29 January, 2019

पीली साड़ी वाली लड़की

लेमन येलो। उसका सबसे पसंदीदा रंग था और हल्के हरे किनार की साड़ी तो उसपर इतनी फबती थी कि बस। लिनेन थोड़ा गर्म होता था, जाड़ों के लिए एकदम सही। उसके झुमकों में छोटे छोटे घुँघरू थे जो उसकी हँसी के साथ झूलते खिलखिला उठते थे। दाएँ हाथ में ब्रेसलेट और बाएँ में घड़ी। धुले बालों में शैम्पू की गंध अभी भी थी और कलाइयों पर इत्र।

यूँ तो सपनों के शहर में वो कई लोगों को जानती थी, लेकिन दोस्त कहने में हिचकती थी। कुछ ऐसे लोग थे, जिन पर वो आँख बंद करके भरोसा कर सकती थी। इनके साथ उसका कभी कोई अफ़ेयर नहीं रहा, उनके बीच कभी प्रेम भरी बातें नहीं हुयीं। क़समें वादे नहीं हुए। ना दिल जुड़ा ना टूटने की कोई जुगत थी। 

उस लड़के से पहली बार वो जयपुर में मिली थी। उसने कहा था, मेरे लिए दो पैकेट क्लासिक माइल्ड लेते आना प्लीज़। लड़की ने दो पैकेट सिगरेट ही नहीं, माचिस भी ख़रीद दी थी। वो जानती थी माचिसें खो जाती हैं। वो पहली बार में ही बहुत प्यारा लगा था। कोई बहुत अपना। 

उनके बीच दो भाषाओं के शब्द रहते थे। अंग्रेज़ी और हिंदी। और एक खिड़की खुली रहती थी स्काइप विडीओ कॉल की। वे दो दूर के शहरों में होते थे लेकिन एक दूसरे के दिन में टहलते बतियाते रहते थे। लड़की कभी कुछ पढ़ रही होती, कभी गुनगुना रही होती, कभी धूप में कोई ग़ज़ल सुन रही होती। लड़का कई किताबों के बीच होता और अक्सर ही कुछ पढ़ रहा होता। लड़की उसके कपड़े कम और उसकी किताबों के जिल्द ज़्यादा पहचानती थी। लड़का दो भाषाओं के बीच कभी पुल बना होता कभी नदी। लड़की बस कुछ आवारा शब्दों भर होती। कभी काग़ज़ की नाव होती तो कभी धाराओं का गीत। 

वे दूसरी बार इक लाइब्रेरी में मिले थे। ये उस लड़के की पसंदीदा जगह थी। लड़की इतनी ख़ुश थी किताबों के बीच कि जैसे जाड़े का मौसम बैंगलोर चला आया हो। उसने कुछ कविताएँ पढ़ी और इक नए कवि को डिस्कवर किया। लड़के ने उसे दो किताबें इशु करवा दीं, अपने लाइब्रेरी कार्ड पर। 

इस बार वो लड़के के घर गयी थी। थक गयी थी बहुत। रात को नींद ठीक से नहीं आ रही थी इन दिनों। उसने लड़के का ख़ूब सुंदर घर देखा। छत पर सूखता धूप का टुकड़ा। कमरे में रखी किताबें। लिखने का टेबल। फ़िल्मों के कवर। लड़के ने सिगरेट पीनी बंद कर दी थी। लड़की उसके घर में सिगरेट पीना चाहती थी लेकिन वहाँ कोई ऐश ट्रे नहीं था, इसलिए पी नहीं सकती थी। बालकनी में सिगरेट पीती तो पड़ोसियों को लगता उसके घर में बुरी लड़कियाँ आती हैं। पर लड़का तो अच्छा था, इसलिए उसने सिगरेट नहीं पी। लड़के को तैय्यार होना बाक़ी था। उसने पानी गर्म करने को इमर्शन रॉड लगा दिया था। लड़की थकी थी बहुत। बेड पर बाएँ करवट लेकर थोड़ी देर को आँखें बंद कर लीं। जाड़े के दिन थे। बेड पर खुला हुआ ही कम्बल था। लड़का उधर से गुज़रा, उसने पूछा, ‘मैं ये कम्बल तुम्हें ओढ़ा दूँ’। उसके पूछने में बहुत कोमलता थी। अपनत्व था। दुलार था। ठहराव था। लड़की ने सर हिला कर मना किया। उन्हूँ, ठंड नहीं लग रही इतनी। लेकिन ठंड थी पर लड़की ने कम्बल इसलिए नहीं ओढ़ा था कि कम्बल में उसकी ख़ुशबू न रह जाए और लड़के को परेशान न करे। ये लड़का उसके लिए बहुत प्रेशियस था, बेशक़ीमत। उसे खोना नहीं चाहती थी। 

पानी गर्म होने में वक़्त लगता। लड़का सामने फ़र्श पर बिछी दरी पर बैठा और उसने कविताओं की एक किताब खोली। वो कविता पढ़ रहा था। लड़की हल्की नींद में थी। लड़के की आवाज़ नींद के बीच कहीं थी। कविता बहुत सुंदर थी, किसी सपने जैसी। लड़की को लगा, इसे घर कहते हैं। 

उसका चाय पीने को दिल किया। कमरे के बाहर लड़के के चप्पल थे। लड़की उन्हें पहन कर किचन में चली गयी। चाय, चीनी, निम्बू, सस्पेन, छन्ना… सब मिल गया उसे। वहाँ सुंदर चाय के कप भी थे लेकिन लड़की ने एक काँच का ग्लास लिया और नाप के उसके हिसाब से ही चाय बनायी। निम्बू की चाय, सुनहली। ठीक तब तक लड़का भी नहा के, तैयार होकर आ गया था। ब्लैक सूट और काली ही शर्ट। बहुत ही ख़ूबसूरत फ़िटिंग। उसे किचन में एक ग्लास चाय छाँकते देखा तो उलाहना देते हुए बोला, ‘कैसी लड़की हो जी, अकेले अकेले एक चाय कौन बना के पीता है!’। लड़की मुस्कुराई बस, ’एक ही ग्लास में बनाए हैं दोनों के लिए। नहीं तो इतना चाय है, दो कप में छान देने में क्या था।’ एक छोटा सा गलियारा था जिसमें आइना टंगा था। लकड़ी के बॉर्डर वाला हाफ़ ग्लास। वे दोनों उधर आए और लड़के ने ख़ुद को आइने में देखा। लड़की ने ज़रा सा उसका कॉलर ठीक किया, सूट के कॉलर में मुड़ा हुआ। काँधे पर ज़रा सा हाथ से सलवट ठीक की। इतना सा थोड़े से स्लो मोशन में हुआ कि लड़की को एकदम ठीक ठीक २४ फ़्रेम में बँट के याद रह गया सब कुछ ही। वे एक मिनट उस आइने में ठहर गए। 

चाय बहुत अच्छी बनी थी। बाँट के पीने में मीठी लगी थोड़ी ज़्यादा। उसने ऐसा कभी नहीं किया था कि किसी के घर गयी और बिना इजाज़त किचन में जा कर चाय बना ली हो। कभी कभी हक़ माँगना नहीं पड़ता है। महसूस होता है। वे साथ में बहुत ख़ुश थे। ये ख़ुशी दोनों के चेहरे पर रेफ़्लेक्ट हो रही थी। कि उन्हें इतना ही चाहिए था। एक दूसरे के साथ वक़्त। इतना सा ही क़रीब होना। इतना सा दूर होना भी। 
***

वो नहीं जानती कि इसके बहुत दिन बाद उसे जाने क्यूँ याद आया। कि। शादी के बाद जब लड़की विदा होती है तो पीले रंग के कपड़े पहनती है। अपने घर आने के लिए।

27 January, 2019

इश्तियाक़

दिल्ली एक किरदार है मेरे क़िस्से का। इक लड़की है जो दिल्ली जाते ही मुझसे बाहर निकल आती है। दीवानों की तरह घूमती है। चाय सिगरेट पीती है। व्हिस्की ऑन द रॉक्स। कानों  में झुमके। माथे पर छोटी सी बिंदी। आँखों में इतनी मुहब्बत कि पूरे पूरे उपन्यास सिर्फ़ उस रौशनी में लिखा जाएँ। वो लड़की जो दिल्ली देखती है और जीती है वो सच के शहर से बहुत अलग होती है। उस शहर के लोग ऐसी दिलफ़रेब होते हैं कि उनपर जान देने का नहीं, जान निसार देने को जी चाहता है। ख़ूबसूरत उफ़ ऐसे कि बस। क़िस्सों में ही होता है कोई इतना ख़ूबसूरत।

***

तो उसने मेरा उसे देखना देखा है। देर तक देखना। उसने वाक़ई मेरे चेहरे को ग़ौर से देखा होगा। कभी कभी सोचती हूँ मैं भी, कितने लोग होते होंगे उसे प्रेम में यूँ आकंठ डूबे हुए। मैं तुलना नहीं करना चाहती। उसके प्रेम में कम ज़्यादा नहीं होता। उसके प्रेम में सब एक जैसे ही दिखते हैं। मुझे वे सब स्त्रियाँ याद आती हैं जो उससे प्रेम करती हैं, जिन्हें मैंने देखा है। शायद जो एक ही अंतर मुझे दिखा, वो ये, कि वे प्रेम पर एक झीना पर्दा डालने की कोशिश करती हैं। एक घूँघट कि जिसके पीछे से उनका प्रेम और उनकी सुंदरता और ज़्यादा ही निखर जाती है। मुझे प्रेम यूँ भी हर ओर दिखता है। मैं प्रेम को उसके हर रूप में पहचान सकती हूँ। 

मुझे प्रेम में कृष्ण और राधा और मीरा और रूक्मिनी और गोपियाँ ही क्यूँ याद आती हैं? उनके एक मित्र ने पूछा, ‘आपको जलन नहीं होती? बुरा नहीं लगता’। मैंने हँस कर यही कहा था, वे कृष्ण हैं, सबका अधिकार है उन पर। मेरा प्रेम कोई अधिकार ना माँगता है न देता है। प्रेम सहज हो सकता है, अगर हम घड़ी घड़ी उसे सवालों के दायरे में ना बाँधें तो। 

उस रोज़ मैंने हल्दी पीले रंग की शॉल ओढ़ी थी। काले रंग का कुर्ता और काली चूड़ीदार। सर्दी ज़्यादा नहीं थी। दोस्तों ने हमेशा की तरह घुमा रखा था मुझे चकरघिरनी की तरह। कभी कहीं कभी कहीं। मैं दिल्ली में थी। मैं ख़ुश थी। जैसा कि मैं दिल्ली में हमेशा होती हूँ। किसी कहानी के किरदार जैसी। थोड़ी सच्ची, थोड़ी सपने में जीती हुयी। मेरी आँखों में जाने कितनी कितनी रौशनी थी। 

मैंने एक दिन पहले गुज़ारिश की थी, ‘कल शाम कहीं बाहर चलेंगे। मेरे हिस्से एक शाम लिखा सकती है क्या? डिनर या ड्रिंक्स कुछ।’ लेकिन इस दुनिया में ऐसा कुछ कहना फ़रमाईश की श्रेणी में आता है… अनाधिकार ज़िद की भी… और ज़िद तो हम कभी कर नहीं सकते। सो पूछा था और बात भूलने की कोशिश की थी। लेकिन दिल धड़क रहा था सुबह से। कभी कभी कोई ख़्वाहिश दुआ जैसी भी तो होती है। ईश्वर के पास जाती है…ईश्वर अच्छे मूड में होते हैं, बोलते हैं, तथास्तु। 

उस रेस्तराँ में पीली रोशनियाँ थीं… वोदका और व्हिस्की … थोड़ी थोड़ी आइस। मुझे याद है कितनी क्यूब्ज़, पर लिखूँगी नहीं। मेरा रेकर्ड नौ टकीला पी के भी होश में रहने का है। लोग कहते हैं मुझे पिलाना पैसों की बर्बादी है। मुझे कभी चढ़ती नहीं। कभी भी नहीं। एक थर्टी एमएल से हम टिप्सी हो जाएँ तो इसमें विस्की का कोई दोष नहीं हो सकता। हल्का हल्का सा लग रहा था सब। काँच के ग्लास के हल्की क्लिंक, ‘लव यू’। ब्रेख़्त याद आए। ‘When it is fun with you. Sometimes I think then. If I could die now. I’d have been happy. Right to the end.’ 

हम बाहर आए तो ठंडी हवा चल रही थी। मैं थोड़ी नशे में थी। सिर्फ़ इतना कि चलते हुए ज़रा सी उनकी बाँह पकड़ के चलने की दरकार हो। ऐसा नहीं कि गिर जाती, लेकिन ज़रा सा हाथ पकड़ के चलती, तो अच्छा लगता। ईमानदारी में लेकिन हमने जाने कहाँ की कौन सी घुट्टी घोल के पी रखी थी। जितने की ज़रूरत है उससे एक ज़रा कुछ नहीं माँगती। ये भी तो था कि ज़िंदगी ऑल्रेडी मेहरबान थी, उसपर ज़्यादा ज़ोर नहीं देना चाहिए। मैं ज़मीन से ज़रा ऊपर ही थी। थोड़ा सा ऊपर। हवा में। जिसे होवर करना कहते हैं। वैसी। 

मुझे ज़िंदगी में कई बार प्यार हुआ है। कई कई बार। लेकिन पहले प्यार होता था तो इस तरह उसमें डूबी होती थी कि कुछ होश ही नहीं रहता था, मैं क्या कर रही हूँ, किसके साथ हूँ… ख़ुमार में दिन बीतते थे। अब लेकिन प्यार इतने छोटे लम्हे के लिए होता है कि जब होता है तो अपनी पूरी धमक के साथ महसूस होता है। चेहरे पर चमक होती है, चाल में एक उछाल, बातों में थोड़ी सी लय… चुप्पी में थोड़ा सा सुख। अब मैं ख़ुद को देख भी पाती हूँ, बदलाव को महसूस कर पाती हूँ, उन्हें लिख पाती हूँ। 

हमने सिगरेट जलाई। मैं टिप्सी थी। थोड़ी। कनाट प्लेस में ऊँचे सफ़ेद खम्बे हैं। पीली रोशनी होती है। मेरे बाल खुले थे। मैं एक खम्बे से पीठ टिका कर खड़ी थी। थोड़ी थोड़ी उसी ऐक्सिस पर दाएँ बाएँ झूल रही थी। पाँच डिग्री। सिगरेट का कश छोड़ते हुए धुआँ मेरे और उनके बीच ठहरना चाहता लेकिन हवा थी… इसलिए उड़ जाता। उतने छोटे लम्हे में भी धुएँ के पार उनका होना एकदम किसी जादू जैसा था। मैं उन्हें छूना चाहती थी, देखने के लिए कि ये सपना तो नहीं है। लेकिन मैंने ऐसा किया नहीं। सिगरेट के गहरे कश खींचती और धुएँ के पार उन्हें देखती। सोचती। कोई कितना प्यार कर सकता है किसी से। मैं जितना प्यार कर सकती हूँ किसी से… उतना प्यार करती हूँ मैं उनसे।  
सिगरेट उन्हें देते हुए उँगलियाँ छू जातीं। सीने में कोई तड़प उठती। मैं उसे ठीक ठीक लिख नहीं सकती कि क्यूँ। किसी बेहद बेहद ख़ूबसूरत लम्हे को जीते हुए जब लगता है कि ये लम्हा गुज़र जाएगा। ये सिगरेट ख़त्म हो जाएगी। ये शहर हमें भूल जाएगा इक रोज़। उन्हें देखने को चेहरा पूरी तरह ऊपर उठा हुआ था। जैसे मैं आसमान में चाँद देखती हूँ। 

हम दोनों चुप थे। कि जाने दिल किस चीज़ का नाम है। कभी सिर्फ़ इतने पर जान दे रहा था कि जीवन में कभी एक बार उन्हें देख सकूँ। यहाँ एक पूरी शाम नशे में बीती थी। जाती शाम की आख़िरी और पहली सिगरेट जला चुके थे। लेकिन यहाँ से कहीं जाने को जी नहीं कर रहा था। मुझे याद नहीं मैंने आख़िरी बार कब किसी एक लम्हे को रोक लेना चाहा था। लेकिन ये एक वैसा लम्हा था। एक सिगरेट भर का लम्हा। कभी ना भूलने वाला लम्हा। शहर। और एक वही, जिसे जानां कहना चाहती थी। 

सुख की परिभाषा इतनी सी है कि हम जहाँ हैं और जिसके पास हैं, वहीं और उसी के पास होना चाहें उस लम्हे। सुख उतना ही था। मैं दिल्ली की किसी शाम थोड़े नशे में टिप्सी, ज़रा सी झूमती हुयी उस एक शख़्स के साथ सिगरेट पी रही थी जो कहानियों जैसा था। शहज़ादा। सरकार। कि जिसकी हुकूमत मेरे दिल पर चलती है, मेरे किरदारों पर, मेरे सपनों और पागलपन पर भी। दुनिया की किसी भी कहानी का प्लॉट इतना सुंदर नहीं हो सकता था जितना ज़िंदगी का था। 

उससे मेरा कहानियों का रिश्ता है। मैं लिखती हूँ और वो सच होता जाता है। मैं लिखती हूँ सफ़ेद शर्ट और उसके बदन पर कपास के धागे बुनते जाते हैं ताना बाना। मैं लिखती हूँ नीला कोट और देखती हूँ कि उसके कफलिंक्स पेन की निब वाले हैं। मैं लिखती हूँ वोदका और नशे में चलती हूँ थोड़ा बहकती हुयी। सिगरेट लिखती हूँ तो मेरी उँगलियों में उसकी छुअन महसूस होती है। मैं लिखना चाहती हूँ उसकी आँखें लेकिन स्याही नहीं होती मेरे पास। 

मैं उसे विदा नहीं कह सकी। वो मेरी रूह में घुल गया है। मेरे आसमान में, चमकते चाँद में। स्याही में। ख़ुशी में। इंतज़ार में। 

लिखे हुए क़िस्से की सबसे ख़ूबसूरत बात यही है कि अतीत में जा कर क़िस्से को बदल नहीं सकते। तो वो एक सिगरेट मुझसे कोई नहीं छीन सकता। वो शहर। चुप्पी। पीले रंग की शॉल। उसकी सफ़ेद शर्ट। उसके गले लगने की ख़्वाहिश। उसे न चूमने का दुःख। ये ख़ज़ाना है। मरूँ तो मेरे साथ चला जाए। नायाब ये इश्क़ तिलिस्म। 

मोह में रचते हैं। इश्क़ में जीते हैं। क़िस्से-कहानियों-कविताओं से लोग। 
जां निसार तुझ पे, जानां! 

25 January, 2019

इकरार ए मुहब्बत। इक़बाल ए जुर्म।

टेक्नॉलजी ने अभी तक दो चीज़ों को रेप्लिकेट करना नहीं सीखा है। स्पर्श और ख़ुशबू।

जानां, तुमसे दूर होकर तुम्हारी ख़ुशबू तलाशती रहती हूँ। जाने किस चीज़ में मिले ज़रा सी तुम्हारी देहगंध।

मैं खुली हथेलियाँ लिए जाती हूँ बारिश, कोहरा, मौसम, गुलाब, जंगल, ब्रिज, मिट्टी... सब तक। कि ज़रा महसूस हो सके तुम्हारे हाथों की नर्माहट। 

मैं छूना चाहती हूँ तुम्हें। तुम्हारा हाथ पकड़ कर चलना चाहती हूँ इस बावले शहर में। तुम्हें ले जाना चाहती हूँ अपने फ़ेवरिट कैफ़े। कि देखो, ये कश्मीरी कहवा है और जो लड़की तुम्हारे सामने बैठी है, तुम्हारे प्यार में पागल है। मेरे हाथों को प्यास लगती है। तुम्हारी छुअन की।

उसी प्रेम में दुबारा गिरने पर क्या हाल होता है जिससे पहली बार में भी ठीक ठीक उबर न पाए हों?

तुम ज़रा कम ख़ूबसूरत होते तो भी बात आसान तो नहीं होती, थोड़ी कम मुश्किल होती। बचपन में कुछ नक्काशीदार मंदिर देखे थे। पहली बार संगमरमर पर की बारीक नक़्क़ाशी देखी थी। पुरातत्ववेत्ताओं के नियमानुसार उन्हें छूना मना था। लेकिन मैं उन्हें छूना चाहती थी। देखना चाहती थी कि संगमरमर का तापमान क्या है, वे मूर्तियाँ ठंडी हैं या गर्म। मैं कभी कभी सोचती हूँ तुम्हारी आत्मा के बारे में... फिर तुम्हारी आत्मा के पैरहन के बारे में भी।

तुम जब तक काग़ज़ पर थे, तब तक ठीक था। अब तुम सामने दिखते हो। धूप में, रोशनी में, चाँदनी में... मैं जाने क्या करना चाहती हूँ तुम्हारा। कि मुझे क़ायदे से लिखने में डर लगना चाहिए, लेकिन लगता नहीं, जाने क्यूँ।

तुम्हारी आवाज़ इतनी अपनी लगती है। जैसे मेरे बदन से आ रही हो। जैसे तुमसे फ़ोन पर बात नहीं होती, तुम कहीं मेरे भीतर रहते हो। कि सात तालों वाला तिलिस्म तोड़ दिया है दिल ने और बाग़ी हो गया है। यूँ भी, सरकार, तो हम किसी और को नहीं कहते। तो ज़रा तुम्हारी हुकूमत ही सही। 

कई बार लोगों को कहा है। कि मैं अब लिखना नहीं चाहती कि मुझे ये बातें समझ नहीं आती कि कोई लड़की इस पागल की तरह क्यूँ खोजेगी उस एक शख़्स को... कि जिसके काँधे से जाने कैसी ख़ुशबू आती थी। आँसुओं की, रतजगों की, सिलसिलों की, दूरियों की... प्यास की, आस की...

तुम जब प्यार कहते हो ना जानां, तो लगता है... अबकि बार तुम्हारे काँधे से अलविदा की ख़ुशबू नहीं आती... वहाँ एक उम्मीद का नन्हा बिरवा लहलहाता है। कि वहाँ से अब, 'फिर मिलेंगे' की ख़ुशबू आती है। 

कि हम कई कहानियों में मिलेंगे। कई शहरों में। कई रीऐलिटीज़ में। हम मिलते रहेंगे कि जब तक पूरे पूरे छीज न जाएँ। वक़्त हमारे लिए थोड़ा थोड़ा ठहरेगा। ज़िंदगी होगी ज़रा ज़रा मेहरबान। हम जिएँगे। सिर्फ़ तुम्हारे इंतज़ार में जानां...

कि अब तुम्हारे काँधे से इंतज़ार की ख़ुशबू आती है...

इकरार ए मुहब्बत। इक़बाल ए जुर्म।
लव यू।

23 January, 2019

उदासियों का इतना ख़ूबसूरत घर कहीं भी और नहीं।


महबूब की आवाज़
कपूर की ख़ुशबू थी।
मन को पूजाघर कर देती। 
लड़की ने चाहा 
कि काट दे दो रिंग के बाद फ़ोन
लेकिन उसके पास ज़ब्त बहुत कम था
और प्यार बहुत ज़्यादा।
जब न हो सकी बात, उसने जाना
प्रेम इतना भी ज़रूरी नहीं। 
किसी भी चीज़ से
भरा जा सकता है ख़ालीपन,
उदासी से भी।
***
ख़ानाबदोश उदासियों ने डेरा डाल दिया
लड़की के दिल की ख़ाली ज़मीन पर
और वादा किया कि जिस दिन महबूब आ जाएगा
वे किसी और ठिकाने चली जाएँगी। 
इंतज़ार में ख़ाली बैठी वे क्या करतीं
उदासियों ने पक्के मकान डालने शुरू किए। 
कई कई साल महबूब नहीं आया। 
नक्काशीदार मेहराब वाली हवेलियाँ
लकड़ी के चौखट, चाँदी के दरवाज़े
लोकगीतों में दर्ज है कि
उदासियों का इतना ख़ूबसूरत घर कहीं भी और नहीं।
***



लड़की ने अपनी डेस्क पर 
आँसुओं भर नमी का प्यासा
नन्हा सा हवा का पौधा रखा था।

मिट्टी नहीं माँगता, जड़ें नहीं उगाता
रेत में पड़ा रहता बेपरवाह
मुस्कुराता कभी कभी। 
लड़की उसे नाम नहीं देती
पौधा उसे नाम देता
जानां।

20 January, 2019

लव यू बे

आज याद आया कि तुम्हारे गले लगे साल से ऊपर होने को आया। अजीब सा दुखा कुछ। हूक जैसा। सोचती हूँ इसमें मेरी क्या ग़लती कि मैं प्यार नहीं करती तुमसे। प्यार कभी कभी ख़त्म हो जाता है। हमेशा वग़ैरह टाइप की चीज़ें सिर्फ़ पहले प्यार के लिए रिज़र्व होती हैं। तब लगता है कि ज़िंदगी भर इसी एक लड़के से प्यार रहेगा। दूसरे, तीसरे और बाद के कितने भी नम्बर वाले प्रेम के हिस्से बहुत कुछ होता है, ‘हमेशा’ नहीं होता। यूँ भी अब मैं हमेशा का इस्तेमाल बहुत बहुत कम चीज़ों के लिए करती हूँ। ज़िंदगी में इतनी तेज़ी से चीज़ें बदलती हैं, लोग छूट जाते हैं। शहर छूट जाते हैं। क़िस्सा, कहानी, किरदार, कविता… कुछ भी नहीं रहता है हमेशा के लिए।

हाँ, मैं नहीं करती तुमसे प्यार। हमेशा वाला। लेकिन मैं पूरी तरह भूल भी नहीं पाती न किसी को। ज़रा सा प्यार छूटा रह जाता है। उस ज़रा से प्यार का करते क्या हैं?

कोई नया गाना आता है ना, इतना पसंद कि दिन रात, सुबह शाम लूप में वही एक गाना सुनते हैं बस। नींद में, जाग में, नहाते हुए, खाते हुए… बस वही एक गाना, वही बोल, वही धुन। ऐसे ही होता है प्यार। जब चढ़ता है तो कुछ और नहीं सूझता महबूब के सिवा। उसके दिन, रात, शामें… उसका शहर, किताब, कविता, हँसी उसकी या कि उसका ग़ुस्सा ही। ज़िंदगी में उसके सिवा कुछ नहीं होता। फिर जैसे एक दिन गाना उतर जाता है सुन सुन के, वैसे ही एक दिन मुहब्बत चली जाती है दिल से। हम विरक्त हो जाते हैं उस प्रेम के प्रति। लेकिन इन चीज़ों के बारे में कोई नहीं लिखता। कि अभी लोग ज्ञान देने पहुँच जाएँगे, ऐसा थोड़े होता है। होता है जी, हमारे साथ हुआ है।

लेकिन इसके बाद का क़िस्सा भी तो है। दिल जाने किस याद पर कचकता रहेगा। मैं सोचती रहूँगी। आसान था तुम्हारे लिए यूँ चले जाना। लेकिन तुम्हें गले नहीं लगा कर मुझे इतना दुःख रहा है तो तुम्हें जाने कितना दुखा होगा। मैं तुम्हारे दुःख का सोच कर तड़प जाती हूँ। क्या है ना जानम, तुम्हें ये वाला प्यार समझ नहीं आएगा। शब्द कम हैं हमारे पास इसलिए प्यार और दोस्ती वाले दो ही ऑप्शन दिए जाते हैं। जो हम कह दें, कि नहीं, कुछ और भी होता है तो? समझ पाएँगे लोग? लोगों का पता नहीं, मुझे लगता है तुम ही नहीं समझ पाओगे।

मैं सपने में तुम्हें देखती हूँ। बरगद का पेड़ है। पेड़ के नीचे हनुमान जी की प्रतिमा लगी है। किसी दोपहर वहाँ तुम्हें एक पूरी नज़र देखना माँगा था। तुम सिगरेट का आख़री कश मार रहे थे, तुम्हें क्या ज़िद कहते हम। फिर इतने बेग़ैरत तो हैं नहीं कि ज़बरन गले में बाँहें डाल दें। ‘हमने कर लिया था अहदे तर्क-ए-इश्क़, तुमने फिर बाँहें गले में डाल दीं’।

सुनो। कुछ बचा नहीं है हमारे बीच। तो वो चिट्ठियाँ जला ही देना। कि तुम्हारे शहर में तो कहते हैं सबको मोक्ष मिल जाता है। कौन जाने मुझे ही चैन से जीना आ ही जाए तुम्हारे बग़ैर भी। अच्छा ये है कि तुम्हारी आवाज़ इंटर्नेट पर है, तुम्हें याद करके मरूँगी नहीं। हाँ, वो मिस करती हूँ अक्सर, कि ज़िद करके कोई कविता रेकर्ड करवा लूँ तुमसे। कि बस माँग लूँ हथेली खोल के और तुम धर दो… कोई नन्हा सपना, कोई ज़िद्दी शेर, कहकहा कोई… पता है, मैं तुम्हारी हँसी को बहुत मिस करती हूँ। तुम्हारी सिगरेट को भी। तुम्हें पता है, चाय मैंने पहली बार सिर्फ़ तुम्हारे लिए पी थी। तुम्हारी तरह कड़क। क्या क्या सोचती रही तुम्हारे शहर के बारे में। आते आते रुकी। सोचती रही कि आने से कोई दिक्कत तो ना होगी तुम्हें। जाने कैसे होते तो तुम अपने शहर में। शायद वो शहर जो तुम्हें पहचानता है, मुझे पहचानने से इनकार कर दे। कौन जाने।

याद है एक दिन कैसी पगला गयी थी, कि छत से कूद ही जाऊँगी। कि अमरीका होता तो बंदूक़ ख़रीद लाती और ख़ुद को गोली मार लेती। कि लगता था कि तुमसे कहूँगी तो तुम फिर से डाँटोगे इतना कि मरने का ख़याल मुल्तवी कर देंगे। तुम्हें कई बातें नहीं बातायीं। कि जैसे तुम्हारे सिवा कोई नहीं डाँटता मुझे। कि सच्ची तुमसे डाँट खा के अच्छा लगता था। जैसे बचपन का कोई हिस्सा बाक़ी हो। कि ग़लतियाँ करना अच्छा लगता था। तुम्हारे डाँटने से ये भी तो लगता था कि अब माफ़ कर दोगे। हो गयी बात ख़त्म। कोई बात ज़िंदगी भर भी चल जाएगी, ये कौन सोच सकता था। तुम्हारी नाराज़गी थोड़ी कम चले, सो लगता है ज़िंदगी ही छोटी रहे थोड़ी। कि तुम उम्र भर ही तो नाराज़ रहोगे मुझसे... मरने के बाद थोड़े न।

काश कि जब आख़िरी बार मिले थे तुमसे, मालूम होता कि आख़िरी बार गले लग रहे हैं तुमसे। तो बस थोड़ा ज़्यादा देर भींचे रहते तुमको। कहते तुमसे। तुम उम्र में बड़े हो, मेरा माथा चूम कर अलविदा कहो। कि रोकने का न अधिकार है न दुस्साहस। बस, ज़िंदगी से थोड़ी सी गुज़ारिश है कि कभी मिलो फिर… इस बार प्यार से अलविदा कहना। कि मैं जाने प्यार तुमसे करती हूँ या नहीं, पर विदा प्यार से कहना चाहती हूँ तुमको।

आइ मिस यू। बहुत।
लव यू बे।

19 January, 2019

धूप, धुंध, धुआँ

मैं लिखना चाहती हूँ कि उसके काँधे से कैसी ख़ुशबू आती थी। धूप और कोहरे की मिली हुयी। अलविदा और फिर मिलेंगे की मिलीजुली भी। कि उसके काँधे पर सर रख के सोया भी जा सकता था, रोया भी जा सकता था। मैं उसे शहज़ादा भी कहती, सरकार भी… कि उसके होते हमारे दिल की सल्तनत पर सालों किसी ने नज़र भी नहीं डाली। उसके साथ होती तो भूल जाती कि क्या चाहिए… जो घट रहा होता था हमारे साथ, बस वही, बस उतना ही चाहिए होता था।

शहर कोहरे में घुल के पीछे छूटता जा रहा था। मैं उसे ड्रॉप करने स्टेशन क्यूँ जा रही थी? क्या ये कम नहीं दुखता कि वो जा रहा था और कि शहर वीरान हो जाता। कि मेरे लिए तो शहर दिल्ली बस एक उसका होना ही था। तो मैं ख़ुद को तसल्ली कैसे दे पा रही थी? कि कैसा था उसके साथ आख़िर लम्हे तक होना। विदा कहना। मोमिन भी थे, ‘थी वस्ल में भी फिक्रे जुदाई तमाम शब, वो आए भी तो नींद न आयी तमाम शब’ और कि ग़ालिब, ‘जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे, क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और’। पर इन सबके बीच की कोई कहानी थी जो चुप थी।

बात यूँ थी नहीं कुछ। दिल हुआ उसकी ख़ुशबू ओढ़ के बैठूँ जाड़े की आख़िरी इस शाम में तो उससे कहा, ज़रा अपना ये स्वेटर खोल के दे दो। वो जान से प्यारा आदमी, उसने उतार दिया स्वेटर और दे दिया। मैं उससे टेक लगाए बैठी थी, स्वेटर बाँहों में भरे। ‘तुम कौन सा पर्फ़्यूम लगते हो?’… ‘पर्फ़्यूम नहीं लगाता, ज़रा सा आफ़्टरशेव की गंध होगी शायद, बस’ … लेकिन स्वेटर में शहर की गंध थी। कोहरे, धुएँ और धूप की। तिलिस्मी। कभी इतनी देर उसके गले नहीं लगी कि उसकी ख़ुशबू पहचान सकूँ। पर वो ख़ुशबू मुझे पागल कई साल से किए हुए है। कितनी शामें उसकी तस्वीर देखते हुए सिर्फ़ इतना सोचा है, कैसी ख़ुशबू आती है उसके काँधे से… उसकी कलाइयों से… चिट्ठी लिखता है तो काग़ज़ जज़्ब करता है उसकी उँगलियों की गंध… कभी ख़यालों में सही, उसने कोई ख़त लिखा होगा मुझे? पहली बार मिली थी तो हाथ चूमे थे उसके। हमने जस्ट सिगरेट पी थी और उसकी उँगलियों में वही गंध थी। स्याही की कोई पहचानने लायक़ गंध होती भी है क्या?

उसे देखने में आँच आती है। मेरी आँख भर भर आती है उसे देखते हुए। मैं इसलिए उसे लेंस के थ्रू देखती हूँ। कैमरा कभी मैंने ऑटमैटिक फ़ोकस पर नहीं रखा। हमेशा मैन्यूअल। वरना शायद मैं पागल हो जाती। कैमरा की फ़ोकसिंग रिंग को उँगलियों से घुमाते हुए और ज़ूम इन करके देखते हुए ध्यान बस इतना रखना होता है कि फ़ोटो आउट औफ़ फ़ोकस न आए। शार्प रहे। फिर वो है भी तो इतना तीखा। जॉलाइन देखो। उँगलियाँ तराश दें ऐसी तीखी जॉलाइन है उसकी। गोल्डन आवर धूप का होता है जैसे सिर्फ़ उसकी आँखों में रंग भरने को। सुनहली आँखें। मुस्कुराता है तो समझ नहीं आता कैमरा को देख कर मुस्कुरा रहा है या मुझे। मैं ट्रान्स में होती हूँ। उस वक़्त और कुछ नहीं सूझता मुझे। मैं प्यार में भी होती हूँ। शायद।

मेरा उस स्वेटर पर दिल आ गया था। पर ठंड का मौसम और स्वेटर वापस ना करूँ तो लड़के की जान चली जाए…और स्वेटर वापस कर दूँ, तो हमारी। लेकिन मुहब्बत तो वही ना, कि क़त्ल होने ही आते हैं इस शहर। तो स्वेटर वापस करना ही पड़ा। इत्ति सी ख़्वाहिशें तो खुदा के पास भी नहीं भेजते। कल धूप में सोए सोए सिगरेट पी रही थी। स्टडी में फ़र्श पर एक गद्दा है… उसे खींच कर धूप के टुकड़े के बीच में रखा था। धूप में धुआँ देख रही थी। याद उसकी आँखें आ रही थीं। मैंने आँख बंद कर के याद करके की कोशिश की कि स्वेटर से कैसी ख़ुशबू आ रही थी। लेकिन ख़ुशबू याद नहीं रहती। उसकी तस्वीर भी तो नहीं खींच सकते। एक ही उपाय है… किरदार रचें ऐसा… हो कोई लड़की… कोई शहज़ादा कहीं दूर देश का…

***
लड़की पागल थी। लेकिन थोड़ी सी। पूरी पागल होती तो उसकी जैकेट हरगिज़ वापस नहीं करती। 

04 January, 2019

मैन्यूअल ओवरराइड

ख़ुश होने के लिए क्या चाहिए?
हमको...
आज सुबह कुणाल को एक दिन के लिए बाहर जाना था। भोर तीन बजे टैक्सी बुक किए, जैसे ही गाड़ी आए, जाने कैसे तो अचानक से घर की लाइट चली गयी। इन्वर्टर में कुछ ख़राबी थी। फिर फ़ोन की बैटरी भी कम। तो टैक्सी कैंसल कर दिए और दो मिनट में कपड़े बदल कर अपनी गाड़ी से ही चल लिए। 

सुबह तीन बजे बहुत ठंड थी आज बैंगलोर में...9 डिग्री। स्वेटर का तो ख़याल ही नहीं आया। एयरपोर्ट पर ठंड होती है, लेकिन इतनी होगी, सोचे नहीं थे। ख़ैर। सोचे ये कि सुबह होने तक का दो ढाई घंटा उधर ही बिताएँगे फिर रौशनी होगी तो घर आएँगे। इस चक्कर में अलग अलग जगह बैठ कर चाय, कॉफ़ी और मशरूम सूप पिए। ठंड ग़ज़ब थी। उससे भी ज़्यादा मुश्किल कि सिर्फ़ एक हल्की सी जैकेट पहनी थी, ऊनी कुछ भी नहीं। 

इंतज़ार करना अच्छा लगता है मुझे। किसी भी चीज़ का। आज सुबह का इंतज़ार कर रही थी। कुछ देर नोट्बुक पर कुछ लिखा। कुछ देर आसपास लोगों की शक्लें देखीं। उजाला होने को आया तो गाड़ी के पास आए। मज़े का बात ये कि मेरी आक्टेविया keyless एंट्री वाली कार है। मतलब, इसमें चाभी लगाने की कोई जगह ही नहीं है। तो चाबी की बैटरी डाउन थी। गाड़ी के दरवाज़े खुले ही नहीं। कुछ दिन से बैटरी कम होने का सिग्नल दे रहा था और सर्विस सेंटर वालों के पास इसकी बैटरी थी नहीं। हम लेकिन हर चीज़ के लिए पहले तैय्यार रहते हैं, तो आख़िरी बार जब सर्विस में गयी थी तो उससे पूछ लिए थे कि मैनुअल कैसे खोलते हैं दरवाज़ा। तो दरवाज़ा तो खोलना आता था लेकिन उसके बाद उसने कहा था कि इग्निशन के बटन के पास चाबी सटाने से गाड़ी स्टार्ट हो जाएगी, सो हुआ नहीं। धुंध हो गयी थी सुबह। गाड़ी के दरवाज़े भी लॉक नहीं हो रहे थे अंदर से क्यूँकि कार में चाभी डिटेक्ट ही नहीं हो रही थी। फिर गूगल किया तो पता चला कि बिना चाभी के स्टार्ट होने वाली गाड़ियों की चाभी में एक छोटा ट्रैन्स्मिटर होता है। कार के स्टार्ट बटन के इर्द गिर्द एक मेटल की सर्कल होती है...चाभी के आगे वाले हिस्से को उस मेटल के सर्किल से छुआने पर गाड़ी स्टार्ट हो जाएगी। हमने ठीक ऐसा किया और कार स्टार्ट हो गयी। हमने अपनी पीठ ठोकी, कि कभी भी घबराते नहीं हैं और हर आफ़त का उपाय निकाल लेते हैं। 

आज सुबह सुबह इतनी धुंध थी जितनी मैंने बैंगलोर में कभी नहीं देखी। कार के काँच पर धुंध थी। ऊँगली से उसपर एक दिल बनाए। सोचे। कि हमें कहीं भी जगह मिले, हम कुछ लिखना चाहते हैं। इसके सिवा कुछ चाहिए नहीं होता है हमको। बहुत धुंध थी और वाइपर चलाने के बाद भी पीछे का कुछ नहीं दिख रहा था। मैंने इतनी धुंध में पहले कभी गाड़ी नहीं चलायी है। एक मन तो किया थोड़ी देर रुक जाते हैं। फिर लगा नींद आने लगेगी। घर पर काम भी बहुत है और पैकिंग भी करनी है। गाने लगाए। मौसम ऐसा था कि खिड़की खोलने में डर लगे। तापमान नौ डिग्री। दिल्ली और बैंगलोर एक ही मौसम में थे इस सुबह। गाने लगा दिए, अच्छे वाले, पसंद की प्लेलिस्ट। सुबह बहुत सुंदर थी। धुंध के पीछे छिपी हुयी। गाड़ी चलाते हुए ज़्यादा देख तो नहीं सकते, लेकिन फ़ील होता है आसपास सब कुछ ही। 

गाड़ी चलाते हुए रास्ते से कोई दो किलोमीटर ऑफ़ रूट एक दोस्त का घर पड़ता है। सोचती रही, कि उसके घर जाऊँ, कहूँ उससे कि एक कप चाय पीने का मन है। हम बनाते हैं, दोनों साथ बैठ के पिएँगे। इतनी सुबह उसका बेटा भी स्कूल चला जाता है और पति के ऑफ़िस जाने में टाइम होता है थोड़ा। एक चाय की फ़ुर्सत रहती है। एयरपोर्ट से आते हुए कई किलोमीटर ये सोचते हुए गाड़ी चलायी, कि उसके घर जाने का मन है। और ये सोच सोच के ख़ुश होती रही कि उसके घर जा सकती हूँ। 

गाने अच्छे थे। सुबह अच्छी थी। ट्रैफ़िक बमुश्किल था। अस्सी की स्पीड लिमिट में चलाती आयी आराम से पूरे रास्ते। 

घर आ के भी सोचे। हम सिर्फ़ किसी के होने के ख़याल से ख़ुश रहते हैं। किसी के होने में दख़ल नहीं देते। बस, इतना ख़याल कि उससे मिला जा सकता है मेरे शहर को सुंदर रखता है। कि इस शहर में एक दोस्त है ऐसी जिससे मिलने का मन करे तो मिलने जाया जा सकता है। 

चिट्ठियों का भी ऐसा ही है तो। एयरपोर्ट पर नया वाला लाल डिब्बा लगा है। पोस्ट्बाक्स। उसे देख कर सोचती रही, इस बार दिल्ली में तुम्हारे लिए किताब ख़रीदूँगी तो उसे वहीं से भेज दूँगी। हाँ इस बार चिट्ठियाँ नहीं पोस्टकार्ड लिखूँगी तुम्हें और तुम्हारे लिए भी कुछ पोस्टकार्ड भेज दूँगी, सादे पोस्टकार्ड। मुझे लगता है तुम्हें पोस्टकार्ड अच्छे लगेंगे। 

कल वो लाल डिब्बा देख कर उस चिट्ठी के बारे में सोचती रही जो तुम्हें लिखूँगी। पता है, मैं हमेशा पोस्ट्बाक्स देख कर चिट्ठी लिखने के बारे में सोचती हूँ। दुनिया के किसी भी देश, किसी भी शहर में रहूँ। तुम्हें चिट्ठियाँ लिखने के बारे में। मैं नहीं लिखती हूँ तुम्हें चिट्ठी। पर ये ख़याल कि मैं तुम्हें लिख सकती हूँ, इतना ही काफ़ी है मेरे लिए। 

कल दिल्ली। पुस्तक मेला। मेरा सालाना तीरथ। इस बार फिर से खोजूँगी। कविता की कोई ख़ुश, मीठी किताब। हिंदी की। 

ज़िंदगी जाने कैसे चल रही थी, ऑटमैटिक पर। इस साल सोचा है, ज़रा कंट्रोल अपने हाथ में लूँगी। मैन्यूअल ओवरराइड। ज़िंदगी ज़रा मेरे हिसाब से चलेगी। देखें। 

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...