26 February, 2011

लौट आने वाली पगडण्डी

मुझ तक लौट आने को जानां
ख्वाहिश हो तो...
शुरू करना एक छोटी पगडण्डी से 
जो याद के जंगल से गुजरती है 
के जिस शहर में रहती हूँ
किसी नैशनल हायवे पर नहीं बसा है 

धुंधलाती, खो जाती हुयी कोहरे में 
घूमती है कई मोड़, कई बार तय करती है
वक़्त के कई आयाम एक साथ ही 
भूले से भी उसकी ऊँगली मत छोड़ना 

गुज़रेंगे सारे मौसम
आएँगी कुछ खामोश नदियाँ
जिनका पानी खारा होगा
उनसे पूछना न लौटने वाली शामों का पता

उदास शामों वाले मेरे देश में
तुम्हें देख कर निकलेगी धूप
सुनहला हो जाएगा हर अमलतास 
रुकना मत, बस भर लेना आँखों में

मेरे लिए तोहफे में लाना 
तुम्हारे साथ वाली बारिश की खुशबू 
एक धानी दुपट्टा और सूरज की किरनें
और हो सके तो एक वादा भी 

लौट आने वाली इस पगडण्डी को याद रखने का 
बस...

22 February, 2011

डगर चलत छेड़े श्याम सखी री

Establishing Shot: Ext, Evening, Garden
हरियाला सा बाग़ है...तोतों की चीख-चिल्लाहट और मोर के शोर से गुलज़ार सा हुआ है...शाम का वक़्त और आसमान में बादलों के कुछ सांवरे कतरे.
फेड इन होती हुयी आवाज़...मीरा! अरीओ मीरा!!.
सेट पर पर एक चपल किशोरी दौड़ती हुयी चढ़ती है और कोने कोने ढूंढती है, पेड़ की पीछे, फुनगी के ऊपर...मीरा...कहाँ चली गयी शैतान! काले काले बदल घुमड़ रहे हैं और इसे अभी छुपा छुपी खेलने कि पड़ी है...घर जा के खुद तो मार खाएगी ही, मुझे भी खिलवाएगी.

झील किनारे एक पत्थर पर एक सलोनी सी लड़की बैठी है...बड़ी बड़ी आँखें, थोड़ा फैला सा काजल...और कमर तक के बाल...उनींदी, सपनीली आँखें झपकती है पल पल में...सखी से कहती है...
'देख ना...कैसी सांवली धनक फैली हुयी है...मेरा मन कहता है आज ब्रिन्दावन में बारिश हो रही होगी...चल ना भाग चलते हैं, वो डमरू चाचा की बस है ना..सुना है सीधे ब्रिन्दावन रूकती है...देखें तो सही आज कान्हा कैसे रास रचा रहा है...चल ना...बारिश होगी...बादल की गरज पर हम थिरकेंगे....बिजली से तेज हम नाचेंगे. यमुना के तट पर कान्हा बांसुरी बजा रहा है...देख ना, तुझे उसकी मोरपंखी दिखी?'
'बावली हो गयी है...कहाँ है कोई...चल ना, जल्दी अँधेरा हो जाएगा, माँ खाना बंद कर देगी मेरा' और वो लगभग खींचती हुयी उस खोयी हुयी लड़की को, जिसका कि नाम मीरा है ले चलती है. मीरा का प्रलाप बंद नहीं होता है...
'कान्हा..तुम सच में बड़े दुष्ट हो...किसी और को नज़र नहीं आते, और मुझे इतना सताते हो...मैंने ना कहा था कि मुझे कोई ब्रिन्दावन जाने नहीं देगा, मेरी सगी...बचपन की सहेली ये भी मुझे घर ले जा रही है खींच कर...हाय कान्हा, मैंने क्या किया है जो तुम मुझे इतना परेशान करते हो?
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interiors of house

गर्मियों का एक दिन...अनगिन लोगों के उस संयुक्त परिवार में हमेशा कोई न कोई आता जाता ही रहता है...ऐसे में बच्चों को सबसे जरूरी काम सौंपा गया है...आने वालों के लिए घड़े से पानी निकाल कर, ग्लास में ले जाना...बाहर के चबूतरे के ऊपर आम के पेड़ की छाया है, दिन में उधर गर्मी थोड़ी कम लगती है. मीरा को उसकी माँ ने पानी लेने भेजा है...वो घड़े के पास खड़ी अपने ही ख्यालों में गुम है...पिछले इतवार गुरूजी ने छोटा ख्याल सिखाया था...डगर चलत छेड़े श्याम सखी री, मैं दूँगी गारी, निपट अनाड़ी...पनिया भारत मोरी गागर फोड़ी, नाहक बहियाँ मरोड़ी झकोरी...मीरा की माँ पुकार रही है...बरामदे के मेहमान बिना पानी के मरे जा रहे हैं, मगर मीरा पानी लेकर कैसे आये भला, कान्हा ने मरोड़ दी हैं उसकी बाहें, घड़े में से तो सारा पानी गिर ही गया है...और अभी भी कान्हा चिढ़ा ही रहा है उसे. अब वो कान्हा से झगड़े पहले या माँ को सफाई दे की कान्हा ने घड़ा फोड़ दिया है.
बरामदे के मेहमान...कुछ नकचढ़ी फूफीयां कुछ पिताजी के गाँव के अन्य लोग...महिलाओं की टोली में खुसुर फुसुर होने लगी है...मैं न कहती थी, मत रखो बेटी का नाम मीरा, अब देखो न सारे वक़्त खोयी ही रहती है...कान्हा कान्हा...अब पूछ न उससे, कान्हा बियाह करेगा? अरे कान्हा ने तो राधा को भी बड़े आंसू रुलाये थे, व तो बावली ही थी, और अब ये है, पागल हो गयी है...वरना लड़की बड़ी गुनी है. एक कान्हा के पीछे भागी फिरती है येही खोट है बस.
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doctor's cabin
मीरा के माता पिता डॉक्टर के साथ बैठे हुए हैं...सामने कई सारी रिपोर्ट्स हैं...डॉक्टर काफी गंभीर मुद्रा में है...ह्म्म्म तो समस्या ये है की मीरा को लगता है की कान्हा इसका बचपन का सखा है और इसके साथ बातें करता है खेलता है...ये उसके बारे में बातें करती रहती है...ये एक काफी गंभीर मनोवैज्ञानिक बीमारी है...इसे सिजोफ्रेनिया कहते हैं. इसमें व्यक्ति अपने आसपास काल्पनिक किरदार रच लेता है. समस्या वक़्त के साथ और बिगड़ती जाती है. सही समय पर दवाओं और इलाज से इसके सिम्टम्स कंट्रोल किये जा सकते हैं. आप मीरा को दवाइयां ध्यान से खिलाइए...मैं दे देता हूँ...और इसे मेरे पास दिखाने लाया कीजिये, हर हफ्ते. और इसे ऐसे लोगों से दूर रखिये जो इसे ऐसी काल्पनिक कहानियों पर विश्वास करने देते हैं...आप लोग रैशनल लोग हैं.
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इलाज से धीरे धीरे मीरा की हालत में सुधार आने लागा...अब वो डॉक्टर के यहाँ जाने के नाम से ही चहकने लगती थी. घर वालों को भी ये डॉक्टर बहुत पसंद था...लम्बा, सांवला, घुंघराले बालों वाला...और एक दिन डॉक्टर ने मीरा का हाथ मांग लिया. बड़ी धूम धाम से शादी हुयी उनकी...मीरा विदा हुयी तो जैसे पेड़ पौधे तक उदास हो गए. 
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doctor's house...room interiors
मीरा बचपन के स्केच किये कुछ कागज़ निकाल रही है...और गुनगुना रही है...कैमरा उसके स्केचेस पर जूम होता है...जहाँ कान्हा के रूप में हूबहू डॉक्टर की स्केच है. 
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आखिरी सीन में नारद का प्रवेश...नारायण नारायण...प्रभु आपकी माया कोई नहीं समझ सका है आज तक. राधे श्याम...राधे श्याम!

16 February, 2011

मध्यांतर

उँगलियों को सिगरेट की अजीब सी तलब लगी है...मन बावरा भागते हुए फिर दिल्ली पहुँच गया है जहाँ घना कोहरा लैम्प पोस्ट से गिर रहा है...घनी ठंढ है और ऊँगली में फंसी हुयी है सिगरेट...कुछ कुछ कलम जैसी ही, बेचैनी उँगलियों में कसमसा रही है...छटपटाहट ऐसी है जैसे धुएं से ही कुछ लिख जाउंगी...सिगरेट पीने की आदत नहीं है कभी, पीते हुए लिखने की तो एकदम ही नहीं...पर ऐसा खालीपन सा है कि लगता है लंग्स कोलाप्स कर जायेंगे...जैसे निर्वात है, वक्युम...इसे भरने के लिए तेज तेज सिगरेट के कश खींचने होंगे...धुएं से शायद थोड़ी जान आये.

अभी अभी थक कर ऑफिस से लौटी हूँ...आज काफी तेज़ चलाई बाइक, बहुत दिनों बाद ९० छुआ है...पिछले कुछ दिनों में पहली बार फिर से महसूस हुआ कि जिन्दा हूँ...अब भी. शाम होते ही हवा को कुछ हो जाता है...साँस खींची नहीं जाती...हो सकता है बंगलोर में आजकल पोल्लुशन थोड़ा बढ़ गया हो...हो तो ये भी सकता है कि याद का कोई गट्ठर है सीने पर जो सियाही में नहीं घुल रहा हो. कुछ स्केच करना चाहिए...या शायद कलम से सच में लिखनी चाहिए. कीबोर्ड की आवाज़ में टूटने वाली तो नहीं है याद. हो ये भी सकता है कि याद कुछ भी ना हो...खालीपन तब ही तो है. ये कैसा अहसास है कि कभी लगता है साँस लेने को हवा नहीं है तो कभी लगता है हवा के दबाव से सारी शिराएं फट जायेंगी.

किताबें आधी पढ़ी रह जाती हैं...रात को चाँद दिखता है खिड़की से तो पर्दा गिरा देती हूँ...ऑफिस देर से जाती हूँ...कॉफ़ी पीना छोड़ रखा है...क्या हो रहा है?? सबका लिखा हुआ पढ़ती हूँ...सोचती हूँ कोई लिखे जो मेरे मन में चल रहा है...कहीं कुछ मिले तो लगे कि अकेली पागल नहीं हो रही हूँ...दुनिया में और कोई भी है जिसका मेरे इतना दिमाग ख़राब होता रहता है. पागलखाने पर फिल्में देखती हूँ, सोचती हूँ कितने खुशकिस्मत हैं वो लोग जो सदमे से पागल हो गए...एक मैं हूँ...धीरे धीरे सब कुछ छूटता जा रहा है...देखना, सुनना, महसूसना...जीना...लिखना...पढ़ना...सुनना...होना.

आह...काश!
कोई रात के ढाई बजे हों...अपनी बाइक उठा कर अकेली कहीं निकल पडूँ...किसी झील किनारे सिगरेट सुलगाऊं और तारों का अक्स धुएं के परदे के पार देखूं...फ्लास्क से निकाल के कॉफ़ी पियूं और उन सब लोगों को खुले आसमान के नीचे पुकारूं...इतना सब करके यकीन कर लूं कि देर रात सबको हिचकी आई होगी और किसी ने तो कमसेकम सोचा होगा कि इतने रात में एक वही पागल है...जगी होगी, चाँद देखा होगा और मुझे याद किया होगा.

उफ़ जिंदगी...ये कौन सा ज़ख्म है कि भरता नहीं! उदासियों...ये कौन सा फेज है कि गुज़रता नहीं!

14 February, 2011

तुम कब जाओगे उदास मौसम?

जाने वो कौन सा प्यार होता है कि जिसके होने से रूह के कण कण में से उजास फूटने लगती है...जाने तुम्हारी याद के बादल किस समंदर से उठते हैं, सदियों बरसने पर भी बंद नहीं होते हैं...

जब तक उपरी बात होती है, सब बहुत सुन्दर है...आँखों को लुभावना दिखता है, पर जहाँ थोड़ा भी गहरे उतर कर देखती हूँ तो पाती हूँ कि अँधेरे का कोई छोर ही नहीं है...कोई सीमा नहीं है...जैसे सामने बेहद ऊँची लहरें हैं जिनमें डूबने के अलावा कोई चारा ही नहीं है. और लगता ये भी है कि दिए में रोज बाती करना, तेल करना और शाम होते देहरी पर रखना जिसका काम था वो तो बिना त्यागपत्र दिए रुखसत हो रखी है. मुझे अपने लिए एक रेकोमेंडेशन लेटर चाहिए...कह सकते हैं कि एक तरह का चरित्र प्रमाण पत्र जो कि एकदम मेरे मन को सही सही ग्रेड दे सके. मनुष्य के कई प्रकार होते हैं काले और सफ़ेद के बीच...इन्हें आजकल खास तरह के ग्रे शेड वाले कैरेक्टर कहते हैं. ऐसी कोई value जो तय कर सके कि इस सियाह अँधेरे में कहीं उजाले की कोई किरण है भी कहीं...या कभी हुयी थी...या कभी होने की कोई सम्भावना है?

तुम...मन के हर अवसाद से खींच कर लाने को तत्पर और सक्षम भी...तुम तो हो नहीं आज...सामने मार्कशीट रखी है...पढ़ने में  नहीं आ रही है...पर लोग कहते हैं कि लाल स्याही है...दूर से चमकता है लाल रंग, खून के जैसे, रुक जाने के जैसे...  फुल स्टॉप...जिंदगी यूँ ही ख़त्म क्यों नहीं हुए जाती है. मार्कशीट पर किसी ऐसे इन्सान के हस्ताक्षर चाहिए जो कह सके कि मुझे जानता है...पूरी तरह, उतनी पूरी तरह जितना कि एक इन्सान दूसरे इन्सान को जान सकता है...अफ़सोस...कार्ड पर आत्मा के दस्तखत नहीं हो सकते. समाज बस मान्यता देता है आत्मा के रिश्तों को...पर उन गवाहियों को नहीं मानता. शर्त है कि खुद को गिरवी रखना होता है अगर बात साबित हो गयी...कि मेरे अन्दर कहीं से भी कोई भी रोशनी ना थी, ना है...और ना कभी होगी.

दर्द का ये कौन सा मौसम है कि गुज़रता ही नहीं...सावन नहीं गिरता, बहार नहीं आती. आज जबकि इश्क का दिन है...मैं कैसी बेमौसम बातें कर रही हूँ.
लव यू माँ. मिस यू मोर.

04 February, 2011

कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

तुम्हें मालूम कहाँ रात के टूटे वो पहर
कि आधी नींद लेके बदगुमान थे बहुत हम
जब कि ख्वाब में भी तुमने हाथ छोड़ा था
कि आधे जागने में भी मुझसे दूर थे बहुत तुम

हाँ वो बातें ही थी, कोरी ख्याली बातें थी
बस तुम कहते थे तो लगता था सच से रिश्ता है
तुम कहा करते थे मैं खूबसूरत हूँ बहुत
ये भी तो कहते थे इश्क हमेशा सा होता है

तुम्हें याद है तुम मुझको 'जान' कहते थे
मुझे गुरूर था मैं तुमको 'तुम' बुलाती हूँ
आज लफ़्ज़ों में आवाज़ ढूंढती हूँ फिर
मैं फिर उदास होके तुमको 'ग़म' बुलाती हूँ


ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

02 February, 2011

तिरासी

ड्राफ्ट में तिरासी पोस्ट्स पड़ी हुयी हैं...तीन साल से ऊपर होने को आये...शब्दों को सकेर के बस इतना ही जमा कर पायी हूँ कि छोटी बड़ी कुछ तिरासी पोस्ट्स हैं जो किसी की आँखों तक नहीं पहुंची...किसी की बातों से दुलरायी नहीं गयीं, अपेक्षित...उदास, मुंह ढक के पड़े बासी अलफ़ाज़. कई बार सोचा है कि डिलीट ही कर दूं, कि इस बिखरे हुए कूड़ेदान में ऐसा क्या है जिसका बचा रहना जरूरी है...कि जैसे इनके होने में मेरी दुनिया का स्थायित्व है...कि प्रलय आ जायेगी इनके ना होने से.

इनमें से बहुत कम अधूरी हैं, जान के छोड़ी हुयी...किसी उदास दिन पूरी होने को अभिशप्त कुछ कवितायें, विरह में जलती कुछ कहानियां और किसी विद्रूप से सच को दिखाने वाली कुछ बेतरतीब घटनाएं. सारी ख्वाहिशों में एक है इनका प्रिंट निकाल कर उनकी होली जलाने का अरमान. रात आधी होने वाली है कायदे से, पर मेरी तो अभी शुरू हुयी है...आजकल नींद नहीं आती रातों को, बस ऐसे ही उलूल जलूल ख्याल आते हैं. कुछ बेहद सच दिखने वाले सपने होते हैं...जिन्हें लिखना भी उनसे मुक्ति पाना नहीं होता. मैं अपने ही तिलिस्म का दरवाजा भूल गयी हूँ...सिमसिम...गुमसुम...तुम तुम

ऐसी जितनी रातें नींद नहीं आती...और आजकल ऐसा अक्सर हुआ करता है, मेरा वसीयतें लिखने का मन करता है...सोचती हूँ  लॉ कर लूं. देर रात किसी मरते हुए कवि की वसीयत खोल कर पढूंगी जिसमें उसकी प्रेमिका का नाम होगा और होगी चंद किताबों के कवर...जो किसी और नाम से छपेंगे. कितने अजीब होते हैं ना कवि, आज के दौर में भी किसी के नाम की आखिरी साँस तक हिफाज़त करते हैं. ऐसी कहानी आज के खबरी चैनेल के हाथ लग जाती तो क्या चटाखेदार हेडलाईन  बनती. कॉलेज फर्स्ट इयर के क्लासेस भी याद आते हैं...जब जर्नालिस्म सच में अच्छी चीज़ हुआ करती थी, और कवि इज्ज़तदार. यादों के इस कोलाज में कवि की घुसपैठ कैसे हो गयी मालूम नहीं...हमें जब साहित्य पढाया गया उसमें कवि तो थे ही नहीं. ये कवि बहुत  जीवट प्राणी होता है...हजारों मोटी मोटी मॉस-कॉम  की किताबों के बीच भी सफोकेट नहीं होता...घबराता नहीं. कुछ बहुत दिन पहले एक मित्र से बात हो रही थी...वो आश्चर्य कर रहा था कि सच में एथिक्स इन जर्नालिस्म नाम का पेपर होता था तुम लोगों को.
बंगलोर का मौसम बहुत सुहाना है...यूँ तो यहाँ अक्सर शाम को बारिश होती है, पर कुछ ऐसी भी शामें होती हैं जब उदासी बरसती है...आज की शाम कुछ वैसी ही थी. खाली जगह भरने को कुछ नया लिखने का मन नहीं किया...तो पुरानी पोस्ट्स देख रही थी. अधूरे रिश्ते जैसे...हेतु हेतु मद भूतकाल...अगर ऐसा हुआ होता तो वैसा होता. (उदाहरण...अगर तुम आज इस शहर में होते तो शाम खूबसूरत लगती.)

जिंदगी में कुछ डेफिनिशन/परिभाषाएं जरूरी होती हैं...ड्राफ्ट...कर रही हूँ जिंदगी...काफी दिनों से मेरी शाम में अटकी पड़ी है...
परिभाषाएं...एक बेहद खूबसूरत सी अब्सोलुट वोदका..वनिला, एक ग्लेंफिदिच सिंगल माल्ट की गहरी हरी कोर्क लगी... मेरी इच्छा है कि हरी बोटल में रजनीगंधा के फूल डाल दूं...और सफ़ेद वाली में गुलाब के फूल. खुशबू में नशा भी तो तब शायद. ऐसे खूबसूरत गुलदान किसी के घर में होंगे भला?
देर रात...वनिला और माल्ट की मदहोश महक...कुछ अधूरे लम्हे. जिंदगी. तुम सी.

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