03 May, 2013

सिगरेट सी तुम्हारी उँगलियों के/ फीके बोसे हम चखेंगे

We are the people in search of a 'Refuge'. That eternal dwelling place where we find peace.
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हम पनाह तलाशते हुए लोग हैं.

खानाबदोश...हम किसी ज़मीन के अहसानमंद नहीं. हम प्यासे, पानी की खोज में जमीनों को मारे मारे फिरते लोग हैं.

हमारी मुट्ठियों में बस पानी की मरीचिका है. हम बेदखल किये लोग हैं. अपनी जमीनों से बेदखल, हम दुनिया में एक ठिकाना तलाशते हैं. हमारे हिस्से की ज़मीनों पर उग आये कारखाने, हमारे हिस्से की ज़मीन धंस गयी खदानों में. कोलियरी के काले चूरे में खोये हुए हम बदकिस्मत नहीं...बे-किस्मत लोग हैं. अपनी ही ज़मीं पर बेगारी खटते, अपने खोये हुए जंगल से निकले हम बंजारे लोग हैं. हमारे साथ ही खो जाएगा संथाल प्रदेश का सारा सौन्दर्य...हमारी औरतें भी सीख लेंगी करना पर्दा और हम भूल जायेंगे नृत्य की थाप. हम अपने आप को कहीं दिहाड़ी मजदूरी करते पायेंगे...हम बनायेंगे दूसरे शहरों में अट्टालिकाएं और भूल जायेंगे मिट्टी के घरों पर उकेरना ताड़ और बांस के पेड़.

हमारे हिस्से की मुहब्बत लिख दी गयी किसी और के नाम...हम कहाँ जी सके अपने हिस्से का हिज्र...हमने कहाँ की कभी अपने हिस्से की शिकायतें...न भेज ख़त हमें बेरहम...हमने कभी कासिद को अपना नाम भी कहाँ बताया...हम एकतरफा इश्क करने के तरफदार अपनी ही ख़ामोशी में घुटते गए...हमने कब कहा उनसे कि आपके बिना जी न सकेंगे.

हमारे हिस्से के बादलों ने अपना रंग बदल दिया...हमारे हिस्से की बारिश भटक कर पहुँच गयी चेरापूंजी...हम अपनी ज़मीं...अपनी मुहब्बत से उजाड़े हुए लोग हैं.

हम लुप्त होते लोग हैं. हाशिये पर धकेले हुए. हम अपने खुले आसमानों के कैदी हैं. हम अतीत के एक टुकड़े को फिर से जी लेने की जिजीविषा लिए हुए वर्त्तमान को नकारते लोग हैं.

किसको बुरी लगती है अपने गाँव की मिटटी? हम बहुत ऊंचा उड़ते हैं मगर लौट कर उसी छोटे से घर में जाना चाहते हैं. हम खुदा को मानने और नकारने के बीच झूलते हुए अपनी जिंदगी की अकेली लड़ाइयाँ लड़के हुए लोग हैं.

अपने हक को मांगने और छीनने के बीच की रस्साकशी में उलझे हम हालातों के मारे उलझे हुए लोग हैं. हम वो मज़ाक हैं जो संजीदगी से सुनाया जाता है...डार्क ह्यूमर रचते किसी डायरेक्टर की प्रेरणा हैं हम. जिंदगी हमें तमाशे की तरह बेचती है और लोग हमें मनोरंजन की तरह खरीदते हैं. दिल भर जाने पर ठुकराए हुए हम बनारसी साड़ी बुनने वाले जुलाहे हैं. हमारे काम की अब किसी को दरकार नहीं...हम शोपीस में रखे हुए सबसे खूबसूरत नमूने हैं जिन्हें बेचना अपराध है. हमारी कीमत इतनी ज्यादा है कि बेशकीमती हैं...कि हमें खरीदने को कोई तैयार नहीं...कि हमें खरीदने की किसी की औकात नहीं. एक मरते हुए शहर के लुप्त अजायबघर में रखे धूल खाते तेवर हैं हम...हमने कभी इसी तेवर से राज्य की चूलें हिला दीं थीं.

दिल, अमां कौन सा...ज़ख्म...कौन से? जो दिखता है वही बिकता है सरकार...कलेजे में कितना दर्द है कि कलेजा पत्थर है...अरे इस पत्थर से चिंगारियां क्यूँ नहीं निकलतीं. उम्र बीतने को आई, मगर ये कौन सा आक्रोश है कि अब भी आग लगा देने को उतारू है. काले चिथड़ों में लिपटा ये कौन सा आन्दोलन है...किसे फूँक देना चाहता है...उसने कहा था गंगा किनारे काली रेत पर मिलेगा वो...पूरनमासी की रात को. हम जागने के लिए आये हरकारे का इंतज़ार करते लोग हैं. हमारी सारी कोमल शिराएं झुलस गयी हैं. हम मुहब्बत से परे...नफरतों से बच कर चलते हुए लोग हैं.

हम भीड़ से भागते हुए भीड़ का हिस्सा बनते हैं...हम सुबह से शाम तक अनगिन चेहरे बदलते हैं. हम इश्क को शौक़ की तरह जीते, जिंदगी को विरक्त भाव से टालते, मुस्कुराने को तरसे हुए लोग हैं. हमें कोई भींच कर सीने से लगाए...हमें कोई समंदर में तैरना सिखाये...हमें कोई इश्क में डूबना सिखाये...हम इस आपाधापी वाली जिंदगी में खोये हुए लोग हैं. बेचैन. तन्हा. उदास.

सिगरेट की गंध में लिपटे/ फीके बोसे हम चखेंगे
माथे पे अमृतांजन के/ किस्से बहुत लिखेंगे
विस्की में जिंदगी है/ जब तक बची हुयी
तुम्हारे हैंगोवर से जानां/ वादा है न उबरेंगे 

01 May, 2013

स्लो मोशन राईटिंग



आजकल मुझे कोई स्क्रीन अच्छी नहीं लगती. घर आते ही लैपटॉप टीवी से कनेक्टेड और गाने चालू. स्क्रीन ऑफ. मोबाईल चार्जिंग पर. किचन में या तो खाना बनाती हूँ या रोकिंग चेयर पर झूलते हुए अख़बार या मैगजीन पढ़ती हूँ. चैन और सुकून लगता है. आज सुबह लैपटॉप खोला लेकिन फिर जैसे इरीटेशन होने लगी. लिख रही थी, सोचा अपलोड कर देती हूँ. कभी बाद में अपनी हैण्डराईटिंग देखूंगी इधर. कोपियाँ तो जाने कहाँ जायेंगी.
ये जो लिफाफा सा दिख रहा है, एक छोटा सा पाउच है, पेन रखने के लिए.
खास नहीं. बस. ऐसे ही. 

27 April, 2013

न लिखना, न पढ़ना, न फिल्में देखना

लिखना या तो मुश्किल होता है या तो एकदम आसान. मुझे मुश्किल से लिखना नहीं आता. कितनी बार होता है कि अन्दर बहुत कुछ उमड़ घुमड़ रहा है पर शब्दों का आकार नहीं लेता...तब एक चुभन सी होती रहती है. जैसे कोई कील चुभी हो पाँव में...सिर्फ चलते वक़्त टीसती है. 

किसी को पढ़ना उसकी आत्मा से बात करने जैसा है. लेखक जितनी ही बड़ी कल्पना की दुनिया रचता है, उतनी ही सच्चाई से अपने आप को उसमें लिखते जाता है. मुझे कम लोगों का लिखना पसंद आता है. जाने क्यूँ कि किसी का लिखा छू नहीं पाता है दिल को. कुछ मिसिंग सा लगता है, जैसे उसने कुछ लिखना चाहा है जिसमें मैं डूबना चाहती हूँ पर पानी इतना उथला है कि चाह कर भी खुद को पूरा खोना नहीं हो पाया. मुझे फंतासी अच्छी लगती है. किसी ऐसी दुनिया में खो जाना जहाँ कुछ भी सच्चा न हो आसान होता है. किसी को पढ़ना कहीं भाग जाने का रास्ता खोलता है, ये लिखते हुए ऐलिस इन वंडरलैंड याद आती है. 

इधर काफी दिनों से कुछ अच्छा नहीं पढ़ा...कुछ भी अच्छा नहीं. मुराकामी की नार्वेजियन वुड रखी हुयी है, एक पन्ना भी पढ़ने का मन नहीं किया है. अकिरा कुरासावा की जीवनी जो कि बड़े शौक़ से खरीदी थी, जब कि उतने ही पैसे थे जेब में. कर्ट कोबेन के जर्नल्स पढ़ती हूँ कभी कभार. हैरी पोटर नहीं पढ़ा बहुत साल से शायद. दुष्यंत कुमार...अब अच्छे नहीं लगते. अज्ञेय...कभी कभी थोड़ा सा पढ़ती हूँ. और कोई नाम याद नहीं आ रहा. फिलहाल कोई पूछे कि तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है तो तुम्हारे पसंदीदा लेखक कौन हैं तो मेरे पास कोई नाम नहीं होगा. मैंने आखिरी कोई किताब कब पढ़ी थी...1Q84, शायद साल होने को आया. मैं टुकड़े में पढ़ नहीं सकती और एक पूरा समय मेरे पास है नहीं. 

कभी कभी सोचती हूँ कि आज के दस साल बाद शायद इस ऑफिस में बिताये लगभग एक साल के समय को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगी. इस दौरान कितना कुछ खो गया मुझसे. मैंने लिखना बहुत कम कर दिया...मुझे सोचने का वक़्त ही नहीं मिलता. घर और ऑफिस के बीच भागती हुयी फुर्सत के लम्हों को ढूंढती रहती हूँ जब मैं कुछ सोच सकूं. इधर काम का प्रेशर भी इतना है कि अपने लिए वक़्त ही नहीं मिलता. इस पूरे हफ्ते मेरे पास कोई मेजर प्रोजेक्ट नहीं था. मेरे पास बहुत वक़्त था कुछ पढ़ने के लिए...कुछ लिखने के लिए मगर मैंने कुछ नहीं किया. लिखना भी एक आदत होती है जब आप चीज़ों को देखते हो और कुछ शब्दों में वे खुद ढलते चलते जाते हैं, लिखना हमेशा एफर्टलेस होता है, कोशिश करके लिखा नहीं जा सकता. 

कुछ फिल्में देखने की कोशिश की. कल दो फिल्में देखीं. इटरनल सनशाइन ऑफ़ दा स्पॉटलेस माइंड और आयरन मैं ३. दोनों फिल्मों ने मुझे निराश किया. आयरन मैन से तो मुझे बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं थी मगर इटरनल सनशाइन मैंने बहुत दिनों से टाल रखी थी...फुर्सत में देखने के लिए. उसका कांसेप्ट कितना अच्छा था...कहानी के साथ कितना कुछ अच्छा किया जा सकता था. फिल्म हड़बड़ी में बनायी गयी लगती है जैसे कोई डेडलाइन छूट रही हो. कांसेप्ट के साथ जो रोमांस शुरू होता है, जब धीमी आंच पर पकता है...बहुत वक़्त लगता है तब जा कर एसेंस कैप्चर हो पाता है. आजकल मुझे कहानियां भी उतना नहीं बांधतीं जितना कांसेप्ट बांधता है. शायद वोंग कार वाई की ज्यादा फिल्में देखने का असर है. इधर हाल में सोर्स कोड देखी थी...अच्छी लगी थी. 

कुछ पसंद करना मुश्किल क्यूँ होता जा रहा है. मैं क्या ओवेर्टली क्रिटिकल हो गयी हूँ चीज़ों के प्रति? नार्मल तरह से सोचूं तो मुझे आजकल कुछ अच्छा नहीं लगता, किसी चीज़ पर खुश नहीं होती. पहले चीज़ें अनकोम्प्लिकेटेड हुआ करती थीं. बारिशों में खुश, बहार में खुश, पतझड़ में खुश और जाड़ों में तो ख़ुशी से पागल. छोटी छोटी चीज़ों में खुश हो जाने वाली वो लड़की जाने कहाँ छुप गयी है. जिंदगी में एक लिखने के अलावा न कभी कुछ समझ में आया न कभी कुछ करने की कोशिश की. हर कुछ दिन में लेकिन जब ऐसा फेज आता है तो कुछ खुराफात मचती है. जैसे घर पेंट करने का मन करता है. खुद से ड्रिल करके घर में कुछ तसवीरें टांगने का मन करता है. बेसिकली कुछ ऐसा करने का मन जिसमें हाथ व्यस्त रहे...कलम से कुछ न लिखूं तो कुछ तो करूँ. इन फैक्ट खाना बनाना भी अच्छा लगता है. पर मम्मी वाला हाल है, नार्मल दाल चावल बनाने में अच्छा नहीं लगता. पास्ता, थाई ग्रीन करी, चाऊमिन जैसा कुछ बनाने का मन करता है. 

ये खुद को समझना कितना मुश्किल होता है. कोई किताब नहीं आती अपने ऊपर. क्या क्या करने का मन करता है...फिर से कहीं भाग जाने का मन करता है. समंदर किनारे खूब सारी रेत हो...लहरों पर रेस लगाऊं, साइकिल चलाऊं...कुछ करूँ...कुछ ऐसा जो करके सुकून मिले. बेसिकली खुद के होने को हमेशा वैलिडेट करने की जरूरत होती है. आखिर हम कर क्या रहे हैं...जिस दिन इसका जवाब नहीं मिलता जवाब ढूँढने की कवायद शुरू हो जाती है. 

कहानियों के किरदार कहीं चले गए हैं. कविताओं का राग भी. बस कुछ इने गिने शब्द हैं, इनका कोलाज है. मुझे एक लम्बी छुट्टी चाहिए. समंदर किनारे. तुम्हारे ही साथ कि अब तुम साथ नहीं होते तो सब अधूरा लगता है. भले ही तुम दूसरे वाले झूले पर अपने पसंद की किताब पढ़ते रहो और मैं अपनी. मगर एक लम्बी छुट्टी, सबसे दूर...फार फ्रॉम दा मैडिंग क्राउड. जिंदगी इतनी छोटी है वाकई कि मुझे लगती है!




How happy is the blameless vestal's lot!
The world forgetting, by the world forgot.
Eternal sunshine of the spotless mind!
Each pray'r accepted, and each wish resign'd.

20 April, 2013

जिला मासूमगंज, थाना मिसरपुर, गाँव पुरैनी

'सुनो, मेरे नाम जो ख़त लिखे थे, वो किसी लाल डब्बे में गिरा दो'
'क्यूँ?'
'ख़त लिख के नहीं गिराने से विद्या चली जाती है'
'कौन सी विद्या'
'चिट्ठी लिखने की'
'मुझे कौन सी चिट्ठी लिखनी आती है'
'वो मैं नहीं जानती, बस मेरे नाम की सारी चिट्ठियां किसी और को भेज दो'
'किसे भेज दूं?'
'किसी को भी भेज दो'
'और जो तुम्हारा नाम लिखा है, सब चिट्ठी के ऊपर सो? पीटेगी न कोई भी लड़की'
'मेरे नाम की एक ही लड़की को थोड़े जानते हो तुम'
'इतना प्यार मुहब्बत से लिखा हुआ चिट्ठी है, ऐरी गैरी किसी को भी कैसे भेज दें, उसको समझ में भी आएगा कुच्छो?'
'ऐसा कौन अजनास बात लिख दिए हो जो किसी को समझ नहीं आएगा, खुल्ला चिट्ठी है, और जो नहीं समझ में आये तो बैठ के समझा देना'
'इतना मेहनत जो करेंगे तो हमको क्या मिलेगा?'
'क्या चाहिए तुमको?'
'तुम'
'मेरा क्या करोगे?'
'बोतल वाला चिट्ठी में बंद करके समंदर में डाल देंगे'
'और जो हम किसी और को मिल गए तो?'
'जिसका किस्मत फूटा है उसको मिलेगा...हम पूरी दुनिया का ठेका लिए हैं'
'इतना है तो हमको इतना चिट्ठी काहे लिखे हो, और कोई काम नहीं था तुमको दुनिया में करने के लिए. इतना में कुछ लिख पढ़ जाते तो आज चार पैसा कमा लेने लायक हो जाते'
'चार पैसा कमाने लायक हो जायेंगे तो हमसे बियाह कर लोगी?'
'नहीं'
'काहे?'
'तुम खाली बोलते हो, तुमको कौनो काम धंधा में मन नहीं लगता है,  टिकुली के मामाजी अपना दूकान पर जो तुमको रखवाए थे, सो काहे भाग आये वहां से?'
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लड़के की आँखों के सामने वो भयानक दिन कौंध जाते हैं. एक बार खाना मिलता था, वो भी आधा पेट...उसपर धौंस और अहसान अलग से. चिलचिलाती लू में दिन भर बोरी उठा उठा कर गोदाम में रखना होता था. सेठ के पास कितना अनाज था, जौ, चना, मक्का, धान, गेहूं...रोज कमसे कम बीस बोरे वो अकेला गिन के उतारता था  लेकिन देने को जी जरा भी नहीं. खाने में एक मुट्ठी ज्यादा चावल मांग लो तो सेठानी का कलेजा फट जाता था. रात को मारे भूख के नींद नहीं आती थी...माँ की याद आती थी, गाँव की याद आती थी. स्कूल ड्रेस में तैयार हुयी तितली भी तो याद आती थी उसे. काजल लगी काली काली आँखें, कित्ती तो सुन्दर लगती थी. वहां दूर अबोहर में एक पल फुर्सत नहीं मिलता था. कभी कभार जो ट्रक आने में देर हो जाती थी तो भाग कर लंगर चला जाता था. वहां सफ़ेद चोगे में जो बाबाजी दिखते थे उनसे उसे अक्सर गाँव के मुखिया की याद आती थी. मुखिया की बेटी तितली. स्कूल में उसके साथ पढ़ती. उसके लिए टिफिन में आम की फांक वाला अचार रखती. उसकी उँगलियों से कैसी शुद्ध घी की खुशबू आती थी, तितली की माँ टिफिन में पराठे देती थी अक्सर. वो कभी कभी उसकी चोटी छू कर देखता था...उसके बाल कितने चिकने थे. स्कूल में सीडीपीओ वाली मैडम आयीं थीं...उनकी साड़ी कैसे फिसलती थी. सब बच्चों के कहा कि रेशम की साड़ी है. उसे रेशम नहीं मालूम था मगर तितली के बाल बहुत मुलायम लगते थे. तितली की माँ उसके बालों में हर रोज़ खूब सारा तेल चुपड़ कर भेजती थी. गुरुवार को जब तितली बाल धोती थी तो कैसे फर फर उड़ते थे उसके बाल. सबकी माँ कहती थी गुरुवार को बाल धोने से अच्छा पति मिलता है.

सेठ के यहाँ ऐसी नौबत आ गयी कि कुछ दिन और रुकता तो जान चली जाती...एक दिन हिम्मत करके वो वहां से भाग गया. एक ट्रेन से दूसरी ट्रेन होते हुए वो कितनी तो जगहें हो आया. देश के नक़्शे में देखते थे तो कहाँ समझ आता था कि देश कितना बड़ा है. पढ़ाई बचपन में छूट गयी थी. घर का खर्चा खाली बाबूजी के रिक्सा चलाने से पूरा नहीं पड़ता. उसे बहुत सारा काम आता था  और हाथ में बड़ी सफाई थी. जब उसे मालूम भी नहीं था कि देश कितना बड़ा है वो अनगिनत पैसेंजर गाड़ियों पर बैठ कर एक छोर तक पहुँच गया था. वहां उसने नारियल के रेशे से रस्सी बटाई करनी सीखी. वो नाव भी बहुत अच्छे से खे लेता था और अक्सर गाँव के छोटे मोटे काम कर देता था. कभी कोई खाना दे देता, कभी कोई छाछ पिला जाता. बहुत दिनों तक उसे यहाँ का खाना पचता नहीं था. बेहद खट्टा और अजीब. रोटी खाए बहुत दिन हो जाते. याद में रोटी पकने की गंध उठती और वो घर की याद में छटपटा जाता.

उसे कहाँ मालूम था कि देश कितना बड़ा है. उसे बस गाँव का नाम मालूम था. भटकते आया था तो वापसी का रास्ता मालूम भी नहीं था. देश का मानचित्र देख कर सोचता कि कहाँ गाँव होगा. गाँव की  याद में तितली की आँखें चमकती...उसका लाल रिबन, माथे पर छोटी सी बिंदी. वो सोचता कि इतने सालों में तितली जरूर कलक्टर बन गयी होगी. उसकी लाल बत्ती वाली गाड़ी घर के आगे आती होगी तो पूरा गाँव जुट जाता होगा. दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करता, पैसे जोड़ता कि तितली के लिए एक रेशम की साड़ी खरीद सके. सोचता कि उसके बच्चों के लिए कुछ खरीद लेना चाहिए. इतने सालों में तो तीन बच्चे तो हो ही गए होंगे. तितली के जैसे ही होंगे, सांवले, तीखे नाक नक्श वाले. तितली की बेटी होगी तो कैसी होगी...इतने सारे सवाल वो चिट्ठियों में लिखता जाता. दिन भर के बाद उसे जो वक़्त मिलता उसमे सिर्फ तितली को ख़त लिखता. उसे ख़त लिखने से उम्मीद बंधती थी कि एक दिन घर लौट के जाना होगा.

एक दिन एक स्कूल में उसे वही सीडीपीओ वाली मैडम दिख गयीं...वो स्कूल के बच्चों का खाना बना रहा था कि बचपन का सारा मंज़र आँख के सामने घूम गया. मैडम से उसे अपने घर का पूरा पता मिला. कभी कभी अजनबियों के ऊपर दूसरे जनम के अहसान होते हैं. मैडम पूरे देश का मुआयना करने निकली थीं. अगले दिन वापस जा रहीं थीं. उसी गाड़ी में उसे भी जगह मिल गयी. उसके हाथ के खाने की धूम मच गयी थी.

गाँव लौटते हुए महीना लग गया. मैडम जी ने उसे गाँव के स्कूल में ड्राइवर की नौकरी दिलाने की बात कर ली थी. स्कूल अब काफी बड़ा हो गया था और दूर दूर के बच्चे वहां पढ़ने आते थे. घर पहुंचा तो माँ उसे देख कर लगभग बेहोश हो गयी . इतने बरसों में सब उसे मरा हुआ ही मान चुके थे. दिन भर लोगों का तांता लगा रहा. रात को बात करते हुए माँ पूरी गाँव की खबर सुना रही थी. मुखिया जी का रांची में इलाज चल रहा था. तितली शादी के दो साल बाद विधवा हो गयी थी. सास ने मनहूस बोल कर उसे घर से बाहर कर दिया था. दो साल में एक भी बाल बच्चा नहीं था. कितने धूम धाम से मुखिया जी ने शादी की थी उसकी...पूरे सात कोस के गाँव तक को न्योता दिया था. जाने किसकी बुरी नज़र लग गयी बच्ची को.

तितली को देखा तो मन में ऐसी हूक उठी जैसे खुद के जिस्म का एक हिस्सा मर गया हो. चेहरे पर उजाड़ उदासी. तितली इतनी बेरहम भी हो सकती थी. छोटी छोटी चीज़ों के लिए बच्चों की खाल उधेड़ दिया करती. छड़ी बरसाना शुरू करती तो रूकती ही नहीं. बच्चे उससे सहमे सहमे रहते. आवाज़ ऐसी तीखी कि जैसे छाले पड़े हों. वो तितली को जानता था. ये उसका तरीका था अपने भीतर के दर्द को रोके रखने का...तितली को चोट लगती थी तो बाकी लड़कियों की तरह रोती नहीं थी...गुस्से में लाल हो जाती थी. उस बचपन में उसका गुस्सा ऐसा होता था कि जैसे तालाब सुखा डालेगी. अब मगर उदासी के साथ गुस्सा मिलता तो विद्रूप होता जाता. लड़का सोचता कि पहले वाली तितली कहाँ खो गयी...कहीं से चाबी मिले तो वो वापस से उसे ले कर आये.

वो रोज तितली से बात करता. शुरुआत के कुछ दिन तो बस ऐसे ही दिन भर के इधर उधर के किस्से, तितली भी बस बच्चों की कामचोरी की बात करती. उनके पढ़ने को लेकर चिंतित रहती. धीरे धीरे वे सांझतारे की बातें करने लगे. उम्र के इस पड़ाव पर क्या चाहिए होता है...लड़का अपने कच्चे घर में सुखी था. ड्राईवर की नौकरी से इतने पैसे हो जाते थे कि बरसात में छापर टाप सके. माँ की दवाइयां और एक वक़्त के लिए दूध खरीद सके. तितली मगर दुःख का अबडब करता कुआँ थी...जिंदगी को लेकर कोई बहुत बड़े सपने उसने भी नहीं देखे थे. कलक्टर बनने का सपना तो उसके बाबूजी का था...मगर जब उनके बचपन के दोस्त के तितली का हाथ अपने बेटे के लिए माँगा तो बाबूजी उसकी लाल चूनर में बस 'दूधो नहाओ पूतो फलो' का आशीर्वाद रख सके.

लड़का कभी कभी फुर्सत में होता तो तितली को अपनी पुरानी चिट्ठियां सुनाता. तितली ने इतना नेह देखा नहीं था. उसकी दुनिया में जताने वाले लोग नहीं थे. किसी को बिना मांगे इतना गहरा मन में बसा लेना कैसा तो होता होगा. बाबूजी ने अपने ख्वाब जैसे लड़के की आँखों में रोप दिए थे, वो हर रोज़ तितली को लाल बत्ती वाली गाड़ी का वास्ता देता...पढ़ने के लिए अख़बार ला देता. देश दुनिया की कहानियां सुनाता. तितली को उसकी आदत लगती जा रही थी. उसे अब कभी कभी पहले की तरह दो चोटियाँ गूंथ कर उनमें लाल रिबन लगाने का मन करता. साड़ी में गोटा लगाने का मन करता.
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ऐसे ही किसी दिन लड़के ने पूछ दिया था
'चार पैसा कमाने लायक हो जायेंगे तो हमसे बियाह कर लोगी?'

कोरी आँखों में सपने बहुत बड़े थे. तितली का कहना था दोनों मिल कर कलक्टरी की तैयारी करें. साथ पढ़ने से तैय्यारी अच्छी होती है. लड़के को बिलकुल भी यकीन नहीं था कि वो एक्जाम पास कर सकता है, किताबें देखे उसे बहुत साल हो गए थे. तितली जिद्दी थी लेकिन. रोज स्कूल ख़त्म होने के बाद दोनों साथ बैठ कर किसी भी क्लासरूम में पढ़ते रहते. उनके पढ़ने की खबर कुछ दूर गाँवों तक पहुंची और उनके जानने के पहले उनके साथ चार लोग और भी पढ़ने लगे थे. साल बीतते कुल जमा पच्चीस लड़के और लड़कियों उनके गाँव आ कर साथ में पढने लगे. कोई कोस्चन का जुगाड़ कर देता तो फिर देर रात सब उसका हल निकलने में लग जाते. कई बार तो भोर हो जाती. पूरा गाँव आस लगाए इन पच्चीस नौजवानों को देख रहा था कि गाँव का नाम पहले कौन रोशन करेगा.

उन्हें किसी चीज़ की हड़बड़ी नहीं थी...दो साल बीतते सबको यकीन था कि तैयारी अच्छे से हो गयी है. एक्जाम देने सब स्कूल की गाड़ी में बैठ कर गए. अकेला सपना अब साझा हो गया था. उनके पास हारने को कुछ था भी नहीं. रिजल्ट अख़बार छापाखाने से आउट हो गया...एरिया का रिपोर्टर रात के साढ़े बारह बजे तितली के घर का दरवाजा पीट रहा था. तितली एक्जाम टॉपर थी. साथ के सात लोगों का बेहद अच्छा रिजल्ट आया था. डिस्ट्रिक्ट में धूम मच गयी थी.

लड़का मंदिर में लड्डू चढ़ाने गया तो तितली भी साथ थी...अब तितली के हिसाब से चार पैसे कमाने लायक हो गया था वो. पंडित जी ने वसंत पंचमी का मुहूर्त निकाला था. पूरा गाँव उनके नाम से रोशन हो रहा था. तितली आखिरी चिट्ठी पढ़ रही थी 'प्यार को हम अक्सर कितना छोटा कर देते हैं...सिर्फ अपना दर्द देखते हैं...प्यार तो बहुत बड़ा होता है...आसमान से ऊंचा...समंदर से विशाल...प्यार तो जोड़ता है...प्रेरणा देता है...रास्ता दिखलाता है...जब हम किसी से प्यार करते हैं तो पूरी दुनिया इसकी परिधि में आ जाती है और हम कुछ अच्छा करना चाहते हैं, कुछ नया बनना चाहते हैं.'
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अनगिन रंग रुलाता, कितने बसंत खिलता, सावन पूर्णिमा को रक्षा का वचन निभाता...कैसा तो होता है प्यार...मुस्कुराता...फागुन में बौराता...समझाता...और अगर सच्चा हो...मन से कोरा तो प्यार समंदर की तरह विशाल होता है...उसमें से कभी कुछ घट नहीं सकता...लहरों के पास अनगिन सीपियाँ हैं...मोती हैं...कौड़ियाँ हैं...मर्जी कि इस किनारे से हम क्या वापस ले कर आते हैं.
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लड़के ने फिर सारी चिट्ठियां उस पते पर भेज दीं...मेरा गाँव भी पास ही है...सोच रही हूँ कब चली जाऊं डाकखाने.  कि उन चिट्ठियों का जवाब लिखने का दिल कर रहा है. 

16 April, 2013

गीले कैनवास पर लिखना तुम्हारा नाम

उसने कलाइयां पकड़ीं थीं...ठीक उसी जगह शिराओं में दिल के धड़कने की हरकत महसूस होती है...दिल हर धड़कन के साथ उसके नाम के अक्षरों को तोड़ रहा था. मैं जितना ही छुड़ाने की कोशिश करती उसकी उसकी उँगलियाँ और तीखेपन से धंसती जातीं...दिल की धड़कन रुकने लगी थी.

उस शाम अचानक से पूरी दुनिया के लोग चाँद की साइट्स का मुआयना करने चले गए थे, शायद इस शहर में हम दो लोग ही बचे थे. कमरे में एक ही स्पीकर था छोटा सा, वो मुझे एक इंस्ट्रुमेंटल पीस सुना रहा था. वो टुकड़ा कुछ ऐसा था कि आसपास की सारी चीज़ें विलय होने लगीं थीं. जैसे हम किसी गीले कैनवास का हिस्सा हों. संगीत में डूबते हुए हम स्पीकर की ओर झुकते चले गए थे, कि जैसे संगीत का एक भी नोट छूट न जाए. वो, मैं, शोपें...सब एक दूसरे में घुल रहे थे. वक़्त को बहुत सी फुर्सत थी उस रोज़.

इस सबके दरमियान एक हल्का सा दर्द संगीत में घुलने लगा. मुझे बहुत देर लगी ये पता करने में कि दर्द किस हिस्से में हो रहा है. वहाँ एक ऐसा तिलिस्म रच गया था जिसमें मैं कोई और हो चुकी थी. कलाई के पास रक्त का निर्वाह बाधित था. फिर से देखा तो पाया कि मेरी कलाई उसकी उँगलियों में लॉक है. इतनी देर में रंगों ने कुछ लकीरें इधर से उधर कर दीं थीं, मुझे मालूम नहीं चल रहा था कि मेरी कलाइयाँ कभी उसकी उँगलियों से जुदा थीं भी या नहीं. कि उसकी उँगलियों के पोरों में वाकई मेरा दिल धड़कता था.

ऐसा कभी नहीं हुआ है कि प्यार एक बिजली के स्विच की तरह औन हो जाए और मालूम चले कि ठीक इसी लम्हे प्यार हुआ है. प्यार एक लम्बा प्रोसेस है और ठीक ठीक किसी लम्हे पर ऊँगली रखना कभी मुमकिन नहीं होता. जिंदगी में मगर बहुत कुछ पहली बार होता है.

जैसे शीशे का दरक जाना...मालूम था कि कुछ भी पहले जैसा नहीं हो पायेगा...वो आखिरी बार था जब उसकी आँखों में देखा था तो तकलीफ की एक बिजली जैसी लकीर सीने को चाक करती नहीं गुजरी थी. उस वक़्त डांस करने का दिल किया था मगर रोक लिया खुद को. जैसे दिल को जाने कैसे उम्मीद थी कि अब भी शायद मुमकिन हो, शायद मैं यहाँ से लौट पाऊं...भूल जाऊं कि उससे प्यार हो गया है अचानक. उसे मालूम भी था...पर सोचती हूँ तो लगता था कि उसे मालूम था.

अंग्रेजी में माइक्रोकोस्म बोलते हैं इसे...दुनिया में एक बेहद छोटा हिस्सा लेकिन जो अपने आप में पूरा है. कुछ ऐसा जिस तक हम बार बार लौट कर जाते हैं. प्यार हर बार अलग अलग जिद लेकर आता है. उसे उतना सा भर मिल जाए तो आपको चैन से जीने देता है. कभी किसी की आवाज़ के एक टुकड़े के लिए हलकान कर देता है तो कभी किसी के हाथ से लिखे एक सिग्नेचर के लिए, कभी माथे पर एक छोटा सा चुम्बन, कभी किसी की खुशबू को बोतल में बंद करने की जिद बांधता है तो कभी सिर्फ एक बारिश वाली शाम को टहलने की गुज़ारिश करता है. उतना भर मिल जाता है तो हम उस अहसास से गुज़र पाते हैं. इस बार प्यार की जिद बहुत छोटी सी थी. बिछड़ने के पहले एक बार गले मिलना चाहता था इश्क. फिर इजाज़त दे देता उसे जाने की.

उसे मालूम थी ये बात...यूँ तो उसकी दुनिया में अनगिन लोग हैं मगर वो जाने क्यूँ मेरी इस बेतरतीब दुनिया में रहना चाहता था. वो जो सिर्फ अपनी माँ से बात करते हुए 'लव यू' कह कर फोन रखता था...वो जो सोचने के पहले बोलता था, सिवाए मुझसे बात करते हुए...मुझसे बात करते हुए जैसे हर बात को तोलता था. एक दिन फोन पर 'ओके लव यू, बाय' कह गया. मैं उस दिन शायद किसी रोड एक्सीडेंट में मर जाती...आँखों के सामने गुलाबी शामें खिल रही थीं...अमलतास लहक रहे थे...मैं सोचती रही पर पूछ नहीं पायी कि कितने लोगों को वो फोन पर लव यू कहता है.

उसका असाइंमेंट कुछ ही दिनों का था...अगला फेस्टिवल कवर करने के लिए वो क्यूबा के किसी छोटे से गाँव जा रहा था. उसकी फितरत थी, जाते हुए सबके गले लगा...कुछ ड्रामा किया...एक आधी बार आंसू भी बहाए. मुझे देखा, आधी नज़र...कैसा गया वो कि अभी तक ठहरा हुआ है. ऐसे जाना कोई मुझे भी सिखाये. बहरहाल. कुछ दिनों से किसी भी तरह का म्यूजिक नहीं सुन रही हूँ. कैसी भी कविता नहीं पढ़ रही हूँ. लिखने का मूड भी नहीं होता. सब ब्लैंक सा है. मेरा रचा हुआ किरदार है...पन्नों से निकल कर पूछता है...मुझे कब तक भूल पाओगी लड़की?

09 April, 2013

द हारमोनियम इन माय मेमोरी

हम अपने आप को बहुत से दराजों में फिक्स डिपाजिट कर देते हैं. वक़्त के साथ हमारा जो हिस्सा था वो और समृद्ध होता जाता है और जब डिपाजिट की अवधि पूर्ण होती है, हम कौतुहल और अचरज से भर जाते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा सहेज के रख पाए हैं. 

ऐसा एक फिक्स डिपोजिट मेरे हारमोनियम में है. छः साल के शाश्त्रीय संगीत के दौरान उस एक वाद्य यंत्र पर कितने गीतों और कितने झगड़ों का डिपोजिट है. आज सुबह से उस हारमोनियम की आवाज़ को मिस कर रही हूँ. हमारा पहला हारमोनियम चोरी हो गया था. शहर की फितरत, वहां चोर भी रसिक मिजाज होते हैं. दूसरा हारमोनियम जो लाया गया, कलकत्ते से लाया गया था. बहुत महंगा था क्योंकि उसके सारे कलपुर्जे पीतल के थे, उसमें जंग नहीं लगती और बहुत सालों तक चलता. उस वक़्त हमें मालूम नहीं था कि बहुत साल तक इसे बजाने वाला कोई नहीं होगा. उस वक़्त हम भाई बहन एक रियाज़ करने के लिए जान देते थे. 

हम उसे बहुत प्यार से छूते थे. नयी लकड़ी की पोलिश...चमड़े का उसका आगे का हवा भरने वाला हिस्सा...उसके सफ़ेद कीय्ज ऐसे दीखते थे जैसे बारीक संगेमरमर के बने हों. मैं अक्सर कन्फ्यूज होती थी कि वाकई संगेमरमर है क्या. उस वक़्त हमारी दुनिया छोटी थी और कोई चीज़ हो सकती है या नहीं हो सकती है, मालूम नहीं चलता था. हारमोनियम को गर्मी बहुत लगती थी तो गर्मियों में एक तौलिया भिगो कर, निचोड़ कर उसके ऊपर डाल देते थे और बक्सा बंद कर देते थे. कभी कभी ऐसा शाम को भी करते थे. 

गाना गाने को लेकर हमारी अलग बदमाशियां थी. राग देश में जो छोटा ख्याल सीखा था उसके बोल थे 'बादल रे, उमड़ घुमड़, बरसन लागे, बिजली चमक जिया डरावे'. मजेदार बात ये थी कि जून जुलाई के महीने में अक्सर छुट्टी में रियाज़ में यही राग गाती थी. अब बारिश होती थी तो अपने आप को तानसेन से कम नहीं समझती थी कि मेरे गाने के कारण ही बारिश हो रही है. जिमी ने संगीत सीखना मुझसे एक साल बाद शुरू किया था. वो छोटा सा था तो उसके हाथ हारमोनियम पर पूरे नहीं पड़ते थे. सर हम दोनों को अलग अलग ख्याल सिखाते थे. मैं हमेशा हल्ला करती थी कि सर जिमी को ज्यादा अच्छा वाला सिखाते हैं. राग देश में भी सर उसको कोई और छोटा ख्याल सिखाये कि उसका नाम बादल है न...बादल रे गायेगा तो अच्छा थोड़े लगेगा उसको. 

जिमी हमसे बहुत अच्छा गाता था बचपन में, एक्जाम देने जाते थे तो एक्जामिनर उससे प्यार कर बैठते थे. एक तो एकदम छोटा प्यारा और बहुत मासूम लगता था उसपर आवाज़ इतनी मीठी थी कि एक्जामिनर खुश होकर दो चार और राग सुनने के मूड में आ जाता, जिमी का और गाने का मूड नहीं होता लेकिन...एक तो हम लोग एक ही राग पूरा अच्छे से रियाज़ करके जाते थे, आलाप, ख्याल और तान के साथ. एक्जामिनर खुशामद करता, कोई भजन ही सुना दो...सर बोलते...अरे जिमी वो वाला सुना दो न जो अभी पिछले सन्डे सिखाये थे. जिमी गाता...एक्जामिनर सर या मैडम उसको खूब आशीर्वाद देते. हम दिल ही दिल में सोचते अच्छा है मेरा आवाज़ उतना अच्छा नहीं है, हमको अभी एक ठो और गाना गाने कोई बोले तो यहीं जान चला जाए. एक्जाम का खौफ होता था. एक बड़ा सा हॉल होता था उसमें पूरे शहर के दिग्गज बैठे होते थे...सबको सुनते थे तो कमाल लगता था, उसपर एक्जामिनर कभी कभी अच्छा अच्छा को सुन कर खुश नहीं होता था. हम तो डरे सहमे आधा चीज़ वहीँ भूलने लगते थे. एक उसी एक्जाम और एक उसी ऑडियंस का हमको लाइफ में डर लगा है. वरना हम बड़े तीस मारखां थे...कहीं, किसी से नहीं डरते. 

हारमोनियम हम पटना लेकर आये...वहां कभी कभी रियाज़ करते थे, डर लगता था पड़ोसी हल्ला करेंगे. दरअसल रियाज़ करने का असल मज़ा भोर में है, जब सब कुछ एकदम शांत हो, हलकी ठंढी हवा बह रही हो. पटना में वही गाते थे पर हारमोनियम नहीं बजा पाते थे. याद नहीं कितने साल पहले आखिरी बार हारमोनियम बजाया था. कल रिकोर्डिंग स्टूडियो में थी...शीशे के उस पार जाते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है, गीत के बोल भूलने लगती हूँ, जबकि मैंने लिखे हैं और मुझे हर शब्द जबानी याद है. कल आर्टिस्ट को आलाप लेते देखा तो पुराने दिन याद आये...अब तो सपने में भी ऐसा आलाप नहीं ले सकती. 

शायद हारमोनियम का फिक्स डिपोजिट कम्प्लीट हो गया है. अबकी देवघर जाउंगी तो ले आउंगी अपने साथ. बहुत सालों से टाल रही हूँ, पर इस बार सर से भी मिलूंगी. अन्दर बहुत सा खालीपन भर गया है...उसे कुछ सुरों से, कुछ लोगों से, कुछ आशीर्वादों से भरूँगी. 
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इस सब के दरमयान चुप चुप रोउंगी कि मम्मी के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, कहीं कभी भी. उसकी याद खुशबू की तरह है...कुछ कहती नहीं...दिल में कहीं बसती है. कल सुबह दराजों को हवा लगा कर कपड़े वापस रख रही थी, मम्मी के बुने सारे स्वेटर थे...वो थी यहीं कहीं. किसी दूसरे कमरे में फंदे गिनती...पीठ से लगा कर बित्ता हिसाब करती. मैं थक गयी हूँ उस खालीपन को दुनिया भर के काम से भरती हुयी. थक कर सो जाना चाहती हूँ हर रोज़ मगर याद भी कोई धुन की तरह ही है...कहीं नहीं जाती. मैं जाने कब उसके बिना जीना सीखूंगी. 
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बहुत दिन से रियाज़ करने का मन कर रहा है. सुर सारे भटक गए हैं. स थोड़ा ऊपर जो जाता है...कोमल ग ठीक से नहीं लगता है...नी जाने कैसा तो सुनने में आता है. पहले जब रियाज़ करती थी तो एक एक सुर पहले साधती थी. अब फिर से थोड़ा जिंदगी को साध रही हूँ. बहुत कुछ सुर से भटक गया...बहुत कुछ स्केल से अलग है. केओस को थोड़ा कम कर रही हूँ. जैसे कुछ सबसे खूबसूरत राग जिनमें सारे स्वर नहीं लगते, कुछ स्वर निषेध होते हैं. कभी कभी होता है...सन्डे को सुबह का वक़्त होता है...यूट्यूब पर कोई पसंद का गीत लगा देती हूँ और दूसरे कमरे में रोकिंग चेयर पर बैठ कर सिलास मारीनर जैसा कोई पुराना क्लासिक पढ़ती हूँ. जिंदगी अच्छी लगती है. सुकून लगता है. लगता है कि बहुत अच्छे से रियाज़ कर के उठे हों. मन शांत होता है. 

याद में स्वर आते हैं...कुछ शुद्ध, कुछ कोमल...गु ज री या  गा आ ग र  भ र ने ए  च ली  रे
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शीर्षक एक कोरियन फिल्म के नाम से. 

03 April, 2013

वो जो सांवला सा रास्ता था

रास्ते तुम्हें ढूँढने को बहुत दूर तलक, बहुत देर तक भटके थे. आज उन्हें थकान से नींद आने लगी है. उन्होंने टेलीग्राम भेजा है कि वे अब कुछ रोज़ सुस्ताना चाहते हैं. एक शाम सिगरेट सुलगाने को ऑफिस से बाहर निकली तो देखा कि रास्ता कहीं चला गया है और सामने दूर तलक सिर्फ और सिर्फ अमलतास के पेड़ उग आये हैं. खिले हुए पीले फूलों को देखा तो भूल गयी कि रास्ता कहीं चला गया है और मुझे उसकी तलाश में जाना चाहिए. ऑफिस से घर तक का रास्ता नन्हा, नटखट बच्चे जैसा था...उसे दुनियादारी की कोम्प्लिकेशन नहीं समझ आती थी. मैंने बस जिक्र किया था कि तुम जाने किस शहर में रहते होगे. रस्ते को मेरी उदासी नहीं देखी गयी. यूँ सोचा तो उसने होगा कि जल्दी लौट आएगा, मगर सफ़र कुछ लम्बा हो गया.

एक छोटे से पोखर में बहुत सारी नीली कुमुदिनी खिली हुयी है, मैं सोचती हूँ कि रास्ते को मेरी कितनी फ़िक्र थी. मैं उसे मिस न करूँ इसलिए कितना खूबसूरत जंगल यहाँ भेज दिया है उसने. अमलतास के पेड़ों के ख़त्म होते ही पलाश की कतारें थीं. वसंत में पलाश के टहकते हुए लाल फूल थे और मिटटी के ऊपर अनगिन सूखे पत्ते बिखरे पड़े थे. चूँकि यहाँ आने का रास्ता नहीं था तो बीबीएमपी के लोग कचरा साफ़ करने नहीं आ सकते थे, वरना वे हर सुबह पत्तों का ढेर इकट्टा करके आग लगा देते और उनमें छुपा हुआ रास्ता दिखने लगता.

ये मौसम आम के मंजर का है और उनकी गंध से अच्छा ख़ासा नार्मल इंसान बौराने लगता है. मैं पोखर के किनारे के सारे पत्थर फ़ेंक चुकी थी और अब अगली बारी शायद मेरे मोबाइल की होती...खतरा बड़ा था तो मैंने सोचा आगे चल कर देखूं किस शहर तक के रस्ते गायब हो गए हैं. ऐसा तो हो नहीं सकता न कि बैंगलोर के सारे रास्तों को बाँध कर ले गया हो मेरे ऑफिस के सामने का नन्हा रास्ता. पर कभी कभी छोटे बच्चे ऐसा बड़ा काम कर जाते हैं कि हम करने की सोच भी नहीं सकते.

मुझे मालूम था कि थोड़ी देर में बारिश होने वाली है...मौसम ऐसा दिलफरेब और ख्वाबों सा ऐसा नज़ारा हमेशा नहीं होता. किसी ने ख़ास मेरे लिए मेरे पसंद के फूलों का जंगल उगाया था. इसके पहले कि सारी सिगरेटें गीली हों जाएँ एक सिगरेट पी लेनी जरूरी थी. मुझे याद आ रहा था कि तुम अक्सरहां सिगरेट को कलम की तरह पकड़ लेते थे. जिंदगी अजीब हादसों से घिरी रही है और मेरी पसंद के लोग अक्सर बिछड़ते रहते हैं. जिस आखिरी शहर में तुम्हें चिट्ठी लिखी थी वहां के रास्तों ने ही पैगाम भेजा था कि तुम किसी और शहर को निकल गए हो.

जिंदगी को तुमसे इर्ष्या होने लगी थी...मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से ज्यादा प्यार जो करने लगी थी. ऑफिस के इस रास्ते पर टहलते हुए कितनी ही बार तुमसे बात की, सिगरेट के टूटे छल्ले बनाते हुए अक्सर सोचा कि तुम जिस भी शहर में होगे वहां आँधियों ने तुम्हारा जीना मुहाल कर रखा होगा. तुम्हें याद है तुमने आखिरी धुएं का छल्ला कब बनाया था? ये जो छोटा सा रास्ता था, उसे अक्सर लगता था कि हम एक दूसरे के लिए बने हैं और एक दिन तुम उससे होते हुए मुझे तक पहुँच जाओगे. ये तब की बात है जब तुम्हारे घर का रास्ता मुझे मालूम था...मुझे तुम्हारी आँखों का रंग भी याद था और तुम्हारे पसंदीदा ब्रांड की सिगरेट भी पसंद थी.

तुम्हें जानते हुए कितने साल हो गए? मैंने तो कभी नहीं सोचा कि ऐसा कोई रास्ता भी होगा जिसपर बारिशों के मौसम में हम हाथों में हाथ लिए घूमेंगे. रास्ते से उठ रही होगी भाप और धुंआ धुंआ हो जाएगा सब आँखों के सामने. तो ये जो मेरी आँखों के ख्वाब नहीं थे, उस रास्ते के लिए इतने जरूरी क्यूँ थे कि वो तुम्हें ढूँढने चला गया. मुझसे ज्यादा तुम्हारी याद आती थी रास्ते को. उसे तुम्हारी आवाज़ की आदत पड़ गयी थी. पर एक रास्ता ही तो था जो जानता था कि तुमसे बात करते हुए मैं सबसे ज्यादा हंसती हूँ...एक तुम्हारा अलावा सिर्फ वही एक रास्ता था जो जानता था कि मैं हँसते हुए हमेशा आसमान की ओर देखती हूँ.

तुम कहाँ चले गए हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे घर के आगे का रास्ता भी मुझे ढूँढ़ने निकला है इसलिए तुम मुझ तक नहीं पहुँच सकते. कि कोई एक खोया हुआ होता तो मुमकिन था कि हम कहीं मिल जाते...मगर चूँकि मेरे रस्ते को तुमसे प्यार था और तुम्हारे रास्ते को मुझसे...वे दोनों हमें मिलाने को निकल गए और हम दोनों खो गए. पर सोचो...आसमान तो एक ही रहेगा...चाँद...तारे...रात हो रही है, ऐसा करो न कि तारों में तुम्हारे शहर का नक्शा बना दो. मैं रात नदी का किनारा पकड़ कर तुम्हारे शहर पहुँच जाउंगी.

तब तक...हम दोनों के कुछ दोस्त मेरे और तुम्हारे शहर के बीच कहीं रहते हैं...उनसे कहो जरा रास्तों का ध्यान रखें...कभी कभी सफ़र में सुनाया करें रास्तों को मेरी तुम्हारी कहानियां. चलो एक 'मिसिंग' का पोस्टर बनवाते हैं. कभी वापस आ जायेंगे रस्ते तो एक दूसरे के पास ही रहने देंगे उन्हें. तुम भी मेरे शहर चले आना उनकी ऊँगली पकड़े. मेरे रास्ते को कहीं देखोगे तो पहचान तो लोगे? सांवला सा है, उसके बांयें गाल पर डिम्पल है और उसके दोनों तरफ गुलमोहर के फूल लगे हैं. चुप्पा है बहुत, बारिश की भाषा में बात करता है...जो तुमसे भीगने को कहे तो मान जाना.

सी यु सून!

31 March, 2013

ऑफिस डायरीज- हाई ऑन लाइफ

कल ऑफिस की ऑफसाईट थी. पिछले कुछ दिनों से इसमें बहुत सारा काम था और चूँकि ये सबसे सीक्रेट रखना था तो हमारी टीम का काम और भी मुश्किल हो गया था. देर रात तक काम करना, सन्डे को काम करना...परेशान रहना...प्रेशर में रहना. झगड़ा करना. घर पर कुछ भी ध्यान नहीं दे पाना. जाने कितनी रातों से डिनर किया ही नहीं था. 
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सुबह साढ़े सात बजे रिजोर्ट के लिए निकलना था. घर से तीस किलोमीटर दूर था. मुझे लॉन्ग ड्राइव्स अच्छी लगती हैं. नेहा को भी बुला लिए थे...यूँ तो अकेले जाना भी अच्छा लगता है...लेकिन ऐसे ही...लगा थोड़ी कंपनी अच्छी रहेगी. ऑफिस से लोगों को ले जाने के लिए बस का इन्तेजाम था लेकिन मुझे अपनी गाड़ी से जाना आना अच्छा लगता है. वापसी के लिए किसी का इंतज़ार नहीं करना पड़ता है. 

सुबह सुबह उठ जाऊं तो सुबह सुबह भूख लग जाती है मुझे. वहां पहुँच के सैंडविच खाए...तब जा के चैन आया. लोगों को इस साल का सब इन्तेजाम बहुत पसंद आया था और हमारी टीम को सब लोगों से खूब तारीफ़ मिल रही थी. मूड मस्त था. परसों की रात भी काम के चक्कर में वापस आते हुए बारह बज गए थे और फिर भोरे भोर निकल गए थे. कुणाल से मिले दो दिन हो गए...एक घर में रहते हुए...उसपर ये दोनों उसकी छुट्टी का दिन था. बहुत गिल्टी फील हो रहा था. इतना अच्छा लॉन्ग वीकेंड बर्बाद हो रहा था. प्रेसेंटेशन चल रही थी कि उसका मेसेज आया 'रोमिंग अराउंड बैंगलोर इन योर बाईक'. पढ़ के बहुत बहुत बहुत अच्छा लगा. मेसेज से उसका उत्साह दिख रहा था...उसे बाईक चलाना पसंद नहीं है तो कभी नहीं चलाता है, आसपास भी जाना होता है तो पैदल चला जायगा, साइकिल ले लेगा लेकिन बाईक नहीं. टी ब्रेक में फोन किया तो सुना रहा था कि एमजी रोड में घूम रहा था. 

कुछ नया करने में हमेशा मज़ा आता है. हम तो खैर हमेशा ही कोई न कोई खुराफात करते रहते हैं इसलिए जिम्मेदार बनने का जिम्मेदारी कुणाल ले लिया. सब सीरियस सीरियस चीज़ करना इत्यादि...कल लेकिन वो भी खुराफात कर रहा था तो हमको बहुत अच्छा लगा. लैंडमार्क गया, किताब खरीदा...हमको मेसेज किया कि किताब ख़रीदे हैं. दिन बहुत अच्छा बीत रहा था. 

मैं जिस कंपनी में काम करती हूँ, वहां की एक चीज़ मुझे बेहद पसंद है...यहाँ लोग अपने काम को लेकर खुश हैं. हर हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट जब बात करता है तो उनका उत्साह जैसे इन्फेक्शस लगता है. अच्छा लगता है. कुछ बड़ा करने का दिल करने लगता है. हमारी बोरिंग पकाऊ सी नौकरी नहीं है, हम ऑफिस जाते हैं तो इसलिए कि अच्छा लगता है. 

शाम को गेम्स वगैरह का इंतज़ाम था और ट्रैम्पोलीन का भी इन्तेजाम था. लड़के सारे क्रिकेट खेलने में व्यस्त हो गए. कुछ और भी गेम्स थे. सब तरफ बहुत सा हल्ला हो रहा था, कोई फोटोग्राफर को बुला रहा था. सब बहुत सारी चीज़ों में बिजी थे. ऐसा कभी कभी लम्हा आता है कि सब कुछ ठहर जाता है, धीमा हो जाता है और आप अचानक से एकदम अकेले हो जाते हैं. वैसा ही लगा. कुणाल की बड़ी याद आई. यूँ तो ऑफिस में अपनी टीम है, सबसे बहुत अच्छे रिलेशंस हैं. बहुत मस्ती भी करते हैं हम लोग. पर होता है, कभी कभी, अचानक से लगता है कि एक उसके बिना हम अधूरे हैं. कि वो मेरा सबसे जरूरी हिस्सा है. उसे फोन करते हुए लगभग रोना आ गया. बहुत मिस कर रही थी उसे. 

अवार्ड्स नाईट शुरू हुयी...खूब हल्ला, सीटियाँ वगैरह बजीं...मज़ा आया. फिर आया मजेदार अवार्ड्स का वक़्त. इसमें कुछ कुछ शैतान टाईप के टाइटिल दिए जाते हैं...जैसे कोई बहुत दुबला पतला है तो साइज जीरो अवार्ड. पब्लिक से नाम लेकर पूछा जाता था कि क्या अवार्ड दिया जा सकता है...इसमें जब मेरा नाम आया तो सब तरफ से एक ही हल्ला हो रहा था 'दबंग' :) तो हमको कल लेडी दबंग अवार्ड दिया गया. हमको थोड़ा आश्चर्य हुआ कि ऑफिस में सब हमसे इतना डरते हैं. हम तो काफी सीधे साधे भले हार्मलेस टाईप प्राणी हैं ;) जोर्ज भी हमको 'गुंडी' बोलता है. 

बार ओपन हो चुका था. हमने नीट पानी पीना शुरू किया. पानी नीट पीना बहुत खतरनाक होता है, ख़ास तौर से तब जब फुल में म्यूजिक बज रहा हो और डिस्को लाइट्स चालू हों. मैंने दो ग्लास ऑन द रोक्स पानी पिया. सारे लोग डांस करना शुरू कर चुके थे. कहीं तमिल का स्पेशल डांस हो रहा था तो कहीं नागिन डांस. कल हमको बहुत अच्छे दो कोम्प्लिमेंट्स(?!) भी मिले. अनुषा बोली कि वो मेरे जैसा टपोरी बनना चाहती है. मैंने सर पीट लिया. दुनिया भर की माएं ऐसे भी बोलती हैं कि मैं उनकी भोली भाली मासूम बेटियों को बिगाड़ देती हूँ. लाईन में एक और शामिल. मैंने उसे धमकाया, ख़बरदार जो मेरे जैसे बनी, बहुत पीटेंगे तुमको. फिर उसको मेरे जैसा डांस करना सीखना था. अब हमको तो मालूम नहीं था कि हमको डांस करना भी आता है. हम तो म्यूजिक सुनकर पगला जाते हैं बस. 

डीजे मस्त था. जैसे ही हम बैठने को सोचते थे कोई ऐसा गाना आ जाता था कि फिर सब भाग के डांस करना शुरू कर देते थे. केओस था. धूल उड़ रही थी. जूते गंदे हो रहे थे. मस्ती चढ़ रही थी. बूंदा बांदी शुरू हो गयी. म्यूजिक बंद हुआ और डिनर ब्रेक हुआ. हमारा सब काम आलरेडी फिनिश हो गया था. खाने में किसी को इंटरेस्ट था नहीं. मेरी कार में और तीन लोग आ सकते थे. जोर्ज ने पूछा कि हम कब निकल रहे हैं, हम बोले कि अभी. फिर अनीशा को भी उसके घर छोड़ना था. प्रकाश भी मेरे घर के बगल में ही रहता है. तो पूरी टीम कार में घर की ओर निकल लिए. सारे टाइम नौटंकी कमेंट्री होती रही. अनिषा को बैंगलोर में आये बहुत कम टाईम हुआ है. वो अपने घर के रस्ते हमें पांच किलोमीटर घुमा के ले गयी. 

भटकते अटकते घर पहुंचे. गैस ख़राब हो रखी है तो माइक्रोवेव में मैगी बनाये. इस तरह एक महान कार्य संपन्न हुआ. ये पूरा ड्रामा यहाँ चिपकाया जा रहा है कि हमको भी ध्यान रहे कि हम कितना एन्जॉय करते हैं लाइफ को. इन फैक्ट राहिल एक इंसिडेंट बता रहा था 'पूजा बोल रही है...फुल, एकदम मार के तोड़ के आयेंगे' क्लाइंट मीटिंग के पहले. 'God knows, she is high on what, tell me also...I also want to be on a high like that'.
वगैरह....वगैरह...वगैरह. 

25 March, 2013

यादों का जंकयार्ड

वो जो याद के गुलमोहर थे...
पटना...
सब उधार की यादें हैं...
कुछ नया लिखने को जगह ही नहीं है. महसूस हुआ कि यादें भी एक उम्र के बाद कहीं सहेज के रख देनी होती हैं कि वर्तमान के पल के लिए जगह बन सके.

मैं बहुत साल बाद गयी थी. पाटलिपुत्रा कोलनी. जहाँ घर हुआ करता था. मोड़ पर, सड़क पर, गुलमोहर के पेड़ों पर. याद की अनगिन कतरनें थीं. धूल का अंधड़ था कि सांस लेने को जगह बाकी नहीं थी.

इतने साल बाद भी सारे रस्ते वैसे ही याद थे...किस मोड़ पर रुकी थी...कहाँ पहली बारिश का स्वाद चखा था...कोलेज के आगे का चाट का ठेला...गोसाईं टोला की वो दूकान जहाँ एक रुपये में कैसेट पर गाना रिकोर्ड करवाते थे. नेलपॉलिश खरीदने वाली दुकान. बोरिंग रोड का वो हनुमान जी का मंदिर. आर्चीज की दुकान की जगह लीवाईज का शोरूम खुल गया है.

कितने सालों में ये शहर परत दर परत मेरे अन्दर बसता रहा है. बचपन की यादें नानीघर से. जब भी जाते थे दिदिमा अक्सर बाहर ही दिखती थी. उसमें कोई फ़िल्मी चीज़ नहीं दिखती थी. कोने खोपचे के किराने की दुकान, आइसक्रीम फैक्ट्री, दूर तक जाती रेल की पटरियां. हर चीज़ के साथ जुड़े कितने लोग दिखते रहे...मम्मी, नानाजी...बचपन और कोलेज के कुछ दोस्त जिनका अब नाम भी याद नहीं.

कैसी कैसी यादें सेलोफेन पेपर खरीदने से लेकर बोरिंग रोड के सैंडविच में पेस्ट्री खाने की यादें. कितने चेहरे...टुनटुन भैय्या, लब्बो, काजल दीदी, नन्ही दीदी, बॉबी दीदी, राजू भैय्या...अपना ३०२ वाला घर, घर के आगे जामुन के पेड़...बाउंड्री पर लगे पीले कनेल की कतार. वो बगल वाले घर में रहने वाला कोई जो ऐनडीए में पढ़ता था और छुट्टियों पर आता था तो मिलिट्री कट बाल होते थे उसके. घर की छत से सूरज डूबते देखना.

रवि भारती जाना...फ्रैंक सर की भोजपुरी...होप अपार्टमेंट...हिमा से की गयी अनगिन बातें. पूरे शहर भटकते हुए लगता रहा कि लौट कर घर जायेंगे...मम्मी इंतज़ार कर रही होगी. यकीन नहीं होता, दुनिया के किसी भी शहर में कि घर जाने पर मम्मी नहीं होगी...पटना में तो जैसे हर जगह बस एक वही है. कहीं उसके साथ कपड़े खरीदने की यादें हैं, कही उसके साथ झगड़ा कर रहे हैं...पिस्ता वाला आइसक्रीम खिला रहे हैं उसको. कहाँ नहीं है वो. मन कैसी रेतघड़ी है एक तरफ से भरती एक तरफ से रीतती. मैं अतीत से उबरूं तब तो कहीं वर्तमान में रह सकूं. कहीं भी घूमते हुए लगता रहा कि लौट कर अपने पाटलिपुत्रा वाले घर जायेंगे, कोई जादू होता होगा दुनिया में कहीं कि सब सही हो जाएगा.

यादों ने जीने नहीं दिया...अतीत के साथ सुलह करनी जरूरी है. इतना कुछ पीछे सोचूंगी तो कैसे जीना होगा? राजीव नगर से गुजरी...कहीं  मंदिर, कहीं साइबर कैफे, कहीं दूर तक जाती रेल की पटरी...साथ थोड़ी दूर पर चलती गंगा. इस बार बड़ी इच्छा थी कि एक बार गंगा को देख आऊँ मगर लोग कहते हैं कि गंगा रूठ गयी है. दिखती नहीं है. वक़्त याद आता है कि कुर्जी में कैसे ठाठें मारती दिखती थी गंगा. याद आया उसका बरसातों में ललमटिया सा हो जाना. हहराती गंगा में विसर्जित करना टूटी हुयी मूर्तियाँ, दीवाली के दिए, यादों से निकाल कर नाम कोई.

I am jigsaw puzzle of collective memories, the key piece of which has been lost with mummy, forever. For all they try, no one can assemble me with all the pieces in their right place. And so I remain, a confused jumble of faces, tears, smiles, people, lost and found, roads, rain, school, college, teachers, friends...

इस बार होली में गैरजरूरी सामान के याद कुछ यादों को भी बुहार कर बाहर कर दूँगी...बहुत सा डेड स्पेस खाती हैं यादें और वहां कुछ नया, कुछ अच्छा उगाने की उम्मीद नहीं बचती. अतीत एक कालकोठरी क्यूँ बने...उसमें गाँव की खुली पगडण्डी पर दौड़ती हूँ मैं...वहां मम्मी के हाथों के खाने की खुशबू है. वहां माथे पर रखा मम्मी का आशीर्वाद है. इन सबसे नयी रोपनी करनी होगी...मिट्टी को जोतना होगा. रोपने होंगे खुशियों के बिरवे...उम्मीदों  के फसल उगानी होगी.

एक दिन...किसी एक दिन...मैं चीज़ों को वैसा का वैसा एक्सेप्ट कर लूंगी...नए दिन में नया जी सकूंगी. चंद रोज और मेरी जान, बस चंद रोज...

20 March, 2013

मुस्कराहट का परजीवी आंसुओं से सिंचता है


मुस्कराहट का परजीवी आंसुओं से सिंचता है.
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और वो खो गया. ऐसे जैसे कभी था ही नहीं. ऐसे जैसे नदी के तट से गुम हुआ हो कोहरा, ऐसे जैसे राम ने ली थी जल समाधि.

मुझे देर तक दिखती रही उसकी आँखें, चेहरा बदल बदल कर. सलेटी कपड़े पहने वो कौन था जिसने पूरे धैर्य से मेरी पूरी जिंदगी सुनी और अंत में श्राप देने की जगह सर पर हाथ रखते हुए आशीर्वाद में अभयदान दे गया.

संत, महात्मा, दुनिया से विरक्त कोई? मेरे मन को समझने वाला. रात का तीसरा पहर था. अलाव के आखिरी अंगारे बचे थे. प्रेम अपनी ऊष्मा बचाए रखने के लिए कोई नहीं दुनिया नहीं बसाना चाहता था.

मैं थी की मिटटी के घरोंदों को ही घर मान बैठी थी. कहाँ मैं बंजारन और कैसा वो धरती से सोना उगाने वाला किसान, हमारा क्या मेल था.

-किसी तारीख का लिखा हुआ, जो तारीख लिखी नहीं गयी.
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Absence of death is not life. Absence of life is death.
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मैं कहीं गुम हो जाना चाहती हूँ. 

14 March, 2013

घड़ी तुम्हारे लौट आने का वक़्त नहीं बताती है

डेज ऑफ़ बीईंग वाइल्ड...एक उदास खालीपन से पूरी भरी हुयी फिल्म है. इसके किरदार कितने रंगों का इंतज़ार जीते हैं...टेलीफोन की घंटी की गूँज को अपने अन्दर बसाए...उदासी का एक वृत्त होता है जिसके रंग बरसात के बाद भी फीके दीखते हैं. कैसा अकेलापन होता है कि अपने सबसे गहरे दर्द को एक नितांत अजनबी के साथ बांटने के लिए मजबूर हो जाता है कोई...

इसका टाइटल प्लेट बहुत बहुत दिनों तक मेरा डेस्कटॉप इमेज रहा है. इस शुरुआत में एक अंत की गाथा है...एक कहानी जो आपको सबसे अलग कर देती है...मृत्यु को ज़ूम इन करके देखती डिरेक्टर की आँखें वो एक चीज़ ढूंढ लाती हैं जिसे मैं कहीं सहेजना चाहती हूँ...वो आखिरी लम्हे में याद आता नाम किसका है.

फिल्म जहाँ ख़त्म होती है...वहीँ शुरू हो जाती है...यू आर आलवेज इन माय हार्ट...
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मौत के पहले के आखिरी लम्हे में वो एक अजनबी से गुज़ारिश करता है कि उस लड़की को हरगिज़ न बताये कि वो वाकई उसे इस आखिरी लम्हे में याद कर रहा है. कि यही उसके लिए बेहतर होगा...कि वो कभी नहीं जाने.

कसम से आज तुम्हारी बहुत याद आई...तुम्हारे साथ और भी कितने लोगों की याद आई जिनकी जिंदगी में कहीं कोई एक हर्फ़ भी नहीं हूँ...मेरे साथ ऐसा क्यूँ होता है...मैं क्यूँ नहीं भूल पाती लोगों को...कभी भी नहीं क्यों? एक छोटी जिंदगी, उफ़ एक छोटी जिंदगी. दिल कैसा उजाड़ मकान है...इसमें कितने पुराने लोग रहते हैं. वो होते हैं न, घर पर अवैध कब्ज़ा कर के बैठ जाने वाले लोग. वे इतने गरीब होते हैं कि उनके पास जाने का कोई ठिकाना नहीं होता है. मकान मालिक इतना गरीब कि उसका किराये के अलावा और कोई आमदनी नहीं. हालात से मजबूर आदमी. 

ऐसी मजबूरी में कैसा प्यार पनाह पाता है...तकलीफ में खिलने वाला ये कैसा पौधा है कि जब इस पर फूल आता है तो उस खुशबू में पूरी दुनिया गुलाबी हो जाती है. एक किरदार है, काफी आम सा...लेकिन जब एक खास एंगल से रौशनी उसपर गिरती है तो बेहद खूबसूरत लगता है. फिल्म देखते हुए गौर करती हूँ तो पाती हूँ कि आखिरी सीन में छत इतनी नीची है कि वो हल्का सा झुक कर खड़ा होता है सारे वक़्त. बहुत कोशिश करके भी उस चेहरे में मैं वो शख्स नहीं ढूंढ पाती जिससे मुझे जल्दी ही प्यार होने वाला है. एक एक करके वो जाने क्या क्या चीज़ें अपनी जेब में रख रहा है. उन चीज़ों में मेरा कुछ भी है...क्या किसी भी चीज़ को कभी मेरे हाथों ने छुआ होगा? एक बार उसने कहा था मेरे हाथ का लिखा एक नोट उसके वालेट में हमेशा रहता है. फिल्म ऐसे कुछ झूठों की नींव पर चलती है. 

फिल्म कहाँ ख़त्म होती है, जिंदगी कहाँ शुरू...तुम क्या लिखते हो और मैं क्या पढ़ती हूँ इन बातों में क्या रखा है. बात इतनी सी है बस कि आज भी रात के आठ बजे अचानक घड़ी पर नज़र चली गयी...एक ये वक़्त है, एक तीन बजने में दस मिनट का वक़्त है. कभी कभार मैं इन वक्तों में घड़ी देख लेती हूँ तो बहुत रोती हूँ. मालूम है, मुझे कभी भी टाइम पर कुछ भी करने की आदत नहीं है...मैं मीटिंग में लेट जाती हूँ, ऑफिस में लेट जाती हूँ, ट्रेन, एयरपोर्ट, सब जगह लेट जाती हूँ. फिल्म में एक मिनट है...लड़की कहती है...मालूम है...मुझे लगता था एक मिनट बहुत जल्दी बीत जाता है...एक मिनट बहुत छोटा वक़्त होता है. हम सब अपनी अपनी जिंदगी में ऐसी कितनी सारी छोटी छोटी चीज़ें सहेज कर रखते हैं. 

घर आई हूँ...२०४६ लगा दी है...इसलिए नहीं कि फिल्म देखनी है...पर इस फिल्म का कोई एक लम्हा है जिसमें बहुत सारी ख़ुशी है. मैं उस ख़ुशी से अपनी फिल्म की रील को ओवरराईट करना चाहती हूँ. फिल्म में वो सायोनारा कहता है...मैं पहली बार नोटिस करती हूँ कि उस पूरी फिल्म में सिर्फ एक शब्द मुझे समझ आया है. मैं भाषाएँ सीखना चाहती हूँ. मैं बहुत बहुत सारा रोना चाहती हूँ पर अचानक से आंसू आने बंद हो गए हैं. मैं सिगरेट का एक लम्बा कश लगाना चाहती हूँ. मैं बहुत सारी वोदका पी जाना चाहती हूँ आज. गहरी लाल चेरी वोदका. बेहद मीठी. बेहद नशीली. 
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मुझे मालूम है कि क्या हुआ है...बेहद खुश होने वाला कोई दिन है...और उसे याद कर रही हूँ...जो फोन पर मेरी आँखों के आंसू देख लेती थी. मैं जाने किस किस चीज़ से उसके नहीं होने को भरना चाहती हूँ. पहले कोपी में डूडल बनाती थी तो उनमें आसमान, बादल, चिड़िया, बारिश होती थीं. मैं आजकल सिर्फ दीवारें बनाती हूँ. जाने कैसी कैसी लकीरें...कैसे रस्ते जो कहीं नहीं खुलते. मैं बहुत उलझ गयी हूँ. पिछली बार जब बहुत पी थी तो होश नहीं था...मैं बहुत रोई थी इतना याद है. मैं बहुत उदास थी कि मैं देखती हूँ कि लोग चढ़ने के बाद बहुत खुश होते हैं, दोस्तों को फोन करते हैं...मैं सिर्फ रोती हूँ. तो क्या बाकी जिंदगी सिर्फ किरदार निभाती हूँ? खुश रहना आदत सी है...नॉर्मली किसी चीज़ को लेकर पोजिटिव रहती हूँ. फिर. फिर क्या?

कहाँ से बहती है दर्द की नदी...कैसी उम्रकैद है...तुम कहाँ हो...मर जाउंगी तो दिखोगी कहीं? पता है माँ, घर गए थे तो याद करने की कोशिश किये...सच्ची में...हमको वाकई याद नहीं हम आखिरी बार खुश कब हुए थे. 
बहुत साल हो गए. 
आई स्टिल मिस यु वेरी मच माँ. 

12 March, 2013

कि दिल का रंग होता है...गुलाबी

वो एक गुलाबी फूलों वाला पेड़ है. उसके पार से नीला आसमान दिखता है...सड़क पर करीने से गिरे हुए गुलाबी फूल हैं. दिल अगर कोई फूल होता तो इसी रंग का होता...ऐसा ही नर्म और नाज़ुक कि तोड़ते हुए आप खुद टूट जाओ. हलकी हवा चलती है तो बहुत से गुलाबी फूल हौले हौले गिरते हैं. रंग इतना हल्का है कि कैमरा में कैद नहीं हो पाता. कुछ हलकी भूरी आँखें याद आती हैं...उनका रंग जैसा मेरी यादों में है, किसी तस्वीर में नहीं है.

मैं रोज बाईक से आती हुयी उस पेड़ को देखती हूँ...हफ्ते भर का मौसम है...गुलाबी. रोज सोचती हूँ कि कैमरा ले आउंगी...इस खूबसूरती को कैद करने की कोशिश करूंगी मगर उनकी खूबसूरती आँखों में खिलती है...मूड का मौसम है उस पेड़ पर. कुछ बैलाड बजाती हूँ. कुछ आवाजें हैं कि वापस दुनिया में लौटा लाती हैं.

बहुत सी देखे हुए दृश्यों के रंग नहीं होते...बचपन में घुटने पर चोट लगी तो खून बह रहा था मगर खून का रंग सियाह याद आता है. एक बार तुम्हारी दवात गिर गयी थी, किस रंग से लिखते थे तुम? इतना दर्द लिखते हो अब तक, उस समय तो शायद गहरी नीली सियाही इस्तेमाल करते होगे या कि उम्र थी कच्ची...हरे रंग का था क्या? फिर मेरे खतों में तुम्हारा सिग्नेचर सिर्फ काले रंग में क्यूँ मिलता है? यादों का कौन सा फ़िल्टर है कि सारे रंग एक बार में ही खो जाते हैं.

मैंने तुम्हारे कमरे पर जो फूल लगाए थे गुलदान में, वो कैसे हो सकते हैं काले...कम से कम रजनीगंधा का कोई तो रंग होगा...हल्का गुलाबी...नर्म पीला...खामोश नीला...कोई तो रंग होगा...ऐसा कैसे हो सकता है कि कमरे की दीवारें काले रंग की हों...ऐसा तो सिर्फ इतना था न कि मेरी आँखों में लगा काजल था काले रंग का. साल में कितने दिन थे...दिन में कितने लम्हे...कितने लम्हों में तुम थे मेरी जान? बाकी लम्हों का रंग क्या था? उस साल क्या मैंने सारे दुपट्टे काले रंग के ख़रीदे थे...कहाँ थे रंग मेरी जिंदगी के.

सिर्फ सड़कें याद आती हैं मुझे...मगर कच्ची पगडंडियाँ तो भूरे रंग की होनी चाहिए थीं...काली मिट्टी तो उस जगह नहीं होती...वरना उस मिट्टी में लोग खेती करते. काली मिट्टी बहुत उर्वर होती है. डार्क चोकलेट उन दिनों भी काले रंग की नहीं हो सकती...कत्थई रंग की होती है. तुमने जब हाथ पकड़ा था तो निशान पड़ गए थे...मुझे याद है कि वे निशान काले रंग के थे. मैंने कहा था कि मैं लौट कर नहीं आउंगी...मेरे जाने का रंग क्या था मुझे मालूम नहीं...मगर उस दिन के बाद शायद कमरे में बत्ती नहीं जली कभी. दिन को सूरज का भी रंग होता था न...तुम्हें रंग और रोशनियों में फर्क मालूम है? रोशनियाँ मिल कर सफ़ेद रंग की रौशनी बनती हैं मगर रंग मिला दोगे तो काला रंग बनता है. उस रंग से फिर कोई रौशनी वापस नहीं जाती.

मेरे मूड स्विंग्स थोड़े तमीजदार हो रहे हैं. बता कर आते हैं. कई बार कोशिश करती हूँ तो उदास मौसम को कुछ लम्हों के लिए टाल भी देती हूँ. मेरे पसंद की चोकलेट मिलनी बंद हो गयी है शहर में. मैं ठहरना चाहती हूँ मगर ठहर नहीं पाती...बाईक पर कोई जिन्न खींचता है...इतनी तेज़ इतनी तेज़ कि जैसे जिंदगी से रेस कर रही हूँ...फिर से कोलाज का मौसम है. दुपट्टे को रंगती हूँ सात रंगों में. घर में बजाती हूँ वाल्ट्ज...पढ़ती हूँ पुरानी किताबें. तलाशती हूँ खोयी हुयी किताबों के पीछे लिखी हुयी तारीखें. सोचती हूँ कहीं से लौट आने का मौसम किसी कैलेंडर में दिखेगा.

सांस रोकती हूँ पानी के अन्दर...सब धुंधला लिखता है. याद आता है आज फिर रोते रोते सो गयी हूँ. सुबह बदन में दर्द होता है बहुत. समंदर में डूब रही हूँ...पैरों में जंजीरें हैं...पत्थर है भारी सा कोई...सीने में दर्द है...कोशिश भी नहीं की है एक सांस लेने की...आँखें खोलूंगी तो जाने कैसा दृश्य होगा. किस रंग है जिंदगी? कौन बताये...कौन समझाए!

एक अच्छे वीकेंड की डायरी

एक सुख की जगह होती है...खालीपन के ठीक पास...वहां पर जब होती हूँ अक्सर कुछ नहीं लिखती हूँ. पिछला वीकेंड बेहतरीन था. फ्राइडे को विमेंस डे था. ऑफिस में इतना अच्छा लगा. लगभग चार बजे एक चोकलेट मूस वाला एक डेजर्ट मिला...किसी लड़के को नहीं दिया गया कि स्पेशल डे है आज. जोर्ज को दिखा दिखा के चिढ़ा के खाने का अपना मज़ा था. फिर एक इंटरनल मीटिंग थी तो हम सारे उसमें व्यस्त हो गए. कांफेरेंस रूम के बाहर बहुत शोर हो रहा था...हमने दरवाजा खोल के देखा तो रेड वाइन की बोतलें थीं, बहुत सारे चोकलेट के डिब्बे थे, वाइन ग्लासेस थे और पूरा ऑफिस जुटा हुआ था. 

सेलेब्रेशन में पहले वाईन...स्पेशियल लोगों के लिए...ऑफिस की सारी लड़कियां/औरतें रेसिप्शन पर थीं...चीयर्स के टाइम पर सारे लड़कों के हाथ में कैमरा था...इतने सारे फ्लैश हो रहे थे कि सेलेब्रिटी जैसी फीलिंग आ रही थी. फिर बहुत सारा शोर होता रहा...बहुत सी अच्छी अच्छी बातें. मैं वाइन कभी नहीं पीती पर शायद माहौल का असर था कि अच्छी लग रही थी. थोड़ा सा टिप्सी थी. चोकलेट और वाइन का कॉम्बो किलर था. फिर हमारे लिए राहिल ने डांस भी किया. वो हमारे ऑफिस का रॉकस्टार है. बहुत सारी सीटियाँ बजीं...बहुत सारा शोर फिर से. राहिल ने सबको चोकलेट का डिब्बा गिफ्ट किया...अपनी अपनी श्रद्धा से कुछ लड़कियों ने वापस में गाल पर किस दिया...कुछ ने हग किया...बहुत अच्छा लग रहा था. वापस सीट पर आई तो वहां फूलों का गुलदस्ता रखा था. मूड बेहतरीन था. आई लव माय ऑफिस. :)

घर आई तो वीकेंड गप्पें साढ़े तीन बजे तक चलती रहीं. अगली सुबह पोंडिचेरी निकलना था. ६ बजे का अलार्म लगा कर सोये मगर उठते और तैयार होते ४ बज गए. लॉन्ग ड्राइव टू पोंडिचेरी...३५० किलोमीटर...कुछ अच्छे गाने सुनते, गप्पें मारते कोई ३ बजे पहुँच गए. खाना खाया और सो गए. शाम को समंदर किनारे टहलने गए. कुणाल को समंदर की हवा बहुत अच्छी लगती है. खास तौर से रॉक बीच पर शाम में ट्रैफिक बंद होता है तो सिर्फ लोग चहलकदमी करते हुए दिखते हैं. बीच साइड के छोटे सफ़ेद घर, फ्रेंच आर्किटेक्चर...जरा सी हमें यूरोप की फीलिंग आ रही थी. बाहर गए बहुत टाइम हुआ न...अब हम घुमक्कड़ हो गए हैं दोनों. देखें उसका अगला प्रोजेक्ट कब आता है. इस बार मैं फ़्रांस या इटली घूमने के मूड में हूँ :)

ला कैफे में फ्रैपे और फ्रेंच फ्राईज...फुल अनहेल्दी खाना खाया. अगली सुबह आश्रम ९ बजे पहुंचना था तो सो गए. १० को साकिब का भी बर्थडे है. हम उसे और कुणाल को जुड़वाँ कहते हैं. साकिब एक साल छोटा है उससे. अरविंदो आश्रम में जन्मदिन के दिन श्री अरविन्द के कमरे में ध्यान करने दिया जाता है. हमने सुबह टोकन कटाया और कमरे के बाहर सीढ़ियों पर कुछ देर बैठे रहे. मुझे वहां बहुत से अपने लोगों की याद आई...एकदम चुप बैठे हुए मैंने उनके लिए कई दुआएं की...वो जहाँ हों, खुश रहें. 

उस कमरे में बहुत शांति मिलती है...जैसे सब कुछ ठहर गया हो. ये दुनिया की कुछ उन आखिरी जगहों में से है जहाँ होने पर मैं कहीं भाग नहीं जाना चाहती...रहना चाहती हूँ. साँस लेना चाहती हूँ...कपूर की खुशबू में डूबे उस कमरे को अपने अन्दर बसा लेना चाहती हूँ. 

वहां से बाहर आ के कुछ किताबें खरीदीं...दिलीप मामा के साथ थोड़ा चाय कॉफ़ी...दिलीप मामा हमें अपना रूम दिखाने ले गए. उन्होंने कहा कि कमरा थोडा अस्त-व्यस्त है. मैंने कहा मुझे केओस अच्छा लगता है. मामाजी के पास बहुत सी किताबें थीं और उन्हें स्कल्पचर का शौक़ था तो जाने कहाँ कहाँ की मूर्तियाँ थीं. उनके पास श्री माँ और श्री अरविन्द की एक स्पेशियल तस्वीर थी जिसमें उन दोनों के सिग्नेचर थे. मामाजी बड़े इंट्रेस्टिंग हैं. स्वामी विवेकानंद पर बनी एक बंगाली फिल्म के लिए उन्होंने काम किया है. एक छोटा सा रोल भी निभाया है. उन्होंने कुणाल को बर्थडे पर एक टी-शर्ट दी...दो-तीन किताबें...मुझे एक गणेश जी की छोटी सी मूर्ती...फूलों के लिए एक मेटल स्टैंड और एक बेहद खूबसूरत पीतल की संदूकची दी. ऐसा लग रहा था जैसे मेरा ही बर्थडे हो. 

बारह बजे हम पोंडिचेरी से निकल गए. वापसी का ७ घंटे का सफ़र. बैंगलोर में फिर पूरी पलटन के साथ बर्थडे सेलेब्रेट करना क्यूंकि ये पहली बार था कि कुणाल और साकिब इस दिन एक साथ थे. मोहित, नीतिका, अभिषेक, चन्दन, रमन, दिनेश, सकीब, कुणाल और मैं सब मिल कर एक नए रेस्टोरेंट में गए...ब्लैक पर्ल. मस्त जगह थी. पाईरेट वाला डिकोर था. खाना बहुत अच्छा...मूड बहुत अच्छा. घर वापस आते एक बज गया. 

अगली सुबह फिर ऑफिस...आज जोर्ज और नेहा पुणे गए हुए हैं शूट पर. मन नहीं लगता उनके बिना...ऑफिस खाली लगता है. आज बहुत वर्कलोड भी नहीं है. लाइफ थोड़ी अच्छी...थोड़ी सेटल्ड सी लग रही है. एंड फॉर अ चेंज मुझे ये अच्छा लग रहा है. इतना सब लिखना इसलिए कि सिर्फ उदासियाँ दर्ज नहीं होनीं चाहिए. 

बहार का मौसम...खुशामदीद. :) 

07 March, 2013

फीवर ९९ और हम


दो दिन से ९९ डिग्री बुखार है. न चढ़ कर ख़त्म होता है, न उतर कर ख़त्म होता है. इस बुखार में अजीब किस्म से घालमेल हो रहा है चीज़ों का. आज दिन भर किसी काम में मन नहीं लगा. बस दिन भर फेसबुक पर रही...कुछ पुरानी पोस्ट्स पढ़ीं...कुछ मनपसंद फिल्मों के दृश्यों और जिंदगी में कन्फ्यूज होती रही. कई बार लगता रहा कि इन द मूड फॉर लव वाली गली से गुज़र रही हूँ और किसास किसास बज रहा है.

कुछ अजीब किस्म के रंग हैं...उनका अपना भूगोल है, वे इसी धरती के किसी मानचित्र में नहीं मिलेंगे. मैं ऐसे किसी शहर में हूँ. किसी दीवार पर उकेरे गए नाम देखती हूँ. सड़क की गर्द और गुबार से भरी गलियां हैं जिनमें कितने साल पहले लिखे गए नाम भी हैं. ये चिट्ठियां कभी पहुँचीं? किसी ने कभी ठहर कर नामों के इस गलीज स्लम में अपना कुछ ढूँढा भी होगा...तो फिर इस सारी ग्रैफिटी में एक विशाल 'आई मिस यू' क्यूँ लिखा नज़र आता है. या कि मेरी आँखों का दोष है...मेरी दूर की नज़र ख़राब है. मुझे अपने से एक फुट से ज्यादा नहीं दिखता. जिंदगी के साथ भी ऐसा ही कुछ है. इस लम्हे से आगे देखने का कोई चश्मा नहीं बना है.

बिना चश्मे के मुझे लोग तो दिखते हैं मगर उनके चेहरे का भाव नहीं पढ़ सकती...बेसिकली उनकी आँखें नहीं दिखती हैं. हालाँकि कानों में हेडफोन हैं और कोई पसंद का गीत बज रहा है मगर मैं किसी से बात करना चाहती हूँ. भले मुझे उनकी भाषा समझ नहीं आये, उन्हें मेरी भाषा समझ नहीं आये. मैं एक कैमरा लटकाए घूम रही हूँ...हवा का एक बेहद प्यारा झोंका आता है और इस तनहा शहर में जैसे मुस्कराहट का एक बीज रोप जाता है. मैं देखती हूँ सड़क पर एक टूटा हुआ क्लचर गिरा हुआ है. याद आता है किसी वसंत में तुम्हारे साथ एक चेरी के गुलाबी फूलों वाले शहर में चल रही थी. मेरे बंधे हुए बालों में उलझे हुए चेरी नन्हें गुलाबी फूलों को निकलते हुए तुमने कहा था 'बाल खुले रहने दो न, अच्छे लगते हैं'. दुनिया की सबसे घिसी हुयी लाइन होने के बावजूद उस वसंत में कितना नया लगा था तुमसे सुनना.

स्क्रीन के ग्लेयर से आँखों में जलन होने लगी है. दोपहर होने को आई...ये कैसी धूप है, जलाती भी नहीं...रहम भी नहीं करती...ठीक उस मुकाम पर रखती है जहाँ मैं दवा नहीं खाऊँ कि खुद से ठीक होना है...मगर तकलीफ इतनी होगी कि एक कदम से दूसरे कदम तक की दूरी में जान चली जायेगी. कराह को अन्दर ही कहीं दबाते हुए मुस्कुराती हूँ...लोग कहते हैं चेहरे का रंग उतर गया है...आँखों की रौशनी डिम हो गयी है. मैं आइना देखती हूँ...आज अपनी आँखों पर ध्यान नहीं जाता...देखती हूँ होठ सूख गए हैं और चेहरा भी उतर गया है. वाश बेसिन में चेहरा धोती हूँ और एक मुखौटा चढ़ाती हूँ. हँसते हुए कहती हूँ कि 'बीमार होती हूँ तो भी लगती नहीं'...थोड़ा और बीमार लगती शायद तो छुट्टी मिल जाती.

इतनी थकान नहीं होनी चाहिए लेकिन...मगर बुखार आये भी तो बहुत साल बीत गए...जाने कैसा लगता है बुखार आने पर...शायद ऐसा ही लगता होगा...जैसे किसी दस मंजिला बिल्डिंग से नीचे फेंके गए हैं और हालाँकि हड्डियों का सुरमा बन गया है मगर जान बाकी है. कभी सर में दर्द ज्यादा उठता है, कभी कन्धों के दर्द से बेहाल हो जाती हूँ...कभी आँखों की जलन से आंसू निकल आते हैं.

जैसा कि होता है...दिन भर कुछ न करने के बाद शाम को एक बेहतरीन कांसेप्ट लिखा...ऐवें ही मूड फ्रेश हो गया. इधर लगभग चार महीने बाद बाईक ठीक कराई है. मुझे अपनी बाईक चलाने से ज्यादा अच्छा कुछ और लगता हो मुझे याद नहीं आता. आज दोपहर बहुत सारी चोकलेट भी खायी है. अभी बस जरा स्विट्ज़रलैंड टाईप हॉट चोकलेट विद विस्की मिल जाती तो क्या बात होती.

थर्मामीटर ठीक से नहीं लगाया था...अब लगाया थोड़ी देर पहले तो देखती हूँ कि बुखार मियां अब तक मौजूद हैं...तशरीफ़ ले नहीं गए हैं. मेहमाननवाज़ी एक्सटेंड करना कोई अच्छी बात है भला! सारी प्लानिंग चौपट हो गयी...क्या क्या न सोच रखा था इस हफ्ते के लिए. खुदा न खस्ता, बुखार को भी आने का टाइम नहीं मालूम होता है. खैर. लिखने से मूड अच्छा होता है इसके प्रूफ के लिए मैं अक्सर अपनी पोस्ट्स पढ़ती हूँ. आज का काम क्लोज हो गया है...कल का भी सब जुगाड़ ठीक ही लग रहा है. लिख के थोड़ा सर हल्का हुआ तो दर्द भी कम होगा ही कभी न कभी.

कभी कभी दुआओं का कोटा ख़त्म हो जाता है, वैसे में एक्सप्रेस एंट्री करनी पड़ती है...खुदा इसलिए बीमार कर देता है हमें. चलिए आप हमारे ठीक होने के लिए ऊपर खुशामद करिए हम तब तक पिज़्ज़ा और चोकोलावा केक पर हाथ साफ़ करते हैं. बाई द वे....अगर आपको हमारे स्वर्ग के वर्शन पर भरोसा है तो वहां पर एक चोकोलावा का पेड़ है...जिसमें हमेशा अनगिन केक लगे होते हैं. यूँ हाथ बढ़ाया और टप्प से तोड़ लिया. खैर. लगता है बुखार चढ़ रहा है. बकिया बरगलाना फिर कभी.  

06 March, 2013

कश्मीर उसकी आवाज़ में पनाह पाता है

मैंने हीर को कभी नहीं देखा...मगर इस लड़की को गाते सुना तो लगा शायद हीर गाती तो ऐसा ही कुछ गाती...रुबाब की आवाज़ किन पहाड़ों की गूँज लिए लौटती है ये जाने के लिए सवाल करने पड़ते हैं मगर गीत से उबरूं तब तो कुछ पूछूं उससे.

कल एक रिकोर्डिंग के लिए स्टूडियो गयी थी...छोटा सा प्रोजेक्ट था लेकिन गीत के बोल मैंने लिखे थे...और हिंदी का गीत था तो थोड़ा देखना भी था कि सही उच्चारण है या नहीं...मीटिंग के बाद स्टूडियो पहुंची तो उसे देखा...उसका इंट्रो नेहा ने कुछ ऐसे दिया...बहुत खूबसूरत है यार. आवाज़ की खूबसूरती के साथ चेहरे पर भी इतना पानी...और बात से बात निकलती है तो इस कश्मीरी को गाते सुना. कश्मीर उसकी आवाज़ में पनाह पाता है...याद के कितने जंगल पार कर गयी मैं उसके गीत को सुनते हुए.

सूफिस्टिकेशन नाम से उसके अल्बम का पहला गाना सुना मैंने...पंजाबी में ये गीत स्टूडियो की दीवारों में कितना जज़्ब हुआ मालूम नहीं मगर मन के रेगिस्तान में ऐसा ही कोई दरिया बहने को मचल रहा था...स्टूडियो बहुत स्वार्थी होता है, आवाज़ की एक गमक भी बाहर नहीं जाने देता है. उसकी परवरिश में सूफी घुला हुआ है...बचपन से ऐसे ही गीत सुने हैं उसने...इश्क का ऐसा कोई रंग है...आभा हान्जुरा...कश्मीर के पहाड़ों का गीत तलाशती हुयी. गीत की रिकोर्डिंग के लिए कश्मीर जा कर वहां के आर्टिस्ट्स को खोजना. गीत में रुबाब बजता है...वो कहती है कैसे वहां की वादियों से यहाँ बैंगलोर आ गयी, इन्डियन आइडल...और भी कुछ किस्से.

कैसा रेगिस्तान बिछता है कि हीर कि एक पुकार लौटा सके ऐसा कुछ दूर दूर तक नहीं है...मैं आँखें बंद कर रात उसकी आवाज़ के नाम कर देती हूँ...कित्थे नैना न जोड़ी...कित्थे नैना न जोड़ी...तैनू वास्ता खुदा का. क्या कोई पिछले जन्म का वास्ता रहा होगा या कि हर लड़की में एक हीर सी होती है? कैसी आवाज़ है, जैसे हवा का ककून हो...इर्द गिर्द और कुछ भी नहीं है...कितनी शुद्ध...क्या आत्मा से गए गीत हैं? इस पुकार में वो कितनी घुली है? उससे बात करती हूँ तो जानती हूँ कि दर्द बिछोह का है...अपनी मिट्टी से दूर बसने का...डर खो देने का है...एक गहरी आह भारती हूँ उसे सुन कर...इस आर्टिफिशियल दुनिया में भी कहीं कुछ सच्चा है.

उसे देखती हूँ...यादों के कोलाज में कश्मीर की खिलखिलाती नदियाँ आती हैं...आवाज़ लौटने वाले पहाड़ आते हैं...एक घोड़ावाला आता है...शोहैब...कहता है कि दीदी फिर लौट कर आना...लाल चौक पर मेरे नाम से जब भी ढूंढोगे मिल जाऊँगा. कश्मीर में जब भी कोई ब्लास्ट होता है...लाल चौक पर लाठीचार्ज होता है...मैं मन में उसके लिए दुआ मांगती हूँ.

हमें अपना काम अच्छा लगता है...मुझे लिखना अच्छा लगता है...उसे गाना अच्छा लगता है...म्यूजिक डाइरेक्टर हमें किस्से सुना रहा है. कहीं स्टूडियो के बाहर एक भागती दुनिया है...बहुत ट्रैफिक का शोर है...जिंदगी की आधापापी है...स्टूडियो के दोनों दरवाजे लगते हैं तो सब छूट जाता है. हम कुछ लोग होते हैं...कितने तरह का संगीत होता है...आलाप होता है...लयकारी होती है...गमक है...विलंबित ख्याल और ध्रुपद है.

मैं दिल से आभा को बहुत सी दुआएं देती हूँ उम्मीद करती हूँ कि कश्मीर की जिन आवाज़ों की तलाश में वो निकली है, वे उसे मिल जायें और फिर हम उसके रास्ते कुछ पुरानी कहानियां सुन सके. आप फुर्सत में है तो ये गीत सुनिए...दिन के क़त्ल का सामान है...

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