25 July, 2007
दरकते दरख़्त
मेरे घर की सबसे स्पष्ट याद है शीशम के पेड़ों की...जब हम छोटे बच्चे हुआ करते थे तो ये भी छोटे छोटे पेड थे। हम इतने उंचे तो नहीं हो पाए पर इनके साथ बड़े जरुर हुये, वक़्त के साथ इन पेड़ों की डालों पर झूले पडे और हम इन में उँची उँची पेंगें बढ़ाते रहे,मोहल्ले के सरे बच्चे हमारे इन पदो के साथ बड़े हुये हैं।
मैं हर बार जब घर आती थी तो सबसे पहले इन पेड़ों से ही तो मिलती थी,पुराने दोस्त थे मेरे...कभी भी सर पे साए की कमी महसूस नहीं होने दी इन्होने,हर पल मेरे साथ रहे,ख़ुशी में गम में और भी ज्यादा। इनकी जड़ों में मेरे कितनी आंसू गए हैं।
इस बार कितना कुछ बदल गया है, मैं घर आयी, देखा...और विरक्ति की भावना आ गयी
ये मेरा आख़िरी संबल था। आख़िरी सहारा...यकीन ही नहीं हो रहा था की जो आंखों के सामने है वो सच है...पूरा घर जैसे एक उजाड़ खँडहर बन गया है,सब कुछ तो बदल गया, ना वो पोखर है,ना नीम के पेड़ों का टीला। अब चांद किस पेड की शाखों में उलझेगा, मेरी कविता के प्रेरणा की मर गयी...मेरे साथ
अंग्रेजी में एक शब्द है :unconsolable,यानी सांत्वना से परे आज मैं सांत्वना से परे हूँ
इससे किसी को फर्क पड़ता है क्या,सूरज कल भी अपने वक़्त पर निकलेगा, हम देखते हैं की दुनिया बहुत बड़ी है और इसके mechanism बहुत complex। हम तो इसका एक छोटा सा पुर्जा हैं बस, तो क्यों ना हम अपने आप की बजाये इस दुनिया को देखीं, ये हमारा ही इंतज़ार कर रही है
"WE ARE THE SAVIORS", we cannot escape what our duty is, what our purpose in coming to this earth is...together we will make it happen.....i am sure
love is the strongest force on this earth
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badlaav hi jeevan hai! Mujhe bhi apane ghar ka amrood kaa ped yaad aa gaya!
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