो ऑफिस से बाहर सड़क पर टहलते हुए पीनी पड़ेगी. टहलने लायक एनर्जी है ऐसा महसूस नहीं हो रहा है मुझे. सोच रही हूँ किसी से पूछूं, अगर कोई एकदम ही रैंडम में सिगरेट पीता है, जैसे कि साल के ऐसे किसी दिन तो भी उसके कैंसर से मरने के चांसेस रहते हैं. गूगल कुछ नहीं बताता.

Right now i'd give anything for just the right to smoke here, right at my table...but well...there are the rules.

उदासियाँ अकेले नहीं आतीं, अपने साथ मौसम का मिजाज भी लाती है, गहरा सलेटी...जिसमें धूप नहीं उगती. कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा. आज खाना भी ठीक से नहीं खाया. सुबह कुक देर से आई. उसके आते आते बिना ब्रेकफास्ट किये ऑफिस जाने का मूड हो चुका था. कभी कभी लगता है कि भूख कोई चीज़ नहीं होती है. मूड ख़राब हो तो अच्छा खाना भी खाया नहीं जाता और गंध से ही उबकाई आती है. सुबह कुछ काम करना था, मेल्स वगैरह. थोड़ा और काम.

लंच कोई तरह से अन्दर धकेला...कि खा लेना जरूरी है समय पर. फिलहाल उदासी एकदम गहरी नदी की तरह है और उबरने का कोई तरीका नहीं दिख रहा. न कुछ पढ़ने का दिल कर रहा है न लिखने का. फिल्म देखने का भी कोई असर नहीं. अन्दर अन्दर भीगना और रिसना जैसा कुछ. जैसे सारी दीवारें सीली हैं और छूने से डर लगता है. एक कहानी लौट लौट कर याद आ रही है आदमखोर इमारतों में बंद रूहों को आज़ाद कर दो. लगता है वैसे ही किसी अस्पताल के कमरे में भर्ती हूँ सदियों से. न कोई मिलने वाला आया है, न डॉक्टर इलाज की कोई आखिरी तरीख बताते हैं.

मर जाने के सारे तरीके बेअसर साबित हुए हैं. इतना थका हुआ सा लगता है कि मर जाने की भी सारी प्लानिंग करनी मुश्किल लग रही है. उस रास्ते पर जाने के लिए बहुत टेक्नीकल होना पड़ता है. बहुत सी और चीज़ें सोचनी पड़ती हैं. अभी सिर्फ और सिर्फ उसकी याद आ रही है. एक वो ही थी न जिसको दिन में कभी भी फ़ोन करो समझ जाती थी कि सब ठीक नहीं है. उसके बिना जीने की आदत क्यूँ नहीं लगती. छः साल हो गए उसे गए हुए. अब भी ऐसे किसी दिन उसे खोजना बंद क्यूँ नहीं करती. कितना भागती हूँ उससे. उसकी कहीं फोटो नहीं रखी है फिर भी खुले आसमान के नीचे खड़े होने पर लगता है, वो है कहीं. देख रही है हमको.

१८ घंटे लगातार काम करने की कैपेसिटी नहीं है मेरी. थक जाती हूँ. सीढियां चढ़ती उतरती भागती. खाने का होश नहीं. कभी कभी कुक के नहीं आने से बहुत इरीटेशन होती है. मैं बिना खाए रह भी जाऊं...कुणाल के लिए घर का खाना नहीं होता है तो इतनी गिल्ट फीलिंग होती है कि समझ नहीं आता क्या करूँ. कल रात भी बाहर खाया है. मुझसे घर सम्हालता क्यूँ नहीं. आज उन सारी लड़कियों से बड़ी जलन होती है तो तरतीब से सजाया हुआ घर रख लेती हैं. पति का ख्याल रखती हैं. बच्चे बड़े करती हैं. मैं कुछ तो नहीं करती ख़ास. एक लिखने के अलावा मेरा और किसी काम में मन भी तो नहीं लगता.

लॉन्ग हॉलिडे...मेंटल पीस के लिए. हफ्ते भर. महीने भर. साल भर. जिंदगी भर. समंदर किनारे लेटे रहे गीली रेत पर. मुझसे और कुछ होता क्यूँ नहीं. आज लिरिक्स भी लिखने हैं. थक गयी हूँ. कन्धों में दर्द हो रहा है. सर में दर्द. दो दिन से घर का बना खाना नहीं खाया है. मैं बाकी लोगों की तरह मैनेज क्यूँ नहीं कर पाती? कैसे कर लेता है कोई, घर ऑफिस सब कुछ अच्छे से. मैं कहाँ फंस जाती हूँ. मौका मिलते लिखने लगती हूँ...अभी कायदे से इस वक़्त मुझे नहा कर तैयार होना चाहिए. आज एक जरूरी मीटिंग है. थोड़ा अपनी शक्ल पर ध्यान दूँगी तो बुरा नहीं होगा किसी का. पर मुझे फिलहाल यही सोच के सर दर्द है कि कौन से कपड़े आयरन करूँ. पीच कलर की एक शर्ट है. वही पहनती हूँ.

दिमाग बर्रे का छत्ता बना हुआ है. सिगरेट. कहाँ है सिगरेट. मैं एडिक्ट की तरह बात करती हूँ, जबकि मेरा पैकेट हमेशा कोई और ख़त्म करता है. आखिरी सिगरेट किस जन्म में पी थी याद नहीं मगर बैग में चाहिए जरूर. ब्रांड को लेकर ऐसी जिद्दी कि और कुछ नहीं पी सकती. मेरा दिमाग ख़राब है. उफफ्फ्फ्फ़....कोई लाओ रे कहीं का मौसम...कहीं की बारिश...कोलेज का बेफिकरपन...मम्मी की डांट...दोस्तों से झगड़ा...जीने के लिए जरूरत है एक अदद खुद की. किसी डब्बी में बंद करके भूल गयी हूँ. घर की भूलभुलैय्या की चाबी कहाँ गयी? 

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