17 October, 2008

हमसे रूठा न करो...

रूठ कर नहीं जाते हैं घर से

सुबह सुबह

तुम्हारे साथ चली जाती है

घर से हवा

दम घुटने लगता है

अपने ही घर में

खामोश हो जाती है

डाल पर बैठी गौरैया

मुरझा जाते हैं

रजनीगंधा के सारे फूल


गले में अटक जाता है

रोटी का पहला कौर

ख़त्म हो जाता है

घर का सारा राशन पानी

कीलें उग आती हैं

सारे फर्श पर

बारिश होने लगती है

कमरे के अन्दर

आरामकुर्सी पर पसर जाता है

कब्रिस्तान का वीराना

एक दिन ही होती है

इंतज़ार की उम्र

शाम होते होते

रूठ जाती हैं साँसे.

15 October, 2008

वो बारिशें...




सड़क पर हैलोज़ेन लैंप की पीली बारिश में भीगते हुए
कभी देखा है चाँद को गुलमोहर की पत्तियों पर फिसलते?
खास तौर से अगर वो पूर्णिमा का चाँद हो...

जानती हूँ तुमने देखा नहीं होगा
तुम सड़क पर सामने देख कर चलते हो
न की ऊपर झूलती गुलमोहर की टहनियां...

पत्तों में छिपी बारिश की बूँदें
हवा के झोंके से कैसे नन्ही बारिश ले आती हैं
मुझे तुम्हारी थोड़ी सी याद आ जाती है...

एक फुदक में सड़क के पार भागती है गिलहरी
मैं जोर से ब्रेक मारती हूँ
दिल्ली के पुराने किले में रूकती है गाड़ी...

झील में बोटिंग करते हुए खिलखिलाते हैं
कुछ अनजान चेहरे
धुंधले...वक्त और दूरी के कारण...

याद आती है वो पहली बारिश
जब पहली बार तुम्हारे साथ बाईक पर बैठी थी
और तुमने गिरा दिया था...

घर जा कर गाड़ी पार्क करती हूँ
और टहलने निकल जाती हूँ
आई पॉड पर गाना बज रहा है...

"मौसम है आशिकाना...
ऐ दिल कहीं से उनको
ऐसे में ढूंढ लाना, ऐसे में ढूंढ लाना...

13 October, 2008

सवाल...जवाब नहीं.

मेर मानना है की सही या ग़लत कुछ नहीं होता, बस देखने का नज़रिया अलग होता है। खास तौर से समाज के बदलते समीकरणों की बात करें तो।

जाने मेरे कॉलेज के टीचर्स के कारण या फ़िर मेरी मित्र मंडली ऐसी रही कि मुझे सवाल करने की बहुत बुरी आदत लग गई। और सवाल भी ऐसे वैसे नहीं, कुछ ऐसी बुनियादों चीज़ों पर कि सुनने वाले का अक्सर माथा ख़राब जो जाए, और मेरे केस में अक्सर सुनने वालियों का हाल बुरा होता था।

अब मैंने देखा कि एक दिन बात हो रही थी कि ये आजकल की लड़कियों को देखो, शादीशुदा होकर भी कुंवारियों जैसी दिखती हैं, सिन्दूर कहीं छुप के लगा है, न बिंदी न चूड़ी। अब मुझे हो गई कोफ्त बिन मतलब के तंग अदा दिए बहस में...
क्यों जरूरी है कि लड़की एक किलो सिन्दूर लगा के आधा मीटर लंबा मंगलसूत्र लटकाए...ताकि मीलों दूर से नज़र आ जाए कि वो शादीशुदा है। लड़कों पर ऐसा कुछ भी नियम लागू क्यों नहीं होता, उनके लिए शादी का एक भी चिन्हं क्यों नहीं है। और किसी लड़की के लिए ये नियम इतने जरूरी क्यों हैं। थोडी सी flexibility क्यों नहीं मिलती लड़कियों को। और जहाँ मिल रही है अगर वो अपने हिसाब से जी रही है तो सब के पेट में इतना दर्द क्यों होने लगता है।
इस समाज से मुझे जाने क्यों बड़ी खुन्नस रही है हमेशा से, देखती आई हूँ न कि इसके सारे नियमों का भर हम लड़कियों को ही उठाना पड़ता है। मेरे जेनरेशन कि किसी भी लड़की से पूछ लो अगर किसी वर्ड से सबसे ज्यादा चिढ है तो वो है "compromise" और यहाँ कहीं भी उससे पुछा तक नहीं जाता है। पता नहीं हम किस शताब्दी में जी रहे हैं कि अब भी माँओं को बेटियों को सिखाना पड़ता है कि सबसे हिसाब से एडजस्ट करना चाहिए। आख़िर बाकी लोग थोड़ा सा एडजस्ट क्यों नहीं करते।
और क्या करें हम जैसी लड़कियां जब शीला दीक्षित तक कहती है कि रात को निकलने कि जरूरत क्या है। अब कोई शीला दीक्षित को समझाए, हर इंटरव्यू में ये सवाल किया जाता है कि रात को देर तक काम होने में रुकने पर कोई दिक्कत तो नहीं है तुम्हें। अब कौन लड़की कहेगी कि दिक्कत है और मौका जाने देगी...कौन कह सकता है कि दिक्कत नहीं होगी अगर आप ओफ्फिस से घर तक मेर सुरक्षा का इन्तेजाम कीजिये या जिम्मेदारी लीजिये। घर से बाहर अपने दम पर निकलती है हम लड़कियां, हर कदम पर एक लडाई, कभी अपनों से कभी बेगानों से, कभी system से, कभी समाज से।
और जाने कितनी कितनी बार अपने आप से, सिर्फ़ ख़ुद को जिन्दा रखने कि खातिर। सिर्फ़ इसलिए कि माँ बेटी बहन प्रेमिका या पत्नी के अलावा भी हम कुछ हैं....मेरा ख़ुद का भी एक अस्तित्व है।
मेरे ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड, पासपोर्ट पर मेरी माँ न नाम क्यों नहीं होता, कम से लिखने का आप्शन तक क्यों नहीं मिलता।
बुनियादी सवाल...विद्रोही तेवर...फ़िर भी ये समाज मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता...क्यों....क्योंकि मैं आत्मनिर्भर हूँ, आश्रिता नहीं।
काश मैं अपने तरफ़ कि हर लड़की को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बना सकती, अपनी जगह लेने के लिए तैयार कर सकती। हम जब कॉलेज में थे तब हामारे टीचर्स कहते थे, यहाँ लौट कर आना। तुम्हारे जैसे कितनी लड़कयों को तुम्हारी जरूरत होगी।
मेरे बिहार...मैं लौट कर आउंगी, एक दिन जरूर आउंगी.

10 October, 2008

आखिरी मुलाकात

कुछ गीत ऐसे होते हैं कि सुनकर जैसे दिल में कोई हूक सी उठने लगती रहती है। बरसों पुराने कुछ बिछडे लोग याद आने लगते हैं, कुछ जख्म फ़िर से हरे हो जाते हैं।
कुछ ऐसा ही है बाज़ार का ये गाना "देख लो आज हमको जी भर के"। हालात, वक्त और बिछड़ने का अंदाज़ जुदा होने के बावजूद सुनते ही कोई पहचानी गली याद आ जाती है, गीली आँखें याद आती हैं, और एक शहर जैसे जेहन में साँसे लेने लगता है फ़िर से।
इश्क होता ही ऐसा है, गुज़र कर भी नहीं गुज़रता, वहीँ खड़ा रहता है। जब कोई ऐसा गीत, कोई ग़ज़ल पढने को मिलती है तो जैसे एक पल में मन वहीँ पहुँच जाता है। जहाँ जाना तो था पर लौट कर आना नहीं था। वो आखिरी कुछ लम्हे जब वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश होती है, किसी को आखिरी लम्हे तक ख़ुद से दूर जाते देखना, अपनी मजबूरियां जानते हुए, ये जानते हुए कि वो हँसते खिलखिलाते पल अब कभी नहीं आयेंगे।
वो आखरी मुलाकात...कुछ ऐसी बातें जो कही नहीं जा सकीं, एक खामोशी, एक अचानक से आई हुयी दूरी...और वही कम्बक्त वक्त को रोक लेने कि ख्वाहिश।

07 October, 2008

उमड़ घुमड़ ख्याल

हमारे देश में समस्या की जड़ को समाप्त क्यों नहीं करते?

ख़बर आई की अब IIT faculty में भी रिज़र्वेशन लागू होने वाला है। इस मुद्दे पर अलग अलग लोगों ने अपनी राय दी। मुझे तकलीफ सिर्फ़ इस बात से है की ये सरकार के हिसाब से निम्न तबके .लोग, जो की बिना रिज़र्वेशन अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति नहीं सुधर सकते...इनके लिए सबसे निचली इकाई पार काम क्यों नहीं होता। निचली इकाई यानि स्कूल...प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति को सुधरने की दिशा में कोई काम क्यों नहीं होता। अगर ये अल्पसंख्यक पढाना ही चाहते हैं तो क्यों नहीं स्कूलों में इनकी नौकरी लगायी जा रही रही है। iit जैसे संस्थान की हालत क्यों ख़राब की जा रही है।

मुझे गुस्सा इस बात का भी है की सरकार सही तरीके से कोई काम क्यों नहीं करती, इतनी सारी समितियां बनती हैं पर एक आम आदमी के पास ये तस्वीर क्यों नहीं है की रिज़र्वेशन से कितने प्रतिशत लोगो का फायदा हुआ है। कितने लोगों का नुक्सान हुआ है। क्या वाकई जिन लोगो को रिज़र्वेशन मिलता है वो इसके हक़दार हैं और उनका क्या जिन्हें इसकी कोई जरूरत नहीं है पर फ़िर भी फायदा उठा रहे हैं।

कोई सन्सुस क्यों नहीं हुआ है ताकि ये पता चले की अच्तुअल्ली भारत में SC, ST and OBC जनसँख्या के कितने प्रतिशत हैं। अगर थोडी पारदर्शिता बरती जाए तो इसके ख़िलाफ़ आने वाली कितनी ही कड़वाहटों से बचा जा सकेगा। मैं रिज़र्वेशन के सख्त ख़िलाफ़ हूँ, इसके पीछे कारन ये भी है कि मुझे इसका कोई अंदाजा नहीं है कि इससे कितने लोगों का फायदा हुआ है, अगर हुआ है तो। मैं देखती हूँ कि वो दोस्त जो साथ में पढ़ रहे हैं, कमोबेश एक ही जैसे घरों में पल बढ़ रहे हैं, सिफर इसलिए कि एक कि जाति अलग थी उसे अच्छी जगह admission मिल रहा है। और सिर्फ़ इसलिए कि दूसरा जनरल कातेगोरी का है उसे कहीं एड्मिशन नहीं मिला हालाँकि वह उससे पढने में बेहतर था। तब ये भेद भाव लगता है औरकहीं से न्यायोचित नहीं लगता।

क्या एक बेहतर स्कूल का स्य्स्तेम नहीं बनाया जा सकता जहाँ हर जाति के बच्चों को एक सी अच्छी पढ़ाई मिले, तक अगर ये बच्चे रिज़र्वेशन से भी जाते हैं तो भी पढने में अच्छे भी होंगे और किसी संस्थान का स्तर इनके आने से नहीं गिरेगा। तब कहीं जाके एक सामान समझ कि स्थापना हो पाएगी। ये ऊपर ऊपर रिज़र्वेशन देने से थोड़े कुछ होगा। बैसाखियों पर कब तक चल सकता है कोई भी समाज, चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक।main

main kabhi एक स्कूल तो जरूर खोलूंगी। जहाँ पर अच्छी पढ़ाई होगी, चाहे किसी भी समाज, किसी जाति या धर्म या लिंग का हो, वहां हर बच्चे को एक सा पढने लिखने और जीने कि आजादी होगी। एक ऐसी जगह जहाँ हर बच्चे को ये सिखाया जाए कि वह खास है और समाज में उसके सार्थक योगदान की जरूरत है। फ़िर इन्हें किसी पर निर्भर नहों होना पड़ेगा, रिज़र्वेशन पर भी नहीं। ये समझ में अपना स्थान ख़ुद बनायेंगे अपनी लगन और आत्मविश्वास से। एक दिन ऐसा आएगा...मैं लाऊंगी।

अंत में दिनकर की कुछ पंक्तियाँ

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,

आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,

और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,

इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी

कल्पना की जीभ में भी धार होती है,

वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,

स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

06 October, 2008

या देवी सर्वभूतेषु मातृरुपेन संस्थिता

दुर्गापूजा की आज सप्तमी है। पिछले साल इसी समय माँ के साथ पूरा पूरा दुर्गासप्सती पढ़े थे, शाम सुबह आरती किए थे।

इस बार...
पहली पूजा से ही दुर्गा माँ से नाराज़ हूँ, जो भगवान के सामने हाथ जोड़ दो अगरबत्ती दिखाती थी वो भी बंद कर रखा है। इतने दिन न पूजा की न सांझ दी, पूजाघर में जाना भी नहीं चाहती। शंख ला के रखा है, लिया तो यही सोच के था की दुर्गापूजा में बजाउंगी, पर छुआ तक नहीं है।

ये नाराजगी उनसे है या अपनेआप से मालूम नहीं। पर ऐसी अजीब घटनाओं के लिए तो मन इश्वर को ही जिम्मेदार मानता है, उन्ही से गुस्सा होता है। फ़िर लगता है की जाऊं तो जाऊं कहाँ, जब माँ नहीं है तो दुर्गा माँ ही से सारी बातें कह लूँ। त्यौहार के दिन कितना कुछ होता था, रोज पूजा, आरती और प्रसाद...कितनी तरह की सब्जी खास तौर से अष्टमी के दिन बनती थी। खाने का स्वाद अलोकिक होता था, माँ कहती थी त्यौहार के वक्त भगवान को भोग लगता है न, इसलिए खाने में इतना स्वाद आता है।

हर तरफ़ देखती हूँ, दोस्तों की मम्मी कभी उनके लिए कुछ बना के भेज रही है, कभी उनके बीमार पड़ जाने पर कितने नुस्खे बता रही है, कभी कपड़े भेज रही है। और हर त्यौहार पर सब घर जाने की बात कर रहे हैं। मैं कहाँ जाऊं, मेरा कोई घर नहीं, मुझे कोई नहीं बुलाता।
मुझे त्यौहार अच्छे नहीं लगते.

03 October, 2008

आतंक में सुबहें

इधर कुछ दिनों से सुबहें कुछ अजीब सी होती हैं। बेड से उठ कर अखबार उठाने जाने तक सच में इश्वर से प्रार्थना करती हूँ, कि भगवान आज कहीं ब्लास्ट न हुआ हो। आज फ़िर से खून में रंगी तसवीरें न दिखें सुबह सुबह। मेरे जीजाजी दिल्ली पुलिस में हैं, तो मैं उनसे भी बात कर रही थी कि ये अचानक क्या हो हो गया है, हर रोज़ कहीं न कहीं क्यों ब्लास्ट कर रहे हैं। उनके पास भी कोई जवाब नहीं था।

मैं सोच रही थी कि मेरी तरह कितने लोग इस डर में सुबह उठते होंगे कि कहीं कोई बम न फटा हो, पर उनके डर की वजह कहीं और गहरे होती हैं। मैं एक खास धर्म को मानने वालों कि बात कर रही हूँ, जिनको हर ब्लास्ट के बाद लगता है की कुछ निगाहें बदल गई हैं, अचानक लोगों की बातें थोडी सर्द हो गई हैं। कितना मुश्किल होता होगा न ऐसे जीना, सब कुछ हमारे जैसा होते हुए भी सिर्फ़ इसलिए की कुछ आतंकवादी इस धर्म के हैं उन्हें कितना कुछ झेलना पड़ता है।

आतंकवादी का क्या सच में कोई इमां, कोई धर्म होता है...क्या ये सब सिफर राजनीति नहीं है, एक गहरी साजिश जिसमें पहले रूस अमेरिका और अब कई जगह छोटे देश भी समस्या से जूझ रहे हैं। कल रात एक फ़िल्म देख रही थी, नाम तो याद नहीं पर उसमें एक डायलोग था "one man's terrorist is another man's freedom fighter"। फ़िर लगा की क्रन्तिकारी और आतंकवादी में कितना अन्तर होता है। कौन सा क्रन्तिकारी अपने किसी भी मकसद के लिए निर्दोषों की जान लेना सही समझता है, अगर मासूम बच्चो को अनाथ करके किसी का कोई उद्देश्य पूरा होता भी है तो is it worth it.

बरहाल मैं मूल मुद्दे से भटक गई, काफ़ी दिनों से सोच रही हूँ...

क्या बात है कि मुस्लिम हमारे साथ घुल मिल नहीं पाये हैं अभी तक। मेरी दादी को कोई मुस्लिम छू लेता था तो वो सर से nahati थी। मुझे याद है पापा के एक बड़े अच्छे दोस्त थे मुकीम, एक बार वो और भट्टाचार्जी अंकल साथ में घर आए, तो जैसा होता है दोनों ने पैर छुए दादी के। जब दोनों चले गए तो दादी ने पुछा कि क्या नाम था, तो पापा ने कह दिया कि भट्टाचार्जी और उसका छोटा भाई था।

और ये आज से तकरीबन दस साल पुरानी बात है, मैं ऐसे कई घरों को जानती हूँ जहाँ उनके खाने का बर्तन अलग होता था। मैं उस वक्त बहुत छोटी थी और मुझे आश्चर्य होता था कि ये अछूत वाला व्यवहार क्यों होता है। उन्हें रहने के लिए मकान ढूँढने में दिक्कत होती होगी, मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मैं जानती हूँ कि उन्हें कोई किरायेदार नहीं banana चाहता है। और ये सब हाल कि बात है

तो लगता है की इनमें रोष क्यों नहीं होगा, क्यों नहीं ये थोड़ा बरगलाने पर तैयार हो जाते होंगे. इन्हें सच में दिखता है की परायों की तरह हैं ये अपने देश में. नेता भी सिर्फ़ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं उनको. एक आम राय में उन्हें भरोसेमंद नहीं माना जाता है...ऐसा क्यों है.मैं एक ब्राह्मण परिवार से हूँ, भागलपुर तरफ़ से, मध्यमवर्गीय, देवघर और पटना में रही हूँ, मुझे नहीं पता की देश के अन्य हिस्सों में उनके साथ कैसा सलूक किया जाता है. पर जिस समाज में मैं रही हूँ उसमे बहुत जगह भेद भाव है. हालाँकि बहुत बदलाव आया है, जैसे की पापा के दोस्त मुस्लिम भी थे, और मुझे तो इससे कभी कोई फर्क ही नहीं पड़ा. ईद पर की सेवई मैं कभी नहीं छोड़ती थी. तो क्या आने वाली जेनरेशन ज्यादा आसानी से एक्सेप्ट करेगी उन्हें.
पर फ़िर मुझे लगता है...कहीं ऐसा तो नहीं की बहुत देर हो चुकी है. वो हमसे इतनी दूर जा चुके हैं की लौट आना सम्भव नहीं. की ये ब्लास्ट हर दिन होते रहेंगे छोटे छोटे शहरों में मौत बेमोल सडकों पर चीखती चिल्लाती रहेगी और घेत्तो में बस जायेंगे लोग. हर धर्म की अलग बस्ती, हर जाति का अलग मोहल्ला.
कभी कभी डर जाती हूँ...

मैंने इस पोस्ट में सिर्फ़ अपने ख्याल व्यक्त किए हैं, ये मेरा अनुभव है जिंदगी का. कईयों का अलग होगा मुझसे पर ये मेरी जिंदगी का हिस्सा है. मालूम नहीं पर नाज़ुक विषय है अगर मेरी बात से किसी को दुःख पहुँचता है तो अग्रिम क्षमाप्रार्थी हूँ.

27 September, 2008

गलतियों की आदत

जाने क्यों मुझे कभी बाल पेन से लिखना अच्छा नहीं लगा
हमेशा स्याही वाली कलम या पेंसिल...
अधिकतर पेंसिल ही, और रबर तो हमेशा पास रहता था

याद है मुझे,
ग्लास में पानी भी ले कर बैठती थी
अगर कोई गलती हो जाए
एक बूँद पानी डाल देती थी
और स्याही धुल जाती थी

मुझे याद है कभी कभी ऐसा भी हुआ है
की पूरा पन्ना ले कर बाल्टी में डाल दिया
पता नहीं क्यों...पन्ने फाड़ती नहीं थी कभी मैं
धुल जाता था तो सुकून होता था

पेंसिल की भी अपनी कहानी है
उसकी नोक का स्वाद
कितने केमिस्ट्री के फोर्मुले में घुलता रहता था
कितने फिजिक्स के रहस्य में घिसता रहता था

रबर अक्सर खुशबू वाला लेती थी मैं
फलों वाला, अधिकतर स्ट्राबेरी
और अलग अलग आकार के
और एक मिटने के लिए नटराज का सफ़ेद

शायद बहुत पहले से ही
मैं जानती हूँ कि मुझसे गलतियाँ होंगी
इसलिए उन्हें ठीक करने का इंतजाम पहले करती हूँ


बचपन से गलतियाँ करती आ रही हूँ
अन्तर बस इतना है कि
अब लुत्फ़ आने लगा है...

24 September, 2008

इसलिए आज मैंने एक सिगरेट सुलगा ली


आज मैंने एक सिगरेट सुलगा कर

होठों पे रख ली

याद आयी वो शाम

जब पहली बार तुम्हारा नाम लिया था...


धुआं धुआं सा कोहरा था उस वक्त

दिसम्बर की सर्द रात में सोयी दिल्ली पर

और हम सड़कों पर भागे जा रहे थे...

कितनी दूर चले आए हैं
उस शाम से भागते भागते

बारिशों वाले इस शहर में...

जहाँ सिगरेट जलते ही बुझ जाती है।


फ़िर भी मैंने एक सिगरेट सुलगाई

भीगी आंखों से धुएं के पार देखा

हम दोनों कुछ ज्यादा साफ़ नज़र आ रहे थे...



एन एच ८ की वो सड़क

दूर तक सीधी दौड़ती हुयी

रात भर जागती थी हमारे साथ



ये शहर बड़ी जल्दी सो जाता है

मासूम बच्चे की मानिंद

और हम ढूँढ़ते रहते हैं

कहाँ जा के खेलें...


वो हवाईजहाज़ किस देश से आए हैं

मैं तुम्हें एक दिन पेरिस घुमाऊंगा

तुम कहा करते थे

यहाँ हवाई अड्डा शहर से दूर बना है


बहुत कुछ नहीं है यहाँ दिल्ली के जैसा

हम और तुम भी नहीं है



इसलिए आज मैंने एक सिगरेट सुलगा ली

यूँ लगा की हम फ़िर से वही हो गए हैं

दिल्ली की सड़कों पर भटकते हुए

रात के यायावर...बेफ़िकर...हमसफ़र

18 September, 2008

काँच की यादें

मैं तो बस टुकडों को समेट के रख रही थी
कि ऊँगली में चुभ गया एक लम्हा...

और बहने लगे आंखों के कोरों से
पिछले कितने कहकहे...

कमरे में थिरकने लगे
आहटों के कितने साए...

खिड़की में आ के छुप गए
लुकाछिपी खेलते बच्चे...

जाने किस दिशा से बहने लगी
रजनीगंधा सी महकी पुरवाई...

और छत से बरसने लगे
हरसिंगार के फूल...

जाने क्यों लगा कि
कुछ कभी बीता नहीं था
बस...ठहर गया था।

16 September, 2008

ये मेरे ही साथ क्यों होता है?




अभी कुछ दिन पहले मैंने आईपॉड ख़रीदा, काले रंग का, क्योंकि सबसे अलग लग रहा था और वैसे भी काला मेरा फेवरेट रंग है। वैसे मुझे लाल बहुत पसंद था पर वो बस लिमिटेड एडिशन में आया था तो मिलने का कोई चांस नहीं था।


अभी १५ दिन भी नहीं हुए थे की एप्पल का मेल आ गया, ९ रंग में आईपॉड नानो, और कितने सारे फीचर्स के साथ। मैं उस दिन से उदास हूँ, दुखी हूँ, गुस्से में हूँ....ऐसा
mere साथ ही क्यों होता है :(


08 September, 2008

दास्तान ऐ दाँत दर्द

ऐसा है कि हमें बचपन से ही मीठा खास पसंद रहा है, मेरी पसंदीदा लाइन है "खाने कि किसी भी चीज़ में चीनी कभी ज्यादा नहीं हो सकती, मीठा जितना हो अच्छा है"।
दोस्तों के आँखें फाड़ फाड़ के देखने के बावजूद मैं काफ़ी में अक्सर दो तीन पैक चीनी तो डालती ही हूँ। डाईबीटीज़ से मरूंगी इसमे किसी को कोई शक नहीं है...खैर जब मरूंगी तब का तब देखेंगे फिलहाल तो मैं किसी और चीज़ से मरने वाली हूँ। हालांकि मेडिकल हिस्ट्री में कोई रिकॉर्ड नहीं होगा कि दाँत दर्द से किसी कि मौत हुयी हो, वैसे हाल में ये एक अजूबा केस होगा और मेरे बारे में माएँ कितने दिनों तक बच्चो को डरती रहेंगे, एक लड़की थी जो बहुत चॉकलेट खाती थी। किंवदंति बन जाउंगी मैं ...
खैर ये तो रही उटपटांग बातें...
मसला ये है कि कल मेरे हाथ में दाँत का एक टुकडा आ गया...अब मेरी उम्र दूध के दाँत वाली तो है नहीं कि खउष हो कर बगीचे में गाड़ने चल दूँ। तो घबरायी...मनिपाल हॉस्पिटल दौडी...
और आख़िर पता चला कि जिंदगी का सबसे भयावह सपना सच हो गया है...डॉक्टर ने कहा रूट कैनाल करना होगा। मैं ठहरी बहादुर लड़की, ऐसे थोड़े डर जाती...मैंने कहा दांत निकल दो पर लगता है इन लोगो ने अच्छे से पढ़ाई नहीं कि है, बोलने लगे क्यों उखाद्वाओगे, परमानेंट टूथ है, खाना कैसे खोज। आख़िर मैंने हथियार डाल दिए।
तो आज जाना है...हिम्मत जुटा रही हूँ।
भगवान करे मनिपाल के doctors बिना रिज़र्वेशन वाले हों, और उन्होंने बिना पर्ची पढ़े एक्साम पास किए हों।

05 September, 2008

to sir with love

Today i would like to say thank you to the teacher who has played the most important role in my evolution as a person who is sure of what she wants in life and dares to acheive it.
Frank sir this is for you.
You made us shed our inhibitions, you taught us to think free, you taught us to believe in ourselves.
I still remember looking up to you in awe coz you knew so many things, and those were the times when we didnt have internet with us, sir you were our search engine. I dont recall any instance when i asked you for information and you didnt give me a new insight on the subject alltogether.
I remember the radio production classes with you where we saw your amazing linguistic skills...and then all those times at Aasra when we saw movies listened to songs, played games and had so much fun.
Sir you have been like a very good freind whom i can confide and ask advice from...thank you so much sir for being what you are...
you played this song for us in aasra, and i still remember i got goosebumps...so sir today i dedicate this song to you...with love.


To Sir With Love.m...

lyrics

Those schoolgirl days

of telling tales and biting nails are gone

But in my mind I know they will still live on and on

But how do you thank someone

who has taken you from crayons to perfume?

It isn't easy, but I'll try

If you wanted the sky I would write across the sky in letters

That would soar a thousand feet high

'To Sir, With Love'

The time has come for closing books and long last looks must end

And as I leave I know that I am leaving my best friend

A friend who taught me right from wrong and weak from strong

That's a lot to learn, but what can I give you in return?

If you wanted the moon I would try to make a start

But I would rather you let me give my heart 'To Sir, With Love'

01 September, 2008

एक खूबसूरत गीत...

Chachi420-EkWohDin...

यहाँ की शामें यादों सी होती हैं...

खूबसूरत, और हर बार अलग ही रंग में बिखरी हुयी

वही चहचहाहट वही झुंड के झुंड लौटते पंछी

कभी कभी कमरे में बैठती हूँ तो लगता है वापस जेएनयू पहुँच गई हूँ...

अपने हॉस्टल के कमरे में...

जहाँ बालकनी से नर्म धूप कमरे तक आती थी

जाडों में आराम से बाल सुखाते हुए, जगजीत की कोई ग़ज़ल सुनते रहते थे

आँखें मूंदे हुए....आवारा ख्याल यूँ ही चहलकदमी करते रहते थे

वो भी क्या दिन थे..उफ्फ्फ

ख़ुद से मुहब्बत हुआ करती थी तब

और आइना कहता था...बा-अदब होशियार :)

तब मुझे काजल लगना बड़ा पसंद हुआ करता था

और कभी कभी शौक़ से बिंदी भी

अब तो जैसे वक्त भागता रहता है

जींस और टी शर्ट डाली और निकल गए

जाने आजकल आईने में कैसी दिखती हूँ

अब कहाँ हो पाती है गुफ्तगू

अब कहाँ वक्त मिलता है

की ढूंढ के एक मनपसंद गीत सुनूँ

फ़िर भी कभी कभी...

ये गीत सुनने का वक्त निकल लेती हूँ...मुझे बेहद पसंद है...

सोचा अकेले सुनने में क्या मज़ा आप भी सुनिए :)

एक शाम सा खुशनुमा और उदास गीत एक साथ।






25 August, 2008

कुछ ऐसे ही बिखरा हुआ सा

लहरों से बातें की...

खामोशी रेत पर लिखी

मैं और तुम तनहा

दूर दूर तक कोई नहीं

रंग भरा आसमान

शोर भरी शामें

चलते रहे साहिल पर

कितनी दूर...मालूम नहीं

कोई भी तो नहीं...

सीपियाँ चुनते हुए

घरोंदे बनते हुए

शामें गुजारते रहे

हम और तुम तनहा

जैसे कि समंदर...

लहरें पटकता हुआ

सीपियाँ फेंकता हुआ

और हम चुनते हुए

वो कुछ कहता हुआ

और हम सुनते हुए...

कुछ नहीं होता समंदर किनारे

बस...होना होता है

जिंदगी का एहसास

वक्त के बंधन के परे

बस होना...

हमारा...समंदर किनारे...

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