27 December, 2010

किसी राह पर, किसी इंतज़ार में

मुझे बहुत कम किताबें पसंद आती हैं...और जो बेहद पसंद आती हैं ऐसा तो बहुत कम होता है. मैंने पचपन खम्भे लाल दीवारें जब पढ़ी थी...वो एक ठहरी हुयी दोपहर थी. घर के बरामदे पर मेरा नीले रंग का सोफा हुआ करता था उन दिनों...वो सोफा पूरे दोपहर आराम से लेट कर किताबें पढने के लिए बेस्ट था. आज भी लेट कर सोफे पर किताबें पढ़ना मुझे मेरे सबसे खुशनुमा दिनों की याद दिलाता है. 
आज मैंने सोचा है...देर रात जागुंगी, बहुत कुछ लिखूंगी...बहुत वक़्त हुआ, पूरी रात जाग कुछ लिखा नहीं...कुछ पढ़ा नहीं. दिन में चाहे जितना भी लिख लो, रात की बराबरी कोई और वक़्त कर ही नहीं सकता. फ़र्ज़ किया जाए कि रात के तीन बजने वाले हैं और मैंने कल ही कुणाल की जिद पर एक horror फिल्म देखी है...वैसे फिल्म बुरी नहीं थी पर जब भी ऐसी फिल्में देखती हूँ मुझे रात में थोड़ा डर लगता है. और चूँकि मेरे पास मेरे इस डर से बचाने के लिए कोई भगवान नहीं हैं तो मैं चाहती हूँ कि ऐसे किसी हालत में ना फंसूं. डर लगने पर मेरे पास कोई रास्ता नहीं होता है सिवाए गहरी सांसें लेकर खुद की सोच को किसी और दिशा में मोड़ने के. ये नहीं कह सकती कि हमेशा ऐसा कर ही पाती हूँ. But then, that is the reason why I have like tons of drafts that I am never gonna publish.

वापस पचपन खम्बे लाल दीवारें पर...मैंने जब किताब पढ़ी थी तो पूरी एक बार में एक सांस में. मुझे याद आता है कि जब मैंने पढ़ना शुरू किया था कोई दोपहर शुरू होने वाली थी...ग्यारह बज रहे होंगे...ख़त्म होने में लगभग दो घंटे लगे होंगे...मेरी बरामदे की खिड़की से घर का मेन गेट दिखता था और गेट के सामने जामुन का बड़ा सा पेड़...और सड़क. देर दोपहर उस सड़क पर कोई नहीं आता था, वो दोपहर आज की रात की तरह थी, एकदम खामोश. मेरा रोना भी चुप ही होता था...आँखों से आँसू चुप चाप चल पड़ते थे, जैसे किसी को दिल भर के प्यार करने के बाद उसकी जिंदगी से जाना पड़े. किसी से दूर होते वक़्त आप क्या कह सकते हैं. ऐसा क्या कह दूं कि मेरे जाने का दर्द कम हो जाए...ऐसे कोई शब्द नहीं होते हैं. 

वो दोपहर थी...नील नहीं आने वाला था, हाँ पचपन खम्बे का नील...मुझे लगता था कि सामने की सड़क से वो आएगा, आज की शाम से पहले आएगा. जिंदगी में पहली बार किसी उपन्यास के किरदार से प्यार हुआ था. मेरी जिंदगी में नील के नहीं होने के कारण मैं बहुत टूट कर रोई थी उस दिन. बहुत गुस्सा आया था उषा प्रियंवदा पर...उस दिन पहली बार जाना था किसी का जिंदगी से ऐसे चला जाना...एकदम फेड आउट हो जाना, जैसे वो कभी जिंदगी का हिस्सा था ही नहीं. मैंने ये किताब अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा खोयी है और खरीदी भी है. तब से नील का जाना बहुत चुभा है...आज भी कभी ऐसी रात में सोचती हूँ तो याद आता है वो पाटलिपुत्रा का चौराहा जो घर के सामने पड़ता था...दूर के हलके जमुनी रंग के पेड़...और नील, जो उस दोपहर नहीं आया. नील किरदारों में मेरा पहला प्यार है...हमेशा से. कभी कभी लगता है आज भी उसका इंतज़ार उसी राह पर कर रही हूँ पर वो कभी आएगा नहीं. 

किसी के जाने पर ऐसे टूट कर बस एक ही बार और रोई हूँ...गॉन विद द विंड के रेट बटलर के लिए. उफ़ वो कितना हैंडसम था...उसका जाना इतना हार्ट ब्रेकिंग था. Frankly my dear, I don't give a damn. आज उसकी बात नहीं कर पाउंगी...फिर कभी. 

24 December, 2010

उसकी सजाएं

दिन गुज़रते, उसकी सजाएं और भी ज्यादा कातिल होतीं जा रही थीं...
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वो अपनी स्कूटी मेरे एकदम पास ला कर जोर से ब्रेक मारती और रोकती. हमेशा कहता था कि जिस दिन तुम्हारी गाड़ी के ब्रेक फेल हुए सबसे पहला मरने वाला मैं ही होऊंगा. उसके इस रुकने के अलावा कोई तरीका नहीं था पता करने का कि स्कूटी वही चला रही होगी, मैं तो क्या कोई भी नहीं पहचान पाए उसे. कितने परदे होते थे उसके मेरे बीच. सबसे पहले अपना हेलमेट उतारती थी, फिर स्कार्फ, गले तक बंद ऊँची जैकेट, दास्ताने और आखिर में उसके वो बड़े सनग्लासेस...इतने पर्दों के बाद जाके नज़र आती थी उसकी आँखें...हलकी नीली, पारदर्शीं. उन आँखों में कौन सी ख़ुशी नाचती रहती थी मैं समझ नहीं पाया...क्यों होती थी इतना खुश वो मुझसे मिलकर हमेशा?

स्कूटी स्टैंड पर लगा कर वो धीमे क़दमों से मेरे पास आती थी और एक पल को लगता था जैसे चिलचिलाती गर्मी में बर्फ सा ठंढा पानी का एक जग अन्दर उतर गया हो. वो लगती भी तो थी बर्फ की गुड़िया, छू देने भर से पिघल जाने वाली...बाँहों में होती थी तो रूह तक भीगने लगती थी. उसका ये पल भर मेरी बाँहों में आना हर बार इतना आश्चर्य और सुकून कैसे देता था मैं आज तक नहीं समझ पाया. वो जितनी देर आसपास रहती थी मौसम जाड़ों का होता था, खुशगवार...धूप गुनगुनी और हवा में खुनक. हर बार चैन से बैठ कर मेरी गर्लफ्रेंड्स की कहानियां सुनती थी, कभी अपनी राय देती थी...कभी कोई मुश्किल का हल बताती थी. कभी कभी जिद्द पर अड़ जाती कि अपनी गर्लफ्रेंड्स का नाम तो बताओ, किसी एक का बता दो कमसेकम. मैं हर बार बहाने बना के टाल जाता था. इस जिद के बावजूद उसे मेरी किसी गर्लफ्रेंड का नाम जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है ये भी मैं जानता था.

मैं उसे उस वक़्त से जानता था जब रिश्तों के नाम नहीं होते...जिंदगी में होना होता है बस. मैं नहीं जानता कि मैं उसे कैसे प्यार करता हूँ...एक दोस्त की तरह, बहन(?), प्रेमिका या सब कुछ से परे कुछ. उससे पहली बार मिला था उसके कुछ सालों बाद इतना तो जान गया था कि उसको बहन की तरह तो बिलकुल भी नहीं प्यार करता हूँ...उसके अलावा किसी भी रिश्ते से ऐतराज़ नहीं था. जिंदगी के इतने मोड़ पर हम टकराते रहे कि किस्मत जैसी किसी चीज़ पर आज यकीन करने को दिल चाहता है. जिंदगी में उसके पहले भी लड़कियां थीं, उसके बाद भी लड़कियां आयीं पर सबके होने के साथ और सबके होने के बावजूद वो हमेशा मेरी जिंदगी का हिस्सा रही.

जिंदगी के किसी चौराहे पर, किसी मोड़ पर...ठहरे हुए किसी लम्हें में वो पलक झपकाने जैसी याद आ जाती थी, अचानक. जब भी फुर्सत से जिंदगी के बारे में सोचा करता था वो जैसे किसी परदे की पीछे झांकती मिलती थी. बचपन के उन दिनों की तरह जब उसे छुपा छिपी खेलना पसंद था...और मुझे क्रिकेट. उसका छुपा छिपी मुझे बहुत बचकाना लगता था और उसका वो कहीं से भी आके 'धप्पा' दे देना बेहद गुस्सा दिलाता था. सारे लड़कियों के खेल, खाली नौटंकी. बिन मतलब की जिद...कि मैं आई हूँ तो क्रिकेट खेलने मत जाओ...अरे तुम कोई महारानी हो जो तुम्हारे आने पर खेलने नहीं जाऊं. सन्डे को अधिकतर बड़े मैच होते थे.
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उससे मिले कुछ साल बीत गए थे. बड़े दिन बाद वापस पटना जाना हुआ था, इत्तिफाकन वह भी घर आई हुयी थी उस समय. हफ्ते भर की छुट्टियाँ थी पर कुछ ना कुछ कारण होने से मिलने नहीं जा पाया. छुट्टियाँ ख़तम और वापस आना पड़ा...ट्रेन में सारे वक़्त सोचता रहा कि उससे मिल नहीं पाया इस बार, उसे पता चला तो क्या करेगी. झगड़ झगड़ के जान ही ले लेगी, उसका गुस्सा, उफ्फ्फ...बस मम्मी गुस्सा किया करती थी मेरे ऊपर इतना ज्यादा उसके अलावा.

अगली शाम सड़क पर टहल रहा था कि उसे देखा. खुले लहराते बाल, स्लीवलेस टी-शर्ट और गले में पड़ा स्कार्फ...गहरे लाल रंग का...दूर से ही पहचान में आ गयी. पर वो इतना तेज़ क्यों चला रही थी स्कूटी, ना हेलमेट ना जैकेट...दिमाग तो नहीं फिरा है लड़की का. इस बार उसने बाइक थोड़ी सी दूर पार्क की...जब वो मेरी तरफ आ रही थी तो सोच रहा था कि ये हमेशा इतनी सुन्दर थी या आज ख़ास लग रही है, उसके चेहरे से नज़र ही नहीं हट रही थी. वो एक खाली सी सड़क थी, बहुत ज्यादा ट्रैफिक नहीं था कालोनी के भीतर...वो एकदम धीमे कदम लेती हुयी मेरे पास आई...उसने कुछ तो हील पहन रखी होगी, बिलकुल मेरी आँखों की हाईट पर उसकी आँखें थीं...मेरे बायें कंधे पर अपना हाथ रखा और मेरी आँखों में देखते हुए बोली...तुम इस बार पटना आके मुझसे मिले बिना चले गए? जानते हो मुझे कैसा लगा?

मेरी आँखों में आँखें डाले हुए वो जैसे स्लो मोशन में मेरे पास आती गयी, जब कि उसका चेहरा धुंधला गया...वो बस महसूस हो रही थी होटों से इंच भर के फासले पर जब उसने कहा 'ऐसा'. और एक लम्हे में वो मेरी बाँहों से फिसल कर अपनी स्कूटी पर पहुँच गयी, यु टर्न लिया और चली गयी...बस ऐसे ही. मैं जब तक सम्हलता कि वो जा चुकी है मुझे याद तक नहीं आ रहा था कि वो सच में आई थी या मैंने कोई सपना देखा था. पूरा शरीर शॉक की अवस्था में था. उबरने में थोड़ा वक़्त लगा. आसपास देखा तो सब एकदम शांत, धीमा जैसे कहीं कुछ हुआ ही ना हो. उसकी हलकी सी खुशबू अपने आसपास महसूस कर सकता था मैं. दिल की धड़कन ऐसे बढ़ी हुयी थी जैसे पूरी कालोनी का एक राउंड दौड़ के खड़ा हुआ हूँ. मतलब...वो आई तो थी.

मैंने बहुत बार उस शाम का विश्लेषण करने की कोशिश की...पर उस शाम को यथार्थ की तरह देख ही नहीं पाता था...सब लगता था जैसे सपने में घटा हो. उसकी आँखें, उसके बाल, उसका स्कार्फ, उसकी बाहें...और उसकी सांसें मेरी साँसों में घुलती हुयी...बस. मैं उससे प्यार करता हूँ क्या? और इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल था कि वो मुझसे प्यार करती है क्या?

उसे फ़ोन लगाया तो नंबर स्विच ऑफ...अगले दिन घर फोन किया तो आंटी ने कहा कि कहीं टूर पर गयी है बाहर...फ़ोन नहीं लेगी उधर. लैंडलाइन से कॉल कर लेती है रोज़ शाम को, कोई बात है...कोई मेसेज देना है? अब मेसेज क्या दूं उसे जहाँ सवाल दर सवाल फैले हुए हैं. उस दिन के बाद सदियों उसे ढूँढने की कोशिश की, वो कहीं नहीं मिली. उसने कभी कॉल नहीं किया...कभी याद भी नहीं किया. उससे मिलने के ठीक एक महीने बाद मेरे नाम एक पार्सल आया था...मैं इतना परेशान था उसे ढूँढने में कि पार्सल खोला भी नहीं था. कुछ सात आठ साल हो गए होंगे...एक दिन अचानक से वो पार्सल सामने मिला.

पार्सल में एक गहरे लाल रंग का स्कार्फ था और एक छोटा सा कागज़ का टुकड़ा...एक ही पंक्ति लिखी हुयी थी उसपर. 'मेरी सन्डे शाम की फ्लाईट है...रोकने आओगे क्या?'. दिल तो किया वो सामने रहती अभी तो खींच के थप्पड़ मारूँ उसको...पर वो दूर देश में थी कहीं...हर नेटवर्क से कटी हुयी.

कल की मेरी फ्लाईट है...रास्ता बहुत लम्बा है, दूसरे महाद्वीप तक का, बीच में कई समंदर आते हैं...सोच के कई सारे टापू...
हर सिम्त सोचता हूँ कि उसे जब मिलूँगा तो पहले थप्पड़ मारूँ या उसके होठों को चूमूँ?

22 December, 2010

तुम्हारे आने का कौन सा मौसम है जान?

जान...आज जाने कितने साल हो गए तुम्हें एक नज़र देखे हुए. अभी अभी लॉन्ग ड्राइव से लौटी हूँ. ड्राइविंग लाइसेंस एक्सपाइर होने वाला है, उसको रिन्यू कराने के पहले के कई सारे कागजातों का पुलिंदा है, मेडिकल सर्टिफिकेट है, इन सबके बीच कमजोर होती नज़र है...उम्र का तकाजा वाले कुछ मूड स्विंग्स हैं.

सोचती हूँ कि इस लाइसेंस के ये आखिरी दिन थोड़ी दूर तक ड्राइव करती चली जाऊं, कौन जाने किस शहर में, किस ट्राफिक सिग्नल पर तुम दिख जाओ. जबसे तुमने मना किया है गाड़ी तेज नहीं चलाती हूँ. वैसे तो मेरा आज भी मानना है कि मुझे अगर किसी ट्रैफिक एक्सीडेंट में मरना होगा तो पैदल चलते हुए मरूंगी, गाड़ी चलाते हुए नहीं. पर क्या करूँ, जाते हुए तुम्हारा आखिरी फरमान जो था...गाड़ी ठीक से चलाना. सोचती हूँ, तुम्हें पता होगा क्या कि वो हमारी आखिरी मुलाक़ात होगी? बोलना ही था तो कुछ अच्छा कहते...अपना ख्याल रखना, मैं तुमसे हमेशा प्यार करता रहूँगा, मुझे याद तो रखोगी न टाइप कुछ...मगर गाड़ी ठीक से चलाना?! ये कोई बात है आखिरी मुलाक़ात में कहने की.

कार अब तक जाने कितनी दूर आ चुकी है...शायद उतनी ही जितनी मैं खुद, जितनी दूरी मेरे तुम्हारे बीच खिंच गयी है कुछ उतनी? आजकल मौसम में ठंढ बहुत बढ़ गयी है और मैंने एक बार अपनी तबियत का ख्याल न रखते हुए(तुम्हें याद तो है न तुमने मुझे अपना ख्याल रखने नहीं कहा था?) मैंने खिड़की के शीशे उतार दिए. गाल लगभग सुन्न ही हो गए थे...चश्मे पर भी भाप सी जमने लगी थी. आँख के आंसू हवा में घुलने लगे थे और कार के शीशे पर भी पानी की नन्ही नन्ही बूँदें ठहरने लगी थीं.

घर पर हूँ और सोच रही हूँ कि आज के सूचना और टेक्नोलोजी के ज़माने में ऐसा कैसे मुमकिन है कि कहीं तुम मुझे ढूंढ ना पाओ. जिस जमाने में ये सब कुछ नहीं था तब भी तुम मुझे ढूंढ निकालते थे...याद है वो नए साल का सरप्राइज जब तुम हॉस्टल की दीवारें फांद कर बस मुझसे मिलने आये थे एक लम्हे के लिए बस. वो लिफ्ट में जब तुमने कहा था 'किस मी' तुम्हें याद है कि चलती लिफ्ट के वो भागते सेकंड्स जब भी याद करती हूँ हमेशा स्लो मोशन में चलते हैं.

बहुत साल हो गए जान...अफ़सोस कि मैं एक स्त्री हूँ इसलिए ये नहीं कह सकती...कि जान मैंने सात पैग व्हिस्की पी है, दो डब्बे सिगरेट फूंकी है और तब जा के कहने की हिम्मत कर पायी हूँ...काश कि ऐसा होता मेरी जान. पर मैंने कोई नशा नहीं किया है...तुम्हारी याद को ताउम्र जीते हुए, आज इस सांझ में तुम्हारी आँखों में आँखें डाल कर कहना चाहती हूँ 'मुझे लगता है मुझे तुमसे प्यार हो गया है जान...काश तुम सामने होते तो तुम्हारे होठों को चूम सकती'.

Some people come in your life for a reason, some people come in life for a season and some people come in your life for-ever.

'तुम्हारी बहुत याद आती है जान...किसी रोज आ जाओ अब...बहुत कम जिंदगी बाकी है'

21 December, 2010

प्यार की खुशबू

पहला प्यार...अलग लोगों को अलग चीज़ें याद आती होंगी. मैं याद करती हूँ तो मुझे याद आती है धूप वाले जाड़े की दोपहरें...और लान में लगी कुर्सियां. कहीं पढ़ा भी था कि दिसंबर इश्क करने का वक़्त होता है. हमने अपने समीकरणों पे रख के देखा और कहावत को सही पाया...होना भी चाहिए, दिसंबर में जाड़े की छुट्टियाँ जो होती हैं, ये इकलौती ऐसी छुट्टियाँ होती हैं जिनके बाद एक्जाम नहीं होते. स्कूल/कॉलेज खुलने के बाद भी नोर्मल क्लास होते हैं. 

जाड़ों की अच्छी प्यारी धूप में कुर्सी टेबल लगा के बैठे हुए पढ़ा करते थे. हाँ...पहले प्यार से हमेशा केमिस्ट्री भी याद आती है, एक वही ऐसा सब्जेक्ट था जो गुनगुनी धूप में किसी के बारे में सोचते हुए भी पढ़ा जा सकता था. कलम उधर इक्वेशन लिखती और दिलो दिमाग इधर अपने समीकरण दौड़ाता रहता. कार्बोन, हाइड्रोजेन और ओक्सीजेन उनके बीच के बोंड्स सब चलते रहते...सब कुछ याद भी होता रहता. मैं अपने दिमाग को मल्टी-टास्किंग कहती थी. किसी को पूरी शिद्दत से याद करते हुए पढ़ाई करना कोई साधारण इंसानों का काम था, इसके लिए बेहद concentration की आवश्यकता होती थी.

मेरे पाटलिपुत्रा वाले घर में बहुत सारे कनेल के पेड़ थे जो जाड़ों में पीले फूलों से लदे रहते थे तो हवा में हलकी सी कनेल की तीखी गंध भी तिरती रहती थी. उसके अलावा बहुत से गुलाब जो हमारे पड़ोसी ने लगाए थे और मेरे घर के आगे के जंगली गुलाबों की खुशबू bhi  रहती थी. वो गुलाब खूबसूरत नहीं होते थे पर बेहद खुशबूदार होते थे धूप की गर्मी में ये सारी खुशबुयें एक मोहक समां बना देती थीं. मोहल्ले में गुलमोहर और अमलतास के पेड़ थे और बोगनविलिया...तो जब पढ़ना बहुत हो जाता था तो आराम से धूप की ओर पीठ कर के चेहरे को अपने पसंदीदा सिल्क के स्कार्फ से आधा ढक लेते थे और किसी गीत को गुनगुनाते हुए झपकी मार लिया करते थे. 

याद इस वाकये की यों आई कि मेरा एक करीबी दोस्त अभी लन्दन से वापस आ रहा था...सो हमने कह दिया, मेरे लिए एक सेंट लेते आना. लोग अक्सर विदेश से परफ्यूम लेके आते हैं पर हमको चूँकि पता था कि अगर हम बोलेंगे नहीं तो अठन्नी नहीं लाएगा सो हमने कह दिया. उसने मेरे लिए जो परफ्यूम लिया उसका नाम है 'Trésor in Love' by Lancôme. अब जैसा कि होता है...हमने इन्टरनेट पर रिसर्च मारा कि ये कैसा परफ्यूम है...क्योंकि नील ने तो बस काउंटर पर पूछा होगा और लिया होगा मेरी जिम्मेदारी बनती है कि देख लूं कि कौन लोग लगाते हैं ऐसा परफ्यूम. हमको बहुत ज्यादा आइडिया तो है नहीं इन चीज़ों का, ऐसा ना हो कोई पूछ ले या कुछ बोल दे तो हमको कुछ बोलने को ना मिले. 

परफ्यूम को पहली बार लगाया था तो पटना की दोपहरें ही याद आयीं थी...गुनगुनी, खुशमिजाज़ और खुशबूदार, एक दौर की जब चिंता नहीं होती थी, जब सब अच्छा होता था. बाद में पढ़ा तो जाना कि ये एक स्प्रिंग यानि कि बहार या वसंत की खुशबू है.  अच्छी सी, खुशनुमा सी...इसके description में लिखा है कि ये प्यार के पहले लम्हे को शीशी में बंद करने की कोशिश है. अधिकतर इन चीज़ों पर मेरा विश्वास नहीं होता. चूँकि खुद भी इसी फील्ड से हूँ...जानती हूँ कि advertising में ये सब बस कोरे शब्द हैं...पर आश्चर्यजनक रूप से इस परफ्यूम के विषय में सच में ऐसा लगता है कि पहले प्यार की ही खुशबू है. 

तो ये आज की पोस्ट...To my women readers...indulge yourselves...it makes you feel happy, young, liberated. और बाकी लड़के जो पढ़ रहे हैं...अगर वाइफ, प्रेमिका या किसी अजीज दोस्त को कोई परफ्यूम गिफ्ट करना है तो कर सकते हैं. उसे अच्छा लगेगा. 

डिस्कलेमर: इस पोस्ट को लिखने के लिए हमको कोई पैसे नहीं मिल रहे हैं...ना कोई फ्री की परफ्यूम मिल रही है :) ये पोस्ट पूरी पूरी लोगों की मदद करने के लिहाज से लिखी गयी है :)

20 December, 2010

मुझे जां ना कहो मेरी जां

'जान'...तुम जब यूँ बुलाते हो तो जैसे जिस्म के आँगन में धूप दबे पाँव उतरती है और अंगड़ाइयां लेकर इश्क जागता है, धूप बस रौशनी और गर्मी नहीं रहती, खुशबू भी घुल जाती है जो पोर पोर को सुलगाती और महकाती है. तुम्हारी आवाज़ पल भर को ठहरती है, जैसे पहाड़ियों के किसी तीखे मोड़ पर किसी ने हलके ब्रेक मारे हों और फिर जैसे धक् से दिल में कुछ लगता है, धडकनें तेज़ हो जाती हैं साँसों की लय टूट जाती है. इतना सब कुछ बस तुम्हारे 'जान' बुलाने से हो जाता है...एक लम्हे भर में. तुम जानते भी हो क्या?

कभी कभी यूँ ही तुम्हारी आवाज़ सुनने की हसरत जाग जाती है...तब मैं आँखें बंद कर सोचने की कोशिश करती हूँ कि तुम कैसे बोलते हो...पर कहीं ना कहीं याद में कोई कमी रह जाती है और याद की तुम्हारी आवाज़ तुम्हारी आवाज़ जैसी बिलकुल नहीं लगती. तुम्हारी आवाज़ को याद करते हुए मुझे अपने संगीत सीखने के दिन याद आते हैं...जब पहली बार जाना था कि मन्द्र सप्तक के सुरों में नीचे बिंदी लगाते हैं और तार सप्तक के सुरों में ऊपर...कोमल स्वरों में छोटी रेखा खींचनी होती है स्वर के नीचे...वो बचपन के दिन थे, कई बार सही मात्राएँ लगाना भूल जाती थी...ऐसे में राग की 'पकड़' से राग समझना बहुत मुश्किल हो जाता था. वो मात्राएँ ही राग का स्वरुप निर्धारित करती थीं उनके बिना रियाज़ नामुमकिन था...मेरा अगला संगीत का क्लास एक हफ्ते बाद होता था. उस पूरे हफ्ते मैं किसी सुनी हुयी धुन को बजाने की कोशिश करती रहती थी. पर हर बार कहीं ना कहीं कोई सुर गलत लग जाता था और आलाप बहुत ही बेसुरा हो जाता था. ऐसा ही कुछ होता है तुम्हारी आवाज़ को तलाशने पर...कभी भी कुछ पूरा नहीं मिलता. मैं किन्ही अँधेरी गुफाओं में टटोल कर बढ़ती रहती हूँ कि कहीं तुम्हारी याद की कोई प्रतिध्वनि कहीं से टकरा के वापस लौट रही हो...उससे तुम्हारा पता पूछ लूंगी.

तुम्हारे बिना एकदाम खामोश अँधेरा होता है और मैं खुद को एक सीलन वाली सुरंग में पाती हूँ...वहां बस पानी कि टप-टप सुनाई पड़ती रहती है. मैं चाहती हूँ कि मैं अपनी धड़कनें सुन सकूँ...पर ख़ामोशी इतनी गहरी होती है कि जैसे दिल धड़कना बंद कर देता है. ऐसे उदास अकेलेपन में जिस्म ऐंठना शुरू कर देता है...तुमने जेठ के समय के खेत देखे हैं? कभी कभी दरारें पड़ जाती हैं कुछ वैसी ही टूटन सी होती है. कई बार यूँ भी लगता है कि सब कुछ एकदम कठोर, एकदम शीशे की तरह पारदर्शी भी हो गया है. इस बार जब तुम आओगे और कहोगे 'जान' तो मैं छन् से बिखर जाउंगी एकदम छोटे टुकड़ों में.

तुम्हारी आवाज़ के खालीपन को कई चीज़ों से भरने की कोशिश भी करती हूँ...दूर सड़क पर दौड़ते बस, ट्रक, स्कूटर...पेड़ पर बैठा कव्वा, बैक होती गाड़ी का सायरन...फ्रिज का हल्का वाइब्रेशन, नीचे गली से आता लोगों का शोरगुल...सब सुनती हूँ. कुछ लोगों को फोन भी करती हूँ...कभी गाने भी सुनती हूँ पर ये जिद्दी दिल है कि अड़ा हुआ है...तुम्हारी आवाज़ ही चाहिए और कुछ भी नहीं. सारे खिलोने तोड़ डाले कि 'मैय्या मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों'. अब मैं इस दिल को चाँद कहाँ से ला के दूं?

रात को नींद नहीं आती, लगता है कि मर जाउंगी. कि सोचती हूँ कि मरने के पहले, एक पल को सब कुछ ठहर जाए...तुम सामने रहो और उठ कर एक बार तुम्हारे होठों को चूम लूं.

मुझे जां ना कहो, मेरी जां
जां ना कहो, अनजान मुझे
जां कहाँ रहती है सदा



(बंगलोर की एक ठंढी दोपहर...सुबह से इस गीत को सुनने के बाद...गीता दत्त के कहानी से वाकिफ होते हुए,  याद के एक ज़ख्म को सहलाते हुए लिखी गयी)

17 December, 2010

आई स्टिल लव यु जान

एक खामोश ढलती शाम, जिंदगी सी पर रंगों से भरी, जीवंत, खुशमिजाज़ जैसे कि एक भरपूर जिंदगी जीने के बाद महसूस होती है. शहर में कई हाई-टेक, एक्टिविटी पार्क उभर आये हैं जिनमें हर उम्र के लोगों के करने के लिए कुछ है. पर कई बार लोगों का बस बैठ के बात करने का मन होता है बिना किसी बैकग्राउंड म्यूजिक के, ऐसे चंद लोगों के लिए उस ३० मंजिली इमारत की छत एक कैफे में परिवर्तित है. छत के किनारे शीशे के रेलिंग्स हैं और कहते हैं शाम का नज़ारा वहां से बेहद खूबसूरत और अनछुआ दिखता है. ऐसी शाम को ढलते हुए देखने वाले लोग कुछ कम हैं, इसलिए उस कैफे में शोरगुल भी बहुत कम होता है. वहां हर तरह की cuisine भी मिल जाया करती है. नीश(niche) मार्केट को देखने वाले इस कैफे की दूर दूर तक ख्याति फैली है और लोग एक ख़ास तरह के मूड में अक्सर वहां आते हैं.

कैफे की एक ऐसी ही शाम पश्चिम वाले सोफे पर दो लोग एक खामोशी में अपना रंग घोल रहे थे. कोई पचास की उम्र का बेहद आकर्षक पुरुष, बेफिक्री से रखे बाल जो कि बिलकुल सफ़ेद थे पर आश्चर्यजनक रूप से उसकी उम्र को कम ही करते दिखते थे. गुजरती धूप में उसकी हलकी भूरी आँखों में आसमान का अक्स नज़र आ रहा था. साथ बैठी स्त्री की आँखें एकदाम काली थीं, गाँवों में रात को जैसा आसमान नज़र आता था कुछ साल पहले, वैसी हीं कुछ. संदली रंग का सिल्क का कुरता उसके गोरे रंग को गज़ब का निखार रहा था. इस उम्र में भी उसके चेहरे पर एक बालसुलभ मुस्कान थी जो उसकी खूबसूरती को और बढ़ा दे रही थी. दायें गाल पर पड़ता हल्का डिम्पल और आँखों में थोड़ी चंचलता.

'तो जान, बच्चे तो सेटल्ड हो गए तुम्हारे? अब तो निश्चिन्त लग रहा होगा.' 
'पता है शिशिर, मुझे कोई जान नहीं बुलाता'. 
'अरे अभी मैंने बुलाया ना! अब तो इतनी जल्दी भी भूलने लगी है, एकदम बुड्ढी हो गयी है तू'
'हाँ, उम्र तो हुयी अब...अब नहीं भूलूंगी तो कब भूलूंगी. अब बच्चे नहीं रहे घर में ना, मन भी नहीं लगता है. कॉलेज में यूँ तो आधा दिन कट जाता है, पर बाकी का पता नहीं क्या करूँ. सोच रही हूँ फिर से क्लास्सिकल म्यूजिक शुरू करूँ, पर पता नहीं  अब इतने साल हो गए गाऊँगी कैसा. तू अभी तबला बजा पायेगा क्या?'
'पता नहीं, मुझे भी बहुत साल हो गए...उतना अच्छा तो शायद नहीं बजा पाऊंगा पर शायद बजा लूं थोड़ा बहुत. आजकल राशि को रविन्द्र संगीत का शौक़ लगा है. दिन भर बोलते रहती है पापा वो 'पुरानो शेई डिनर कोथा' सुनाओ ना. ये बैक टू रूट्स वाले अच्छा काम कर रहे हैं ना...वरना कितना कुछ है जो खो रहा है ना. तुम्हें पटना की याद आती है?'
'हाँ आती है ना, पर बच्चे तो बस देखते हैं बस, बिहार की आत्मा को जी नहीं सकते. उनका दोष थोड़े ही है, इस जेनेरेशन को जड़ें समझ में नहीं आएँगी ना, किसी जगह से जुड़ना वहां की हवा, पानी, यादों को पनपने देना...हम इसलिए कर पाए कि बचपन एक जगह गुज़ारा. बच्चे तो इस हजारों देशों के इस शहर से उस शहर के बीच में बस इतना याद रख पाएं कि भारतीय हैं तो बस मेरे लिए काफी है. मेरी निलोफर तो मुझपर गयी है, पुरातत्ववेत्ता बन जायेगी जल्दी ही. कौन कौन से किले, महल, खँडहर भटकती रहती है, रोज आके कहानी सुनाती थी कि मम्मा आपको पता है यहाँ के भगवान लोगों की बीमारियाँ दूर कर देते हैं. उसकी दोपहर वाली गप्पें बड़ी मिस कर रही हूँ आजकल.'
'मेरे घर आ जाया कर, बेटी पता नहीं किसपर गयी है. इतना बोलती है कि चुप होने का नाम ही नहीं लेती, उसको देखता हूँ अक्सर तेरे बचपन की याद आती है. तेरी दो चोटियाँ और कभी ना बंद होने वाला रेडियो. आके उसकी गप्पें सुना कर, लिखती भी है, जाने क्या. मुझे कभी पढ़ाया नहीं पर झुमुक बताती है कि आजकल उसकी सारी कापियों के आखिरी पन्नो में कुछ ना कुछ लिखा मिलता है. तू उसे शायद थोड़ा आइडिया भी दे सकेगी, इतनी उर्जा है कि क्या करेगी कंफ्यूज हो जाती है. कभी बोलती है किताब लिखूंगी, कभी बोलती है फिल्म बनाउंगी...कभी सब कुछ करने का एक साथ सोचती है. हम दोनों मियां बीवी के लिए तो एकदम पहेली है. थोड़ा थोड़ा अब समझ में आता है कि अंकल आंटी एक तुझे बड़ा करने में कैसे परेशान हो जाते होंगे. कभी कभी लगता है कि दिल में इतना चाहता था कि मेरी बेटी तेरी जैसी हो...तो ऊपर वाले ने सुन ली. पता है, आजकल मैं मंदिर भी जाता हूँ उसके साथ कभी कभी.'
'आती हूँ रे, मेरा भी बड़ा मन है उससे मिलने का, बचपन में देखा था...नाक नक़्शे एकदम तेरे जैसे हैं, खास तौर से आँखें. चंचल तो उस समय भी बहुत थी. झुमुक को पूरे घर में दौड़ाती रहती थी. पर बच्चे चंचल ही अच्छे लगते हैं, बड़े होके तो सबकी अपनी अपनी पर्सनालिटी हो जाती है. कितने साल बाद एक शहर में हैं ना हम लोग...बंगलोर अच्छा लगने लगा है, इतने साल बाद लौटी हूँ ना. हरियाली कम नहीं हुयी है एकदम, मेरे कॉलेज कैम्पस में तो ख़ास तौर से, केबिन के आगे खिड़की खुलती है...दिन भर अच्छी हवा आती है और कभी कभी तो गौरेय्या भी अन्दर फुदक आती है.' 
'हाँ जान, साल तो बहुत हो गए, मुझे लगता है छह, नहीं आठ साल हो गए...पिछली बार आई थी तो जिनी का दसवां जन्मदिन था. और आज लड़की अठारह की होने वाली है बताओ, सच में बेटियों के बढ़ते देर नहीं लगती.' 
'तू मुझे जान क्यों बुलाता है, नाम लेकर नहीं बुला सकता क्या?'
'जान बुलाता हूँ क्योंकि तुझमें मेरी जान बसती है, तुझे कोई प्रॉब्लम है?' 
'और झुमुक को क्या बुलाता है?'
'झुमुक'
'अरे, ये तो बेईमानी हुयी ना, बीवी है तुम्हारी वो'
'तो? बीवी में जान बसनी जरूरी है? करता तो हूँ बहुत प्यार उससे, मरता हूँ उसपर...पर जान!, जान मेरी तुझमें बसती है, बचपन का प्यार भूला नहीं जाता रे. तुझे बुरा लगता है?'
'नहीं रे, कभी तेरी किसी बात का बुरा नहीं लगा...तू भी एक पागल है'
'हाँ, और दूसरी पागल तू'
'हम बिलकुल नहीं बदले शिशिर...देख ना, पूरी अच्छी प्यारी जिंदगी गुजरी, तू भी उसका हिस्सा रहा...तेरी जिंदगी में मैं भी रही. सब उतना कॉम्प्लीकेटेड नहीं है जितना लोग बनाते हैं. हमारी किस्मत भी अच्छी थी, हमें लाइफ पार्टनर भी अच्छे, समझदार और इतने प्यार करने वाले मिले'
'हाँ जान'
'फिर'
'फिर क्या?'
'चलते हैं...पार्टी प्लान करनी है ना...तेरे गोल्डेन बर्थडे की, पचास का हो गया तू, बच्चों ने फोन किया था कल...कि पार्टी आप ही अरेंज कीजिये...आपकी पार्टियाँ बेस्ट होती हैं'
'ब्रेकिंग न्यूज़ सुनी, मैं तुझसे बहुत प्यार करता हूँ रे, आई स्टिल लव यु जान'
एक मुस्कराहट और उसकी आँखों में देर तक देख के बोली 'पता है मुझे'

16 December, 2010

तेरे बोसे हमपे उधार हैं जानां

तुझको पल भर मिलूं और खूबसूरत हो दुनिया
मेरी नज़र में बस इक यही प्यार है जानां

तुझसे झगडूं तो मेरा बचपन लौट लौट आये
इससे प्यारी कोई तकरार है जानां?

नीम बेहोश पलकों को तेरे ख्वाब चूमें
तेरे बोसे हमपे उधार हैं जानां

तुम्हारी बालकनी पे शाम कोई सूरज डूबे
मेरी रातों को भी कौन सा करार है जानां

इत्तिफकों की कोई लौटरी निकल आये
तू मिले तो लगे, परवरदिगार है जानां

अबकी बार मेरी बाँहों में पल भर रुकना
तुझे मालूम पड़े तुझको भी प्यार है जानां

15 December, 2010

लहरों का सफ़र, किनारे तक

आज सुबह उठी तो पोस्ट लिखी कि पिछले पांच सालों में ब्लॉग में क्या क्या किया...क्या लिखा क्यों लिखा वगैरह. फिर सोच रही थी...कित्ता बोरिंग है. इतिहास इतना बोरिंग होता है, क्या लिखा, कैसे बदले...मानो कोई बहुत बड़ा तीर मारा है. ये सब लिखने के लिए बड़े लोग हैं. तो लगा कि बेस्ट है लिखना कि आज क्या लिखती हूँ, क्यों लिखती हूँ वगैरह. कई बार लगता है कि हम कल के पीछे इतना भागते हैं कि आज की प्रासंगिकता ही खो देते हैं.

२००५ में एहसास से शुरू हुआ सफ़र २००७ में लहरें पर आ के थोड़ा रास्ता बदलने को उत्सुक था. तो नया ब्लॉग बना लिया...मोस्टली इंग्लिश की पोस्ट्स लिखने के लिए और एक डेली जर्नल की तरह. अंतर ये था कि बजाये ये लिखने के कि मैंने आज क्या किया, जैसे खाना खाया, ऑफिस आई, बस पकड़ी वगैरह मैंने वो लिखना शुरू किया जो मैंने आज महसूस किया. किसी विचार ने परेशान किया वगैरह. कुछ ऐसा जो दिमाग में जाले बना रहा हो उसको उठा कर लहरों में बहा दिया. बचपन में भी जब डायरी लिखती थी तो ऐसे ही लिखती थी, कभी ये नहीं लिखा कि क्या घटा...हमेशा ये लिखा कि क्या महसूस हुआ. इसलिए पुरानी डायरियों में डूबते सूरज को रोकने की कोशिश, बारिश में भीगने का अहसास तो मिलता पर ये नहीं मिलता कि कहाँ, क्यों, कैसे...वगैरह. जब std 7 में पढ़ते थे तब ही सर ने कहा था कि डायरी लिखने से हिंदी अच्छी होती है. तब से ही उनकी बात मन में बाँध ली थी. उसके पहले जब हर ४ साल पर घूमने जाते थे तो भी दिन भर कौन से शहर में क्या देखा ये बचपन से लिखते थे. आज वो कोपियाँ पता नहीं कहाँ है पर पटना तक तो आराम से मिल जाती थी मुझे अलमारी के किसी कोने में.

आजकल लिखना दो तरह का होता है...एक तो आम पोस्ट कि आज ये किया, घूमने गए वगैरह...travelog मुझे आज भी बहुत फैसिनेटिंग लगते हैं, पर अब उतना घूमती नहीं हूँ कि लिख सकूँ और उसके लिए जो ढेर सारे फोटो चाहिए वो तो सारे बस दिमाग में हैं, उनको डेवलप कैसे करूँ. दूसरी और मेरी पसंदीदा टाईप कि पोस्ट होती है जिसमें माहौल सच होता है, लोग वही होते हैं जो मैंने अपने आसपास देखे हैं पर घटना काल्पनिक होती है. मैं एकदम नए कैरेक्टर थोड़े कम लिखती हूँ...मेरे अधिकतर लोग आधे सच आधे झूठ होते हैं. इसी तरह जगहें भी...सच की जमीं पर उगती हैं पर उनका आकाश अपना खुद का रचा होता है. मेरा लिखना वो होता है जो मन में आता है...जैसे कि किसी डायरेक्टर को शायद vision आते हैं वैसे ही कई बार पोस्ट लिखने के पहले कुछ वाक्य होते हैं तो मन के निर्वात में तैरते रहते हैं. उनको लिखना बड़ा सुकून देता है.

कई बार मैं जो लिखती हूँ लोग समझते हैं कि मेरी जिंदगी में घटा है...ऐसा कई बार होता भी है है, पर कई बार नहीं भी होता. और मेरे ख्याल से ऐसा ही कुछ मैं भी कहीं पढ़ना चाहती हूँ जिसमें एक हलकी सी धुंध के पार सब दिखे...कि जिसमें सवाल उठे कि क्या ऐसा सच में हुआ था? इसे मैं अपनी क्रिएटिव फ्रीडम मानती हूँ. अगर मुझे सिर्फ सच लिखने के बंधनों से बाँध दिया जाए तो छटपटा जाउंगी. पर हर बार कुछ कल्पना में लिखे को लोग संस्मरण कह के बधाई दे जाते हैं तो सफाई देने का मन भी नहीं करता...कई बार करता है तो दे भी देती हूँ. अभी तक के अनुभव से देखा है कि कविता को इस तरह के बंधन में नहीं बाँधा जाता, पर गद्य में लिखना वो भी फर्स्ट पर्सन में तो अक्सर लोगों को सच लगता है. ऐसा बहुत पहले मुझे महेन की कहानियां पढ़ के लगता था, कि जो घटा नहीं उसका ऐसा कैसे वर्णन किया जा सकता है. उस वक़्त मैं कहानियां लिखती भी नहीं थी.

शुरू में मुझे कहानियां और व्यंग्य दोनों लिखना नहीं आता था...कुछ कोशिशें कि थी पर नोवेल लिखने की, छोटी कहानियां नहीं लिखने की सोची कभी. मैं फिल्म स्क्रिप्ट लिखती हूँ तो मुझे सपने जैसे आते हैं, किरदार, सेटिंग, डाइलोग, कैमरा एंगल सब जैसे आँखों के सामने फ्लैश करता है. कहानी लिखते समय भी कुछ वैसा ही होने लगा...शुरू में बस जानी पहचानी जगहें आती थी इन फ्लैशेस में तो वैसा ही लिखती थी. किरदार अक्सर काल्पनिक होते थे क्योंकि लोगों को observe करना शुरू कर दिया था मैंने जब फिल्में बनाने की सोची थी, कुछ एकदम काल्पनिक भी लिखा, जैसे कहवाखाने का शहजादा. अभी लिखना वैसा ही होता है फ्लैश आता है, कुछ चीज़ें तैरने लगती हैं और जैसे जैसे लिखती जाती हूँ एक दुनिया बनती जाती है. मेरे ख्याल से लेखक का लिखा हुआ सब कुछ उसके या किसी और के जीवन में घटा हुआ हो ये जरूरी नहीं ये बाध्यता होनी भी नहीं चाहिए. होना चाहिए बस एक झीना पर्दा, सच और झूठ के बीच.

चूँकि लिखने का माध्यम ब्लॉग है तो कई बार ये taken for granted होता है कि घटनाएं सच्ची हैं. आज बस ऐसे ही  मन किया कि कह दूं...कि हमेशा लिखा हुआ सच नहीं होता. बार बार कहना कि संस्मरण नहीं है, कहानी है से बेहतर एक ही बार कह दिया जाए :)

12 December, 2010

तीस तक पहुँचने वाले कुछ साल

कह के जाने में हमेशा लौट आने का भाव छुपा होता है. अनिश्चितता होती है. उम्मीद होती है कि कोई रोक लेगा. कोई, महज़ दुनियादारी निभाने के लिए ही समझाएगा कि मत जाओ...जैसे कि मुझे बड़ा मालूम है कि जाना कहाँ है. आज पेपर में एक अच्छी आर्टिकल आई थी एक निर्देशक की थी, जिसने एक फिल्म बनायीं थी ३० की उम्र की औरतों के बारे में.

आश्चर्य हुआ, कुछ दिनों से मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रही हूँ. उस डिरेक्टर ने ये फिल्म बनाने का निर्णय कुछ ऐसे ही २७-२८ साल में लिया था. मुझे लगता है कि दो तरह की जिंदगियों के बीच एकदम यही उम्र होती है. फलसफे कहते वक़्त ये नहीं सोचना पड़ता कि कोई कहेगा तुमने दुनिया नहीं देखी है, कि लड़की हो, बच्ची हो दुनियादारी में ज्यादा दिमाग मत लगाओ. बल्कि यही एक वक़्त होता है जब शायद एक लड़की या कहें कि औरत अपनी दुनियादारी की परिधि खींचना चाहती है. ये वो वक़्त होता है जब बचपन से सीखा कुछ अपने खुद के अनुभव और उम्मीद के साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया रचता है जो एक हद तक प्रक्टिकल होती है पर सपने भी कहीं पीछे नहीं धकेले जाते.

वैसे कहते हैं कि लड़कियां जल्दी मैच्योर हो जाती हैं. हो नहीं जाती, होना पड़ता है. जब १४ की उम्र में दुनिया आपको सिखाने पर तुली हो कि बस में लड़कियां आगे बैठेंगी और लड़के पीछे तो आप अक्सर सोचती हैं कि बीच वाली चार सीटों पर कौन बैठेगा? कभी किस्मत आपको उसी बीच वाली सीट पर बिठा देती है क्योंकि आगे तो ऐसी धक्कमपेल है कि खड़े होने कि जगह नहीं है. माइंड ईट, मजबूरी है...और ऐसे ही साथ जाते हुए वो पहली बार महसूस करती है कि लड़के इतना बड़ा हव्वा नहीं होते जितना कि अधिकतर बनाया जाता है. वो भी हमारी ही तरह कुछ डरे हुए, कुछ सकपकाए से होते हैं. इन फैक्ट हमसे भी ज्यादा घबराते हैं. ऐसी किसी घटना के बरसों बाद लड़की अपने साथ कुछ वक़्त अकेला बिता सकती है, ख़ुशी ख़ुशी...ऐसे किसी लम्हे में वह सोचती है कि अच्छा हुआ को-एड में पढ़े, नहीं तो कितना डरते लड़कों से...जैसे स्कूल की या कॉलेज की बाकी लड़कियां डरती हैं. कि समाज और दुनिया चाहे जो पट्टी पढाये, हिसाब बराबर का होता है. बस आपको ये बात मालूम रहनी चाहिए. ऐसे किसी दिन वह किसी बॉय फ्रेंड को डिच करती है और घंटों अफ़सोस भी करती है. इस नारीसुलभ अफ़सोस और ग्लानी के बावजूद उसे अपने निर्णय पर दुःख नहीं होता क्योंकि वो जानती है कि रिश्ता बहुत दूर नहीं जा सकता.

३० साल की रेखा पर पहुँचने वाली ये स्त्री बहुत कुछ सोचती है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है बच्चों की प्लानिंग...आखिर दुनिया के हर माध्यम से यही चिल्लाहट आती है कि ३० के पहले एक बच्चा होना बहुत जरूरी है. इस बारे में अपनी एक मित्र से एक गज़ब की बात सुनी 'अरे औरतें हैं हम, कोई एक्सपायरी डेट के साथ थोड़े आते हैं कि एक्जैक्टली ३० होते ही सब ख़तम, थोड़ा आगे पीछे भी तो हो सकता है'. सुन कर इतना सुकून मिला जितना किसी लम्बे फेमिनिस्ट भाषण के बाद भी नहीं मिलता. फेमिनिस्म भी एक बहुत मिस्लीडिंग चीज़ है...अक्सर लोग एकदम एक्सट्रीम की बात करने लगते हैं. पर इसका मतलब किसी दो छोरों को और दूर करना नहीं एक ऐसा रास्ता निकालना है जिससे टकराव थोड़ा कम हो सके. मेरा हर तरह का फेमिनिस्म नापने का पैमाना है...किसी लड़के से इस बारे में बहस छेड़ दो कि लड़कियों को क्या पहनना चाहिए, बस...सब एक लाइन में आ जायेंगे. शोर्ट में पता चल जाता है कि कौन कितना लिबरल है, कौन पोलिटिकल है और कौन सच में ये निर्णय लड़कियों पर छोड़ना चाहता है.

उम्र के इस खूबसूरत पड़ाव पर, एक और साल के ख़त्म होते हुए, बहुत कुछ प्लान बनाती हूँ. यूँ तो जिंदगी को सालों में बांटना ही गलत है, पर कोई ना कोई तरीका तो होना चाहिए, यही सही. और भी कई अनर्गल बातें हैं...यूँ ही चलती रहेंगी, मूड के हिसाब से. बरहाल रात के पौने दो बज रहे हैं और मेरा बालकोनी में खड़े होके कोई गीत गुनगुनाते हुए coffee पीने का मन है. Sometimes it's so relieving to not be some sixteen year old.

(निकट भविष्य में जारी...)

07 December, 2010

एक लेखक का कन्फेशन

ड्रोपर से बूँद बूँद यादें टपकाती हूँ फाउन्टेन पेन की अतल गहराइयों में. नए कागज़ को जिस्तों के पुलिंदे से निकालती हूँ और राइटिंग बोर्ड पर क्लिप कसती हूँ कि आज एक कहानी लिखूंगी एकदम नए बिम्ब उभारते हुए. कहानी का पहला दृश्य उभरता है कि तुम्हारा नाम चस्पां हो जाता है और मेरी आँखें कुछ नया देखने में असमर्थ हो जाती हैं. पेन का निब निकालती हूँ, पानी में धोकर पुराना कचरा बाहर करती हूँ. जा कर पापा के शेविंग किट से पुराना कोई ब्लेड ढूंढती हूँ और उससे निब के पतले दोनों हिस्सों के बीच फंसाती हूँ, कमबख्त तुम्हारा नाम भी तो ऐसा फंसा है कि ना काट पाती हूँ ना पानी में घोल पाती हूँ.

फिर से लिखना शुरू करती हूँ, स्याही का रंग थोड़ा फीका पड़ गया है, जाने पानी मिला है या आंसू मेरे कहानी के पात्रों के साथ खिलवाड़ करने लगे हैं. लिखने में कोई नया नाम लिखने की कोशिश करती हूँ पर पेन इतना साफ़ होने के बावजूद चल नहीं पाता, थोड़ी झुंझलाहट से उँगलियों को झटका देती हूँ, सफ़ेद मोजैक के फर्श पर काली स्याही एकदम साफ़ दिखती है. मेरी कहानियों में तुम ऐसे ही खुद को देख लेते होगे क्या? सब सोचने के बाद तुम्हारे माता-पिता पर भी बहुत गुस्सा आता है, क्या जरूरत थी इतना अलग नाम रखने की...कोई राहुल, अमित या अंकित जैसा नाम रख देते. मैं तुम्हारा नाम भी लिख सकती और इस बात की चिंता भी नहीं रहती कि कोई और तुम्हें मेरी कहानी में पढ़ लेगा.

पता है मैं इतना क्यों लिखती हूँ? कि कभी तुम्हें मेरी याद आये और तुम गूगल करो तो मुझे ढूँढने में ज्यादा परेशानी ना हो...तुम हमेशा मुझे खो देते थे ना इसलिए. देखो ना जमाने की भीड़ में कैसी खो गयी हूँ, ढूँढने को इतने तरीके हैं पर अभी तक ऐसा सर्च इंजन नहीं बना जो तुम्हारे दिल के सारे तहखाने तलाश सके. मेरे सुकून को काश कोई कहानी या कविता का सिरा ही होता, क्या करूँ सब होने पर भी सपने देखना तो मेरे बस में नहीं है ना. तुमपर कहानी लिखूं ना लिखूं मेरे सपने तो तुम्हारा ही संसार रचते हैं, वही उनका होना है. रात के किसी अनजाने पहर में तुम ही तो मेरा यथार्थ हो ना.

लिखने का क्रम टूट गया है, उठ कर फर्श साफ़ करना ज्यादा जरूरी है. काली स्याही परमानेंट होती है ना, मैं नहीं चाहती कि तुम्हारे नाम के परे हटाने वाली इस स्याही पर गलती से भी मेरा पैर पड़े. दिवाली पर जो मूर्तियाँ बदलते हैं, उनमें प्राण प्रतिष्ठा नहीं रहती, फिर भी उन्हें पैर तो नहीं लगा सकते. कभी तुम्हारे किरदार में एक भी ग्रे शेड नहीं दे पाती हूँ जबकि अब देखती हूँ तो लगता है कि ऐसा नहीं था कि तुम्हारा कोई श्याम पक्ष कभी था ही नहीं. पर मैं भी ना...चौथ को पूजने वाले ग्रहण भी कहाँ देख पायेंगे अपने चाँद में, अशुभ होता है तो. ऐसे होने को अक्सर नकार ही दिया जाता है.

वैसे तो किसी और को ये अधिकार नहीं है पूछने का कि मेरी कहानी के किरदार सच होते हैं या झूठ, तुम पूछ सकते हो कि ये मैं हूँ या नहीं. तुम मेरी कहानियाँ पढ़ते भी हो क्या? तुम्हें मालूम है जानां कि मैंने आज तक कभी कोई कहानी नहीं लिखी है?
एक बात बताओ जानां, तुम्हें मैं याद हूँ क्या?

इश्क की तीसरी सालगिरह- सपनीले गोवा में

वो इश्क में डूब जाने के दिन थे...
गोवा ऐसा हसीन भी हो सकता है, सोचा नहीं था आखिर जिंदगी में रंग भरने वाले इस लड़के से पहले थोड़े मिली थी. ये लड़का जिसकी आँखों में देखती हूँ तो जिंदगी गुलाबी हो जाती है. इस बार हमने अपनी सालगिरह गोवा में मनाई...३ दिसंबर शुक्रवार पड़ा था...तो आराम से तीन दिन इस स्वर्ग में बिताये.

समंदर का पानी एकदम पारदर्शी, जैसे कि पूरा समंदर फ़िल्टर किये पानी से बना हो. और लहरें एकदम नपी हुयी, हलकी हलकी...रेत एकदम महीन, पहले के किसी भी समंदर से ज्यादा महीन वाकई टेलकम पावडर जैसी...नंगे पांव चलो तो गुदगुदी लगे. किनारे से दूर दूर तक छिछला पानी जिसमें छोटी लहरें कि डूबने का डर ही ना लगे...जहाँ तक मर्जी चले जाओ. (कभी कभी पतिदेव के छह फुट से लम्बा होने और तैरना आने का फायदा भी तो मिलना चाहिए)

ताज एक्सोटिका (Taj Exotica) गोवा...लोग जैसे कि मन की बात जान जायें कि कब आपको पानी चाहिए, कब कोई और ड्रिंक, कब भूख लग रही है. मैंने और किसी भी विला के कमरे का मिनी बार इतना स्टोक वाला नहीं देखा है...ये कुणाल का कहना था. एक छोटा सा विला जिसमें सामने नीले पानी का पूल जिसमें एक छोटा सा झरना तो दिन भर झरने की कल कल और रात को समंदर का मद्धम गीत. पूल के सामने नारियल के पेड़ों के बीच लगा हुआ झूला...दो आराम कुर्सियां और फुर्सत ही फुर्सत. पहली बार महसूस किया कि कुछ नहीं करने और आलसियों की तरह पड़े रहने में कितना आनंद है :)

दिन चढ़ते धूप तापी जाए झूले में और ज्यादा गर्मी लगे तो पूल में उतर गए...फिर थोड़ी देर झूले पर. समंदर किनारे दूर तक आराम कुर्सियों कि कतार और उनके ऊपर तनी हुयी रंग बिरंगी छतरियां....लोग या तो किताबें पढ़ते हुए या टोपी से चेहरा ढक कर सोये हुए. हमें भी बंगलोर के ठंढे मौसम के बाद गोवा की धूप में आँखें बंद कर सोना जितना अच्छा लगा...पहले कभी नहीं लगा था. और समंदर का पानी गुनगुना...ठंढा नहीं और इतना साफ़ कि यकीन ही ना हो कि ये खारा पानी है, लगता है जैसे सीधे किसी मिनरल वाटर प्लांट से आ रहा हो.

ताज का खाना तो क्या कहने...चाइनीज़ खाना मैंने अपनी जिंदगी में उससे अच्छा नहीं खाया है. मुझे इतना अच्छा लगा कि जो शेफ था...तेनजिन उसको खास तौर से बुलवा के शुक्रिया बोला कि लाजवाब खाना बनाते हो. उसी तरह काटी रोल जो कुणाल ने खाया इतना लजीज था कि मज़ा आ गया. डिनर के वक़्त लाइव संगीत....लोग गिटार पर मुस्कुराते हुए धुन बजाते हुए...लगता ही नहीं था कि हिंदुस्तान  में कहीं हैं...एक तो चारो ओर सिर्फ फिरंग ही दिख रहे थे...लग रहा था कि हम ही उनके देश में कहें पहुँच गए हैं.

ऐसी जगह जहाँ बात करने को भी बहुत कुछ था और चुप रहने को भी बहुत सारा वक़्त...इसलिए तीन दिन हम किसी घूमने के चक्कर में नहीं पड़े...हम वहां सिर्फ और सिर्फ आराम फरमाने गए थे...आलसी होना स्वाभाव नहीं परिस्थियों के कारण स्वयं उपजने वाला भाव है...ये भी वहीं महसूस किया :) ना कोई फोन, ना इन्टरनेट...सब विला में छोड़ छाड़ के समंदर किनारे सूरज डुबाना एक सुखद अहसास था. गोवा चूँकि वेस्ट कोस्ट है तो सूरज समंदर में डूबता है और शाम बेहद खूबसूरत होती है. आसमान के एक कोने से रात सरकती जाती है और नीला आसमान गहराता जाता है. गहरे नीले आसमान में तारे भी दीखते हैं और वो काली रात से कहीं ज्यादा ख़ूबसूरत लगते हैं.


कहते हैं कि आपस की अन्डरस्टैंडिंग को नापने का पैमाना है कि आप किसी के साथ बिना कुछ बोले देर तक बैठें और आपको महसूस हो कि जिंदगी में इससे बेहतर बातें आपके किसी के साथ नहीं कीं. तो इस पैमाने पर मेरे किये खरा उतरना सोच के मुश्किल लगता था...चुप रहना कभी भी मेरे लिए आसान नहीं था....पर जब वक़्त और माहौल में ऐसी नजाकत और नफासत हो कि लगे बोलने से जादू बिखर जाएगा तो वाकई ख़ामोशी से एक ढलती शाम, समंदर किनारे सपने सच हो जाते हैं...बिना कुछ कहे....बिना कुछ मांगे. 

29 November, 2010

सपनों का सच

हैमलेट शेक्सपीयर का लिखा एक प्रसिद्द नाटक है जो अक्सर या तो 10th या 12th में अक्सर कोर्स में होता है. इसी नाटक में हैमलेट का एक बहुधा उधृत हिस्सा है, हैमलेट का एकालाप....to be or not to be.... यह हैमलेट के अंतर्द्वंद का चित्रण है  जिसमें हैमलेट तर्क देता  है कि जीवन बेहतर है  या मृत्यु. इसी का एक अंश है जिसमें हैमलेट कहता है कि मृत्यु एक नींद है...पर नींद के बाद कैसे सपने आयेंगे...यानी कि मृत्यु के बाद का जीवन, जिसे 'आफ्टर लाइफ़' कहते हैं उसके बाद क्या होता है ये भी नहीं पता है.
To sleep, perchance to dream. Ay, there's the rub,
For in that sleep of death what dreams may come,
When we have shuffled off this mortal coil,
Must give us pause.



हैमलेट के इस एकालाप का एक अंश होता है 'व्हाट ड्रीम्स मे कम (What dreams may come) कल मैंने इसी नाम की फिल्म देखी, जिसकी कहानी मौत और उसके बाद के जीवन पर केन्द्रित थी. फिल्म का मुख्य किरदार...इसकी सिनेमाटोग्राफी है...फिल्म में रंगों का ऐसा अद्भुत कैनवास रचा गया है कि अनायास विन्सेंट वैन गॉ की स्टारी नाईट  की याद आ जाये. फिल्म में स्वर्ग एक ऐसी बदलती दुनिया है जो हर किसी को खुद पेंट करने की आज़ादी देती है. क्रिस जब स्वर्ग पहुँचता है तो पाता है कि वो एक ऐसी पेंटिंग है जो उसी पत्नी ने कल्पना की थी...एक ऐसी जगह की जहाँ वो पहली बार मिले थे और जहाँ वो अपना बुढापा साथ साथ गुज़ारना चाहते थे. क्रिस अपना स्वर्ग उस खास पेंटिंग से शुरू करता है और बाकी चीज़ें जोड़ता जाता है. शूटिंग खास तौर की फिल्म पर की गयी थी 'फूजी वेल्विया ' फिल्म स्टॉक कुछ खास दृश्यों को फिल्माने के लिए किया जाता है जहाँ रंगों की अधिकता जरूरी हो. ये खास फिल्म लगभग पूरी ही एक सपने को जीने जैसी है इसलिए इसका फिल्म स्टॉक भी अलग था. 





फिल्म में सोलमेट होना बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है. वैसे तो हमारे तरफ सोलमेट की बातों में अधिकतर लोग यकीं करते हैं...शादियों के बारे में कहा जाता है कि जोडियाँ ऊपर से बन कर आती हैं, वगैरह. अमेरिका में इस बात को मानने वाले कम लोग हैं...और एक अंग्रेजी फिल्म में इस तरह से मौत के बाद का जीवन दिखाना काफी रोचक और खूबसूरत था. एक एकदम अलग से सीन में हम देखते हैं कि क्रिस की पत्नी ऐनी उस पेंटिंग को आगे बढ़ाती है और एक बेहद खूबसूरत हलके जामुनी रंग का पेड़ पेंट करती है...और वैसे ही क्रिस के स्वर्ग में वही पेड़ अचानक उग आता है. पर जब ऐनी को लगता है कि क्रिस उसके साथ नहीं है और वो दुखी होकर पेड़ पर पानी डाल के मिटा देती है तो क्रिस के स्वर्ग में भी पतझड़ आ जाता है और पेड़ के सारे पत्ते उड़ जाते हैं. 


क्रिस के इस स्वर्ग में सब कुछ है बस नहीं है तो ऐनी...जिसके बिना सब कुछ अधूरा है. क्रिस को पता चलता है कि ऐनी इस स्वर्ग में नहीं आ सकती ऐनी एक कैथोलिक है और धर्म के अनुसार आत्महत्या करने वाले नर्क जाते हैं. उसकी कल्पना के विपरीत नर्क कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ शारीरिक प्रताड़ना है...नर्क एक ऐसी जगह है जहाँ पर उदासी इतनी गहन होती है कि आप अपने दुस्वप्नों में घिर जाते हैं और बाहर नहीं निकलना चाहते.
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मुझे यह फिल्म बेहद अच्छी लगी...और मुझे लगता है कि हर प्यार करने वाले इंसान को ये फिल्म एक बार देखनी चाहिए. इसकी सिनेमाटोग्राफी इतनी खूबसूरत है कि वाकई लगता है सपनो की दुनिया है जिसमें खो जाते हैं पूरी फिल्म भर. इश्क रूहानी होता है...जन्म जन्म का रिश्ता टाइप्स कुछ. मेरी तरफ से १०/१० फिल्म. आपके हाथ आये तो एकदम देख डालिए...अच्छा लगेगा.  

24 November, 2010

दूर की आकाशगंगा का कवि

दूर की किसी आकाशगंगा में
एक नन्हा सा गृह हो
जिसके पते पर 
लिख के फेंक सकें
वो सारे ख़त
जो किसी नाम को
किसी नाम से
नहीं लिखे जा सकते 

ना भरने वाले निर्वात में
सालों अटकी रहे
अनगिन चिट्ठियां
कांच के रोकेट में
धूमकेतु का इंतज़ार करते हुए 
जल जाने या पहुँच जाने
के बीच...एकदम बीच 

वहां पहुंची चिट्ठियां
किसी और के ख्याल बनें
उसे लगे कि आज कविता लिखूं
कि आज किसी की याद में रो लूं 
इश्क कर लूं
जमीं पर उँगलियाँ फिरो
एक तस्वीर बना दूं

तब जब कि प्रतिबंधित हो
मन को पूरा उल्था करना
सजायाफ्ता हों कवि
किताबों से लगता हो पाप 

हारी जा चुकी हो 
संविधान की आखिरी प्रति
तुच्छ राजनीति के किसी जुए में 
सोच को कर दिया जाता हो नीलाम

ऐसे में बिना आहट के
एक बनाये कांच के रोकेट
दूसरा उन्हें पहुंचा आये
किसी अबोध कवि तक
जो अपनी आत्मा बंद कर सके
क्षणभंगुर कांच में

कवि उस नन्हे से गृह तक
देर, बहुत देर में पहुंचे
और सारे खतों को बोल कर पढ़े

और पूरे अंतरिक्ष पार
लोग सपने देखें
सोच को छुड़ा लायें 
हंसें, मुस्कुराएं
इश्क करें 

इस खुशहाल दुनिया में
एक रोकेट आज भी रोज चले
धूमकेतु के इंतज़ार में
बस एक अनलिखा ख़त बाकी है
विरह में बस एक प्राण जले 
कवि की 'प्रेरणा' का 

23 November, 2010

पहली बारिश भी कोई छोड़ता है जानां!


वो बारिशों का मौसम याद है जानां?
कि जब मैंने घबरा के कहा था
मुझे बारिशों से डर लगता है
और तुमने मेरी ठुड्ढी 
अपनी दो उँगलियों से
आसमानों की ओर उठा दी थी 

बारिश की बूँदें ठंढी थीं 
और तुम्हारी हथेलियाँ गर्म
बहुत दिन बीते गुलमोहर देखे
लाल सुलगते अल्हड़पन को 
अब भी कभी कभी सुर्ख गर्मियों में
आइसक्रीम खाती हूँ
तो तुम्हारी याद का मौसम
बरस जाता है रातों में 

तुम न कहा करते थे
पहली बारिश भी कोई छोड़ता है जानां! 

19 November, 2010

दिल्ली में

सुबह कोहरा फटक रही थी
सड़कों के सूप से 
अच्छा वाला सारा कोहरा
डब्बों में बंद करती जाती थी
जाड़ों के सबसे अच्छे दिनों के लिए
जो एक लड़की ने दो साल पहले 
दुआओं में मांगे थे

बचा हुआ कोहरे का थोड़ा हिस्सा
पेड़ बुहार रहे हैं अपने पत्तों से 
जिससे भाप लगे कांच के पीछे सी
धुंधली हो जाती है धूप, अक्सर 

कोहरे के कारण
'सुबह' लेट हो जाती है 
रात को ओवरटाइम करना पड़ता है 

कुछ अपनी अपनी सी लगती है दिल्ली
थोड़ी अजनबी सी भी
जैसे बिछड़े दोस्त, थोड़े बदल जाते हैं
साल दर साल
लगता भर है कि सदियाँ बीत गयीं
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दिल्ली की सड़कों से गुजरते हुए...अलसुबह 

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