29 January, 2011

चिरयुवा

अपने शहर से बहुत दूर एक शहर होता है...जिसकी पेंच भरी गलियां हमारी आँखों ही नहीं पैरों को भी याद होती हैं...नक्शा कितना भी पुराना हो जाए एक कमरा होता है, जो गायब नहीं होता...भूलता नहीं...बूढ़ा नहीं होता...हम सबके अन्दर एक कमरा चिरयुवा रहता है.

इस कमरे की खिड़कियों में अमलतास दिखता है...अमलतास, लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप का प्रतीक...आँखों से साल भर सिंचता है, और सिर्फ जब उसकी आमद होती है तो वासंती रंग जाता है. पोर पोर नाच उठता है जैसे पीली पंखुड़ियाँ हवा में उड़ी जाती हैं कमरे के अन्दर तक और फर्श पर कालीन बिछ जाता है. जैसे मन पर तुम्हारी याद का मौसम आता है, फाग गाता हुआ...सुना है पिछले बरस तुम्हारी शादी हो गयी है...कोहबर में वो दूसरा नाम किसका था, वो तो बताना...मुझे उसके नाम की दुआएं भी तो मजार पर बाँधनी हैं.  

जिस दौर में रजनीगंधा सात रुपये में और एक गुलाब का फूल पांच रुपये में मिलता था...उस दौर में इस कमरे में हमेशा ये फूल साथ दिखते थे...एक खुशबू के लिए और एक इश्क के लिए. जब तक रजनीगंधा की आखिरी कली ना खिल जाए गुलाब भी अपनी पंखुड़ियों में मासूमियत बरक़रार रखता था. बारह रुपये में उस कमरे में रौनक आ जाया करती थी. इतने दिन हो गए, वो फूल मुरझाते नहीं हैं, जाने कौन से अमृत घाट से पानी आता है. इश्क की तरह वो दो फूल भी हैं...पुनर्नवा.

किसी त्यौहार, शायर दीवाली पर...जब इश्वर निरिक्षण करने उतरे थे...तो मेरा घरकुंडा उन्हें बहुत पसंद आया था, अल्पना में मैंने कोई नाम कहाँ लिखा था...उसी वक़्त इश्वर ने कमरे को वरदान दिया 'पुनः पुनर्नवा भवति' बस, कमरा तबसे हमेशा नया ही रहता है. कहीं से भी उग आता है...दीवारों से, आँखों से, पैरों में...सड़कों पर...बादलों में....कहीं भी.   

सच और वर्चुअल आजकल बहुत से चौराहों पर मिल रहे हैं...तो सोच रही हूँ...कमरे को गूगल मैप पर डाल दूं कि ढूँढने से किसी को भी मिल जाए. इस कमरे में बहुत सी धूप खिलती है और याद के टेसू लहकते हैं...कुछ जवाबी पोस्टकार्ड रहते हैं जिनपर बहुत सी गलियों का पता लिखा रहता है...काफी दिनों तक मैंने कमरे पर ख़त भेजे थे, हमेशा जवाबी पोस्टकार्ड पर ही...वो खुले हुए ख़त मेरी पूरी जिंदगी की कहानी हैं. पर मेरे पोस्टकार्ड किसी भी पते पर वापस नहीं आये...जाने कौन उन खाली पीले पन्नों पर अपनी कहानियां लिख के भेजेगा. 

उस कमरे की असली चाबी कई दिनों पहले खो गयी थी...डुप्लीकेट चाबी है मेरे पास, तुम्हारे पास कोई चाबी है या बस खिड़की से कमरा देख कर वापस आते हो? 

28 January, 2011

मौसम मिस-मैनेजमेंट

तुम ही नहीं आये हो बस, वरना इस साल के मौसमों में तो कोई खराबी नहीं है.

बारिश कमोबेश पूरे दो महीने रही है, और पूरे वक़्त मेरी चाही हुयी शामों को फुहारें पड़ी हैं...गिनाई हुयी दोपहरों को मूसलाधार बारिश हुयी है ताकि मुझे अपने ऑफिस डेस्क पर बारिश का शोर सुनाई पड़ता रहे और व्यस्तताओं वाले दिन मैं बारिश को महसूस करने के लिए काम का हर्जा ना करूँ. बादल सामने मुंह फुला कर खड़े हैं कि हमारी कोई गलती नहीं है फिर भी डांट सुनवाती हो. अब तुम इस बारिश नहीं आये तो उदास थी मैं...बाकी सबने को पूरी कोशिश की थी.

कोहरा एक कोने में बिसूर रहा है कि अब तो तुम्हारी जिद पर बंगलोर भी आना पड़ा मुझे...दिल्ली कितनी खफा थी, पर तुम्हारे लिए मुंह अँधेरे उठ कर भागता आया हूँ...याद है पिछली लॉन्ग ड्राइव, तुम चार बजे उठ कर नंदी हिल्स जाना चाहती थी, ख्वाब में कोहरा देखा था तुमने...तुम्हारे एक ख्वाब की खातिर हांफता दौड़ता कितनी दूर पहाड़ों से भागा आया तुम्हारे घर के नीचे...कि तुम्हारे रास्ते कि शुरुआत हसीन हो...अब तुम अकेले क्यों जा रही थी इसका मुझसे क्या लेना देना. मेरी शिकायत लगाने की क्या जरूरत थी? इस साल जाड़ों का मौसम था भी तो एकदम परफेक्ट...ठंढ बस इतनी कि उसके बहाने तुम्हारा हाथ अपने हाथों में ले सकूँ...ज्यादा ठंढ पड़ती तब तो मुझे ही डांट देते ना कि दस्ताने लेकर चला करो. पर तुम आये ही नहीं तो जाड़ों के इस मौसम का करती भी तो क्या.

हाँ गर्मी थोड़ी बदतमीज थी...पर उससे कब उम्मीद रही है सुधरने की...मौसमों के स्कूल की सबसे जिद्दी बद्द्दिमाग बच्ची...कुछ कुछ मुझे अपने बचपन की याद भी तो दिलाती है...लू के थपेड़े, आलसी दोपहरें जिनमें करने को कुछ ना हो...कॉलेज की भी छुट्टी...पर गर्मियों में गमलों में पहली बार फूल खिले थे, घर में कश्मीर की वादी उतर आई थी. तुम्हें याद है जब तुम्हारे बिना कश्मीर गयी थी, उधर पतझड़ का मौसम था और मैंने कितने सूखे पत्ते उठा लिए थे...तुम्हें छोड़ कर आते हुए तुम्हारे चेहरे की तरह जर्द थे पत्ते...खूबसूरत और उदास.

पर हर मौसम से ज्यादा खफा है मुझसे बहार...वो तो अपनी सखी थी, बचपन की दोस्त, आत्मा का अंश...कि जिसके खिलते अमलतास ने हर ज़ख्म पर फाहे रख दिए हैं...लहकते गुलमोहर ने ही तो सिखाया है कि किस तरह प्यार हर खालीपन को भर देता है...जमीन तक पर लाल पंखुड़ियों की चादर बिछ जाती है...इस बार बहार के आने पर मैं उसके गले नहीं लगी. ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था...ऐसा कोई भी दर्द तो नहीं तो उसको नहीं पता. फिर तुम्हारे नहीं होने का ये कौन सा ज़ख्म है जिसे किसी से बांटना भी नहीं चाहती मैं.

साल के सारे मौसम अपनी अपनी पारी खेल कर जा चुके हैं...खुदा हाथ बांधे कमरे में इधर से उधर टहल रहा है, मैं बोल रही हूँ कि इनके प्रॉब्लम identification डिपार्टमेंट में गड़बड़ है...समस्या कभी भी मौसमों की थी ही नहीं...खामखा कितने लोगों को काम में लगा दिया. सीधी सी समस्या थी...तुम्हारा मेरे पास ना होना...उसका उपाय करते तो मैं कितनी खुश रहती...पर इनको  पूरा साल लगा ट्रायल और एरर में...अब जा के समझ आया है. रिसोर्सेस की बर्बादी...कोहरा, बादल, गर्मी, गुलमोहर...सब परशान रहे एक मुझे खुश रखने के लिए...खुदा ने बस तुम्हें भेज दिया होता.

मौसमों का नया साल शुरू होने को है...तुम कब आ रहे हो जान?

26 January, 2011

अ वीकेंड इन बैंग्कोक

view from the windows
पिछले वीकेंड हम बंगकोक घुमने गए थे. रहने के लिए सातवी मंजिल पर काफी बड़ा सा सर्विस अपार्टमेन्ट था...फ्रेंच विंडोस, परदे हटाते ही सामने अनगिन ऊंची इमारतें...और स्काईट्रेन की पटरी जो ठीक सामने मोड़ लेती थी...हर कुछ देर में वहां एक ट्रेन गुज़रती थी और मुझे ये नज़ारा बेहद पसंद आता था.

कमरे में फर्श से छत तक शीशे लगे हुए थे, लगता था हवा में झूलता कमरा है. खिड़की के पास खड़े होकर देखती थी तो दूर तक अट्टालिकाएं नज़र आती थी. जमीन पर दौड़ती भागती बहुत सी गाड़ियाँ. शहर में गज़ब की उर्जा महसूस हुयी. रात की फ्लाईट थी तो थक के बाकी लोग दिन में आराम कर रहे थे और मैं शीशे पर कहानियों को उभरते देख रही थी. मुझे दिन में वैसे भी नींद नहीं आती. बंगकोक में जो सबसे पहली चीज़ नोटिस की वो ये कि यहाँ सड़कों से ज्यादा फ़्लाइओवेर हैं. सब कुछ हवा में दौड़ता हुआ...रंग बिरंगी टैक्सी, गुलाबी, नारंगी, हरी...एयरपोर्ट से शहर आते हुए थोड़ी देर में सारी इमारतें अचानक से लम्बी हो गयी दिखती हैं. शहर नए और पुराने का मिश्रण है...मैंने बहुत सालों बाद टीवी अन्टेना देखे, एक छत पर लगभग दर्जनों.

वात फ्रा केव 
बंगकोक को सिटी ऑफ़ एंजेल्स कहते हैं...थाईलैंड में अयोध्या की राजधानी हुआ करता था ये शहर. यहाँ आ कर पता चला कि थाईलैंड की अपनी रामायण है. यहाँ बहुत ऊँचे और खबसूरत मंदिर हैं जिन्हें 'वात' कहते हैं. यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर राजा के महल में है...वात फ्रा केव, हम पूरा परिसर घूम के देख सकते हैं. बड़े बड़े दानव जैसी मूर्तियाँ पूरे परिसर में दिखती हैं पर असल में ये यक्ष हैं, पूरे मंदिर में ऐसे बारह यक्ष हैं जो इसकी रक्षा करने के लिए तैनात रहते हैं.

वात फ्रा केव के मंदिर पूरे सोने की तरह चमकते हैं, जब हम गए थे तो इत्तिफाक से आसमान भी बहुत सुन्दर था, नीले आसमान में सफ़ेद बदल...फोटो खींचने में भी बहुत मज़ा आया. पूरे मंदिर में बहुत बारीक़ नक्काशी की गयी थी. वहां के बुद्ध मंदिर हमारे तरफ के मंदिर जैसे ही थे...उधर नाग, यक्ष, गरुड़ सबके मूर्तियाँ भी थी. रख रखाव बेहद अच्छा था, बेहद साफ़ सफाई थी. ना केवल मंदिर या महल के परिसर में, बल्कि बाथरूम भी एकदम साफ़ सुथरे. लगा कि काश हमारे यहाँ भी ऐसी साफ़ सफाई होती.
थाई रामायण 

मंदिर की दीवारों पर थाई रामायण के भित्तिचित्र बने हुए थे...वैसे तो हमारी रामायण जैसी ही थी पर वहां की पेंटिंग्स में आदमी और राक्षस के बीच में अंतर करना मुश्किल था हमारे लिए...सबके बड़े बड़े दाँत और सींग थे, जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं ;)

मुझे लोग भी अच्छे लगे...चूँकि बहुत सारी जगह भाषा समझ नहीं आती थी तो मुस्कुरा के काम चलाना पड़ता था. पहली बार महसूस हुआ कि कैसे मुस्कराहट हर भाषा में समझी जाती है :) जिस दिन पहुंचे उस दिन खाना ढूँढने में जो मुश्किल हुयी, हम ठहरे पूर्ण शाकाहारी और उधर शाकाहार का सिस्टम ही नहीं है...यहाँ तक कि चिप्स भी मिलते हैं तो कोई मछली वाले, कोई चिकन वाले...आलू के चिप्स का नाम निशान नहीं. ब्रेड में भी भांति भांति के पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े...हाँ वहां फल बहुत मिलते थे तो पहली सुबह लगभग फल खा के ही काम चलाना पड़ा. शाम होते पंजाबी रेस्तोरांत मिल गया...तो फिर तीन दिन आराम से गुजरे.

अच्छी जगह है बंगकोक, रहने और घूमने के हिसाब से ज्यादा महँगी भी नहीं है. वीसा पहले से करना जरूरी नहीं है...पहुँचने पर मिल जाता है...ऑन अरैवल वीसा. मेरा वक़्त अच्छा गुज़रा...कुछ और कहानियां बंगकोक की, किस्तों में सुनाउंगी :)

तीन दिन के लिए ही गए थे पर घर आते साथ लगा There is no place like home. छुट्टियाँ मनाने के बाद घर खास तौर से और अच्छा लगता है :) 

17 January, 2011

किनारे पर डूबने की जिद

गहरे लाल सूरज के काँधे से
रात उतारती है लिबास उदासी का 
और दुपट्टे की तरह फैला देती है आसमान पर
हर बुझती किरण से कोहरे की तरह
बरस रही है उदासी

हर डूबते लम्हे में डूबती हूँ मैं
बुझती किरण का आँखों को छू जाना
जैसे सागर किनारे रेत पर
लेटी हुयी हूँ मैं
महसूसती हूँ लहरों को
चेहरे के ऊपर से जाते हुए
साँस-साँस खारा पानी
लहर गुज़र जाने तक

किनारे पर डूबने की जिद के मुख्तलिफ
तेरी याद जिरह करती है
उतरती हूँ गहरे ख़ामोशी में
गर्म कोलतार सी रात
पैर रोकती है

तनहा...उदास...सहमी सी
मौत का इंतज़ार करती हूँ
'जिंदगी' कितना बेमानी लफ्ज़ हो गया है.

12 January, 2011

फेड टु ब्लैक

---------फेड इन------
अक्स दर अक्स स्याह होते अँधेरे में घुल जाओ...जैसे मौत के पहले वाले पहर धीमे से पलकें बंद कर रही हूँ और तुम्हारी आँखों का  जीवंत भूरा रंग गहराते जा रहा है, जैसे तुमने अभी माथे को चूमा हो और हौले से तुम्हारे होठ बिसरते जा रहे हों...जैसे मैं जानती हूँ कि अब लौट के आना नहीं होगा. नाउम्मीदी की एक गहरी खाई है जिसमें गिर के उठना नहीं होता...क़यामत.
फेड टु ब्लैक मेरा पसंदीदा 'फेड' है, इसे मैं सबसे ज्यादा इस्तेमाल करती हूँ इससे खूबसूरत अंत हो नहीं सकता...मृत्यु का सबसे खूबसूरत चित्रण है अन्धकार. मुझे 'कट्स' ज्यादा पसंद नहीं हैं...वो किसी रिश्ते की शुरुआत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उनमें एक बचपना होता है, एक काबू में ना आने वाली उश्रृंखलता होती है...कट्स एक बागी उम्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसमें  बहुत सारे फ्रेम्स जरूरी होते हैं लाइफ के...और हर शॉट  जिंदगी का एक जरूरी हिस्सा होता है, दोस्त, प्यार, करियर, शौक़...बहुत कुछ. इस उम्र और इस कट में किसी भी लम्हे पर ज्यादा देर ठहरना नहीं हो पाता, सब कुछ लम्हे भर में होता है, स्पीड डेटिंग जैसा.
मैं थोड़ी ओल्ड फैशंड हो जाती हूँ अक्सर...फेड का इस्तेमाल करने वाली फिल्में एक ठहरे हुए वक़्त के जैसी होती हैं. कुछ वैसी ही जैसे मैं तुम्हें याद करती हूँ...हमेशा क्रोस फेड करते हुए, एक फ्रेम से दूसरे फ्रेम में घुलते हुए, तन्हाई के दो लम्हों को जोड़ते हुए...किसी शाम का तुम्हें याद करना, याद के चेहरे पर सूरज की जाती हुयी धूप और किसी सुबह के कोहरे में लिपट कर तुम्हें याद करना, याद के चेहरे पर कोहरे का भीगापन, माथे पर गिरती लटों में पानी की नन्ही बूँदें अटकी हुयीं...कंप्यूटर स्क्रीन पर ये दोनों चेहरे आसपास धुंधलाते हुए होते हैं और मैं सोचती रहती हूँ कि किस चेहरे को ज्यादा पसंद करती हूँ.
मुझे फोरेवर या हमेशा जैसा कुछ पर यकीन नहीं होता...देखती आई हूँ कि सब कुछ बदलता रहता है, प्यार भी बढ़ता घटता रहता है जीवन में आई और प्राथमिकताओं के साथ. मुझे कुछ भी हमेशा सा नहीं चाहिए तुमसे, हाँ इतना जरूर चाहूंगी कि किसी रोज़ अचानक से मत चले जाना...कि बस, आज के बाद हम नहीं मिलेंगे जैसा कुछ. ये नहीं बर्दाश्त होगा मुझसे कि आदत सी पड़ी हो और तुम ना हो एक बौखलाई सी सुबह. तो हलके से 'फेड टु ब्लैक' मेरी जिंदगी से फेड आउट कर जाना...अक्स दर अक्स, लम्स दर लम्स, लम्हा दर लम्हा. एक एक पल करके मुझसे दूर जाना...एक एक कदम करके...मुझे थोड़ा वक़्त देना...जब मैं रातों को रोऊँ कि तुम नहीं रहोगे उस वक़्त अपने कंधे पर रो लेने देना मुझे. जैसे हम पूरी जिंदगी धीमे धीमे मौत की तरफ बढ़ते हैं...वैसे ही. अचानक से मत जाना...मर जाउंगी.
--------फेड टु ब्लैक-------

आलंबन

रात ठहरी हुयी है
जहाँ अलाव में मैं सेंक रही हूँ
अपनी ठिठुरती उँगलियाँ
नाखून जैसे नीले से पड़ गए हैं

मेरे हाथ अब बहुत उदास लगते हैं
और थके हुए भी
उम्र का लम्बा सफ़र इन्होने काम किया है
मेरी जिंदगी चलती रहे, इसकी खातिर

अब आसार नज़र आने लगे हैं
झुर्रियों के, थरथराहट के
ठंढे रहते हैं मेरे हाथ अक्सर
झीने ठंढ वाले मौसम में भी

उम्र के साथ रक्त संचालन धीमा पड़ता है
पहले दिल धड़कता था कितनी तेज़
जब छू भी जाता था तुम्हारा हाथ
अलाव सी जलती थी हथेली, देर तक

याद है तुमने एक बार मेरा हाथ थामा था
लम्बी पतली उँगलियाँ, तराशे हुए नाखून
जिंदगी की गर्मी से लबरेज, तुमने कहा था
कितने खूबसूरत हैं तुम्हारे हाथ

आज जीवन की इस सांझ में
अकेले पड़ गए हाथों में
कोई ऊष्मा ढूंढती हूँ
रुक जाने का कोई आलंबन

अब तो आगे बढ़ कर मेरा हाथ थाम लो.

07 January, 2011

गिरहें


उसने गीत को अपना क़त्ल करने दिया...और वह आँखों को बंद कर अपने जिस्म में बंदी हो गयी. शब्द होने के बावजूद वो बहुत अकेली थी. उसे बहुत दिनों बाद जाकर समझ आया है कि लोग नितांत अकेलेपन से घबराकर शायद आत्महत्या कर लेते होंगे.

वायलिन बजता रहा देर शाम और वो छत की आखिरी सीढ़ी पर पांव रोके खड़ी रही. उसे बेतरह अकेला महसूस हो रहा था और किसी से बात करने की नाकाबिले बर्दाश्त इच्छा हो रही थी. पर उसे ये बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि वो किससे बात करे. दुनिया में इस तरह एकदम अकेला होना उसे बहुत खल रहा था. गीत में बोल नहीं थे...उसे सुनना ऐसा था जैसे एकाकी समंदर की ओर ना लौटने के लिए बढ़ना...जैसे बिना जिरह किये मौत को पथरीली आँखों से खुद के पास धीमे धीमे आते हुए देखना. 

दुनिया में बहुत से लोग थे जो उससे बात कर सकते थे...पर उसका किसी से भी बात करने का मन नहीं था...उसे अचानक से लगा कि उसकी दुनिया एकदम खाली हो गयी है, वो किसी से भी प्यार नहीं करती है. इस ख्याल से उसे बहुत डर लगा. उसकी जिंदगी में ऐसा कोई लम्हा नहीं था जब उसे किसी से प्यार ना हो...अपनेआप से भी नहीं. उसे प्यार की लत लगी हुयी थी, ये लत शराब या सिगरेट से काफी ख़राब होती है. वायलिन के तार से उसकी नसें कट रही थीं और खून जमीन पर रिसता जा रहा था. 

उसे पहाड़ बहुत पसंद थे और समंदर भी...मगर फिलहाल उसे पहाड़ों से नीचे गिर जाना और समंदर में डूब जाना जिंदगी का मकसद दिख रहा था. लहरें आती रहे और खुली आँखों से जिंदगी को दूर जाती देखती रहे...मौत क्या बहुत तकलीफदेह होती होगी? जिंदगी से ज्यादा?

06 January, 2011

एक लेखक का कन्फेशन- २

वो:   क्या लिख रही हो?
मैं:   कुछ
वो:   कुछ माने? तुमको पता नहीं है कि क्या लिख रही हो.
मैं:   नहीं
वो:   तो फिर क्यों लिख रही हो? लिखने का कोई मकसद, कोई मंजिल होनी चाहिए ना?
मैं:   अच्छा? ऐसा होना जरूरी है क्या? और अगर ना हो तो, लिखने का कोई तयशुदा मकसद ना तो हो, लिखना लिखना नहीं       रहेगा? तो फिर क्या रह जाएगा? मकसद?
वो:   मैंने तो बस यूँ ही पुछा था कि क्या लिख रही हो, तुम तो मुझे ही सवालों से बाँधने लगी. आजकल तुम इतने सवाल करने लगी हो, पहले तुम कितनी खुशगवार बातें किया करती थी.
मैं:   तुम्हें संतोष हो जाएगा अगर मैं ये कहूँ कि मैं तुम्हें भुलाने के लिए बहुत से किरदार रच रही हूँ जो बिलकुल तुम्हारे जैसे नहीं हैं? कि मैं बहुत सी कहानियां लिख रही हूँ जो तुम्हारी बात कहीं भी नहीं कहते...तुम मान लोगे कि मैं तुम्हें याद ना करने के लिए अपनी कलम इस्तेमाल करती हूँ. लोगों को जैसे पी के नशा होता है मुझे लिख के होता है, या कहो...लिखने के दौरान होता है.
वो:   तुम मुझे भुलाना चाहती क्यों हो, मेरे होने के साथ जीना इतना मुश्किल तो नहीं है.
मैं:   मुश्किल तो नहीं है, सच कहते हो...मुश्किल तो सिगरेट ना पीना है, मुश्किल तो ये सोचना है कि आज ग्लास में कितनी आइस क्यूब्स डालूं...या फिर सर्दी है थोड़ी, नीट पी लूं क्या, मुश्किल तो ये सारे निर्णय हैं. तुम्हारे होने के साथ जीना तो इनके सामने खिलवाड़ लगता है. तुम समझ रहे हो ना?
वो: जान...अगर मैं कहूँ कि सिगरेट और शराब छोड़ तो तो प्लीज ऐसा करोगी?
मैं:    नहीं, तुम्हें ये कहने का कोई हक नहीं है.
वो:   आजकल तुम अबूझ होती जा रही हो मेरे लिए.
मैं:   अच्छा है...इसी तरह अबूझ होते हुए अनजान होकर तुम्हारे लिए भूलने लायक हो जाउंगी, जो बातें समझ में नहीं आती उन्हें याद रखना हद दर्जे का मुश्किल काम है...कुछ कुछ वैसा जैसे कि सुबह डिसाइड करना कि आज तुमसे मिलने कौन से कपड़े पहन कर आऊं. शायद एक दिन ऐसा आएगा जब मुझे सचमुच यकीन हो जाए कि कपड़ों से कोई फर्क नहीं पड़ता...कि तुम मेरी रूह से प्यार करते हो.
वो:   करता हूँ...तुम्हारी रूह से प्यार करता हूँ, पर एक बात समझाओ. प्यार तो हमेशा अपनी जगह था, प्यार होने के लिए तुम्हारे पास होना जरूरी नहीं होता. फिर जब तुम पास नहीं होती हो, याद किसकी आती है? प्यार कहीं चला तो नहीं जाता...याद तो इस खुशबू की आती है ना, तुम्हारी उँगलियों की आती है जो मेरी उँगलियों में फंसी हुयी हैं. मेरे कंधे पर जो तुम सर टिकाये बैठी हो इस अहसास की आती है. फिजिकली पास होना भी उतना ही जरूरी है.
मैं:   मुझे लगता है मैं ये कहानी पूरी नहीं कर पाउंगी.
वो:   क्यों?
मैं:   सच और झूठ के बीच की लकीरें धुंधलाने लगी हैं. मुझे लगता है मैंने आज कुछ ज्यादा पी ली है...वो तुम्हारे आने की ख़ुशी और तुम्हारे जाने का ग़म एक साथ था ना, इसलिए. तुम यूँ एक दिन के लिए मुझसे मिलने मत आया करो.
वो:   देखो...अल्कोहल हेल्थ के लिए ठीक नहीं होता.
मैं:  नहीं, मोडरेट क्वांटिटी में अल्कोहल दिल के लिए अच्छा होता है, ऐसा रिसर्च में आया है. और चूँकि दिल में तुम रहते हो तो अल्कोहल तुम्हारे लिए भी फायदा करेगा. तुम्हारे लिए पी रही हूँ जान.
वो:  सुबह होने को आई, उजास फूट रही है.
मैं:  तुम्हारे जाने वाली सुबह...कितनी चुभती है.
वो:   मैं बैठा हूँ...तुम कहानी पूरी कर लो, फिर जाऊँगा.
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उसने कभी कहानी पूरी नहीं की...हर बार वो देर रात तक एक कहानी की बातें करते थे. उसे कहानी लिखनी थी, पर पूरी नहीं करनी थी क्योंकि उसके हमराही का वादा था कहानी पूरी होने तक साथ रहने का.
उसकी कलम में स्याही की जगह शराब भरी होती थी...वो लिखती थी तो उसे नशा चढ़ता था, वो पीती थी तो उसे लिखने का मन करता था.
कहानी मुकम्मल नहीं थी...पर लिखना, बेहद मुकम्मल हुआ करता था.

भोर का अनर्गल प्रलाप

मुझे कभी नहीं लगता था कि मुझे कार चलाने में मज़ा आएगा. बचपन में इस जिद के कारण ड्राइविंग सीखी ही नहीं, कार को मैं डब्बा बोलती थी...बैठे और चले गए, कितना बोरिंग है. पापा ने बिगाड़ भी तो रखा था, १५ साल की उम्र में राजदूत सिखा कर...बाइक चलाने में मज़ा आता था, थ्रिल महसूस होता था. और वो कच्ची उम्र थी तो लोगों की शक्लों पर बदहवासी देख कर बेहद अच्छा लगता था. मेरी साथ की दोस्तों में से किसी ने भी बाइक नहीं सीखी थी. आज तक भी कम लोगों को जानती हूँ, कई तो यकीन ही नहीं करते कि मैं राजदूत चलाती थी. कुणाल ने भी जब पहली बार छोटे भाई को देखा राजदूत पर तब जाके माना कि मैं चलती होउंगी कभी. वो शादी का पहला साल था, साड़ी पहन कर ससुराल में थी...पर अपनी राजदूत देखते ही सब छोड़ के चलाने का मन करने लगा.
खैर...मैं बात कर रही थी कि क्यों मुझे लगता था कि मुझे कार चलाने में मज़ा नहीं आएगा...कि बहुत बोरिंग है. मेरी फ्लाईट और मैं जैसे एक जान हैं. मैं स्कोडा फाबिया चलाती हूँ...कल मैं दूसरी बार लॉन्ग ड्राईव पर गयी, अकेले. तो महसूस किया कि मुझे प्यार हो गया है, कार ड्राईविंग से :) वैसा ही अहसास होता है, कुछ नया करने पर, दिल की धड़कने बढ़ी रहती हैं, मूड अच्छा अच्छा सा रहता है और दिल बस ऐसे ही गीत गाता रहता है.
मुझे लगता है कि जिंदगी में हमेशा कुछ नया सीखते रहना चाहिए, इससे जिंदगी खुशगवार रहती है. नया करने में जो थ्रिल आता है उससे हर दिन को एक नया मकसद मिलता है. इधर काफी दिनों से कुछ नया सीखा नहीं था तो मज़ा नहीं आ रहा था जीने में. आजकल फिर से सुबह उठती हूँ तो सोचती हूँ कि आज कार लेकर किधर जाऊं...ये और बात है कि रोज नहीं जाती हूँ, पर फिर भी सुबह को सोचने के लिए एक अच्छी चीज़ तो मिलती है.
पैदल चलने पर हर तरफ घूरते लोग होते हैं, आश्चर्य होता है कि इतने सालों बाद भी आदत नहीं पड़ी है. या ये भी हो सकता है कि बाइक चलाने के कारण अब लोगों के घूरते हुए देखने की आदत ख़त्म हो गयी है. एक सेकंड के अन्दर आप किसी के सामने से गुज़र जाते हैं...उसपर हेलमेट, जैकेट तो बहुत हद तक लगता है कि नज़रें कुछ देख नहीं पाएंगी. कार चलाना इस सुरक्षा को एक कदम आगे ले जाता है. कार मेरी खुद की पूरी दुनिया है, जहाँ मैं एकदम महफूज़ हूँ, जहाँ कोई घूरेगा नहीं. कल मोहल्ले में भी गाड़ी चलाई तो अहसास हुआ इस बात का और भी शिद्दत से.
मुझे समझ नहीं आता है कि हमारा समाज किधर गलती कर रहा है कि आखिर क्यों लड़कियां तो घूरते नहीं चलती लड़कों को...पर जहाँ तीन शोहदे खड़े हैं दूर से किसी लड़की पर नज़र चिपकाये रखेंगे. ऐसे में कई बार दिल करता है कि ऐसे ही उठ कर थप्पड़ मार दूं. कोई पूछे कि क्यों तो कहूँ कि ये जो घूर रहे हो तुम बिना मतलब के, मेरा भी बिना मतलब के थप्पड़ मारने का मन किया. या फिर तुम्हारे देखने से उतनी ही तकलीफ होती है जितनी तुम्हें इस थप्पड़ से हुयी है. लड़कियां घूरने की चीज़ नहीं हैं...तमीज का ये चैप्टर लगता है आजकल माँ-बाप अपने बेटों को पढ़ाते ही नहीं.
सुबह सुबह मन बहुत भटकता है...खैर.
ऑफिस जाने का टाइम हो रहा है...कार की बड़ाई फिर कभी.

05 January, 2011

ढाई आखर प्रेम का

इश्क सवालों की एक उलझी हुयी गुत्थी ही तो है और क्या. आज मैं आपको एक लड़की की कहानी सुनाती हूँ जिसकी जिंदगी में सवाल रास्तों की तरह खड़े हो जाते हैं...हर सवाल चुनने के पहले उसे ये भी देखना पड़ता है कि सवाल का उत्तर दे कर उसे ले जाने वाला सपनों का शहजादा दिखता कैसा है.
एक छोटे शहर की आम लड़की थी वो...नहीं नहीं वो रहती दिल्ली में ही थी, पर कहते हैं ना, कुछ शहर हमारे दिल के तहखानों में बसे होते हैं. उसकी दिली ख्वाहिश थी कि कोई शब्दों से उसका दिल चुरा कर ले जाए, पर उसे डर ये लगता था कि कोई उसकी सूरत पर ना मर मिटे...खुदा ने उसे कमाल का हुस्न बक्शा था...रंग जैसे दूध के मर्तबान में किसी ने सिन्दूर का हाथ लगा दिया हो गुलाबी उजला, गोल मासूम चेहरा और बड़ी बड़ी सुरमई आँखें...सपनीली, खोयी खोयी सी, उसपर हर रंग के कपड़े फबते थे पर जब वो वासंती पीला पहनती थी तो जैसे शरद में भी फूल खिल उठते थे.
उसके कमरे में फिल्म सितारों के नहीं किताबों के पहले पन्ने शीशे में मढ़ कर टंगे रहते थे...आलमारी पर उसने काफी कुछ चिपका रखा था, कई सारी पंक्तियाँ मोती जैसे अक्षरों में, अखबार की कतरनें, पत्रिकाओं से काटे गए चित्र. लड़की को लिखने का शौक़ भी एक ऐसे ही शायर को पढ़ कर जागा था. उसका पसंदीदा शगल था लेखकों को ख़त लिखना...लड़की का सोचना था कि तारीफ और बुराई दिल खोल कर करनी चाहिए, उसे कोई पसंद आता तो पन्ने दर पन्ने भर देती...लड़की ऐसा ही इश्क के बारे में सोचती थी, कि कुछ बचा कर नहीं करना...इश्क है तो पूरा है, मन से और आत्मा से है.
लड़की को अक्सर प्यार हो जाता, तब वो बेसब्री से अपने लेखक को पढ़ती...नायिका की जगह खुद को रखती, नाराज़ होती, मनुहार करती...कल्पना की एक पूरी दुनिया बस जाती उसके इर्द गिर्द, जिसमें कुछ पंक्तियाँ होती...कुछ फलसफे होते. बस वादे नहीं होते उसकी प्रेम कहानी में...ना मिलने का, ना बिछड़ने का. उसने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा...उसका प्यार एकतरफा होके भी पूरा था क्योंकि प्यार सवाल नहीं करता था...वो खुद भी सवाल कहाँ करती थी कभी. उसके खतों में उसका नाम तक नहीं लिखा होता था कभी...पर उसके ख़त किसी बेहतरीन साहित्यिक रचना से कम नहीं होते थे. जिन खुशकिस्मत लेखकों को उसके ख़त मिले थे, वो अक्सर उसकी बातें किया करते थे. ऐसी कोई महफ़िल नहीं होती जिसमें उसके चर्चे नहीं होते.
सब कुछ अच्छा चल रहा था...बस एक दिन आलमारी ने गलती कर दी, आपको आलमारी याद है, जिसमें उसने कई पंक्तियाँ अपनी खूबसूरत लेखनी में सजा रखी थीं? एक शाम उसके घर एक मेहमान आया, उसे किसी कवि सम्मलेन में भाग लेना था. जैसा कि अधिकतर घरों में होता है, एक पंक्ति का परिचय दिया गया दोनों का, बस...और बात वहीं ख़त्म हो जाती पर चूँकि लड़की की अगले दिन हिंदी की वार्षिक परीक्षा थी, उसके पिता ने आगंतुक से उसके उत्तर जांच लेने को कहे. लड़की के कमरे में जाते ही लेखक ठिठक गया...लेखक जिसका कि नाम अक्षर था सवालों में घिर गया. आलमारी पर लिखे शब्द चलचित्र से उसकी आँखों में घूमने लगे...और एक पुराने कागज़ की लेखनी से हूबहू मिलने लगे. उसे एक मिनट का एकांत चाहिए था...सिगरेट के बहाने से निकला और लाइटर की रौशनी में उसने कई जगह से मुड़ा वो कागज़ निकाला...पास से देखने में कागज़ थोड़ा जल भी गया, पर पंक्तियाँ एकदम अलमारी पर की लेखनी से मेल खाती थीं.
अक्षर को चक्कर आ गया...तबीयत ठीक ना होने की बात कर के वो अपने कमरे में आराम करने चला गया. सारी रात वह सोचता रहा...उस ख़त के बारे में. क्या वो सच में लड़की का पहला ख़त था, उसे उससे पहला प्यार हुआ था? लड़की ने कभी ना अपना नाम बताया, ना पता...बस साल, महीने हफ़्तों उसके ख़त आते रहे. वह कहाँ भूल पाया था वो पहला ख़त, आज भी तो हमेशा अपने बटुए में लेके घूमता फिरता है. फिर क्या करना चाहिए उसे? पूछ ले उससे...बता दे कि उसके खतों ने कैसे उसे जिलाए रखा है, घनघोर गरीबी, दुत्कार और हर तरफ अस्वीकृतियों के बावजूद...उसके ख़त ने प्राण फूंके हैं उसके लेखन में. कि उसकी हर कृति में दीपशिखा सी वो जली है.
फिर उसकी आँखों में उभरा लड़की का चेहरा, उसकी चकित आँखें जब वो उसके कमरे में ठिठक गया था...उसका वो सवाल कि क्यों, क्या बात हुयी भला? आप मुझे पढ़ने से क्यों इंकार कर रहे हैं. कि वो उलझन में पड़ गया कि प्यार कहाँ था...उन खतों से या इस पनियाली आँखों वाली लड़की से प्रथम दृष्टि में जो हुआ वो प्यार था. कि क्या ये दोनों एक ही हैं, प्यार के दो रंग?
अगले दिन उसकी वापसी थी, उसने बस एक बार लड़की को आँखों से पिया...और विदा हो गया. लगभग तीन महीने बाद, लड़की के नाम एक ख़त आया...एक पुस्तक के विमोचन का आमंत्रण था और पुस्तक की पहली प्रति लेखक के दस्तखत के साथ थी.
उसने पूरी रात जाग कर उपन्यास पढ़ा, पूरा सच लिखा गया था सारे खतों के साथ...उपन्यास का अंत एक सवाल पर था, तुम्हारी जिंदगी में मेरी कोई जगह हो सकती है? लड़की सोचती रही, सोचती रही...सारे लेखक, उनको लिखे सारे ख़त...इश्क का हर पन्ना उसकी आँखों में तैरता रहा...पर हर रंग से गाढ़ा रंग था पहले प्यार का, पहले ख़त का. पर उसका सवाल अब भी बाकी था...सवालों का सही उत्तर देकर उसे ले जाने वाला सपनो का शहजादा दिखता कैसा है?
भोर के साथ सवाल एक ही रह गया था...इश्क का चेहरा कैसा होता है? कैसी होती हैं वो आँखें जिनसे इश्क देखता है. लड़की ने  वसंत के कपड़े पहने थे...और विमोचन पर जब उसने अक्षर को देखा...तो उसके सारे सवाल कहीं खो गए. सारे चौराहे, तिराहे, दोराहे मिल गए और एक गुलाब की पंखुड़ियों सा रास्ता सामने बिछ गया. पहला प्यार इतना खूबसूरत होता है, उसने पहली बार जाना. शब्दों में बंधा इश्क स्वतंत्र हुआ और मुकम्मल भी हुआ.

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